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धर्म और दर्शन
भगवान महावीर ने द्रव्य में एकता और अनेकता दोनों धर्म मान्य किये हैं। भगवान ने कहा-सोमिल ! द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूं। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से मैं दो हूँ। न परिवर्तन होने वाले प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। परिवर्तित होने वाले उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक हूँ।४८
इस प्रकार भगवान श्री महावीर ने अनेकान्त दृष्टि से प्रत्येक प्रान का समाधान किया। विरोधी प्रतीत होने वाले एकत्व और अनेकत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व, सान्तत्व और अनन्तत्व, सत्त्व और असत्व धर्मों का अनेकान्त दृष्टि से समन्वय किया।
यहाँ पर यह स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि भगवान महावीर की : नेकान्त दृष्टि दो एकान्तों को मिलाने वाली मिश्रदृष्टि नहीं है । किन्तु यह एक स्वतन्त्र और विलक्षण दृष्टि है, जिसमें वस्तु का पूर्ण रूप परिज्ञात होता है और वस्तु के सभी धर्म निर्विरोध रूप से प्रतिभासित होते हैं।
भगवान् ने अपने श्रमणों को भी यह आदेश दिया कि भिक्षुओ ! तुम स्याद्वाद भाषा का ही प्रयोग करो।४९
भगवान श्री महावीर की वाणी में एक शाश्वत सत्य था, जो जन-मन को छू गया था। हिंसा, शोषण और दुराग्रह के स्थान पर अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की अमल-धवल धारा जन-मन में प्रवाहित होने लगी। भगवान के पावन प्रवचनों से पशु और मानवों की बलि बन्द हुई, अहिंसक यज्ञ प्रारम्भ हुए। गुलाम प्रथा का अन्त हमा, नारी और शूद्रों को धर्माधिकार प्राप्त हुए । अपरिग्रह और अनेकान्त की प्राणप्रतिष्ठा हुई।
४८. सोमिला ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, णाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं,
पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं ।
-भगवती ११० ४६. भिक्खु विभज्जवायं च वियागरेज्जा ।
-सूत्रकृताङ्ग १।१४।३२
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