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धर्म और दर्शन
आत्मा शरीर से विलक्षण है।५९ वह वाणी द्वारा अगम्य है ।६० न वह स्थूल है, न ह्रस्व है, न विराट है, न अणु है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न अन्धकार है, न हवा है, न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्रारण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अन्तर है, न बाहर है।६१
उपनिषदों में आत्मा के परिमारण की विभिन्न कल्पनाएँ मिलती हैं।
छान्दोग्योपनिषद् में बताया है-"यह मेरी आत्मा अन्तर्हृदय में रहती है । यह चावल से, जौ से, सरसों से, श्यामाक (साँवा) नामक धान या उसके चावल से भी लघु है ।"६२
बृहदारण्यक में कहा है--"यह पुरुष रूपी आत्मा मनोमय भास्वान् तथा सत्य रूपी है और उस अन्तर्हृदय में ऐसी रहती है जैसे चावल या जौ का दाना हो । ६३
कठोपनिषद् में कहा है-"आत्मा अंगठे जितनी बड़ी है । अंगठे जितना वह पुरुष आत्मा के मध्य में रहता है।"६४
५६. न हन्यते हन्यमाने शरीरे....
-कठोपनिषत् १-२॥१५॥१८ ६०. यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह ।
--तैत्तिरीय उपनिषद् २।४ अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमोऽवाय्वनाकाशमसङ्गमरसमगन्धम चक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनोऽतेजस्कमप्राणममुखममात्रमनन्तरमबाह्यम्....।
-बृहदारण्योपनिषद् ३।८।८ ६२. एष म आत्मान्तहृदयेऽणीयान्त्रीहेर्वा यवाद्वा सर्षपाद्वा श्यामाकाद्वा श्यामाकतण्डुलाद्वा ।
- छान्दोग्योपनिषद् ३३१४।३ ६३. मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तेस्मिन्नन्तहृदये यथा व्रीहि र्वा यवो वा ।
___-- बृहदारण्यक उप० ५।६।१ ६४. अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति । "
-कठोपनिषत् २।४।१२
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