SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म और दर्शन द्वेष के द्वारा ही अष्टविध कर्मों का बंधन होता है । अतः राग द्वेष को ही भाव कर्म माना है। राग-द्वेष का मूल मोह ही है।। ___आचार्य हरिभद्र ने लिखा है--जिस मनुष्य के शरीर पर तेल चुपड़ा हया हो, उसका शरीर उड़ने वाली धूल से लिप्त हो जाता है, वैसे ही राग द्वष के भाव से पाक्लिन्न हुए आत्मा पर कर्म रज का बंध हो जाता है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्यात्व को जो कर्मबन्धन का कारण कहा है, उसमें भी राग द्वष ही प्रमुख हैं। राग-द्वेष की तीव्रता से ही ज्ञान विपरीत होता है । इसके अतिरिक्त जहाँ मिथ्यात्व होता है वहाँ अन्य कारण स्वतः होते हैं । अतः शब्द भेद होने पर भी सभी का सार एक है। केवल संक्षेप-विस्तार के विवक्षाभेद से उक्त कथनों में भेद समझना चाहिए। जैन दर्शन की तरह बौद्धदर्शन ने भी कर्मबंधन का कारण मिथ्याज्ञान अथवा मोह माना है । २ न्याय दर्शन का भी यही मन्तव्य है कि मिथ्याज्ञान ही मोह है, प्रस्तुत मोह केवल तत्त्वज्ञान की अनुत्पत्ति रूप नहीं है, किन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन, वेदना, बुद्धि ये ७१. ६९. बद्ध यतेऽष्टविधेन कर्मणा येन हेतुभूतेन तद् बन्धनम् । -प्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति, प्राचार्य नमि ७०. उत्तराध्ययन ३२१७ (ख) स्थानाङ्ग २१२ (ग) समयसार ६४१६६।१०९।१७७ (घ) प्रवचनसार ११८४८८ स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, - रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । राग-द्वषाक्लिनस्य, कर्म-बंधो भवत्येवम् ॥ -आवश्यक टीका ७२. सुत्तनिपात, ३।१२।३३ (ख) विसुद्धिमग्ग, १७।३०२ (ग) मज्झिम निकाय, महातण्हासंखयसुत्त, ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy