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________________ स्याद्वाद १११ आशय यह हुआ कि प्रत्येक वस्तु में किसी अपेक्षा से दोष हैं तो किसी पेक्षा से गुण भी हैं । यह अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद का रूप नहीं तो क्या है ? स्वामी दयानन्द सरस्वती से पूछा गया - 'आप विद्वान् हैं या अविद्वान् ?' स्वामी जी ने कहा - ' दार्शनिक क्षेत्र में विद्वान् और व्यापारिक क्षेत्र में विद्वान् ।' यह अनेकान्तवाद नहीं तो क्या है ? बुद्ध का विभज्यवाद एक प्रकार का अनेकान्तवाद है । उनका मध्यममार्ग भी अनेकान्त से प्रतिफलित होने वाला वाद ही है । सांख्य एक ही प्रकृति को सतोगुण, रजोगुण और तमोगुणमयी मानकर अनेकान्त को ही अंगीकार करते हैं । पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो आदि ने समस्त विश्ववर्ती पदार्थों को और असत् इन दो में समाविष्ट करके समन्वय की महत्ता बतलाते हुए जगत् की विविधता सिद्ध की है । सत् आइन्स्टीन का सापेक्षसिद्धान्त स्याद्वाद की विचारधारा का अनुसरण करता है । इन कतिपय उदाहरणों से पाठक समझ सकेंगे कि अनेकान्तवाद एक ऐसा व्यापक दृष्टिकोण है कि दार्शनिक जगत् में उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । किसी न किसी रूप में प्रत्येक दर्शन को उसका आश्रय लेना ही पड़ता है । सामान्य रूप से अनेकान्त के सम्बन्ध में इतना ही जान लेने के पश्चात् अब हमें अनेकान्त के प्रकाश में प्रतिफलित होने वाले कतिपय मुख्यवादों का विचार भी कर लेना चाहिए। वे वाद इस प्रकार हैं । नित्यानित्यता कान्तवादी दृष्टिकोण के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्यानित्य है । द्रव्य और पर्याय का सम्मिलित रूप वस्तु हैं, या यों कहा जा सकता है कि द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं । पर्यायों के अभाव में द्रव्य का और द्रव्य के अभाव में पर्याय का कोई अस्तित्व सम्भव नहीं है । जहाँ जीवद्रव्य है वहाँ उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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