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धर्म और दर्शन
ज्ञानदान :
ज्ञान के अभाव में मानव अन्धा है। अंधे को नेत्र मिलने पर जितनी प्रसन्नता होती है, उससे भी अधिक अज्ञानी को ज्ञान प्राप्त होने पर होती है। ज्ञानदान से ही प्राणी हिताहित तथा तत्त्व अतत्त्व को जानता है और व्रत को ग्रहण करता है ।१ पहले ज्ञान है, फिर दया है । १०२ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ ज्ञान के द्वारा सिद्ध होते हैं। अतः ज्ञानदान देने वाला इन चारों को पाने का अधिकारी होता है । १3 जल, अन्न, गौ, भूमि, वस्त्र, तिल, सुवर्ण तथा घत जैसे पदार्थों के दान से ज्ञान का दान कहीं अधिक उत्कृष्ट है।०४
दान धर्म का शिलान्यास है। इस शिलान्यास पर ही धर्म का सुहावना सौध निमित हो सकता है। एडीसन के शब्दों में दान ही धर्म का पूर्णत्व और उसका आभूषरण है । १०५ विक्टर ह्यगो ने कहा है, ज्यों ही पर्स (बटुग्रा) रिक्त होता है, हृदय समृद्ध होता है।०६ दान असंख्य पापों का छादन करने वाला है, अतः इस सनातन नियम को स्मरण रखो कि यदि तुम प्राप्त करना चाहते हो तो अर्पित करना सीखो।०८ दान 'प्रिजर्व' नहीं किन्तु 'यो' है। मौसम पर
१०१. ज्ञानदानेन जानाति, जन्तुः स्वस्य हिताहितम् । वेत्ति जीवादितत्त्वानि, विरतिं च समश्नुते ।।
-त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र १११११५५ १०२. पढमं नाणं तओ दया ।
-दशवकालिक, अ०४ १०३. आचार्य अमितगति, १०४. सर्वेषामेव दानानां, ब्रह्मदानं विशिष्यते । वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम् ॥
-मनुस्मृति ४।१३३ १०५. ज्ञानगंगा। १०६. अमरवाणी। १०७. पीटर महान् । १०८. सुभाषचन्द्र बोस ।
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