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“અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૫૮
આરંભસિધ્ધી સટીક
: દ્રવ્ય સહાયક :
કચ્છવાગડ સમુદાયના પૂ. આ. શ્રી કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની પૂ. સાધ્વી શ્રી મયુરકલાશ્રીજી મ.સા.
ની પ્રેરણાથી શ્રી વિમળાબેન સરેમલ ઝવેરચંદજી બેડાવાલા આરાધના ભવન,
હીરાજૈન, સોસાયટી, સાબરમતીના
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સોમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 94265 85904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
003
004
005
006
007
008
009
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014
015
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017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
019
020
021
022
023
024
025
026
027
028
029
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
238
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454
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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138
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(04)
210
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286
216
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
क्रम
कर्त्ता / टीकाकार
91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
सं.
सं.
सं.
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सं./अं
सं.
सं.
सं.
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हिन्दी
सं.
सं./गु
सं.
सं,
सं.
सं. सं.
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
सं./हि
अरविन्द धामणिया
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
पृष्ठ
272
240
254
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466
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134
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404
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274
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400
320
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४
- - -
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम
भाषा प्रकाशक
कर्त्ता / संपादक साराभाई नवाब
महाप्रभाविक नवस्मरण
गुज.
साराभाई नवाब
गुज.
हीरालाल हंसराज
गुज.
पी. पीटरसन
अंग्रेजी
कुंवरजी आनंदजी
शील खंड
133 करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह यशोदेवसूरिजी
135 भौगोलिक कोश- १
डाह्याभाई पीतांवरदास
136 भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास जिनविजयजी
137 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक - १, २
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
जिनविजयजी
क्रम
127
128 जैन चित्र कल्पलता
129 जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग - २
130 ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
131 जैन गणित विचार
132 | दैवज्ञ कामधेनु ( प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
138 जैन साहित्य संशोधक वर्ष १ अंक ३, ४
139 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक - १, २
140 जैन साहित्य संशोधक वर्ष २ अंक-३, ४
४
141 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-१, 142 जैन साहित्य संशोधक वर्ष ३ अंक-३, 143 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ 144 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
145 नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ 146 भाषवति
147 जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
148 मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
149 फक्कीका रत्नमंजूषा- १, २
150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
151 सारावलि
152 ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
153
१
२
ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
नूतन संकलन
आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
श्री गुजराती श्वे. मू. जैन संघ हस्तप्रत भंडार कलकत्ता
सोमविजयजी
सोमविजयजी
सोमविजयजी
शतानंद मारछता
रनचंद्र स्वामी
जयदयाल शर्मा
कनकलाल ठाकूर
मेघविजयजी
कल्याण वर्धन विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी
रामव्यास पान्डेय
हस्तप्रत सूचीपत्र
हस्तप्रत सूचीपत्र
गुज.
सं.
सं./अं.
गुज.
गुज.
गुज.
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
गुज.
गुज.
गुज.
सं./हि
प्रा./सं.
हिन्दी
सं.
सं./ गुज सं. सं.
सं.
हिन्दी
हिन्दी
साराभाई नवाब
साराभाई नवाब
हीरालाल हंसराज
एशियाटीक सोसायटी
जैन धर्म प्रसारक सभा
व्रज. बी. दास बनारस
सुधाकर द्विवेदि
यशोभारती प्रकाशन
गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी
गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
जैन साहित्य संशोधक पुना
शाह बाबुलाल सवचंद
शाह बाबुलाल सवचंद
शाह बाबुलाल सवचंद
एच. बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस
भैरोदान सेठीया
जयदयाल शर्मा
हरिकृष्ण निबंध
महावीर ग्रंथमाळा
पांडुरंग जीवाजी बीजभूषणदास जैन सिद्धांत भवन
बनारस
श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
754
84
194
171
90
310
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100
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244
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार
क्रम
विषय
संपादक/प्रकाशक
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति
कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य
पू. हेमचंद्राचार्य
156 प्राकृत प्रकाश-सटीक
157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति
158 आरम्भसिध्धि सटीक
159 खंडहरो का वैभव
160 बालभारत
161 गिरनार माहात्म्य
162 | गिरनार गल्प
163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
164 भारतिय संपादन शास्त्र
165 विभक्त्यर्थ निर्णय
166 व्योम वती - १
167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक
176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत
179 मुहूर्त संग्रह
180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी
भामाह
ठक्कर फेरू
पू. उदयप्रभदेवसूरिजी
पू. कान्तीसागरजी
पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास
पू. ललितविजयजी
पू. क्षमाकल्याणविजयजी
मूलराज जैन
गिरिधर झा
शिवाचार्य
शिवाचार्य
संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५
- -
यशोविजयजी
व्याकरण
व्याकरण
व्याकरण
धातु
ज्योतीष
शील्प
प्रकरण
साहित्य
न्याय
न्याय
न्याय
उपा.
न्याय
भाव मिश्र
आयुर्वेद
पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
आयुर्वेद
ज्योतिष
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
ज्योतिष
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज
ज्योतिष
ज्योतिष
पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भगवानदास जैन
ज्योतिष
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष
काव्य
तीर्थ
तीर्थ
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत / गुजराती
संस्कृत/ गुजराती
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत / हिन्दी
गुजराती
गुजराती
जोहन क्रिष्टे
पू. मनोहरविजयजी
जय कृष्णदास गुप्ता
भंवरलाल नाहटा
पू. जितेन्द्रविजयजी
भारतीय ज्ञानपीठ
पं. शीवदत्त
जैन पत्र
हंसकविजय फ्री लायब्रेरी
साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी
जैन विद्याभवन, लाहोर
चौखम्बा प्रकाशन
संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय
बद्रीनाथ शुक्ल
शीव शर्मा
लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस
खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी
आनंद आश्रम
मेघजी हीरजी
अनूप मिश्र
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
भगवानदास जैन
शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता
पृष्ठ
304
122
208
70
310
462
512
264
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75
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114
238
166
368
88
356
168
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________________
क्रम
181
182
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमलाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
192
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
विषय
पुस्तक नाम
काव्यप्रकाश भाग-१
काव्यप्रकाश भाग-२
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
183
184 नृत्यरत्न कोश भाग-१
185 नृत्यरत्न कोश भाग- २
186 नृत्याध्याय
187 संगीरत्नाकर भाग १ सटीक
188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक
189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो
193 न्यायविंदु सटीक
194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
195 शीघ्रबोध भाग-६ थी १०
196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग - १६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक
200 | छन्दोनुशासन
201 मग्गानुसारिया
कर्त्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत
पूज्य मम्मटाचार्य कृत
उपा. यशोविजयजी
श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री
नृपति
श्री अशोकमलजी
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
नारद
-
-
-
श्री हीरालाल कापडीया
पूज्य धर्मोतराचार्य
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य गंभीरविजयजी
एच. डी. बेलनकर
श्री डी. एस शाह
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत
गुजराती
संस्कृत
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत/गुजराती
संपादक/प्रकाशक
पूज्य जिनविजयजी
पूज्य जिनविजयजी
यशोभारति जैन प्रकाशन समिति
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री वाचस्पति गैरोभा
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
मुक्ति-कमल जैन मोहन ग्रंथमाला
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
पृष्ठ
364
222
330
156
248
504
448
444
616
632
84
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220
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446
414
409
476
444
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क्रम
पुस्तक नाम
202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका
203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका
204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका
205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका
207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक
208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक
210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक
211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक
212 रायपसेणिय सूत्र
213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १
214 धातु पारायणम्
215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १
216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२
217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह
219
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची ।
220
221
वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
| वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका)
222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्त्ता / टिकाकार
भाषा
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री मलयगिरि
गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
आ. श्री धर्मसूरि
सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत
श्री हेमचंद्राचार्य
आ. श्री मुनिचंद्रसूरि
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
आ. श्री वरदराज
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत
संपादक / प्रकाशक
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री बेचरदास दोशी
श्री बेचरदास दोशी
राजकीय संस्कृत पुस्तकालय
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
पृष्ठ
285
280
315
307
361
301
263
395
386
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260
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530
648
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427
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112
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॥ श्री जिनाय नमः ॥ . श्रीलब्धिसूरीश्वर-जैन-ग्रन्थमालायाः द्वादशो मणिः ॥
श्रीआत्म-कमल-लब्धिसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥ प्रकृष्टप्रभावप्रपन्नश्रीशर्खेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ मन्त्रीश्वरश्रीवस्तुपालमौलिललिताकिमलयमल
श्रीमदुदयप्रभदेवसूरिविरचिता
-
आरम्भसिद्धिः।
अपरनाम-व्यवहारचर्या ।। श्रीज्योतिर्वित्प्रभुश्रीहेमहंसगणिसुविरचितेन सुधीशृङ्गारा
स्येन वार्तिकेन च सुसंस्कृता । प्रत्यूषप्रार्थ्य-स्वपरसमयपारावारपारीण-सूरिसार्वभौम-जैनररन-व्याख्यानवाचस्पतिकविकुल किरीट-पूज्यपाद-आचार्य देवाधीशश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरान्तेवासिसासनप्रभावक-निस्पृहनभोमणि-पन्यासप्रवरश्रीप्रवीणविजयगणिवरशिष्य-भविकवृन्दबोधकवरविबुधमहितप्रतिभाप्रपन्नमुनिप्रवरश्रीमहिमाविजयशिष्याणुना
मुनिजितेन्द्रविजयेन परिशिष्टानुक्रमादिभिः संयोज्य च सम्पादिता । व्याख्यानवाचस्पति-पूज्यपादश्रीमल्लब्धिसूरीश्वराणां सुपट्टप्रभाकर-दक्षिणदेशगतनानाविध-जीवदयाप्रचारक-शासनोद्योतक श्रीमद्विजयगम्भीरसूरिवरोपदेशेन-श्री मद्रास जैन संघ--वितीर्णकिञ्चित्साहाय्येन प्रकाशिता च । प्रकाशयित्री-श्रीलब्धिसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला-छाणी (वडोदरा)
वीर संवत् २४६८
फ्राइस्ट सन् १९४२
वैक्रमीय सं. १९९८
पण्यं २-८-०
Aho! Shrutgyanam
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-: प्राप्तिस्थानः ---
शा. चन्दुलाल जमनादास अवैतनिक कार्यकर्ता श्रीलब्धिसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला छाणी ( वडोदरा)
---:: मुद्रक ::शा. बालचंद हीरालाल श्रीजैन भास्करोदय प्रि. प्रेस
आशापुरा रोड - जामनगर (काठियावाड )
。。
OOOOO • 15
Aho ! Shrutgyanam
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-: प्रास्ताविक निवेदन :
•
परमतारक अने कलिकालमां कल्पवेल समा श्री पतितपावन जिनागम, आजना भारतवर्षीय जैन समाज माटे एक अप्रतिम वारसो छे. श्रीजिनेश्वर प्रभुए अर्थथी कथित वाणीने मंगलनामधेय श्रीमद् गणधर भगवंतोए झीली, वेराएला नव्यपुष्पोने मालानी जेम, ते वाणीनी सूत्रोमा गुम्फन क्रिया करी. तेमज श्रुतनिधानस्थविर पुण्यपुरुषोए पण तदनुसार ग्रन्थगुंफन क्रियाद्वारा भाविमां थनार पुण्यात्माओना केवळ उपकारनेज माटे अनेक अमूल्य ग्रन्थश्रेणीओनी रचना करी. तेवा अनेकानेक ग्रन्थागीय विशेषोमां ज्योतिज्ञान-विषयक पण घणा ग्रन्थो मळो आवे छे. आगम-ग्रन्थोमां श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति - श्रीचन्द्र प्रज्ञप्ति - श्री ज्योतिषकरण्डक आदि ग्रन्थस्नो अग्रस्थान धरावे छे तदनुसार श्रीलमशुद्धि-श्रीदिनशुद्धि - श्रीनारचन्द्र विगेरे ग्रंथो, अगाधज्ञानावगाहक प्राचीन आचार्यपुङ्गवोए रच्या छे. तेज शैलीने अनुलक्षीने - श्रीनागेन्द्रगच्छ गगनविभूषण श्रीमत् शीलगुणसूरि प्रवरनी परम्परागत श्रीदेव चन्द्रसूरि - श्रीमहेन्द्रसूरि - श्री आनन्दसूरि-श्री- कलिकालगौतमना विरुदधर - श्रीहरिभद्रसूरि महाराजना पट्टोद्योतक - श्रीविजयसेनसूरिजी महाराज थया. तेओश्रोना शिष्यरत्न - श्रीधर्म्माभ्युदयमहाकाव्य उपदेशमाला कर्णिकावृत्ति आदि ग्रन्थोना रचयिता श्रीमान् उदयप्रभदेवसूरीश्वरे आ ग्रन्थनी सुरचना करी छे. तेओश्रीना शिष्य श्रीमान् मलिषेणसूरि महाराज थया, जेमणे द्वात्रिंशिकानी स्याद्वादमञ्जरी नामक न्यायपूर्ण एक सुंदर शैलीबाळी टीका बनावो छे. आ ग्रन्थना श्लोकोनी गहनतानो सुलभ बोध कराववा माटे घणीज आकर्षक बोध अने सरळ पद्धतिथी - षडावश्यक बालावबोधना कर्त्ता तथा व्याकरणवित्रयक - समग्रन्यायोना सङ्ग्रहिता तथा तेज न्यायसङ्ग्रहनी उपर बृहद्वृत्ति तथा बृहन्न्यासना कर्त्ता - वाचकाग्रणीय श्रीमद् हेमहंसगणिवरे आ ग्रन्थनी महान टीका बनावी स्वज्योतिर्ज्ञानार्णवने ठलयो छे. ग्रन्थकारने राजा वीरधवलना महामंत्रोश्वर सङ्घपति वस्तुपाले बहु ठाठथी आचार्यपदारोपण ते ओश्रीना प्रतिभावैभवने देखीने कराव्यं हतुं. ज्यारे टीका सं. १५१४ मां रचाइ हती. ज्योतिर्विद्याना अभिलाषुक विपश्चिन्दने ते अतीव उपयोगी होइने वर्त्तमानमां अलभ्य होवाथी आ ग्रन्थ सुज्ञ जनता समक्ष रजु कराय छे.
Aho! Shrutgyanam
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आरम्भ-सिद्धिः
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स्वाध्याय-यज्ञ आदरता साधु या साध्वीगणना उपकार माटे कर्ताए आ ग्रन्थ बनाव्यो छे. तेमज श्रुत पारदर्शी बनवा माटे साधुसमाजने जेटला प्रमाणमां सैद्धान्तिक विषय जरुरी छे, गणितज्ञान जरुरी छे, कर्मव्यवस्था सप्रपञ्च जाणवी जरुरी छे, प्रभुना भक्तिरसमां तल्लीनता मेळववा सङ्गीतनुं लय अने मात्राओनुं ज्ञान सापेक्ष छे, तेटलीज आवश्यकता आ ज्योतिर्विद्यानी छे. जैनागमोमां ते विद्याना स्वतन्त्र मोटा ग्रन्थो छे, जेमा सूर्यप्रज्ञप्तिनापृ. २७१मे गा. २१ मीमां जणाववामां. आव्यु छे के-"मानवाने सुख दुःखना प्रकारो अने तेमां थता फेरफारो, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रो अने महाग्रहोना चार विशेषथी थाय छे. ते सुख दुःख जो के कर्मजनित छे, परंतु दीपकवत् आ ज्योतिर्ग्रन्थ तेनो द्योतक छे. एटले विकसित मानसवाळा साधुसमाजने आ विद्यानुं पठन पाठन उपयोगि छे. जेम बुद्धिशाळो साधुओने काव्यशक्ति लेखनशक्ति तथा वक्तृत्वशक्ति आदि खोलववानी जरुर छे, तेवीज रोते वस्तु-स्तोमना भाविभावने जाणवामां निमित्तभूत आ ज्योतिर्विद्या पण जाणवानी जरुर छे. ते प्राथमिकज्ञानना अभ्यासीवर्ग माटे प्रस्तुत संस्करणनी उपयोगिता विशेषे करी लाभकारी निवडशे ! ! यद्यपि वारनी मान्यतामां, नक्षत्रो नी तारा संख्यामां, यात्रादिमां जोवाना दिग्द्वारकनक्षत्रोमां तथा तेवी अनेक बाबतोमां सूर्यप्रज्ञप्ति-दिनशुद्धि तेम आ ग्रन्थ विगेरेमा समानता देखवामां आवती नथी, जेनुं याथातथ्यतत्त्व केवलीगम्य छे, तोपण आ ग्रन्थमांथी ज्योतिविद्यानो घणोखरोभाग अभ्यासीवर्ग स्वायत्त करी शके छे, ए निर्विवाद छे !
___ खास करीने ग्रन्थकार एक वात उपर घणोज भार मूके छे ते जणावq जरुरी छे. ते एज छे के, सावद्यक्रियावलम्बी पुरुषो आ ग्रन्थना अनधिकारी छेसाधुवर्गमांथी पण निरवद्य लाभ माटेज आ ग्रन्थनो के ग्रन्थनी पङ्क्तिनो उपयोग करवो. योग्य अने लायकनेज ते भणाववा गुरुओने ग्रन्थकार भलामण करे छे, भणनार माटे पण त्यां सुधी लखे छे, के तेओए एकान्तमा भणवं, के जे सांभळीने कोइ दुरुपयोग न करे. जैनमन्दिरादिना खात विगेरेना मुहूर्त पण, जेम विवाहादिना मुहूर्तों पोतानी मेळे संसारोओ कढावे छे, तेम कढावे ! ज्यारे निरवद्याचारी महाव्रतधारी महानुभावो तो, तेमां गुणदोषविषयक चर्चा करी, दोषो.
Aho! Shrutgyanam
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प्रास्ताविक निवेदनम्
-
बतावी तेनी शुद्धता मात्रज बतावे ! ते वात आ पुस्तक भणनार वर्ग जरुर ध्यानमा राखे ! तेथीज ज्ञानानन्दना व्योमविहारी अने छठा-सातमा गुणठाणानी उंचेरी टेकरीओनी विमळ-वायु-लहरीओनी आबोहवानो आभोग इच्छनार जिज्ञासुओए सदुपयोगज करवो, एटले तेवो काबु धरावता होय, तेओज आमां प्रवेश करे ! एवी म्हारी पण वांचको प्रत्ये विनम्र अभ्यर्थना छे.
टीकाकार महर्षिए पण ग्रन्थकारना अभिप्रायोने, घणा घणा ग्रन्थोनुं पर्यालोचन करी सारभूत मतान्तरोने दर्शावी विशेष व्यक्त कर्या छे, अने ते गणकगणना विविध प्रमाणदर्शक अभिप्रायोने प्रतिपादन करी सम्पूर्ण रीते ग्रन्थनी पुष्टी करी छे. जे सविस्तर पाछल परिशिष्ट ब थी समजाशे.
आ ग्रन्थ भावनगरथी श्रीयुत् पुरुषोत्तमदास गीगाभाइ तरफथी प्रकाशित थयेला ग्रन्थना आधारे घणाभागे पुनः मुद्रित करावाय छे.
विमर्शोमा आवती विगतो अमो स्थलसङ्कोचना कारणे आपी शकतानथी, पण अनुक्रमणिका बहु सरळ होवाथी तेमांथी समजी शकाय तेवु छे. एक सूचना करवी ठीक लागे छे, के नाना अक्षरो लखवामां के वांचवामां आंखोने अहितकर नीवडे छे, एटले आ ग्रन्थ पण एकीटसे, घणो टाइम वांचतां अभ्यासीवर्ग विचार करे ! प्रस्तुत ग्रन्थमाला पासे एबुं मोटुं कोइ फन्ड नथी, छतां उदार सखीगृहस्थोना अने परमोपकारी मुनिमण्डलना सहाराथो अनेक प्रकाशनो प्रस्तुत ग्रन्थमालाए बहार पाड्या छे जेमां तेना अवैतनीक कार्यकर्ता चन्दुलाल जमनादास पण सारो आत्मभोग आपे छे-जेथी संस्थान कार्य अविरत चाले छे अने चालशे!
प्रस्तुत ग्रन्थन संशोधन कार्य म्हारा हस्तक बीजा विमर्श लगभगथी आव्यु, तेमां पण थोडो वखत तो हुं आ सम्पादनकार्यमां तद्दन अजाण हतो अने नव्य अभ्यासी होवाथी त्रुटियो जरुर रही हशे, अने पछीथी पण ते कार्य म्हारा जेवा अल्पमति माटे भगीरथ गगाय ए नि शङ्क छे. पण न मालुम ए कृपासिन्धु आचार्यदेवेशना प्रभांशोथी चमकता जमणा हाथना हृदयङ्गम आशीर्वादनो सुप्रभाव के जेथी ए म्हारी कार्यनावा बेधडक अने निर्विघ्न रीते पारने चींधी शकी छे,
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आरम्भ-सिद्धिः
साथसाथ एंटलं कह्या बिना रही शकतो नथी के ते भवोद्धारक संसार निस्तारक मारा अप्रतीम उपकारी सुगृहीतनामधेय कृपाम्बराभरण आचार्य महाराजानो सदानो हुं अस्सीम ऋणी छु, के जेमना पुण्य नामे अनेक सेवासमाजो, स्नात्रमंडळो, अने प्रत्यक्ष आ संस्था प्राण टकावी रह्या छे - ते भोश्रीनं म्हारी उरतल उपर जे अमित अने अनिर्वचनीय उपकारवण वधुं छे तथा सैद्धान्तिक, साहित्यविषयक अने कार्म्मग्रन्थिक क्षेत्रोमांना सञ्चार उपरान्त श्रीमती आरम्भसिद्धिद्वारा ज्योतिष जेवा - वहन अने सहन करवामां गहन एवा चार क्षेत्रमां पण सुलभताथी म्हारी अल्पमतिने बीजोप्ति न्याये जे थोडी पण गतिमान अने विकसित करी छे, ते उपकारने अने साचा तेमज मीठा ज्ञानलवना प्रसादने यावदेह भूली शकुं तेम नथी.... नथी.... .. ने नथीज अने तेओश्रीना ते कृपाना सुबलथीज म्हारुं आ विकट कार्य पण निकट थइ शक्युं छे.
"
हवे छेवटमां हुं एटलीज वांचकगण पासे आशा राखीश, के आ ग्रन्थमां सम्भवित अनेक भूलो, अशुद्धिओ, त्रुटिओ, स्खलनाओ अने दोषो, म्हारा छान
के प्रामादिक कारणने अंगे, सामग्री अभावना कारणे, अथवा तो प्रेसना कारण शुद्धिपत्रकमा आप्या उपरांत पण रह्या होय, ते सुधारोने वांचवा प्रकृतिकृपालु विपश्चिद्वृन्द कृपा करे ! एक मोटी भूल सुधारखा जेवी छे, जे पृ. २४४ - ८ मां नेयं छपायुं छे ते स्थाने नेह समजवुं.
आ उपरांत म्हारा आ कार्यनी सफलता प्राप्त करवामां जे उपकारनिधान पूजनीय मुनिराजोए - पूज्य हेमेन्द्रविजयजी महाराज पूज्य विक्रमविजयजी महाराज तथा पूज्य ललिताङ्गविजयजी महाराज विगेरेए सहायक साथ म्हने आप्यो छे, ते बदल तेमनो तथा पूज्यपाद गुणरत्ननिधि - शासनप्रभावक श्रीमद्विजयक्षमाभद्रसूरिजी महाराजे ब्लोको अर्पण कर्या ते बदल ते ओश्रीनी पण उपकृति मानवापूर्वक आ कलमने विराम आएं हूं.
महर्द्धिक ऋषिपुङ्गवोना सुप्रसादेच्छुक मुनि जितेन्द्रविजय.
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बया नुक्रमः,
0000000
| तिथिद्वारे १ पृष्ठाङ्काः प्राणहर-उपग्रहाऽऽडलादिवयंरवि. इष्टदेवनतिः
. योगाः ४३-१४ प्रयोजनादिकं
ख्यादिवारेषु उपयोगा: ४५ दुष्ट-दग्धा-ऋरतिथयः ४-८
आनन्दादियोगानां यन्त्रकम् ४६-४७ तिथिनियतकरणानि ।
शुभाशुभयोगसाङ्कय्ये सुयोगप्राबल्यं ४८ भद्राया मुखाद्यङ्गानि १०-१५
विष्कम्भादि-दिनयोगा: ४८
कुयोगेष्वपवादः वयंघटिकाश्च ४९ | वारद्वारे २
एकार्गलवेधस्वरूपम् ५०-५१ वारस्वरूपम्
१५-१४
सप्तशलाकपञ्चशलाकवेधचक्रे ५२-५३ वारेषु कालहोराः
लत्तापातयोगी
५४-५७ कुलिकोपकुलिकज्ञप्तिः २०-२२ प्रतिवारं सुवेळा:
|| राशिद्वारे ५ वारप्रतिबद्धा सिद्धच्छाया २३
मेषादीनां पाद-वर्ण-रूपादीनि५८-५९ नक्षत्रद्वारे ३
राशीनां दिक्षु स्वामित्वं, चरस्थिरक्रू२८ भानां प्रतिपादं वर्णाः २४-२५
राऽऋर-पुंखीत्वादिस्वञ्च ६० अभिजिरस्वरूपम्
राशीनां निशादिबलित्वं शीर्षोभानामीशतारक-संज्ञाफलानि २६-२९
दयिस्वादिकं च ६१
अर्कादीनामुच्चनीचराशयोऽशाश्च ६२ भानां मौहूर्तिकसंज्ञाः आकृतयः दिग्विनिश्चयश्च २९-३१
कुण्डलिकायां द्वादश भावाः
संज्ञाश्च ६४-६६ | योगद्वारे ४
राशीनामीश-होरा-द्रेष्काणादय: प्रतिवारं द्वित्रियौगिकशुभाशुभता३२-३४
यन्त्रक ६७-७० अमृतसिद्धी वय॑-तिथयः ३४ षड्वर्गलिप्तामानं दिगीशग्रहयन्त्रं प्रतिवारं द्वियौगिकयोगयन्त्रम्(परि०)३५ कुमार-राज-स्थिरयोगाः ३६
प्रहाणां पुंस्त्रीनपुंसकव्यवस्था ७३ यमल-त्रिपु०-पञ्चकयोगा: ३७-३८
वर्णानुसारेण महस्वामित्वम् ७४ त्रिधा वयं-गण्डान्तानि
ग्रहाणां षड्विधं बलं द्रष्टिभेदाच७५-७६ वज्र०काल.अबलादिकुयोगा:४०-४,
ग्रहाणां मैत्री शात्रवञ्च ७७.७० रवियोगस्य श्रेष्ठता ४२-१३ | राशिस्थग्रहाणां मिथोवेधः ७९
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आरम्भ-सिद्धिः
|| गोचरद्वारे ६ रव्यादिग्रहाणां कुण्डलिकायां स्थानशुभाशुभता ८०-८२
८३
८४-८५
यात्रादिषु चन्द्रबलप्राधान्यम् चन्द्रबलहानौ ताराबलम् द्वादशचन्द्रावस्थाः शनिचन्द्रादीनां नराकृतयः ८०-८९ गोचरप्रातिकूल्येऽर्कादीनामष्टवर्गशुद्धिः
८६
९०-९३ कस्मिन्कार्य को ग्रहः सबलः १-९४ राशावागतः को ग्रहः कदा फलदः १ - ९५ विरुद्धानामर्कादीनां तुष्टयै शान्तिकम्
१५-९७
III कार्यद्वारे ७
१००
पुष्यबलं - अधोमुरवादिभ- भेदाश्व ९८ विषापत्ययोगाः मूळाऽश्लेषयोः पुंवृक्षाकारौ शान्तिकविविश्व १०१-१०३ जन्मादौ भ-वाराणां कुलोपकुल्यफलम् १०४ रविनरस्वरूपं सयन्त्रकम् १०५ नामकरण - षष्ठी जागरादिविधानम् १०५ योनि - गण - राशीनां स्वरूपं तेषां
वैरं च १०६-१११ -तत्र नाडीवेधं वर्ग
मैत्री च ११२-११५
कर्णवेधाssधाटन नूतनपात्रक्षौरमुहूर्त्तानि ११६-११९ विद्या- नियमालोचनातपोनन्द्यादीनां मुहूर्त्तानि ११९. विप्राद्याश्रित्योपनयादिविचारः १२०-१२२ नवीन वस्त्रपरिधापनेभादीनि १२३नष्टवस्तुप्राप्तिज्ञानम्
तारामैत्री -
-१२४
१२५
जातरोगस्य नीरोगताज्ञानम्
१२६
मृत्युज्ञाने श्रीणि त्रिनाडिकचक्राणि १२७ आरोग्यार्थं भैषज्यमुहूर्तम्
१२८
नवान्न - राजावलोकन भानि-हलकृषीचक्रादीनि च १२५-१३५ IV गमद्वारे ८
प्रस्थानविधिः
१३६
यात्रायां श्रेष्ठमध्यमनिन्द्यभानि १३७ यात्रानक्षत्रेष्वपि रात्रिदिनांश निषेधः १३८दिक्शुद्धौ परिघापवादे सर्वदिक्कालीनभानि १३९
परिघ- भशूले, वाराणां दिवि - दिक् शूलं च १४०-१४१ शूल-दोषेऽपवादः योगिनी पाश कालराहुचारादी नि१४२-१४४ रविचन्द्र चारो
१४१
१४५
૧૪૨
१५४
रविचारे हंसचारवैशिष्ट्यम्, शुक्र - वत्स - शिव चारा १४७ - १५१ यात्रायां चेष्टा-निमित्त शकुनविलोकनम् १५२ - १५३ यात्रायां नृपार्थं लग्न शुद्धिः भौमादिपञ्चग्रहाणां वक्र-मार्गाऽतिचारदिनसङ्ख्या १६३-१६७ चौर - विप्र-वणिजां शकुनभ-मुहूर्तेः सिद्धिः राज्ञां प्रयाणे सिद्धिदाः सप्तदशयोगा. १६९. बृहज्जातकोक्ताः ३२ - राजयोगाः १७०-१७९ निमित्तेभ्योऽपि बलिनी चित्तशुद्धिः १८०
१६८
IV वास्तुद्वारे ९ वास्तुशुद्ध आयादिषट्कबलम् १८१ आयव्यय विनिमयः - अंशाऽऽन
यनं च १८२ - १८४
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विषयानुक्रमः
ध्रुवादि (१६) प्रस्तारप्रकाराः १८५ नक्षत्रचन्द्रताराबलानि
१८६
१८७
मासशुद्धिः गृहमुखं च वास्तुनि नागचारेण खननारम्भदिक्- शुद्धिः १८८
१८९
१९०
विदिक्षु शेषचारस्थापना विप्रादीनां गृहेष्वायमुखयोः शुद्धि : १९० सूत्रपात - शिलान्यासभानि गृहारम्भे लग्नबलं तत्र दोषश्च १९१ प्रवेशे विधिः वारभर विशुद्धिश्व १९२ प्रवेशनिवेशे ग्रहसंस्था १९३-१९४ V विलग्नद्वारे । १० दीक्षाप्रतिष्ठादिषु मेषादिगे रवौ लग्नप्राधान्य, तत्र शुभमासाः १९५ लग्ननिषेधस्थानानि १९६-१९७
१९८
अधिक-क्षयमासस्वरूपम् भीमादिपञ्चग्रहाणामुदयाऽस्तदिन
सङ्ख्या १९८ गुरुशुक्रयो: बाल्ये वार्द्धक्ये वर्ज्यदिनानि २०० V मिश्र द्वारे । ११ मास-दिन-भशुद्धौ विशेषः २०१-२०४ प्रतिष्ठादीक्षोद्वाहेषु भानि यन्त्रं च २०५ मण्डपारम्भादिषु निषिद्ध दिनानि २०६ बिम्बप्रतिष्ठायां वर्ज्य भानि
२०७
२०८
पद्मचक्रेदेशभानि
ग्रह भिन्नादिव भानि शुध्ध्युपायश्च
२०९-२१२
२१२-२१४
क्रान्तिमाम्यस्वरूपं अवश्योद्धरणीयाष्टादश दोषाः तद्भङ्गाश्व
२१५-२१७
प्रतिष्ठादी क्षोद्वाहेषु - लग्नांशनियमनम्
२१८-२२१
चन्द्रात्सप्तमो जामित्रदोषः तद्भङ्गश्व २२२ प्रतिष्टादीनयोश्चन्द्रस्य भौमादिभिर्युतिर्दुष्टा नवा ? २२२-२२३ प्रतिष्ठादीक्षा विवाहादिषु विशेषं २२४-२२७ दीक्षाग्ने शुभग्रहसंस्था
२२९
२३० - २३२
विवाहे ग्रहसंस्था श्रीवत्स-हर्ष-चक्र5- कूम्र्मादियोगाः २३३ - २३४
प्रतिष्ठायां ग्रहसंस्था स्थापना च२३५-२३७ बुधपञ्चकदोषः शुभग्रहाणां शक्तिफले च २३८ - २३९ लग्नातक द्वियौगिक-त्रियौगिक ८९ दोषाः २४०
साध्यदोषप्रतिकारे मूर्तिस्थगुरोः सौम्यदृष्टेश्व शक्तिः २४१-२४२ प्रतिष्ठादीक्षोद्वाहेषूदयाऽस्तशुद्धी
२४३-२४४
कक्का दिदेशेषु लग्नहोरा भादीनामुदयादि - पलमानं २४५-२४७ अर्कस्फुटीकृतौ द्वादशसङ्क्रान्तीना
मन्तरालघट्यः २४८
सायनांशाऽर्कस्य भोग्याऽऽनयनम् २४९ इष्टसमय स्पष्टीकरणम् २५० - २५२ लग्नात्कालाssनयनं कालालमञ्च २५३-२५६ सप्ताङ्गुलश कुच्छायातो कालानयनं२५७ इन्द्रादीनां सगतिकानां स्पष्टता,
यन्त्रञ्च २५८-२६१
| कृतवत्रा वक्राभिमुखावा, मार्गी भूतामार्गी| भिमुखा वा ग्रहास्तेषां स्पष्टता २६२-२६५ विवाहे गोधूलिकलग्नम् २६५-२६६ दीक्षाप्रतिष्ठादिस्थिर कर्मसु ध्रुवलनं २ ६७ नृपाभिषेक विचारः ग्रहसंस्था च२६७-२६९ V ग्रन्थरहस्यसमर्थनविभागे ११ शुभलग्नेऽपि शकुनादिप्राधान्यं २७० चन्द्रसूर्य संज्ञकनाडीविचारः २७१ वामनाड्यपि भूजलतत्त्राङ्किताशुभा २७२ मेषादिलमानां तत्त्वमानयन्त्रम् २७३ प्रतिलग्नं नियतांशेषु भ्वादिशुद्धिगत
षट्पञ्चवर्गस्पष्टता २७४ टीकाप्रशस्तिप्रकृदभिप्रायश्च२७५/२७८ परिशिष्टानि अ ब क ड २७९-२९२ ॥ समाप्तो विषयानुक्रमः ॥
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आभारदर्शन "
प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद परमशासनप्रभावक सूरिसार्वभौमजैन. रत्न व्याख्यानवाचस्पति कविकुलकिरीट आचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरजी माहाराजके सुपट्टप्रभावक जैनाचार्य श्रीमद्विजयगंभीरसूरीश्वरजी महाराजने श्रीआरम्भसिद्धि ग्रन्थको प्रकाशित करवानेमें भरसक प्रयत्न किया है, और उन्हींका कठिन परिश्रम है कि आज यह ग्रन्थ हमारे हाथमें है, इसलिये मैं उनका खास आभार मानता हूं.
साथही व्या० वा० पूज्यपाद जैनाचार्य श्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरजी माहाराजके शिष्य पन्यासप्रवर श्रीप्रवीणविजयजी महाराजके शिष्य मुनिप्रवर श्रीमहिमाविजयजी महाराजके शिष्य मुनि श्रीजितेन्द्रविजयजी महाराजने अपना अमूल्य समय देकर इस ग्रन्थके संशोधनमें भारी परिश्रम किया है, उसके लिये भी मैं उक्त मुनिश्रीका आभार मानता हुं. साथहीसाथ उक्त मुनिश्रीके कार्य में मुनिराज श्रीहेमेन्द्रविजयजी, मुनिराज श्रीविक्रमविजयजी, मुनिराज श्रीललिताङ्गविजयजी महाराज आदिने भी अच्छा सहयोग प्रदान किया हैं, अत एव इसके लिये उनकाभी मैं आभार मानता हुं.
-: निवेदक :चंदुलाल जमनादास. मु. छाणी
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शुद्धि:सत्रन
वो दुः
रद्वयं
पृ. पं. अशुद्ध १- ७ मीव २- १ योऽपर २-१४ व्यकि 3- ५ वो डूः 3- ६ शंभुत 3- ८ परब्रह्म ४- १ द्विधा ४-८रद्वयं ४-१९ नवा ४-२१ बन्धात ४-२१ शास्त्रादि ६- ५ ग्राह्मैव ७- ९ योगेच ७-२१ द्विती ९- ६ शन्यतर ९-१२ कराः ९-१४ तस्यपुंस: ९-२१ १४ १०-१० वृत्तिः १०-२१ नृप ११-१० वदा ११-११५१॥ ૧૨– ૧ ૧૧ १२- 3 स्वाद १३-१२ कठ यंत्रक १४- २ ते १४-१६ वटीका १४-२3 ब्धिद
॥ शुद्धि-सूचन ॥ (बुकाकारानुसारेण) शुद्ध पृ. पं. अशुद्ध शुद्ध र्जीव
१४-२४ ॥ १ ॥ ॥ १४ ॥ योऽपरापर १६- ९ नेयं
नेयम् । ध्वक्रिय १६-१८ एषामितिः एषा मितिः
, तदु ततूवं शम्भुस्त १६-१९ एका श्लोकोऽयम् परमब्रह्म १८-११ शस्रो शस्त्री द्विधा १८-१५ पधा-गुरो षधा-गुरौ
१८-१६ करं ववास्तु १८-२३ सौ-पधे सौ-षधे बन्धघात । १९-२९ वारेपु वारेषु शस्त्रादि २१-१थी डबल छपाइ छ ग्रादेव
डीसमीस करो योगे च २१- ९ दौका दौ काल द्विती
२१-१२ मष्टा ना मष्टाना शन्यन्यनर २१-२६ दिवा दिवा करा: .. २२-७ कलिक कुलिक तस्य पुंसः २२-११ ब्राह्मः ब्राह्मः
२२-१८ थदि थ दिवा वृत्तिः १६ २२-१८-१९ आ लीटीओ वृष
यन्त्रनी नीचे जोइये यदा
२३-१४ जी . जो २३-१८ लग्न लग्गं
२३-२१ वारक्ष वारक्ष स्वाद्वर्जना २४-२ रिनि रिति कण्ठ यंत्रक २४-११-२वारं-बारं बार-बार
२४-१७ कृतिका कृत्तिका घटीका २५- ६ थोतरा थोत्तरा ब्धि ४ दशे । २६-११ स्वव्यभि स्वभि
ते।
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आरम्भ-सिद्धिः
पृ. पं. अशुद्ध शुद्ध पृ. पं. अशुद्ध २८-१४-१५भिमौर्सर भिर्मासैर ३७- ७ जस्सय 'जेसिं'इत्यपि २८- ७ कमति कमिति ३७- ९ स्नेह स्नेह २६-१२ चरेसु आ चरे सुहा ३७-१३ जीवा जीवा २८-१३ मिसेस्ससं मिस्से संधि 3७-२० र्धात
त्ति २४-१५ 'दि कोदि 3७-२६ १ जीवस्थाने रविः कथितः २९-१६ मिश्र ध्रुवः मित्रै ध्रुवैः
नारचन्द्रे । ૨૯-૧૯ ૨ ૧ ૧ ૨ 3८-२४ त्रिभा त्रिभा २८-२० तिक्ष्ण तीक्ष्ण ३९- ८ घठ्यो घट्यो २४-२५ मानन्ति मामनन्ति
३९-१८ मे
मेष ३०-१६ पै-स्वण्ड पो-खण्ड .
४०-१ नरा नरो
४०- ५ भरई ३१-१३ षङ्कम् षटकम्
४०-१५ रपला सपला ३१-१४ जित्रय जित्रय
४०-१६ स्वप्य
ध्वप्युभय 3१-१४ लानि
लानि ८
४०-२१ पृ. ४१ गतप्रथम-स्थापना 31-१६ पैष्ण पौष्ण
अत्र ज्ञेया। ३१-१९ असिणि अस्सिणि
४०-२५ मास छगि मासछगि . 31-२२ पुणवसु
पुणवसु
४१- १ एषा पङ्क्तिः द्वितीयस्था. ३२- ७ ख्या रख्या
पनोपरि ज्ञेया ३२-११ शद्वा
शब्दा ३२-१३ योवा ध्यो
४१- ४ एषा पङ्क्तिः द्वितीयस्था
पनाऽनन्तरं ज्ञेया ३२-१५ चाक चा ३२-१४ कंस्थं
४१- ९ बिजाए विजयाए
कस्थ ३२-२१ पुष्य
४१- ९ दिनशुद्धौ तु सुइस्थाने
पुष्य ३३ - १ वासा वाषा
सवणा दृश्यते, न च अभिइ ३३-१२ शद्वेन शब्देन
४१- ९ पुस्ससिणि पुस्सस्सिणि ३३-२३ । पूर्वा १ शतभिषा
४१-१२ पइपठा पडद्याप ३५-२० विजसुके बिजसुके
४१-१२ दिनशुद्धौ तु चोराउ-इत्यादि ३५-२१ एएसि वया एए संवड्या
स्थाने--सुहकजे वजए मइमं. ३६-२२ कर्क
इति--दृश्यते ॥ ३७- १ दिभै दिभैः ४१-१९ . ७- २ रक्षणं लक्षणं
४१-२३ फग्गु अक फग्गु अ क. ३७-४ योगः
योगः ।
। ४२- ६ उ सुहो भसहो
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पृ. पं अशुध्ध ४२-१२ भिति
४३-११ बर 3
शुध्ध
मिति
ब २३
दोर्भ
त्यहं
धूम्र
४८ - 3 लंबको
लुम्पको
४८- ७ यदिति श्लोकमारभ्य पृ. ५७ पर्यन्तं लिखिता श्लोक संख्या सैकाधिका दृष्टव्या. इति योगद्वारे श्लोकाः समग्रेण ८४ ॥
४५- १ दोभ
४५- ५ त्यह
४८- २ धम्र
४८-२३ वट ५० - ४ मेवस्था
५१ - १ सु संखमु ५२ - 3 वेद्य
५२ - ७
५५ - १४ द्वादशं
५६ - ९ भस्य
र्यं च सप्तर्यक् च सप्त
५३ - १५ क्रूरस्तु
क्रूस्तु ५४ - १२ ये” । विते । ये विलोक्यते "
५५ - १२ ताद्व
ताद्वै
५६ - ११ रेल्वे
९७-१९ मशा
५९ - १८ नूशि : ५९ - २२ शेस्तु
५९-२५ वनषे ६० - ६ विनेध
६० - २२
वं
६०-२५ याध
*
वध
मेत्र स्था
६१- २ करा
६१- ४ कर्वः
सूर्यः सम्मु वेष
५९ - १ प्रथम विमर्श द्वितीयो विमर्शः !
पृ. ७५ यावदेवं पठनीयम्
द्वादशं
बलस्य
रे स्वे
मशी
शुद्धि सूचन
नूराशि:
शेषस्तु
वनपे
विरोध
एवं
या
क्रूराऽ
कर्कः
पृ. पं. अशुध्ध
६१- ६ पुसु ६३ - ४ गृहप्रो
६३- ८ कक
६३ - ११ नीचानि ६३-१२ लिस
६३-१६ त्रिश ६४ - ७ धंच की
६४ - ८ रु
६७ - 3 द्वादशा
६७-१० पा
६७-२५ कर
६८-११ तमा
७३- १ राश्यः
७४ - २० ह्नित्र मित्रां
७५-२६ तुल्यं
७५ - २८ सिग्धो
७६ - ८ द्वि बलाः
७६-१८ स्वाभा ७६ - २४-२५ विशो
७७-१६ शत्रू
७८- ६ मं- गू ७८ - १७ रवीन्दू
७९ - ४ कमे
शुध्ध
पुं
गृहं प्रो
कर्क
क्रूर
तमा
६९ - ४ थानफलं
स्थानफलं ७२-१३ पृ. ७३ गतनवांशयन्त्रं १३
पंक्ति- अनन्तरं अस्तु ।
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नीचांशाः
लिसा
त्रिंश
र्ध चक्री
रुचै
द्वादशा
श्वेत्या
१३
राशयः
हिं-मित्रां
तुल्यं
सिग्घो
द्वि बलाः
स्वाभा विशो विशो
विंशो विंशो विंशो
शत्रू
मंगु
रवीन्दु
क्रमे
९-४
७८- ४८-४
८०- १ धर्मात् नूर्ध्नि ८०-२३८, १०, १२ ८१ - २ इदं यन्त्रकं पृ. ८२-२१
पंक्ती अस्तु
धर्म तनुनि
८, १०, ११
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१४
पृ. पं. प्रशुध्ध ८५ - ९ नवमपंक्ति-अनन्तरं तारा
शुध्ध
यन्त्रं ज्ञेयम्
८०- २ १५
८२-२४ यावद्भयो ९६ - २ प्रलानिश्वास
८६- ४ मणीन्व ८६-१० प्रक्षिष्य ८९- १ द्वितीयशब्दस्थाने
८८- ६ न्युत्तसः
१००-१६ नि
१००-१७ स्यज
तृतीयो
इति पृ. १०७ - १ यावत् अस्तु न्युत्तराः
नि ४
स्य ज
१०३ - १९ मला मूला १०५-१४ षष्टिका षष्ठिका
५१
यावदभ्यो
प्रवालानिइस
११२-२४ सदेहः
११३-२६ नाडि
१०५-१५ गुह्ये षष्टि गुह्ये षष्ठि १०५-१६ क्रभेणै क्रमेणै
मणीन् व
प्रक्षिप्य
१०६ - २३ न मे लोवि न मेलो वि १०७- ८ रक्षसो
रक्षसोः
११६-२७ बलं
११७-१० दिख्ख
आरम्भ-सिद्धिः
११७-१३ सुख्ख ११८ - ११
पचं
११४-१८ स्त्री दूर स्त्रीदूर ११५-२२-३ रिख्खे रिख्खं रिक्खं रिक्खं
१२०-२४ डातंग
१२१-१० शुक
१२२ - १९ स्थेरवा १२३-१२ रक्त
संदेहः
नाडी
पक
११६ - १५ षक ११६ - १७ श्विनीsनु श्विनी चित्राऽनु
बहुलं
दिक्ख
सुक्ख
पच
ऽस्तङ्ग...
शुक्र
स्थे खा
रक्तं
पृ. पं. अशुध्ध शुध्ध
१२५
यन्त्रे लाभविभागे वृत्तान्त वृत्तान्तं
१२६ - २६ घरे विभुअं घरे विभु
१२७- ७ शुंभाशु
१२८ - १२ मंगला
१३१- २ पूच्छ
पुच्छ
१३१-८.८ इदं । रसेव एवं । रसे ६
शुभाशु
मांङ्गल्य
१३१-२१ पून
पुन
१३२ - २ पख्खं
पक्खं
१३२ - ५ कर विष्टया क्रूर विष्ट्या
ਨਾਮ "लग्नं
१३२ - ८
१३२ - ११ त्रायाः
या
शुक्रे स्थापने
१३२-१३ शुक्र १३२ - २५ स्थाने १३२-३३ १ पञ्चमविमर्शे प्रथम श्लोके १३५-३-५ सह सद्द सद्द्द सद्द १३५-११-२३ साम-श्रव सोम-श्रव
१३६-११ क्षतमाला क्षमाला १३७ - ८ निष्ठा ह-नीय निष्ठाहनीयं १३७ - २६ थंडप- खंडपतहासवि
१३७ - २६ तहास नि
अत्र समुग्धार्य अस्तु १३७-२६-२७ अयं श्लोकः सम्पूर्णः
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लग्न शुद्धिकारस्य अष्टत्रिंशतमो अस्ति, न तु हर्ष
प्रकाशस्य, चिन्त्यमेतत् ।
१३८- ९ साधयनि
साधयेन्नि १३८ - १० तेरसि पंचमि पंचमितेरसि १३८ - १४ सलुल- द्विला सलु ल ।
द्विला
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विषयानुक्रमः
वाद्वैरि
दिक्को
पृ. पं. अशुद्ध शुद्ध | पृ. पं. अशुद्ध शुद्ध १३८-१५ ख्खेणं आरु क्षेणं आरो | १६०-१२ ध्यष्टा द्वयष्टा १3८-१५ सुख्ख सुक्ख १६२-१३ स्वौ च स्वक्षात १३९-२३ कृत्तिक कृत्तिकादि १६३-४ रूव रूपम् १४०-१५ कृतिक कृत्तिका १६६- ७ वारैरि १४०-२३ ब्राह्मया ब्रह्मया १६८-१० मेतेन मेतैर्ग्र १४१-५१ दक्की
१६८-२२ विलग्रे विलग्ने १४१-१८ दख्खिण दक्षिण । १७०-२३ श्च स्वारः स्वारः १४१-३० दध्या दध्या १७२-२९ चतुण चतुर्णा १४२- ५ बेररक्षो बेर-वति-रक्षो १७८-१० पृथ्वी करा पृथ्वी करा १४२- ५ त्तरनै त्तराग्निनै १७९-१४-१५ वेजीवः करो वेज्जीव:-करो १४२-१६ शुक्लपक्षः शुक्लपक्षे 1८०- ७ योगाश्व योगाश्च १४२-१८ तिथि चतु तिथिचतु १८५-१४ पक्ती षङ्क्ती १४२-२२ ५-१५ ५-30 १८५- ८ तोऽय ततोऽय १४३- ५ चउ घ पुर चउघ-पर १८७- ८ अध अथ १४३-२८ दाऽधः दाऽधः १८८-२९ चन्नि च नि १४३-२८-३० अयं श्लोकः दिनशुद्धौ १९२- ४ वलि बलि
न दृश्यतैव ॥ आ श्लोकनी १९९- ६ कृत कर तुरतज पृ. १४४ - काल• २०१-१३ मबला: सबलाः
स्थापना यन्त्र जोइए. २०३ - ४ लाग-तिज्यो लग-ति ज्यो १४४- ८ षष्ठया षष्ठ्या २०३-२२ वजिजति वजिजा तह १४४-२२ पृष्टतो - यर्य पृष्ठतो-वर्य २०३-३० पातविष्टि पातविष्टि १४४-२३ षष्ट्यां षष्ठ्यां । २०४- ६ दशदशम दशमा १४५- ७ ससी सम्मुहो मसी उदभो २०४-२२ ममं समं १४५-१३ अतिश अपिश २०८ यन्त्रं २१० पञ्चमपङ्क्तयन१४१-१२ दिरथे दिस्थे
न्तरं अस्तु. १४६-३१ पवद् पद्रव २१०- ३ गहो जस्ल उ गच्छद १४८- ४ नारचद्रे नारचन्द्र
जस्स गहो वह १४८-७-२९ च न्द्र-शुक्र चन्द्र-शुक्र २१४-२७ नहतस्य न हतस्य १४९-२ त्याज्थ त्याज्य
२१५-२१ तिथि: तिथेः १५६-२६ विमुक्ता विमुक्ता २२४-२१ धरा धरो १५७-१४ स्या स्था
२२५- ३ कुंभ कायं कुम्भ-कार्य १५९-३० वपिन्ति ववि हन्ति । २२५-२९ शाम्य शाभ्य
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१६
आरम्भ-1 - सिद्धिः
पृ. पं. अशुद्ध शुध्ध २५६ - ४ येऽश - तिथोशो येऽंशो
तिथोऽशो
दा तादृशं लग्नं
२२६--१३ दा लग्नं
૧ २२६ यन्त्रे ५-४-अ१४- ५११ मं. अं० २२६ - १९ दूष्यमाणं स्या भूप्यमाणं स्या २२६-२८ वादिकः वाधिकः २२७-२० नारच उदासी नारचं उदासी २२७ - २९ त्यर्थः स
त्यर्थः । स
२२८-१-२१ ५-७
९-८
२२८-२८ ७-१०
७- ८-१०
२२९-४-१९ दिखख दिखखं दिक्ख दिक्खं
२२९ - २९ लग्नं शु.
