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धर्म और दर्शन
अभिप्राय यह है कि सभी धर्मों ने, पन्थों ने, सन्तों और महर्षियों ने एक स्वर से ग्रहिसा के महत्व को स्वीकार किया है | २४ हिंसा धर्म, संस्कृति, समाज और राष्ट्र के योगक्षेम का मूलाधार है । अहिंसा के अभाव में धर्म, संस्कृति, समाज और राष्ट्र का कोई भी मूल्य नहीं है ।
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हिंसा एक अमृतकलश के समान है, जिसका स्वाद सभी के लिए मधुर है, मधुरतम है ।
हिंसा और सर्वोदय का घनिष्ठ सम्बन्ध है । ग्रहिंसा ही सर्वोदय की जन्मभूमि है । जो अहिंसक है उसके विराट हृदय में ही सबके उदय, सबके उत्कर्ष, सबके विकास और सबके कल्याण की मंगलमय भावना उद्बुद्ध होती है । सबके जीवनोत्थान की प्रशस्त भावना को प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अहिंसक भावना कहा है । उसे ही आज के चिन्तकों ने सर्वोदय कहा है । यह भी स्मरण रखना चाहिए कि महात्मा गान्धी सर्वोदय के उपदेष्टा थे, पर सर्वोदय शब्द के स्रष्टा नहीं थे । सर्वोदय शब्द का प्रयोग जैनाचार्य समन्तभद्र ने बहुत ही पहले किया है । उन्होंने तीर्थङ्कर के शासन को सर्वोदय तीर्थ कहा है । २५ तीर्थङ्कर का शासन एक ऐसा विशिष्ट और विलक्षण शासन है जिसमें प्राणीमात्र का उत्कर्ष है, सभी का विकास है । सभी का उदय होता है । वह समस्त आपदाओं का अन्तकर है।
सर्वोदय भारतीय चिन्तन का मूलस्वर है । "सब सुखी रहें, सब स्वस्थ रहें, सब कल्याणभागी बनें, कोई कभी दुःखी न हो । २६ "सब
परम धर्मं श्रुतिविदित अहिंसा |
२४.
२५. सर्वापदामन्तकरं निरंतं, सर्वोदयं तीथमिदं तवैव ।
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२६. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ।
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- संत तुलसीदास
- समन्तभद्र
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