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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
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पं० सुखलाल जी ने६५ सिर्फ एक समय की मानी है। योग होने पर भी अगर कषायाभाव हो तो उपार्जित कर्म की स्थिति या रस का बंध नहीं होता। स्थिति और रस दोनों का बंध का कारण कषाय ही है।
विस्तार से कषाय के चार भेद हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ ।६६ स्थानाङ्ग और प्रज्ञापना में कर्म बंध के ये चार कारण बताये हैं। संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं राग और द्वेष । राग और द्वष इन दोनों में भी उन चारों का समन्वय हो जाता है। राग में माया और लोभ, तथा द्वष में क्रोध और मान का समावेश होता है। राग और
६५. तत्त्वार्थ सूत्र-पं० सुखलाल जो पृ० २१७ ६६. कोहं च मारणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थ-दोसा ।
-सूत्रकृताङ्ग, सूत्र ६।२६ (ख) स्थानाङ्ग ४।१।२५१
(ग) प्रज्ञापना २३।१।२६० ६७. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं ।
-उत्तरा० ३२७ ६८. दोहिं ठाणेहि पापकम्मा बंधति""रागेण य दोसेण य । रागे दविहे पण्णत्त ।"माया य लोभे य । दोसे दुविहे.""कोहे य मारणे य।
-स्थानाङ्ग सूत्र २६३ (ख) जीवेणं भंते, णाणावरणिज्जं कम्मं कतिहि ठाणेहि बंधति ?
गोयमा ! दोहिं ठाणेहि, तंजहा-रागेण य दोसेण य । रागे विहे पण्णत्त तं जहा-माया य लोभे य । दोसे दुविहे पण्णत्त तं जहा-कोहे य माणे य।
-प्रज्ञापना, २३ (ग) परिणमदि जदा अप्पा, सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं, णाणावरणादिभावेहि ।।
-प्रवचनसार, गा० ६५
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