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________________ स्याद्वाद १२७ मनोवांछित फल के प्रदाता हैं, अतएव हितैषी आर्य पुरुष प्रापको नमस्कार करते हैं। कहा जा चुका है कि प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की प्रक्रिया निरन्तर चालू है। स्वर्णपिण्ड से एक कलाकार घट बनाता है। फिर उस स्वर्णघट को तोड़कर मुकुट बनाता है । यहाँ प्रथम पिण्ड के विनाश से घट की और घट के विनाश से मुकूट की उत्पत्ति होती है, मगर स्वर्णद्रव्य सब अवस्थानों में विद्यमान रहता है। यह द्रव्य से नित्यता और पर्याय से अनित्यता है। जिसने दूध ही ग्रहण करने का नियम अंगीकार किया है वह दधि नहीं खाता । दधि खाने का नियम लेने वाला दूध का सेवन नहीं करता। किन्तु गोरस का त्याग कर देने वाला दोनों का सेवन नहीं करता। इससे स्पष्ट है कि दुग्ध का विनाश, दधि की उत्पत्ति और गोरस की स्थिरता होने से वस्तू का पर्याय से उत्पाद-विनाश होने पर भी द्रा से ध्रौव्य रहता है। इस उदाहरण से वस्तु की सामान्य विशेषात्मकता भी प्रमाणित हो जाती है। प्राशय यह है कि प्रत्येक वस्तु के दो मुख्य अंश हैं--द्रव्य और पर्याय । अतएव द्रव्य को प्रधान रूप से ग्रहण करने वाला दृष्टिकोण द्रव्यार्थिक नय और पर्याय को ग्रहण करने बाला पर्या धार्थिक नय कहलाता है। यद्यपि वस्तगत अनन्त धर्मों को ग्रहण करने वाले अभिप्राय भी अनन्त होते हैं, और इस कारण नयों की संख्या का अवधारण नहीं किया जा सकता, तथापि उन सब का समावेश ३७. घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ -प्राचार्य समन्तभद्र, ३८. पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ।। ---प्राचार्य समन्तभद्र, ३६. जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुति नयवाया। --सन्मतितर्क, प्राचार्य सिद्ध सेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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