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धर्म और दर्शन
मानवमस्तिष्क जिज्ञासाओं का महासागर है । उसमें विविध प्रकार के चिन्तन की ऊर्मियाँ उठती ही रहती हैं । अन्तर्जगत् और बहिर्जगत् के विषय में अनेक विध प्रश्न उद्भूत होते रहते हैं । "मैं क्या हैं ? कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नहीं ? होगा तो कहाँ, किस रूप में होगा ?" ये कतिपय प्रश्न उन प्रश्नों में से हैं, जो अपने अन्तर्जगत् के विषय में उत्पन्न होते हैं और कभी-कभी मनुष्य को बेहद परेशान कर देते हैं ।
एक
इस प्रकार बहिर्जगत् के सम्बन्ध में भी सैकड़ों जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती रहती हैं । हमारे चारों ओर फैला हुआ यह विशाल विश्व, जिसका कहीं प्रोर छोर नजर नहीं प्राता, क्या है ? यह प्राणिसृष्टि और जड़ सृष्टि क्या है ? विश्व की आदि है या नहीं ? है तो कब इसकी रचना हुई ? विश्व का अन्त होगा या यह शाश्वत है ? अन्त होगा तो कब होगा ?
१. पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा पच्चत्थिमाओ वा''''उत्तराओ वा''''उड्ढाओ वा "अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि ? एवमेगेसि णो णायं भवइ - अत्थि मे आया उववाइए, णत्थि मे आया उववाइए ? के अहमंसि ? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ?
(ख) कोऽहं कीहक् कुत आयातः
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- श्राचारांग १-१
-चर्पट पंजरिका, प्राचार्य शंकर
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