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धर्म और दर्शन
अनन्तवीर्य भी है, अन्य धर्म भी हैं । वस्तुतः ज्ञान और आत्मा में गुण-गुणी का तादात्म्य सम्बन्ध है । ज्ञान गुण है, आत्मा गुणी (द्रव्य ) है । इसी भाव को व्यक्त करने के लिए भगवती सूत्र में कहा हैआत्मा ज्ञान भी है, और ज्ञान के अतिरिक्त भी है किन्तु ज्ञान नियम से आत्मा ही है । आत्मा साक्षात् ज्ञान है, और ज्ञान ही साक्षात् आत्मा है ।" जो ग्रात्मा है वही विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वही आत्मा है । जो इस तत्त्व को स्वीकार करता है वह आत्मवादी है । " ज्ञान और आत्मा के द्वैत को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता है । आत्मा और ज्ञान में तादात्म्य है, वे अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं, जैसा कि कणाद आदि स्वीकार करते हैं ।
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विस्तार की दृष्टि से आत्मा का लक्षण बतलाते हुए भगवान् महावीर ने कहा- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, उपयोग ये जीव के लक्षण हैं ।" अर्थात् आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य (शक्ति) और उपयोगमय है ।
श्रात्मा रूपी है । १२ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है । वह न लम्बा है न छोटा है, न टेढ़ा है न गोल, न चौरस है, न मण्डलाकार है अर्थात् उसकी अपनी कोई आकृति नहीं है । न
ε.
१०.
१२.
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत् करोति किम् ?
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११. नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवओगो य, एवं जीवस्स लक्खरणं ॥
१३.
जे आया से विष्णाया, जे विण्णाया से आया ।
जे विजानाति से आया, तं पडुच्च पडिसखाए, से आयावादी ।
- श्राचारांग १
सेण सद्द े, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे,
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- श्राचार्य अमृतचन्द्र
अरूवी सत्ता ' -- श्राचारांग ६।१।३३३ (ख) चत्तारि अस्थिकाया अरूविकाया पं० तं० जीवत्थिकाए.... ।
—स्थानाङ्ग ४।१।३१४
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- उत्तराध्ययन २८ । ११
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- श्राचारांग ६।१।३३३
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