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अध्यात्मवाद : एक अध्ययन
लौकिक दृष्टि से आत्मा की सत्ता है; जो विज्ञान वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप-इन पाँच स्कन्धों का संघातमात्र है किन्तु पारमार्थिक रूप से प्रात्मा नहीं है ।४९
"मिलिन्द प्रश्न" में भदंत नागसेन और राजा मिलिन्द का संवाद है। राजा मिलिन्द के प्रश्न के उत्तर में भदन्त नागसेन ने बताया कि पुद्गल का अस्तित्व केश, दाँत प्रादि शरीर के अवयवों तथा रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार, विज्ञान इन सबकी अपेक्षा से है, किन्तु पारमार्थिक तत्व नहीं हैं ।५०
संक्षेप में यदि कहना चाहें तो बौद्धदर्शन आत्मा को स्थायी नहीं, किन्तु चेतना का प्रवाहमात्र मानता है। दीपशिखा के रूपक से प्रस्तुत कथन का प्रतिपादन किया गया है। जैसे दीपक की ज्योति जगमगा रही है। किन्तु जो लौ पूर्व क्षण में है, वह द्वितीय क्षण में नहीं। तेल प्रवाह रूप में जल रहा है, लौ उसके जलने का परिणाम है, प्रतिपल, प्रतिक्षण वह नई उत्पन्न हो रही है किन्तु उसका बाह्य रूप उसी प्रकार स्थितिशील पदार्थ के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। बौद्धदर्शन के अनुसार प्रात्मा के सम्बन्ध में भी ठीक यही स्थिति चरितार्थ होती है । स्पष्ट है कि बौद्ध-दर्शन अनात्मवादी होते हुए भी आत्मवादी है। वैदिक दृष्टि :
उपनिषद् आदि परवर्ती साहित्य में जिस प्रकार प्रात्म-मीमांसा की गई है वैसी मीमांसा वेदों में नहीं है ।
कठोपनिषद् में नचिकेता का एक मधुर प्रसंग है। बालक नचिकेता के पिता ऋषि वाजश्रवस् ने भीष्म प्रतिज्ञा ग्रहण की कि "मैं सर्वस्व दान दूंगा।" प्रतिज्ञानुसार सब कुछ दान दे दिया । बालक नचिकेता ने विचार किया-पिता ने अन्य वस्तुएं तो दान दे दी हैं पर अभी तक मुझे दान में क्यों नहीं दिया ? उसने पिता से पूछा-आप
(ख) विशुद्धिमग्ग, ६।१६ ४६. मिलिन्द प्रश्न ५०. मिलिन्द प्रश्न २।४। सू० २६८ ।
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