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________________ ६६ धर्म और दर्शन ज्ञानावरण कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं - (१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण ( ३ ) अवधि ज्ञानावरण ज्ञानावरण (५) केवल ज्ञानावरण । १०४ (४) मनःपर्याय मतिज्ञानावरण कर्म इन्द्रियों व मन से होने वाले ज्ञान का निरोध करता है । श्रुतज्ञानावरण कर्म शब्द और अर्थ की पर्यालोचना से होने वाले ज्ञान को प्राच्छादित करता है । अवधिज्ञानावरण कर्म इन्द्रिय और मन की सहायता के विना होने वाले रूपी पदार्थों के मर्यादित प्रत्यक्ष ज्ञान को अवरुद्ध करता है । मनः पर्यायज्ञानावरण कर्म इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान को ग्राच्छादित करता है । केवल ज्ञानावरण कर्म, सर्व द्रव्यों और पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को प्रावृत करता है । ज्ञानावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ सर्व घाती और देश घाती रूप से दो प्रकार की हैं । १०५ जो प्रकृति स्वघात्य ज्ञान गुण का पूर्णतया घात करे वह सर्वघाती है और जो स्वघात्य ज्ञान गुण का आंशिक रूप से घात करे वह देशघाती है । मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्याय ज्ञानावरण ये चार (ग) सरउग्गयस सिनिम्मलयरस्स जीवस्स छायरणं जमिहं । णाणावरणं कम्मं पडोवमं होइ एवं तु ॥ - स्थानांग, २।४।१०५ टीका में उद्धृत १०४. नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं च तइयं मणनाणं च केवलं । ( ख ) प्रज्ञापना २३|२ (ग) स्थानाङ्ग ५।४६४ (घ) तत्त्वार्थ० ८।६–७ - उत्तराध्ययन० ३३।४ १०५. णाणावरणिज्जे कम्मे दुविहे पं० तं० – देसनाणावर णिज्जे चेव सव्वणाणावर णिज्जे चेव । Jain Education International - स्थानाङ्ग सूत्र २०४।१०५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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