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________________ धर्म का प्रवेश द्वार दान (५) लज्जादान - जनसमूह की बीच बैठे हुए व्यक्ति से जब कोई माँगने लगता है, उस समय देने की इच्छा न होते हुए भी लज्जा के वशीभूत होकर देना । ५४ (६) गौरवदान - यश प्राप्ति के लिये नटों को, पहलवानों को, अपने स्नेही सम्बन्धियों को गौरवपूर्वक देना । १५ (७) धर्मदान -- धर्म की पुष्टि करने के लिए, गंदी वासनात्रों से प्रेरित होकर हिंसा, असत्य, स्तेय, वेश्यागमन, आदि दुष्कृत्यों के पोषण हेतु देना । ५६ (८) धर्मदान - जिनका जीवन त्याग और वैराग्य से परिपूर्ण हो, जिनके लिए तृण, मरिण मुक्ता एक समान हों ऐसे सुपात्र को धर्मभाव से देना । यह दान कभी व्यर्थ नहीं जाता । ७ (६) करिष्यतिदान - भविष्य में प्रत्युपकार की दृष्टि से जो दिया जाता है । अर्थात् भविष्य में इनसे मुझे सहायता प्राप्त होगी, इस अभिप्राय से देना । ५८ ५४. अभ्यर्थितः परेण तु यद्दानं जनसमूहगतः । परचितरक्षणार्थं, लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ॥ ५५. नटनतं मुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धुमित्रेभ्यः । यद्दीयते यशोऽर्थं, गर्वेण तु तद्भवेद्दानम् ॥ ५६. हिंसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः । यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय || ५८. २०६ ५७. समतृणमणिमुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः । अक्षय मतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्माय ॥ १४ -- वहीं १०1३, सू० ७४५ पृ० ४६६ } Jain Education International 9 -स्थानाङ्ग १०।३।७४५ । पृ० ४६६ - स्थानाङ्ग १०।३।७४५ पृ० ४९६ करिष्यति कञ्चनोपकारं ममायमितिबुद्धया । तद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते ॥ -स्थानाङ्ग १०।३।७४५ टोका पु०४६६ - स्थानाङ्ग १०।३।७४५ पृ० ४६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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