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________________ धर्म और दर्शन वरन् समुद्रांश है । 3 नय का ग्राह्य भी वस्त्वंश ही होता है । विश्व के सभी एकान्तवादी दर्शन एक ही नय को अपने विचार का आधार बनाते हैं । उनका दृष्टिकोण एकांगी होता है । वे भूल जाते हैं कि दूसरे दृष्टिकोण से विरोधी प्रतीत होने वाला विचार भी संगत हो सकता है । इसी कारण वे एकांगी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं और वस्तु के समग्र स्वरूप को स्पर्श नहीं कर पाते । वे सम्पूर्ण सत्य के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं । नयवाद अनेक दृष्टिकोणों से वस्तु को निरखने परखने की कला सिखलाता है । बौद्धदर्शन वस्तु के अनित्यत्व धर्म को स्वीकार करके द्रव्य की अपेक्षा पाये जाने वाले नित्यत्व धर्म का निषेध करता है । सांख्यदर्शन नित्यत्व को अंगीकार करके पर्याय की दृष्टि से विद्यमान प्रनित्यत्व धर्म का अपलाप करता है। इस प्रकार ये दोनों दर्शन अपने-अपने एकान्त पक्ष के प्रति प्राग्रहशील होकर एक-दूसरे को मिथ्या कहते हैं । वे नहीं जानते कि दूसरे को मिथ्यावादी कहने के कारण वे स्वयं मिथ्यावादी बन जाते हैं । अगर उन्होंने दूसरे को सच्चा माना होता तो वे स्वयं सच्चे हो जाते, क्योंकि वस्तु में द्रव्यतः नित्यत्व और पर्यायतः अनित्यत्व धर्म रहता है । १२६ इस प्रकार नयवाद द्वीत प्रत, निश्चय व्यवहार, ज्ञान-क्रिया, काल-स्वभाव-नियति यदृच्छा - पुरुषार्थ आदि वादों का सुन्दर और समी चीन समन्वय करता है । नयवाद दुराग्रह को दूर करके दृष्टि को विशालता और हृदय को को उदारता प्रदान करता है । वह वस्तु के विविध रूपों का विश्लेषण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । आचार्य समन्तभद्र ने कहा है- "हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार विविध रसों द्वारा सुसंस्कृत लोह स्वर्ण आदि धातु पौष्टिकता और स्वास्थ्य आदि अभीष्ट फल प्रदान करती हैं, उसी प्रकार 'स्यात्' पद से अंकित आपके नय ३६. नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि । नायं वस्तु न चावस्तु, वस्त्वंशो कथ्यते बुधैः ।। Jain Education International - श्लोकवात्तिक, विद्यानन्द, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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