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स्याद्वाद
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उत्तर देते–'मैं संन्यासी हूँ।' पुनः प्रश्न किया जाता-'आप गृहस्थ हैं या नहीं ?' तो वे कहते- 'मैं गृहस्थ नहीं हैं।' अब तीसरा प्रश्न उनसे यह किया जाता-- पाप हूँ' भी और 'नहीं हूँ' भी कहते हैं, इस परस्पर विरोधी कथन का क्या आधार है ? तब प्राचार्य को अनन्यगत्या यही कहना पड़ता- संन्यासाश्रम की अपेक्षा हूँ, गृहस्थाश्रम की अपेक्षा नहीं है, इस प्रकार अपेक्षाभेद के कारण मेरे उत्तरों में विरोध नहीं है।
बस, यही उत्तर स्याद्वाद है। सत्त्व और असत्त्व धर्म यदि एक ही अपेक्षा से स्वीकार किये जाएँ तो परस्पर विरोधी होते हैं, किन्तु स्वरूप से सत्त्व और पररूप से असत्त्व स्वीकार करने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है, जैसे-मैं संन्यासी हूँ और संन्यासी नहीं हैं, यह कहना विरुद्ध है, किन्तु मैं संन्यासी हूँ, गृहस्थ नहीं हूँ, ऐसा कहने में कोई विरोध नहीं है। नयवाद :
नयवाद को स्याहाद का एक स्तम्भ कहना चाहिए। स्याद्वाद जिन विभिन्न दृष्टिकोणों का अभिव्यंजक है, वे दृष्टिकोण जैन परिभाषा में नय के नाम से अभिहित होते हैं। पहले कहा जा चुका है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वस्तु के उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म का बोधक अभिप्राय या ज्ञान नय है ।
प्रमाण वस्तु के अनेक धर्मों का ग्राहक होता है और नय एक धर्म का । किन्तु एक धर्म को ग्रहण करता हुअा भी नय दूसरे धर्मों का न निषेध करता है और न विधान ही करता है । निषेध करने पर वह दुर्नय हो जाता है ।३५ विधान करने पर प्रमाण की कोटि में परिगणित हो जाता है । नय, प्रमाण और अप्रमाण दोनों से भिन्न प्रमाण का एक अंश है, जैसे समुद्र का अंश न समुद्र है, न असमुद्र है,
३४. अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः ।
नयो धर्मान्तरापेक्षी, दुर्नयस्तन्निराकृतिः ।। ३५. स्वाभिप्रेतादशादितरांशापलापी पुनर्नयाभासः ।
-प्रमाणनयतत्त्वालोक, वाविदेव ।
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