२३०-१० योभङ्गः
लग्नशु.
योर्भङ्गः
सूर्यशनी
२३० - २१ शुक्रशनी २३३ कुण्डलिकायां १० गु. शु.
२३३-१८ मात् ०० मात् १० २३४ - ५ सङख्यं सख्यं २३५-४-६ योया: रविगु योगा :- रविरु २४१-३-१७ सदग्र-प्रती सद्म-प्रति
२४१ - २६ स्वत्व
२४१-३१ करयु
थुन कर्का
२४३ - ८ थुनक २४३-१०-११ तशु-गशि स्वशु-राशि
स्वस्य
क्रूर यु
पृ
पं. अशुध्ध
शुध्ध
२४३ कुण्डल्यां अंश ३ शुक्र ६ । ३शु. अं६ शेषः
२४३ - २५ शेषः
२४४ - १-२ व स्वा-शेषो स्वस्वाः शेषो २४४ - ८ मयं नेयं मयं नेह
२४४ - १३ शम्वु
२४४-२१ सङख्य
२४८- १ वर्तु
२४८- ३ ऽकंस्य
ऽर्कस्य
२५०-२४ लग्नैभु
लग्नैर्भु
२५२-२८ तदंसक'
तदंशक'
२५४-१७ द्वित्र द्वित्रि २५५-२७-८-३० फले द्यनूनं पले-मूनं पले २६२-१-२ आा बे लींटी यन्त्र
पछी मुको.
भवतं
२६२-२८ भवन
२१५-२८ स्वगा
२१८-२७ क्षितिजे
२७१- ९ सार्धंघटी
२८२-१५ सुग्व
राम्बु
सङ्ख्यं
खर्च
इति समाप्तं शुद्धि - सूचन.
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खगा
क्षितिजे
सार्धं घटी
२८४-१-१विवाहे
२८५-२-११ य सुख
२८८-२३ २१६-७६
२१६-६
२९२-९-१५ दंष्टः-रेवता दंष्ट: रेवती
सुव
विवाह
यसुखं
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श्रीगौतमस्वामिने नमो नमः श्री आत्म-कमळ-लब्धिसूरीश्वरेभ्यो नमः
॥ श्रीउदयप्रभदेवसूरिविरचिता ॥
आरम्भसिद्धिः-सटीका
-
॥ अथ प्रथमो विमर्शः ॥
- ॐ नमः श्रीसर्वज्ञाय । श्रीधर्मन्यायसम्यग्व्यवहृतियुवतेर्जीवलोकेन भर्ना, श्रेष्ठे ताहमुहूर्ते परिणयनमिहाचीकरद्यो युगादौ । लीलायेते यथैतौ सततमवियुतौ सत्फलाढ्यौ स दत्तां, वस्तुं नः सिद्धिसौधे सुसमयमृषभस्वामिदैवज्ञराजः ॥ १ ॥ आदर्शषु पुराऽपि सन्ति कतिचिद्वयाख्यालवाः केऽपि च, प्राप्ताः श्रीवरसोमसुन्दरगुरोः पादप्रसादानवाः । उक्तानुक्तदुरुक्तमर्थमथ तैरारम्भसिद्धरहं, व्याकर्तुं स्वपरोपकारविधये तद्वार्तिकंप्रस्तुवे ॥ २ ॥
इह किल सकलत्रिवर्गयथाकामार्जनगर्जच्छ्रीगौर्जरजनपदमहीमहेन्द्रश्रीवीरधवलनरेन्द्रप्रदत्तसर्वव्यापाराधिकारेण श्रीशत्रुञ्जयोजयन्तार्बुदादिमहातीर्थेष्वर्बु. दाम्बुजखर्वादिसङ्ख्यस्ववित्तविनियोगतः खर्वीकृतकलियुगाहङ्कारेण नानादेशीयकविजननिबद्धस्तुतिभारसहिष्णुतत्तादृग्धीरोदात्तललित्तगुणपरंपरोपार्जितजगद्वयापकयश:शरीरसंपदाऽप्यविनश्वरेण संधपतिश्रीवस्तुपालमंत्रीश्वरेण निर्मापिताचार्यपदप्रतिष्ठाः श्रीनागेन्द्रगच्छगरिष्ठाः सज्ज्ञानक्रियागुणभूरयः श्रीमन्त उदयप्रभदेवसूर
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आरम्भ-सिद्धिः
योऽपरग्रन्थेष्वतिविप्रकीर्णया लौकिकलोकोत्तरकर्मगोचरज्योतिर्वक्तव्यतयाऽत्यन्तमायास्यमानं गणकगणमालोक्य तदुपकाराय सदोपयोगिसदर्थकुत्रिकापणकरणिमेतं प्रन्थमग्रन्थयन् । तैश्च मैतत्पाठिनां खंडखंडं पाण्डित्यं भूदिति सर्वकर्मालङ्कर्मी. णतां स्वकृतेराधातुं कानिचित्सावद्यान्यपि कर्माण्यशेषनिबद्धानि अस्माभिरपि च धर्येषु कर्मसु एकान्ताभ्युदयमेव केवलमिच्छुमिस्तन्मुहूर्तेषु तल्लग्नेषु च बहुज्योतिर्विद्विवादापनगुणदोषनिर्णय स्फुटीकतुं बहुबहुज्योतिषाभिप्रायोपादानपूर्वमेतद्वार्तिकं कुर्वद्भिः सद्भिः पूर्वोक्तहेतोरेव तान्यपि व्याख्यास्यन्ते, परं सदसद्विवेकप्र. वेकैश्छे कैस्तानि निरूपणीयान्येव न पुनः सावधप्रवृत्तेभ्यः प्ररूपणीयानि । यदुक्तम्
" यदेव साधक धर्म तद्वक्तव्यं वचस्विना । न त्वीषदपि बाधाकृदेषैव हि वचस्विता " ॥ १ ॥
ननु किं तर्हि तेषां ग्रन्थे ग्रथनस्य फलं ? इति चेदुच्यते-ज्ञप्तिरेव । ननु ज्ञप्तिः क्रिययैव फलवती, तद्वन्ध्या तु सा वन्ध्यार्जुनीव नार्जनीया । सत्यं, परं न केवलं क्रिययैव ज्ञप्तिः फलवती किंत्वकृत्येष्यक्रिययाऽपि, अन्यथा चौर्यपरनार्यादिपातकवेदितुर्विवेकिनः स्वज्ञप्तिसफलीकरणार्थ तरिक्रयास्वपि प्रवृत्तिः प्रसज्येत, ततोऽत्रापि सावधप्रवर्तनापरिहारेणैव तज्ज्ञप्तेः फलवत्त्वमुपकल्पनीयं । अत एवोच्यते
ये सुविहिताः पदस्थाः प्रौढाः सावधवचनतो विरताः ।
तेषामेव ग्रन्थः सदाऽयमुपयोगितां लभताम् ॥ १ ॥ इति . अपि च श्रीजिनशासनप्रभावनादिविशेषफललाभापेक्षया क्वचिदपवादप. देन सावद्यकर्मप्ररूपणाया अप्यागमेऽनुज्ञातत्वात्समयविशेष सावद्यकर्ममुहूर्तादिज्ञप्तेरप्युपयोग इत्यलं विस्तरेण । अथ प्रकृतं प्रस्तूयते
तत्वार्थमेव वक्ष्ये कचन विशेषं च सोपयोगमिह । तत्तदनुसारतोऽक्षरघटना सूत्रे स्वयं कार्या ॥ १ ॥
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प्रथम विमर्शः
तत्र शास्त्रस्यादौ मङ्गलाभिधेयसंबन्धप्रयोजनानि वक्तव्यानीत्युक्तिप्रामाण्याइादौ मङ्गलार्थ समुचितेष्टदेवतानमस्कारमाह
ॐ नमः सकलारम्भसिद्धिनिर्विघ्नवेधसे ।
अर्हणामर्हते साक्षादुपलम्भाय शंभवे ॥ १ ॥
व्याख्या-शं सुखाय भवतीत्येवंशील: "शं स्वयंविप्राद्भुवो डूः " इत्यनेन डु प्रत्यये शंभुतस्मै शंभवे जिनाय नमोऽस्तु । ग्रन्थस्य सर्वपार्षदत्वार्थ श्लिष्टशब्दप्रयोगोऽयं । शंभवे किंभूताय ? ॐ अवतीत्यौणादिके मप्रत्यये अटि गुणेस्वरादित्वादव्ययत्वे च सिद्धिः तस्मै परब्रह्मरूपायेत्यर्थः । अत्र धुरि मातृकायामिव " ॐ नमः" इति पठितसिद्धमंत्रोपन्यासः । प्रयोजनं चास्य निर्विघ्नमिष्टार्थसिद्धिः । तथा सकलानां अर्थाच्छुभारम्भाणां सिद्धौ निर्विघ्नस्य विघ्नाभावस्य वेधसे स्रष्ट्र, ध्यातृणामिति शेषः । अत्र युक्त्या 'आरम्भसिद्धिः' इति ग्रन्थनामसूचा । तथाऽर्हणां पूजामर्हते अर्हाणामर्हते ' इति पाठे तु पूज्यानां पूज्याय । साक्षादुपलम्भो ज्ञानं यस्य यस्माद्वा तस्मै ॥ १ ॥ अथाभिधेयसम्बन्धप्रयोजनान्याहदैवज्ञदीपकलिकां व्यवहारचर्या
मारम्भसिद्धिमुदयप्रभदेव एताम् । शास्ति क्रमेण तिथि वार२ भ३ योग४ राशि५ गोचर्य कार्य७ गम, वास्तु९ विलग्न१० मित्रैः११॥२॥
ब्याख्या-दैवज्ञानां गणकानां दीपकलिकामिव स्पष्टार्थप्रकाशितत्वात् । व्यवहारः शिष्टजनसमाचारः शुभतिथिवारभादिषु शुभकार्यकरणादिरूपस्तस्य चर्या इतिकर्तव्यतारूपाऽभिधेयतया यस्यां सा तां । एवं च व्यवहारचर्या इत्यनेनाभिधेयोक्तिः, तदुक्त्या चैतद्ग्रन्थस्य व्यवहारायाश्च वाच्यवाचकभा. वसंबन्धोऽपि मूचितो ज्ञेयः, व्यवहारचर्येति चास्य ग्रन्थस्य नामान्तरं । प्रयो
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आरम्भ-सिद्धिः
जनं च द्विधा - अनन्तरं परंपरं च । तत्रानन्तरमारम्भसिद्धिग्रन्थस्य प्रयोजनं श्रोतॄणां व्यवहारकौशलसिद्धि: परंपरं तु यथावद्वयवहारप्रवृत्त्या धर्मार्थकामरूपाणां पुरुषार्थानां सिद्धि:, क्रमान्मोक्षपुरुषार्थस्यापीति । अथ पूर्वोक्तमेवाभिधेयं द्वारैविशिनष्टि - " तिथिवारभेत्यादि " तिथिः प्रतिपदादिः १ । वारो रव्यादिः २ । भमश्विन्यादिः ३ | योगः सिद्धियोगादिः ४ । राशिर्मेषादिः ५ । गोरिव चरणं ' चरे रास्त्वगुरौ ' इति यप्रत्यये गोचर्यं पूर्वपूर्वराशित उत्तरोत्तरराशि संचरणं ग्रहाणामित्यर्थः ६ । कार्यं विद्यारम्भादि ७ । गमो यात्रा ८ । वास्तु गृहाड़प्रासादादि, तत्संबन्धात्तत्प्रवेशोऽप्यत्र ९ । इदं च गमवास्तुरूपं द्वारद्वयं बहुवक्तव्यतया कार्यद्वारात् पृथगुपन्यस्तं । विलग्नं लग्नाख्यस्तत्कालोदयाद्वाशिः १० । मिश्रमुक्तानुक्त बहुद्वारवाच्य सङ्ग्रहरूपं ११ । एतैरैि: शास्तीति सम्बन्धः ॥ तत्रादौ तिथिमाह-
"
४
नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा चेति त्रिरन्विता । हीना मध्योत्तमा शुक्ला कृष्णा तु व्यत्ययातिथिः ॥ ३ ॥
व्याख्या- " त्रिरिति " नन्दा भद्रेत्याद्यावृत्तिः पञ्चदशतिथिषु त्रीन् वारान् कार्या । एवं च प्रतिपत्षष्ठ्येकादश्यो नन्दाः द्वितीयासप्तमीद्वादश्यो भद्राः । तृतीयाष्टमीत्रयोदश्यो जयाः । चतुर्थीनवमीचतुर्दश्यो रिक्ताः । पञ्चमी दशमी पञ्चदश्यः पूर्णा इति सिद्धं । एषां नाम्ना किं प्रयोजनमित्याशङ्कायामाह - " अन्वितेति सान्वया नामानुरूपं फलमासामित्यर्थः । अत एवाह श्रीपति:- " चित्रोत्सनवास्तुक्षेत्र नृत्यादि आनन्दमयं कर्म नन्दासु १ । विवाहभूषाशकटाध्वयानशान्तिकपौष्टिकादि भद्रमयं कर्म भद्रासु २ । संग्रामसैन्यामियोगाद्यं जयकर्म जयासु ३ | वधबन्धातविषाग्निशास्त्रादि रिक्तकर्मैक रिक्तासु नान्यत् किमपि ४ । विवाहदीक्षायात्रादि माङ्गल्यं कर्म पूर्णासु ५ कृतं सिध्यति । सामान्येन तु दर्शरिक्तादिवजं प्रायः सर्वासु शुभं कर्म कुर्यात् । दर्शे च तत्तिथिनिबद्धादवश्यकर्तव्यादन्यकर्म न कार्यं " । लल्लस्वाह - " स्युर्य
""
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प्रथम विमर्शः
"
न्त्रमन्त्ररक्षादीक्षाक्षुद्रेषु कर्मसु स्त्राने रिक्तादर्शाष्टम्यः शस्ता इति । " हीना मध्योत्तमा शुक्लेत्यादि " शुक्लपक्षे आद्यापञ्चतयी हीना, द्वितीया मध्या, तृतीया उत्तमा । कृष्णपक्षे तु व्यत्ययः, कथं ? आद्यापञ्चतयी उत्तमा द्वितीया मध्या, तृतीया हीनेति । तिथिरिति सर्वत्र विशेष्यं योज्यं । तिथीशाश्चैव रत्नमालोक्ताः
--
तिथिपाश्चतुर्मुख १ विधातृ २ विष्णवो ३,
यम ४ शीतदीधिति ५ विशाख ६ वज्रिणः ७ । वसु ८ नाग ९ धर्म १० शिव ११ तिग्मरश्मयो १२, मदनः १३ कलि १४ स्तदनुविश्व १५ इत्यपि ॥ १ ॥ तिथौ हि दर्शसंज्ञके पितॄनुशन्त्यधीश्वरान् त्रयोदशी तृतीययोः स्मृतस्तु चित्तपोऽपरैः ॥ २ ॥
66
वह्नि १ विरचो २ गिरिजा ३ गणेशः ४, फणी ५ विशाखो ६ दिनक ७ न्महेशः ८ । दुर्गा ९ को १० विश्व १९ हरि १२ स्मराश्च १३, शर्वः १४ शशी १५ चेति पुराणदृष्टाः ॥ ३ ॥
एषां देवानां प्रतिष्ठादौ च तत्ततिथीनामुपयोगः । एवमेव वक्ष्यमाणनक्षत्रकरणक्षणेशानामपीति रत्नमालाभाष्ये । जिनस्य तु प्रतिष्ठादौ सर्वेऽपि तिथिनक्षत्रकरणक्षणाः शुद्धत्वे सत्युपयोगिन एव तस्य सर्वदेवाधिदेवत्वात् ॥ अथ कुतिथीराह—
रिक्ता ४-९-१४ षष्ठ्यष्टमी द्वादश्यमावास्याः शुभे त्यजेत् । स्वीकुर्यान्नवमीं कापि न प्रवेशप्रवासयोः ॥ ४ ॥
व्याख्या - " शुभे इति ” सौम्ये कार्ये । उग्रकार्यं स्वशुभतिथ्यादिषु विशिष्य सिध्यति । "( त्यजेदिति " आसां सर्वासामपि पक्षच्छिद्रसंज्ञत्वात् ।
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आरम्भ-सिद्धिः
यदाहुः - " षष्ठ्यष्टमीचतुर्थीचतुर्दशीद्वादशी कुहूनवमी: । पक्षच्छिद्राण्याद्दुर्लभते नैतेषु संसिद्धिम् ॥ १ ॥
""
षष्ठीद्वादश्यौ यात्रायां विशिष्याशुभे, " ध्रुवे तु कर्मणि शुभे " इति लल्लः । 'स्वीकुर्यादित्यादि " रिक्तापि नवमी गुणान्तरबाहुल्ये सति क्वचित्कार्ये ग्राह्या, गमागमयोस्तु न प्राव चतुर्दश्यपि गमागमयोर्न प्राव इति श्रीपतिः ॥
"
त्रीन् वारान् स्पृशती त्याज्या त्रिदिनस्पर्शिनी तिथिः । वारे तिथित्रयस्पर्शिन्यवमं मध्यमा च या ॥ ५ ॥
व्याख्या -यत्र तिथेर्वृद्धिस्तत्रैका तिथिर्वास्त्रयं स्पृशतीति सा त्रिदिन स्पशिनी । तस्याः फल्गुरिति नाम हर्षप्रकाशग्रन्थे । यत्र तु तिथिपातस्तत्रैको वारस्तिस्रस्तिथीः स्पृशति । तासु या मध्यमा तिथिः साऽवममित्युच्यते । एते द्वे अपि त्याज्ये | यदुक्तम्
" दिनक्षये भवेत् कार्यक्षयस्तेन शुभं न तत् । प्रकृत्यन्यत्वमुत्पात स्त्र्यहःस्पृक् तदतोऽशुभम्
""
१” ॥ १ ॥
दग्धतिथिमाह
दग्धामर्केण संक्रान्तौ राइयोरोजयुजोस्त्यजेत् । भूत ५ हग् २ युक्तयोःशेषां शोधिते भगणे १२ तिथिम् ॥ ६ ॥
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व्याख्या - संक्रान्तौ सत्यामोजयुजो राश्योर्भूतहग्युक्तयोः सतोर्भगणे शोधिते सति शेषां तिथिमर्केण दग्धां त्यजेदित्यन्वयः । भावना चैवं विषमराशौ मेष १ मिथुन ३ सिंह ५ तुला ७ धनुः ९ कुंभ ११ रूपे यद्यर्कसंक्रान्तिरस्ति, तदा तद्राश्यङ्कमध्ये " भूतेति " पञ्च क्षिप्त्वा भगणं राशिद्वादशक रूपमिति कृत्वा द्वादश शोध्यन्ते कृष्यन्ते । ततः शेषाङ्केनार्कदग्धतिथिज्ञेया । यदि तु द्वादश न शुध्यन्ति शेषं वा न तिष्ठेत्तदा पञ्चप्रक्षेपे यज्जातं तत्सङ्ख्यैव
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प्रथम विमर्शः
तिथिरर्कदग्धा । तथा युजि समराशौ वृष २ कर्क ४ कन्या ६ वृश्चिक ८ मकर १० मीन १२ रूपे यद्यर्कसंक्रान्तिरस्ति, तदा संक्रान्तिराश्यङ्कमध्ये " दृगिति ” द्वयं क्षेप्यं, शेषं प्राग्वत् । उदाहरणं यथा-मेषराशिः प्रथम इत्येकाको न्यस्यते १, एवमग्रेऽपि, ततस्तत्र पञ्चप्रक्षेपे जाताः षट् ६. एभ्यो द्वादश न शुध्यतीति स्थिताः षडेव, ततो मेषस्थेऽके सति षष्ठ्येव दग्धा । तुलाराशिः सप्तमः ७, पञ्चयोगे द्वादश १२, अत्र द्वादश शुध्यन्ति परं शेषं न तिष्ठति, ततस्तुलास्थेऽर्के द्वादश्येव दग्धा । धनराशिनवमः ९, पञ्चयोगे चतुर्दश १४, एभ्यो द्वादशशोधने स्थितौ द्वाविति धनुःस्थे द्वितीया दग्धा । तथा वृषराशिद्वितीयः २, हियोगेचत्वारः ४ एभ्यो द्वादश न शुध्यन्तीति वृषस्थेऽर्के चतुर्युव दग्धा । मकरराशिदशमः १०, द्वियोगे द्वादश १२, एभ्यो द्वादश शुध्यन्ति, परं शेषाभावान्मकरस्थेऽर्के द्वादश्येव दग्धा । मीनराशिदश: १२, द्वियोगे चतुर्दश, एभ्यो द्वादशशोधने स्थितौ द्वाविति मीनस्थेऽर्के द्वितीया दग्धा । एवं शेषेष्वपि भाव्यं । सा च तिथिस्तं संक्रान्तिमासं यावत्याज्या ।
इदमेव मुखार्थ व्यक्तमाहदग्धार्केण धनुर्मीने २ वृषकुंभे ४ ऽजकार्कणि ६ । द्वन्द्वकन्ये ८ मृगेन्द्रालौ १० तुलैणे १२ द्वयादियुतिथिः॥७
व्याख्या-द्वन्द्वं मिथुनं । अलिवृश्चिकः । एणो मकरः । द्वयादीत्यादि द्वितीयातः प्रभृति द्वादशी यावत्समा तिथिः । विशेषस्तु"कुंभधणे २ अजमिहुणे ४ तुलसीहे ६ मयरमीण ८ विसकके १० । विच्छियकन्नासु १२ कमा बीआई समतिही उ ससिदड्ढा ॥ २ ॥
___ " अत्र ससिदड्ड त्ति " यदा कुंभे धनुषि वा चन्द्रस्तदा द्वितीया चन्द्रदग्धेत्याद्यर्थः । इदं हर्षप्रकाशे । स्थापना
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अर्कदग्धा
धनुर्मीने
वृषकुंभे
मेषक
मिथुनकन्ये
सिंहवृश्चिके
तुलाम करे
आरम्भ-सिद्धिः
66
तिथिः
२
8.
८
१०
१-२
चन्द्रदग्धा
कुंभधनुषि
मेषमिथुने
तुलासिंहे
मकरमीने
वृषकर्के
वृश्चिककन्ये
तिथिः
४
८
दग्धतिथिजोऽर्भः प्रायः स्वल्पतरायुः स्यात् ।
""
कुष्टं क्षौरेऽम्बरे दौःस्थ्यं गृहवेशे तु शून्यता । आयुधे मरणं यात्राकृष्युद्वाहा निरर्थकाः ॥ १ ॥ इति दग्धतिथिफलं यतिवल्लभे ।
क्रूरतिथिमाह
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૧૦
१२
त्रिशश्चतुर्णामपि मेषसिंहधन्वादिकानां क्रमतश्चतस्रः । पूर्णाश्चतुष्कत्रितयश्च तिस्रस्त्याज्या तिथिः क्रूरयुतस्य राशेः॥
व्याख्या - अत्र तु पादस्यादौ एवमिति पदाध्याहारेऽर्थसंटकः । तथाहिमेषादिचतुष्कस्य क्रमात् प्रतिपदादितिथिचतुष्कं संबन्धि स्यात् । एवं सिंहादिचतुष्कस्य षष्ठ्यादिचतुष्कं धनुरादिचतुष्कस्यैकादश्यादि चतुष्कं च । यास्तु पूर्णास्तिस्रस्तिथयः सन्ति तासामेकैका विष्वपि चतुष्केषु प्रत्येकं संबन्धिनीं स्यात् । कोऽर्थः ? मेषादिचतुर्षु प्रत्येकं पञ्चमी संबन्धिनी, सिंहादिचतुर्षु प्रत्येकं दशमी संबन्धिनी, धनुरादिचतुर्षु प्रत्येकं पञ्चदशी संबन्धिनी । स्थापना
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प्रथम विमर्शः
मेष
१-५
सिंह
वृष
२-५ कन्या
मिथुन
३-५
कर्क ४५
तुला
वृश्चिक
६-१०
७- १०
८-१०
९-१०
धन
मकर
कुंभ
मीन
११-१५
१२-१५
१३-१५
१४-१५
एवं क्रूरयुतस्य राशेस्तिथिः त्याज्येति । ततोऽत्र मेषे प्रतिपत्पञ्चमी चेति । को भावः ? मेषे रविभीमशम्यतर (म) क्रूराक्रान्ते सति प्रतिपत्पञ्चमी च क्रूरतिथित्वात्याज्या । एवं वृषे द्वितीया पञ्चमी च मिथुने तृतीया पञ्चमी च, कर्के चतुर्थी पञ्चमी च, सिंहे षष्ठी दशमी च कन्यायां सप्तमी दशमी च, तुलायामष्टमी दशमी च, वृश्चिके नवमी दशमी च, धनुयेकादशी पञ्चदशीच, मकरे द्वादशी पञ्चदशी च, कुंभे त्रयोदशी पञ्चदशी च मीने चतुर्दशी पञ्चदशी व त्याज्या: । क्रूरयुतस्येत्यत्र सावधारणं व्याख्येयं ततः केवलेन क्रूरेणाक्रान्ता मेषाद्या राशयश्चेत् तदैव तेषु यथोक्तास्तिथयः क्रराः, सौम्ययुतेन तु क्रूरेण शुभा एवेत्यर्थः । यस्य नामराशिः क्रूरेणाक्रान्तोऽस्ति तस्यपुंसः शुभकार्ये तद्र शिसंबन्धिनी सा सा तिथिस्त्याज्येत्येके । अन्ये त्वाहु:मे १ - ५ इति कोऽर्थः ? मेषे क्रूराक्रान्ते सति प्रतिपत्पञ्चम्योराद्याः पञ्चदश घट्यस्त्याज्याः । वृषे २-५ द्वितीयापञ्चम्योर्द्वितीयाः पञ्चदश घठ्यः । मिथुने ३ - ५ तृतीयापञ्चम्योस्तृतीयाः पञ्चदश घढ्यः । कर्के ४-५ चतुर्थी पञ्चम्योस्तुर्याः पञ्चदश धन्यः । एवं सिंहादिचतुष्कधन्वादिचतुष्कयोरपि ॥
तिथिनियतानि करणान्याह -
करणान्यथ शत्रुनि १ चतुष्पद २ नागानि
३ क्रमाच्च किंस्तुघ्नम् १४ ।
असित चतुर्दश्यर्धातिथ्यर्धेषु ध्रुवाणि चत्वारि ॥ ९ ॥ व्याख्या-यदा यावत्प्रमाणा तिथिस्तदा तदर्धमानानि सर्वकरणानि,
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आरम्भ-सिद्धिः
तिथ्यधेष्विति वचनात् । असितेत्यादि कृष्णचतुर्दशीरात्रौ शकुनिः, अमावास्यायां दिवा चतुष्पदं, रात्रौ नागं, शुक्लप्रतिपदि दिवा किंस्तुघ्नं । ध्रुवाणीति नियतस्थानस्थत्वात् ।
अथ बव १ बालव २ कौलव ३ तैतिल ४ गर ५ वणिज ६ विष्टयः ७ सप्त । मासेऽष्टशश्वराणि स्युरुज्वलप्रतिपदन्त्यार्धात् ॥१०॥
व्याख्या-चराणीति प्रतिमासमष्टकृत्व आवृत्तेः । तथाहि-शुक्लप्रतिपदात्री बवं, द्वितीयायां दिवा बालवं, रात्रौ कौलवं, तृतीयायां दिवा तैतिलं स्त्रीविलो. चनापराख्यं, रात्रौ गरं, चतुर्थी दिवा वणिजं, तदात्रौ विष्टिभद्रा इति आद्या. वृत्तिः । एवं द्वितीयाद्यावृत्तयो विष्ट यन्ता ज्ञेया: । यथा-पञ्चम्यां दिवा बवं, रात्रौ बालवं, यावत् शुक्लाष्टम्यां दिवा विष्टिः २ । पुनस्तद्रात्रौ बवं, नवम्यां दिवा बालवं, यावच्छुक्कैकादश्यां रात्री विष्टिः ३ । पुन-दश्यां दिवा बवं, यावदाकायां दिवा विष्टिः ४ । पुनस्तदात्रौ बवं, कृष्णप्रतिपदि दिवा बालवं, यावन्कृष्णतृतीयायां रात्रौ विष्टिः ५ । पुनश्चतुर्थी दिवा बवं, यावत्सप्तम्यां दिवा विष्टिः ६ । पुनस्तद्रात्रौ बवं, यावत्कृष्णदशम्यां रात्रौ विष्टिः ७ पुनरेका. दश्यां दिवा बवं, यावच्चतुर्दश्यां दिवा विष्टि ८ रित्यष्टवृत्तौ ध्रुवैश्चतुर्भिः करणैः सह मासपूर्तिः । इह च तादात्विकतिथिमानस्य पूर्वोत्तरार्धे एव दिनरात्री ज्ञेये। एपामीशा एवं
" इन्द्रो १ विधि २ मित्रा ३ यम
४ भूप ५ श्री ६ शमना ७ श्चलेषु करणेषु । कलि १ नृप २ फणि ३ मरुतः
४ पुनरीशाः क्रमशः स्थिरेषु स्युः ॥ १ ॥" अत्र शमनो यमः स भद्रायाः स्वामी ॥ दशानि विविष्टीनि दिष्टान्यखिलकर्मसु ।
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प्रथम विमर्शः
राज्यहर्व्यत्ययाद्भद्राऽप्यदुष्टैवेति तद्विदः ॥ ११ ॥
व्याख्या - विविष्टीनीति कोऽर्थः ? एब्वेकादशसु करणेषु भद्रा दुष्टा । यतः— " यदि भद्राकृतं कार्य प्रमादेनापि सिध्ध्यति । प्राप्ते तु षोडशे मासे समूलं तद्विनश्यति ॥ १ ॥ क्वचित्साऽप्यधिकृता, यदुक्तं मारचन्द्र टिप्पन के -
99
" दाने चानशने चैव घातपातादिकर्मणि ।
खराश्वप्रसवे श्रेष्ठा भद्राऽन्यत्र न शस्यते ॥ १ ॥ " राज्यत्ययादिति रात्र्यं सत्का दिने आगता दिनांशसका वा निशीत्येवंरूपा अदुष्टैवेति । आहुश्च---
रात्रिभद्रा याहि स्यादहर्भद्रा यदा निशि ।
न तत्र भद्रादोषः स्यात् सर्वकार्याणि साधयेत् ५१ ॥ ' तथा या विष्टिरक्रमप्राप्ता स्यात्, कोऽर्थः ? अन्यदिनसत्काऽन्यदिने आगता, अन्यनिशासत्का वाऽन्यनिशीति साध्यदुष्टैवेत्यपि केऽप्याहुः, स्थानभ्रष्टत्वेन निर्बलत्वादिति च तवामभिप्रायः । परमेतद्वाक्यद्वयं न बहुसम्मतं, स्थानान्तरप्राप्तस्यापि विषादेर्मारणात्मकत्वाद्यनपगमादिति त्रिविक्रमः ।
66
विशेषस्तु —
6:
सुरभे वत्स या भद्रा सोमे सौम्ये सिते गुरौ । कल्याणी नाम सा प्रोक्ता सर्वकार्याणि साधयेत् " ॥ १ ॥
अत्र सुरभे इति देवगणनक्षत्रे | तथा— स्वर्गेऽजोक्षणकर्केष्वधः स्त्रीयुग्मधनुस्तुले । कुंभमीनालिसिंहेषु विष्टिर्मर्त्येषु खेलति ॥ १ ॥
अत्र अजोक्षेति चन्द्रे यथोक्तराशिस्थे सतीति भावः ! अध इति पाताले ।
मयेष्विति मनुष्यलोके । इदं नारचन्द्र टिप्पण्यां ॥
66
११
भद्राकालं व्यक्त्या प्राहरात्रौ चतुथ्यैकादश्योरष्ट मीराकयोदिवा ।
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१२.
आरम्भ-सिद्धिः
भद्रा शुक्ले तिथौ कृष्णे त्वेकैकोने यथाक्रमात् ॥ ११ ॥
व्याख्या - शुक्ले इति शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे त्वेकैकोने तिथौ । तथाहितृतीयादशम्यो रात्रौ सप्तमीचतुर्दश्योर्दिवा चेत्यर्थः । ननु दुष्टत्वाद्व र्जनार्थ विष्टिरुच्यतां, शेषकरणानां वर्जना स्वियं क्वोपयुज्यते ? उच्यते - संक्रान्त्या -
,
दिषु । यदाहु:
" शकुनिचतुष्पदनागे किंस्तुध्ने कोलवे वणिज्ये च । ऊर्ध्वं सङ्क्रमणं गरतैतिलविष्टिषु पुनः सुप्तम् ॥ १ ॥ बवबालवे निविष्टं सुभिक्षं चोर्ध्वसङ्क्रमे । उपविष्टले रोगकरः सुप्तो दुर्भिक्षकारकः ॥ २ ॥ तथा शीतोष्णवर्षर्तुषु सूर्यसङ्क्रमाः क्रमेण सुप्तो निवेशिनः शुभाः । तथा पूर्वोत्तरकरणद्वयसन्धिगा संक्रान्तिस्तु सुप्तोत्थितेत्याख्या सर्वदाप्यशुभेति
पूर्णभद्रः ॥ विष्टेर्मुखाद्यङ्गान्याह
बाण५ द्वि२ दिग्१० जलधि४ षट्६ त्रिक३ नाडिकासु, वक्त्रं १ गलोर हृदय३ नाभि४ कटीश्च ५ पुच्छम् ६ । विष्टेर्विदध्युरिह कार्य १ वपुः २ स्व ३ बुद्धि ४ प्रेम ५ द्विषां ६ क्षयमिमेऽवयवाः क्रमेण ॥ १३ ॥
व्याख्या - त्रिकेति अत्र बाणद्विदिग्जलविषट्त्रिशब्दानां द्वन्द्वं कृत्वा ततः स्वार्थिके के नाडिकाशब्देन सह कर्मधारयः । त्रिध्विति पाठस्त्वयुक्तः तिस्रादेशप्राप्तेः । कट इति कटी | कार्येत्यादि वक्त्रे कार्यहातिः, गले मृत्युः, हृदये द्रव्यनाशः, नाभौ बुद्धिनाशः, कट्यां प्रीतिनाशः, विष्टिपुच्छे तु ध्रुवं जयः ।
अत एवाह लल्लः-
शुभाशुभानि कार्याणि यान्यसाध्यानि भूतले । नाडीयमिते पुच्छे भद्रायास्तानि साधयेत् ” ॥ १ ॥
""
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पुच्छं चैवं
" दशम्यामष्टम्यां प्रथमघटिकापञ्चकपरं, हरिद्यौ ११ सप्तम्यां त्रिदश १३ घटिकान्ते त्रिघटिकं । तृतीयायां राकासु च गतसविशेक २१ घटिके, ध्रुवं विष्टेः पुच्छं शिवतिथि १४ चतुर्थ्योश्च : विगलत् " ॥ १ ॥ अस्य भावनार्थं विष्टर्मेलितमुखपुच्छंकुंडलाकारसर्प - वत्स्थापना यथा
२
ततोऽयं भावः - दशभ्यष्टम्यो
विष्टेः कटीसत्कद्वितीय घटीत: प्रारम्भस्ततो घटीपञ्चकादनु पुच्छं समेति, तदनु मुखादिशेषाङ्गानि यावत्कव्याः प्रथमघटी । एवम
भाव्यं । एकादशी सप्तम्यो हृदयान्त्यघटीयात्प्रारंभः, तृती याराकयोः कंठद्वितीयघटीतः प्रारंभः, चतुर्दशीचतुथ्यस्तु मुखे प्रारंभः । विगलदिति प्रान्ते च
पुच्छति ।
""
" सर्पिणी वृश्चिकी भद्रा दिवारात्र्योः स्मृता क्रमात् । सर्पिण्या वदनं त्याज्यं वृश्चिक्याः पुच्छमेव च ॥ १ ॥ इत्येके । शुक्ले पक्षे सर्पिणी. कृष्णे वृश्चिकीत्यन्ये । इह च विष्टेर्मुखाद्यङ्गेषु पञ्चादिघढ्यो निरुद्वा एव यदुक्तास्तद्वयवहारतः षष्टि ६० घटिके तिथौ त्रिंशद् ३० घटीमेव तिथ्यर्थं स्यादिति तदपेक्षयैव, अन्यथा तु न्यूनाधिकतिशिवशाम्म्यूनाधिके तिथ्यर्थे पञ्च दिघट्यो न्यूनाधिका अपि स्युः तथाहि - जघन्ये चतुःपञ्चाशद् ५४ घटिके तिथौ तदर्धमानत्वाज्जघन्या सप्तविंशति २७ घटीका भद्रा | उत्कृष्टे षट्षष्टि ६६ घटीके तिथौ तु त्रयस्त्रिंशद् ३३ घटीका उत्कृष्टा ।
मुख घटी ५ । कठ घ.
हृदय घ.
भद्रायंत्रकम्
प्रथम विमर्शः
१०
/ नाभि घ.
४
m
पुच्छ घ
कटि घ. ६
१३
યુ
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आरम्भ-सिद्धिः
एवं मध्यमे तिथिमाने भद्रामानमपि मध्यं । घटी च षष्टि ६० पलमाना यदि त्रिंशता ३० भज्यते तदा पलद्वयं लभ्यते. ततो यथोक्त त्रिंशद् घटीके भद्रामाने यावत्यो यावत्यो घट्यो यस्मिन् यस्मिन्नने सन्ति तावन्ति तावन्ति पलद्वयानि घटीं घटीं प्रति तस्मिंस्तस्मिन्नने हीयन्ते वर्धन्ते वा । कथं ? यदा त्रिशन्मध्यादेका घटी न्यूना एकोनत्रिंशद्घटीका भद्रेत्यर्थः तदा पञ्चघटीमिते भद्रावक्त्रे पञ्चपलद्वयानि, कोर्थः ? दश पलानि न्यूनीभूतानि, दशपलैन्यूँनाः पञ्च घट्यो विष्टेर्वक्त्रमिति भावः । एवं द्विघटीमाने भद्रागले द्वे पलद्वये न्यूने जाते पलचतुष्केण ऊनं घटीद्वयं विष्टेनलमिति भावः । एवं हृदये दश घट्यो दशभिः पलद्वयैर्विंशति २० पलरूपैन्यूनाः । एवं नाभौ चतुर्भिः पलद्वयैरष्टपलरूपैन्यूँनं घटी चतुष्कं । एवं कट्यां षड् घट्यः षड्भिः पलद्वयादशपलरूपैन्यूनाः । एवं पुच्छे घटीत्रयं त्रिभिः पलद्वयैः षट्पलरूपैन्यूनमिति । इदं त्रिंशन्मध्यादेकघट्या न्यूनत्वे उक्तं । यदा तु त्रिंशन्मध्यात् द्वे घट्यौ न्यूने अष्टाविंशतिघटीका भद्रा स्यादित्यर्थः तदा एतदेव हानिमानं द्विगुणी कार्य, कथं ? यथा एकघट्या न्यूनया वक्त्रे पञ्च पलद्वयानि दश पलरूपागि न्यूनीभूतानि तथा घटीद्वयन्यूनतया भद्रावक्ने दश पलद्वयानि विंशतिपलरूपाणि न्यूनीभूतानीत्यादि । यदा तु त्रिंशन्मध्याद्घटीत्रयं न्यूनं सप्तविंशतिवटीका भद्रेत्यर्थः तदा तदेव हानिमानं त्रिगुणी कार्य । यथा एकघट्या न्यूनया वक्त्रे पञ्च पलद्वयानि न्यूनानि तथा घटीत्रये न्यूने पञ्चदश १५ पलद्वयानि त्रिंशत् ३० पलरूपाणि न्यूनानीत्यादि । एवं त्रिंशदुपरि एकद्विविघटीवृद्धावपि वाच्यं, नवरं यथा प्राग् न्यूनीभूतानीत्युक्तं तथाऽत्राधिभूतानीति वाच्यं । इदं प्रसङ्गाद्दर्शितम् ॥ भद्राया मुखमेकान्ततस्त्याज्यमित्यतो यात्रादौ यथा सा संमुखी स्यात् तथाह
भद्रेन्द्रा १४ ष्टा ८ श्व ७तिथ्य १५ ब्धिदशे १० शा ११ ग्नि ३ मिते तिथौ । दिग् ८ यामाष्टकयोर्नेष्टा संमुखी पृष्ठतः शुभा ॥१॥
व्याख्या-इन्द्राश्चतुर्दश चतुर्दश्यादितिथ्यष्टके पूर्वाद्यष्टदिक्षु यातां प्रथमा
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प्रथम विमर्श:
दियामाष्टके यथासंख्यं भद्रा संमुखी स्यात् । स्थापना एतत्संग्रहोऽयं -
"
घु जाट्टणी सिते पक्षे गृ छिन् ढ सितेतरे । व्यञ्जनैस्तिथयो ज्ञेयाः स्वरैश्च प्रहरा दिशः ॥ १ ॥
अत्र घु इति कोर्थ : ? घस्तुर्यव्यञ्जनं उः पञ्चमस्वरः. ततश्चतुथ्यां तिथौ पञ्चमयामे पञ्चमदिशि प्रतीच्यां यातां भद्रा संमुखी स्यात् । एवं जा इति
जस्याष्टमव्यञ्जनत्वादाकारस्य च द्वितीस्वरत्वादष्टम्यां तिथौ द्वितीययामे द्वितीयदिशि आग्नेय्यां यातां भद्रा संमुखीत्यादि तद्दिने तद्यामे तद्दिशि प्रयाणादिसर्व कार्य मवश्यं त्याज्यं ।
तिथि
१४
८
७
१५
४
१०
११
दिकू प्रहर
पूर्व
अग्नि
दक्षिण
नैर्ऋत्य
पश्चिम
वायव्य
उत्तर
ईशान
१
AWW
४
५
७
८
१५
पृष्ठतः शुभेति यदा च यद्दिशि संमुखी
तदा तद्दिशः पञ्चम्यां पञ्चम्यां दिशि यातां भद्रा पृष्ठतः स्यात्, सा
दि शुभा ॥
इति तिथिद्वारम् ||
॥ अथ वारः ॥ २
प्रथमं वारः कदा लगतीत्याह
वारादिरुदयादूर्ध्व पलैर्मेषादिगे रवौ । तुलादिगे त्वस्त्रिंशत्तद्युमानान्तरार्धजैः ॥ १५ ॥
व्याख्या - मेषादिषट्स्थेऽकें सत्य कोंदयादूर्ध्वमप्रत इत्यर्थः । वारादिरिति वारो लगति । तुलादिषट्कस्थे तूयादधोऽर्वाग् रात्रिशेषे सतीत्यर्थः । कियत्कालेनेत्याह-निशदित्यादि स चासौ द्यौर्दिनस्तस्य मानं तद्द्युमानं त्रिंशच्च तद्द्यु. मानं च तयोरन्तरं विश्लेषस्तस्यार्धे जातैः पलैः । कोऽर्थः ? इष्टदिनस्य मानं
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आरम्भ-सिद्धिः त्रिंशतं च संस्थाप्य यद्यस्माच्छुध्यति तत्तस्माच्छोध्यते ततः शेषेऽर्थीकृते यत्स्यात्तावद्भिः पलैः । तथाहि-श्रीगौर्जरपत्तने उत्कृष्टं कर्कादिदिनमानं घटी ३३ पल ४८, अन्न घट्यंकात् त्रिंशद्रूपस्य घव्यंकस्य शोधने स्थितं घटी ३ पल ४८, अस्मिन्नर्धिते घटी १ पल ५४, पलीकरणा) घट्यंकस्य षष्टि ६० गुणने ५४ क्षेपे च जातं पल ११४ मितैः कर्काद्यदिने सूर्योदयभवनानन्तरं वारो लगति । तथा तत्रैव पत्तने जघन्यं मकराद्यदिनमानं घटी २६ पल १२, त्रिंशन्मध्यात घट्यंकस्य शोधने स्थितं घटी ३ पल ४८, प्राग्वदर्धिते पलीकृते च ११४ पलैर्मकराद्य दिने सूर्योदयभवनादर्वाग्. वारो लगति । एवं मध्यमदिनमानेष्वप्यानेयं प्रयोजनं चात्र वारप्रवृत्तित एवारभ्य वक्ष्यमाणानां कालहोराणामधयामादीनां च गणना कार्येति । दिनमानानयने च स्थूलोपायोऽयं-- “ रसद्वि २६ नाड्योऽर्क १२ पला मृगे स्युः,
सचापकुंभेऽष्टकृतैः पलैस्ताः २६-४८ । अलौ च मीनेऽष्टयमाः सशका २८-१४,
__ मेषे तुलायामपि त्रिंशदेव ३० ॥ १ ॥ कन्यावृषे भूशिखिनो३१ऽङ्गवेदैः ४६.
सार्कास्त्रिरामा मिथुने च सिंहे ३३-१२ । कर्के त्रिरामा वसुवेदयुक्ता ३३-४८,
एषामितिः संक्रमवासराणाम् ॥ २ ॥ तवं चएकार्क १-१२ पक्षद्विशरा २-५२ स्दिन्ताः ३ ३२, विदन्त ३-३२ पक्षद्विशराः २-५२ कुसूर्याः १-१२ । मृगादिषट्केऽहनि वृद्धिरेवं, कर्कादिषट्केऽपचितिः पलाद्या ॥ ३ ॥" ___अत्रापचितिर्हानिः । पलायेति अनेनैकात्यादौ आद्यः पलाङ्को द्वितीयस्स्वक्षराङ्क इति भावः । अहवृध्ध्या च निशो हानिस्तद्धान्या चेतरवृद्धिः स्वयमूया। एवं च वृद्धिहानिपलप्सर्वाग्रमिदम् - "वढइ छसु मयराइसु पलाण छत्तीस ३६ छलसि ८६ छहिअसयं १०६ ।
कमउक्कमओ हायइ तहेव कक्काइरासीसु ॥ १ ॥
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स्थापना
प्रथम-विमर्श:
द्वादशसङ्क्रान्तिध्वाद्य- मासावधि प्रतिदिनं मासेन वृद्धिहानि सङ्क्रान्त्याच
दिनानां मानम् एवं
वृद्धिहानी
पलसम्
दिनेवारप्रारम्भः
सूर्यः घटी पल प-अक्षर
मेषे०
वृषे०
मिथु·
वृद्धि :
वृद्धि:
१२ १-१२ वृद्धि:
३०
० ३-३२
३१ ४६ २-५२
३३
हानिः
क०
सिंहे०
हानिः
कन्या० ३१ ४६ ३-३२ हानि:
३३ ४८ १-१२
३३ १२ २-५२
तुला ०
३०
३-३२
वृश्चि० २८ १४
२-५२
धने० २६ ४८ १-१२
०
हानिः
हानिः
हानिः
पलानि
१०६
८६
३६
३६
८६
१०६
वृद्धि:
वृद्धिः
वृद्धिः
३६
मक० २६ १२ १-१२ वृद्धिः कुम्भे० २६ ४८ २-५२ वृद्धिः मीने ० २८ १४ ३-३२ वृद्धिः १०६
८६
हानिः
हानि:
हानि:
१०६
हानि:
८६
हानि:
३६ | हानिः
वृद्धिः
वृद्धिः
वृद्धिः
घ पल
T
०
,
१
०
1
०
१
१
1
०
m
३६
५४
३६
५३
my us
५३
१७
५४
सूर्योदयादूर्ध्वम्-वारः
सूर्योदयादवीग्-वारः
३६
५३
विशेषस्तु - 'विच्छिअकुंभाइतिए निसिमुहि विसधणुहकक्कतुलि मज्झे । मिगमिहुणकन्नसी हे निसिअंते संक्रमइ वारो' ॥ १ ॥ इति दिनशुद्धिग्रन्थे ।
46
राम ३० रस ६० नन्द ९० बाणा ५० वेदा ४० अष्टौ ८० सप्त ७० दशहताः कार्याः । मन्दादीनां दिनतः क्रमेण भागस्य नाड्यः स्युः " ॥ १ ॥ अत एव च शनिः सुप्तो भव्यः, त्रिंशद्घटीरूपस्य शनैर्भोगस्य शनिदिने दिवैव समाप्तत्वेन शने रात्रौ रविभोगस्यैव समागमनात् इत्यन्ये ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
-
वाराणां नामाद्याह"रविचन्द्रमङ्गलवुधा गुरुशुक्रशनैश्चराश्च दिनवाराः। रविकुजशन यः कराः मोम्याश्चान्ये पदोनफलाः ॥१६॥
व्याख्या - ऋरा इति ।
" रविमन्दारबारेषु यस्मिन् सङ्क्रमते रविः । ... तस्मिन्मासि भयं विद्यार्भिक्षावृष्टितस्करै.” ॥ १ ॥
इत्याद्युक्तेः, ऋग्वं चैषां यादृशं दिवा गण्यते न तादृशं रात्रौ, “ न वारदोषाः प्रभवन्ति गौ” इत्युक्नेः । पदोनेनि यदः पादस्तुर्याश इति यावत, तन पां सोम्य कावागणां शुभाशुभफलं विंशतिविशोपकापेक्षया पादो. नमेव स्यात् पञ्चदशैव विंशोपका इत्यर्थः । वारेषूचितकर्माण्येवं-.
