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धर्म और दर्शन
सीधा असर श्रात्मा के ज्ञान प्रादि गुणों पर होता है । इनसे गुरण विकाश अवरुद्ध होता है, जैसे बादल सहस्ररश्मि सूर्य के चमचमाते प्रकाश को आच्छादित कर देता है, उसकी रश्मियों को बाहर नहीं आने देता, वैसे ही घात कर्म आत्मा के मुख्य गुण ( १ ) अनन्त ज्ञान (२) अनन्त दर्शन (३) अनन्त सुख ( ४ ) और अनन्त वीर्य गुणों को प्रकट नहीं होने देता । ज्ञानावरणीय कर्म जीव की अनन्त ज्ञान शक्ति को प्रकट नहीं होने देता । दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के अनन्त दर्शन शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकता है। मोहनीय कर्म ग्रात्मा के सम्यक् श्रद्धा, और सम्यक् चारित्र गुण का अवरोध करता है, जिससे आत्मा को अनन्त सुख प्राप्त नहीं होता । अन्तराय कर्म श्रात्मा की अनन्त वीर्यशक्ति आदि का प्रतिघात करता है, जिससे प्रात्मा अपनी अनन्त विराट् शक्ति का विकास नहीं कर पाता। इस प्रकार घातकर्म आत्मा के विभिन्न गुणों का घात करते हैं ।
जो कर्म आत्मा के निज गुण का घात नहीं कर केवल आत्मा के प्रतिजीवी गुणों का घात करता है, वह प्रघाती कर्म है । प्रघाती कर्मों का सीधा सम्बन्ध पौद्गलिक द्रव्यों से होता है, इनकी अनुभाग- शक्ति जीव के गुणों पर सीधा असर नहीं करती । अघाती कर्मों के उदय से आत्मा का पौगलिक द्रव्यों से सम्बन्ध जुड़ता है । जिससे आत्मा "अमूर्तोऽपि मूर्त इव" रहती है । उसे शरीर के कारागृह में बद्ध रहना पड़ता है । जो जीव के गुण ( १ ) अव्याबाध सुख ( २ ) अटल अवगाहन (३) मूर्तिकत्व और ( ४ ) प्रगुरुलघुभाव को प्रकट नहीं होने देता । वेदनीयकर्म आत्मा के अन्याबाध सुख को प्राच्छन्न करता है । आयुष्य कर्म ग्रात्मा की अटल अवगाहना - शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता । नाम कर्म आत्मा की प्ररूपी अवस्था को प्रावृत किये रहता है । गोत्र कर्म आत्मा के अगुरुलघुभाव को रोकता है । इस प्रकार अघाती कर्म अपना प्रभाव दिखाते हैं । जब घाति कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब श्रात्मा केवलज्ञान, केवलदर्शन का धारक अरिहन्त बन जाता है ।" और जब अघाती कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब विदेह, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है ।
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मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय - क्षयाच्च केवलम् ।
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- तत्त्वार्थ १०/१
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