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धर्म और दर्शन
इन प्रश्नों के समाधान के दो उपाय हैं-निष्ठा और तर्क । निष्ठा से धर्म का जन्म होता है और तर्क से दर्शन का। किन्तु धर्म और दर्शन, दोनों विषय अत्यन्त गम्भीर हैं और उनमें व्यापक भाव निहित है । अतएव उचित होगा कि उनके सम्बन्ध में यहां संक्षेप में विचार कर लिया जाए। धर्म क्या है ? ___'धर्म' एक बहुप्रचलित शब्द है। इस देश में अधिक से अधिक प्रचलित और प्रयुक्त होने वाले शब्दों में 'धर्म' शब्द की गणना की जा सकती है। पठित और अपठित सभी वर्गों के लोग दैनिक व्यवहार में सहस्रों बार इस शब्द का प्रयोग करते हैं। फिर भी निस्संकोच कहा जा सकता है कि धर्म के मर्म को पहचानने वाले बहुत कम लोग हैं। अधिकांश लोग जाति एवं समाज में पुरातन काल से चली आती परम्पराओं, रूढ़ियों या धारणाओं में धर्म की कल्पना कर लेते हैं और उन्हीं के पालन को धर्म का पालन मान लेते हैं । उन्हीं का पालन करके वे सन्तुष्ट हो जाते हैं और अन्तिम समय तक धोखे में रहते हैं । । समाज में एक वर्ग ऐसा है, जो धन के विषय में प्रमाणभूत समझा जाता है। किन्तु दुर्भाग्य से उसमें भी अधिकांश व्यक्ति ऐसे होते हैं जो धर्म की वास्तविकता से अनभिज्ञ होते हैं। अन्धे के नेतृत्व में चलने वाले अन्धों की जो गति होती है, वही जनसाधारण की भी गति होती है।
धर्म का सम्बन्ध कई लोग लौकिक कर्त्तव्यों या वर्तमान जीवन के साथ ही जोड़ते हैं, तो कई लोग सिर्फ प्रात्मा के शाश्वत कल्याण के साथ । किन्तु सूक्ष्म और गंभीर विचार करने पर विदित होगा कि धर्म वास्तव में एकांगी नहीं है । उसमें मनुष्य के लौकिक और आध्यात्मिक सभो कर्तव्यों का समावेश होता है। मनुष्य को अपनी आत्मशुद्धि के लिए या अपने शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि के लिए जिन नियमों या विधि-निषेधों का अनुसरण करना चाहिए, उनका समावेश तो धर्म में होता ही है, मगर उसके समस्त लौकिक कर्तव्य भी धर्म के अन्तर्गत ही हैं । मनुष्य का अन्य प्राणियों के प्रति क्या कर्तव्य है ? अगर
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