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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
ज्ञानावरण कर्म
जीव चैतन्यमय है। उपयोग उसका लक्षण है ।१९ उपयोग शब्द ज्ञान और दर्शन का संग्राहक है। ज्ञान साकारोपयोग है और दर्शन निराकारोपयोग ।।०१ जिससे जाति, गुण, क्रिया आदि विशेष धर्मों का बोध होता है वह ज्ञानोपयोग है और जिससे सामान्य धर्म अर्थात् सत्ता मात्र का बोध होता है वह दर्शनोपयोग है।०२ जिस कर्म के प्रभाव से ज्ञानोपयोग आच्छादित रहता है वह ज्ञानावरण कर्म है। आत्मा के ज्योतिर्मय स्वभाव को आवत करने वाले इस कर्म की तुलना कपड़े की पट्टी से की गई है। जैसे नेत्रों पर कपडे की पटटी लगा देने से नेत्र-ज्ञान अवरुद्ध हो जाता है वैसे हो ज्ञानावरण कर्म के प्रभाव से प्रात्मा की समस्त पदार्थों को सम्यक्तया जानने की ज्ञानशक्ति पाच्छादित हो जाती है । ०3
६६. जीवो उवओग लक्षणो।
-उत्तरा० २८।१० १००. जीवो उवओगमओ, उवोगो णाणदंसणो होई ।
-नियमसार, १० १०१. स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।
-तत्त्वार्य० २६ (ख) तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य राक्ष १०२. प्रमाणनयतत्त्वालोक २७ १०३. एसि जं आवरणं पडुव्व चक्खुस्स तं तयावरणं ।
-प्रथम कर्मग्रन्थ, ६ (ख) पडपडिहारसिमिज्जाहलिचित्तकुलालभंडयारीणं, जह एदेसि भावा तहवि य कम्मा मुणेयव्वा ।
-गोमटसार (कर्मकाण्ड) २१
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