राज्याभिषेक सेवामन्त्रशस्वोषधविद्यामझामयानसुवर्णताम्रोणिकाऽलङ्करणशिरुपपुण्यकर्मोत्सवादि रवी सिद्धयति ।। रजतगेयभोज्यकृषिवाणिज्यादि सोमे २। सर्व क्रूरकर्मरक्तस्त्राव हेमवालाऽऽकरधातुसेनानिवेशादि कुजे ३ । अक्षरशिलाकर्णवेधकाव्यध्यायामतर्कवादकलापठनादि बुधे ४ । सर्व शुभमाङ्गल्यकर्मदीभाविद्यायात्रौषध दि न गुग ५। सर्व बुधगुरूक्तं दीक्षावर्ज शुक्र ६ । दीक्षागृहप्रवेशनिवेशादि स्थित करं च कर्म शनौ ७ । सामान्येन तु
" सार्थसाधका वारा गुरुशुक्रबुधेन्दवः ।।
प्रोक्तमेव कृतं कर्म भोमार्कार्किषु सिध्यति" ॥ १ ॥ इदं दैवज्ञवल्लभे । नथा'' लाक्षाकुसुम्भमजिष्टारागे काञ्चनभूषणे ।
शस्तौ भीमरवी लोहोपलत्रपुविधौ शनिः ॥ १ ॥ द्रव्यादिदानग्रहणे निधाने, वाणिज्यसेवागुरुराजयोगे । कलाकृषिस्त्राशुभकर्मवित्तन्यासौपधेष्वारशनी न शस्तौ" ॥२॥
इति यतिवल्लभे । विशेषस्तु• उपचयकरस्य कुर्याद्ग्रहस्य वारे स्ववाविहितं यत् । अपचयकरग्रहदिने कृतमपि सिद्धिं न याति पुनः" ॥ १ ॥
इति लल्लः । अस्यार्थ:-वक्ष्यमाणगोचरादिविधिना यो ग्रहो यदा यस्यानुकूलः स तदा तस्योपचयकर इत्युच्यते. तस्य ग्रहस्य वारे यथोक्तं कार्य
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प्रथम-विमर्शः
कार्यम् । यस्तु तदानीं गोचरादिना प्रतिकूलः सोऽपचयकरः तस्य ग्रहस्य वारे कृतं कथमपि न सिध्यतीति । एवमग्रेऽप्युपचयकरापचयकरशब्दौ भावनीयौ । वारेषु कालहोरा: प्राह
होगः पुनरर्कसितज्ञचन्द्रशनिजीव भूमिपुत्राणाम् । सार्धघटीयमानाः स्वदारतस्तास्तु पूर्णफलाः ॥ १७ ॥
व्याख्या स्वकारत इति यद्दिने यो वारस्तस्याऽऽद्या होरा, द्वितीया षष्टस्य तृतीया ततोऽपि षष्ठस्येत्यादि । अत एवाह - ' - "अर्कसितज्ञचन्द्रशनिजीभूमिपुत्राणां " इति । अर्कात् किल सित: षष्ठः सिताञ्च ज्ञः षष्ठः, ज्ञच्च चन्द्रः षष्ठ इत्यादि । एवं चार्कवारेऽर्कशुक्रबुधादीनां होराः पुनः पुनस्तावत्स्युर्यावदहोरात्रे षष्टिघटी मिश्रनुवैिशतिहोगः स्युः | सोमवारे वाद्या चन्द्र होराऽभ्येति पुनस्तथैव चतुर्विंशतिर्यावद्भीमवारे आद्या भौमहोराऽभ्येतीत्यादि । स्थापनाअग्रे च राइयर्धस्य होरासंज्ञा वक्ष्यते इत्यत आसां कालहोरेति नाम ज्ञेयं । स्ववार इत्यस्य च घण्टालोलाम्यायेनोभयतोऽभिसम्बन्धनात् "स्ववारतस्तास्तु पूर्णफला इति” शुभाशुभस्य तद्दिनवारम्य सम्बन्धिन्यां होरायां कार्यकर्तुः पूष्णं विंशतिर्विशोपर्क शुभःशुभं फलं स्यात्, पञ्चदशविशोष के वारफले पञ्चविंशोपकस्य होराफलम्य मिलनादित्यर्थः । अत एवाह लल्ल:" वारफलं होरायामिति " |
होराप्रयोजनं स्विदं -
यस्य ग्रहस्य वारे यत्किञ्चित्कर्म प्रकीर्त्तितम् । तत्तस्य कालहोरायां पूर्ण स्यात्तूर्णमेव हि ” ॥ १ ॥ इति यतिवल्लभे । तथा—
होराफलवारफले निन्द्ये द्वे अपि न जातु गृह्णीत | एकस्मिन् शुभफलदे तयोश्च कार्य शुभं कुर्यात् ॥ १ ॥ इति व्यवहारप्रकाशे । वारेषु कुवेलाः प्राह-
मंगल
२॥
गुरु २॥
""
반드
२||
रविघटी
२॥
२४
कालहोराच
---
चन्द्र २॥
२॥
शुक्र
२॥
बुध
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૨૦
आरम्भ-सिद्धिः
मध्यपलानि आसु दिक्ष
रवि
त्याज्योऽधयामोवेदा४ दि७ द्वि२ पञ्चा५ ष्ट८ त्रिषषिमता। सूर्यादौ कालवेलाऽर्धयामाङ्कात्सैकपश्चमी ॥ १८ ॥
व्याख्या-यद्यपि प्रमाणेनाधयामत्वं वक्ष्यमाणकालवेलादिष्वष्यस्ति तथाऽप्यनार्धयाम इति रूढसंज्ञैव ज्ञेया। तथा चार्धयाम इति पदस्याऽऽवृश्या व्याख्या सिद्धा । कथं ? सूर्यादिवारेषु वेदाद्रिद्विपञ्चादिमितोऽर्धयामः सामान्येन घटीचतुकरूपो नाम्नाऽप्यर्धयामस्त्याज्यः । विशेषस्तु-- "सोल१६ १८ दसण३२ दु२ इगर चउ४ चउसठ्ठी६४ अद्धपहरमज्झपला। जत्ताइसु अह अहमा पुग्वाई छट्ट छठ दिर्सि" ॥ १ ॥
इति दिनशुद्धौ । अत्र “मज्झपल ति" पूर्वादितः षष्ठषष्ठदिशि यात्रादौ क्रियमाणे क्रमादेते एतेऽर्धयाममध्यपला अत्यन्तं त्याज्या इत्यर्थः ।
अस्य व्यक्त्यर्थं स्थापना यथा-- अर्धयामाः
.. | अर्द्धयामगतवाराः
___ सूर्यादावित्यर्धद्वयेऽपि
योज्यं । सैकपञ्चमीति पूर्व भावप्रधानत्वानिर्देशस्य
सैकत्वे सति पञ्चमी सै'वायव्य
कपञ्चमी । अयं भाव:मंगल
दक्षिण
अर्धयामाङ्कान् सर्वान् पङ् ईशान
क्त्या न्यस्य तदने एककः
पश्चिम स्थाप्यते, तथाहि-४-७. शुक्र
भाग्नेय २-५-८-३-६- १ इति, शनि
ततः क्रमेणार्धयामाकाद--
णने पञ्चमः पञ्चमोऽङ्कः कालवेलाऽर्कादिवारेषु, यथाऽर्कवारे चतुष्ककोऽर्धयामाङ्कः, चतुष्ककात् क्रमेणाग्रतो गणने पञ्चमोऽष्टकः समागतः, ततो जातमर्कवारेऽष्टमे चतुघटिके कालवेला। एवं सोमवारे सप्तकोऽर्धयामात्रः सप्तकात् पञ्चमस्थाने च त्रिकः, तत: सोमवारे तृतीये चतुर्घटिके कालवेला इत्यादि स्वयं भाज्य, नवरं गुरुवारेऽष्टकोऽधंयामाङ्कः, अष्टकाद्गुणने च पञ्चमः पश्चाद्वलने चतुष्कक एवं । एवं शुक्रशनिवारयोनिकषटकरूपाभ्यां पञ्चमी सप्तकद्विको क्रमारस्यातां । एतदेव पाठान्तरे व्यक्तमाह--
चन्द्र
बुध
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प्रथम विमर्शः
इति यतिवल्लभे । विशेषस्तु ।।
" उपचयकरस्य कुर्याद्ग्रहस्य वारे स्ववारविहितं यत् । अपचयकरग्रहदिने कृतमपि सिद्धिं न याति पुनः " ॥ १ ॥
इति लल्लः । अस्यार्थः-वक्ष्यमाणगोचरादिविधिना यो ग्रहो यदा यस्यानुकूलः स तदा तस्योपचयकर इत्युच्यते, तस्य ग्रहस्य वारे यथोक्तं कार्य कार्यम् । यस्तु तदानीं गोचरादिना प्रतिकूल: सोऽपचयकरः तस्य ग्रहस्य वारे कृतं कथमपि न सिध्यतीति। एवमग्रेऽप्युपचयकरापचयकरशब्दौ भावनीयौ । वारेषु कालहोराः प्राह
" सूर्यादौ कालवेलाऽट ८ त्रि ३ पट ६
क्ष्मा १ sध्य ४ श्व ७ दृइ २ मिता" अत्रायमाम्नायः-कालवेलाङ्का एव चतुर्युता अर्धप्रहराङ्काः स्युः, यत्र चाष्ट. भ्योऽधिकोऽङ्कः स्यात्तत्राष्टभिर्भागो देयो दिवा चतुर्घटिकानामष्टा नामेव सद्भावात्॥
कंटकोऽपि दिनाष्टांशे स्ववारान्मङ्गलावधौ। . बृहस्पत्यवधौ चोपकुलिकस्त्यज्यते परैः ॥ १९ ॥
व्याख्या-तद्दिनवारात् यत्संख्यो मङ्गलस्तत्संख्यो दिनाष्टांशः कंटकसंज्ञः । तथा चार्कादिवारेषु क्रमानियेकसप्तषट्पञ्चचतुर्थदिनांशाः कंटकसंज्ञाः बृहस्पत्यव. धाविति प्राग्वद्वयाख्येयं, तथा चार्कादिवारेषु पञ्चचतुस्त्रिद्वये कसप्तषष्ठदिनांशा उपकुलिकसंज्ञाः । परैरिति अप्रतिषिद्ध मनुमतमिति ” न्यायाद्ग्रन्थकृतोऽपि सम्मतमिदं । एवमग्रेऽपि परमतोक्तौ वाच्यं । दिनाष्टांशशब्दप्रयोगाञ्च दिनाष्टमांशमाना एते सर्वेऽपि, स च चतुर्घटिकादूनाधिकोऽपि स्यात् तथाहि-जघन्ये दिनमानेऽष्टांशे घटी ३ पल १६ अक्षर ३० । उत्कृष्टे तु घटी ४ पल १३ अक्षर ३० एवं मध्यमानेऽपि भाव्यम् ॥ कुलिकमाह
कुलिको द्विघ्नशन्यन्तमिते त्याज्यः स्ववारतः । मुहर्तेऽहि निशि व्येके भागः पश्चदशस्तु सः ॥२०॥
व्याख्या-द्विघ्नशन्यन्तेति तद्दिनवाराच्छनियत्संख्यस्तदङ्के द्विगुणिते यत् स्यात् तत्संख्ये मुहूर्ते दिबा कुलिकः, निशि तु स एवाङ्क एकोनः कार्य: ।
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२२
आरम्भ-सिद्धिः यथाऽर्काच्छनिः सप्तमः, द्विगुणने चतुर्दश, रविवारे चतुर्दशे मुहूर्त दिवा कुलिका, रात्रौ तु त्रयोदशे। तथा चन्द्राच्छनिः षष्टः, द्विगुणने द्वादशे मुहूर्ते दिवा कुलिकः, रात्रौ स्वेकादशे इत्यादि । भाग इति यद्यपि मुहूर्तशब्दो द्विघटिकवाची तथाप्यत्र तादास्विकदिनरात्रिमानयोः पञ्चदशोऽशो द्विघटिकादूनाधिकोऽपि कुलिकस्य माने ज्ञेयः । तथाहि जघन्ययोर्दिनरात्रिमानयों: पञ्चदशोऽशो घटी 1 पल ४४ अक्षर ४८ । उत्कृष्टयोस्तु घटी २ पल १५ अक्षर १२ । एवं मध्यमानेऽप्यूह्यं । विशेषस्तु-कलिकसमये किमपि कर्म न कार्य यदुक्तं
“छिन्नं भिन्नं नष्टं अहजुष्टं पनगादिभिर्दष्टम् ।
नाशमुपयाति नियतं जातं कर्मान्यदपि तत्र" ॥ १ ॥ इति व्यवहारप्रकाशे । तथेदमपि--
" सोमे ब्राह्मः कुजे पैत्रः सुराचार्ये च राक्षसः
शुक्र ब्राह्मः शनौ रौद्रो मुहूर्ताः कुलिकोपमाः " ॥ २ ॥ __ अत्र ब्राह्म इति ब्रह्मदैवतः, एवं पैत्रादिष्वपि वाच्यं । ब्रह्मत्वादिविभागस्तु मुहूर्तानामग्रे क्षौराधिकारे वक्ष्यते । अयं च मुहूर्त कुलिकोऽहोराने द्विः स्यात् दिवा रात्रौ च । अर्धयामादयस्तु दिनपतिसाहचर्यादिवैव स्युः, न तु रात्रौ । नारचन्द्रे तु-स्ववारात् शन्यवर्धािदनाष्टांशः कुलिकस्तेनार्का दिवारेषु सप्तषट्पञ्चचतुस्मिद्वयेकसंख्या दिनाष्टांशाः कुलिकसंज्ञा इत्युक्तं । सर्वेषां चैषां क्रमात् स्थापना
___ अथदिवा दिनाष्टांशमानमेव कुलिकं नारचन्द्रोक्तं प्रमाणयन् वारेषु सुवेलाः प्राह
रवि | चन्द्र मंगल बुध दिवा
अर्धयाम कालवेला कंटक उपकुलिक
कुलिक २ मुहूर्त १ कुलिक
वाराः
शुक्र शनि
-
-
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प्रथम विमर्श:
२३
,
भानोर्भू१ नयनर र्तवः ६ सितरुचेः शीतांशु १ पञ्चा५ मा८, भौमस्याब्धि४नगा७ष्टमाः ८ शशितनूजस्य त्रिश्तर्का६ष्टमा ८ जीवस्य द्विरेशरा द्रयो७ भृगुभुवश्चन्द्रा१ब्धि ४ षष्टा६ष्ट्रमाः ८, शौरेस्त्री ३षु५ नगा७ष्टमाच८ दिवसेवेतेऽष्टमांशाः शुभाः॥ २१ ॥ व्याख्या - भूरेका, नयने द्वे, ऋतवः षट् शीतांशुरेकः, अब्धयश्वत्वारः नगाः सप्त, तर्काः षट्, शराः पञ्च, शेषं स्पष्टं । भानोरिति रविवारे आयद्विती षष्टचतुर्घटिकानि शुभानि शेषाणां ३-४-५-७-८ अर्धयामाद्यैस्तत्वात् । एवमग्रेऽपि सोमे आद्यपञ्चमाष्टमानि शुभानि । भौमे तुर्यसप्तमाष्टमानि । बुधे तृतीयषष्टाष्टमानि । गुरौ द्वितीयपञ्चमसप्तमानि शुक्रे आतुर्य षष्ठाष्टमानि । शनौ तृतीयपञ्चमसप्तमाष्टमानीति । दिवसेष्विति एते रात्रिषु न व्यवहियन्त इति भावः । अष्टमांशशब्देऽभिसन्धिः प्राग्वत् ॥ वारेषु च्छायानमाहसिद्धच्छाया क्रमादर्कादिषु सिद्धिप्रदा पदैः। रुद्र ११ सार्धाष्ट८ । नन्दा ९ ष्ट ८ सप्तभि ७ चन्द्रवद्वयोः ॥ २२ ॥
व्याख्या - रवावेकादश पदानि चन्द्रे साधन्यष्टौ, भौमे नव, gasg, गुरौ सप्त ७, द्वयोः शुक्रशन्योश्चन्द्रवत् साधन्यष्टौ पदानि । इयमवश्यं सिद्धिदत्वारिसन्दच्छाया । यदुक्तम्
सुहगहलग्गाभावे विरुद्धदिवसेऽवि तुरिअकज्जम्मि | गमणपवेस पट्टादिरुखाई कुणसु इत्थ जऔ ॥ १ ॥ ग बुहेहिं कहिअं छायालग्ग धुवं सुहे कज्जे । सुहसउणनिमित्तवले जोइसु परं सुलग्गेऽवि ॥ २ ॥
इति हर्षप्रकाशे | तथा 'तिथिवारक्षशीतांशुविश्वाद्यस्यां न चिन्तयेदिति' नारचन्द्रे |
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नक्षत्राणि तिथिर्वारास्ताराश्चन्द्रबलं ग्रहाः ।
दुशन्यपि शुभं भावं भजते सिद्धछायया " ॥ १ ॥
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२४
-
.. आरम्भ-सिद्धिः - इति नरपतिजयचर्यायां परं तथापि वर्षमासदिनशुद्धिसद्भावे विष्ट्यादिवृ. हद्दोषाभावे तथा ग्राह्य, उक्तं च-" नक्षत्रमथवाप्यनिवारितमिति ” यतिवल्लभवचनादुक्त निषिद्ध वा वक्ष्यमाणवेधलत्तादिदोषरहिते नक्षत्रे चन्द्रवले सति सिद्धच्छायालग्ने प्रतिष्ठादिकं कार्यमिति समंजसं । तद्वेला च त्रिंशद्गुरुवर्णमात्रमिति वृद्धाः । तद्वेलासाधनोपायश्चायं-यदा इष्टच्छायापदवेला पञ्चदशमिवणेरूना स्यात्तदा कार्य कर्तुमारभ्यते, यावच्चेष्टच्छायापदभवनादनु पञ्चदशवर्णोच्चारवेलाऽतिक्रामति तावता कालेन कार्य संपूर्णीकार्य, एवं करणे सिद्धच्छाया साधिता स्यात् । बहुकालसमाप्ये तु कार्ये त्रिंशद्वर्णमध्ये तत्कार्य प्रारम्भणीयमिति भावः । इयं च च्छाया पदैरिनि भवनात् पुंसः पदरूपा । सप्ताङ्गुल. शंकोस्त्वगुलरूपा ज्ञेया। द्वादशाङ्गुलशङ्कोस्त्वेवम्"वीस १ सोलस २ पनरस ३ चउदस ४ तेरसय ५ बार ६ वारेव ७ । रविमाइसु वारंगुलसंकुच्छायंगुला सिद्धा" ॥ १ ॥
॥ इति वारद्वारम्.॥२
॥ अथ भम् ॥३ तत्रादावष्टाविंशतेर्भानां प्रत्येकं पादचतुष्कस्य वर्णानाहचुचेचोलाऽश्विनी ज्ञेया लीलूलेलो भरण्यथ । आईऊए कृतिका तु ओवावीवू च रोहिणी ॥ २३ ॥ वेवोकाकी मृगशिर आर्द्रा कुघङछाः पुनः । केकोहाहि पुनर्वस्वोईहेहोडा तु पुष्यभे ॥ २४ ॥ डीडूडेडोभिराश्लेषा मामिम्मे मघा मता। मोटाटीटू फल्गुनी प्राक् टेटोपापीभिरुत्तरा ॥ २५ ॥ हस्तः पुषणठेवणश्चित्रा पेपोररिः पुनः । रुरेरोताः स्मृताः स्वातौ तीतूतेतो विशाखिका ॥२६॥
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. प्रथम विमर्शः
अनुराधा ननीनने स्याज्ज्येष्ठा नोययीयुभिः । स्याद्येयोभाभिभिर्मलं पूर्वाषाढा भुधाफलैः ॥ २७ ॥ भेभोजाज्युत्तराषाढा जुजेजोखाऽभिजिन्मता। श्रवणे स्युः खिखूखेखो धनिष्ठायां गगीगुगे ।। २८ ॥ गोसासीनः शतभिषक् प्राक् सेसोददि भद्रपात् । दुशझथो तराभद्रा देदोचाची तु रेवती ॥ २९ ॥
व्याख्या-एषां भावना-सामान्येन पष्टिघटीमाने चन्द्रस्य नक्षत्रभोगे पञ्चदशपञ्चदशघटीभिरेकैकः पादः, तत्र यस्य नाचुः तस्य आम्निदौ जन्माश्विन्या आयपादे, एवं सर्वत्र । द्वितीये पादे चे, तृतीये चो, तुर्थे ला। इह चुग्रहणेन चूरपिग्राह्यः स्वजातीयस्वरत्वात्, एवं चेचोग्रहणेन चैचौ; लाग्रहणेन लः, एवमग्रेऽपि । यथा भरण्या आये पादे लिली द्वितीये लुलू , तृतीये लेलै, तुर्ये लोलौ इत्यादि, एवं सर्वभेषु । नवरमाहस्तपूर्वाषा ढोत्तरभद्रपदासु ये क्रमेण घङछाः षणठाः धफढाः शझथाश्चेति द्वादश वर्णा उक्तास्तत्रैकैकोऽसौ वर्णो दशस्वरयुतो ग्रायः, कथं ? घ घा घिघी घु घू घे घै घो घौ इति । एवं कवर्गीयपञ्चमाक्षरङकारादिष्वपि । षणठा इत्यत्र च षकारो मूर्धन्यो दशस्वरयुतो ग्राह्यः, न तु कवर्गीयखकारः, तस्याभिजिच्छ्रवणयो: कथनात् । ऋ ऋ ल ल इत्येते तु प्रायो नाम्न्यादौ न स्युः, ऋषिदत्तऋषभाद्यभिधासु चेत् स्युस्तदा स्वरचक्रग्र. न्थाभिप्रायेण केवला रिरीलि लीवत् व्यञ्जनगतास्तु अकारान्ततव्यञ्जनवद्गण्यन्ते ब्रह्मदत्तश्रीधरध्रुवाद्यभिधासु ब-शी-धुरूपमेवाद्याक्षरं गण्यं । यत:
" यदि नाम्नि भवेद्वर्णः संयोगाक्षरलक्षणः ।
ग्राह्यस्तदादिमो वर्ण इत्युक्तं ब्रह्मयामले " ॥ १ ॥ विसर्गविन्द्वादिकं तु नाक्षरस्य विकारकृत् । बकारस्तु कारवज्ज्ञेयो बवयोरैक्यात् । अस्तु चवर्गीयपञ्चमवर्ण: .कवर्गीयपञ्चमङकारवद्गण्यः । ननु कारजकारणकाराः क्वापि नाम्न्यादौ न स्युरित्यतः किमर्थमुक्ताः ? उच्यते-पूर्वाचार्यानुरोधात् । न च नास्त्येवैषां फलमिति चिन्त्यं, एकाशीतिपदे सर्वतोभद्रचके
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२६
आरम्भ-सिद्धिः एतद्वर्णानां ग्रहविद्धत्वे सति तत्तत्पादजानां पीडेति साफल्यसद्भावात् । उक्तं च तञ्चक्रविवरणे
" विध्यन्ते घङछा रौद्रे षणढा हस्तगे व्यधेः ।।
फढधाः प्रागषाढायामाहिर्बुध्ने तु शाझथाः " ॥ १ ॥ प्रागिति पूर्वाषाढा ॥ अभिजित: स्वरूपमाह
उत्तराषाढमन्त्यांहिं चतस्रश्च श्रुतेर्घटीः ।
वदन्त्यभिजितो भोगं वेधलत्ताद्यवेक्षणे ॥ ३०॥ व्याख्या-यदा टिप्पनके यावान् भोग उत्तराषाढाया लिखितः स्यात्तदा तस्यान्त्यः पादस्तदनुमानेन ग्राह्यः, सामान्येन तु पञ्चदश घट्यः, भोगमिति, एवं सर्वा एकोनविंशतिर्घट्यः । लत्तादीति आदिशब्दादुत्पातादिचतुष्टयोपयोगैका. गलादिष्वव्यभिजिगण्यते, परं तदोत्तराषाढाश्रवणयोः पञ्चदश चतस्रश्च घटीबहिकृत्वैव पादचतुष्कं कल्पनीयं । वेधलत्ताद्यवेक्षणादन्यत्राभिजिन्नोपयुज्यते इति च सामर्थ्याल्लभ्यते ॥ अष्टाविंशते नामीशानाह
भेशास्त्वश्वि१ यमा २ नयः ३ कमलभू ४ श्चन्द्रो ५ ऽथ रुद्रो ६ ऽदिति ७ जीवो ८ ऽहिः ९ पितरो १० भगो ११ ऽयम १२ रवी १३ त्वष्टा १४ समीर १५ स्तथा । शक्राग्नी १६ अथ मित्र १७ इन्द्र १८ निती१९ वारीणि २० विश्वे२१ विधि२२ वैकुंठो२३ वसवो२४म्वुपो२५ऽजचरणो२६ हिर्बुध्न२७ पूषाभिधौ२८ ॥ ३१॥ .
व्याख्या-अश्विनौ दस्राख्यदेवौ । कमलभूर्ब्रह्मा ! अदितिर्देवमाता । जीवो गुरुः । अहिः सर्पः । भगो योनिः । अर्थमा सूर्यभेदः । त्वष्टा विश्वकर्मा । समीरो वायुः । शक्राग्नी इति विशाखाया आद्येऽर्धे इन्द्रोऽपरार्धेऽग्नि. देवता, अत एवास्या द्विदैवतसंज्ञा मिश्रसंज्ञा च । अत एवोक्तं दैवज्ञवल्लभे
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प्रथम विमर्शः
" पूर्वार्धे मृदुकर्म चास्य सकलं तीक्ष्णं द्वितीये दले" इति । मित्रः सूर्यभेदः । निर्ऋतिः रक्षसां माता, तज्जत्वाद्राक्षसा अप्यत्र लक्ष्या:, तेन मूलो रक्षोनक्षत्रमित्युच्यते । वारीणि जलं । विश्वे इति विश्वाख्यास्त्रयोदश देवाः सर्वादित्याज्जस इः। नन्वत्र संज्ञावाचिनो विश्वशब्दस्य कथं सर्वादित्वं असंज्ञायां सर्वादिरितिवचनात् ? उच्यते - छान्दसोऽयं प्रयोगस्तेन संज्ञायामपि सर्वादित्वं । विधिर्ब्रह्मा । वैकुंठो विष्णुः । वसवोऽष्टौ यदुक्तं
"
धरो ध्रुवश्च रोमश्च आयश्चैव बलोऽनिलः । प्रत्यूषश्च प्रदोषश्च वसवोऽ प्रकीर्तिताः "
66
wedg
अम्बुपो वरुणः वास्तुशास्त्रप्रसिद्धो हृदयकोष्ठस्थो देवः । रुद्राणामन्यतमोऽजपादः | अहिर्बुध्नो रुद्रभेदः यदाहु:
"
" अजपादोऽथाहिर्बुध्नः पिनाकिहररैवताः । शंभुः शर्वो मृगव्याधः कपाली त्र्यम्बको भवः ॥ १ ॥ इत्येकादश रुद्रनामानि । पूषा रविभेदः । यदाहुः - " धातृ १ अर्यमन् २ मित्र ३ वरुणः ४ अंशु ५ भग ६ इन्द्र ७ विवस्वन् ८ पूषन् ९ पर्जन्य १० त्वष्टृ ११ विष्णु १२ संज्ञा द्वादश सूर्या" इति । शेषा यथोक्तसंज्ञा देवभेदाः । प्रयोजनं चैषां तद्देवतानाम्ना नक्षत्रव्यवहारादि ॥
२७
अष्टाविंशतेर्भानां तारकसंख्यामाह
त्रि३ त्र्य३ ङ्ग६ भूत५ जगदि३ न्दु१ कृत४ त्रि३ तर्के ६ ध्व५ क्षि२ि पंच५ कु१ कु१ वेद४ युगा४ नि३ रुद्रैः ११ । वेदा४ धि४ राम३ गुण३ वेद४ शत १०० द्विक२ द्विरदन्तैश्च३२ तत्समतिथिर्न शुभा भतारैः ॥ ३२ ॥
व्याख्या - अश्विन्यां त्रयस्तारकाः भरण्यां त्रय इत्यादि । अङ्गानि शिक्षा १ कल्प २ व्याकरण ३ च्छन्दो ४ ज्योति ५ निरुक्ता ६ ख्यानि षट् जगन्ति त्रीणि । कृतेति चत्वारः, कृतयुगस्य तुर्यत्वात् । अक्षिणी नेत्रे द्वं । कुर्भूरेका । युगानि चत्वारि । रुद्रा एकादश । रामास्त्रयः । गुणाः सत्वाद्यास्त्रयः । दन्ता द्वात्रिंशत् । शेषं स्पष्टं । स्थापना
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२८
भेषु तारा
अश्विनी - ३
भरणी - ३
कृत्तिका - ६ रोहिणी -
मृगशिर - ३ आर्द्रा - १
पुनर्वसु-४
आरम्भ-सिद्धिः
मेषु तारा
पु
अश्लेषा
मघा
हस्त
चित्रा
३
५
पूर्वाफाल्गुनी २ उत्तराफाल्गुनी २
५
૧
मेषु तारा अभिजित्
३
श्रवण
३
धनिष्ठा
४
शतभित्रा १०० पूर्वाभाद्रपद २
११
मूल पूर्वाषाढा ४ उत्तराषाढा४ रेवती ३२
उत्तराभाद्रपद २
तारा
भेषु स्वाति १
विशाखा ४
,
अनुराधा ४
ज्येष्ठा
३
तारकस इङ्ख्योक्तेः प्रयोजनमाह - तत्समेत्यादि एभियथोक्तर्भतारैर्भस्य समा तिथिर्न शुभेति ज्ञेयं । कोऽर्थः ? सर्वेषु भेषु तत्तारासंख्यया तिथिस्त्याज्या, यथा तृतीयाऽश्विनीयुक्ता त्याज्येत्यादि । नवरं शतभिषजि शतं ताराः शतस्य तिथिभिः पञ्चदशभिर्भागे शेषा दशेति दशमी शतभिषग्युता त्याज्या । एवं रेवत्यां द्वात्रिंशत्ताराः पञ्चदशभागे शेषं द्वे द्वितीया रेवतीयुता त्याज्या । यल्लल्लः" दग्धा तद्दिननक्षत्रतारातुल्या तिथिर्भवेत्' इति । विशेषस्तु - "तारासमैरहोभिमौरब्दैश्च धिष्ण्यफलपाकः इति " लल्लः ॥ भानां संज्ञाविशेषानाह— चरमाहुश्चलं स्वातिरादित्यं श्रवणत्रयम् ।
लघु क्षिप्रं च हस्तोऽश्विन्यभिजित् पुष्य एव च ॥ ३३ ॥ मृदु मैत्र मृगश्चित्राऽनुराधा चैव रेवती । ध्रुवं स्थिरं च वैरश्वमुत्तरात्रितयान्वितम् ॥ ३४ ॥ दारुणं तीक्ष्णमश्लेषा मूलमार्द्रा महेन्द्रभम् । क्रूरमुग्रं च भरणी तिस्रः पूर्वा मघान्विताः ॥ ३५ ॥ मिश्रं साधारणं च द्वे विशाखाकृत्तिकाभिधे ।
नानोचिते धिष्ण्ये निर्मितं कर्म शर्मणे ॥ ३६ ॥
व्याख्या -चरं चलमिति नामद्वयं एवमग्रेऽपि, अन्यान्यपि चञ्चल चटुलचपलादिनामान्यत्र व्यवहर्तव्यानि एवं सर्वत्र | आदित्यं पुनर्वसु । श्रवणत्रयं श्रवणधनिष्ठाशतभिषजः वैरञ्चं रोहिणी उत्तरात्रयमुत्तर फल्गुन्युत्तराषाढोत्तरभाद्वपदाः । महेन्द्रभं ज्येष्ठा । तिस्रः पूर्वाः पूर्व फाल्गुनी पूर्वाषाढा पूर्व भाद्रपदाः ।
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प्रथम विमर्शः
साधारणमिति न स्थिरं न चलं न तीक्ष्णं न मृदु इत्यर्थः । नाम्नां प्रयोजनमाह - ईहगित्यादि ईदृशेन चरादिनाम्ना कर्मणोऽनुरूपे भे । कोऽर्थः ? यादृश भस्य नाम तादृशं कर्म तत्र भे कार्यम् ॥ एतदेवाह -
कुर्यात्प्रयाणं लघुभिश्वरैश्च, मृदुधुवैः शान्तिकमाजिमुग्रैः । व्याधिप्रतीकारमुशन्ति तीक्ष्णैमिश्रैश्च मिश्रं विधिमामनन्ति व्याख्या - प्रयाणमिति पण्यभूषणकलारतौषधज्ञानविज्ञानवाहनोद्यानिकापलक्ष्यं एवमग्रेऽपि, शान्तिकमति बीजगृहनगराभिषेकारामभूषण वस्त्रगीतमङ्गलमित्रकार्यादि स्थिरकर्म च । आजिमिति वञ्चनाविषघातबन्धनोच्छेदनशस्त्राग्निकमद्यपि | व्याधीति भूतयक्षमंत्रनिधिसाधन भेदकर्माद्यपि । उशन्ति वान्छन्ति । मिश्रमिति साधारणं । स्वर्णरजतताम्रलोहाद्यनिकर्म सर्वं तथा वृषोत्सर्गानिपरिग्रहादि च विशेषास्तु-
"
लहू चरेसु आरंभो उग्गरिख्खे तवं चरे । धुवे पुरपवेसाई मिसेस्ससंधिक्कियं करे " ॥ १ ॥
""
"
इति दिनशुद्धिग्रन्थे । तथा
" तीक्ष्णोप्रभोक्तं विदधीत मिश्र, क्रूरोदितं दारुणभेषु कुर्यात् । तीक्ष्णोग्रमिश्रर्यदिहोदितं तन्मृदुधुवैः क्षिप्रचरैर्न कुर्यात् ॥ १ ॥ प्रायः शान्ते कार्ये न योजयेत्कृत्तिकास्त्रिपूर्वाश्च । वारणरौद्रे च तथा द्विदैवतं याम्यमश्लेषाम् ॥ २ ॥
".
स्थिर २ श्वर १ स्तथोग्रश्च ३ मिश्रो ४ लघु ५ रथो मृदुः ६ । तिक्ष्णश्च ७ कथिता बारा: प्राच्यैः सूर्यादयः क्रमात् ॥ १ ॥
अस्य प्रयोजनं तु चरादित्वेन सदृशानां वाराणां भानां च योगः प्रयाणादौ विशिष्य प्रयोजक इति ॥
सप्तविंशतेर्भानां चन्द्रेण भोगे मुहूर्त्तसङ्ख्यामाह
भेषु क्षणान् पञ्चदशैन्द्ररौद्रवायव्य सर्पान्तकदारणेषु । त्रिघ्नान् विशाखादिति भध्रुवेषु शेषेषु तु त्रिंशतमानन्ति ।।
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आरम्भ-सिद्धिः
व्याख्या -क्षणा मुहूर्त्ताः । ऐन्द्रं ज्येष्ठा । रौद्रमार्द्रा । वायव्यं स्वातिः । सामश्लेषा । अन्तकं भरणी । वारणं शतभिषक् । एतानि षड्भानि पञ्चदशमुहूर्त्तान्यर्धदिन भोगानीत्यर्थः । त्रिघ्नानिति एवं पञ्चदश त्रिगुणाः पञ्चचत्वारिंशत्, अदितिभं पुनर्वसु षड्भानि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि सार्धंदिन भोगानि । शेषापयश्विनी १ कृतिका २ मृगशिरः ३ पुष्य ४ मघा ५ पूर्वफाल्गुनी ६ हस्त ७ चित्रा ८ ऽनुराधा ९ मूल १० पूर्वाषाढा ११ श्रावण १२ धनिष्ठा १३ पूर्वभद्वापदा १४ रेवत्या १५ ख्यानि पञ्चदश भानि त्रिंशन्मुहूर्त्तानि एकदिन भोगानि । एषां किल चिरंतनज्योतिःशास्त्रेष्वेवं भुक्तिरासीन्न तु यथाऽधुना सर्वाण्यप्येकदिनभोगानीति श्रीमदावश्यक बृहद्वृत्तिटिप्पन के, एषां नव्योदितचन्द्रदर्शनादावुपयोगः । तथाहि
३०
"बृहत्सु४५ धान्यं कुरुते समघं, जघन्य १५ धिष्ण्येऽभ्युदिते महार्घम् । समेषु ३० धिष्ण्येषु समं हिमांशुः शुक्ल द्वितीयाभ्युदयी विलोक्यः ॥
इति रत्नमालायां । अत्राभ्युदित इति यन्नक्षत्रस्थश्चन्द्रो हग्गोचरीस्यात्तन्नक्षत्रं बृहदादि विचार्यमिति तद्भाष्ये । विशेषास्तु
(6
युज्यन्ते षड् द्वादश नव चेति निशाकरेण धिष्ण्यानि । प्राङ्मध्यपश्चिमाघैः पैौष्णैशास्त्रण्डलादीनि ” ॥ १ ॥
"
अत्र पौष्णेति रेवत्यादिषड्भानि पूर्वभागयोगीनि चन्द्र एतान्यप्राप्तो भुङ्क्त इत्यर्थः । ऐशेति आर्द्रादिद्वादशभाति मध्यभागयोगीनि एषां समेनेन्दुना भोगः स्यात् । आखण्डलेति ज्येष्ठादिनवभानि पश्चिमार्धयोगीनि चन्द्रस्य पृष्ठतो योगीनि चन्द्र एतान्यभिक्रम्य भुङ्क्ते पृष्ठं दत्वा भुङ्क्ते इत्यर्थः । प्रयोजनं तु" पूर्वार्धयोगिषूढस्त्रीणामतिवल्लभो भवेद्भर्ता ।
पश्चार्धयोगिषु स्त्रीप्रेम मिथो मध्ययोगिषु " ॥ २ ॥
अन्यत्रापि सेवामैत्र्यादाविदं योज्यं कथं ? पूर्वभागयोगिषु : सेवामैध्याद्यारंभे यो मुख्यः स गौणस्य भृशं प्रियः स्यात् पश्चार्धयोगिषु तु मुख्यस्य गौणः, मध्ययोगिषु मिथः प्रीतिरिति । तथा-
,
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प्रथम विमर्श:
हयवदन १ भग२ क्षुर ३ शकट ४
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मृगशिरो ५ मणि ६ गृहे ७ षु ८ चक्राणाम् ९ ।
प्राकार १० शयन ११ पर्यङ्क १२
हस्त १३ मुक्ता १४ प्रवालानाम् १५ ॥ १ ॥ तोरण १६ मणि १७ कुंडल १८ सिंहविक्रम १९ स्वपन २० गजविलासानाम् २१ । शृङ्गाटक २२ त्रिविक्रम २३ मृदङ्ग २४
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वृत्त २५ द्वियमलानाम् २६ ॥ २ ॥ पर्यङ्क २७ मुरंज ५८ सदृशानि भानि कथितानि चाश्विनादीनि I तथा चित्रास्वात्योरुदयान्तरे किल प्राची, तयोरस्तान्तरे च प्रतीची, उदीची तु ध्रुवेण सिद्धा, दक्षिणाऽपि तत्संमुखत्वेन, ततो यानि यानि भानि दक्षिणोत्तरमध्यमार्गचाणि सन्ति तान्युच्यन्ते तथाहि
,
दक्षिणमार्गेऽश्लेषा ९ ब्राह्मत्रय ४ करयुगे ६ द्विपतिषङ्कम् १२ । उत्तरतः पुनरभिजित्रय ३ मंश्वित्रय ६ यौनयुगलानि ॥ १ ॥ आजपाद्वयं १० स्वात्या ११ दित्ये १२ चेति भ्रमन्ति खे । मध्यमार्गे शतभिषक् १ पुण्य २ पौष्ण ३ मघा इति ॥ २ ॥ सर्वमिदं व्यवहारप्रकाशे । तथा
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" बे फग्गुणि२ भद्दवया४ सवण धणिडा६ य रेवई ७ भरणी८ । असिणि९ सयभस १० साई ११ अभिजु १२ तर जोइणो चंदे ॥१॥ एतानि द्वादश भानि चन्द्रस्योत्तरेण तिष्ठन्ति एष्वेव चन्द्रो दक्षिणतो गच्छतीत्यर्थः ।
“ पुणवसु । रोहिणि२ चित्ता३ मह४ जिट्ट५ णुराह६ कत्तिअ७ विसाहा ८ | चंदस्स उभयजोगा अह दखिणजोईणो चंदे " ॥ २ ॥
पुनर्वस्त्राद्यष्टभान्युभययोगीनि चन्द्रो दक्षिणेनोत्तरेण च युज्यन्ते, कथचिञ्चन्द्रेण भेदमप्युपयान्ति, शेषाण्यष्टभानीन्दोर्दक्षिणेन युज्यन्ते तानि चाषाढाद्वयर हस्त ३ मूला ४ लेषा ५ मृगा६ ई ७ पुण्याः ८ ॥ इति पा (लो)
३१
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३२
कश्रीग्रन्थे । तथा
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तिथिधिष्ण्यं च पूर्वार्ध बलवद्दुर्बलं ततः ।
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नक्षत्रं बलवद्रात्रौ दिने बलवती तिथिः # 9 11
इति व्यवहारसारे ।
आरम्भ-सिद्धिः
॥ इति भद्वारम् ॥ ३ ॥
॥ अथ योगः ॥ ४
तत्रादौ रन्यादिसप्तवारेषु प्रत्येकं शुभाशुभयोगवाचकाश्चतुर्दश श्लोका इमेभानौ भूत्यै करादित्यं पौष्णब्राह्ममृगोत्तराः । पुष्यमूलाश्विवासव्यश्च काष्टनवमी तिथिः ॥ ३९ ॥ व्याख्या - भूत्यै शुभयोगायेत्यर्थः । करो हस्तः, पौsi रेवती, ब्राह्म रोहिणी, उत्तरास्तिस्रः, वासवी धनिष्ठा । नवमीति एकाष्टनवशद्वानां द्वन्द्वं कृत्वा ततः पूरणे मट्प्रत्ययः एवमन्यत्रापि यथायोग्यं व्युत्पाद्यं । इह वारभयोरतिथ्यर्वा द्विकशुभयोगः, वारभतिथीनां तु त्रिकशुभयोगः । एवं कुयोगेऽपि वाच्यम् ॥
,
न चाक वारुणं याम्यं विशाखात्रितयं मघा । तिथिः षट्सप्तरुद्रा ११ र्क १२ मनु१४ संख्या तथेष्यते ॥ ४० ॥
व्याख्या - याम्यं भरणी । विशाखात्रितयमिति विशाखादित्रयेण क्रमादुत्यात मृत्युकाणाः कुयोगाः स्युः एवमग्रेऽपि कुयोग श्लोकस्थंत्र यशब्देपू । मनवचतुर्दश नेष्यते इति कुयोगोत्पत्तेरिति शेषः ॥
सोमे सिद्धयै मृगब्राह्ममैत्राण्यार्यमणं करः ।
श्रुतिः शतभिषक् पुष्यस्तिथिस्तु द्विनवाभिधा ॥ ४१ ॥ व्याख्या - मैत्रमनुराधा, न तु मृदुसंज्ञभानि पृथग्मृगशीषोंतेः एवमग्रेऽपि यथासंभवं विचार्य | आर्यमणं उत्तरफल्गुनी । श्रुतिः श्रवणः (णं ) ॥
I
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३३
. प्रथम विमर्शः न चन्द्रे वासवासाढावयार्दाश्विद्विदैवतम् । सिद्धयै चित्रा च सप्तम्येकादश्यादित्रयं तथा॥४२॥ व्याख्या-अषाढात्रयं पूर्वाषाढोत्तराषाढाभिजितः, द्विदैवतं विशाखा ॥ भौमेऽश्विपौष्णाहिर्बुध्नमूलराधार्यमाग्निभम् । मृगः पुष्यस्तथाऽश्लेषा जया षष्ठी च सिद्धये ॥४३॥
व्याख्या-आहिर्बुध्नमुत्तरभद्रपदा, राधा विशाखा, अर्यमणमुत्तरफ़ल्गुनी, अग्निभं कृत्तिका । जया तिथिः ३-८-१३ रूपा, एवमग्रेऽपि तिथिसंज्ञायाम्॥
न भौमे चोत्तराषाढामघार्द्रावासवत्रयम् । प्रतिपदशमीरुद्रप्रमिता च मता तिथिः॥४४॥ बुधे मैत्रं श्रुतिज्येष्ठा पुष्यहस्ताग्निभत्रयम् । पूर्वाषाढार्यमः च तिथिर्भद्रा च भूतये ॥ ४५ ॥ व्याख्या-अत्रापि मैत्रमनुराधैव यशद्वेन पृथग्मृग उक्तः ॥
न बुधे वासवाश्लेषारेवतीत्रयवारुणम् । चित्रा मूलं तिथि-श्चेष्टा जयै३-८-१३के१न्द्र१४नवा९ङ्किता। ___ व्याख्या-इन्द्राङ्किता तिथिश्चतुर्दशी ॥
गुरौ पुष्याश्विनादित्यपूर्वाऽ ३ श्लेषाश्च वासवम् । पौष्णं स्वातित्रयं सिद्धयै पूर्णाः-१०-१५श्चैकादशी तथा॥४७ ___ब्याख्या--पूर्वास्तिस्रोऽपि । एवमग्रेऽपि ॥ . न गुरौ वारुणाग्नेयचतुष्कार्यमणद्वयम् । . ज्येष्ठा भूत्यै तथा भद्रा २-७-१२ तुर्या षष्ठ्यष्टमी तिथिः॥
व्याख्या-आग्नेयं कृत्तिका तच्चतुष्कं तत्र रोहिण्यादित्रयेणोत्पातादित्रयं कृत्तिकया तु यमघंटः, " गुरौ शतभिषजा यमघंटः " इति तु हर्षप्रकाशे ॥
१ पूर्वाषाढा
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: आरम्भ-सिद्धिः शुक्र पौष्णाश्विनाषाढा मैत्रं मार्ग श्रुतिद्वयम्। यौनादित्ये करो नन्दा१-६-११त्रयोदश्यौ च सिद्धये॥४९॥ व्याख्या-अषाढाशब्देन पूर्वोत्तराषाढे, मार्ग मृगशिरः, यौनं पूर्वफल्गुनी॥
न शुक्रे भूतये ब्रामपुष्यं सार्प मघाभिजित् । ज्येष्ठा च द्वित्रिसप्तम्यो रिक्ताख्या४-९-१४स्तिथयस्तथा।।५०
व्याख्या-पुष्यास्त्रिभिः क्रमेणोत्पातादित्रयम् ॥
शनौ ब्राह्मश्रुतिद्वन्द्वाश्विमरुद्गुरुमित्रभम् । मघा शतभिषक् सिद्धयै रिक्ता४-९-१४ष्टम्यौ तिथी तथा।।
व्याख्या-मरुद्रं स्वातिः, गुरुभं पुष्यः, मित्रभमनुराधा ॥
न शनौ रेवती सिद्धयै वैश्वमार्यमणत्रयम् । पूर्वा३मृगश्च पूर्णाख्या५-१०-१५तिथिः षष्ठी च सप्तमी॥५२
व्याख्या-वैश्वमुत्तराषाढा । एषु विशेषः-सुयोगश्लोकेष्वादौ न्यस्तैः"हस्त १ सौम्या २ श्विनी ३ मैत्र ४ पुष्य ५ पौष्ण ६ विरंचितैः । .. भवत्यमृतसिद्धयाख्यो योगः सूर्यादिवारगैः " ॥ १ ॥
अत्रामृतसिद्धयाख्य इति न मृता सिद्धिरमृतसिद्धिः । एष्ववश्यं कार्यसिद्धिरिति रत्नमालाभाष्ये ।
" भद्रासंवर्तकाद्यैश्चेत् सर्वदुष्टेऽपि वासरे । योगोऽस्त्यमृतसिद्ध्याख्यः सर्वदोषक्षयस्तदा ॥ १ ॥"
इति हर्षप्रकाशे । “शुक्रस्य रेवत्या सह शत्रुयोग उत्तरभद्रपदाभिः साधं त्वमृतसिद्धियोगः ” इति लोकश्रीग्रन्थे । केऽप्याहु:-" शर ५ तिथितः सप्ततिथिष्वेते सप्तापि मृत्युदा क्रमशः " । तत्स्थापना
रवि
चन्द्र । मंगल, बुध । गुरु
शुक्र शनि हस्त | मृगशिर अश्विनी अनुराधा पुष्य । रेवती
रेवती | रोहिणी
13
पक्ष्य
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प्रथम. विमर्शः एतत्तिथिष्वेतेऽमृतसिद्वियोगा मृत्युदाः । तथा- ..... "विशाखादिचतुष्के च रविवारादिसप्तके ।
उत्पातमृत्युकाणाश्च सिद्धियोगाश्च कीर्तिताः ॥ १ ॥". उत्पातादित्रयाणां प्रवास १ मरण २ व्याधि ३ संज्ञेति पूर्णभद्रः । तथा"मघा १ विशाखा २ र्दा ३ मूल ४ कृत्तिका ५ रोहिणी ६ करैः । रव्यादिवारसंयुक्तैर्यमघंटो भृशोऽशुभः ॥ १ ॥ "
पाकश्रीकृत् करस्थाने आषाढाद्वयमाह । तथा"भरचित्तु २ त्तरसाढा ३ धणि ४ उत्तरफग्गु ५ जि ६ रेवइआ७ । सूराइजम्मरिख्खा एएहिं वज मुसल पुणो ॥ १ ॥
अत्र भरणीस्थानेऽश्विनीति लोकश्रियां । जम्मरिख्ख त्ति एतान्यादीनां जन्मभानि, एमिरर्कादिवारेषु क्रमाद्वज्रमुसलयोगः स्यात् लोकश्रीग्रन्थे "भर१पुस्तु २ त्तरसाढा ३ अद्द ४ विसाहा ५ य रेवई ६ सभिस ७। अकाइआण एहिं अरिजोगा गुरुविणिहिट्ठा ॥ १ ॥" महश्मूलु २ त्तरसाढा ३ अद्द ४ विसाहा ५य रोहिणी ६ सभिसा । सुक्काइआण कमसो जहाकम अस्थिरो जोगो ॥ २ ॥" इस्युक्तमस्ति । तेन प्रीतिकार्येप्वरियोगाः स्थिरकार्येषु चरयोगाश्च त्याज्याः। तथाअक्काइसु ककी बारसी उ पच्छक्कमेण जा छठ्ठी । कक्कयनामा, यदुक्तम्
" यत्र संख्यायुतौ वारतिथ्योर्जातात्रयोदश । ज्ञेयः क्रकचयोगोऽयं हेयश्च शुभकर्मसु" ॥ १ ॥ तथा." पडिवयतिजबुहेणं छठी जीवेण विजसुकेण ।
सत्तमी सणिसूरेसु एएसि वया जोगा ॥ १ ॥ ___ पडिवयबुहेण सत्तमी रविणा संवट्टओ हवइ जोगो।"
इत्येतावदेव तु हर्षप्रकाशादौ । अथैवं भानौ भूत्यै इत्यादि चतुर्दशश्लोकोक्ततिथिभानां रव्यादिवारैः सह शुभा अशुभाश्च योगा यद्यद्विशेषनाम लभन्ते तत्तेषां प्रकाशितं । येषां तु न प्रकाशितं तेषां तिथिभानां रव्यादिवारैः सह ये शुभा योगास्ते सुयोगा इत्युच्यन्ते, ये स्वशुभास्ते सामान्ययोगा इति । सर्वे. पामेषां क्रमास्थापना
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:: आरम्भ-सिद्धिः
एवमेते विरुद्धनामानः १ सामान्ययोग २ सुयोग ३ सिद्धय ४ मृतसि. घ्या ५ ख्याश्चेति पञ्चविधयोगा उक्ताः आत्यन्तिकासिद्धि १ दृिच्छिकसिद्धि २ विलम्बितसिद्धि ३ चिन्तितसिद्धि ४ चिन्तिताधिकसिद्धि ५ श्वेति क्रमादेषां फलानीति त्रिविक्रमः ॥ पुनर्योगानाह
योगः कुमारनामा शुभः कुजज्ञेन्दुशुक्रवारेषु । अश्व्याद्यैदयन्तरितैनन्दादशपञ्चमीतिथिषु ॥ ५३ ॥
व्याख्या--कुजाद्यन्यतमवारे अश्व्यायेद्वन्तरितैरिति अश्विनी १ रोहिणी २ पुनर्वसु ३ मघा ४ हस्त ५ विशाखा ६ मूल ७ श्रवण ८ पूर्वभद्रपदा ९ न्यतमभेन नन्दाद्यन्यतमतिथौ कुमारयोगः । अयं विशिष्य स्थिरकर्मणि मैत्री. दीक्षाव्रतविद्याशिल्पग्रहणादौ गृहप्रवेशे च शुभः । अयं च विरुद्धयोगोत्पत्ति वर्जयता ग्राह्यः । तेन भौमे दशमी पूर्वभद्रपदा च, सोमे एकादशी विशाखा च, बुधे प्रतिपन्मूलमश्विनी वा, शुक्रे रोहिणी, एते कुमारयोगा अपि नेष्टा: यथासंभवं कर्कसंवर्तककाणयमघंटयोगोत्पत्तेरिति श्रीहरिभद्रसूरिकृते लग्नशुद्धिप्रकरणे॥
राजयोगो भरण्याद्ययन्तर्रभैः शुभावहः। भद्रावतीयाराकासु कुजज्ञभृगुभानुषु ॥ ५४ ।।
व्याख्या-द्वयन्तरैरिति भरणी १ मृगशिरः २ पुष्य ३ पूर्वाफल्गुनी ४ चित्रा ५ नुराधा ६ पूर्वाषाढा ७ धनिष्ठो ८ त्तरभद्रपदा ९ न्यतमभे भद्रान्य. तमतिथौ कुजाद्यन्यतमवारे राजयोगः । अयं लघुक्षिप्रमङ्गल्यधर्मपौष्टिकभूषणक्षेत्रारंभादिषु विशिष्य श्रेष्टः, तरुणयोगनामाप्ययमिति पूर्णभद्रः । अयमपि विरुद्ध. योगोत्पत्ति वर्जयता ग्राह्य इति संभाव्यते । तेन रवौ सप्तमी द्वादशी वा भरणी च, भौमे धनिष्ठा, बुधे भरणी धनिष्ठा वा, शुक्रे द्वितीया सप्तमी वा पुष्यश्च, एते राजयोगा अपि नेष्टाः, यथासंभवं संवर्तकर्कवजमुसलोत्पातकाणादियोगोत्पत्तेः ॥ स्थिरयोगः शुभो रोगोच्छेदादौ शनिजीवयोः । ..
