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________________ ११२ धर्म और दर्शन कोई न कोई पर्याय भी अवश्य होते हैं। जो जीव है वह मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर अथवा सिद्ध में से कुछ अवश्य होगा और जो मनुष्य आदि किसी पर्याय के रूप में दृष्टिगोचर होता है वह जीव अवश्य होता है। द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य है, क्योंकि जीव द्रव्य का कभी विनाश नहीं हो सकता, मगर पर्यायों का परिवर्तन सदैव होता रहता है। इस दृष्टि में ध्यान देने योग्य बात यह है कि इससे शाश्वतवाद और उच्छेदवाद-दोनों का समन्वय हो जाता है। प्रत्येक द्रव्य शाश्वत है किन्तु उसके पर्यायों का उच्छेद होता रहता है। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि द्रव्य और उसके पर्याय पृथक्पृथक् दो वस्तुएं नहीं हैं। उनमें वस्तुगत कोई भेद नहीं है, केवल विवक्षाभेद है। अनेकान्तदर्शन के अनुसार प्रत्येक सत् पदार्थ उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है, अर्थात् पर्याय से उत्पन्न और विनष्ट होता हुआ भी द्रव्य से ध्रुव है। कोई भी वस्तु इसका अपवाद नहीं है ।१४ जब कभी कोई पूर्व परिचित व्यक्ति हमारे समक्ष उपस्थित होता है तब हम कहते हैं 'यह वही है।' वर्षा होते ही भूमि शश्यश्यामला हो जाती है, तब हम कहते हैं हरियाली उत्पन्न हो गई । हमारे हाथ में कपूर है यह देखते-ही-देखते उड़ जाता है, तब हम कहते हैं वह नष्ट हो गया। यह वही है'-यह नित्यता का सिद्धान्त है । 'हरियाली उत्पन्न हो गई-यह उत्पत्ति का सिद्धान्त है और वह नष्ट हो गया-यह विनाश का सिद्धान्त है । द्रव्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में परिणामवाद, प्रारम्भवाद और समूहवाद आदि अनेक विचार हैं। उसके विनाश के सम्बन्ध में भी रूपान्तरवाद, विच्छेदवाद आदि अनेक अभिमत हैं । सांख्यदर्शन परिणामवादी है, वह कार्य को अपने कारण में सत् मानता है । सत् कर्मवाद के अभिमतानुसार जो असत् है उसकी उत्पत्ति नहीं होती और जो सत् है उसका विनाश नहीं होता, किन्तु केवल रूपान्तर १४. सद् द्रव्य लक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । -तत्त्वार्थ सूत्र १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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