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________________ धर्म और दर्शन इस प्रकार जैन दर्शन और अन्य दर्शनों में कर्म बंध के कारणों में शब्दभेद और प्रक्रियाभेद होने पर भी मूल भावनाम्रों में खास भेद नहीं है । ईश्वर और कर्मवाद : ५८ जैन दर्शन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है ।" न्यायदर्शन " की तरह वह कर्म फल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता । कर्म फल का नियमन करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है । कर्म परमाणुत्रों में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम समुत्पन्न होता है । जिससे वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति प्रभृति उदय के अनुकूल सामग्री से विपाक - प्रदर्शन में समर्थ होकर आत्मा के संस्कारों को मलिन करता है । उससे उनका फलोपभोग होता है। पीयूष और विष, पथ्य और पथ्य भोजन में कुछ भी ज्ञान नहीं होता, तथापि श्रात्मा का संयोग पाकर वे अपनी अपनी प्रकृति के अनुकूल विपाक उत्पन्न करते हैं। वह बिना किसी प्रेरणा अथवा बिना ज्ञान के अपना कार्य करते ही हैं | अपना प्रभाव डालते ही हैं । कालोदायी अनगार ने भगवान् श्री महावीर से प्रश्न कियाभगवन् ! क्या जीवों के किये गये पाप कर्मों का परिपाक पापकारी होता है ८०. ८१. ८२. ८३. ८४. ८५. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफलस्य दर्शनात् । (ख) तत्कारित्वादहेतुः । प्रज्ञापना पृष्ठ २३ भगवती ७।१० - उत्तरा० २०|३७ भगवती ७-१० । दव्वं खेत्तं, कालो, भवो य भावो य हेयवो पंच । हेतुसमासेदओ जायइ सव्वाण पगईणं ॥ Jain Education International -न्याय दर्शन, सूत्र ४।१ - गौतमसूत्र, श्र० ४ ० १ सू० २१ For Private & Personal Use Only - पंचसंग्रह www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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