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प्रथम विमर्शः
त्रयोदश्य १३ ष्ट८ रिक्तासु४-९-१४ दूयन्तरैः कृत्तिकादिभै
व्याख्या -- अष्टेत्यष्टम्या उपलक्षणं, शनौ जीवे वा त्रयोदश्याद्यन्यतमतिथौ
11
३७
द्वयन्तरैरिति कृतिका १२ इलेषो ३ त्तरफल्गुनी ४ स्वाति ५ ज्येष्टो ६ तराषाढा ७ शततारा ८ रेवत्य ९ न्यतमभेन स्थिरयोगः रोगोच्छेदादाविति, उक्तं च पाकश्रियां
6:
अणसण- खिल-वाहि-रिण रिउ-रण- दिग्वं जलासए बंधो । कायsar थिरजोगे जस्स य करणं पुणो नथि
"" ॥ १ ॥
अस्यायं भावः - स्थिरयोगे दत्तानशनो नोत्तिष्ठते, खिलं क्षेत्र शोध्यं, व्याधिऋणरिपत्र उच्छेद्याः, युद्धदिव्यायमुपलक्षणत्वान्मित्रच्छेदस्नेहच्छेदादि च कार्यमिति । अयं च स्थविरयोगनामाथि । तथाऽयं योगोऽतिदुर्बलोऽनारंभित्वात्, स्वभावादनिवर्तकश्वोक्तकार्येष्वेव ग्राह्यो नान्येषु ॥
यमलाख्यो द्विपादक्षै त्रिपादक्षै त्रिपुष्करः । जीवारशनिवारेषु योगो भद्रातिथौ स्मृतः ॥ ५६ ॥
व्याख्या - येषां द्वौ द्वौ पादौ पूर्वोत्तरराशिस्थौ तानि मृगशीर्ष १ चित्रा २ धनिष्ठा ३ ख्यानि त्रीणि भानि द्विपादानि । येषां तु त्रयः पादाः पूर्वस्मि न्नुत्तरस्मिन् वा राशौ स्थिताः तानि कृत्तिका १ पुनर्वसू २ तरफल्गुनी ३ विशाखो ४ तराषाढा ५ पूर्वभद्रपदा ६ ख्यानि षड् भानि त्रिपादानि । जीवाद्यन्यतमवारे भद्रातिथौ चेदद्विपादं भं तदा यमलनामा योगः । तेष्वेव वारतिथिषु चेत्रिपादं भं तदा त्रिपुष्करयोगः ॥
पञ्चके वासवान्त्या तृणकाष्ठगृहोद्यमान् । याम्यदिग्गमनं शय्यां मृतकार्यं च वर्जयेत् ॥ ५७ ॥
व्याख्या - धनिष्ठायाश्चन्द्रभोगो यदा यावान् टिप्पनके लिखितः स्यात्सदा तत्पश्चार्धादारभ्य पञ्चभा-वधि पञ्चकयोगः । तत्र तृणकाष्ठादि न संग्राह्य, गृहं नारंभणीयं न चाच्छादनीयं, दक्षिणस्यां यात्रा न कार्या, खवादिशय्या न कार्या न च व्यापार्या । यदुक्तं व्यवहारसारे
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आरम्भ-सिद्धिः
" धनिष्ठा धननाशाय प्राणघ्नी शततारका । पूर्वायां दंडयेद्राजा उत्तरा मरणं ध्रुवम् ॥ १ ॥
अग्निदाहश्च रेवत्यामित्येतत्पश्चके फलम्" इति मृतकार्यमिति मृतक्रिया काऽपि न कार्या यदि कश्चिदकस्मात् पञ्चके मतस्तदा छेदनसहितं करचरणबन्धनं तस्य कुर्यादिति लल्लः । तद्दहनविधिस्त्वयं गरुडपुराणे-"दर्भमयाश्चत्वारः पुत्तलकाः कृत्वा शबपार्श्वे स्थाप्याः, तेन सहैव च दहनीयाः, अन्यथा पुत्रगोत्रादीनां प्रत्यवायः स्यात् ॥
पञ्चकं श्रवणादीनि पञ्च ऋक्षाणि निर्दिशेत् । केचित्पुनर्धनिष्ठादिपञ्चकं पञ्चकं विद्धः॥ ५८ ॥
व्याख्या-नारचन्द्रे तु श्रवणरेवत्योः सर्वदिग्गमनमनुमन्यमानेन दक्षिण दिग्यात्राऽप्यनुमेने । तथाहि
" सर्वदिग्गमने हस्तः श्रवणं रेवतीद्वयम् ।
मृगः पुष्यश्च सिध्ध्यै स्युः कालेषु निखिलेष्वपि " ॥ १ ॥ यमलादीनां संज्ञाः सान्वर्था इत्याहहानिवृध्ध्यादिकं सर्व योगे स्याद्यमले द्विशः। त्रिशस्त्रिपुकराख्ये तु पञ्चशः पञ्चकेऽपि च ॥ ५९ ।। व्याख्या-एविष्टमेव कार्य कार्य न त्वनिष्टमित्याशयः ॥
गंडान्तं च त्यजेत्त्रेधा लग्न ४-८-१२
तिथ्यु ५-१०-१५ डुषु ९-१८-२७ त्रिषु ! प्रत्येकं त्रित्रिभागान्तरर्धे १ कर द्विघटी ३ मितम् ॥६॥
व्याख्या-त्यजेदिति जन्माधानयात्रोद्वाहवतगृहनिवेशप्रवेशक्षौरादिसर्वकायेष्वशुभो गंडान्त इति भावः । वेधेति लग्नगंडान्तः १, तिथिगंडान्त: २, नक्षत्रगंडान्त ३ श्वेति । कथमित्याह-त्रित्रिभागान्तरिति तृतीयस्तृतीयो भागस्त्रित्रिभागः, मयूरव्यंसकादित्वात्तीयप्रत्ययलोपः तत्सन्नियोगजतृआदेशनिवृत्तिश्च,
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प्रथम विमशः
३९
ततोऽयमर्थः - लग्नानि द्वादश, तेषां त्रिभागे त्रिभागे चत्वारि, ततो लग्नानां चतुष्कस्यान्तरेऽर्धघटी, कथं ? तुर्य लग्नं कर्कस्तस्यान्त्यानि पञ्चदश पलानि, पञ्चमलग्नस्य च सिंहस्याद्यानि पञ्चदश पलानीत्युभयमीलनेऽर्धघटी लग्नगंडान्तः । एवमष्टमनवमयोर्वृश्चिकधनुषोर्द्वादशाद्ययोर्मीनमेषयोश्चान्तरालेऽपि भाव्यं । तिथयः पञ्चदश, तेषां त्रिभागे पञ्च पञ्च ततः पञ्चम्या अन्त्यार्धघटी षष्ठया आद्यार्धघटी चेत्येका घटी तिथिगंडान्तः, एवं दशम्येकादश्योः पञ्चदशीप्रतिपदोश्चान्तरालेऽपि भाव्यं । उडूनि सप्तविंशतिः, तेषां त्रिभागे त्रिभागे नव नव, तत्र नवममश्लेषा तस्या अन्त्या घटी, दशमं मघा तस्या आद्या घटी चेति द्वे घट्यो नक्षत्रगंडान्तः, एवमष्टादशैको नविंशयोज्येष्ठामूलयोः सप्तविंशाद्ययो रेवत्यश्विन्योश्चान्तरालेऽपि । गंडान्तस्थापना-
लग्न गंडान्त तिथि गंडान्त
तथा
४
कर्क
भाग ३
८
वृश्चिक
१२
मीन
भाग ३
५
सिंह ५ ६
९
धन
92 ११
१
मे
अर्ध घटी एका घटी
१५
१
नक्षत्र गंडान्त
भाग ३
९
अश्लेषा
१८
ज्येष्ठा
१०
मघा
१९
मूल
२७
१
रेवती | अश्विनी
द्वे घट्यो
श्रीपतिस्तु श्रीनप्येतान् द्विगुणद्विगुणप्रमाणानाह । नक्षत्रगंडान्तोऽष्टघटीमान : इति सारङ्गः । नक्षत्रगंडान्तरीत्या विष्कंभादिसप्तविंशतियोगगंडान्तोऽपि पञ्चपञ्चघटमानो गण्य इति केशवार्कः । विशेषस्तु
" नक्षत्रो मातरं हन्ति तिथिजः पितरं तथा ।
लग्नस्थ बालकं हन्ति गंडान्तो बालदूषकः " ॥ १ ॥
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४०
तथा
आरम्भ-सिद्धिः
" जातो न जीवति नरो मातुरपथ्यो भवेत्स्कुलहन्ता । यदि जीवति गंडान्ते बहुगजतुरगो भवेद्भूपः " ॥ १ ॥
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नहं न लभई इत्थ अहिदट्ठो न जीवई ।
जाऊ वि भरई पायं पत्थिओ न निअत्तई ” ॥ १ ॥ विवाहवृन्दावने तु सन्धिनामाऽपि दोष उक्तः, तथाहिनक्षत्र १ योग २ तिथि ३ सन्धिषु नाडिकैका, तिथ्य १५ ट ८ विशति २० पलैः सहितोभयत्र अस्य वृत्तार्धस्यायं पिंडार्थ :- सर्वेषां तिथि १ नक्षत्र २ योगानां सन्धिषूभयपार्श्वमीलनेन क्रमात्रिभागोनत्रिघटिका १ ऽर्धतृतीयघटी २ सपादद्विघटिक ३ माना वेला सन्धिदोषनाम्नी मङ्गल्यकार्येषु त्याज्या | त्रिविक्रमस्त्वेवमप्याह-"नक्षत्रराइयो रविसंक्रमे स्युरर्वाक्क परत्रापि रसेन्दु १६ नाड्यः ।
एका घटी षट्पलसंयुतेन्दोर्नाड्यश्चतस्रः सपलाः कुजस्य ॥ १ ॥ बुधस्य तिस्रो मनवः १४ पलानि, सार्धाश्चतस्रः पलसप्त जीवे । द्वयशीतिनाड्यः पलसप्त शौरेः, शुक्रस्य हेयाः सपलाश्चतस्रः " ॥२॥ एता ग्रहाणां नक्षत्रराश्यन्तर संक्रमेष्वप्यपार्श्वयोः प्रत्येकमन्तरनाड्यो माङ्गल्यकार्येषु त्याज्याः ॥
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ܕܐ
1
वज्रपातं त्यजेद्वित्रिपञ्चषट्सप्तमे तिथौ ।
मैत्रेऽथ त्र्युत्तरे ३ पैश्ये ५ ब्राह्म ६ मूलकरे ७ क्रमात् ॥ ६१
व्याख्या-द्वित्र्यादिशब्दैः सह क्रमान्मैत्रे त्र्युत्तरे इत्यादिपदानां योगस्तथा । वज्रपातस्थापना-वज्रपातस्य फलं षण्मासैः कार्यकर्तुर्मृत्युरिति हर्षप्रकाशे । त्रयोदश्या सह चित्रास्त्रातियोगेऽपि वज्रपातो नारचन्द्र टिप्पनके उक्तविशेषास्तु - " सप्तनवदशम तिथिषु त्यजेत्क्रमाद्भरणिपुष्यसार्पाणि "" । तथा
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" चउरुत्तर पंच मघा कत्तिअ नवमीइ तहअ अणुराहा ! अठ्ठमि रोहिणिसहिआ कालमुद्दी जोगि मास छगि मच्चू ॥ १ ॥
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कालमुखीस्थापना
३
उत्तरात्रक
अनुराधा
इदं नारचन्द्र टिप्पन के । तथा
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४
५
प्रथम विमर्शः
३
उत्तरा ३
कृत्तिका
अनुराधा
मूलद्द साइचित्ता अस्सेल सगभिसय कत्ति रेवइया । नंदा १ भद्दाए भद्दवया फग्गुणी दो दो २ ॥ १ ॥ बिजभार मिगसुर अभिह पुस्ससिणि भरणिजिठ्ठ ३ रित्ताए । आसाढदुग विलाहा अणुराह पुणग्वसुमहा य ४ ॥ २ ॥ पुन्ना करधणिठ्ठा रोहिणि ५ इअमयगवत्थनख्खत्ता । नंदिप पट्टामुहे चोराउहरायपीडकरा ॥ १ ॥
इति दिनशुद्धौ । तथा
मघा
५
कृत्तिका
शनि
५
मधा
.६
रोहिणी
“ कत्तिअपभिई चउरो सणि बुहि ससि सूरवार जुत्तकमा । पंचमि बि एगारसि बारसि अबला सुद्दे कजे " ॥ १ ॥ अबलयोग स्थापना ---
रोहिणी
बुध
२
मूल - हस्त
मृगशिर
चन
१
८
रोहिणी
आर्द्रा
रवि
१२
४१
तथा ऋतुभेदाच्छुभाशुभयोगा एवम् -
" कत्ति उ मग्गसिरेऽमि अ पंचमि गुरुवार पुणव्वसू चेव । सुहयाउ हुंति सरए अद्दा दसमी कुजे असुहा ॥ १ ॥ पोसे माहे छठ्ठी भिगुत्तराफग्गु अकजकरा । असुह इगारसि गुरुणा फग्गुणि पुव्वाय हेमंते ॥ २ ॥
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आरम्भ-सिद्धि:
फग्गुण चित्ते मासे तेरसि सफला विसाहबुद्दवारा बारसि सुक्के साई वसंतकाले विवजिजा ॥ ३ ॥ बसाहजिक सुने पडिवय मूलो अ उत्तस्फग्यूसुहागिम्हि असुह तेरसि सणिवारे सवणनख्खन्तं ॥ ४ ॥ आसाढलाचनविया· उत्तरभवय- बंद दिन हउ - पाउसि उ सुहो उ बुहो चउदसि पुग्वा य भद्दवया ॥ ५ ॥ rear आलो मासे सत्तमि सनिवार रोहिणी सफला । वासारते असुहा रवि कत्ति पुनमासी अ
3
॥ ६॥
इति पाकश्रियां । आसुः गाथासु ऋतुमासानां नामसु विपर्यासोऽस्ति । कथं ? नाममालादावाश्विमकार्ति का विरूपमासान शादि नाम प्रसिद्ध, इह तु कार्तिक मार्गशीर्षादिरूपमासद्वयानामुक्त । तथा शिशिरर्तुस्त्र मूलतोऽपि 'नोक्तः, वर्षतरेिव प्रारात्ररूपनामद्वयमारोग्य ऋतुषट्कं पूरितमिति शोध्यं विपर्यासस्तद्ग्रन्थकृन्मतेनेति ज्ञेयम् ॥
रवियोगमाह -
योगो रवेर्भात् कृत ४ तर्क ६ नन्द ९ दिन । विश्व १३ विंशो २० डुबु सर्वसिद्धये ।
आये १ न्द्रिया ५ श्व ७ द्विप ८ रुद्र ११
F
४२
*
7
सारी १५ राजो १६ डुषु प्राणहरस्तु हेयः ।। ६२ ।।
"
व्याख्या - रवेरित्युभयतोऽपि योज्यं । कथं ? रवेर्भादिति कोठर्थः ? रविभुज्यमानभस्तद्दिनभं चेत्तुर्यं तदा तुर्यो रवेयार्गः, षष्ठं चेत्तदा षष्ठो वेर्योग इत्यादि । सर्वसिद्ध्यै इति । यदुक्तं हर्षप्रकाशे
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पआण फलं कलसो विउलं सुरलं ४ जयं च सत्तूणं ६ । लाभं च ९ कजसिद्धी १० पुत्तुप्पत्तीअ १३ रज्जं च २०” ॥१॥
अत्र पुत्तप्पत्ती अति पुत्रोत्पत्तिः । यादृशं शुद्धरुद्मानां बलं तादृशमेषां रवियोगानां बलमिति यतिवल्लभे । उक्तं च-
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प्रथम विमर्शः '
6
इक्क भए पंचाणणस्स भजति गयघडसहस्सा |
तह रवि जोगपणठ्ठा गयणोंमें गहा न दीसति ॥ १ ॥
.
""
रविजोगराजजोगे कुमारजोगे अ सुद्धदिअहेऽवि । जं सुहकजं कीरइ तं सव्वं बहुफलं होइ ॥ २ ॥ आद्येन्द्रियेत्यादि यद्यर्कममेव तद्दिनभं तदा आद्यो रेवियोग इत्यादि । द्विपा अष्टौ । सा तोपयोगिन्यः पञ्चदश ॥ राजानः षोडश । रवियोगेष्वभिजिन्न गण्यते, सप्तविंशतेरेव सेषां ग्रन्थान्तरे फलकथनात् । तत्र द्वितीयतृतीयद्वादशसप्तदशषट्विंशसप्तविंशाना मनिषिद्धानुक्तश्वादेव मध्यमत्वमूद्धं । शेषाणां तु शुभाशुभत्वमत्रापि साक्षादेव केवाशिंयुकं केपाशिव घोडयेति ॥ अथ सप्तविंशतो. रवियोगेषु येषामुपग्रहसंज्ञा नास्ति तानाह
नोपग्रहास्तु भूत्यै भूपा ५ द्रि- ७ फणी ८ न्द्र १४ तिथि १५ धृति १८ : युगले १९ । रविभात्तथैकविंशादिषु पञ्चसु २१२२-२३-२४-२५ चरति भेविन्दौ ॥ ६३ ॥
46
व्याख्या -- टतियुगलं घृत्यतिधृती अष्टादशैकोनविंश्योश्छन्दोजाती । चरतीति रविभादेतावत्तिथेषु दिनभेषु सत्सु क्रमादेते द्वादशोपग्रहाः स्युरित्यर्थः एष्वष्टानां संज्ञा उद्वाहादौ फलं चैवं नारचन्द्रे उक्तम्
४३
विद्युन्मुख १ शूला २ शनि ३ केतू ४
ल्का ५ वज्र -६ कम्प' ७ निर्घाताः ८ ।
2
ङ ५ ज ८ ८ १४ द १८ १९ फ २२
ब२ ३ भ २४ संख्ये रविपुरत उपग्रहा धिष्ण्ये ॥ १॥ फलमङ्गज १ पतिमरणे २ दशमदिनान्तस्तथाऽशनिनिपातः ३ । सानुजपति ४ धननाशौ ५ दोशीस्यं ६ स्थान ७ कुलघातौ ८ ॥ २ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः शेषास्तु चत्वार उपग्रहाः सामान्येनानिष्टफलदा:. एकाशीतिपदाख्यवेधचकादावप्येतदनुसारेणोपग्रहफलं ज्ञेयं । विशेषस्तु आडलयोगविचारणेऽमिजिदपि गण्यते ।
आडलस्थापना यथा इह च--
४
३
२
१
. २८ २७ २६
---- आडलोऽयं
--
-
-
१२ १३
१४ १५ १६ १७
१८
"द्वि२ हया७ के९ न्द्र१४ भूपै१६ कर१ व्य२३ ट्युग्विशति२८ प्रमे । सूर्यभाञ्चन्द्रमे स्यादाxडलस्त्याज्यः सदा बुधैः " ॥ १ ॥
शेषाङ्कास्तु स्थापनायामर्थव्यक्तीकरणार्थमेव लिखिताः, आडलेऽनुपयोगिस्वात् । नरपतिजयचर्यायां त्वाडलानयनोपाय एवमूचे--
-
___x डलो यात्रासु रोधकृत् इति वा पाठः,
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प्रथम विमर्श:
" सूर्यभाद्गुणयेन्दोभ सप्तभिर्भागमाहर |
,,
शून्यं द्वौ वा न शेषों चेदाडलो नास्ति निश्चितम् ॥ १ ॥ अयं च योगः प्रायः सुरगिरिदिशि व्याप्रियते, एतद्गुणने च नवमो रवियोगो यात्रादौ नेष्ट इत्यागतम् ॥
अथ प्रत्यभाविन उपयोगानाह-
उपयोगास्त्वश्वि१ मृगा२श्लेषा ३ कर ४ मैत्र ५ वैश्व ६ वारुणतः ७ । व्यादिषु तद्दिनभप्रमिताः क्रमतोऽभिधानफलाः ||६४ ||
व्याख्या - ख्यादिष्विति रविवारेऽश्विनीतो गण्यं, सोमवारे मृगशीर्षात्, भौमवारेऽश्लेषात इत्यादि । अनामिजिगण्यते । एवं च गणने इष्टदिनभ यावतिथं स्यात्तावतिथस्तहिने उपयोगः || तन्नामाम्याह
dos
आनन्दः १ कालदंडश्च२ प्राजापत्यः ३ सुरोत्तमः ४ । सौम्यो५ ध्वांक्षो६ ध्वजश्चैव७ श्रीवत्सो' वज्र ९ मुद्गरौ १० ॥ ६५ ॥
छत्रं ११ मित्रं १२ मनोज्ञश्च १३ कंपो१४ लुंपक १५ एव च । प्रवासो १६ मरणं १७ व्याधिः १८
सिद्धिः १९ शूला २० मृतौ २१ तथा ॥ ६६ ॥ मुसलो२२गज२३मातङ्गौ २४
राक्षसो२५se चर: २६ स्थिरः २७ ।
वर्धमान २८ श्वेति नाम्ना स्युरष्टाविंशतिः क्रमात् ॥ ६७ ॥
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व्याख्या -- उपयोगानां क्रमात्स्थापना यथा
रवि
सोम
१ आनंद
२ कालदंड
३ प्राजापत्य
४ सुरोत्तम ५ सौम्य
६ ध्वांक्ष
७ ध्वज
८ श्रीवत्स
९ वज्र
१० मुद्गर ११ छत्र १२ मित्र
१३ मनोज्ञ
अश्विनी
भरणी
कृत्तिका
रोहिणी
मृगशिर
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
अश्लेषा
मघा
मृगशिर
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुण्य
अश्लेषा
मघा
हस्त
चित्रा
मंगल
पूर्वाफाल्गुनी स्वाति उत्तराफाल्गुनी | विशाखा
हस्त
अनुराधा
अश्लेषा
मघा
हस्त
चित्रा
पूर्वाफाल्गुनी स्वाति
उत्तराफाल्गुनी विशाखा
चित्रा
पूर्वाफाल्गुनी स्वाति
उत्तराफाल्गुनी विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
बुध
पूर्वाषाढा
उत्तराषाढा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढा
उत्तराषाढा
अभिजित्
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
गुरु
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढा
उरात्तषाढा
अभिजित्
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पूर्वाभाद्रपद
उत्तराभाद्रपद
रेवती
अश्विनी..
शुक्र
उत्तराषाढा
अभिजित्
शनि
शतभिषा
पूर्वाभाद्रपद
उत्तराभाद्रपद
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पूर्वाभाद्रपद भरणी
उत्तराभाद्रपद कृत्तिका
रोहिणी
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृत्तिका
रोहिणी
मृगशिर
रेवती
अश्विनी
मृगशिर
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
अश्लेषा
४६
आरम्भ-सिद्धिः
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१४ कंप चिा
१५ लुंपक स्वाति
१६ प्रवास
विशाखा
१७ मरण अनुराधा
१८ व्याधि ज्येष्ठा
१९ सिद्धि
२० शूल
२१ अमृत उत्तराषाढा
अभिजित्
मूल
पूर्वाषाढा
२२ मुसल २३ गज़
श्रवण
२४ मातंग धनिष्टा
२५ राक्षस | शतभिषक्
२६ चर पूर्वाभाद्रपद २७ स्थिर उत्तराभाद्रपद २८ वर्धमान रेवती.
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढा
उत्तराषाढा
अभिजित्
अभिजित्
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पूर्वाभाद्रपद
उत्तराभाद्रपद
श्रवण
धनिष्ठा
रेवती
शतभिषा
अश्विनी
पूर्वाभाद्रपद भरणी
उत्तराभाद्रपद कृतिका
रोहिणी
मृगशिर
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृत्तिका
रोहिणी
पूर्वाभाद्रपद
भरणी
उत्तराभाद्रपद कृत्तिका
रोहिणी
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृगशिर
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
अश्लेषा
मघा
मृगशिर
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
अश्लेषा
मघा
आर्द्रा
पुनर्वसु
हस्त
चित्रा
पूर्वाफाल्गुनी
स्वाति
उत्तराफाल्गुनी | विशाखा
पुष्य
अश्लेषा
मवा
हस्त
चित्रा
पूर्वाफाल्गुनी
स्वाति
उत्तराफाल्गुनी | विशाखा
पूर्वाफाल्गुनी स्वाति
उत्तराफाल्गुनी विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मघा
मल
पूर्वाषाढा
पूर्वाफाल्गुनी
उत्तराफाल्गुनी
हस्त
चित्रा
अनुराधा
ज्येष्टा
मल
पूर्वाषाढा
उत्तराषाढा
अभिजित्
श्रवण
धनिष्ठा
प्रथम विमर्श:
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४८
आरम्भ-सिद्धिः
एषां फलं नामभिरेव व्यञ्जितमिति न पृथक् प्रतन्यते । केचित् प्राजापत्य १ सुरोत्तम २ मनोज्ञादिषट्कट शूल९ गजानां १० क्रमेण धूम्र १ प्रजापति२ मानस३ पद्म४ लंबको५ स्यात६ मृत्यु७ काण८ शुभ९ गद १० संज्ञाः प्राहुः | उपयोगसंज्ञा चान्वर्था अमीषां विष्कंभाथहर्योगसमीप एव सदाभावात् ॥ कुयोगेष्वपवादमाह -
यत्प्रातिकूल्यं वाराणां तिथिनक्षत्रसंभवम् । हूणवंगखसेष्वेव तत्त्यजेदिति केचन ॥ ६७ ॥
व्याख्या – तिथिसंभवं यथा संवर्तककर्कयोगादौ । नक्षत्रसंभवं यथा उत्पातमृत्युकाणोपयोगादौ । हूणाद्या देशविशेषाः । केचनेति अयं भाव:एकान्तिककार्यं विना शेषेष्वपि देशेष्वेते त्याज्याः ॥ शुभाशुभयोगसंकरे शुभयोगबलमाह
सिद्धियोगः कुयोगश्च जायेतां युगपद्यदि ।
कुयोगं तत्र निर्जित्य सिद्धियोगो विजृम्भते ॥ ६८ ॥ व्याख्या— यौगिकनामाश्रयणाच्छुभयोगः सर्वोऽपि सिद्धियोगशब्देनात्र प्राः ॥ अथ दिनयोगानाह
विष्कंभः १ प्रीति२ रायुष्मान् ३ सौभाग्यः ४ शोभन५ स्तथा । अतिगंडः ६ सुकर्मा७ च धृतिः८ शूलं९ तथैव च ॥ ६९ ॥ गंडो १० वृद्धि ११ व १२ चैव
व्याघातो १३ हर्षण १४ स्तथा ।
वज्रं १५ सिद्धि१६ वर्व्यतीपातो १७
वरीयान् १८ परिघः १९ शिवः२० ॥ ७० ॥
सिद्धः २१ साध्यः २२ शुभः२३
शुक्लो२४ ब्रह्मा२५ चैन्द्रो२६ऽथ वधृतः २७ ।
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प्रथम विमर्शः
इति सान्वयनामानो योगाः
स्युः सप्तविंशतिः ॥ ७१ ॥.. .. व्याख्या-स्पष्टाः । विशेषस्तु "विक्खंभ१ सूल२ गंडे३ अइगंडे४ वज५ तह य वाघाए । वइधिइ७.सूराइकमा अइदुठ्ठा मूलजोगा ओ" ॥ १ ॥ इति नारचन्द्र टिप्पनके ॥ एषु दुष्टयोगानां दुष्टघटीराहव्यतिपातवैधृताख्यौ सकलौ परिघस्य पूर्वमध च । प्रथमः पादोऽन्येष्वपि विरुद्धसंज्ञेषु हातव्यः ॥ ७२ ॥
व्याख्या-पूर्वाधं पादश्च टिप्पनकलिखिततादात्विकतत्प्रमाणापेक्षया निर्णेयः । विरुद्धसंज्ञेष्विति विशिष्टं कर्म जायमानं रुणद्धीति विरुद्धा दुष्टार्थमिलितेत्यर्थः, तादृशी संज्ञा येषां ते विष्कंभगंडातिगंडशूलव्याघातवज्रपातेषु ॥ प्रथमः पाद इति यदुक्तं तत्र प्रकारान्तरमाह
त्यजेद्वा पञ्च विष्कंभे षट् तु गंडातिगंडयोः । घटिकाः सप्त शूले तु नव व्याघातवज्रयोः ।। ७३ ॥ व्याख्या-स्पष्टः । विष्कंभादिदुष्टयोगेष्वेकार्गलवेधयोगस्योत्पत्तिमाहएकार्गलः कुयोगेषु चन्द्रेऽर्के च परस्परात् ।। गते साभिजिदोजर्फ त्याज्यः पादान्तरो न चेत्॥७४
व्याख्या-एकार्गलस्त्याज्य इति संटंकः । कुयोगेष्विति भनेन प्रीत्यायुआमदादिसुयोगेष्वेकार्गलो न स्यादेवेति सूचितं । कुयोगेषु सरस्वपि कदाऽस्य संभव इस्याह-चन्द्रेऽकें चेत्यादि, साभिजिदित्यत्र सहशब्दो विद्यमानार्थे, तेनाभिजिदत्र गण्यत इत्यभिप्रायः । एवं लत्ताश्लोकेऽपि व्याख्येयं । ततोऽभिजिता सहाष्टाविंशति नक्षत्रेषु वक्ष्यमाणरीत्या एकार्ग लचके क्रमान्न्यस्तेषु चन्द्रादोंऽकच्चि चन्द्रो यद्यन्योन्यस्माद्विषमे नक्षत्रे एकस्मिाले स्थितौ स्यातां तदा पकार्गल: स्यात् स त्याज्यः, यस्मिनक्षत्रे एकार्गलः पतति तन्नक्षत्रं शुभकार्येषु
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१५०
त्याज्यमित्यर्थः । पादान्तरो न चेदिति पादयोर्नक्षत्रसंबन्धिनोश्चन्द्रार्काभ्यामाक्रान्तयोरन्तरं प्रक्रमान्मिथो सांमुख्यरूपो विशेषो यत्र स पादान्तर एकार्गल:, अयमनन्तरितपाद एकान्तेन त्याज्यः । पादान्तरितस्य तु त्यागे कामचार इति भावः ॥ एतमेवस्थापनादिविधिना विशिष्याह
चंद्र
मृगशिर
श्रवण
अभिजित् -
उत्तराभाद्रपदपूर्वा भाद्रपदशतभिषक
धनिष्ठा -
उत्तराषाढा पूर्वाषाढा
आरम्भ-सिद्धिः
रोहिणी - आर्द्रा
अश्विनी रेवती
कृत्तिका: भरणी-
- पुनर्वसु
- पुष्य
——
---
सूर्य
-अश्लेषा
--मघा
- पूर्वाफाल्गुनी
- उत्तराफाल्गुनी
- हस्त
- चित्रा
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- स्वाती
- विशाखा
अनुराधा - ज्येष्ठा
मूल
तिर्यक् त्रयोदशोध्बैंक रेखे खर्जूरके त्यजेत् । कुयोगे शीर्ष भादर्कचन्द्रावेका लक्षगौ ॥ ७५ ॥
व्याख्या - तिर्यक् त्रयोदश रेखाः स्थाच्या ऊर्ध्वा चैका, खर्जूरकोऽयं, ताकारत्वात् । शीर्षभादिति खर्जूरकस्य शीर्षे वक्ष्यमाणरीत्या भं स्थाप्यं शेषसप्तविंशतिभानि प्रादक्षिण्येन क्रमानेखान्तेषु च ततश्चैकरेखारूपार्गलप्रान्तद्वयस्थयोर्नक्षत्रयोरर्केन्दु यदि स्यातां तदा एकार्गलः स्यात् । तत्स्थापना यथा
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प्रथम विमर्शः
तत्रापि मिथः संखमुखयोरेव भपश्यिोयदि तौ स्थातां तदानन्तर एकालः संपूर्णरे इत्यर्थः । यथा (स्थापना)
उक्तं च- "आद्येन विध्यते तुर्यो द्वितीयेन तृतीयकः।
तृतीयेन द्वितीघस्तु तुर्येण प्रथमस्तथा १॥ ... अन्यथा त्व:न्दोरवस्थाने पादान्तरितोऽसौ न दोषाय । अयं भावः-यथा धानुष्कस्य लक्ष्यं विध्यतः स्वल्पमपि लक्ष्याग्राहक्चलने कार्यसिद्धिर्न स्यादेव तथा वेधोऽपि पादानाद्विभ्रष्टो नार्थभाग्भवेत् । उक्तं च यतिवल्लभे
" बाणाग्रदृष्टिपाताद्यद्वलक्ष्यं भिनत्ति धानुष्कः । तद्वत्समदृष्टिगतो वेधो धिष्ण्यं प्रदृषयति " ॥ १ ॥ एवं वक्ष्यमाणवेधेष्वप्यूह्यम् ॥ शीर्षभस्यानयनमाहखजूरकस्य शीर्षक्षमानमेंकार्गले मतम् । योगाङ्क मैक ओजोऽन्यः साष्टाविंशतिरर्धितः ॥७६।।
व्याख्या-शीर्षक्षमानमिति एतावतिथं में शीर्षे देयमिति कथ्यमानत्वा. न्मानशब्दोऽत्र प्रयुक्तः । योगाङ्क इति इष्टदिने यो विष्कंभादियोगस्तस्याद्विषमस्तदा सैकः कार्यः, समश्चेत्तदाऽष्टाविंशतियुतः कार्यः, पश्चादुभावप्य/कायौं, ततो योऽङ्कः स्यात्तावतिथं भं खजूरकस्य शीर्षे देयं । यथा इष्टेऽति शूलयोगो नवमः, सैकत्वे दश, अर्धिते पञ्च, तत: पञ्चमं भं मृगशीर्ष तद्दिने मूनि दीयते । तथा इष्टेऽह्नि गंडयोगो दशमः, अष्टाविंशतियोगेऽष्टात्रिंशत् , आर्धिते एकोनविंशतिः, तत एकोनविंशतं मलं तद्दिने मूनि देयं, एवमन्यकुयोगेष्वपि भाव्यं । तथा च लल्ल:-- “शूले भूर्धिन मृगो मघा च परिघे चित्रा पुनर्वैधृते, व्याघाते च पुनर्वसू निगदितौ पुण्यश्च वजे स्मृतः। गंडे मुलमथाश्विनी प्रथमके मैत्रोऽतिगंडे तथा,
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आरम्भ-सिद्धिः
सार्पश्च व्यतिपात इन्दुतपनावेकार्गलस्थौ यदा " ॥ १ ॥ अत्र प्रथमके इति विष्कंभे । सप्तशलाकचक्रेण वेधयोगमाह-- वेघ ऊर्ध्वतिरामप्तरेखे पूर्वादितोऽग्निभात् । भस्य रेखाग्रगे खेटे हेयश्चेन्न पदान्तरम् ॥ ७७ ।।
व्याख्या-सप्त रेखा: समहृताः सप्तरेखं, तंत्र पूर्वस्यामादौ न्यस्तादनिभा. दारभ्य यथास्थानं लिखितस्येष्टभस्य रेखाऽग्रगे खेटे सति तेन वेधः स्यादित्य.
संटंकः । अयं भावः-ऊवं तियक चसप्त रेखाः कृत्वा तासामन्तेषु पूर्वादिचतुर्दिक्षु कृत्तिकादिसप्तसप्तभान्यमिजिद्युतानि न्यस्यन्ते । तथाहि ( स्थापना )
कृ
रो
म
आ
पुन पुष्य
अश्ले
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. 444
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---चि
-
---स्वाः
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श्र
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पू
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. ज्ये
अनु.
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प्रथम विमर्श
५३
ततो यो यो ग्रहो यत्र यत्र भे स्यात् स स तत्र तत्र स्थाप्यः । ततो यद्रेखायाः प्रान्ते तद्दिनभं समागतं तस्य द्वितीयप्रान्तस्थभे यदि कश्चिद्ग्रहः स्यात्तदा तेन ग्रहेणेष्टभस्य वेधः स्यात् स हेयः । यतः क्रूरवेधे मृत्युरेव, सौम्यवेधे तु सर्वथा सुखनाशः अत्रापवादमाह - चेनेत्यादि यदि स वेधः पूर्वोकरीत्या पादान्तरितः स्यात्तदा त्यागे कामचारः अयं भावः - इष्टभस्य यस्मिन् पादे कार्यं चिकीर्ष्यते तस्य संमुखे भपादे चेल्स ग्रहो नास्ति, किं तु पादान्तरेऽस्ति तदा पादान्तरोऽसौ ग्रहवेधो न दुष्टः । यत् पूर्णभद्रः
"
विद्धं पादं परित्यज्य कुर्यात् कार्यमशङ्कितः । सर्पदष्टाङ्गुलिच्छेदे विष (पा) वेशोद्भवः कुतः ॥ १ ॥ केशवार्कस्तु क्रूरग्रहवेधं पादान्तरितमपि ग्रहीतुं नानुमन्यते, आह च-विश्लेषमायाति यथाsसुभिः स्वैरेणः शरेणैक दिशि क्षतोऽपि । तथाह्निवेधादपि तारकाणां क्रूरस्य नश्येद्वलसत्त्वसंपत् " ॥१॥
श्रीपतिरप्याह-
""
66
"
" ऋक्षं सोम्यग्रहैविद्धं पादमात्रं परित्यजेत् ।
क्रूरस्तु सकलं त्याज्यमिति वेधविनिश्चयः " ॥ १ ॥ विवाहे विचार्यमपरं वेधयोगं पञ्चशलाकचक्रेणाह
--
विवाहे वेधचक्रस्य पञ्चरेखनाम्नः स्थापनेयम्-
---
विवाहे पूर्ववत्पश्च रेखा द्वे द्वे तु कोणके । लिखित्वानिभतो भानि वेधं तत्रापि चिन्तयेत् ॥७८॥
व्याख्या -- पूर्ववदिति तिर्यगूर्ध्वं च पञ्च पञ्च रेखा: कोणेषु द्वे द्वे च कृत्वा
तासु क्रमाद्धानि तेषु च यथासंभवं ग्रहाः स्थापया इत्यर्थः
,
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आरम्भ-सिद्धिः
कृ
रो
म
आ
पु
पु
अ
TV |
---स्वा
-
ध
।
।
।
श्र
अ
उ
पू
मू
ज्ये
अ.
