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सेवा : एक विश्लेषणा
भारतवर्ष का चिन्तन मानव को सदा से यह संदेश प्रदान कर कर रहा है कि सेवा जीवन है, सेवा परम तप है, ' सेवा प्रधान धर्म है । सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं, तप नहीं ।
'सेवा' यह दो अक्षरों का लघु शब्द अपने आप में एक विराट् अर्थ- गरिमा को संजोये हुए हैं । आाज सेवा के अर्थ में सहयोग शब्द व्यवहृत होता है किन्तु सहयोग और सेवा में बहुत बड़ा अन्तर है । सहयोग विनिमय की भावना रहती है । सेवा में समर्पण होता है, सहयोग में अलगाव का भाव निहित है । सहयोग के अन्तस्तल अहंकार हो सकता है, जब कि सेवा में नम्रता के अतिरिक्त अन्य कोई भावना नहीं होती । वह विवेक पर आश्रित है अतः सेवा के अर्थ में सहयोग शब्द का प्रयोग करना, सेवा की 'महान् अर्थसम्पदा को कम करना है ।
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२.
पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाबो, भाणं च विउसग्गो, एसो अव्भिन्तरो तबो ।
- उत्तराध्ययन, ३०, गा० ३०
(ख) औपपातिक तपोधिकार ।
(ग) प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायभ्युत्सगंध्यानान्युत्तरम् ।
-- तत्त्वार्थ सूत्र, प्रध्याय ६, सू० २०
There is No greater religion than Seruice.
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