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________________ धर्म का प्रवेशद्वार दान ने वृद्ध गाएँ ब्राह्मणों को समर्पित की। यह दान था, या दान का उपहास था ? इसे ही 'मरी बछिया बाम्हन के नाम' कहते हैं । दान सुख की कुंजी है । जैन दर्शन ने लाभालाभ की दृष्टि से चित्त, वित्त और पात्र की महत्ता पर प्रकाश डाला है । द्रव्य देय और पात्र की शुद्धता से ही दान में चमक पैदा होती है । ४५ तीनों में एक की भी न्यूनता होने पर उत्कृष्ट फल की उपलब्धि नहीं हो सकती । जैन दर्शन की भाँति बौद्ध दर्शन ने भी दान के तीन उपकरण नाने हैं - ( १ ) दान की इच्छा (२) दान की वस्तु, (३) और दान लेने वाला । एक समय श्रावस्ती में कौशलराज प्रसेनजित ने महात्मा बुद्ध से कहा - भन्ते ! किसे देना चाहिए ? उत्तर में बुद्ध ने कहा - महाराज ! जिसके मन में श्रद्धा हो ।४६ द्वितीय प्रश्न किया-भंते ! किसको देने से महाफल होता है ? उत्तर दिया- महाराज शीलवान् को दिये गये दान का महाफल होता है । ४७ वैदिक धर्मं ने भी देश, काल, और पात्र की महत्ता स्वीकार की है । ४८ जैसे मोदक के निर्माण में घी, शक्कर, और मेदे की आवश्यकता होती हैं वैसे ही दान के लिए भी चित्त, वित्त, और पात्र की आवश्यकता है । ४४. कठोपनिषद् ४५. ४६. ४७. ४८. २०७ दव्वसुद्धणं, दायगसुद्ध ेणं, पडिग्गहसुद्ध ेणं, तिविहं तिकरणसुद्ध गं दाणे संयुत्त निकाय, 'इस्सत्य सुत्त' ३|३|४ संयुक्त निकाय, इस्सत्थ सुत्त ३३३३४ देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं विदुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only - भगवती श० १५ - गीता श्र० १७ श्लो० २० www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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