तत्रापीति अव्ययानामनेकार्थत्वादपिशब्दोऽत्रावधारणे, तेन पूर्वोक्तः सप्तरेखवेधः प्रतिष्ठादिसर्वकार्येषु वीक्ष्यः, विवाहे स्वयमेव पञ्चरेखचक्रवेधः । उक्तं च विवाहवृन्दावने-" अन्यतः परिणयादयं वेधः सप्तरेखवलये" । विलोक्यते अत्रापि पादान्तरितत्वादिप्ररूपणा प्राग्वज्ज्ञेया । अनन्तरिते ग्रह वेधे च फलमेवम्"रवि विहवा कुजि कुलक्खय बुहि बंझा भिगु अपुत्त सणि दासी
गुरुवेहेण तवस्सिणि विलासिणी राहुकेहिं " ॥ १ ॥ अयं वेधो दीक्षायामपि वीक्ष्यः इति पूर्णभद्रः । आह च" सूरिपयाइसु सत्तसलाय वयगहणाइसु पंचसलायं ।
कत्तिअमाइ ठविज हु चक्कं जो अह सासिणा तो गहवेहं ॥१॥ अत्र ससिणो ति चन्द्राधिष्टितनक्षत्रस्येत्यर्थः ।।
लत्तायोगमाह-- लत्ता वयेष्टभादर्कादीनां साभिजिदीयुषाम् । धृत्या१८कृत्यु२२डु२७सप्ताहत्४पश्चा५कृत्य२२ङ्क९संख्यभं
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प्रथम विमर्श:
व्याख्या--आकृतिर्द्वाविंशच्छन्दोजाति: । उडूनि सप्तविंशतिः । अर्हन्तश्वतुर्विंशतिः अङ्का नव । अयमर्थ:- इष्टभादष्टादशे भे स्थितः सन्नर्क इष्टभं लत्ता हन्ति, चन्द्रस्तु द्वात्रिंशे भे स्थितः सन्नित्यादि । लत्ता किल पादप्रहारः स चाश्वादीनामिव प्रायः पृष्ठतः स्यात्ततस्तथोक्तः ॥
अथ ज्योतिर्विदां नक्षत्रगणनसौकर्यार्थं यथा पुरतः स्यात्तथा पाठान्तरेणाह - लत्तयन्ति भमर्काद्याः स्वक्षतः साभिजित्क्रमात् ।
अर्का १२ ष्टा८ग्नि३ विकृत्य २३ ६ तत्त्वा२५ष्ट८ प्रकृति२१प्रमं
व्याख्या -- स्वर्क्षत इति यद्येन ग्रहेण तदा आक्रान्तं स्यात्तस्य तत् स्वक्ष, ततो येषु येषु भेष्वद्या राहृन्ता: स्थिताः स्युस्तेभ्योऽग्रे क्रमाद्वादशादी नि भानि लत्तया घ्नन्ति। विकृतिप्रकृती त्रयोविंश्यैकविंश्यौ छन्दोजाती । त सांख्यमते पञ्चविंशतिः । उत्तरार्धे सुखार्थं पाठान्तरं - " सूर्या १२ ८ त्रि३ त्रयोविंश २३ षट्६ तत्त्वा २५ है८ कविंशकः २१ । अस्मिँश्च लत्ताद्वैविध्येऽपि नार्थभेदः । तथाहि - इष्टभमश्विनी ततोऽष्टादशे भे ज्येष्टायां स्थितोऽर्कोऽश्विनी पृष्ठतो लत्तयति । तथार्कस्य स्वक्षं ज्येष्ठा तत्रस्थोऽर्कः पुरतो द्वादशं भमश्विनीं लत्तयति । एवं सर्वत्र भाव्यं । ननु यदिष्टदिनस्यभं तदेवेन्दोर्भ, तत्रस्थश्चेन्दुयदि द्वाविंशमष्टमं वा में लत्तयति तदेष्टभस्य किमागतं ? ततश्चेष्टभस्येन्दुलत्ताविचारणं व्यर्थमेवापद्यते । सत्यं परमिन्दुः परिपूर्ण एवं सन् भं लत्तयति, नान्यथा, यदाह श्रीपति:- " द्वाविंशं परिपूर्ण मूर्तिरुडुपः संतापयेन्नेतर: " aat aavat यत्र भे समाप्ता स्यात्तदेवेन्दोर्भ कल्पयित्वा ततो विचायें । उक्तं च यतिवल्लभे-
1
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चकार यत्र नक्षत्रे राकान्तं रजनीकरः ।
ततश्चाष्टमनक्षत्रं स पुरो हन्ति लत्तया ॥ १ ॥
५५
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लत्तायां परमतमध्याह
अग्रतो नवमे राहोः सप्तविंशे भृगोस्तु भे ।
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आरम्भ-सिद्धिः
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केचिज्योतिविदः प्राहलत्तां तामपि वर्जयेत् ॥ ८१ ॥
व्याख्या--नवमे इति, त्रिविक्रमस्तु विशे भे राहोर्लत्तामाह, तथाहि" नख२० संख्यं तमोहन्तीति " । लत्ताफलं च पौर्णभद्रज्योतिष एवमुक्तम्“ अणुजविणासो १ नासो २ कजाभावो ३ भयं ४ विहवछेऊ ५ । गुरु १ बुह २ सिअ ३ ससि ४ रवि ५ हयरिक्खेसु भरणमन्नेसु॥१
इह च वृद्धाः प्राहु:-" सौम्यलत्ताः किल स्वल्पदोषाः, भस्य हि दौर्बल्यमेव ताः कुर्युः, क्रूरलत्तास्तु मरणदारियादिनाऽनर्थदाः । केशवार्कोऽप्याह“ उडुनि निर्दलिते शुभलत्तया, न फलमस्ति भस्य गलत्तया । अशुभलत्ति भमत्ति तदृढयोधनसुतानसुतापकरं परम् " ॥ १ ॥ ग्रन्थान्तरेत्वेवमूचे--
" सौम्यलत्ताहतं पातोपग्रहाद्यैश्च दूषितम् ।
भपादं वर्जयेदेव भञ्च केन्द्रे न चेच्छुभाः" ॥ १ ॥ अस्यायं भावः-यदि तात्कालिककार्ये लग्ने केन्द्रेषु शुभग्रहाः स्युस्तदा सौम्यग्रहलत्ता पादान्तरिता न दुष्यति । केन्द्रेषु शुभग्रहाभावे तु सौम्यलताहवमपि में संपूर्णमपि त्याज्यं, एवमुपग्रहपातादिहतेऽपि भे वाच्यम् ।। पातयोगमाह-- पातः सूयक्षतोऽश्लेषा मघा चित्रानुराधिका । श्रुतिः पौष्णं च यत्र स्युस्त्याज्यस्तत्संख्यभेऽश्विभात्।।८२॥
व्याख्या--इष्टदिने यत्र भेऽर्कः स्यात्तस्मादश्लेषायुक्तषड्नानि यत्र सङ्. ख्यायां स्युः, कोऽर्थः ? यावतिथानि स्युः, अश्विनीतो गणनया तावतिथेषु षड्भेषु पातः स्यात् । अस्य त्रिशूलपात इति नामान्तरं । भावना यथायदा सूर्यभं ज्येष्ठा ततोऽश्लेषा एकोनविंशी, मघा, विंशी, चित्रा चतु
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प्रथम विमर्श:
विंशी, अनुराधा सप्तविंशी, श्रुतिः पञ्चमी, पौष्णं दशमं चेत्यतस्तद्दिनेऽश्विनी एकोनविंशविंश २ चतुवैिश ३ सप्तविंश ४ पञ्चम ५ दशमीषु ६ मूल १ पूर्वाषाढा २ शतभिषग् ३ रेवती ४ मृगशिरो ५ मघासु ६ पातः एवमन्यदपि भाव्यं । पातेऽभिजिन्न गण्यते ॥
स्यात् ।
५७
अत्र सुखार्थमानायमाह -
पातं शूलस्य गंडस्य हर्षणव्यतिपातयोः । साध्यवैधृतयोश्चान्ते धिष्ण्यं यत्तत्र वर्जयेत् ॥ ८३ ॥
व्याख्या - शूलाद्या एते षड् योगा येषु भेषु समाप्यन्ते तेषु तेष्वेते बडपि पाताः क्रमात् स्युः -
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" पवनः १ पावक २ चैव कालः ३ किंकर ४ एव च । मृत्युकृत् ५ क्षय ६ चेति पाता नामसदृक्फलाः ॥ १ ॥ एताः संज्ञा नरपतिजयचर्यायाम् ॥
॥ इति योगद्वारम् ॥ ४
इति श्रीमति आरंभसिद्धिवार्त्तिके तिथि १ वार २ भ ३ योग ४ परीक्षात्मकः प्रथमो विमर्शः ॥ १ श्रीसुरीश्वरसोमसुन्दरगुरोर्निःशेष शिष्याग्रणीर्गच्छेन्द्रप्रभुरत्नशेखर गुरुर्देदीप्यते साम्प्रतम् । तच्छिष्याश्रवहेमहंस रचितस्यारंभसिध्धेः सुधी शृङ्गाराभिधवार्तिकस्य समभूदाद्यो विमर्शोऽर्थतः ॥ १ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
॥ द्वितीयो विमर्शः ॥ ५
॥ अथ राशिद्वारम् ॥ ५ राशिरथ तत्र मेषोऽश्विनी च भरणी च कृत्तिकापादः । वृषभस्तु कृत्तिकांहि त्रयान्विता रोहिणी समार्गार्धा ॥१॥ मिथुनो मृगार्धमार्द्रा पुनर्वसोश्चांहयस्त्रयः प्रथमे । कर्की च पुनर्वस्वोः पादः पुष्यस्तथाऽश्लेषा ॥ २ ॥ सिंहस्तु मघाः पूर्वाफल्गुन्यः पाद उत्तराणां च । कन्योत्तरात्रिपादी हस्तश्चित्रार्धमाद्यं च ॥ ३ ॥ तौली चित्रान्त्यार्धं स्वातिः पादत्रयं विशाखायाः । स्यादुवृश्चिको विशाखाचतुर्थपादोऽनुराधिका ज्येष्ठा ॥ ४ ॥ धन्वी मूलं पूर्वाषाढाऽपि च पाद उत्तराषाढः । स्यान्मकर उत्तराषाढांहित्रितयं श्रुतिर्धनिष्ठार्धम् ॥ ५ ॥ कुंभोऽन्त्यधनिष्ठार्थं शततारा पूर्वभाद्रपात्रिपदी । मीनो भाद्रपदांहिस्तथोत्तरा रेवती चेति ॥ ६ ॥
व्याख्या - एषां भावना-राशिकल्पनेऽभिजित् पृथग्न गण्यते, ततः सप्तविंशतौ भेषु प्रत्येकं पादचतुष्क भावाद्येऽष्टोत्तरं शतं नक्षत्रपादा वर्णनैयध्यकथनेन प्रा सूचितास्तेषु नवभिर्नवभिः पादैरेकैको राशिरिति द्वादश राशयः स्युः, अत एव पुरुषादिनामसु राशिकल्पनानक्षत्रपाद नियमितवर्णान् ज्ञात्वा नामाद्यवर्णाः कार्याः । अभिजितस्तु पादत्रयस्य वर्णा उत्तराषाढाया अन्त्यपादे तदन्त्यपादस्य वर्ण: श्रवणस्याद्यपादे चान्तर्भाव्याः ॥
मेषादीनां वर्णानाह---
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... प्रथम विमर्श
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मेषाच्छोणार्जुनहरिद्रतश्वेतैतमेचकाः ।
पिंगपिंगलकल्माषकडारमलिना रुचः ॥ ७॥ व्याख्या-मेषादिति मेषात्प्रभृति राशीनां नवांशविचारणायां तु नवांशा. नामपीति शेषः । अर्जुनो धवलः । हरित् पीतनीलः शुकवर्णत्वात् । एतः कर्बुरः विचित्रवर्णत्वात् । मेचकः कृष्णः । पिंगः पिंगलश्च पीतरक्तः । कल्माषः कर्बुरः शुक्लकपिलत्वान्मिश्रवर्ण इत्यर्थः । कडारः कपिलवर्णः । मलिनो मत्स्यवर्णः । प्रयोजनं चास्य विशिष्य नवांशेषु, तच्चैव-धातुमूलजीवरूपं द्रव्यं किल नवांशाज्ञायते । उक्तं च-" अंशकाज्ज्ञायते द्रव्यं " । ततश्च तस्य धातुमूलादेर्वस्तुनो हृतनष्टादिप्रश्नेऽनेन वर्णज्ञानं स्यात् ॥ राशीनां रूपाण्याहउद्यद्घोषवतीगदं नृमिथुनं नौस्थाग्निसस्यान्विता, कन्या ना च तुलाधरो धृतधनुर्धन्व्यश्वपश्चार्धकः । एणास्यो मकरः कुटांकितशिराः कुंभो विलोमाननं, मीनो मीनयुगं च नामसदृशाः प्रोक्ताः परे राशयः ॥८॥
व्याख्या-वोषवती वीणा वीणापाणिः स्त्री, गदापाणिर्नरः, ईदृक् संमुखनिविष्टं स्त्रीपुंसयुग्मं मिथुन राशिः । नौस्थाग्नीत्यादि वामे हस्तेऽग्निं दक्षिणे च धान्यं धरन्ती नौस्थिता कन्या कन्याराशिः । ना चेति तुलाहस्तः पुमांस्तुला. राशिः । धृतधनुरिति कट्यधोदेहपश्चार्धमश्वस्येव चतुष्पद इत्यर्थः, उपरितनं तु देहपूर्वाधं नरस्येव, तद्धस्ते च धनुः, ईदृग्धन शिः । एणास्थ इति मृगतुल्य. मुखो मकरो मकरराशिः । शिरःस्थकुंभो नरः कुंभराशिः, "स्कन्धासक्तरिक्तघट" इति तु बृहज्जातके । विलोमेति अन्योऽन्यं पुच्छाभिमुखमुखौ यमलस्थौ मीनौ मीनराशिः, अत एवास्य शीर्षपृष्ठोदयित्वं । परे उक्तशेषाः पञ्च राशयो मेषवृषकर्कसिंहवृश्चिकाख्याः स्वस्वनामानुरूपरूपाः । विशे स्तु सर्वेषां किल राशीनां चेष्टास्थानाद्यपि स्वस्वनामानुरूपमिति संप्रदायः । तथा च सारङ्गः
" मेषो दैन्यमुपैति गर्वति वृषो नानामतिर्मन्मथः, शूरः कर्कटको धृतिश्च वन कन्या च मायाविनी ।
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'आरम्भ-सिद्धिः
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सत्यं रज्जुतुलास्वलौ मलिनता चापश्च पापाशयो, __ मौखर्य मकरे घटे चतुरता मीने च धीरा मतिः " ॥ १ ॥
तथा मेपवृषौ दिवा मारण्यौ, निशि ग्राम्यौ । मिथुनो ग्राम्यः । कर्कमीनौ जले । सिंहोऽरण्ये । वृश्रिकः प्रवासी । धनुःकुंभी ग्राम्यौ । मकरस्याघोऽश आरण्योऽन्यो जलचर इत्यादि । प्रयोजनं चास्य हृतनष्टादौ चौरचेष्टास्थानादिज्ञानं । ऐषु च लग्नेचितकर्माण्येवं दैवज्ञवल्लभे-" राज्याभिषेकतिो. धसाहसकूटकर्मादि धात्वाकरायं च मे लग्ने सिध्यति । । विवाहवेश्मप्रवेशकन्यावरणादिध्रुवं कर्म क्षेत्र रंभपशुकर्मणी च वृषे २ । वृषोक्त विद्याशिल्पभू. षणादि च मिथुने ३ । सेवाभोगौ मृदुशुभकर्म पौष्टिकं वापीकूपादिजलकर्म च कर्के ४ । मेषोक्तं वाणिज्यनृपसेवारिपुमिलनादि च सिंहे ५ । शिल्पौषधभूषणवाणिज्यादिचरस्थिरं कन्यायां ६ । कृषिसेवायात्रादि कन्योक्तं च तुलायां ७ । ध्रुवकर्म नृपसेवाचौर्यादिदारुणोनादिकर्म च वृश्चिके ८ । यात्रायुद्धव्रतसत्कर्माणि धनुषि ९ । क्षेत्राश्रयमम्बुयात्रा चरकर्म नीचक्रिया च मकरे १० । अम्बुया. मानौसजीकरणबीजोप्तिदंभमेदव्रतादि नीचकर्म च कुंभे । विद्यालङ्कृतिशिरूपपशुकर्मनीयात्राभिषेकादि मङ्गल्यकर्म च सर्व मीने सिध्यति १२ ।"
" एतान्युक्तानि संसिध्धि यान्ति शुध्धेश्वजादिषु । क्रूराणि क्रूरयुक्तेषु शुभानि सशुमेषु तु" ॥ १ ॥ ____ राशिशीलान्याहपूर्वादिदिक्षु मेषाद्याः पतयः स्युः पुनः पुनः ।
चरस्थिरद्विस्वभावाः क्रूराक्रूरा नरस्त्रियः॥९॥ व्याख्या-पुनः पुनरिति प्रतिविशेषणं योज्यं । ततश्चायमर्थः-मेषाद्याश्चत्वारः क्रमात पूर्वादिचतुर्दिशामीशाः । एवं सिंहाद्याश्चत्वारो धनुराधाश्चत्वारो वाच्याः। प्रयोजन चास्य वक्ष्यमाणं “यातव्यं दिग्मुखे ल ने” इत्यादिक हृतनष्टादौ चौरादेर्गमनदिरज्ञा:नादि च। चरस्पिरेति मेषश्चरः । वृषः स्थिरः। मिथुनो द्विस्वभावः। कथं? आद्याध, स्थिर द्वितीयाध चरं, क्रमात् स्थिरचरयोवृषकर्कयोः सामीप्यादिति जातकवृत्तौ।
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प्रथम विमर्श:
"
पुनः पुनरित्यस्य संबन्धनादेवमेव कर्कादित्रये तुलादित्रये मकरादित्रयेऽपि च चरादिवं वाच्यं । प्रयोजनं तु चरादिषु जातास्तच्छीलाः स्युरित्य दि कराकुरा नरस्त्रिय इति मेषः क्रूरो नरश्व, वृषः सौम्यः स्त्री च । पुनः पुनरित्यस्यान्नापि विशेषणद्वयेऽपि प्रत्येकं संबन्धनात् मिथुनः क्रूरो नरश्च कर्व: सौम्यः स्त्री चेत्याद्यग्रेऽप्येकान्तरं वाच्यं । एवं च मेषमिथुनाद्याः षट् ओजराशयः क्रूरा नराश्व, वृषकर्काद्याः षट् समराशयः सौम्याः स्त्रियश्च प्रयोजनं तु क्रूरेषु पुसु च जाता: क्रूरास्तेजस्विनश्च स्युः । सौम्येषु स्त्रीषु च सौम्या मृदवश्वत्यादि " मेषसिंहवृश्विकमकरकुंभाः पञ्च राशयः क्रूरा: क्रूरस्वामिकत्वात् शेषाः सप्त सौम्येशत्वारसौम्याः " इति तु रत्नमालायां । अपि च क्रूरोऽपि राशिः सौम्यग्रहयुतिदृष्टया सौम्यः स्यात्, सौम्योऽपि च क्रूर ग्रह युतिदृष्टया क्रूरः स्यात् । उक्तं च दैवज्ञयलभे
3
६१
"" ॥ १ ॥
" ग्रहयोगेक्षणाभ्यां स्याद्राशेर्भावो ग्रहोद्भवः । राशिः स्वभावमाधत्ते ग्रहयोगेक्षणोज्झितः षड् निशालिनोऽजोक्ष युग्मकर्कधनुर्मृगाः । पृष्ठेनोद्यन्त्ययुग्मास्ते शीर्षेणान्ये द्विधा झषः ॥ १० ॥
"
व्याख्या - अजो भेषः । उक्षा वृषः । युग्मं मिथुनं । निशाबलिन इति शेषास्तु पट् सिंह १ कन्या २ तुला ३ वृश्चिक ४ कुंभ ५ मीना ६ दिवाबलिन इति सामर्थ्याल्लभ्यते । एषां प्रयोजनं तु हृतनष्टादौ दिनरात्रिरूपसम यज्ञानं । उक्तं च- " राशिभ्यः कालदिग्देशा " इत्यादि । तथा दिनबलिनि लग्भे दिवा यात्रादि शुभ रात्रिबलिनि तु रात्रौ विपर्ययस्तु न श्रेष्ठ इत्याद्यपि । पृष्ठेनोद्यन्त्ययुग्मा इति निशावलिषट्के मिथुनवर्जाः पञ्च पृष्टोदयिनः उदयतामेषां प्रथमं पृष्ठ प्रादुर्भवतीत्यर्थः । शीर्षेणेति अन्ये मिथुन १ सिंह २ कन्या ३ तुला ४ वृश्चिक ५ कुंभा: ६ षट् शीर्षोइयिन उदयतामेषां प्रथमं शिरःप्रादु· भांत्रात् । झषो मीन उभयोदयी युगपच्छिरः पृष्ठाभ्यामुदेतीत्यर्थः । प्रयोजनं यात्रादौ शीर्षोदये लग्ने जयः, पृष्टोदये वैफल्यमित्यादि ॥ राशीनां विशेषानाह -
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६२
आरम्भ-सिद्धिः
अर्का युच्चान्यज१ वृष २ मृग ३ कन्या ४ कर्क ५ मीन ६ वणिजो ७ शैः ।
दिग १० दहना ३ टाविंशति २८ तिथी
१५ षु ५ नक्षत्र २७ विंशतिभिः २० ॥ ११ ॥
ब्याख्या -- अजेति मेववृषमकराद्याः क्रमात्सूर्यादीनामुच्चस्थानानि । वणिगिति उपलक्षणत्वात्चुला । कैः कृत्वाऽजादयोऽर्काद्युच्चानीत्याह--- दिग्दहनादिमितैरंशैरिति, कोऽर्थः ? दिग्मितैरंशमेषो ख्युच्च मेषस्याद्या दश त्रिंशांशा न्युच्च - मित्यर्थः । एवमग्रेऽपि यथा वृषस्याद्यास्त्रयस्त्रिंशांशा इन्दूचं, मकरस्याष्टाविंशतिरंशा भौमोच्चमित्यादि । अत्र संप्रदायस्त्वयम् - मेषेऽर्क उच्चस्तत्रापि दशांशान् यावत्परमोच्चः पश्चात्तच्चः । शशी वृषे उच्चस्तत्रापि त्रीनंशान् यावत् परमोच्चः पश्चातूच्च इत्यादि । लोकश्रूयादिप्रन्यैः सह संवादी चायं संप्रदायः । लघुबृहज्जातकनारचन्द्रादीनाम मिप्रायस्त्वयं - "मेषेऽर्क उच्चस्तस्यैव दशमे त्रिंशांशे तु परमोच्चः । शशी वृषे उच्चस्तस्यैव तृतीयांशे तु परमोच्चः । भौमो मकरे उच्चः तस्यैवाष्टाविंशेंऽशे परमोच्चः" इत्यादि । ताजिके तु नास्ति परमोच्चसंज्ञा, किंतु मेषे आद्यदशभागान् यावत्सूर्य उच्चः पश्चात्तु तेजःपतित इत्युक्तं । एवं वृषादिषु चन्द्रादीनामपि वाच्यम् ॥ स्वोचतः सप्तमं नीचं त्रिकोणान्यथ भानुतः सिंहो ५ क्ष २ मेष १ प्रमदा ६ धनु ९ र्घट ७ घटाः ११ क्रमात् ॥१२॥
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व्याख्या - यस्य यस्य यद्यदुच्चं तस्माद्यद्यत्सप्तमं तत्तत्तस्य नीचे दिग्दहनाष्टाविंशतीत्यादिरंश संख्याऽत्रापि योज्या । ततश्चायमर्थः उच्चवन्नीचेऽपि वाच्यः । तथाहि - मेषात्सप्तमे तुलायामाद्या दश त्रिंशांशा रथेनींचं, वृषात्सप्तमस्य वृश्चिकस्वाद्यास्त्रयस्त्रिंशांशा इन्दोनीचं । अत्रापि संप्रदायस्वयम् - तुलायां रविनचस्तत्रापि दशांशान् यावत् परमनीचः पश्चात्तु नीचः, एवं चन्द्रादिष्वपि वाच्यं । पाकश्वयादिग्रन्थैः सह संवादी चायं संप्रदायः । जातकनारचन्द्राद्यभिप्रायस्त्व
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प्रथम विमर्श
यम् - " तुहायामकों नीचस्तत्रापि दशमे त्रिंशांशे परमनीचः, एवं चन्द्रादिष्वपि वाच्यं" । ताजिके तु नास्ति परमनीचसंज्ञा, किंतु तुलायामाद्यदशांशान् यावदकों नीच इत्युक्तं, एवं चन्द्रादिष्वपि वाच्यं । विशेषस्तु -
" कन्या गहुगृहप्रोक्तं राहूचं मिथुनः स्मृतः । राहुनीचं धनुर्वर्णादिकं शनिवदस्य च " ॥ १॥
उच्चनीचस्थापना
रवि चन्द्र मंगल
उच्चानि मेष वृष मकर नीचानि तुल वृश्चिक कर्क परमोच्चपर । १० ३ २८
मनीचानि
बुध गुरु
शुक्र
कन्या कक मीन मीन मकर कन्या २७
१५ ५
६३
शनि
राहु
तुला मिथुन मेष धनुः
२०
०
परमोच्चता परमनीचता च षष्टिलिप्तीप्रमाणस्य तत्तदंशस्य मध्यभागे, कोsर्थः ? त्रिंशलिप्ताभिः क्रमे स्यातामिति तज्ज्ञाः । परमोच्चनीचत्वयोः समयज्ञानोपायश्चायम् -
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“ मास रविबुधशुकाः ३ सार्धं भौम४स्त्रयोदशाचार्यः ५ । त्रिशन्मन्दोऽष्टादश राहु७श्चन्द्रः ८ सपाददिवसयुगम् ॥ १ ॥
इदं तावद्ग्रहाणां राशिस्थितिमानं । तथा च -
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त्रिशांशे शार्कशुक्राणां ३ दिनं सार्धचतुर्घटि । इन्दोः ४ कुजे ५ सार्धदिनं मासमेकं शनैश्वरे ॥ ६ ॥ अष्टादशदिनी राहो७त्रयोदशदिनी गुरोः ८ " । इति
ततश्च मेषसंक्रान्तौ नवदिनेभ्योऽनु दिनमेकं परमोच्चोऽर्कः १ । नवभ्योऽनु सार्धं घटीचतुष्कं चन्द्रः परमोच्चः २ | मकरे सार्वचत्वारिंशहिनेभ्योऽनु सार्धमेकं दिनं भोमः परमोच्चः ३ । कन्यायां चतुर्दशदिनेभ्योऽनु दिनमेकं बुधः परमोचः ४ । कर्के द्वापञ्चाशद्दिनेभ्योऽनु त्रयोदशदिनानि गुरुः परमोच्च: ५। मीने षड् विंशतिदिनेभ्योऽनु । दिनमेकं शुक्रः परमोच्चः ६ । तुला. यामेकोनविंशतिमासेभ्योऽनु मासमेकं शनिः परमोचः ७ । परमनीचेऽप्येवमेव भावना । इदं च सामान्येनोक्तं द्रष्टव्यं । यतो भौमायाः प्रायो वक्रिता अति
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आरम्भ-सिद्धिः
चरिता वा स्युः । न च तदानीमयं परमोच्चनीचत्वसमयः संवदिति, तेन वक्रा. तिचारवतां ग्रहागां वक्ष्यमाणकरणेन स्पष्टतां कृत्वा यथोक्तांशैरेव परमोच्चनीचत्वे निर्धायें । सहजगतीनां तु सांप्रतोक्तसमययुक्त्येति । उच्चनीचप्रयोजनं स्वेवम्
" इको जइ उच्चत्थो हवई गहो उन्नई परं कुणइ । किं पुण बि तिन्नि गहा कुणंति को इत्थ संदेहो" ॥ १ ॥ ____ जन्मनि तत्फलं यथा" त्र्युच्चैर्नृपः पञ्चभिरर्धचक्री चक्री षडुचैर्मुनिभि ७ स्तथाईन् ।
त्रिभिनींचैर्भवेहासमिभिरुचैनराधिपः । त्रिभिः स्वस्थानगैमंत्री त्रिभिरस्तमितैर्जडः ॥ १ ॥ अन्धं दिगम्बरं मूर्ख परपिंडोपजीधिनम् । कुर्यातामतिनीचस्थौ पुरुष चन्द्रभास्करौ” ॥ २ ॥
इत्यादि । त्रिकोणान्यथेति एतानि मूलत्रिकोणान्यप्युच्यन्ते । प्रमदा कन्या । धटस्तुला । घटः कुंभः । प्रयोजनं तु त्रिकोणग्रहा उच्चसमं किञ्चिदूनं वा फलं दद्युरिति पाकश्रियां । प्रश्नशतकवृत्तौ च त्रिकोणादीनि त्रिंशांशव्यक्त्या एवमूचिरे, तथाहि-" सिंहे विंशतिस्त्रिंशांशास्त्रिकोगं शेषा दश गृहं रचेः ।। वृषे द्वावंशावुच्चौ तृतीयः परमोच्चः शेषास्त्रिकोणमिन्दोः २ । मेषे द्वादशांशात्रिकोणं शेषा गृहं कुजस्य ३ । कन्यायां चतुर्दशांशाउच्चाः पञ्चदशः परमोच्च: ततः पञ्चांशास्त्रिकोणं शेषा दश गृहं बुधस्य ४ । धनुषि दशांशास्त्रिकोगं शेषा गृहं गुरोः ५ । तुलायां पञ्च दशांशास्त्रिकोणं शेषा गृहं शुक्रस्य ६ । कुंभे विंशतिरंशात्रिकोणं शेषा दश गृहं शनेरिति ७. ॥ राशिसंबद्धान् द्वादश भावानाहलग्नाद्भावास्तनु१ द्रव्य२ भ्रातृ३ बन्धु४ सुतार रयः६।। स्त्री७मृत्यु८ धर्म कर्मा१० य११व्यया१२श्च द्वादश स्मृताः।
. व्याख्या--भाव्यन्ते विचार्यन्ते इति भावाः । पृच्छायां जन्मनि यात्रादौ वा यः कश्चित्तरकाले . उदयन् राशिः स लग्न ख्यो द्वादशारचक्राकृति न्यस्य संमुखारविवररूपे मुख्यस्थाने देयः, शेषा एकादश राशयोऽप्रदक्षिणमेकादशस्थानेषु च, एवं कुंडलिका स्यात् । तत्स्थापना
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प्रथम विमर्शः
भत्र लग्नस्य तनुभावसंज्ञा इष्टनरादेस्तनुरेतदनुसारेण विचार्येत्यर्थः । ततोऽप्रदक्षिणमे. कादशस्थानेषु द्वितीयादिस्थानस्थराशीनां क्रमाद् द्रव्यभाव २ भ्रातृभाव ३ बन्धुभावादिसंज्ञाः इष्टस्य पुंसो द्रव्यभ्रात्रादिकमेषामनुसारेण
विचार्य तथाहि - “यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतोवा, सौम्यैर्वा स्यात्तस्य तस्यास्ति वृद्धिः। पापैरेवं तस्य तस्यास्ति हानिनिर्देटच्या पृच्छतां जन्मतो वा " ॥१॥ _ नवरं षष्ठेऽरिभावे यथा करा अरिभावं प्रन्ति तथा सौम्या अपि घ्नन्त्येव, न तु पुष्णन्ति । व्ययाष्टमयोश्च यथा सौम्या व्ययमृन्यू पुष्णन्ति तथा ऋरा अपि पुष्णन्त्येव, न तु प्रन्ति । अत एवोक्त-"सौम्याः षष्ठेऽरिनाः सर्वे नेष्टा व्ययाष्ट नगा" इति । यवनेश्वरमते तु-" अष्टमे सौम्या आयुर्वृद्धिकरा इति । भ्रातृभावे च भगिन्योऽपि लक्ष्याः । बन्धवः स्वजना बन्धुभ वे माताऽपि । सुतभावे शिष्या अपि । स्त्रीति भार्या । अत्र गमागमाद्यपि । अष्टमे रोगाद्यपि । धर्मभावे क्रमागत विद्याऽचुम्बितविद्याऽचिन्तितधनलाभाद्यपि । दशमेकर्मव्यापारः, अत्र पिताभाग्यमाशश्वर्यायपि च । लाभे नष्टलाभाद्यपि । व्यये सदसद्वययादि च विचार्याणि (य) द्वादशेति यथा लग्नादारभ्य द्वादश भावा उक्तास्तथा चन्द्रादपि ज्ञेया:, लग्नचन्द्रयोर्मध्ये यस्तदानीं बलवान् स्यात्तस्माद्वादश भावा विचार्यन्त इत्याम्नायः ॥ भावानां नामान्तराण्याह
सुहृन्मन्दिरपातालहिबुकाम्बुसुखाभिधम् ।.
चतुर्थमष्टमं छिद्रं चतुरस्त्रे उभे पुनः ॥ १४ ॥ व्याख्या-सुहृन्मन्दिरेति मित्रभवनं गृहभवनं रसातलमित्यादिपर्याया अप्यत्र व्यवहर्तव्याः । एवमग्रेऽपि सर्वत्र पूर्वोक्तावादिद्वादशभावनामस्वपि च वाच्यं । चतुर्थ मिति स्थानमिति शेषः । छिद्रमिति छिद्रशब्दः क्षतपापपर्यायः । अष्टमं मृत्युस्थानमनायुःसंज्ञमपि ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
त्रित्रिकोणं च नवमं त्रिकोणे नव पंचमे ।
सप्तमं काम जामित्र द्युनद्यूनास्तसंज्ञकम् ॥ १५ ॥
व्याख्या-5 -कामेत्यादि कामो मदनः, जामित्रशब्दो विवाहपर्याय: जामिं भगिनीं वायतिः स्वज्यतीति कृत्वा । तथा सर्वोऽपि ग्रहो यस्मिन् राशावुदितस्तस्मारसप्तमेऽदर्शनं याति ततोऽस्तसंज्ञा ॥
स्यातां तृतीये दुश्चिक्यविक्रमे पञ्चमे तु धीः । मध्य मेषूरणव्योमान्याहुर्दशमधामनि ॥ १६ ॥
· व्याख्या इह किल तुर्यस्य पातालाम्बुसंज्ञे दशमस्य मध्यव्योमसंशे च भूगोलकल्पनयेत्यू, भूगोलमते झर्कः प्रातः प्राच्यामुदीय प्रदक्षिणं भ्रमन्मध्याह्ने दशमधामनि व्योममध्यमागत्य सायं सप्तमेऽस्तमेति, तथैव च रात्रावपि भ्रममध्यरात्रे तुर्यधाम्नि पाताले भूत्वा पुनः प्रातः प्राच्यामुदेतीत्याहु: । पातालं च स्वभावादम्बुस्थानमिति प्रतीतमेव
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६६
उपान्त्यं ११ सर्वतोभद्रमन्त्यं १२ रिष्पमुदीरितम् । वदन्त्युपचय हाँस्त्रिवद्दशैकादशान् पुनः ।। १७ ।। "
व्याख्या - उपान्त्यमेकादशं सर्वतोभद्रमिति तत्रस्थग्रहस्य सर्वथाऽपि शुभस्वात् । अस्य द्वादशं रिपशब्दः पकारोपान्त्यः । उपचयेत्यादिलमाचन्द्राच्च त्रिपडादिस्थानान्युपचय संज्ञानि यत एषु स्थितः पापग्रहोऽपि शुभफलप्रदः स्यात् शेाणि स्वपचयाह्नानीत्यर्थालभ्यते । प्रयोजनं दिवई
"
कार्य यदुक्तं तदुपैति सिद्धि वारे ग्रहे चोपचयर्क्षभाजि । नीचर्क्षसंस्थेऽपचयस्थिते च यत्ने कृते चापि भवत्यसाध्यम् ॥ १ ॥ केन्द्रचतुष्टयकंटकनामानि वपुः १
सुखा ४ स्त ७ दशमानि १० ।
स्युः पणफराणि परत २-५-८
११ स्तेभ्योऽयापोक्किनानीति ३-६-९-१२ ॥१८॥
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प्रथम विमर्श
व्याख्या - प्रथमतुर्य सप्तमदशमान प्रत्येक केन्द्रादिसंज्ञाश्रयप्रत्येक तेभ्योऽग्रेसमाना द्वितीयपञ्चमाष्टमैकादशांना पणफरसंज्ञा, तेभ्योऽप्यप्रेतनानां तृतीय षष्टनवमद्वादशानामापोक्लिमसंज्ञा । केन्द्रेषु किल सर्वे ग्रहाः पूर्णवीर्याः स्युः, पण फरेष्वर्धवीर्याः आपोक्लिमेषु तु पादवीय इति त्रैलोक्यप्रकाशे । विशेषस्तु, संज्ञा किल द्विधा - सान्वर्धा यादृच्छिकी च । तत्र दुश्चिक्य १ हिबुक २ त्रिकोण ३ न ४ छू ५ त्रित्रिकोण ६ चतुरस्र ७ मेघूरण ८ रिष्प ९ केन्द्र १० चतुष्ट ११ कैटक १२ पणफरा १३ पोक्लिम १४ संज्ञा वक्ष्यमाणहोरा १५
काण १६ संज्ञे चान्वर्थरहितत्वायादृच्छिक्यो यवनाचार्यादिमते रूस्वादुक्ताः । विक्रम १ सुख २ वेश्म ३ घी ४ जामित्र ५ छिद्रादि ६ संज्ञास्तु सान्वर्थाः । तेनेष्टपुंसो विक्रम सुखं गृहं बुद्धिर्विवाहो हानिश्चेत्यादीनि तत्तद्गृहेभ्योऽवि विचार्याणि । एवमेव लग्नात्प्रभृति स्थितानां प्रथमादिस्थानानां तन्वादिसंज्ञाः प्रतिनियता उक्ताः । एतदनुसारेणैवाग्रतोऽपि सर्वत्र प्रथमादिस्थानार्थे तन्वादिशव्दव्यवहारोऽभ्यूः ॥
अथ राशीनां गृह । होरा २ द्रेष्काण ३ नवांश ४ द्वादशांश ५ त्रिंशांश ६ रूपं षड्वर्गमाह -
मेषादीशाः कुजः १ शुक्रो २ बुध ३श्चन्द्रो४रवि५बुधः ६ शुक्रः ७ कुजो गुरु९र्मन्दो १० मन्दो ११ जीव १२ इति क्रमात् ॥ १९ ॥ . व्याख्या--पवर्गाधिकारे शेशीनां गृहमिति नाम तेनैते गृहेशा उच्यन्ते । प्रयोजनं खेषां - "यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वेत्यादि" ॥
होरा रायमोजकेन्द्रोरिन्द्वर्कयोः समे, द्रेष्काणा मे त्रयस्तु स्व१ पञ्चम५ त्रित्रिकोण९ पाः ||२०|| व्याख्या--राशेरधं होरा । तेन राशिषु प्रत्येकं द्वे द्वे होरे । तत ओजे राशावाचा होरा खेः तत इन्दोः, समे राशावाद्या होरा इन्दोः ततो खेः । प्रयोजनं तु - सूर्येन्दुराजाताः क्रमात्तेजस्विनो मृदवश्च स्युरित्यादि । एवं द्रेष्काणादिष्वपि करसौम्यस्त्रामित्रशापूयं । भे इति राशौ राशौ राशित्रिभागरूपा dearerrarः स्युः । त्रित्रिकोणपा इति पातीति प्रत्यये पः स्वामी ।
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आरम्भ-सिद्धिः
ततश्चोष्टमुखादित्वाद्वहुवीहिसमासे एकस्य पशब्दस्य लोपः । ततोऽयमर्थःयस्तद्राशेरीशः स आद्यद्रेष्काणस्यापि, यस्तस्मात्पञ्चमराशेरीशः स द्वितीयस्य, यो नवमराशेः स तृतीयस्य । उक्तं च हारिभन्द्या लमशुद्धौ---
" दिक्काणो उ तिभागो सो पढमो निअयरासिअहिवइणो । बीओ पंचमपहुणो तइओ पुण नवमगिहवइणो " ॥ १ ॥"
बृहज्जातकेऽप्युक्त-"द्रेष्काणाः स्युः स्वभवनसुतत्रित्रिकोणाधिपानां" इति । तेन "द्रेष्काणा भे त्रयस्त्वाद्यपञ्चमान्त्यनवांशपाः" इति यत्केऽपि पेठुस्तञ्चिन्त्यं । विशेषस्तु केचिद्राशीनां सप्तांशकानपि व्यवहरन्ति, तेषां च नाथा एवं होगमकरन्दे उक्ताः-"स्वादोजे युग्मभे छूनगेहाद्गण्यास्तज्ज्ञैः सप्तमांशाः क्रमेग" ॥
नवांशाः स्युरजादीनामजैणतुलकर्कतः।
वर्गोतमाश्चरादौ ते प्रथमः पञ्चमोऽन्तिमः ॥ २१ ॥ ____ व्याख्या--राशिषु प्रत्येकं नव नव नवांशाम्ततस्तद्गणनक्रममाह-अजेणेति अभ्रादित्वान्मत्वर्थीयेऽप्रत्यये तुलस्तुलावान्, मेषस्य नवांशा मेषमादौ दत्त्वा नव गुण्याः , वृषस्य तु मकरं, मिथुनस्य तुला, कर्कस्य च कर्क । एवमेव सिंहादिचतुष्के धन्वादिचतुष्के च वाच्यं । एषां चेशा ये मेषादीशास्त एव । प्रयोजनं स्थानबले वक्ष्यमाणमित्रस्वगृहोच्चनवांशगा इत्यादि । विशेषस्तु---
ति चउ पण सत्त नवमा रासीण नवं सथा सुहा जम्मे । पढम दु अट्ठम अहमा छटो पुण मज्झिमो नेओ" ॥ १ ॥
इति पूर्णभद्रः । वर्गोतमा इति वर्गे समूहे उत्तमाः कोऽर्थः? चरराशिष्वाद्यो नवांशो वर्गोत्तमः, स्थिरेषु पञ्चमः, द्विस्वभावेषु नवमः । सर्वस्य राशेः स्व. समाननामा नवांशो वर्गोत्तम इति भावः । प्रयोजनं तु " वोत्तमनवांशजाः स्वकुले मुख्याः स्युरित्यादि " । वर्गोत्तमत्ववशादन्त्योऽपि नवांशो लग्नेष्याद्रिः यते, अन्यथा त्वग्र ह्योऽसौ । यत्पूर्णभद्रः लग्नस्याद्यन्नमध्येषु बलं पूर्णाल्पमध्यमं” इति । हर्षप्रकाशेऽप्युक्तं-"वम्गुत्तमं विगा दिजा नेव चरमं नवंसगं । कह मित्ति" । वर्गोत्तमनवांशस्थो ग्रहोऽपि वर्गोत्तम उच्यते, स च भृशं बलवान् । उक्तं हि दैवज्ञवल्लभे
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प्रथम विमर्श
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" बलवानुदितांशस्थः शुद्धं स्थानफलं ग्रहः । दद्याद्वर्गोत्तमांशे च मिश्रं शेषांशसंस्थितः ॥ १ ॥ " यतो य एव राशिः स्यात्स एव च नवांशकः ।
प्रोक्तं थानफलं शुद्धमतोऽस्मिन् सोपपत्तिकम् ॥ २ ॥ स्युादशांशाः स्वगृहादथेशास्त्रिं
शांशकेष्वोजयुजोस्तु राश्योः । क्रमोत्क्रमादर्थ ५ शरा ५८८
शैले ७ न्द्रियेषु ५ भौमार्किगुरुज्ञशुक्राः॥२२॥ व्याख्या-राशिषु प्रत्येकं द्वादश द्वादशांशाः स्वगृहादिति अयमर्थः-यो राशिः स एवाद्यो द्वादशांशः शेषास्त्वेकादश क्रमात्तदग्रेतनाः, तथाहि-मेषे आद्यो मेष एव, द्वितीयो वृषः, यावदन्त्यो मीन इति । वृषे आद्यो वृष एव यावदन्त्यो मेषः । एवं मिथुने आद्यो मिथुन एव यावदन्त्यो वृष इत्यादि । तेषामीशाश्च ये मेषादीशास्त एव । अर्थशास्त्रिंशांशकेष्विति राशौ राशौ त्रिंशबिंशत्रिंशांशाः । तदीशास्त्वाह-क्रमोत्क्रमादिति अर्था विषयाः पञ्च शब्दाद्याः । ओजे राशौ क्रमः, समराशौ तूभयत्राप्युत्क्रमः । अयं भावः-त्रिंशांशपंक्तियथोक्ततदीशपंक्तिश्च यदा पूर्वानुपूर्व्या गण्यते तदा क्रमः, तयोरेव पङ्क्त्योः पश्चानुपूर्व्या गणने सूत्क्रमः सर्वराशीनां षड्वर्गस्य तत्स्वामिनां च ऋमात्स्थापना
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राशीनां गृहाणि
गृहेशा होरा: द्रेष्काणेशाः
2430 2. २.
१ मेघ मंगल र म र
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२ वृष
शुक्र
३ मिथुन
बुध
४ कर्क चंद्र
५ सिंह रवि
६ कन्या बुध
७ तुला शुक्र र ८वृश्चिक मंगल चं र ९ धन गुरु र चं १० मकर शनि चर
११ कुंभ शनि र चं १२मीन गुरु चर
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प्रथम विमर्श:
अथ ग्रहाणां लग्नस्य च स्पष्टीकरणे तद्भक्त्युपयोगि सर्वषड्वर्गाणां साधारणं लिप्तामानमाह-
षड्वर्गेऽष्टादश १८०० नव९०० षड्
६००द्वे२०० सार्धं१५०शतानि षष्टिश्च ६० ।
क्रमशो गृहहोरादौ लिप्ताः
स्युः प्रभुरिह नवांशः ॥ २३ ॥
व्याख्या- -गृहाणां मेषादीनां सर्वेषां प्रत्येकं मानमष्टादशशती लिप्ताः होराणां नवशती गृहार्धरूपत्वात् द्रेष्काणानां षट्शती गृहत्रिभागरूपत्वादित्यादि स्वयं भाव्यं । लिप्ता तु षष्टिविलिप्तात्मिकेति वक्ष्यते । विशेषस्तु -." चन्द्रबलं किल तिथ्यादिबलेभ्यः शतगुणं, ततोऽपि लग्नं सहस्र गुणबलं, ततोऽपि होराद्या: सर्वे यथोत्तरं पञ्चपञ्चगुणबला " इति बृहज्जातकवृत्तौ । अथैषु नवांशस्यैव प्राधान्यमाह - प्रभुरित्यादि इहास्मिन् गृहादिषड्वर्गेऽनतिस्थूलसूक्ष्मत्वात्प्रतिष्ठाविवाहादिसर्वकार्येष्वधिकारी नवांश एवेत्यर्थः । यल्लल:
66
"
--
" स्वार्धे नक्षत्रफलं तिथ्यर्धे तिथिफलं समादेश्यम् । होरायां वारफलं लग्नफलं त्वंशके स्पष्टम् ॥ १ ॥ तथा अो नवांशस्य प्राधान्यं ? तथाहि
७१
लग्ने शुभेऽपि यद्यशः क्रूरः स्यान्ने प्रसिद्धिदः । लग्ने क्रूरेऽपि सौम्यांशः शुभदोऽंशो बली यतः ॥ १ ॥ इति दैवज्ञवल्लभे । तथा क्रूरांशस्थः सौम्यग्रहोऽपि क्रूरः स्यात्, सौम्यांशस्थस्तु क्रूरोऽपि सौम्यः स्यादिति लल्लः । तथा कूरांशस्थस्य सौम्यग्रहस्यापि दृष्टिर्दुष्टा, सौम्यांशस्थस्य च क्रूरस्यापि दृक् शुभा । तथा ग्रहगोचरशुद्धिविचारणावसरे ग्रहो राशिगोचरेणाशुभोऽपि नवांशगोचरेण यदि शुभः स्यात्तर्हि शुभ एवेत्यादि ललश्रीपती ॥ अथ यथा ग्रहः स्ववर्गगोऽन्यवर्गगो वा स्यात्तथाssहषण्णां त्र्यादिषु वर्गेषु यो ग्रहः स्वेष्ववस्थितः । स स्ववर्गगतो ज्ञेय एवमेवान्यवर्गगः ॥ २४ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
व्याख्या-षण्णामिति निर्धारणे षष्ठी । ज्यादिष्विति अन्यतरेषु त्रिषु चतुर्दोत्कर्षतः पञ्चसु वा स्वकीयेषु यः स्थितः, न तु कदापि षट्सु संभवति, अन्दोस्त्रिंशांशस्य कुजादीनां होरायाश्चाभावात् , स स्ववर्गस्थस्तत एव च सबल: । एवमेवेति यस्तु ब्यादिषु परकीयेषु स्थितः सोऽन्यवर्गस्थस्तत एव विबलन । विशेषस्तु यत्र नवांशे षण्णां पञ्चानां चतुर्णा वा गृहाद्यन्यतरेषां सौम्य एव ग्रहस्वामी लभ्यते स नवांशः षड्वर्गस्य पञ्चवर्गस्य चतुर्वर्गस्य वा सौम्यत्वात् प्रतिष्ठादिलग्नेषु विशेषतो ग्राह्यः । स चैवं निर्धारितः, तथाहि" सत्तमनवमा मेसे १ पंचमतइआ विसे २ मिहुणि छठ्ठो ३ । पढमतइआ य कके ४ सिंहे छटो ५ कणी तइओ ६ ॥ १ ॥ अठ्ठमनवमा य तुले ७ विच्छियलग्गे चउत्थय नवंसो ८ । धणुलग्गि छट्ठसत्तमनवमा ९ मयरम्मि पंचमओ १० ॥ २ ॥ छठमा य कुंभे ११ पढमो तइओ अ मीणलग्गम्मि १२ । चउपणवग्गछवग्गो एएसु नवंसएसु सुहो” ॥ ३॥ व्याख्या-अत्र चउपणवग्गत्ति एषु नवांशेषु चतुर्वर्गशुद्धिस्तावदस्येव, पञ्चवर्गशुद्धिषड्वर्गशुद्धी तु केषुचिन्नवांशेषु संपूर्णेषु स्तः, केषाचित्तु किया। भागे स्त, तद्वयक्तिश्च ग्रन्थप्रान्तकाव्यवृत्ती लिखिताऽस्ति ततोऽभ्यूह्या। इह च केचित्रिवर्गशुद्धयाऽप्यन्ये तु नवांशस्यैव प्रभुत्वात्तमेवैकं सौम्यसत्कमादाय शेषवर्गशुद्धिं विनाऽपि लग्नमाद्रियन्ते, तदत्रेदं तत्त्वं-लग्ने ध्रुवग्राह्यनवांशशुद्धौ सत्यां यथा यथा शुभबहुवर्गलाभस्तथा तथा प्रतिष्ठादौ शुभकार्ये तद्विशिष्य ग्राह्यम् ॥ राशिप्रसङ्गादाशिभोक्तृप्रहाणां प्रभेदमाहग्रहाः स्युरैन्न्द्याद्यधिपा दिनेश १ शुक्रा२र३
राहा ४ किं५ शशि ६ ज्ञ ७ जीवाः ८ । पापाः कृशेन्द्रर्कतमोऽसितारास्तैः
संयुतो ज्ञश्च परे तु सौम्याः ॥२५॥ व्याख्या-पूर्वाद्यष्टदिशा क्रमानाथा एते । स्थापना
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प्रथम विमर्शः
नवांशाः शुभराश्यः
ईशान
अग्नि शुक्र
रवि
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अत्र प्रयोजनं तु केन्द्रस्थे बलिनि ग्रहे चौरादेर्गमनदिरज्ञानं । उक्तं च-" दिग्वाच्या केन्द्रमतैरसंभवे वा वदेद्विलग्न
त्'ि इत्यादि । कृशेन्द्रित्यादि कृष्णचतुर्दश्यादिदिनत्रयेऽकलः कृशः शशी करः, तमो राहुः, असितः शनिः । तैः कृशेन्द्वा.
