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धर्म और दर्शन
पाश्चात्य विद्वान् थामस का यह कथन ठीक ही है कि-"स्याद्वाद सिद्धान्त बड़ा गम्भीर है । यह वस्तु की भिन्न-भिन्न स्थितियों पर अच्छा प्रकाश डालता है । स्थाद्वाद का अमर सिद्धान्त दार्शनिक जगत् में बहुत ऊँचा सिद्धान्त माना गया है । वस्तुतः स्याद्वाद सत्य ज्ञान की कुञ्जी है । दार्शनिक क्षेत्र में स्याद्वाद को सम्राट् का रूप दिया गया है। स्यात् शब्द को एक प्रहरी के रूप में स्वीकार करना चाहिए, जो उच्चारित धर्म को इधर-उधर नहीं जाने देता है । यह अविवक्षित धर्मों का संरक्षक है, संशयादि शत्रुओं का संरोधक व भिन्न दार्शनिकों का संपोषक है।
जिन दार्शनिकों की भाषा स्याद्वादानुगत है, उन्हें कोई भी दर्शन भ्रमजाल के चक्र में नही फंसा सकता।
एकबार भगवान् महावीर के समक्ष प्रश्न उपस्थित हुआ, साधु को किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए ? उत्तर में भगवान ने कहा-साध को विभज्यवाद३२ का प्रयोग करना चाहिए । टीकाकार ने विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद किया है । क्या संशयात्मक वाणी का प्रयोग करके कोई दर्शन जीवित रह सकता है ? विरोध का निराकरण :
शंकराचार्य ने अपने शांकरभाष्य में स्याद्वाद के निरसन का प्रयत्न करते हुए यह भी कहा है-शीत और उष्ण की तरह एक धर्मी में परस्पर विरोधी सत्त्व और असत्त्व आदि धर्मो का एक साथ समावेश नहीं हो सकता। किन्तु स्याद्वाद के स्वरूप को जिसने समझ लिया है, उसके समक्ष यह आरोप हास्यास्पद ही ठहरता है। प्राचार्य से यदि प्रश्न किया गया होता-'आप कौन हैं ?' तो वे
३२. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा ।
-सूत्रकृतांग, १।१४।२२ ३३. न हि एकस्मिन् धर्मिणि युगपत् सदसत्त्वादिविरुद्धधर्मसमावेशः सम्भवति शीतोष्णवत् ।
-शांकरभाष्य,
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