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धर्म और दर्शन
जब कभी भी महात्मा बुद्ध से प्रात्मा के सम्बन्ध में किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया तब उसका उत्तर न देकर वे मौन रहे हैं। मौन रहने का कारण पूछने पर उन्होंने कहा–यदि मैं कहूँ कि आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं और यदि कहूँ कि आत्मा नहीं है तो लोग उच्छेदवादी हो जाते हैं, एतदर्थ उन दोनों के निषेध के लिए मैं मौन रहता हूँ।४५ एक स्थान पर नागार्जुन लिखते हैं-"बुद्ध ने यह भी कहा है कि प्रात्मा है और यह भी कहा है कि प्रात्मा नहीं है । बुद्ध ने आत्मा अनात्मा किसी का भी उपदेश नहीं दिया।
आत्मा क्या है ? कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा ? इन प्रश्नों के उत्तर भगवान् महावीर ने स्पष्टता से प्रदान किये हैं। उनका उत्तर देते समय बुद्ध ने उपेक्षा प्रदर्शित की है और उन्हें अव्याकृत कहकर छोड़ दिया है। वे मुख्यतः दुःख और दुःख निरोध, इन दो तत्त्वों पर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को कहा-"तीर से व्यथित व्यक्ति के घाव को ठीक करने की बात विचारनी चाहिए । तीर कहाँ से आया है ? किसने मारा है ? इसे किसने बनाया है ? मारने वाले का रंग रूप कैसा है ? आदि आदि प्रश्न करना निरर्थक है।"
बौद्ध दर्शन में आत्म तत्त्व के लिए पृथक्-पृथक् स्थलों पर कहीं मुख्य रूप से और कहीं गौण रूप से अनेक शब्द व्यवहृत हुए हैं। जैसे कि पुग्गल, पुरिस, सत्त, जीव, चित्त, मन, विज्ञान, नाम रूप आदि ।४८ ४५. अस्तीति शाश्वतग्राही, नास्तीत्युच्छेददर्शनम् । तस्मादस्तित्व-नास्तित्वे; नाश्रीयेत विचक्षणः ।।
-माध्यमिक कारिका १८।१० ४६: आत्मेत्यपि प्रज्ञापित-मनात्मेत्यपि देशितम् । बुद्ध त्मिा न चानात्मा, कश्चिदित्यपि देशितम् ।।
-माध्यमिक कारिका १६६ (क) मिलिन्द प्रश्न २।२५-३३ पृ० ४१-५२ (ख) न्यायावतारवार्तिक वृत्ति की प्रस्तावना पृ० ६
(ग) मज्झिमनिकाय, चूलमालुक्य सुत्त ६३ ४८. सब्बे सत्ता अवेरा""सब्बे पाणा"सब्बे भूता""सब्बे पुग्गला""।
-पटसंभिदा २११३०
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