उत्तर बुध
दिगीश
ग्रह यन्त्र
दक्षिण मंगल
वायव्य पश्चिम | नैऋत्य चंद्र । शनि | राहु
३-५ ६- वृष मिथुन कर्क सिंह
१-३, ६
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तुला
वृश्चिक
धन्यतरैः संयुत एकराशिस्थो बुधोऽपि क्रूरः । परे इति अन्ये पुष्टेन्दुरकरयुतो बुधो गुरुशुक्रौ च । अस्य प्रयोजनं पापसौम्यग्रहबलिष्ठत्वाजातकादेस्ताच्छील्यादि । विशेषस्तु
“ रक्तश्यामो भास्करो १ गौर इन्दु २
र्नात्युच्चाङ्गो रक्तगौरश्च वक्रः ३ । दूर्वाश्यामो शो ४ गुरुर्गोरगात्रो५ऽश्यामः
शुक्रो६ भास्करिः कृष्णदेहः ७ ॥ १ ॥"
अस्यापि प्रयोजनं बलिनः सदृशी जातकादेमतिः । यद्वा | लग्ने तत्कालं यो नवांशस्तत्स्वामितुल्या तन्मूर्तिरिति ॥
पृच्छादिष्वपरे केतुं तमसः सप्तम विदुः । शुक्रेन्दू योषितो मन्दबुधौ क्लीबो परे नराः॥२६
व्याख्या-पृच्छादिष्विति अनेन जातके ग्रहगोचरे प्रतिष्ठादिलग्नेषु च केतुर्न तथोपयोगीत्यसूचि । सप्तममिति । उक्तं च भुवनदीपके___“ राहुच्छाया स्मृतः केतुर्यत्र राशौ भवेदयम् ।।
तस्मात्सममके केतू राहुः स्याद्यन्नवांशके ॥ १ ॥ तस्मादशे सप्तमे स्यात् केतुरंशो नवांशकः" इति।
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कुंभ
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आरम्भ-सिद्धिः
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अस्यायं भावः-राशेर्यत्संख्ये नवांशे राहुः स्यात्तत्संख्ये एव तत्सप्तमराशेर्नवांशे केतुरपि स्यात् परं राह्वाक्रान्तनवांशाद् गुणने केल्वाक्रान्तनवांशः सप्तम एव जायते । यथा मेषस्याद्ये मेषांशे राहुश्चेत्तदा तुलाया आद्ये तुलांशे केतुः, मेषाच्च गुणनया तुलांशः सप्तम इति । तथा मेषस्य नवमे धनुरंशे चेद्राहुस्तदा तुलाया नवमे मिथुनांशे केतुः, धनुषश्च गुणनया मिथुनांशः सप्तम इति । शुक्रेन्द्र इति परे रविकुजगुरवः । अस्य प्रयोजनं जन्मनि चिन्तायां हृतनष्टादौ वा, बलवन्तः स्ववर्गमेव ज्ञापयन्तीति । मन्दबुधावपि स्त्रियावित्येके ॥
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वर्णानां जीवसितौ १ रविभौमा २ विन्दु३रिन्दुज ४ श्चेशाः । संकरजानां तु शनिर्जीव १ सिता२रे ३न्दुजाश्च४ वेदानाम् ॥२७
व्याख्या-- विप्रवर्णस्येशौ गुरुशुक्रौ, क्षत्रियाणामर्कारौ वैश्यानामिन्दुः, शूद्राणां तु बुध इत्यर्थः । संकरजा मिश्रजातयो मूर्धावसिक्तादिरथकारान्ता निघंटुक्तत्रयोदशभेदा यथा तथा जातिद्वयजाताः । वेदा ऋग्यजुः २ सामा ३ थर्वाण: ४ । प्रयोजनं तु जीवादीनामुदयास्तादौ तत्तज्ञातीनां तत्तद्वेदवतां च सुखदुःखादि ॥ अथ ग्रहाणां स्थान १ दिक् २ काल ३ चेष्टा ४ हग् ५ निसर्गबल ६ भेदात् षोढा बलमाह
नर उशना
ते स्थान लिनो मित्रस्वगृहोचनवांशगाः स्त्रीराशिष्विन्दु भृगुजौ पुंराशिषु पुनः परे ॥ २८ ॥ व्याख्या - ते ग्रहा मित्रस्वयोर्गृहाद्यैः प्रत्येकं योजना कार्या, गृहस्योपलक्षणत्वान्मूलत्रिकोणेऽपि । उक्त च त्रैलोक्यप्रकाशे - " मित्र ५ स्वर्क्ष १० त्रिकोणो १५ चैः २० फलं दत्तेऽह्निवृद्धितः इति वक्ष्यमाणाधिमिंत्रांशे लग्नोदितांशे वर्गोत्तमांशे वा, ग्रहो बलिष्ठ इति तु स्फुटमेव । स्त्रीराशिष्विति बलिनाविति योगः शुक्रेन्द्वोः स्त्रीत्वात् । राशीनां पुंस्त्रीत्वं प्रागेवोक्तं । परे पञ्च ग्रहाः । इदं स्थानबलम् १ ॥
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लग्नाद्युत्क्रम केन्द्राख्यदिक्षु प्राच्यादिषूद्बलाः । जीवज्ञौ १ भास्करक्ष्माजौ २शनिः ३ सितसितकुती ४ ॥ २९ ॥
व्याख्या - लग्नादारभ्योत्क्रमेण सृष्टया केन्द्राणि प्रथम १ दशम २ सप्तम ३ तुर्य ४ भवनानि तैराख्या कथनं यासां ताः पूर्वादयो दिशस्तासु । अयं भाव:- लग्नं प्राची तत्र बुधगुरू बलिनौ । दशमं दक्षिणा तत्र रविकुजौ । सप्तमं
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प्रथम विमर्श
पश्चिमा तत्र शनिः । तुर्यमुत्तरा वत्र शुक्रेन्दू च बलिन इति । अन्तरालस्थितव्यया १२ या ११ दिगृहद्वयद्वय रूपमा नेय्यादिविदिक्चतुष्कं तु क्रमात् पूर्वादिचतुर्दिक्समफलमेव विदिशां दिगनुगामित्वात् । इदं दिग्बलम् २ ॥ मंगल शनि बलिनो ऽह्नि गुरुसितार्काः सदा बुधो निशि तु चन्द्रकुजमन्दाः। स्वदिनादिषु च सितासितपक्षद्वितयेषु शुभकूराः ॥ ३० ॥ व्याख्या -" - सदेति दिवा रात्रौ चेत्यर्थः स्वादिनादिष्विति स्वनिस्ववर्ष मास. स्वकालहोरासु तत्तदधिपग्रहा बलिनः । ते चैवं
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यस्य वारस्य मध्ये स्याच्छुक्लप्रतिपद मुखम् । तन्मासेशः स विज्ञेयश्वत्रे वर्षाधिपः पुनः ॥ १ ॥ व्यवहारसारेऽप्युक्तम्
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"
“ चैत्रादिमेष संक्रान्तिकर्क संक्रान्तिवासराः ।
प्रतिवर्ष क्रमाज्ज्ञेया राजानो मंत्रिसस्यपाः दिनेशस्तद्दिनवार एव । कालहोरेशास्तु प्रागुक्ताः । ततश्च वर्षमासधुहोरेशैर्वृद्धिः पञ्चोत्तरा फले " इति मुहूर्त्तसारे । अस्यार्थः - - वर्षेशग्रहः किल समग्रं स्ववर्षं यावत्पाद, कोऽर्थः ? पञ्च विंशोपान् फलं दत्ते । मासेशग्रह; समग्रस्वमासे दशं विशोपान् । दिनेशस्तु स्वदिनावधि पञ्चदश विंशोपान् । होरेशस्तु स्वहोरायां स्ववारयोगात् पूर्ण विंशतिविंशोपं फलं ददातीति । सितासितेति शुक्के पक्षे सौम्या ग्रहा बलिनः, कृष्णे तु क्रूराः । इदं कालबलम्३॥ रविचन्द्रावुदगयने विपुल स्निग्धाश्च वक्रगाश्वान्ये । बलिनो युधि चोत्तरगा व्यर्केन्दुयुताश्च चेष्टाभिः ॥ ३१ ॥
व्याख्या - उदगयने उत्तरायणे मकरादिषट्के इत्यर्थः, न तु कर्कादिषट्के । विपुला बहुदिनोदिता विशालस्थूल बिम्बाश्च न तु बाला वृद्धा भस्तमिता वा । तत्र बालत्वमुदयादनु स्यात्, वृद्धत्वं पुनरस्तमयादर्वाक् । " बाल्ये वार्धके च सर्वे ग्रहाः सप्ताहं निर्बला " इति सप्तर्षयः प्राहुः । स्निग्धा इति स्फुटकिरणाः खे लक्ष्यमाणा इत्यर्थः, तथात्वं चार्काद्दूरतरस्थत्वे सति स्यात् । वक्रगा इ वक्रत्वे किल सर्वग्रहाणां मूलत्रिकोणतूल्यं बलं इति पाकश्रियां । अन्ये इति भौमाद्याः पञ्च ग्रहाः रवीन्द्वोर्वक्रगत्यभावात् । हर्षप्रकाशे वृक्तं-" वक्की पावो बली सुभो सिग्धो " इति । भौमादिप्रहाणां गतयश्चैवम्
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७५
॥ १ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
" सूर्यमुक्ता उदीयन्ते शीघ्रा अर्के द्वितीयगे। समं तृतीयगे यान्ति मन्दा भानौ चतुर्थगे ॥ १ ॥ वक्राः पञ्चमषष्ठऽर्के तेऽतिवक्रा नगा ७ ष्ट ८ गे।
नवमे दशमे मार्गाः सरला लाभ ११ रिष्प १२ गे" ॥२॥ अत्र पञ्चमषष्ठेऽके इति शनिकुजगुरूनपेक्ष्योक्तं । बुधशुक्रौ त्वर्कस्यासन्नस्थावेव वक्री स्यातां । एवं मार्गेऽपि वाच्यं । इदं प्रश्नशतकवृत्तौ। युधि चेति खे एकस्मिन्नक्षत्रपादे मिथस्ताराग्रहाणां योगो युद्धमुच्यते । तत्रोत्तरगामिनो जयित्वादलिन:, दक्षिणगामिनस्तु पराजयित्वाद्विबला: । वराहमते तु शको दक्षिणगामी सन् बली । तथा चोकं वराहसंहितायां-" सर्वे बलिन उदस्था दक्षिणदिस्थो बली शुक्रः ” इति । व्यर्केन्द्विति अर्कवियुता: सन्त इन्दुना युता एकराशिस्थाः । इदं चेष्टाबलम् ४ ॥
सौम्यग्बलिनो दृष्टा बले नैसर्गिके पुनः । मन्दारज्ञेज्यशुक्रेन्दुभास्कराः स्युर्बलोत्तराः ॥३२॥
व्याख्या-सौम्यैरुपलक्षणत्वान्मित्रैश्च पादा ५ र्ध १० पादोन १५ पूर्णाभि २० दृग्भिदृष्टाः क्रमात्तावत्तावद्विंशोपान् बलिनः । इदं दृग्बलम् ५ । यदा ग्रहयोहागां वाऽन्यबल साम्यं स्यात्तदा स्वाभाविकबलेनैव सबलाबलत्वं भाव्यते इत्यतस्तदाह-बले नैसर्गिके इति नैसर्गिक सहजं बलं तस्मिन् विचार्य इति शेषः राहुस्त्वर्कादपि बलिष्ठः । इदं स्वाभाविकबलम् ६ ॥ सौम्यैदृष्टा इति यदुक्तं तत्र दृष्टि प्रकारमाहपश्यन्ति पादतो वृद्धया भ्रातृव्योम्नी१०त्रिकोणके ५-९। चतुरस्र ४-८ स्त्रियंस्त्रीवन्मतेनाया ११ दिमाश्वपि॥३३॥
व्याख्या-विंशतः पादः पञ्च विशोपाः, ततो वृद्धथेति अयमर्थः-स्वस्थानाद्दशमतृतीये स्थाने ग्रहाः पञ्चविंशोपया दृष्ट्या पश्यन्ति, नवपञ्चमे दशविंशोपया, तुर्याष्टमे पञ्चदशविशोपया, सप्तमं विंशतिविशोपया पूर्णया । मतेनेति केषाञ्चिन्मतेनैकादशाये अपि विंशतिविशोपया दृष्टया पश्यन्ति । शेषगृहाणि तु द्वितीयषष्ठद्वादशानि न पश्यन्त्येवेत्याल्लभ्यते । यत्र च यावद्विशोपा दृष्टिस्तत्र तावद्विशोपं फलमूह्यम् ॥ ननु सर्वेषामपि स्त्रियामेव पूर्णा दृष्टिः किं वा केषाचिदन्यत्रापीत्याशक्याह
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द्वितीय विमर्श:
पश्येत्पूर्ण शनिर्भ्रातृ३ व्योम्नी १० धर्मः धियौ५ गुरुः । चतुरस्रे 'कुजोऽर्केन्दुबुध शुक्रास्तु सप्तमम् ॥ ३४ ॥
G
७७
व्याख्या- - अस्यायं भावः - भ्रातृव्योम्नोस्तावदन्यग्रहाणां : पादहगस्ति, शनैस्तु पूर्णा दृक् । त्रिकोण ९-५ चतुरस्र ४-८ स्त्रीषु७ तु यथार्ध १० पादोन १५ पूर्णा २० क्रमादन्यग्रहाणां दृक्, तथा शनेरपीत्येतावता, शनैः पादहकू कापि नास्तीत्यागतं । तथा धर्मधियोरन्यग्रहाणामर्धदृगस्ति, गुरोस्तु पूर्णा दृक् । भ्रातृव्योमचतुरस्रस्त्रीषु तु यथा पादपादोनपूर्णा हगन्यग्रहाणां तथा गुरोरपीत्येतावता, गुरोरर्धक् कापि नास्तीत्यागतं । तथा चतुरस्त्रेऽन्यग्रहाणां पादोनहगस्ति कुजस्य तु पूर्णा दृक् । भ्रातृव्योमत्रिकोणस्त्रीपु तु, यथा पादार्धपूर्णा दृक् अन्यग्रहाणां तथा कुजस्यापीत्येतावता, कुजस्य पादोनदृक् क्वापि नास्तीत्यागतं । अर्केन्दुबुध शुक्रास्तु सप्तममेव पूर्णया दृशा पश्यन्ति न त्वपरं किञ्चिद्गृहं । भ्रातृव्योमादीनि तु पादादिशा पश्यन्तीति प्रागुक्तमेव । ज्योतिषसारे तु— " सर्वग्रहाणां द्विद्वादशयोर्न दृक्, षडष्टमयोः पादह, त्र्येकादशयोरर्धदृक्, नवपञ्चमयोः पादोना दृक्, केन्द्रेषु तु चतुर्षु पूर्णां दृगित्युक्तं " ताजिके तु द्विद्वादशपडष्टमेषु दृग् मूलतोऽपि नेष्टा ॥ स्थानबलोक्तिसमये मित्रस्वगृहेत्याद्युक्तमित्यतो गृहमैन्याद्याह
रवेः शुक्रशनी शत्रु ज्ञः समः सुहृदः परें । चन्द्रस्यार्कgat मित्रे कुजगुर्वादयः समाः ||३५|| व्याख्या - समो मध्यस्थः, न रिपुर्न मित्रमुदासीन इत्यर्थः । परे चन्द्रकुजजीवा: । चन्द्रस्येति इन्दोर्नास्त्यरिः ॥
कुजस्य ज्ञो रिपुर्मध्यौ शनिशुक्रौ परेऽन्यथा । बुधस्य मित्रे शुक्रार्कौ शत्रुरिन्दुः समाः परे ॥ ३६ ॥ व्याख्या - परेऽर्केन्दुजीवा मित्राणि । शत्रुरिन्दुरित्यत एवेन्दुगृहे ज्ञो मित्र क्षेत्री, ज्ञगृहे त्विन्दुः शत्रुक्षेत्रीति । परे भौमगुरुमन्दाः ॥
जीवस्यकत्रियो मित्राण्यार्किर्मध्यः परावरी । कवेरमित्रौ मित्रेन्दू मित्रे ज्ञार्की समावुभौ ॥ ३७ ॥ व्याख्या - परोश शुक्रौ । उभौ भौमगुरू || मन्दस्य ज्ञसितौ मित्रे गुरुर्मध्यः परेऽरयः ।
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आरम्भ-सिद्धिः
सत्कालसुहृदो द्विर त्रिसुख४ लाभा११न्त्य१रकर्म१०गा:३८
व्याख्या-परेऽन्दुभौमाः । शत्रुमित्रमध्यस्थानां स्थापना यथा
ग्रहाणां | रवि | चन्द्र । मंगल बुध | गुरु | शुक्र | शनि शत्रवः शुक्र-शनि - बुध | चन्द्र | वु-शु र-चं र चम मित्राणि | च-म-गु र-बु |र-च-गु! र-शुर-च-म बु-श बु-शु मध्यस्थाः बु मं-गु-शु-श| शु-श | मं-गु-श| श | मं-गू | गु |
तत्कालेत्यादि जन्मनि पृच्छादिलग्ने वा यत्र स्थाने कश्चिदेको ग्रहोऽस्ति, तस्माद् द्वितीयादिस्थाने योऽन्यो ग्रहः स्यात्स तत्काले द्विव्यादिस्थानस्थितिकालावधीत्यर्थः तस्य मैत्री स्यात् । इयं तात्कालिकी मैत्रीत्युच्यते ॥ अस्याः फलमाह
त्रिमध्यारयो येऽत्र निसर्गेणोदिताः क्रमात् ।
अधिमित्रसुहृन्मध्यास्ते स्युस्तकालमैत्र्यतः ॥ ३९ ॥ व्याख्या-अधिकं मित्रमधिमित्रं, अर्थादेव च मित्रस्थानेभ्योऽन्यानि प्रथमपञ्चमषष्टसप्तमाष्टमनवमस्थानानि तत्कालवैरस्थानानि । तत्फलं चैवं
" येऽत्रारिमध्यमित्राणि निसर्गेणोदिताः क्रमात् ।
अधिशत्रुद्विषन्मध्यास्ते स्युस्तत्कालवैरतः " ॥ १ ॥ भुवनदीपके तु ग्रहाणां मित्रशत्रुस्वरूपं पक्षद्वयमेवोक्तं, तथाहि" रवीन्दूमौमगुरवो ज्ञशुक्रशनिराहवः ।। स्वस्मिन् मित्राणि चत्वारि परस्मिन् शत्रवः स्मृताः ” ॥१॥
राहुरव्योः परं वैरं गुरुभार्गवयोरपि ।
हिमांशुबुधयोर्वैरं विवस्वन्मन्दयोरपि ॥ २ ॥ अतिमैत्री राहुशन्योरिन्दुगुर्वोः कुजार्कयोः। सितज्ञयोः” इति । एवं च ग्रहाणां मित्रात्मगृहाण्युच्चानि विशेषाद्धर्षदीप्तिस्थानानि, यथा रवेर्मेष: सुहृद्गृहमुचं च, बुधस्य कन्यागृहमुच्च चेत्यादि । अरिगृहाणि तूच्चान्यपि प्रभादायीनि स्युः परं नान्तःसुखदानि, यथा शुक्रस्य मीनः । नीचान्यपि च सुहृदगृहाणि किञ्चित्प्रभादायीनि यथेन्दोवृश्चिकः । रिपुगृहाणि तु नीचानि नानाऽनर्थान् प्रभाहानि च कुर्युरिति भुवनदीपकवृत्तौ ॥ अथ यवनाऽचार्योक्तं राशिस्थग्रहाणां मिथो वेधमाह
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द्वितीय विमर्श
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स्याद्गोचरेणात्र शुभोऽपि विद्धः खेटोऽन्यखेदैरशुभः क्रमेण । दुष्टोऽपि चेष्टश्च स वामवेधान्मिथो न वेधः पितृपुत्रयोस्तु४०
व्याख्या - गोचरेण शुभोऽपि ग्रहो वक्ष्यमाणक्रमेणान्यग्रहैर्विद्धः सन्नशुभः स्यात् । दुष्टोऽपीत्यादि अपिचेत्यखंडमव्ययसमुदाय: मेणेत्येतदत्रापि योज्यं गोचरेण दुष्टोऽपि च ग्रहः क्रमेण वामवेधादिष्टः स्यात् । इह किल तृतीयादिस्थानस्थस्य रवेर्नवमादिस्थानस्थग्रहैयों वक्ष्यते स वेधः । यस्तु नवमादिस्थानस्थार्कस्य तृतीया दिस्थानस्थग्रहैः स्यात् स वामवेधः । कोऽर्थः ? तृतीयादिस्थानस्थोऽर्कः शुभः चेन्नवमादिस्थानस्थैरन्यग्रहैर्न विध्येत । नवमादिस्थानस्थश्वाशुभोऽप्यर्कः शुभो यदि तृतीयादिस्थानस्थैः परैर्विध्येत । एवमन्येऽपि भाव्याः । उक्तं च यतिवल्लभेभिर्वधैर्विद्धा विफलाः स्युर्गोचरे ग्रहाः सर्वे ।
विपरीतवेधविद्धाः पापा अपि सौम्यतां यान्ति " ॥ १ ॥
।
"यत्रस्थेन ग्रहेणेष्टग्रहो विध्यते तन्त्रस्थस्यैव स्वस्य फलं शुभमशुभं वा स ददातीति तत्रं" इति रत्नभाष्ये । ये तु गोचरफलमेत्र प्रमाणयन्तो वेधविधौ माध्यस्थ्यमाद्रियन्ते, तन्मतं न बहुसंमतं । यदाह सारङ्ग:"यत्र गोचरफलप्रमाणता, तत्र वेधफलमिष्यते न वा । प्रायशो न बहुसंमतं त्विदं, स्थूलमार्गफलदो हि गोचरः " ॥ १ ॥ यतिवल्लभेऽप्युक्तं-
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" अज्ञात्वा वेधविधिं ग्रहगोचरपाकजातगुणदोषम् ।
ये निर्दिशन्ति मूढास्तेषां विफलाः सदादेशाः ॥ १ ॥ वेधौ च वामोsवामश्च जन्मराशित एव गण्यौ । मिथो न वेध इति रविशनी चन्द्रबुधौ च पितापुत्रौ । अत्र पितृपुत्रयोरिति पाठश्चिन्त्यः, ऋत आवभवनात्, तेन "मिथो न पित्रङ्गजयोस्तु वेधः" इति पाठोऽस्तु ॥ वेधप्रकारमेवाहवेधस्त्रिषड् गगनला भगतस्य ३ -६-१०-११ भानोः,
खेदैः क्रमेण नवमान्त्यसुखात्मज ९-१२-४-५ स्थैः । इन्दोस्तनौ त्रिरिपुमन्मथ खायगस्य १-३-६-७-१०-११, धर्मरिष्पधनबन्धुमृतौ ५-९-१२-२-४-८ स्थितैश्च ॥ ४१ ॥ स्यान्मङ्गलस्य सहजद्विषदायगस्य ३ - ६--११, सौरेस्तथा व्ययतपः सुखगैश्च १२-९-८ वेधः । चान्द्रेः स्वबन्धुरिपुमृत्युखलाभगस्य २-४-६-८-१०-११,
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आरम्भ-सिद्धिः
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पुत्रत्रिधर्मतनुनिर्व्यथनान्त्यगैश्च ५-३-०-१-८-१२ ॥ ४२ ॥
व्याख्या-निव्यथनं छिद्रमष्टममित्यर्थः ॥ वाचस्पतेः स्वतनयास्तनवायगस्य २-५-७-९-११, वेधस्तथान्त्यसुखविक्रमवाष्टगश्च १२-४-३-१०-८-।
शुक्रस्य षटखमदनान्यजुषो१-२-३-3-५-८-९-११-१२ऽष्टसप्ताद्याकाशधर्मतनयायतृतीयषष्टे:८-७१-१०-९-५-११-३.६॥ व्याख्या-पट्खेत्यादि षष्ठदशमसप्तमवर्जनवस्था नजुधः। ग्रहाणां वेधस्थापना यथा| गुरोः । शुक्रस्य । रवः । चन्द्रस्य भौमशन्योः बुधस्य | २१२१
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३ ॥ इत्युक्तं सप्रसङ्गं राशिद्वारम् ।। ५
॥ अथ गोचरद्वारम् ॥६॥
अथ स्याद्गोचरेणेत्यत्र प्रागुपक्षिप्तं क्रमप्राप्तं च, ग्रहगोचरद्वारमाहश्रेयान् गोचरतोऽशुमानुपचये ३,६,१०,११,
चन्द्रस्तु साद्यधुने ३,६,१०,११,१,७, । वक्राी त्रिषडायगा ३,६,११ वथ बुधस्त्वन्त्यान्ययुग्ला भगः २,४,६,८.१०,१२॥
जीवः स्त्रीधनधर्मलाभसुतगः ७,२,९,११,५, शुक्रोऽरिखास्तान्यगो १,२,३,४,५,८,९,११,१२ । जन्मेन्दोर्ग्रहणे तमोऽप्युपचये ३,६,१०,११, ऽन्येषां त्वनाद्येन्दुवत् ३,६,७,१०,११ ॥४४॥
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द्वितीय विमर्शः
जन्मादि द्वादशगृहगत गोचरफलयन्त्रं वराहसंहितानुसारेण ॥
बुध
चन्द्र
| गृह
मंगल रुग्ना
१
गुरु रोग अर्थ क्लेश व्यय सुख
२
ग्रहाः स्थान भय श्री.
तुष्टिः आधिः धन आजिः
बन्ध अर्थ वध अर्थ | हृति: स्थान
३
धन भीः । क्षय
४
नाश
और
पथः
। ५ । | ६ ७ अरि-_ । अंगा-क्षान्ति,
८ ९ १०
भीतिः सुखं जय
११ १२
व्याख्या-गवां चरणभूमिः किल गोचरः, ततो लक्षणया ग्रहाणामपि चरणभूमिः गोचरः, तमाश्रित्य रविरुपचये श्रेष्ठः । उपचयादिकं कस्मादारभ्य गण्यते इति शङ्कायामाह-जन्मेन्दोरिति, इदं सर्वग्रहेषु योज्यते । इष्टपुंसो जन्मसमये' यत्र राशाविन्दुः स्यात्स राशिर्जन्मेन्दुरुच्यते, जन्मराशि रित्यर्थः, तस्मादारभ्य सर्वग्रहाणां गोचरो गण्यते इति भावः । साधेति उपचयस्थानेषु प्रथमसप्तमयोश्च । अन्त्यान्येति द्वादशं वर्जयित्वा सर्वसमस्थानेषु । अरिखास्तेति
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आरम्भ-सिद्धिः
षष्ठदशमसप्तम वर्जसर्वस्थानेषु गोचरेणागतः शुक्रः शुभः । पूर्णभद्रेण त्वष्टममपि वर्जितं । ग्रहणे इति अर्केन्द्वोर्ग्रहणदिने राहुर्जन्मराशित उपचयस्थः शुभः । अन्येषामिति ते प्राहुः आद्यं विना चन्द्रवद्गाहुः उपचयेषु स्मरे च शुभ इत्यर्थः। ग्रहणे इति कयनेनान्यदा राहुगोचरो न गण्यते इत्यसूचि । नक्षत्रगोचरमाश्रित्यान्यदाऽपि गण्यते इति ज्योतिषसारे । विशेषस्तु जन्मलग्नादप्येषु स्थानेष्वेव शुभा इति रत्नभाष्ये । जन्मराशितस्तु शुभा एव । गोचरफलानि चैवम्"स्थानभ्रंश१ भय२ श्री३ परिभव४ दैन्या५ रिहति६ पथा७ गार्तीः८ । शान्तिक्षय९ सिद्धि१० धन११ व्ययाँ१२ श्च जन्मादिगो रविः कुरुते॥१॥ तुष्ट्या१ घिर धना३ ज्य४ र्थभ्रंश५ श्री सार्थयुवति७ मृति८ भीतीः९। सुख १० जय ११ सरुगधनक्षय १२ मिन्दुर्जन्मादिगो दत्ते ॥ २ ॥ रुग्१ धननाश२ धना३ रिभ्य४ र्थक्षय५ धन६ शुग७ घाता८ः९ । शुग १० लाभ ११ विविधदुःखानि १२ दिशति जन्मादिगो वक्रः ॥३॥ बन्धा१ १२ वधा३ र्थ४ हृति५ स्थान६ वपुर्बाध७ धन८ महापीडा९ । सौख्या १० र्थ ११ वित्तनाशाः १२ स्युझे जन्मादिगे क्रमशः ॥ ४॥ रोगा? र्थ२ क्लेश३ व्यय४ सुख५ भी६ नृपमान७ धनागम८ श्रीदः९ । अप्रीति १० लाभ ११ हृदुःखदश्च १२ जन्मादिगो जीवः ॥ ५ ॥ अरिनाशार्थ२ सुख३ श्री४ सुता५ रिवृद्धी(खि)६ शुगअर्थ८ वाणि९। असुख। १० य ११ लाभ १२ मुशना सनापि जन्मादिगस्तनुते ॥ ६ ॥ अस्थान१ धनगमा२ र्था ३ रिवृद्धि४ सुतनाश५ लाभ६ दुःखभरान् । पीडाट थंगमार ति१० श्री११ दुःखानि१२ शनिस्तनोति जन्मादौ"॥७॥
इदमर्थतो वराहसंहितायां । " गहणे तमरासीओ नियरासी ति चउ अछिगार सुहा । पण नव दहंत१२ मज्झिम छ सत्त इग दुन्नि अइअहमा" ॥ १ ॥ इति ज्योतिषसारे । तथा
" यादृशेन शशाङ्केन सङ्क्रान्तिर्जायते रवेः ।।
तन्मासि तादृशं प्राहुः शुभाशुभफलं नृणाम् " ॥ १ ॥ एतेनार्को द्वादशाष्टमाघशुभस्थानस्थोऽपि गोचरेण ताराबलेन शुभावस्थादिना च, शुभे चन्द्रबले सति जातसक्रमः शुभ एवेति रत्नभाष्ये । तथा--
" सितपक्षादौ चन्द्रे शुभे शुभः पक्षकोऽशुभे त्वशुभः । बहुले गोचरशुभदे न शुभः पक्षेऽशुमे तु शुभः " ॥ १ ॥
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द्वितीय विमर्श
इति लल्लः अस्यार्थ:-शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि लगन्त्यां यदि चन्द्रः शुभस्तदा, तस्मिन् पक्षेऽपि चन्द्रः शुभ एव, यदि चाशुभस्तदा अशुभः । कृष्णपक्षस्य तु प्रतिपदि लगत्यां यदि चन्द्रः शुभस्तदा तस्मिन् पक्षेऽपि चन्द्रोऽशुभ एव, यदि स्वशुभस्तदा चन्द्रस्तस्मिन् पक्षेऽपि शुभ एवेति । तथा-" यादृशेन ग्रहेणेन्दोयुतिः स्यात्तादृशो हि सः इति दैवज्ञवल्लभे । तथा
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" अशुभोsपि शुभश्चन्द्रः सौम्यमित्रगृहांशके । स्थितोऽथवाधिमित्रेण बलिष्ठेन विलोकितः ॥ १ ॥ इति दैवज्ञवल्लभे । अथ सर्वप्रहसाधारणमुच्यते
""
असत्फलोsपि यः सौम्यैष्टो यः सत्फलोऽपि वा । क्रूरेण दृष्टोऽरिणा वा स न किञ्चित्फलप्रदः ॥ १ ॥ इति दैवज्ञ | तथा - " नीचेऽस्तेऽरिगृहेवापि निष्फलो ग्रहगोचरः । इति लल्लः ।
चन्द्रो जन्मत्रिषट्सप्तदशैकादशगः शुभः । द्विपञ्चनवमोऽप्येवं शुक्लपक्षे बली यदि ॥ ४५ ॥ व्याख्या जन्मेति । विशेषस्तु -
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"
66 यात्रा १ युद्ध २ विवाहेषु ३ जन्मेन्दो रोगसंभवे ४ । क्रमेण तस्करा १ भङ्गो २ वैधव्यं ३ मरणं ४ भवेत् ॥ १ ॥ इति नारचन्द्रटिप्पण्यां । ननु चन्द्रगोचरण्ये प्रागप्युक्ते पुनरुक्तमिदं, सत्यं, परमिन्दोः प्राधान्यज्ञप्त्यर्थत्वाददोषः । प्राधान्यं कथमिति चेत् उच्यते - यथा मनस उपयोगे सत्येव सर्वाण्यपीन्द्रियाणि स्वस्वविषयग्रहणक्षमाणि, नापरथा, तथा चन्द्रे शुभे सत्येव शेषग्रहाः शुभं फलं ददति, नापस्था । " चन्द्रे च शुभे सति शेषग्रहाः शुभफलदा एव प्रायो, न स्वशुभफलदा " इति व्यवहा - प्रकाशे । हर्षप्रकाशेऽप्युक्तं - " चंदस्सेव बलाबलमासज्ज गहा कुणंति सुहमसुहं " इति । द्विपञ्चेत्यादि विशेषविध्यारोपणार्थत्वाच्च नात्र पुनरुक्तदोषः । एवमिति शुभ इत्यर्थः । शुक्लपक्षे इति प्रवर्धमान इति भावः, न तु कृष्णपक्षे, श्रीयमाणत्वात् । बली यदीति अनेन शुक्लपक्षेऽपि कृशः सन् शशी द्विपञ्चननवम ग्राह्यः । कृष्णपक्षे च पुष्टोऽपि सन् द्विप्रञ्चनवमो न ग्राह्य इत्युक्तं, तदयं भावः - यादृशं द्विपञ्चनवमो गुरुः सदा शुभं ( फलं ) दत्ते, तादृशं वर्धमानतनुः शुक्लपक्षे पुष्टश्चन्द्रोऽपि द्विपञ्चनवमः शुभं दत्ते इति रत्नभाष्ये ॥ बली यदीत्युक्तत्वादिन्दोर्बलाबलमाह
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आरम्भ- -सिद्धिः
हीनमध्योचबलता तिथिवत्तु हिनद्युतेः । बलहानाविदं त्वस्य ग्राह्यं ताराबलं बुधैः ॥ ४६ ॥ व्याख्या - शुक्क़तरपक्ष यो स्तिथिपञ्चत्रयीषु हीनमध्योत्तमता यथोक्ता तथेन्दोरपि हीनमध्योत्तमबलत्वं क्रमोत्क्रमाद्भाव्यं । जातकवृत्तौ त्वेवं-" उदयादाचे दशाहे शशी मध्यबलः, द्वितीयेऽधिकबलः, तृतीयेऽल्पबलः, कृष्ण चतुर्दश्यादित्रिदिनीं सर्वथाऽबलः । सौम्यग्रहैर्दृष्टस्त्विन्दुः सदापि बलवानिति । अन्ये तु कृष्णाष्टम्यधाद्नु शुक्लाष्टम्यर्धं यावच्चन्द्रः क्षीणः, शेषं पक्षं पुष्टश्चेत्येवमाहुः । नक्षत्रसमुच्चयग्रन्थे त्वेवम्
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" "उदिते च तथा चन्द्रे शुभयोगे शुभे तिथौ । कृष्णस्य दशमीं यावत्सर्वकार्याणि साधयेत् ॥ १ ॥ विशेषस्तु शुक्कद्वितीयायां दिवा उदितोऽपीन्दुर्न ग्राह्यः, प्रायो जगद्हग्गोचरीभावाभावेनासांव्यवहारिकत्वात् । उक्तं च विवाहवृन्दावने -
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उदेति चायं प्रतिपत्समाप्तौ कृशोऽपि वर्धिष्णुतया प्रशस्तः । द्वीपान्तरस्थो विफलस्तु तावद्यावन्न पृथ्वीनयनाध्वनीनः " ॥ १ ॥ इदं त्विति वक्ष्यमाणं । अस्येति इन्दोः । ग्राह्यमिति तदानीं ताराबलेनैव शशिबलभवनादिति भावः । उक्तं च---
6.
चन्द्राद्वलवती तारा कृष्णपक्षे तु भर्तरि ।
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विकले प्रोषिते च स्त्री कार्य कर्तुं यतोऽर्हति ॥१॥ ततश्च66 कृष्णस्याष्टम्यर्धादनन्तरं तारकाबलं योज्यं । प्रतिपत्प्रान्तोत्पन्नं सन्ध्याकालोदयं यावत् ॥ १ ॥
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इति व्यवहारप्रकाशे । न च ताराबलं गौणमिति चिन्त्यं यतः स्फुटमेव ताराबलस्य प्रधान्यं । यल्लल्लः
" ताराबले शशिवलं शशिवलसंयुतसंक्रमाबलं भानोः । सूर्यबले सति सर्वेऽप्यशुभा अपि खेचराः शुभदाः " ॥ १ ॥ तारा वाहू
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जनिभान्नचकेषु त्रिषु जनि १ कर्मा १० धान
१९ संज्ञिताः प्रथमाः ।
ताभ्यस्त्रि ३, १२, २१ पंच ५, १४, २३ सप्तम
७, १६, २५ ताराः स्युर्न हि शुभाः कचन ॥ ४७ ॥
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कर्म १० । जन्म १ मध्यमाः
संपत् २ मध्यमाः
विपत् ३ संपत् ११ | विपत् १२ क्षेमा १३ - यमा १४
अधमाः । श्रेष्ठाः ।
क्षेमा ४ । आधान १९ | संपत् २० । विपत् २१ क्षेमा २२ । यमा २३ । साधना २४ निधना २५ मैत्री २६ । परममैत्री२७
यमा ५. अधमाः
साधना १५ श्रेष्ठाः
निधना १६ मैत्री १७ । साधना ६ निधना ७ मैत्री ८ अधमाः । मध्यमा:
परममैत्री१८ परममैत्री ९
श्रेष्ठाः
द्वितीय विमर्शः व्याख्या-यस्य जन्मनि यत्र मे चन्द्रः स्यात्तस्य, तजनिभं तस्मात्तदपरिज्ञाने नामभावा आरभ्य नक्षत्राणां नवकत्रयं कृत्वा, त्रिष्वपि नवकेषु या आद्यास्तिस्रस्तासां जन्मतारा ५ कर्मतारा २ आधानतारेति ३ संज्ञाः । उक्तं च-" आधानाद्दशमे जन्म, दशमे कर्म जन्मभात् " इति । ताभ्य स्तिसृभ्योऽपि या यास्तृतीयाः पञ्चम्यः सप्तम्यश्च तारास्तास्त्याज्याः। द्वितीयादिताराणां नामान्येवम्
"संपद्विपत्क्षेमसंज्ञा प्रत्यरा राधका मृतिः । मैत्री परममैत्री च स्युद्धितीयादिमा इमाःः॥ १ ॥ प्रत्यराया यमेति नामान्तरं । ताराणां स्थापना यथा
आसु त्रिनवसु चतुर्थ्यः३ षष्ठ्यो३ नवम्यश्व३ तिस्रस्तिस्रस्तारा: श्रेष्ठाः । यल्लल्ल:
" ऋक्ष न्यूनं तिथियूंना क्षपानाथोपि चाष्टमः । तत्सर्व शमयेत्तारा षट्चतुर्थनवस्थिता" ॥ १ ॥
आद्या३ द्वितीया३ अष्टम्यश्च ३ तिस्रस्तिस्नो मध्यमाः । तृतीयाः३ पञ्चम्य:३ सप्तम्यश्च ३ तिमस्तिस्नोऽधमा इति तूक्तमेव ॥ विशिष्य चाहजन्माधानान्वितास्तिस्रस्तास्त्यजेत्क्षौरयात्रयोः। शुक्लेऽप्यासूत्थितेरोगेदीर्घक्लेशोऽथवा मृतिः॥४८
व्याख्या-तिस्रस्ता इति अत्र प्रत्येकं त्रित्वसद्भावामवेति वक्तुं युक्त, परं जातेरेव प्राधान्याश्रयणात्तिस्र इत्येवोक्तं । यात्रयोरिति यल्लल्ल:--
" यात्रायुद्धविवाहेषु जन्मतारा न शोभना । शुभाऽन्यशुभकार्येषु प्रवेशे च विशेषतः॥ १ ॥ जन्मीवदाधानं कर्मसु शस्तेषु शस्तमेव स्यात् । यञ्च न जन्मनि कार्य विवर्जनीयं तदाधाने " ॥२॥
शुक्लेऽपीति यद्यपि शुक्लपक्षे चन्द्र एव बली, न च तदानीं तारायाः प्राधान्यं, यदुक्तं
" शुक्ले पक्षे बली चन्द्रस्ताराबलमकारणम् । पत्यौ स्वस्थे गृहस्थे च न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति" ॥१॥ चन्द्रबलं च तदानीं वर्तते. तथापीत्यपेरर्थः, आस्विति
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। दीर्घक्लेशोऽथवेति
जन्माधानत्रिपञ्चसप्तमतारासु दीर्घक्लेशः तत्सद्भावे तु मृत्युरित्यर्थः । यल्लल्लः
ग्रहान्तरप्रातिकूल्याभावे
यद्यपि स्याबली चन्द्रस्तारा तथाप्यनिष्टदा | जन्माधाने तृतीया च पञ्चमी सप्तमी तथा ॥ १ ॥ शेषासु तु तारासु व्याधिः साध्यो नृणां भवति जातः । व्याधिवदवबोद्धव्याः सर्वारंभाश्च तारासु ॥ २ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
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अत्र यात्रादिषु चन्द्रः शुभावस्थो विलोक्यते इति रत्नमालाभाष्ये उक्तमित्यतश्चन्द्रावस्थाः प्राह -
चन्द्रावस्था प्रोषित १ हृनर मृत३
जय ४ हास ५ हर्ष ६ रति ७ निद्रा:८ । मुक्ति ९ जरा १० भय ११ सुखिता १२
राश्यंशा द्वादश यथार्थाः ।। ४९ ।।
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व्याख्या:- - यदा यावद्घटीमानश्चन्द्रस्येष्टराशिभोगः स्यात्तदा तावान् टिप्पनकं विलोक्य निर्णेयः । यथा सामान्येन पञ्चत्रिंशदधिकशत १३५ मितस्येन्दो राशिभोगस्य द्वादशभिर्भागे एकादश घठ्यः पञ्चदश पलानि च स्युः । इष्टसमये च पञ्चत्रिंशदधिकशतमध्ये यावत्यो घट्यो भुक्ताः स्युस्तासां सपादैरेकादशभिर्भागे यल्लब्धं ता भुक्ताः, शेषाङ्गेन भुज्यमानद्वादशांशा ज्ञेयाः । अत्र च सामान्योक्तेऽप्ययं भावः:- राशौ राशौ द्वादशांशरीत्या इन्दुर्द्वादशावस्था भुङ्क्ते । उक्तं च यतिवल्लभे
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राशौ राशौ द्वादशामूर्भुङ्क्तेऽवस्थाश्च चन्द्रमाः । द्वादशांशक्रमात्सांहिद्वचहेनाख्या सहक्फलाः " ॥ १ ॥
ततोऽयमर्थः मेषे स्थितस्येन्दोः प्रोषितात आरभ्य द्वादशावस्था गण्याः । वृषस्थस्य तु हृतातः, मिथुनस्थस्य मृतात इत्यादि यावन्मीनस्थस्य सुखितात इति लोकव्यवहारोक्तं रत्नमालाभाष्ये । यथार्था इति स्वस्वसंज्ञा सडक् फलदा इति भावः । तेन प्रोषित १ हृत २ मृत ३ निद्रा ४ जरा ५ भया ६ ख्याः षडवस्थास्त्याज्या इति नारचन्द्रटिप्पण्यां । अत एव दिनशुद्धावप्युक्तम्
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पइरासि बारसंसा असुहाओ चए जओ सुहो विससी । आहिं होइ असुहो, सुहाहिं असुहो वि होइ सुहो" ॥ १ ॥
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द्वितीय विम
अथ शनेर्दुष्टत्वान्नक्षत्रगोचरं पृथगाहमन्दर्क्षतः प्रथम १ वेद ४ षड ६ ब्धि ४ बाण ५ त्रि३ द्वये २ क १ चन्द्र १ मितभेषु यथाक्रमेण । पीडा १ विभूति ५ पथ ११ बन्धन १५ धर्म २० लाभ२३ पूजा२५ विभूत्य२६ पमृतीः २७ फलमूचुरुचैः ||५० ॥ व्याख्या - मन्दर्क्षत इति शन्याक्रान्तभात्स्वजन्मभं यावद्गण्यं । अभिभूति: पराभवः । अपमृतिरपमृत्युः । अत्र चानुक्तोऽपि शनिर्नराकारोऽभ्यूः । यदुक्तं यतिवल्लभे
"यस्मिन् शनिश्चरति वक्रगतं तदृक्षं, चत्वारि दक्षिणकरेऽह्नियुगे च षट्कम् चत्वारि वामकरगाण्युदरे च पञ्च, मूर्ध्नि त्रयं नयनयोद्वितयं गुदे च ॥१॥ नवरमत्र द्वितयमिति यदा नराकारः पट्टकादौ क्वचिदालिख्यते, तदा गुदगुह्ययोरैक्यमेव श्यत इति कृत्वाऽत्र गुद एव द्वयं विवक्षितं, सूत्रकृता तु तयोः पार्थक्यविवक्षया स्थानद्वयेऽप्येकैकं नक्षत्रमूचे । तत्स्थापना यथा— । शनिनरः । मुखे १ पीडा दक्षिणकरे ४ लक्ष्मी पादये ६ पंथाः वामकरे ४ बंधनं
धर्मः
५
उदरे
मस्त
नेत्रद्वये
गुदे
३ लाभः
पूजा
मृत्युः
3
रुद्रयामले तु नवग्रहाणामपि नराकारस्थापनया नक्षत्र गोचरफलान्युचिरे । तत्र रविनरं सूत्रकृदेव जातकाधिकारे वक्ष्यति । शेषग्रहनरास्त्वेवमू
दृग् ३ बाहुयुग्म ६ वक्त्रेषु ३
भानां प्रत्येकतस्त्रिकम् १२ । हृदि सप्त १९ तथा गुह्ये चतुष्कं
२३ पञ्चकं पदोः २८ ॥ १ ॥
वक्त्रे पीडां भृशं चक्षुर्हदयेषु शुभं सुखम् ।
बालभि मृतिं गुह्ये भ्रमं दत्ते पदोः शशी ॥ २ ॥ इति चन्द्रनरः ॥१॥
त्रयं श्रयं त्रिर्मुखदृक्छरस्सु ३-९, द्वयानि वामे २ तरबाहु २ कंठे २-१५ । पञ्चरसि स्यु २० स्त्रितयं च गुह्ये २३,
चत्वारि चढ्योः २७ कुजचक्रमेतत् ॥ १ ॥
कीर्ति शिरसि नेत्रे लाभं चरणयोर्भ्रमम् । गुह्येऽन्यस्त्रीरति दत्ते कुजः शेषेषु चाशुभम् ॥२॥ इतिभौमनरः ॥२॥
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आरम्भ-सिद्धिः
वक्त्र५ नेत्र५ गलो५ रस्सु. पादयोः५ पञ्च पञ्च च२५ । बाहु१ युग्मे१ तथा गुह्ये १ त्रीण्यमूनि भवन्ति च २८ ॥ १ ॥ वक्त्रहृवाहुषु ज्ञप्तिं गुह्यपादेषु संक्षयम् । गले सुस्वरतां दत्ते नेत्रे राज्यं बुधो ग्रहः ॥ २ ॥ इति बुधनरः ॥ ३ शीर्षे चत्वारि राज्यं युगपरिगणिता सव्यहस्ते च, लक्ष्मीरेकं कंठे विभूति मदनशरमिते वक्षसि प्रीतिलाभम् । षभिः पीडांहियुग्मे जलधिपरिमिते वामहस्ते च मृत्युईग्युग्मे त्रीणि कुर्युनृपतिसमसुखं वापतेश्चक्रमेतत् ॥१॥ इति गुरुनरः ॥४ युगं शीर्षे द्वंयं वक्त्रे चतुष्कं हृदयेऽपि च । दश बाह्वोत्रयं गुह्ये जान्वंहिषु द्वयं द्वयम् ॥ १ ॥ जानुमुष्ककपादेषु दुःखं बाह्रोनृपाहणाम् । हृच्छीर्षे सौम्यतां वक्त्रे मरणं कुरुते सितः ॥ २ ॥ इति शुक्रनरः ॥ ५ वक्त्रे त्रीणि जयाय दक्षिणकरे चत्वारि लक्ष्म्यै पदोः, षड् भ्रान्त्यै न सुखाय वामककरे चत्वारि हृच्छं त्रयम् । लब्ध्यै कंठगमेकमामयकरं शीर्षे त्रयं राज्यदं, सौभाग्यं युगले निगे मृतिरथो गुह्यद्वये राहुभात् ॥१॥ इति राहुनरः ॥ १ वक्त्रे द्वे भयदे जयाय शिरसि स्यात् पञ्चकं पञ्चकं, भीत्यै तत्फणगं जयाय करयोर्युग्मे चतुष्कं स्थितम् । अंहयोः पञ्च सुखाय हृत्स्थयुगल शोकाय कंठे व्यथा, भीत्यै स्याच्च चतुष्टयं फलमिदं केतौ तदाक्रान्तभात् ॥१॥ इति केतुनरः ७
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द्वितीय विमर्शः
। मुखे
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गुह्ये
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चन्द्रपुरुषः १ । भौमपुरुषः २ । बुधपुरुषः ३ नेत्रयोः ३) सुखं ।
31 रोगः
५ ज्ञानं दक्षिणकरे ३ लाभः नेने
लाभ:
नेत्रे ५/ राज्य वामकरे ३ लाभः । मस्तके ३ यशः
यका:
५ सुस्वरता मुखे अतिपीडा वामकरे २, रोगः हृदये
५ ज्ञानं हृदये ७ सुखं दक्षिणकरे २ शोकः पादयोः ५ क्षयः मरणं
हिक्कादि | वामकरे ज्ञानं पादयोः भ्रमणं हृदये ५ लाभः । दक्षिणकरे १/ ज्ञानं
गुझे ३ परस्त्रीरतं | गुह्ये १) क्षयः
पादयोः भ्रमणं गुरुपुरुषः ४ | शुक्रपुरुषः ५ | राहुपुरुषः ६ । केतुपुरुष: ७ मस्तके राज्य मस्तके | ४ सौम्यता मुखे जयः मुखे भयं दक्षिणकरे ४ लक्ष्मीः मुखे २ मरणं दक्षिणकरे ४ लक्ष्मीः मस्तके ५जयः कंठे धनं हृदये । ४ सौम्यता पादयोः ६ भ्रमणं फणे महाभयं हृदये ५प्रीतिः हस्तद्वये १० पूजा वामकरे क्लेशः हस्तद्वये ४ जयः पादद्वये ६ असुखं गुह्ये ३ दुःख हृदये ३लाभः पादद्वये ५सुखं वामकरे ४ मत्युः जानुद्वये २ दुःखं कंटे क्लेश: हृदये २शोकः नित्रयोः ३लाभः पादद्वये २ दु:खं मस्तके राज्यं । कंठे पीडा
नेत्रयोः २ सौभाग्य
गुह्ये २ मरणं नन्वेवमन्यान्यग्रहपुरुषाणां शुभाशुभफलसंभेदे सति, कथं ग्रहसंबन्धिनो भगोचरफलस्य निर्णयं कर्तुं शक्यः ? उच्यते-इष्टसमये यो ग्रहः सर्वेषामधिकबल: स तदानीं शुभाशुभ फलं दत्ते । सर्वानप्येतान् ग्रहनरान् जन्मसमय एव केचिद्विचारयन्ति । ज्योतिषसारे तु राहो क्षत्रफलमेवमूचे
" तमरिख्खुंमुहि १ तिफुल्लिअ ४ चउफलिअ ८ तिअहल ११ तिझडिअ १४ गुदिकं १५ । तिअरायस १८ तिअतामस २१ ।
चउसुह २५ तिअ असुहं २८ तमचकं ॥ १ ॥ फुल्लिअफलिए लाहं अपाणि लच्छी सुहं च सुहरिख्खे । मुह अहलझडिअरायसतामसअसुहेअ असुहतमं ॥ २ ॥" अत्रापि राहवाक्रान्तभात्स्वभं यावद् गण्यम् ॥ अथाशुभे ग्रहगोचरे सति, तद्विफलीकारिणमष्टकवर्गमाह
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आरम्भ-सिद्धिः
गोचरेण ग्रहाणां चेदानुकूल्यं न दृश्यते । जन्मलग्नग्रहेभ्योऽष्टवर्गेणालोकयेत्तदा ॥ १५ ॥
व्याख्या - ग्रहाणामिति सामान्योक्तेऽपि रवीन्दुजीवानामानुकूल्याभाव इति शेयं । यदुक्तं नारचन्द्रे
“रविशशिजीवैः सबलैः शुभदः स्याद्गोचरोऽथ तदभावे । प्राह्माष्टवर्गशुद्धिर्जननविलग्नग्रहेभ्यस्तु ॥ १ ॥ "
जन्मेति जन्मनि यलग्नं चेति ये च ग्रहास्तेभ्यः । अष्टवर्गेणेति अयमर्थः ग्रहस्य राशौ संचरतः षड्भ्योऽपरग्रहस्थानेभ्यः स्वस्थानाललग्नाच विचारणयाऽष्टकवर्ग उच्यते ॥ तमेवाह
अर्कः खमन्दभौमेभ्यो नवद्वयायाष्टकेन्द्रगः ९-२-११-८-९-४-७-१० । त्रिकोणायारिगो ९-५-११-६ जीवाच्छुक्रादन्त्या रिकामगः १२-६-७ ॥ ५२ ॥ चन्द्रादुपचयस्थो ३-६-१०-११ ज्ञाद्वीधर्मोपचयान्त्याः ५-९-३-६-१०-११-१२ । पातालोपचयान्त्येषु ४-३-६-१०-११-१२ लग्नाच्च तरणिः शुभः ॥ ५३ ॥ इति व्यष्टवर्गः ॥ १ चन्द्रश्चोपचये ३-६-९०-११ लग्ना
द्भानोः साष्टस्मरे स्थितः ३-६-१०-११-८-७ । स्वात्सादिसप्तमे ३ -६-१०-११-१-७ ष्वारा
त्सद्रव्यनवमात्मजे ३-६-१०-११-२-९-५ ।। ५४ ।। छिद्रत्रिलाभात्मज केन्द्रगो ८ ३-११-५-१-४-७-१० बुधाद्गुरोस्तु रिपाष्टमला भकेन्द्रगः १२ -८-११-१-४-७-१० । शुक्रात्रिपञ्चास्तनवायखांबुगः ३-५-७-९-११-१०-४, शुभः शनेः षत्रिसुतायगः ६३.५-११ शशी ॥ ५५ ॥ ॥ इति चन्द्राष्टवर्गः ॥ २
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द्वितीय विमर्श
कुज इन्दोरुपचयभे ३-६-१०-११ साद्ये ३-६-१०-११-१ लग्नात्सपञ्चमे ३-६-१०-११-५ सूर्यात् । द्वयायाष्टकेन्द्रगः २-११-८-१-४-७-१० स्वात्सौम्यात्रिसुतारिलाभस्थः ३ ५-६ - ११ ।। ५६ ।। जीवात्खान्त्यायारिषु १०-१२-११-६, शुक्राच्छिद्रान्त्यलाभशत्रुगतः ८-१२-११-६ । मन्दाल्लाभनवाष्टमकेन्द्रस्थः १२-९-८
१-४-७-१० शोभनो भौमः ||२७|| || इति भौमाष्टवर्गः ॥ ३ बुधोऽतोऽन्त्यायनवारिधीषु १२-११-९-६-५, स्थितः स्वतः सत्रिदशादिमेषु १२-११-९-६-२-३-१०-१ । द्विषड्दशायाष्टसुखेषु २६-१०-११-८-४ चन्द्रालग्नात्तु तेष्वाद्ययुतेषु २-६-१०-११-८-४-१ शस्तः॥५८॥ कुजशनितो व्यन्त्यारिषु १-२३-४-५-७-८-९-१०-११, जीवादरिनिधनलाभरिष्पस्थः ६-८-११-१२ । शुक्रादापुत्राष्टमनवमायस्थो १-२-३
४-५-८-९-११ बुधः शुभदः ॥ ५९ ॥
व्याख्या - व्यन्त्येति द्वादशषष्ठवर्ज सर्वस्थानेषु । आपुत्रेति आद्यात्पुत्रं पञ्चमं यावत् पञ्च स्थानानीत्यर्थः ॥ इति बुधाष्टवर्गः ॥ ४ गुरुः केन्द्रस्वरन्धाये १-४-७-१०-२-८-११ व्वारात्स्वात्सत्रिषूत्तमः १-४-७-१०-२-८-११-३ । अर्कात्सत्रिनवस्व १, ४, ७, १०, २, ८. ११, ३, ९ न्दोः स्वधीका मनवायगः २, ५, ७, ९, ११ ।। ६० ।। स्वादिखाय सुखधीतपोऽरिषु २, ९, १०, ११, ४, ५, ९, ६ . ज्ञाद्गुरुः स्मरयुतेषु २, ९, १०, ११, ४, ५, ९, ६, ७ लग्नतः । स्वत्रिकोणरिपुखायगः २, ९, ५, ६, १०, ११ सितात्, sयन्त्यधीरिपुषु३, १२, ५, ६ मन्दतः शुभः॥ ६१॥ ॥इति गुर्वष्टवर्गः॥५
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आरम्भ-सिद्धिः
शुक्रो लग्नादासुतधर्मायाष्टसु १, २, ३, ४, ५, ९, ११, ८ मतः स्वतः साभ्रः १, २, ३, ४, ५, ९, ११, ८, १० । शशिनः सान्त्यः १, २, ३, ४, ५, ९, ११,८,१२, शनितः, खायतपत्रिसुखधी मृतिषु १०, ११, ९, ३, ४. ५, ८, ॥६२॥ व्याख्या - आसुतेति प्राग्वत् ॥ आयव्ययाष्टगोsai ११, १२, ८ दू,
बुधात्रिकोणायपत्रिगः ९.५, ११, ६, ३, शुभदः । ध्यापोक्तिमाप्तिषु ५, ३, ६, ९, १२, ११, कुजादू, गुरोत्रिकोणाष्टखायगः १,५.८.१०,११ शुक्रः ॥ ६३॥ व्याख्या-आपोक्किमानि तृतीयषड्न मद्वादशानि । आप्तिर्लाभ भवनम् ॥ इति शुक्राष्टवर्गः ॥ ६ ॥ शनिः स्वायायपुत्रारि ३, ११, ५,
० ।
६ वारात्सव्ययकर्मसु ३, ११, ५, ६, १२, १० केन्द्राष्टायार्थगः १, ४, ७, १०, ८, ११, २ सूर्याचन्द्रात् षट्ट्ट्यायो ६, ३, ११ मतः ॥ ६४ ॥ आद्याम्बूपचये लग्नात् १, ४, ३, ६, १०, ११, कवेरायत्र्ययारिषु ११, १२, ६ | गुरोः सधीषु ११,१२,६.५, साम्राष्टधर्मेषु - ११,१२,६,१०,८,९, ज्ञाच्छनिर्मतः ॥ ६५ ॥ ॥ इति शम्यष्टवर्गः ॥ ७ एषां चतुर्दशवृत्तानां पिंडार्थोऽयं आद्यवृत्तेऽर्क इति यदा यात्रादिकार्यचिकीर्षाऽस्ति तस्मिन काले यः स तात्कालिकोऽर्कः । स्वमन्देत्यादि स्वशब्देनेह जन्मकालिकोsa ग्राह्यः । एवं मन्दभौमादयोऽपि जन्मकालिका एव, ततस्तास्कालिकार्कांद्या जन्मसत्कार्क मन्दादिभ्यश्चेन्नवद्वयादीनामन्यतरस्थाने स्युस्तदा शुभाः।
,
"
सर्वेऽपि रेखां ददतीति परिभाषा । ततश्च यावद्भयो लग्नग्रहेभ्य उक्तान्यतरस्थाने तात्कालिका अर्काद्या: प्राप्यन्ते तावत्यो रेखा देयाः, यावद्भयश्च न प्राप्यन्ते तावन्ति शून्यानि देयानि एवमेकैकमहस्याष्टाष्ट रेखाः संभवेयुः, तासां मध्ये यदि चतस्रो हीना अधिका वा रेखाः स्युस्तदा मध्या अधमाः श्रेष्टाश्व क्रमात् । एवं च यस्य ग्रहस्य रेखाबाहुल्यं स गोचरेणाशुभोऽपि शुभ: शुन्यबाहुल्ये तु गोचरेण शुभोऽप्य शुभः । केऽप्याहुः - कार्यकालेऽष्टकवर्गरेखा न मील्यन्ते, किंतु, यदा तदा वा जन्मकुंडलिकामेव सप्तश संस्थाप्य, आद्यकुंडलिकायां यत्र स्थानेsasस्ति
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द्वितीय विमर्शः
तस्मामवमादिष्वष्टस्थानेष्वष्टौ रेखा देयाः । एवं मन्दभौमाभ्यामपि प्रत्येकमष्टाष्ट, गुरुतश्चतस्रः, शुक्रात्तिस्रः, बुधात्सप्त, लग्नात् षट , एवं तस्यामष्टिवर्गकुंडलिकायां सर्वरेखा रवेरष्टचत्वारिंशत् । एवमेव द्वितीयादिषु चन्द्राधष्टवर्गकुंडलिकासु क्रमात् सर्वरेखाः, एवञ्चन्द्रस्यैकोनपञ्चाशत्, भौमस्य चत्वारिंशत, बुधस्याष्टपञ्चाशत्, गुरोः षट्पञ्चाशत्, शुक्रस्य द्वापञ्चाशत्, शनेरेकोनचत्वारिंशच्चेति । उक्त
“वसुवेदौ १ नन्दवेदौ २ खवेदौ ३ वसुसायको ४ । षड्बाणौ ५ द्विशरौ ६ नन्दवह्नी ७ रेखा इनादिजाः" ॥ १ ॥
एवं चैकैकग्रहाष्टवर्गकुंडलिकायां द्वादशरवपि राशिस्थानेषु प्रत्येकं यावसंभवं रेखा देयाः, शेषाणि शून्यानि च । उत्कर्षतश्चैवमेकन स्थाने यथायोगमष्टौ रेखाः संभवेयुः । ततः कार्यकाले यो ग्रहो यत्र राशौ स्यात्तत्स्थानं वीक्ष्यते, तन्त्र स्थाने रेखाधिक्ये संग्रहः शस्तः, शून्याधिक्ये त्वशुम इति द्विधाऽपि चैकमेव तत्त्वं । अथासामुपयोग एवं
'चतुरेखे मध्यफलं हीने हीनं ततोऽधिके श्रेष्ठम् । विफलं गोचरगणितं त्वष्टकवर्गेण निर्दिष्टम् ” ॥ १ ॥
एकग्रहमाश्रित्येदमुक्तं । तात्कालिकीनां सर्वग्रह रेखाणां मीलने तु, षोड. शमध्ये कदापि न स्यात्, सप्तदशभ्य आरभ्योत्कृष्टाः षट्पञ्चाशतं यावत्तु स्युः । तत्र षड्वंशतिं यावदशुभा एव, सप्तविंशत्या समता, अष्टाविंशत्यादयस्तु षट्पञ्चाशतं यावद्यथाबहुत्वं शुभशुभतरशुभतमाः । __ " रेखाधिक्यं शस्तं शून्याधिक्यं तथाऽधमं कथितम् । एतत्संयोगे स्युः षट्पञ्चाशन्नजातु अधिकास्ताः ” ॥ १ ॥
