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स्याद्वाद
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ही सम्भव नहीं है । किन्तु एक साथ अनन्त धर्मों का निर्वचन नहीं हो सकता। दूसरे धर्मों का विधान और निषेध न करते हुए किसी एक धर्म का विधान करना ही स्याद्वाद है। अनेकान्त वाच्य और स्याद्वाद वाचक है । अमुक अपेक्षा से घट सत् ही है और अमुक अपेक्षा से घट असत् ही है, यह स्याद्वाद है । इसमें यह प्रदर्शित किया गया है कि स्वचतुष्टय से घट की सत्ता निश्चित है और परचतुष्टय से घट की असत्ता निश्चित है। इस कथन में संशय को कोई स्थान नहीं है। किन्तु 'स्यात्' शब्द के प्रयोग को देखकर, स्याद्वाद की गहराई में न उतरने वाले कुछ लोग, यह भ्रमपूर्ण धारणा बना लेत हैं कि स्थाद्वाद अनिश्चय की प्ररूपणा करता है ।
वस्तुतः 'स्यात्' शब्द का अर्थ न 'शायद' है, न 'सम्भवतः' है और न 'कदाचित्' जैसा ही है। वह तो एक सुनिश्चित सापेक्ष दृष्टिकोण का द्योतक है। प्रो० बलदेव उपाध्याय ने लिखा है'अनेकान्तवाद संशयवाद नहीं है।' परन्तु वे उसे 'सम्भवतः' अर्थ में प्रयुक्त करना चाहते हैं, मगर यह भी संगत नहीं है।
शंकराचार्य ने अपने भाष्य में स्याद्वाद को संशयवाद कहकर जो भ्रान्त धारणा उत्पन्न को थी, उसकी परम्परा अब भी बहुत अंशों में चल रही है। किन्तु प्रोफेसर फणिभूषण अधिकारी ने आचार्य शंकर की धारणा के सम्बन्ध में लिखा है-"जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है, उतना अन्य किसी भी सिद्धान्त को नहीं । यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं है । उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय ही किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी, किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हैं। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन की परवाह नहीं की।" ___स्पष्ट है कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है । सभी दर्शन किसी न किसी रूप में इसे स्वीकार करते हुए भी इसका नाम लेने में हिचकते हैं।
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