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________________ सेवा : एक विश्लेषण १७७ जैनागमों में सेवा के अर्थ में वेयावडियं' और 'वेयावच्च'४ ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जिनका संस्कृत रूप क्रमशः वयापृत्य और वयावृत्य है। वैयावृत्य का अर्थ है-जिस व्यक्ति को जिस प्रकार ३, (क) वेयावडियं करेह । (ख) वेयावडियं करेंति । -भगवती, शतक ५; उद्देशा ४ सू० १८७ (ग) एयाई तीसे वयणाई सोच्चा, पत्तीइ भद्दाइ सुभासियाई। इसिस्स वेयावडियट्ठयाए, जक्खा कुमारे विणिवारयन्ति ।। -उत्तराध्ययन प्र० १२, गा०२४ (घ) पुब्विं च इण्डिं च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अस्थि कोई । जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति, तम्हा हु एए निहया कुमारा । -उत्तराध्ययन,१२१३२ (ङ) गिहिणो वेयावडियं । -दशवकालिक, प्र० ३, गा० ६ (च) गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा। -दशवकालिक दूसरी चूलिका, गा० ६ ४. (क) वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । -उत्तराध्ययन प्र० ३०३० (ख) उत्तराध्ययन अ० २६-४३ (ग) वेयावच्च वावडभावो इह धम्मसाहणणिमित्त, अण्णाइयाण विहिणो संपायणमेस भावत्थो । -स्थानाङ्ग ५३॥५११। टी०प० ३४६ (घ) भगवती २५७। पृ० २८० (ङ) औपपातिक सूत्र ३०1 पृ० २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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