अत्र षट्पञ्चाशदिति व्यादिसप्तकस्य प्रत्येकमष्टाष्टरेखासंभवे षट्पञ्चाशदेव तासां मेलनादिति भावः । विशेषस्तु-" चतूरेखं मध्यफलं " इति यद्यप्युक्तं, तथापि यस्य ग्रहस्याष्टकवर्गशुद्धिस्तदानीं विलोक्यमानाऽस्ति, तस्य शुद्धिपतेर्ग्रहस्य स्वतः समुत्था रेखा यदि संपद्यते तदा चतूरेखमपि श्रेष्ठ, तदभावे षड्विधादि. बलालङ्कृतस्य तन्मित्रग्रहस्य स्वतः समुत्था रेखा यदि संपद्यते तदापि चतूरेख प्रशस्यं । तस्या अप्यभावे स एव शुद्धिपतिम्रहो यदि वामवेधेन शुभः स्यात्तदाऽपि चतूरेख शुभं । प्रकारत्रयस्याप्यभावे त्वधिकरेखोऽपि ग्रहो न शुभ इति व्यवहारप्रकाशे। तथा षट्पञ्चाशदिति रेखासर्वाग्रं यदुक्तं, तद्राहोः सर्वथा रेखा न सन्तीति मतेन । केचित्तु राहोरपि रेखाः प्राहुः । तथाहि" केन्द्राष्टद्वित्रिगः १-४-७-१०-८-२-३सूर्याद्राहू रेखाप्रदः स्मृतः । इन्दोस्तनुत्रिधीच्यष्ट धर्मकर्मव्यये १-३.५.७-८-९-१०-१२ स्थितः ॥१॥
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आरम्भ-सिद्धिः
भौभात्तनुत्रिधीरि१-३-५ - १२स्वाम्बुत्र्यष्टान्ति मे २-४-७-८-१२ बुधात् । जीवात्सप्रथमे२-४-७-८-१२-१ शुक्रादरिद्यनायरिष्पगः६-७-११-१२ ॥२॥ शनेस्त्रिधी वधूलामे ३-५-७-११ लग्नाद्राहस्तु शोभनः । त्रिपञ्चसप्तनवमान्त्येषु ३ ५-७-९-१२ रेखाsस्य न स्वतः ॥ ३ ॥ त्रिचत्वारिंशदेवं स्यू रेखा राहृष्टवर्गगाः ।" अथ कस्मिन् कार्ये को ग्रहः सबलोऽन्वेष्यत इत्याहसर्वत्रेन्दुः कुजः संख्ये बोधे ज्ञः स्थापने गुरुः । याने शुक्रः शनिमण्डये बली भानुर्नृपेक्षणे ॥ ६६ ॥ व्याख्या- - सर्वकार्येषु कार्यकर्तुश्चन्द्रो गोचरादिबली विलोक्यत इति शेषः । यदुक्तं -
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'एग १ चउ२ अट्ठ३ सोलस४ बत्तीसा५ सठ्ठि६ सयगुण७ फलाई । तिहि१ रिख्खर वार३ करण४ जोगो५ तारा६ ससंकबलं७ ॥ १ ॥
"
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अत एवोक्तं
कर्तुरनुकूल योगिनि शुभेक्षिते शशिनि वर्धमाने च । तारायोगेऽभीष्टे सर्वेऽर्थाः सिद्धिमुपयान्ति ॥ १ ॥ तत्र चायं विभागः-
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" ग्रामे नृपतिसेवायां संग्रामव्यवहारयोः । चतुर्षु नामभं योज्यं शेषं जन्मनि योजयेत् " ॥ १ ॥ इदं नरपतिजयचर्यायां । तात्कालिक लग्नेऽपि च सर्वकार्येषु चन्द्रबलं नियमेन प्रकल्पयेत् । यत्सारंग:
"लग्नं देहः षट्कवर्गोऽङ्गकानि, प्राणश्चन्द्रो धातवः खेचरेन्द्राः । प्राणे नष्टे देहधात्वङ्गनाशो, यत्नेनातश्चन्द्रवीर्य प्रकल्प्यम् ॥ १ ॥
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संख्यं युद्धं । बोधो विद्या । स्थापनं पदप्रतिष्ठाविवाहादि । यानं प्रस्थानं । मौण्ड्यं दीक्षा । नृपेक्षणे इति यो यस्य स्वामी स तस्य नृपः तस्य दर्शने । अयं भावः - यदैतानि कार्याणि लग्नबलात् क्रियन्ते तदैषां ग्रहाणामुदितत्वेन वा लग्नस्थत्वेन वा लग्न/धिकृतषङ्घर्गाधिपत्वेन वा केन्द्रोपचयस्थत्वेन वा षड्विधादिबलालङ्कृत्वेन वा सबलत्वं लग्ने कार्य, कार्यकर्तुश्चैषां गोचरबलं ग्राह्यं । यदा तु मुहूत्तमात्रबलात् क्रियन्ते तदैषां गोचरबलं वारहोरादि च प्राह्यम् ॥ अथ राशावागतः को ग्रहः कदा फलद दइत्याह
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द्वितीय विमर्श
ज्ञोऽखिले फलदो राशावादावादित्यमंगलौ । मध्ये सुरासुराचार्यौ प्रान्ते त्विन्दुशनैश्वरौ ॥ ६७ ॥
व्याख्या - - फलद इति शुभगोवरस्थः शुभं फलं दत्ते, अशुभगोचरस्त्वशुभमिति भावः । राशाविति यस्तेन स्वयमाक्रान्तोऽस्ति तस्मिन् । आदाविति आद्यद्रेष्काणे | मध्ये इति द्वितीयद्वेष्काणे । प्रान्ते इति तृतीयद्वेष्काणे । इदं च सहजगतौ वर्तमानानां ग्रहाणामुक्तं । यदा तु वक्रेणातिचारेण वा ग्रहा राज्यन्तरं गताः स्युस्तदैवम्
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पक्षं १ दशाहं २ मासं ३ च दशाहं ४ मास पञ्चकम् ५ । वक्रेऽतिचारे भौमाद्याः पूर्वराशिफलप्रदाः ॥ १ ॥ इति लल्लः । सत्यग्रेतनराशेः अतिचरितास्तु पाश्चात्यराशेः फलं
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अत्र पूर्वराशीति व ददतीत्यर्थः । प्रश्नप्रकाशक रस्त्वाह
वक्रsतिचारे भौमाद्याः पूर्वराशिफलप्रदाः । जीवः शनिश्च यत्रस्थौ तस्य राशेः फलप्रदो ॥१॥
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"
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राश्यन्तगतः खेटः परभावफलं ददाति पृच्छासु । अन्त्यघटीं यावदसावासीनफलं विवाहादौ ॥ १ ॥
"
अन्न राश्यन्तोऽन्त्यत्रिंशांशरूपः ॥ विरुद्धे ग्रहगोचरे पुंसा विशिष्य सत्कर्मनिरतेन भाव्यं सुदूर यात्राहयवाहनवि कालचर्यासाहसादि च त्याज्यं, सदापि चैवं न निर्वहतीत्यतस्तच्छान्तिकमाह
अर्कारियो १ स्य २ गुरोः ३ सितेन्द्रो ४ मन्दस्य ५ राहुरगयो ६ च तुष्टयै ।
विशेषस्तु -
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सदा वहेद्विद्रुम १ हेम २ मुक्ता ३
"
रूप्याणि ४ लोहं ५ च विराटजं ६ च ।। ६८ ।। व्याख्या - विद्रुमादीनां षण्णां पूर्वार्धस्थैरर्कारयोरित्यादिपदैर्यथासंख्यं योगः। उरगः केतुः । विराटजो राजावर्तमणिः । ननु सप्तानां ग्रहाणां सर्वदा विचार्य गोचरफलमुक्तं, दिनमासवर्षहोराधिपत्यमप्येषामेव, तत्कथं राहुकेत्वोर्ग्रहस्वं कथं वा तयोः प्रतिकूलगोचरत्वं यच्छान्त्यर्थं विराटजादिवहनं क्रियते ? उच्यते - तयोर्दिनाधिपत्याद्यभावोऽस्तु, ग्रहत्वं स्वस्त्येव, राश्यादिचारस्यान्यथाऽनुपपत्तेः । राहुगोचरश्च ग्रहणदिने विचार्यः इत्युक्तं, ततस्तदा तस्प्रतिकूलत्वे तच्छान्तिकमुपयुज्यते । केतुरपि यदोदितः स्यात्तदा तदुत्थारिष्टशान्तये तच्छान्तिकस्योपयोगः॥ तथा
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आरम्भ-सिद्धिः
पूषादितोषाय च पद्मराग १
मुक्ता २ प्रलानि ३ वासगारुडानि ४ । सपुष्परागं ५ कुलिशं ६ च नील ७
गोमेद ८ वैडूर्य ९ मणीन्वहेत ॥ ६९।। व्याख्या-स्पष्टा ॥ तदर्थमेव नानान्याहएलाशिलापद्मकयष्टयुशीरसुराहकश्मीरजशोणपुष्पैः। अर्के विधौ कैरवपञ्चगव्यैः, सशंखशुक्तिस्फटिकेभदानैः। ७०॥
व्याख्या--शिला मनःशिला । यष्टिर्यष्टीमधुराबो देवदारुः । शोणेति रक्तकणवीरपुष्पैरिति । स्नायादितिपदेन त्रिसप्ततितमवृत्तस्थेन सह योजनीयमिदं । भावश्चाय-एतानि जलमध्ये प्रक्षिष्य मंत्रपूर्व स्नानं कार्य रविवारे । एवमग्रेऽपि तत्तद्ग्रहस्य वारोऽनुक्तोऽप्यूह्यः । पञ्चगव्यं चैवं पराशरोक्तम्" कृष्णाया गोमयं मूत्रं नीलायाः कपिलाघृतम् ।
सुरभेर्दघि शुक्लायास्ताम्रायाः क्षीरमाहरेत् ॥ १ ॥"
इभानां दानंः मदवारि ॥ भौमे बलाहिंगुलबिल्वकेसरैमास्या फलिन्याऽरुणपुष्पचन्दनः सुवर्णमुक्तामधुगोमयाक्षतैः, सरोचनामूलफलैर्बुधे पुनः॥७॥
व्याख्या-बलेति बलधान्यं । बिल्वेति बिल्वफलं । केसरो बकुलगुः । मांसी मुरमांसिनाम्नी । फलिनी प्रियंगुः । अरुणपुष्पी जपाकुसुमं । चन्दनं रक्तचन्दनं । मूल फलैरिति नारंगस्येति वसिष्ठः ॥
जीवे सजातिकुसुमैः सितसर्षपयष्टिमल्लिकापत्रैः।। मूलफलकुंकुमैलामनःशिलाभिस्तु दैत्यगुरौ ॥ ७२ ॥
व्याख्या-मल्लिकेति विचकिलपत्रैः । मूलफलेति बीजपूर्या इति वसिष्ठः॥ कृष्णतिलाञ्जनलाजैः शतपुष्पीरोधमुस्तकबलाभिः । तरणितनये च गोचरविरुद्धराशिस्थिते लायात् ॥ ७३ ॥
व्याख्या-अञ्जनं सौवीराअनं । लाजा ब्रीहिधानाः । शतपुष्पीति सोमा नाम । भास्करस्विदमायाह
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द्वितीय विमर्शः
२७
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" रोधगर्भतिलपत्रकमुस्ताहस्तिदानमृगनाभिपयोभिः । । स्नानमेतदपरोधति राहोः, साजमूत्रमिदमेव च केतोः " ॥ १॥
पीडामितिशेषः ॥ "सप्रियंगुरजनीद्वयमांसीकुष्टलाजसितसर्षपचन्द्रः ।। वारिभिः सह वचैः सह रौ]ः, स्नानमत्ति निखिलग्रहपीडाम्" ॥२॥ ____ स्नानं च नृपादीनामेवोचितं । अन्यो जनस्तु"रत्त१ सेयर रत्तं३ नील४ पीअं५ सिअं६ तिसु किन्हं९ । पूरं बलिं च कुजा सूराईणं विरुद्धाणं " ॥ १ ॥ इति हर्षप्रकाशे ॥
॥ इति गोचरद्वारम् ॥ ६ ॥ इति श्रीमति आरंभसिद्धिवार्तिके राशि १ गोचर २
परीक्षात्मको द्वितीयो विमर्शः संपूर्णः ॥ २ श्रीसूरीश्वरसोमसुन्दरगुरोनिःशेषशिष्याग्रणी
गच्छेन्द्रः प्रभुरत्नशेखरगुरुर्देदीप्यते साम्प्रतम् । तच्छिष्याश्रव हेमहंसरचितस्यारंभसिद्धेःसुधी
शृङ्गाराभिधवार्तिकस्य किल दृ२ संख्यो विमर्शोऽभवत् ॥ १ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
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॥ तृतीयो विमर्शः॥३
॥ अथ कार्यद्वारम् ॥७ अथ कार्यद्वारमाहकार्य वितारेन्दुबलेऽपि पुष्ये,
दीक्षां विवाहं च विना विदध्यात् । पुष्यः परेषां हि बलं हिनस्ति,
बलं तु पुष्यस्य न हन्युरन्ये ॥१॥ व्याख्या-कार्य प्रस्तावात्सौम्यं । वितारेन्दुबलेऽपीति गोचरेणाष्टकवर्गण वा विरुद्ध चन्द्रे, जन्मप्रत्यरानैधनादितारासु चेत्यर्थः । सतारेन्दुबले तु विशेज्येति भावः । अपिशब्दात् पुष्यः, पञ्चरेखे सप्तरेखे वा चक्रे दुष्टग्रहेण विद्धो यदि स्यात् , पापग्रहेणाकान्तो वा भुक्तो वा भोग्यो वा, पश्चिमायां दक्षिणस्यां वा गमनेऽन्तरा परिघदंडपातेन तदिग्विपरीतो वा तदापि, पुष्ये चन्द्रयुक्ते सति पुष्यस्योदयसमये, पुष्यसत्के मुहूर्त वा, प्रतिष्ठायात्राक्षौरानप्राशनोपनयनविद्यारंभश्वेतवस्त्रपरिधानादि सर्व शुभकार्य कुर्यादिति रत्नमालाभाष्ये। दीक्षां च विवाहं च विनेति उपलक्षणत्वात्कन्यावरणाद्यपि पुष्ये न कार्य । पुरा किल प्रजापतिः पुष्पनक्षत्रे प्रेयसीमुदूढवान् , नक्षत्रानुभावांदतीव कामाा पीडितस्तां सोढुमशक्नुवन् “भाः पापाऽतः परं विवाह कार्येष्वनधिकारी भूया" इति पुष्यं शप्तवान् इति श्रुतिः । उक्तञ्च विवाहवृन्दावने-"पुष्यः स्म पुष्यत्यतिकाममेव, प्रजापतेः प्राप स शापमसात्" कामपोषकत्वादेव दीक्षायामप्यनधिकारी पुष्य इत्यूयं । परेषामिति कुतिथिकुवारकुयोगादीनां । अन्ये इति वारतिथ्यादयः । ते किल यथा पुष्यस्य बलं न हन्युस्तथा ग्रहवेधविरुद्धतारत्वादिरूपं पुष्यस्य दोषमपि न हन्युः । पुष्यस्तु स्वयमेव स्वदोषं हन्तीति भावः । अत एवाहुः
" सिंहो यथा सर्वचतुष्पदानां तथैव पुष्यो बलवानुडूनाम् "
अथ कार्यभेदान्नक्षत्राणांभेदमाहअधोमुखानि पूर्वाः स्युर्मूलाश्लेषामघास्तथा । भरणीकृत्तिकाराधाः सिद्धयै खातादिकर्मणाम् ॥ २॥
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द्वितीम-विमर्शः
व्याख्या-आदिपदाद्वापीकूपनटाकपरिखादिखनन निधानोदारक्षेपातविवरप्रवेशधातुकर्मनृपविग्रहगणितारंभादीनि ॥ तिर्यमुखानि चादित्यं मैत्रं ज्येष्ठा करत्रयम् । अश्विनीचान्द्रपौष्णानि कृषियात्रादिसिद्धये ॥३॥
व्याख्या-आदेरश्वराजगवादितिर्यग्दमनवाणिज्यनृपसन्धिप्रवहणनौकर्मशकटरथयंत्रप्रवाहादीनि ॥ ऊ स्यान्युत्तराः पुष्यो रोहिणी श्रवणत्रयम् । आर्द्रा च स्युजच्छत्राभिषेकतरुकर्मसु ॥ ४ ॥
व्याख्या-कर्मस्विति बहुवचनाद् दुर्गप्राकारतोरणोच्छ्यारामविधिपट्टामिकादिष्वपि ॥ सामान्येन कार्यमुक्त्वाऽथ स्वस्वस्थाने नामप्रकाशनपूर्वमुपयोगिन कियतोऽपि कार्य विशेषानाहऋत्वाद्यधुचतुष्टयवर्जी विषमासु रात्रिषु न योषाम् । सेवेत पुत्रकामः पौष्णमघामूलभेष्वपि च ॥५॥ __व्याख्या-वीति । उक्त विवेकविलासे-- " निशाः षोडश नारीणामृतुः स्यात्तासु चादिमाः ।।
त्तिस्रः सर्वैरपि त्याज्याः प्रोक्ता तुर्यापि केनचित ॥१॥" यत:" चतुर्थ्यां जायते पुत्रः स्वल्पायुर्गुणवर्जितः । विद्याचारपरिभ्रष्टो दरिद्रः क्लेशभाजनम् ॥ २॥"
विषमास्विति । यतः“ समायां निशि पुत्रः स्याद्विषमायां च पुत्रिका ।"
न योषामिति निषेधमुखेनोक्तिर्वचनगुप्तिसत्यापनार्थ । एवमग्रेऽपि निषेधमुखोक्तौ विचार्य पौष्णेति, उक्तञ्च“ गर्भाधाने मघा वा रेवत्यपि यतोऽनयोः । पुत्रजन्म दिने मूलाश्लेषे स्तस्ते च दुःखदे ॥ १॥"
अन मूलाश्लेषे स्त इति “ आधानादृशमे जन्मेति " वचनात् । " रत्नानीव प्रशस्तेऽह्नि जाताः स्युः सूनवः शुभाः । अतो मूलमपि त्याज्यं गर्भाधाने शुभार्थिभिः ॥ २ ॥"
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:- १००
आरम्भ-सिद्धिः
सीमन्तः स्यान्नृवारेषु मासि षष्ठेऽष्टमेऽपि वा । हस्तमूलमृगादित्यपुष्यश्रुतिषु योषिताम् ॥ ६ ॥
व्याख्यानृवारा रविकुजजीवाः । हस्तेत्यादि त्रिविक्रमेण तु पुंनक्षत्रे-वित्युक्तं, तत्राप्येतान्येव भानि संगृहीतानि एषामेव पुंस्त्वात्, शेषाणां तु.. स्त्रीत्वात् । विशेषस्तु -
अर्धाग्विवाहकालाच पितृचन्द्रबलं सदा । स्त्रीणां सीमन्त उद्वाहे ग्राह्यमन्यत्र तत्पतेः ॥ १ ॥ " इति व्यवहारप्रकाशेबिषकौमारजन्म स्याद् द्वितीयाशनिसार्पमैः । सप्तम्यारशतक्षैश्च द्वादश्यर्काग्नि भैस्तथा ॥ ७ ॥ व्याख्या- - एभिर्यथोक्त तिथिवारभयोगैर्जातं विषापत्यं स्यात् । विषकन्याख्या प्रथमं पित्रोर्वशक्षयंकरी ।
"
हन्ति पश्चात् पतिं श्वश्रं श्वशुरं देवरं तथा ॥ १ ॥ विशेषस्तु - अभिजित कृतं सर्व कार्य शुभं स्यात्, जातमपत्यं तु प्रायो म जीवतीति व्यवहारप्रकाशे ॥ मूलजाताद्याश्रित्याह
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८८
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मूलस्यांहिचतुष्के पितृ १ मातृ २ द्रव्यनाश३ सौख्यानि । बालस्यजन्मनि स्युः क्रमतः सार्पस्य तृत्क्रमतः ॥ ८ ॥
व्याख्या - सौख्यानीति, वराहस्तु मूलतुर्य पादफलमेवमाह - " क्षेत्राधिपसंदृष्टे शशिनि नृपस्तत्सुहृद्भिरर्थपतिः । द्रेष्काणांशक पैर्वा प्रायः सौम्यैः शुभ नान्यैः १ ॥ १ ॥
,
इदं तात्कालिक जन्मलग्नं विचार्यं । भत्र क्षेत्राधिपेति तदानीं यत्र राशौ चन्द्रोऽस्ति तद्राशीशो यदीन्दुं पश्येत्तदा मूळतुर्यपादजो नृपः स्यात्, तद्वाशीशस्य सुहृदः पश्येयुस्तदाऽर्थपतिः स्यात्, चन्द्राक्रान्तस्य द्वेष्काणस्य नवांशस्य वा स्वामी यदि सौम्यश्चन्द्रं पश्येत्तदा शुभं क्रूरेण त्वशुभमिति । बालस्येति केऽप्याहु:
" मूलस्यांह्निचतुष्के क्रमेण पशुनाशिनी १ सुखकरी २ च । पितृपक्षमथ क्षपयति ३ मातुलपक्षं च ४ जाता स्त्री ॥ १ ॥
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द्वितीय विमर्श
मूले जातोऽधमः स्यान्ना, स्त्री तु पुण्यवती भवेत् । ज्येष्ठा मघा विपरीताऽश्लेषा तदुभयेऽधमा ॥ २ ॥
मस्तके
सुखे
तृतीया दशमी कृष्णा शनिभौमशसंयुता । शुक्लचतुर्दशीमूलजातः संहरते कुलम् " ॥ ३ ॥
सार्पस्य तुत्क्रमत इति । यदुक्तम्
सार्पा प्रथमे राजा, द्वितीयांशे धनक्षयः । तृतीये जननीं हन्ति चतुर्थे पितृघातकः " ॥ १ ॥ मूलपुरुषमाह - मूर्धा५ स्य५ स्कन्ध८ बाहा८ कर२ हृदग८ कटी २ गुह्य १० जानु६ क्रमेषु, स्युर्घट्यः पञ्चपश्चोरगकरटिक राष्टद्विदिक्तर्कतर्काः । बालइछत्री १ पितृनो२ सलहढबलवान् ३ राक्षसो ४ ब्रह्मघाती राजा ६ नाशी ७ स्वसोख्यावह ८ इह चपलो ९
नश्वर १० श्वासु जातः ॥ ९ ॥
व्याख्या -- स्कन्धेति द्वयोः स्कन्धयोः प्रत्येकं चतस्रश्चतस्र इति घट्यष्टकं द्वैधीकृत्य स्थाप्यं, एवं करजानुपादेष्वपि । अन्यत्रापि यथायोगमूह्यं । अंसलदृढबलवानित्यखंड | आसु मूर्धादिन्यस्तपञ्चादिघटीषु । केऽप्याहु:
स्कन्धयोः
बाह्रोः हस्तयोः
66
५
፡
राजा
पितृहन्ता स्कन्धलः दैल
:
२ ब्रह्मन्नः
हृदये कठ्यां
मूल-पुरुष
स्थापना जान्वोः
पादयोः
१०१
८ राज्यधरः
अल्पायुः
सुखी
चपल:
अल्पायुः
१०
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६
"ब्रह्महत्याकरः पाणौ यद्वा मातुलघातकः । गुह्यजातो धनं हन्याद् वृद्धत्वे च सुखी भवेत् ॥ १ ॥
न जीवेद्वामजंघायां पान्थो वा जायते नरः । दक्षिणस्यां तु जंघायां जातकः स्यान्महाधनी ॥ २ ॥
कृच्छ्राजीवति वामेऽहो दक्षिणे धनपुण्यवान् ।' इति, अन्ये मूलं वृक्षरूपमेवमाहु:"पात् १ स्तम्ब२ च्छल्लि३ शाखा४ दल५ कुसुम६ फले७ स्युः शिखार्यांटच घट्यो,
9
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आरम्भ- - सिद्धिः
मूलद्रोर्वाधि४ सप्ता७ टक८ दशक १० नवे९ व५ ६ रुद्र११ प्रमाणाः । मूला १ ६२ भ्रातृ३ मातृन्४ क्षपयति पतति५ प्रौढमंत्री ६ नृपश्च ७, स्यादेतासु प्रसूतः श्रयति कृशतरं चायुरेतच्छिखायाम् ८ ॥ १ ॥
मूलवृक्ष स्थापना
१०२
मूले ४ मूलपातः थु अर्थहानिः त्वचि ፡ भ्रातृनाश: शाखायां १० मातृनाशः पत्रे ९ म्रियते पुष्पे ५ मंत्री स्यात् फले ६ राज्याप्तिः शिखायां ११ स्वल्पायुः
स्कन्धलः ८ पितृहा ९ नेता १० फलं ज्ञेयं यथाक्रमम् ॥ ३ ॥ एवमेव मूलवृक्षाद्विपरीतोऽश्लेषावृक्षोऽपि शास्त्रान्तरोक्तोऽभ्यूः । नवरं
घटीक्रमस्तत्रापि मूलवृक्षवदेव |
पादयोः ५ मरणं
जान्वोः
५
भ्रमणं
፡
፡
गुदे
नाभौ
हृदये
केचिच्छिखायां परमायुराहुः | शास्त्रान्तरे तु मूलनराद्विपरीतोऽश्लेषानरोऽप्येवमूचे, तथाहि"अश्लेषाघटिकापष्टिरेव स्थाप्या नराकृतिः । आदौ पादद्वये पञ्च जान्वोः पञ्च गुदेऽष्ट च ॥ १ ॥ नाभावष्टौ हृदि द्वौ च पाण्योरौ द्वयं भुजे । स्कन्धयोर्दशकं वक्त्रे षट् शीर्षे षडितिक्रमात्र मृति १ भ्रमः २ सुखं ३ व्याधी ४ राज्यं ५ हत्या ६ च दैत्यता ७ ।
मुखं
व्याधिः
राज्यं
शिखायां ४
फले
७
पुष्पे
पत्रे
अश्लेषानर
स्थापना
हस्तयोः ८
२
वाह्वोः स्कन्धयोः
१०
मस्तके ६
နို
हत्याकृत्
दैत्य
स्कंधल
पितृघ्नः
राजा
शाखायां ९ मातृनाशः:
स्वल्पायुः
राज्याप्तिः अश्लेषावृक्ष स्वशि ५ भ्रातृनाश मंत्री स्यात् थु
अर्थहानिः
८
स्थापना
१० मृत्युः
मूले
मूलनाशः
|१०
विवेकविलासादौ तु मूलाश्लेषयोर्मुडूत्तः फलमूचे, तथाहि" आद्यः षष्ठस्त्रयोविंशो द्वितीयो नवमोऽष्टमः । अशदशश्च मूलस्य मुहूर्ता दुःखदा जनौ ॥ १ ॥
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द्वितीय विमर्श:
त्रयोविंशपञ्चविंशौ द्वाविंशोऽत्रयोदशौ । एकोनत्रिंशत्रिंशौ च सा स्युरशुभाः क्षणाः ॥ २ ॥ " कुत इदमेवमिति चेदुच्यते-एषां मुहूर्त्तानां क्रूरस्वामिकत्वोक्तेः तथाहिराक्षसो१ यातुधानश्च२ सोमः ३ शक्रः४ फणीश्वरः ५ । पितृ६ मातृ७ यमाः कालो९ वैश्वदेवो१० महेश्वरः ११ ॥ १ ॥ साध्यदेवः १२ कुबेरश्च १३ शुक्रो१४ मेघो१५ दिवाकरः १६ । गन्धर्वो १७ यमदेवश्च १८ ब्रह्मविष्णुमयस्ततः १९ ॥ २ ॥ ईश्वरो२० विष्णु२१ रिन्द्राणी २२ पवनो२३ मुनय२४ स्तथा । षण्मुखो२५ भृंगिरीटी२६ च गौरी२७ मातृ२८ सरस्वती२९ ॥३॥ प्रजापतिश्च३० मूलस्य त्रिंशन्मुहूर्त्तनायकाः । विपरीताः पुनर्ज्ञेया अश्लेषाजातबालके ॥ ४ ॥
त्यजेन्न वीक्षेत समाष्टकं वा, बालं पिता मूलविकारशान्त्यै। शतौषधीमूलमृदम्बुरत्नैः, स्नायाच्च हुत्वा सशिशुप्र सूकः ॥ १० ॥ व्याख्या - त्यजेदिति स्वगृहादिति शेषः । समा वर्षाणि । शतौषधीति मुलशतमृत्तिकासप्तकयुततीर्थोदकपञ्चरत्नैः साहचर्यात् पञ्चगव्यदन्तिमद सबीजकषायपञ्चकसर्वोषधियुतैः सौवर्णमूल नक्षत्रेण राक्षसरूपेण सह शतच्छिद्रकुम्भमध्यक्षिसेतज्ज्ञोक्तविधिना हवनपूर्वं । सशिशुप्रसूक इति मूलजातशिशुना तज्जनन्या च सह स्वायात् । अश्लेषाजातेऽप्येवमेव, नवरं तत्र सौवर्णसर्परूपेण सहेति ज्ञेयं । एतच्च मलाश्लेषाविधानं सविस्तरं : गृहस्थधर्मसमुच्चयादिग्रन्थेषूक्तमपि बहुसावद्यत्वानेह प्रतन्यते । बहुसावद्यारंभपातकभीरुणा तु मूलाश्लेषाजाते बालके सति, सर्वनक्षत्र भोक्तृनवग्रह सतत सेव्यमानपादपीठस्य श्रीमदर्हतो विशिष्य च मूलनक्षत्रजातस्य श्रीसुविधिजिनस्याष्टोत्तरशतीय विधिना शास्त्रोक्तेन समहोत्सवं स्नानं कार्य | एवमपि सकलक्षुद्रोपद्रवोपशमस्य सर्वत्र साक्षादर्शनात् । अत्र केऽप्याहु:" विष्कंभादिकुयोगेषु कुलिके सत्रिपुष्करे । संक्रान्तौ दुर्दिने विष्टौ मूलाश्लेषाजबालके ॥ १ ॥ गणकैर्नैव कर्तव्य पौष्टिक मूलसापयोः" इति ॥
"C
-
जन्मादौ नक्षत्रभेदानाह - कुलभान्यश्विनी पुष्यो मघा मूलोत्तरात्रयम् । द्विदैवत मृगचित्राकृत्तिकावासवानि च ॥ ११ ॥
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१०४
आरम्भ-सिद्धिः
%
उपकुल्यानि भरणी ब्राह्म पूर्वात्रयं करः ।
ऐन्द्रमादित्यमश्लेषा वायव्यं पौष्णवैष्णवे ॥ १२ ॥ व्याख्या-वैष्णवं श्रवणम् ॥ पूर्वेषु जाता दातारः संग्रामे स्थायिनां जयः।
अन्येषु त्वन्यसेवार्ता यायिनां च सदा जयः । १३॥ व्याख्या--स्थायिनामिति एषु भेषु यदि युद्धं स्यात्तदा स्वस्थानस्य राहो जयः स्यात्, चटित्वाऽऽयातस्य तु राज्ञः पराजयः स्यात् । अन्येषूपकुल्येषु जाता भन्यसेवकाः स्युः, युद्धे च यायिनां जयः, नागराणां पराजयः, येन प्रथमं यात्रोद्यमः कृतः स यायी, येन पश्चात् स नागरः ॥
कुलोपकुलभान्यार्दाभिजिन्मैत्राणि वारुणम् । फलन्त्येतानि पूर्वोक्तद्वयसाधारणं फलम् ॥ १४ ॥ व्याख्या- साधारणमिति, जाता दातारोऽपि स्युरन्यसेवकाश्च, युद्धे चसन्धिः स्यात् । उक्तं च--" कुलोपकुलभे सन्धिरिति " ॥ वाराणां कुल्यादित्वमाह
गुर्वार्कीन्दवः कुल्या उपकुल्यः कुजः सितः। तमश्चाथ बुधो मिश्रस्तत्र नक्षत्रवत्फलम् ॥ १५॥ व्याख्या-तमो राहुः । अयं वारत्वाभावेऽपि ग्रहप्रसङ्गादूचे । मिश्रः कुलोपकुलः । केचित्तिथिवारवेलाराशियोगेन कुल्यत्वमाहुः, तथाहि
" सूर्योदये कुजस्याह्नि नन्दा वृश्चिकमेषयोः १ ।
कुलीरयुग्मकन्यानां भद्रायामे बुधाहनि२ ॥ १ ॥" अन्न यामे इति प्रहरदिनचटनसमये इत्यर्थः ।
"चापसिंहघटानां च मध्याह्ने वाक्पती जया३ ।
वणिग्वृषभयो रिक्ता त्रियामान्ते भृगोदिने४ ॥ २॥" त्रियामान्ते इति तृतीयप्रहरप्रान्ते ।
" सूर्यास्ते शनिवारे तु पूर्णा स्यान्नक्रमीनयोः ५।।
कुलजास्तिथयो वारे वेलायां राशिषु क्रमात् ॥ ३ ॥" एभियोगैर्जाताः कुल्यास्तत एव चोत्तमाः स्युरित्याशयः ॥ रविनरमाह
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द्वितीय विमर्श
मूर्धा ३ स्यां३ स२ भुजा२ करो र उदरा१धोभाग१ जानु२क्रमे ६ ष्वग्नित्रिद्वियमद्विपञ्चकुकुट्टक्तर्केषु भेष्वर्कभात् । नूपः १ स्वाद्वशनो२ऽमलो ३ ऽधिकबल ४श्चौरो५ धनी ६ शीलवान् ७ गरःस्यात्पथिकञ्च ९भिक्षु १०रपि चोत्पन्नः क्रमाद् बालकः ॥ व्याख्या - अर्कभादित्यर्काक्रान्तभं रविनरस्य मूर्धिन दरवा, क्रमाज्जातकस्य जन्मभं यावद् गण्यं ।
मस्तके
मुखे स्कन्धयोः
बाह्वोः हस्तयोः
6
२
२
.
राजा
मिष्टाशी स्कन्धलः
बलवान्
चौर्यरतः
रविनर
स्थापना
हृदये नाभौ
गुह्ये जान्वोः पादयो:
१०५
५ धनवान् सुशील:
बाहुद्वये स्थानभ्रष्टः स्यादित्यपि क्वचित् । विशेषस्तुशतं मूर्ध्नि मुखे स्कन्धे चाशीतिर्भुजहस्तयोः । सप्तसप्ततिवर्षाणि हृन्नाभ्योरष्टषष्टिका ॥ १ ॥ गुझे षष्टिस्तथा जान्वोरष्ट षट् पादयोस्तथा । रविचक्रे क्रमेणैवमायुर्ज्ञेयं विचक्षणैः ॥ २ ॥ जातकर्माद्याश्रित्याह
१ परदाररतः
२ विदेशगमनः भिक्षाचरः
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स्याज्जातकर्म चरलघुमृदुध्रुवक्षैष्वमीषु नामापि । तच्चा विरुद्धमुभयोर्योनी १ गण२ राशि३ तारका ४ वर्गैः ५॥ १७ ॥
1
व्याख्या - जातकर्म षष्ठीजागरादि । चरेत्यादि एषु चन्द्रयुक्तेषु वा एषामुदयसमये वा एतत्संबन्धिषु मुहूर्तेषु वा कार्यं । अस्मिन् प्रकारत्रयेऽपि पूर्वपूर्वस्यालाभे, उत्तरोत्तरः प्रकार आदरणीयो न स्वन्यथा । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे" धिष्ण्यानां मौहूर्तिकमुदयात् शीतरश्मियोगाच्च अधिकबलं यथोत्तरमिति " यदि च तदेव दिनभं क्षणेऽपि च तस्यैव कार्यं क्रियते तदा शुभतरं यच्छौनक:नक्षत्रवत्क्षणानां बलमुक्तं द्विगुणितं स्वनक्षत्रे " इति । एवं सर्वकार्ये भेषु वाच्यं । अमीध्विति नामाप्येषु स्थाप्यं । उभयोरिति प्रस्तावादम्पत्योः गुरुशिष्ययोः स्वामिभृत्ययोश्चेत्याह्यम्-
66
अत्राष्टाविंशतेभांनां योनीराह
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१०६
आरम्भ-सिद्धिः
उडूनां योन्योऽश्व१ द्विप२ पशु भुजङ्गा४ हि५ शुनको६स्व ७ जा ८ मार्जारा ९ खुदय१०-११ वृष १२ मह १३
व्याघ्र १४ महिषाः १५ । तथा व्या!१६णै१७ण १८श्व१९कपि२०नकुलद्वन्द्व२१.२२कपयो२३ हरि२४ाजी२५दन्तावलरिपु२६रऽजः २७कुञ्जर२८इति ॥१८॥
व्याख्या--योन्य इति उत्पत्तिस्थानानि, एताश्च गुरुशिष्यदम्पत्यादियोगार्थ पूर्वाचार्यैः कल्पिता एव, न तु पारमार्थिक्य इति रत्नमालाभाष्ये । पशुरजः । ओतुर्मार्जारः । द्वयेति मघापूर्वीफल्गुन्योराखुः । एवमग्रेऽपि ॥ योनिवैरमाहश्वेणं हरीभमहिबभ्र पशुप्लवङ्गं,
गोव्याघ्रमश्वमहमोतुकमूषकं च । लोकात्तथाऽन्यदपि दम्पतिभर्तृभृत्य
__ योगेषु वैरमिह वज्यमुदाहरन्ति ॥ १९॥
व्याख्या-श्वा च एणश्चेति नित्यवरस्येत्यनेनान्यमते वैरे वाच्ये समाहारद्वन्द्व श्वैणं, यत्रैकस्य जन्मभस्य श्वा योनिरन्यस्य च मृगयोनिः तयोः श्वैणं वैरमित्यर्थः । प्लवङ्गो मर्कटः । अन्यदपीति व्याघेणं श्वमार्जारमित्यादि । भर्तृभृत्ये. स्युपलक्षणत्वाद् गुरुशिष्यादियोगेऽपि । विशेषस्तु
" विहाय जन्मभं कार्ये नामभं न प्रमाणयेत् ।
जन्मभस्यापरिज्ञाने नामभस्य प्रमाणता ॥ १ ॥ " तथा" द्वयोर्जन्मभयोमलो द्वयोर्नामभयोस्तथा ।
जन्मनामभयोर्मेलो न कर्तव्यः कदाचन ॥२॥"
अस्यार्थः-द्वयोर्जन्मभज्ञाने नयोरेव मेलश्चिन्त्यते । एकस्यापि जन्मभापरिज्ञाने तु द्वयो भयोरेव चिन्त्यः, परमेकस्य जन्मभमन्यस्य च नामभं एवं न मे लोविलोक्यः । एवमेव गणराश्यादिसर्वप्रकारेषु ज्ञेयं । एतौ व्यवहारप्र. काशे ॥ सप्तविंशतेर्भानां गणानाहदिव्यो गणः किल पुनर्वसुपुष्यहस्त
स्वात्यश्विनीश्रवणपोष्णमृगानुराधाः । स्यान्मानुषस्तु भरणीकमलासनः
पूर्वोत्तरात्रितयशंकरदेवतानि ॥ २० ॥
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द्वितीय विमर्शः व्याख्या-कमलासनक्षं रोहिणी, पूर्वाणामुत्तराणां च त्रितयम् ॥ . रक्षोगणः पितृभराक्षसवासवेन्द्र
चित्राद्विदैववरुणाग्निभुजंगभानि । प्रीतिः स्वयोरति, नरामरयोस्तु मध्या,
. वैरं पलादसुरयोमतिरन्त्ययोस्तु ॥२१॥
व्याख्या-पितृभं मघा, राक्षसं भूलं । स्वयोरिति आत्मीययोः । अतीति अतिशयेन । यन्नामभयोरेक एव गणः स्यात, तयोर्भृशं प्रीतिरित्यर्थः । अन्त्य यो रक्षसो । उक्तञ्च
“स्वकुले परमा प्रीतिर्मध्यमा देवमर्त्ययोः ।
देवराक्षसयोर्वैरं मरणं मर्त्यरक्षसोः ॥ १ ॥" अभिजिद्विद्याधरगणे इति क्वचित् । विशेषस्तु-मुख्यस्य वरादे रक्षोगणो, गौणस्य च कन्यादेगणस्तदाप्युभयो: सदाशिकूटत्वे १ तत्स्वामिमैन्ये २ योनिशुद्धौ ३ नाडीवेधशुद्धौ ४ च सत्यां सुयोग एव । यद् गर्गः" रक्षोगणो यदा पुंसः कुमारी नृगणा भवेत् । सद्भकूटं १ खगप्रीति २ योनिशुद्धि ३ स्तदा शुभम् ॥ १ ॥" अथ राशिकूट, राशीनां मिथो वैरमैव्यादि चाहराशेरोजान्मृतिः षष्ठे सर्वाः स्युः संपदोऽष्टमे । राशौ द्विद्वादशे नैःस्व्यं स्वामिमैत्र्ये पुनः श्रियः ।। २२ ॥
व्याख्या-यन्त्र द्वयो राशी मिथः षष्ठाष्टमौ स्यातां, तयोः षडष्टमकाभ्यां राशिकूटं, एवं द्विद्वादशनवपञ्चमादिष्वपि भाव्यं । मृतिरिति यत्रोजान्मेषमिथु. नादितः सकाशात् षष्ठो राशिः स्यात्तत्किल शत्रुषडष्टमकं राशीशानां मिथो वैरसद्भावात् । तत्र यस्याष्टमो राशिस्तस्य मृत्युः स्यादिति रत्नमालाभाष्ये । संपद इति ओजादेव सकाशादष्टमे राशौ सति यत्स्यात्तत्प्रीतिषडष्टमकं राशीशानां मिथ: प्रीतिसद्भावात् । तदयं भावः" मकरवृषमीनकन्यावृश्चिककर्काष्टमे रिपुत्वं स्यात् ।। अजमिथुनधन्विहरिघटतुलाष्टमे मित्रताऽवश्यम् ॥ १॥"
ननु वैरमैञ्यादिद्वयोर्जन्मलमयोर्विचारयितुमुचितं, तस्यैव सर्वत्र बलवस्वात्, तल्कि जन्मराश्योरिहोक्तं ? उच्यते
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आरम्भ-सिद्धिः
""
" जन्मलग्नमिदमङ्गमङ्गिनां मेनिरे मन इतीन्दुमन्दिरम् । सौहृदं च मनसोर्न देहयोमैलकस्तदयमिन्दुगेहयोः ॥ १ ॥ ननु यद्येवं तदाऽस्तु राशिमैत्र्यादिविचारः परं स्थूलमानं यदस्ततो जन्मराशिस्थनवांशयोस्तद्विचारों युक्तः "प्रभुरिह नवांश" इश्युक्तेः, मैवं, स्थूलस्यैवात्र पूर्वाचार्यैः प्रमाणीकरणात, नो चेत्कर्कस्थे मकरांशेऽपि गतोऽर्कः किं नोत्तरायणीत्युच्यते ? तथा यथोक्तदैव सिकनक्षत्रविरहेऽपि तदुदये तन्मुहूर्तेषु वा, जातकर्मक्षौरादिकार्याणीव करग्रहोऽपि किमिति नानुमन्यते ? अतः स्थूलस्यैवात्र प्रामाण्यं । नापि सूक्ष्मत्वमप्रमाणमेव । यतः — " भिन्नभिन्नफलभाग्भुवि भूयांने कधिष्ण्यदिनजोऽपि जनोऽयम् । सूक्ष्मतापि ननु तेन गरिष्ठा, किंतु मूलमनुरुध्य विधेया ॥ २ ॥”
१०८
अधिदिनेत्युपलक्षणं, तेनैकलग्नजोऽपीत्यपि ज्ञेयं । तदयमाशय:कि नवांशद्वादशांशत्रिंशशिकला विकलादीनि यथोत्तरं सूक्ष्माणि सन्ति ततः" अत्यन्तसूक्ष्मः स कलेकदेशो, येनाखिलानां भिदुरा फलद्धिः । नास्मादृशां दृग्विषयः स तस्मान्मूलानुकूला व्यवहारसिद्धिः ॥ ३ ॥"
इदं वृन्दावने । अत्र मूलानुकूलेति पूर्वाचार्यैर्यत्र यत्प्रमाणीकृतं तत्तत्र मूलं, ततो जन्मादिलग्भेषु कलादिकं यावद्विचार्यते, इह तु राशेरेव मैत्री विचार्या, तथैव पूर्वाचार्यैः प्रमाणीकरणात् इत्यलं प्रसङ्गेन । द्विविधषडष्टमक
स्थापना यथा
६
वृष
कर्क
नैः ख्यमिति द्विद्वादश तावत्स्वभावतो दारिद्र्यकरं । स्वामिमैग्य इति तद्राशिस्वामिनोर्यदि मिथो मैत्री, उपलक्षणत्वाद्वाइयोरेकस्वामित्वं वा तदा
fare शुभतरं । यदि चैकस्य माध्यस्थ्ये सतीतरस्य मैत्री तदापि द्विद्वादश शुभमेव । पारिशेष्याद्यदि राशीशयोर्मिथो वैरं यद्वैकस्य माध्यस्थ्ये सतीतरस्य "वरं यद्वोभयोर्मिंथो माध्यस्थ्यमेव तदा न शुभं । यत्सारंग:
•
८
धनुः
कुंभ
मेष
"
कन्या
वृश्चिक | मिथुन सिंह मीन तुला
मकर
शत्रुता
प्रीतिः
9
६
मेष
मिथुन
सिंह
८
वृश्चिक
मकर
मीन
तुला
धनुः कुंभ कन्या
वृष
कर्क
" प्रीतिरायुमिथो मैत्र्यां सुखं स्यात्सममित्रयोः । द्वयोः समत्वे न स्नेहो न सुखं समवैरिणोः ॥ १ ॥
""
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एषां स्थापना यथा
२
मेष
मिथुन
सिंह
तृतीय विमर्श
---
१२
,
मीन
वृष
कर्क
तुला
धनुः
कुंभ एतानि षड् द्विदशानि श्रेष्ठानि
कन्या
वृश्चिक
मकर
२
कन्या
इदमपि शुभम्
वृश्चिक तुला
१२
सिंह
अत्राद्येषु पञ्चसु राशीशग्रहयोमिथो मैत्री, षष्ठे एकस्वामिकत्वं, सप्तमे त्वेकस्य माध्यस्थ्यमितरस्य मैत्री, तेनैतानि सप्त प्रीतिद्विद्वादशानि । शेषे त्वाचतुष्के स्वामिनोमिथो माध्यस्थ्यं पञ्चमे त्वेकस्य माध्यस्थ्यमन्यस्य वैरं, ""हिमांशुबुधयोर्वैरं” इति मते मिथो वैरं वा तेनैतानि पञ्च शत्रुद्विद्वादशानि । त्रिविक्रमोs ऽप्याह " सिंहवर्जविषमराशितो द्वितीयत्वे सति यानि द्विद्वादशानि स्युस्तान्यशुभानि यानि तु समासिहाच्च द्वितीयत्वे सति स्युस्तानि शुभान्येवेति " । केचिचाड्यादिचतुष्कानुकूल्ये सति मिश्रो माध्यस्थ्यमपि शुभमाहुः । यत्सारंग:
" नाडी? योनि२ र्गणा३ स्ताराष्४ चतुष्कं शुभदं यदि । तदौदास्येऽपि नाथानां भकूटं शुभदं मतम् ॥ १ ॥
99
अदास्य मुदासीनता माध्यस्थ्यमिति यावत् । नाडीतारास्वरूपं स्वग्रे वक्ष्यते । सिंहद्वद्वादशं मुक्त्वा शेषाणि सर्वाणि द्विद्वादशान्यशुभानीति तु व्यवहारप्रकाशे ॥
3
मकर धनुः
मीन
कुंभ
वृष
मेष
एतान्यशुभानि मिथुन
कर्क
इदमशुभतरम्
१०९
श्रेयो मैत्रयात् परे त्वाहुः कलिकृन्नवपञ्चमम् । एकऋक्षे च भिन्नांशे श्रेयः शेषेषु च द्वयोः ॥ २३ ॥
व्याख्या - कलिकृदिति नवपञ्चमं स्वभावात् कलह हेतुः । विवाहे त्वपग्रहानिकरमिति व्यवहारसारे । श्रेयो मैत्र्यादित्यन्ये स्वाहुः - राशीशयोर्मियो यमत्रं तु सत्यां श्रेष्ठमेव । यत्र त्वेकस्य मैत्री, अन्यस्य तु माध्यस्थ्यं तन्म ध्यमं । ( स्थापना पृ. ११० विलोक्या ) विशेषस्तु - प्रीतिनवपञ्चमात् प्रीतिद्विद्वाशकमुत्तमं ततोऽपि प्रीतिषडष्टमकं । तथा
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आरम्भ-सिद्धिः
1
आसन्नस्तु वरो ग्राह्यो नासन्ना कन्यका पुनः मृतैकमातापितरं संग्राह्यं नवपञ्चकम् ॥ १ ॥ श्रेष्ठानि नवपंचमानि एतानि मध्यमानि
""
११०
९
मेष
66
वृष
मिथुन
सिंह
५
सिंह
कन्या
तुला
धनुः
तुला कुंभ
वृश्चिक
मीन
मेष
धनुः
मकर वृष
"6
५
मिथुन
कर्क
वृश्चिक
कन्या मकर
कुंभ
मीन
कर्क
मृतैकेति वरकन्ययोर्मध्यैकस्य मातापितरौ मृतौ,
तदा नवपञ्चमं शुभमेवेति नारचन्द्र टिप्पण्यां । एकऋक्षे चेति ऋक्षशब्दोऽत्र राज्यर्थे ततोद्वयोरपि यद्येक एवं जन्मराशिस्तदा नवांशभेदाच्छुभमेव, द्वयोरप्येकं यदि जन्मभं तदा तु न शुभं । यत्रिविक्रमः
" एक जायते यत्र विवाहे वरकन्ययोः ।
अस्यार्थः -- यदि कन्याया राशितो गणने वरस्य राशिरासन्चो, वरराशितश्च गणने कन्याया राशिरः, एवं सति नवपञ्चमादीनि सर्वाणि शुभानि ।
मूलवेधस्तु स प्रोक्तो महादुष्टफलप्रदः ॥ १ ॥ " लल्लोऽप्याह66 एकनक्षत्रजातानां परेषां प्रीतिरुत्तमा ।
39
दम्पत्योस्तु मृतिः, पुत्रा भ्रातरो वाऽर्थनाशकाः ॥ १ ॥
अपि च ऋक्षशब्दो नक्षत्रार्थेऽप्यस्ति तेनैकनक्षत्रेऽपि पादभेदाच्छुभमेव, एकपादस्वे तु न शुभं । यदुक्तम् —
" नक्षत्रमेकं यदि भिन्नराश्योर भिन्नराश्योरपि भिन्नमृक्षम् । प्रीतिस्तदानीं निविडा नृनार्योश्चेत्कृत्तिकारोहिणीवन्न नाडिः ॥ १॥" अन कृत्तिकारोहिणीवदिति, यथा कृत्तिकारोहिण्योर्मिथो नाडीवेधोऽस्ति, तथा नाडीवेधो यदि स्यादित्यर्थः । तथा-
" नाग्निर्दहत्यात्मतनुं यथा वा, द्रष्टा स्वद्दष्टेन हि दर्शनीयः । एकांशकत्वे समतैव तद्वन्नभर्तृभार्याव्यवहारसिद्धिः ॥ २ ॥ " एकपादत्वेऽपि शुभमेवेत्यन्ये । यदुक्तम्---
पराशरः स्माह नवांशभेदादे कर्क्षराश्योरपि सौमनस्यम् । एकशकत्वेऽपि वशिष्ठशिष्यो नैकत्र पिंडे किल नाडिवेधः ॥३॥"
शेषेषु च द्वयोरिति शेषेषूभयसप्तम १ दशमचतुर्थ २, तृतीयैकादशेषु ३. द्वयोरपि संबन्धिनो: श्रेय एव । राइयोरेवात्र मैत्रीत्यतो न तदीशयो मैत्री विचार्या । यद्गदाधरः
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तृतीय विमर्शः
-
" राशिकुटे शुमे लब्धे ग्रहमैत्री न चिन्तयेत्।
अलामे राशिकूटस्य ग्रहमैत्री तु चिन्तयेत् ॥ १ ॥"
तत्रापि स्वामिमैञ्ये एकस्वामिकत्वे च श्रेष्ठतरमेव । सर्वेषामेषां क्रमात स्थापना यथा
__ सिंह
कन्या
मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या
कुंभ . मीन मेष वृष मिथुन
वृश्चिक धन मकर कुंभ मीन
वृश्चिक धन मकर
-
-
Lal
उभयसप्तमं ।दशमचतुर्थश्रेष्ठतरं
दशमचतुर्थश्रेष्ठं
-
-
पेष
तुला
वृष
कुम
कर्क
कर्क
मकर वृश्चिक कर्क मेष मिथुन मीन मिथुन धन वृश्चिक सिंह सिंह वृष
मकर मेष तुला सिंह कुंभ कन्या मिथुन धनुः कन्या कन्या मीन । मीन धनुः । कुभ वृश्चिक
अनोभयसप्तमेषु तृतीयैकादशेषु च स्वामिमैत्र्यचिन्ता नास्त्येव । दशमचतुर्थेषु त्वाये चतुष्टये मैत्री अन्त्यद्वयोरेकेशत्वं, तेनैतानि षट् श्रेष्ठतराण्यक्तानि । शेषाणि षट् स्वभावादेव श्रेष्ठानि । विशेषस्तु-आदी तावद्भयोन्यादिशुद्धिर्बलिनी, ततोऽपि राश्योर्वश्यत्वं वक्ष्यमाणं, ततोऽपि राशीशग्रहयोमैत्री, ततोऽपि राश्योः । स्वभावमैत्री बलिनी यदुक्तम्--- "स्वभावमैत्री१ सखिता स्वपत्यो२ वशित्व३ मन्योऽन्यभयोनिशुद्धिः ४ । परः परः पूर्वगमे गवेष्यो, हस्ते त्रिवर्गी युगपद्युतिश्चत् ॥ १॥" ___ परं तारामैत्री नाडीवेधशुद्धिश्च सर्वत्र विलोक्ये एवेति, ग्रामधारणागति केऽप्येवमाहुः
जन्मराशिस्थितो ग्रामस्त्रिषष्ठः सप्तमोऽपि वा। स्वकीयो द्रव्यनाशाय आपदा च पदे पदे ॥ १ ॥ चतुर्थोऽटमको ग्रामो द्वादशो यदि वा भवेत् । यत्रैवोत्पद्यते अर्थस्तत्रैवार्थो विलीयते ॥ २ ॥ पञ्चमो नवमो ग्रामो द्वितीयो दि वा भवेत् ।। दशमैकादशश्चैव शुभदः स फलप्रदः ॥३॥"
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आरम्भ-सिद्धिः
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अथ तारासु वाच्यासु पूर्व तत्संबद्धं नाडीवेधमाह-..... चक्रे त्रिनाडिके धिष्ण्यमेकनाडीगतं शुभम् । गुरुशिष्यवयस्यादेन वधूवरयोः पुनः ॥ २४ ।।
व्याख्या-नाड्योऽत्र रेखारूपा लक्ष्याः, ततो येषां जन्मभानि नामभानि वा एकनाडीगतानि स्युस्तेषां नाडीवेधोऽस्ति । भिन्नभिन्ननाङीगतत्वे तु स नास्तीति भावः । विनाडिकचक्रस्थापना यथा
अभरोमपिओमपहिचिखा विभज्ये सारे अंधजिरे
वयस्यादेरिति, आदिपदात्प्रभुभृत्यादिसर्वद्वयेष्वपि संबन्धिनोमिथो नाडीवेधः शुभः। वधूवरयोरिति, दम्पतियोगे तु नाडीवेधो न शुभः। उक्तञ्च हर्षप्रकाशे“ सुअसुहि सेवयसिस्सा घरपुरदेस सुह एगनाड़ीआ ।
कन्ना पुण परिणीआ हणइ पई ससुरं सासुं च ॥ १ ॥”
विशेषस्तु-सुतसुहृदादीनां नाडीवेधसद्भावे विरुद्धयोनिकभयोगोऽपि न दुष्यति । दम्पत्योनीडीवेधे तु फलमेवम्__ " हृन्नाडीवेधतो भर्तुमध्यनाडीव्यधे द्वयोः ।। ... पृष्टनाडीव्यधे नार्या मृत्युः स्यान्नात्र संशयः ॥ १ ॥" भाद्यनक्षत्रसंगता या सा हृन्नाडी।
“समासन्ने व्यधे शीघ्र दरवेधे चिरेण वा ।
वेधान्तरभमानेऽत्र वर्षे दुष्टं प्रजायते ॥ २ ॥"
अपि च यदि नक्षत्रवेधस्त्यक्तुं न शक्यते, तदाऽपि पादवेधस्त्याज्य एव । उक्तञ्च नरपतिजयचर्यायाम्" एतच्चक्रं समालिख्य अश्विन्यायह्रिपङ्क्तितः ।
वेधो द्वादशनाडीभिः कर्तव्यः पतिकन्ययोः ॥ १ ॥ " एवं निरन्तरो येषां दम्पतीनां भवेयधः । तेषां मृत्युनं सदेहः सान्तरस्त्वल्पदुःखदः ॥ २ ॥ "
तथा तत्रैव ग्रन्थे दम्पतिवदेवतामंत्रयोर्गुरुशिष्ययोगे च नाडीवेधो दुष्ट इत्युक्तं । तथाहि
" एकनोडीस्थिता यत्र गुरुमंत्रश्च देवता । । - तत्र द्वेषं रुजं मृत्यु क्रमेण फलमादिशेत् ॥ १॥"
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तृतीय विमर्श
सर्वेषां चैषां मैत्रीप्रकाराणां नाडीवेधो बकिछः । यदुक्तम्"सदा नाशयत्येकनाडीसमाजो, भकूटादिकान् सर्वमेदान् प्रशस्तान्"।
अथ तारामैत्रीमाहद्वयेषु गुरुशिष्यादेः प्रीतिहेतोः परस्परम् । त्रिपञ्चसप्तमी तारां सर्वत्र परिवर्जयेत् ॥ २५ ॥
व्याख्या-परस्परमित्युभयतो योज्यं । परस्परं प्रीतिहेतोः, परस्परं त्रिप. सप्तमी तारा त्याज्येति । कोऽर्थः ? यदि छेकस्यापि तारा त्रिपञ्चसप्तमी स्यात्तदा न तयोस्तादृशी प्रीतिः स्यादिति । त्रिपञ्चति पूर्वोक्तेन ताराणां नवक. त्रयकल्पनविधिना गुरुशिष्यादितारासु त्रिपञ्चसप्तमत्वं भाव्यं । विशिष्य च गुरुवरप्रभुप्रभृतीनां तारा त्रिपञ्चसप्तमी विलोक्यते । यदुक्तम् –“ भीरुपादचल
पञ्च ५ तृतीया ३ शोकवैरविपदे वरताराः" । सर्वत्रेति सर्वेषु द्वयेष्वित्यत्र योज्यं, प्रधानं (ना) चेयं तारमैत्री । यदुक्तम्:__ " पुस्खोराशीशयोमैत्र्यामेकेशत्वे च वश्यमे ।
पडष्टमादिष्वपि स्यात्तारामैन्या करग्रहः ॥ १ ॥" इति दैवज्ञवल्लमे ॥ वर्गमैत्रीमाहचत्वारोऽकचटा वर्गाः क्रमात्तपयशास्तथा। यत्नतो वजनीयाः स्युरितरेतरपञ्चमाः ।। २६ ॥
व्याख्या-अकारादयः स्वराः अवर्गः । ततः कवर्गायाः पञ्च वर्गाः ६ । अन्तस्था यवर्गः ७ । शषसहाः शवर्गः ८ इत्यष्टौ वर्गाः । इतरेति द्वयोः संबन्धिनो माद्यवर्णवर्गों यदि मिथः पञ्चमौ स्यातां, तदा तदीशयोर्जातिवैरस. नावात्याज्यौ । वर्गेशाश्चैवं हर्षप्रकाशे" वैनतेयौ१ तु२ सिंह३ श्वा४ ऽहि५ मूषक६ मृगो७ रणाः८ । क्रमादकचटादीनां स्वामिनोऽमी स्मृता बुधैः ॥ १॥"
उरणो मेषः । एषां पञ्चमेन पञ्चमेन सह जातिवैरं, वृकसजातीयत्वात् शुनो मेषेण सह वैरं । विशेषस्तु-योनि १ गण २ राशि ३ तारा शुद्धि ४ नाडिवेधा ५ जन्ममे परिज्ञायमाने जन्मभेनैव विलोक्याः, अन्यथा तु नाममेन । वर्गमैत्री १ लभ्यदेयज्ञाने २ तु प्रसिद्धनाम्नैव विलोक्ये ॥
___वर्गवक्तव्यतासंबद्धं मिथो लभ्यदेयज्ञानमाहनामादिवर्गाङ्कमथैकवर्ग, वर्णाङ्कमेव क्रमतोऽक्रमाच्च। . न्यस्योभयोरष्टहृतावशिष्टे,ऽर्धितेविशोपाःप्रथमेन देया॥२७॥
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आरम्भ-सिद्धिः
व्याख्या --- उभयोरति सर्वद्वयेषु द्वयोः संबन्धिनोर्नामाद्यारयोर्वर्गाङ्को स्थाप्यो, द्वयोश्चेदेको वर्गस्तदाऽऽद्याक्षराङ्कावेव ताभ्यां जातस्याङ्कस्याष्टभिर्भागे यच्छ्रेषं, तस्यार्धे जाता ये विशोपास्ते आद्याङ्कवता उत्तराङ्कवतो देयाः, तेन स्वाद्याल्लभ्याः । एवं क्रमोरक्रमाभ्यां यथासंभवं लभ्यदेयमानीय यथायोगं वालनीयं शेषं च देयं निर्णेयं । यदि तु मिथो लभ्यदेयं नायाति, तदा यस्यैव स्यात्तस्यैव निर्णेय । यथा कणादवल्मीकयोर्गुरुशिष्ययोर्नामवर्गाङ्कौ न्यस्तौ = ( क ) - २ (व) - ७ जाता सप्तविंशतिः, तस्या अष्टभिर्भागे शेषं त्रय: ८ ) २७ (३, अर्धिते. सार्धविशोषः कणादेन कल्मीकस्य देयः । तावेव विपरीतौ न्यस्तौ ५-२- जाता द्वासप्ततिः, अष्टभिर्भागे शेषाभावान्नास्ति किञ्चिद्वल्मीकेन गुरोर्देयं, किंतु गुरुणैव शिष्यस्य देयमस्तीत्येतद्योग निधान ग्रन्थोक्तमुदाहरणं । तथा आदिनाथश्रीदत्तयोवर्गाङ्को स्थापित १-८--जाता अष्टादश, अष्टभिर्भागे शेषं द्वौ, अर्धे एको विशोपो देवेन श्रीदत्तस्य देयः । तयोरेवोकमात्स्थापने ८१ जाता एकाशीतिः, अष्टभिभांगे शेष एकः, अर्धे - अर्धविशोपः श्रीदत्तेन देवस्य देयः । मिथो वालने शेषोऽर्धविशेोपः श्रीदत्तस्य देवेन देयो निर्णीतः । एवं सर्वत्र । लभ्यं च स्तोकं वर्यं, दातुं लातुं च सुशक्यत्वादिति नारचन्द्र टिप्पण्यां । अत्र गर्गोक्तः सङ्ग्रहश्लोकोऽयम्
" राशि १ ग्रहमैत्री२ गण ३ योनि ४ तारै५ कनाथता६ ऽवश्यम ७ । स्त्री दूर८ नाडियुति९ वर्ग १० लभ्य११ वर्ण१२ युजयो १३ द्वयेषूह्याः ॥ १॥” भस्यार्थः- द्वयेषु गुरुशिष्य दम्पतिभर्तृभृत्यादिरूपेषु एते ऊझाः । तन्त्र राइयोः स्वभावजा राशिमंत्री, तृतीयैकादश १ दशमचतुर्थी २ भयसप्तमेषु ३ | ग्रहमैत्री प्रीतिषडष्टमक १ प्रीतिद्विद्वादशक २ प्रीतिनवपञ्चमेषु ३ । गण १ योनि २ तारे ३ कनाथता ४ नाडीवेध ५ वर्ग ६ लभ्या ७ न्युक्तत्वात् स्फुटान्येव । वश्यत्वं तु वक्ष्यते । स्त्रीदूरेति वधूराशिर्वरराशितो दूरगः शुभः, वरराशिस्तु वधूराशित आसन्नः शुभ इत्यर्थः । वर्णेति " मीनाद्याश्चत्वारश्वत्वारत्रिर्द्विजादिवर्णा " इति सारावल्यां । ततश्च --
"यत्र वर्णाधिका नारी तत्र भर्ता न जीवति ।
११४.
