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________________ श्रमणसंस्कृति और तप १५१ जिस तप में शारीरिक क्रिया की प्रधानता होती है और जो बाह्य द्रव्यों की अपेक्षायुक्त होने से दूसरों को दृष्टिगोचर होता है वह बाह्य तप है । और जिस तप में मानसिक क्रिया की प्रधानता होती है, अन्तर्वत्तियों की परिशुद्धि मुख्य होती है और जो मुख्य रूप से बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरों को भी नहीं दीखता है, वह आभ्यन्तर तप है ।२९ बाह्य तप के छह भेद हैं (१) अनशन-आहार, जल आदि का एक दिन, या अधिक दिन अथवा जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना अनशन है। इत्वरिकअल्पकालिक और यावत्कथिक-यावज्जीवित, ये मुख्य रूप से दो भेद बाह्यतपः-बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, आभ्यन्तरं-चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति । -समवायाङ्ग सम० ६ को अभयदेव वत्ति (ख) अभितरए-अभ्यन्तरम् -आन्तरस्यैव शरीरस्य तापना त्सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्च, 'बाहिरए' त्ति बाह्यस्यैव शरीरस्य तापनान्मिथ्यादृष्टिभिरपि तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्चेति । -औपपातिक सूत्र ३० को अभयदेव वृत्ति (ग) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् कथमस्याभ्यन्तरत्वम् ? मनोनियमनार्थत्वात् । -तत्त्वार्थसूत्र ६।१६-२०, सर्वार्थसिद्धि अणराणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया, य बज्झो तवो होइ । ---उत्तराध्ययन ३०८ (ख) अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनका - यक्लेशा बाह्य तपः । ___-तत्त्वार्थसूत्र० प्र० ६, सू० १६ (ग) मूलाचार-बट्टकेर ३४६ (घ) ठाणाङ्ग ६ । सू० ५११ (ङ) प्रवचनसारोद्धार गाथा २७०-२७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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