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धर्म और दर्शन
मैं कौन हूँ, ? कहाँ से आया हूँ, ?' यहाँ से कहाँ जाऊँगा ? क्या मेरा पुनर्जन्म होगा ? मेरा स्वरूप क्या है ? क्या मैं देह हूँ ? इन्द्रिय हूँ ? मन हूँ ? या इन सबसे भिन्न कुछ हूँ ? इन सभी प्रश्नों का सही समाधान भारत के मनीषी मूर्धन्य-मुनियों ने प्रदान किये हैं। भाषा, परिभाषा, प्रतिपादनपद्धति और परिष्कार में अन्तर होने पर भी सूक्ष्म व समन्वय दृष्टि से अवलोकन करने पर सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे सभी एक ही राह के राही हैं। जैन दृष्टि:
भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति का स्वतन्त्र स्थान है, स्वतन्त्र विचारधारा है, और स्वतन्त्र निरूपण पद्धति है । जैन दर्शन को जिनदर्शन या आत्म-दर्शन भी कह सकते हैं। जनदर्शन में आत्मा के लक्षण
और स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्म गम्भीर और व्यापक विचार किया गया है। जैन-दर्शन के अनुसार प्रात्मा चैतन्य स्वरूप है, षट् द्रव्यों में स्वतन्त्र द्रव्य है । नव पदार्थों में प्रथम पदार्थ है। सप्त तत्त्व में प्रथम तत्त्व है।" पंचास्तिकाय में चतुर्थ अस्ति काय है।
१. आचारांग, प्रथम अध्ययन । २. जीवे णं भंते ! जीवे, जीवे जीवे ? गोयमा ! जीवे ताव नियमा जोवे, जीवे वि नियमा जीवे ।
-भगवती ६।१० ३. धम्मो अधम्मो आगासो, कालो पुग्गल जैतवो । ____एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ।।
-उत्तराध्ययन २८ ४. नव सब्भावपयत्था पं० त० जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसवो संवरो णिज्जरा बंधो मोक्खो ।
-ठाणाङ्ग ६८६७ ५. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।
-तत्त्वार्थ० १४ ६. पंच अत्थिकाया पं० त० धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए । आगासस्थिकाए, जीवस्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए ।
-ठाणाङ्ग २२१५३० (ख) भगवती २।१०। पृ० ५२३
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