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________________ श्रमण संस्कृति और तप प्रतिसलीनता (४) विविक्तरायनासनसेवनता के रूप में चार प्रकार का है । और इनके भी अनेक उपभेद हैं।११ प्राभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं-५२ (७) प्रायश्चित्त--पूर्वकृत दोषों की आलोचना कर आत्मविशुद्ध यर्थ प्रायश्चित ग्रहण करना। प्रायश्चित्त पाप का छेदन करता है और चित्त को विशुद्ध करता है ।५४ प्रायश्चित्त तप के भी दस भेद हैं-(१) आलोचनाह (२) प्रतिक्रमरणार्ह (३) तदुमयाह (४) विवेकार्ह (५) व्युत्सर्गार्ह (६) तपार्ह (७) छेदाह (८) मूलाई (६) अनवस्थाप्याई (१०) पारांचितार्ह ।५५ ५१. इन्दियकसायजोगे, पडुच्च संलोणया मुणेयव्वा । तह जा विवित्तचरिया, पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ -उत्तरा० ३०१२८ नेमिचन्द्रीय टीका में उद्धृत ५२. पायच्छितं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झारणं च विउस्सगो, एसो अभितरो तवो।। --उत्तराध्यन ३०।३० (ख) प्रायश्चितविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । ___ तत्वार्थ सूत्र अ० ६ सू० २० (ग) स्थानाङ्ग ६ सू० ५५१ (घ) मूलाचार-वट्टकेर गा० ३६० (ङ) प्रवचन सारोद्धार गा० २७०-७२ ५३. आलोयणारिहाईयं पायच्छित्त तु दसविहं । जं भिक्खू वहइ सम्मं पायच्छित्त तमाहियं ।। -उत्तरा० ३० ५४. पापं छिनत्ति यस्मात् प्रायश्चित्तमिति भण्यते तस्मात्, प्रायेण वापि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तम् । -दशवकालिक ११ हारिभद्रीया वृत्ति में उद्धृत ५५. आलोयणपडिक्कमणे मीराविवेगे तहा विउस्सग्गे, तवमूलमणवट्ठया य पारंचिए चेव । ... दशवकालिक ११ हारिभद्रीया वृत्ति में उद्धृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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