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स्याद्वाद
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होता है । उत्पत्ति का तात्पर्य है - सत् की अभिव्यक्ति और विनाश का तात्पर्य है - सत् की व्यक्ति । न्याय-वैशेषिक दर्शन आरम्भवादी है । वह कार्य को अपने कारण में सत् नहीं मानता । असत् कार्यवाद के मतानुसार प्रसत् की उत्पत्ति होती है और सत् का विनाश होता है । एतदर्थ ही नैयायिक ईश्वर को कूटस्थ नित्य और दीपक को सर्वथा अनित्य मानते हैं । बौद्धदर्शन के अनुसार स्थूलद्रव्य सूक्ष्म अवयवों का समूह है, तथा द्रव्य क्षणविनश्वर है । उनके विचारानुसार कुछ भी स्थिति नहीं है । जो दर्शन एकान्त नित्यवाद को मानते हैं वे भी जो हमारे प्रत्यक्ष है. उस परिवर्तन की उपेक्षा नहीं कर सकते। और जो दर्शन एकान्त नित्यवाद को मानते हैं वे भी जो हमारे प्रत्यक्ष हैं उस स्थिति की उपेक्षा नहीं कर सकते । एतदर्थ ही नैयायिकों ने दृश्य वस्तुओं को ग्रनित्य मानकर उनके परिवर्तन की विवक्षा की और बौद्धों ने सन्तति मानकर उनके प्रवाह की विवेचना की ।
आधुनिक वैज्ञानिक रूपान्तरवाद के सिद्धान्त को एक मत से स्वीकार करते हैं । जैसे एक मोमबत्ती है, जलाने पर कुछ ही क्षणों में उसका पूर्ण नाश हो जाता है । प्रयोगों के द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि मोमबत्ती के नाश होने पर अन्य वस्तुओं की उत्पत्ति होती है ।
इसी प्रकार पानी को एक वर्तन में रखा जाये, और उस बर्तन में दो छिद्र कर तथा उनमें कार्क लगाकर दो प्लेटिनम की पत्तियाँ उस पानी में खड़ी कर दी जायें और प्रत्येक पत्ती पर एक काँच का ट्यूब लगा दिया जाय तथा प्लेटिनम की पत्तियों का सम्बन्ध तार से बिजली की बैटरी के साथ कर दिया जाये तो कुछ ही समय में पानी गायब हो जायेगा । साथ ही उन प्लेटिनम की पत्तियों पर अवस्थित ट्यूबों पर ध्यान केन्द्रित किया जायेगा तो दोनों में एक-एक तरह की गैस
१५. · A text book of Inorganic Chemistry by J. R. Parting. N.P. 15
१६.
A text Book of Inorganic Chemistry by. G. S.-Neuth, P. 237
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