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धर्म और दर्शन
दान श्रावक के जीवन का प्रधान गुण है ।२१ द्वादशवतों में अन्तिम व्रत अतिथिसंविभाग व्रत है ।२२ पण्डित राजमल्ल जी ने उसे सबसे बड़ा व्रत कहा है ।२३ जो संविभाग नहीं करता उसकी मुक्ति नही होती ।२४ श्रावक प्रतिदिन प्रातः तीन मनोरथों का चिन्तन करता है। उनमें प्रथम मनोरथ है-जिस दिन मैं अपने परिग्रह को सुपात्र की सेवा में त्याग कर प्रसन्नता अनुभव करूंगा, ममता के भार से मुक्त बनूंगा, वह दिन मेरे लिए कल्याणकारी होगा५ श्रावकों के लिए यह भी विधान है कि भोजन करने के पूर्व कुछ समय तक अतिथि की प्रतीक्षा करें। राजप्रश्नीय सूत्र में सम्राट प्रदेशी का वर्णन है । सम्राट् प्रदेशी के जीवन की तस्वीर केशीश्रमण के उपदेश से बदल जाती है। वह नास्तिक से परम आस्तिक बनता है। श्रमरणोपासक बनते ही वह अपनी राज्य श्री को चार भागों में विभक्त करता है । एक भाग से वह विराट् दानशाला खोलता है। जो भी श्रमरण, ब्राह्मण, भिक्षु, राहगीर आदि आते हैं, उन्हें वह सहर्ष दान करता है ।२६ इतिहासप्रसिद्ध सम्राट् कुमारपाल ने भी
२१. (क) धर्मबिन्दु, आचार्य हरिभद्र,
(ख) धर्मरत्न प्रकरण (ग) योगशास्त्र, हेमचन्द्र,
(घ) श्राद्धगुण विवरण २२. अतिथिसंविभागवए
-उपासक दशांग, अ०१ २३. अतिथिसंविभागाख्यं, व्रतमस्ति व्रताथिनाम् ।।
__ सर्वव्रतशिरोरत्नमिहामुत्र सुखप्रदम् ॥ २४. असंविभागी नहु तस्स मोक्खो।
दश० अ०४ २५. स्थानाङ्गसूत्र ३।४।२१
अहं णं सेयबियानगरीपामोक्खाइ, सत्त गामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि । एगं भागं बलवाहणस्स दलइस्सामि, एवं भागं कोट्ठागारे छभिस्सामि, एगं भागं अन्ते उरस्स दल इस्सामि, एगेरणं भागेरणं महईमहालयं कूडागारं सालं करिस्सामि । तत्थरणं बहूहिं पुरिसेहिं दिन
२६.
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