यदि जीवति भर्ता स्यात्तदा पुत्रो न जीवति ॥ १ ॥ " इति महादेवः । युजिः प्रागुक्ता " पूर्वार्धयोगिषूढ स्त्रीणामतिवल्लभो भवेद्धर्ता" इत्यादिना । विशेषस्तु मुनीनां किल जिनबिम्बकारयितुस्तद्वारणागतिज्ञाने शैक्षस्यनामकरणे च भयोन्यादिभिर्विशिष्योपयोगः । तत्र शैक्षस्य नाम्नि नाडीवेधो वर्यः, जिनस्य
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तृतीय विमशः
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तु नाम्नि त्याज्य एव । ताराविरोधश्व जिनबिम्बाधिकारे प्रायो न विचार्यः । यदुक्तम्" योनि १ गणर राशिभेदा३ लभ्यं४ वर्गश्वनाडिवेधश्च६ । नूतनबिम्बविधाने पविधमेतद्विलोक्यं ज्ञेः ॥ १ ॥ "
तत्र यस्य धनिकस्य जिनस्येव जन्ममं ज्ञायते, तस्य जन्मभेन योनिग रायो नाडीवेधश्च विलोक्या: । च तु वर्गलभ्ये, यतो वर्गयोर्मिथः पञ्चमत्वं मिथो लभ्यदेयं च जिनस्येव तस्यापि प्रसिद्वेनैव नाम्ना विलोक्येते, सर्वत्रापीयं रीतिः । जन्मभापरिज्ञाने तु तस्य योन्याद्यपि सर्वं प्रसिद्धनामभेनैव विलोक्यं । तत्र पूर्वं तावजिनधनिकयोर्योनिगणवर्गाणां मिथो वैरं त्याज्यमेव । वैरसद्भावे. sपि वा धनिकसत्का योन्यादयो देवसत्केभ्यस्तेभ्यश्चेद्वलिष्टाः स्युस्तदा ग्राह्या अपि । अयं भावः - अल्पबलेन बलिष्टो नाभिभूयते इत्यभिप्रायेण धनिकस्य ओवादिर्बलिष्टो देवस्य चोन्दुरादिररूपबल इत्येतावता न दोषः । जातिवैराभावे च धनिक योनिवर्गयोरबलत्वेऽपि न विशिष्य दोषः, शास्त्रे योनिवर्गयोर्जातिवैरस्यैव वर्जनात्, लोकेऽपि च तथैवादरणात् । तथा यत्र देवराशितो धनिकरा - शिरासन्नो, धनिकराशितस्तु देवराशिर्दूरे तत्प्रीतिषडष्टमकादि ग्राह्यं, इतरत्तु न । तथा तादृकशुद्वापरालाभे तु तदपि क्वचिद् ग्राह्यं । देवराक्षसरूपं गणवैरमध्येवमेव, यतो लोके वरकन्यादेरपि शुद्धापराला भे देवराक्षसरूपं गणवैरमप्याद्रियमाणा दृश्यन्ते । शिष्यनामकरणे तु गुरुशिष्य योर्मिथस्ताराविरोधः शत्रुषडष्टमकादीनि च सर्वाणि त्याज्यानि । योनिविरोधोऽप्येवमेव । नाडीवेधसद्भावे त्वसौ न दुष्टः । उक्तञ्च हर्षप्रकाशे
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दुब्बारस नवपंचम छक्कट्ठग ति पण सत्तमी तारा । अन्नुन्नं गुरुसी साणं नामकरणे विवजिज्ञा ॥ १ ॥ गुरुसीसाण करिजा नामं न विरुद्धजोणीए रिख्खे | जर हुज न तं रिख्खं आरूढं एगनाडीए ॥ २ ॥
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गणवर्गविरोधौ तु त्याज्यावेव । लभ्यदेयं च मिथो विलोक्यं मिथो राशिमैग्याद्यभावे राशीनां वश्यत्वं च ग्राह्यं तद्भावे शत्रुषडष्टमकादीनामपि विशिष्टतरदौष्ट्यासंभवात् । पुत्रादिनामस्वपि सर्वं प्राय: शैक्षनामवज्ज्ञेयं । एवं च सति" जीवेन्द्वर्केषु बलिषु त्रिषु गोचरशुद्धितः ।
नामप्रथमवर्णस्य नृणां नाम विधीयते ॥ १॥ इति पूर्णभद्रः । अस्य श्लोकस्यान्वय एवं - नामाद्यवर्णस्य गोचरशुध्ध्या जीवेन्द्वर्केषु बलिषु सत्सु नृणां नाम विधीयते । अयं भावः - नामकर्तुराचार्यादेर्ये केsपि वर्णी
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आरम्भ-सिद्धिः
मैत्रीभाजः सन्ति, तेषां वर्णानां मध्ये यस्य वर्णस्य जीबेन्कगोचरशुध्ध्या बलिष्ठाः स्युरिष्टदिने तं वर्णमादौ न्यस्य, शिष्यादीनां नामदेयम् ॥ अथ कार्यान्तराण्याहकर्णवेधो ऽह्नि सौम्यस्य मार्गे मैत्र्ये श्रुतिद्रये । हस्तचित्रोत्तरा ३ पौष्णाश्विनादित्यद्वये शुभः ॥ २८ ॥
>
व्याख्या - सौम्यो बुधः । गुरावपीति व्यवहारसारे । उत्तरास्तिम्बः ॥ आघाटनं प्राथमकल्पिकस्य, मृदुधुवक्षिप्रचरेषु भेषु । पूर्वाशनं मासि शिशोश्र षष्ठे, भं वारुणं स्वातिमितश्च मुक्त्वा ॥ व्याख्या - आद्यं हिंडनं गोचरचर्याभ्रमणं च प्रथमकल्प आद्यारंभः प्रयोजनमस्येति, “पदक लक्षणान्त कृत्वाख्यानाख्यायेकात्" इत्यनेनेकणि प्राथमकल्पिको बाल: शैक्षश्व, वारे वाऽनुक्तेऽपि कुजशनी सर्वत्र त्याज्यौ । पूर्वाशनं बालस्य बोट - णाख्यं । षष्ठे इति "पुंसः षष्ठे मासि, पुत्र्यास्तु पञ्चमे मासीति" भोजः । " मासनियमो न पुत्र्याः" इति तु हरिः । अरिक्ततिथाविति च सर्वत्राप्यूह्यं । विशेषस्तुशशिशुके च मन्दाग्निः शनिभौमे बलक्षयः । बुधार्क गुरुवारेषु प्राशनं तु हितावहम् ॥
""
१ ॥
८
इतः पूर्वोक्तनक्षत्रेभ्यः शतभिषेकस्वाती त्यक्त्वा, चो ' भिन्नक्रमत्वास्वाति चेत्येवं योज्यः ॥
पात्र भोगोऽश्विनीsनुराधारेवतीमृगे । हस्ते पुष्ये च गुर्विन्दुवारयोश्च प्रशस्यते ॥ ३० ॥ धौरं शुभस्याहनि तारकाबले, तिथौ च रिक्ताष्टमीषष्ठयमोज्झिते चित्राचरैन्द्राश्विनपुष्यरेवती हस्तैन्दवैस्तुल्यपतौ क्षणेऽथवा ।।
व्याख्या - क्षौरमिति बालानां प्रथमं यस्य मुंडनमिति नाम । शैक्षाणां तु प्रथमलोचः, शेषक्षौराणि तु वारभमात्रशुध्ध्यादिनाऽपि स्युः । शुभस्येति अक्रूरवारे । यतः" क्षौरे मासं दुनोत्यर्को भौमोऽष्टौ सप्त सूर्यजः ।
षट् प्रीणातीन्दुरौ ज्ञो गुरुर्नव भृगुर्दश ॥ १ ॥” इति व्यवहारसारे ।
तारकेति उक्त हि "जन्माधानेत्यादि" । ताराबलं च क्षौरेऽवश्यं ग्राह्यं, यतः- “तारासुद्धं खउरं" इति हर्षप्रकाशे । चन्द्रबलमप्यवश्यं ग्राह्यमिति व्यवहारप्रकाशे । अष्टमीति "ड्यापो बलं नाम्नि " इति ह्रस्वः । अमा अमावास्या । चरं स्वत्यादि । ऐन्दवं मृगशिरः । तुल्यपताविति यद्युक्तभानि नाप्यन्ते क्षौरं चावश्यं कार्यं तदोक्तभानां यः पतिः स एव यस्य क्षणस्य पतिः स्यात्तस्मिन् क्षणे क्षौरं कार्य, क्षणश्च मुहूर्त्ताख्योऽह्नो रात्रेर्वा पञ्चदशोऽशः । तदीशास्तावदेवम्
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तृतीय विमर्श
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'शिव१ भुजगर मित्र३ पितृ४वसु५ जल ६ विश्व७विरञ्चि८ पङ्कजप्रभवाः ९ । इन्द्रा१० ग्नीन्द्र११ निशाचर१२ वरुणा१३ र्यम१४ योनय१५ श्वाह्नि॥१॥ रुद्रा १ जा २ हिर्बुधाः ३ पूषा ४ दस्रा ५ न्तका६ नि७ धातारः८ इन्द्र९दिति १०गुरु११हरि१२रवि १३त्वष्ट्र १४नलाख्याः १५क्षणाधिपा रात्रौ |२| क्षणनामानि पुनरेवम्
" आर्द्रा १ श्लेषा २ नुराधा ३ च मघा ४ चैव धनिष्ठिका ५ । पूर्वाषाढो ६ त्तराषाढे ७ अभिजि ८ द्रोहिणी ९ तथा ॥ ३ ॥ ज्येष्ठा १० विशाखिका १९ मूलं १० नक्षत्रं शततारकम् १३ | उत्तर१४ पूर्वे फल्गुन्यौ १५ क्षणास्तिथिसमा दिने ॥४॥ एषां मध्ये च" दखिणदिसि मुक्त गर्म दिखपरट्टागमागमाइकयं ।
66
जं तं सव्वं सुहयं अभिजिन्मुहु संमि अठ्ठमए ॥५॥ " यतः हर्षप्रकाशेउपाय विट्ठि वrवाय दड्ढतिहि पावगह विहि अदोसे । मज्झverओ सूरो सव्वे ववणीय सुख्खकरो ॥ ६५" पूर्णभद्रोऽप्याहग्रसते ग्रहचक्रमसौ रविरुदये यावदेव यामयुगम् । उद्धमति वमनकाले वान्तं तद्विद्दलीभवति ॥ १ ॥ विह्वलतामुपगतवति तस्मिन् विजयाह्नयो भवति योगः ।
•
यस्मिन् विहितं कार्यं न चलति कथमपि युगान्तेऽपि ॥ २ ॥ " लल्लोऽप्याह
" रवौ गगनमध्यस्थे मुहत्तेऽभिजिदाह्वये ।
"
।
"
छिनत्ति सकलान् दोषाश्चक्रमादाय माधवः ॥ १ ॥ दुपहरघडिआ ऊणे दुपहर घडिबग अहिअ मज्झहे विजयं नाम मुहुत्तं पसाहगं सव्वकज्जाणं ॥ १ ॥ इत्याहुः । सायं सन्ध्यायामपि विजययोगो हर्षप्रकाशे उक्तः, तथाहि-" ईसि संझामकंतो किंचि उम्भिन्नतारओ ।
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विजओ नाम जोगोऽयं सव्वकजप्पसाहओ ॥ १ ॥ लल्लेन प्रातस्य सन्ध्यायामपि यात्रेष्टा, तथाहि
"
आवश्यकें तथा याने सौम्येऽस्ते निधनेऽपि वा । व्रजेदकोंदये वाऽपि मध्याह्ने वाऽविशङ्कितः ॥ १ ॥ अत्र सौम्येऽस्ते इति यद्यर्कोदयसमये मध्याहूने वा, तात्कालिकलमकुंडलिकायां सप्तमेऽष्टमे वा भवने सौम्यग्रहः स्यात्तदा निःशंक प्रमाणं कुर्यादिति ।
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केचित्तु --
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-सिद्धिः
प्रातस्त्यसन्ध्याया उषात्रितारसंज्ञेऽपि । यत्पूर्णभद्रः - " उपाभिधानं वरयोगमेवं त्रितारमाहुर्मुनिवृन्दवन्धाः तथा - " उषां प्रशंसयेद् गर्ग " शता इति तात्पर्यं । तथा
" रात्रावार्द्रा १ तथैवाष्टौ पूर्वभाद्रपदादयः ९ । आदित्य १० पुष्य ११ श्रुतयो१२ हस्ताद्याश्च त्रयः १५ क्रमात् ॥ १ ॥ यस्मिन् धिष्ण्ये यच्च कर्मोपदिष्टं तद्दैवज्ञैस्तन्मुहूर्त्तेऽपि कार्यम् । दिक्शूलाद्यं चिन्तनीयं समस्तं तद्वद्दण्डः पारिघश्च क्षणेषु ॥ २ ॥”
अत्र दिक्शूलाद्यमिति नक्षत्रदिक्शूलकीलादिकं वक्ष्यमाणस्त्ररूपं मुहूर्तेवपि नक्षत्रवद्विचार्य, यस्यां दिशि च तदुत्पद्यमानं स्यात् सा दिक् प्रयाणादौ त्याज्या । तथा चरस्थिरादयः सप्त धिष्ण्यभेदा धिष्ण्यसंबन्धिक्षणेष्वपि इष्टकायनुरूपतामपेक्ष्य विचार्याः । पारिघश्चेति वक्ष्यमाणपरिषदण्डं मुहूर्तेष्वपि नक्ष
द्विचार्य यात्राद्यं कुर्यादिति रत्नभाष्ये । पौराणिकक्षणास्त्वेवम्
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आरम्भ-1
। इति
इति । एवं च सन्ध्यास्तिस्रोऽपि
"
6"
' रौद्रः १ श्वेतो २ मैत्र ३ श्वारभटः ४ पञ्चमस्तु सावित्रः ५ । वैराजो ६ गान्धर्व ७ स्तथाऽभिजि ८ द्रोहिण ९ बलौ १० च ॥१॥ विजयो११थ नैर्ऋताख्यो१२ माहेन्द्रो१३ वारुणो १४ भग१५ चैव । ते पुराणकथिता दिवस मुहूर्त्तास्तथाऽभिजित्कुतुपः ॥ २ ॥ एषु अभिजि १ द्विजयो २ मैत्रः ३ सावित्री ४ बलवान् ५ सितः ६ । विराज ७ चेति सप्त स्युः क्षणाः सर्वार्थसाधकाः ॥ ३ ॥ रौद्रो १ गन्धर्वो २ प ३ श्वारणाख्यो ४,
""
वायु ५ वह्नी ६ राक्षसो ७ धातृ ८ सौम्यौ ९ ।
ब्रह्मा १० जीवः ११ पौष्ण १ विष्णू १३ समीरो १४, रात्रावेते नरृताख्यः १५ क्षणोऽन्यः ॥ ४ ॥
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इत्युक्तो बहूपयोगित्वासप्रसङ्गः क्षणविचारः ॥ माश्रित्य वर्जनीयान्याह
अभ्यक्तरनाताशित भूषितयात्रारणोन्मुखैः क्षौरम् | विद्यादिनिशा सन्ध्यापर्वसु नवमेऽह्नि च न कार्यम् ॥ ३२ ॥ व्याख्या - अशितो भुद्धः । यात्रा प्रस्थानं तदुन्मुखैः । विद्याया आदिः प्रारंभः । सन्ध्यास्तिस्रोऽपि । पर्व दीपोत्सवादि । नवमेऽन्हीति पूर्वऔौरदिनादिति
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प्रथम प्रथमं च क्षौर
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तृतीय विमर्शः
१९९
शेषः, नवस्यामिति तु न व्याख्येयं रिक्ताश्वेन तद्वर्जनस्य जातत्वात् किं तु यस्मिन् दिने प्राक्तनं क्षौरं कृतं, तस्माद्गणनया यन्नवमं दिनं तस्मिन् द्वितीयवारस्य क्षौरं न कार्यं । न च केवलं क्षौर एव, ग्रहप्रवेशादिष्वपि नवमदिवसो निषिद्धः । यल्लल्लः --
" निर्गमानवमे चाह्नि प्रवेशं परिवर्जयेत् ।
"
शुभे नक्षत्रयोगेऽपि प्रवेशाद्वापि निर्गमम् ॥ १ ॥
इदं च मङ्गल्यक्षौरेषूक्तं, अमङ्गल्यक्षौराणि तु नवमेध्यहि स्युः । निरासनानामपि क्षौरं न कार्यमिति लल्लः ॥
षट्कृत्तिकोऽष्टवैरंच स्त्रि मैत्रश्चतुरुत्तरः ।
पञ्च पैत्रः सकृन्मूलः क्षौरी वर्षं न जीवति ॥ ३३ ॥ व्याख्या - यः षट् क्षौराणि संलग्नानि कृत्तिकायामेवाकारयत् स षट्कृत्तिकः । एवमन्येऽपि । गणिविद्यायां तु कृत्तिका विशाखा मघा भरणीष्वेव लोचकर्म निषिद्धं । विशेषस्तु " सर्वदाऽपि शुभं क्षीरं राजाज्ञामृतिसूतके । बन्धमोक्षे मखे दारकर्मतीर्थव्रतादिषु ॥ १ ॥
सर्वदापीति सर्वेषु वारनक्षत्रेष्वित्यर्थः । दारकर्मेति कुलाचारोऽयं केषाञ्चित् । तथा च दुर्गसिंह: - " मुण्डयितारः श्राविष्ठायिनो भवन्ति वधूमूढाम्” । इति ॥ श्मश्रुकर्म नरेन्द्राणां पञ्चमे पञ्चमेऽहनि ।
क्षौरभेषु नखोल्लेखो व्यर्के क्रूरे विशेषतः ।
३४ ॥
व्याख्या---- - क्षौरभेष्वित्यस्यो भयतोऽपि योजनादयमर्थः - क्षौरभेषु त्रिपञ्चशुभग्रहस्य कालहोरायां पञ्चमे पञ्चमे दिने
सप्तमताराद्यभावे क्रूरवारेष्वपि
श्मश्रुकर्म कार्यं नखोल्लेखोऽप्येवमेव परं व्यर्के इत्युक्तेस्तत्र रविवारस्त्याज्यः । कुजशनी तयोर्होरा च विशिष्य ग्राह्याः ॥
可
विद्यां सुराध्यापकराजपुत्र सितार्कवारेषु समारभेत । पूर्वाश्विनीमूलक रत्रयेषु श्रुनित्रये वा मृगपञ्चके वा ||३५|| व्याख्या-सुराध्यापको गुरुः । राजपुत्रो बुधः । समारभेतेति यदुक्तम्
"विद्यारम्भे नृणां वाराः कुर्वते भास्करादयः ।
""
आयु' जाड्यं २ मृति३ लक्ष्मीं४ बुद्धि५ सिद्धिं६ च पञ्चताम् ७ ॥ १ ॥ इति व्यवहारसारे । पूर्वास्तित्रः । श्रुतिश्रये वेति कैश्चित् श्रुतिरेवोचे, न तु तत्रयम् ॥ नियमालोचनायोगतपोनन्द्यादि कारयेत् ।
मुक्त्वा तीक्ष्णोग्रमिश्राणि वारौ चारशनैश्वरौ ॥ ३६ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
- व्याख्या-नियमाः सम्यक्त्वद्वादशवताद्याश्रिताः, आलोचना धर्मगुरूगा. मग्रं प्रायश्चित्तमार्गणाय स्वपापप्रकाशन, योगाः श्रुताराधनतपोविधिविशेषाः, तपः सिद्धान्तोक्तश्रेण्यादि षड्भेद, तेषां नन्दिः प्रतिपत्तिसमयक्रियमाणो विधिविशेषो जैनर्षिप्रसिद्धः । भादेरन्यदपि धर्ममयोत्सवकार्य गृह्यते । विशेषस्तु" शान्तिकं पौष्टिकं कार्य क्षेज्यशुक्रार्कवासरे।
कन्याविवाहनक्षत्रे पुष्याश्विश्रवणे तथा ॥ १ ॥” इति त्रिविक्रमः ॥ ___अथ प्रायो विप्राद्याश्रितं पञ्चदशश्लोकैराहमौञ्जीवन्धोऽष्टमे गर्भाजन्मतो वाऽग्रजन्मनाम् । राज्ञामेकादशे च स्याद्वत्सरे द्वादशे विशाम् ॥ ३७ ।।
___ व्याख्या-मौजीबन्धो मेखलाबन्धः । अष्टमे इति यथाकुलाचारं विप्राणां गर्भाद्दशमे वर्षेऽपि अग्रजन्मानो विप्राः । चिशो वैश्या: ॥
शाखाधिपे बलोपेते केन्द्रस्थेऽहि च तस्य वा। बले सूर्येन्दुजीवानां वर्णनाथे बलीयसि ॥ ३८ ॥ माघादौ पञ्चके मासां पौष्णाश्विन्योः करत्रये । श्रुतिद्वये भृगादित्यपुष्येषपनयः श्रिये ॥३९।। युग्मम् ।।
व्याख्या-शाखाधिपो वेदाधिप एव, यो जीवसितारेत्यनेन प्रागुत्तास्त. स्मिन् षड्विधादिबलाढ्ये केन्द्रस्थे सत्युपनयः कार्यः । शाखाधिपे निर्धले सही वर्णसंकरसंभवात् । अहि चेति शाखेशग्रहस्य वारे च । तस्यै वेति 'वा' शब्दे. नेदं सूच्यते-यदि लग्नबलादुपनयः क्रियते, तदा शाखेशग्रहस्य वारे लग्नं ग्राह्यं । लग्नकुण्डलिकायां च शाखेशो बलिष्ठः सन् केन्द्रस्थः कार्यः । यदि च दिनशु. द्धि मात्रेण क्रियते, तदापि वारः शाखेशग्रहस्यैव ग्राह्य इति । वर्ण गथो वर्णानां जीवसितावित्युक्तेः । यद्वा सूर्येन्दुजीवानां सबलात्थे, सर्वे वर्णनाथाः सबला एवेति दैवज्ञवल्लभे । उपनयो यज्ञोपवीतप्रदानम् ॥ पराजितेऽरिवेश्मस्थे, नीचस्थेऽस्तंगने गुरौ । सितेऽपि चोपनीतः स्यात् , श्रुतिस्मृतिबहिष्कृतः ॥ ४० ॥
__ व्याख्या-ग्रहयुतौ जातायां यो दक्षिणगामी स पराजित इति वराहः । श्रुतयो वेदाः, स्मृतयोऽष्टादश आत्रेयाचाः ॥ क्रमादेशेषु सूर्यादेः, करो १ मन्दो २ ऽतिपातकी ३। पटु यज्वा५ च यज्वाद च, मूर्ख७ श्वोपन याद्भवेत् ४१॥ व्याख्या-लमस्थेऽर्कनवांशे सत्युपनीतः करः स्यात्, चन्द्रनवांशे मन्द इत्यादि ।
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तृतीय विमश
-
चतुष्टयेऽर्कादिषु राजसेवी १,
स्याद्वैश्यवृत्तिः २ क्रमतोऽस्त्रवृत्तिः ३ । अध्यापकः४ कर्मसु षट्सु विद्वान्५,
विद्यार्थयुक्तो ६ ऽन्त्यजसेवकश्च ७ ॥ ४२ ॥ व्याख्या-चतुष्टये इति अर्के केन्द्रस्थे सत्युपनीतो राजसेवी स्यात् । चन्द्रे तु वैश्यवृत्तिः कृषिपाशुपाल्यादिकर इत्यादि । बहूनां केन्द्रस्थत्वे तु, यो बलाव्यस्तस्य फलं वाच्यं । एवमन्यत्राप्यूह्यम् ॥ लग्ने गुरौ त्रिकोणे सिते सितांशे विधौ च वेदज्ञः। भवति यमांशे गुरुसितलग्नेषु जडो विशीलश्च ॥ ४३ । ___ व्याख्या-सितांशे इति यत्र तत्र राशौ स्थितश्चन्द्रो यदि शुकस्यांशे स्थादित्यर्थः । एवमग्रेऽपि । यमांशे इति यमः शनिस्तस्यांशे इति चेद्गुरुशुक्रलग्नानि स्युः । विशीलश्चेति 'च' शब्दात्कृतघ्नश्च ॥ विधुगुरुशुः साधनगुणहीनः कुजान्वितैः क्रूरः । सबुधैर्बुधः सशौरैः स्यादुपनीतोऽलसो विगुणः ॥ ४४॥
व्याख्या-साकैरिति एषामयुतौ सत्यामित्यर्थः । शौरः शनिः । अयं श्लोको राज्याभिषेकलग्नेऽपि योज्यः ॥.
चन्द्रे षष्ठाष्टमे मृत्युमुखत्वमथवा बटोः । व्रतमोक्षेऽथ केशान्ते चौले चैवविधो विधिः ॥ ४५ ॥ __ व्याख्या-व्रतमोक्षो मौजीबन्धच्छोटनादिरूपः । केशान्तो मुण्डनं । चौलं चूलाकर्म । यथा कुलाचारं प्रथमे तृतीये वा वर्षे यरिक्रयते । एवंविध इति योऽनन्तरमेव सार्धाष्टश्लोकैरुक्तः ॥
वहेः परिग्रहं प्राहुः कृत्तिकारोहिणीमृगैः। . उत्तरात्रितयज्येष्ठापुष्यपौष्णद्विदैवतैः । ४६ । व्याख्या-परिग्रहः स्थापनम् ॥ केन्द्रोपचयधीधर्मेष्वन्दं ज्ञसुरार्चितः । शेषैस्त्रिषड्दशायस्थैरादध्याजातवेदसम्॥४७॥ व्याख्या-शेषैः कुजशुक्रमन्दैः ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
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उदयेऽथ नवांशे वा, राशीनां जलचारिणाम् । उदयस्थे च शीतांशी, वहिरहाय शाम्यति ॥४८॥
व्याख्या-उदयो लग्नं । जलचारिण: कर्कमकरकुंभमीनाः । ननु कुंभस्य जलचरस्वरूढिर्नास्ति, सत्यं, परमत्र जले चरतीति यौगिकग्युत्पत्तेविवक्षणात् कुंभोऽपि संगृहीतः । अह्नाय शीघ्रम् ॥
क्रूराः कुर्युर्धने निःस्वमाढ्य सन्तोऽन्नदं विधुः । हन्युश्छिद्रे ग्रहाः सर्वे लग्ने च ज्ञयमौ द्विजाः ॥४९॥
व्याख्या-अग्न्याधानलग्ने धनभवने यदि क्रूराः स्युस्तदा द्विजो निःस्व: स्यात्, सन्तः सौम्यास्तदा ‘आढ्यः' स्यात्, इन्दुश्चेत्तदाऽन्नदः, छिद्रेऽष्टमे चेत्कश्चिद्ग्रहस्तदा मृत्युः । अत्रायं विशेषोऽनुक्तोऽपि ज्ञेयः-"अष्टमस्थे चन्द्रे द्विज. परल्या मृत्युः, भौमे द्विजस्यैव, रविगुरुश निषु तु द्विजोऽसाध्यरोगातः स्यात्, बुधशुक्रयोस्त्वष्टमस्थयोर्न किञ्चित्फल मिति"। लग्ने च ज्ञयमाविति, लग्ने चका. रामचन्द्रे च, बुधश नियुते द्विजस्य मृत्युरिति रत्नमालाभाष्ये । लल्लस्त्वाह-'लग्ने विधौ वा बुधारियुक्ते, लोकाग्निना वह्निरुपैति सङ्गम् " ॥
जितैरस्तमितैर्नीचशत्रुक्षेत्रगतैरपि । सोमभौमसुराचार्यैराहिताग्निन नन्दति ॥ ५० ॥
व्याख्या---एषु सत्सु, आहितोऽग्निर्येन ॥ चन्द्रेऽर्के वा त्रिशत्रुस्थे लग्ने धनुषि वा गुरौ । मेषस्थेरवा१० स्त७ गेवाऽऽरे यज्वा स्यादात्तपावकः॥५१॥ ___ व्याख्या-आरे भौमे । एष्वात्तः पावको येन । यज्वेति याज्ञिकः ॥ इति विप्राद्याधिकारः संपूर्णः ॥ नववास सः प्रधानं वासवपौष्णाश्विनादितिद्वितये । करपञ्चकध्रुवेषु च बुधगुरुशुक्रषु परिधानम् ।। ५२॥ व्याख्या-नववाससः परिधान प्रधानं स्यादिति योगः । वासवेत्यादि, यदुक्तम्"नष्टप्राप्ति १ स्तदनु मरणं २ रह्निदाहो ३ ऽर्थसिद्धि ४,
श्वाखो ति ५ मति ६ रथ धनप्राप्ति ७ रागमश्च ८ । शोको मृत्यु२० नरपतिभयं११ संपदः१२ कर्मसिद्धि१३,
विद्यावाप्तिः १४ सदशन१५ मथो वल्लभत्वं जनानाम्१६ ॥ १ ॥
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तृतीय विमर्शः
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मित्राप्ति १७ रम्बरहृतिः १८ सलिलप्लुतिश्च १९, रोगो २० प्रतिमिष्टमशनं २१ नयनामयश्च २२ । धान्यं २३ विषोद्भवभयं २४ जलभी २५ धनं च २६, रत्नाप्ति २७ रम्बरवृतेः फलमश्विभात् स्यात् ॥ २ ॥ न च केवलं श्वेतस्यैव यद्वक्तस्यापि वस्त्रस्य भोगे एतान्येव भानि शुभानीति व्यवहारप्रकाशे | रक्तवस्त्रभोगे पुंसामपि तान्येव भानि शुभानि यानि योषितो वक्ष्यते, इमानि तु श्वेतवस्त्र मेवाश्रित्यो क्तानीति तु व्यवहारसारे । बुधेत्यादि, यदुक्तम्
"
46
" नवाम्बरपरीभोगे कुर्वन्त्यर्कादिवासराः ।
जीर्ण १ जलार्द्रर शोकं३ च धनं४ ज्ञानं५ सुखं६ मलम्७ ॥१॥" कम्बलभोगे रविरपि शुभः तत्र तस्योक्तत्वात् । केऽप्याहु:व्यापार्यते रवौ पीतं बुधे नोल शनौ शिति । गुरुभार्गवयोः श्वेतं रक्त मङ्गलवासरे ॥ १ ॥ योषिद्धजेत करपञ्चकवासवाश्वि
""
पौष्णेषु वक्रगुरुशुक्र दिनेशवारे । मुक्ताप्रवालमणिशङ्ख सुवर्णदन्तरक्ताम्बराण्यविधवात्वमतिः सती चेत् ॥५३॥
व्याख्या - करपञ्चकेति विशिष्य -
29
पुण्यं पुनर्वसुं चैव रोहिणी चोत्तराश्रयम् । कौसुभे वर्जयेद्वस्त्रे भर्तृघातो भवेद्यतः ॥ १ ॥ अत्र कौसुभवस्त्रस्योपलक्षणत्वात्प्रवालरक्ताम्बर हेमशङ्खादित्रपि पुष्यादि
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66
भानि त्याज्यानि ॥
वासः प्राप्तं विवाहादौ राज्ञा दत्तं च यन्मुदा । विरुद्वेsपि हि वार तहसीताविशङ्कितः ॥ ५४ ॥
व्याख्या - चार इति उपलक्षणत्वाच्चन्द्रादिप्रातिकूल्येऽपि वसीत परिदधीत ॥ क्षितदग्धादिवनाश्रित्याह-
कृतनवभागे वाससि कोणेषु सुरास्तथान्तयोर्मनुजाः । असुरास्तु मध्ययोः स्युर्मध्यतमो राक्षसो भागः ॥ ५५ ॥ व्याख्या-वस्त्रस्य नत्र भागान् कृत्वा तेष्वेवं सुराद्याः स्थाध्याः । तथाहि
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१२४
आरम्भ-सिद्धिः
देव ।
ततः
देत असुर
मनुज श्रेष्ठ
देव
_श्रेष्ठतमं सुर १ नर २ दनुज३ पलादाः ४, राक्षस R श्रेष्ठतम१ श्रेष्ठ र हीन३ हीनतमाः४ ।
देव । अन्ताः सर्वेऽप्यशुभा, श्रेष्ठतमं असुर
एवं शयनासनाद्येऽपि ॥५६॥ व्याख्या-यदि तत् क्षितदग्धादि देवांशे स्यात्तदाऽतिश्रेष्ठं, नरांशे तु श्रेष्ठ, असुरांशेऽधर्म, रक्षोऽशेऽत्यधर्म, तत्तदंशप्रान्तेषु तु सर्वेष्वपि अनिष्टमेव । यल्लल:" रुग् राक्षसांशेष्वथवाऽपि मृत्युः, पुंजन्म तेजश्च मनुष्यभागे । भागेऽमराणोमथ भोगवृद्धिः, प्रान्तेषु सर्वत्र भवत्यनिष्टम् ॥१॥"
भत्र राक्षसशब्देन असुरा अपि संगृहीताः, अत एव रुगथवा मृत्युरि. त्युक्तं असुरांशे रुग्, राक्षसांशे तु मृत्युरित्यर्थः । श्रीकल्पाख्यच्छेदग्रन्थवृत्तौ तु श्रीगुरुगच्छयोग्यवस्वैषणार्थनिर्गत साधूनामादौ तादृग्वस्त्रलाभे एवमेव नवभागकल्पनया निमित्तज्ञानमुक्तं । तथाहि" देवेसु उत्तमो लाभो माणसेसु अ मज्ज्ञिमो।
असुरेसु अ गेलन्नं (त) मरणं जाण रख्खसे ॥ १ ॥" एवं शयनेति शय्यादिष्वपि नवभागैरेवमेव फलमूह्यमित्यर्थः ॥ क्षिते दग्धेऽथ लिप्तेऽस्मिन् गोमयाञ्जनकर्दमैः । अभुक्त भूरि भुक्तेऽल्पं फलमेतच्छुभाशुभम् ॥ १.७ ।।
व्याख्या-अस्मिन्निति वस्त्रे परिधीयमाने इति शेषः । भूरीति यदि तद्वासोऽनाहतं तदा शुभाशुभं फलं बहु भुक्ते स्वल्पं । विशेषस्तु" छेदाकृतिः श्रिये स्याच्छत्रादिसमा गतापि रक्षोऽशे ।
काकोलूकादिसमो न देवभागाश्रिताऽपि पुनः ॥ १ ॥" सुलभं स्वं भवेन्न्यस्तं निखातं दत्तमेव वा । मृदुश्रुतित्रयादित्यलघुभेषु शुभेऽहनि ॥ ५८ ॥
व्याख्या-न्यस्तं स्थापनिकायां वाणिज्यव्यवसायादौ वा मुक्कं, निखातं मूम्यादौ, दत्तं व्याजेनार्पित, नष्टमज्ञानाद्गतं तदपि वाशब्देन संगृहीतं । शुभेऽहनीति कुजशनिवर्जवारे । विशेषस्तु
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तृतीय विमर्श:
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ऋणदानमथादानं क्षिप्रधिष्ण्यैर्विधीयते । तथानिधिलब्धिधनविवर्धनमादित्यादब्राह्मणः करात् पौष्णात् । द्वितये श्रवणत्रितयोत्तरासु मित्राधिदेवे च ॥ १ ॥
"
66
अष्टाविंशति नक्षत्रनामानि
नष्टं चतुर्भिरन्धाद्यैर्गच्छेत् पूर्वादिषु क्रमात् । तच्चाप्यते सुखाद् १ यत्नात्तद्वातैव३ न साऽपि४ च ॥ ५९ ॥
लाभः
शीघ्र
यत्नेन
वृत्तांत |
अभाव:
दिशा
दक्षिण
पश्चिम
उत्तर
उ० भा०
उ०फा० | विशाखा पू०षा० | धनिष्ठा | पूर्व
अनुराधा उ०पा० | शतभि०
अभिजित् पू० भा०
ज्येष्ठा
मूल
हस्त
चित्रा
मघा
अश्विनी मृगशिर अश्लेषा
रेवती
भरणी
श्रवण
कृत्तिका | पुनर्वसु । पू०फा० | स्वा
अन्ध
काण
चिल्ल
सुलोचन
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व्याख्या- - सुखादिति आसन्नस्थाने इति शेषः । अन्धेषु सर्वं लभते काणेषु त्वर्धमिति केचित् । द्विपादचतुष्पदेष्वन्धेष्वपि दुःखेन लभ्यते, तु यानि त्रिपादत्वेन पादखञ्जानि तेषु सुलोचनेष्वपि लभ्यते इति त्वन्ये ॥ अन्धादित्वमेवाह
रेवत्यादिचतुष्केषु नामानि प्रतिभं जगुः । अन्ध ? माकेकरं २ चिल्लं ३ सुलोचन ४ मिति क्रमात् ॥ ६० ॥
व्याख्या - आकेकरं काणं । चिलं चिप्पाक्षं । अत्र दिनशुद्धिकृत् ग्राह
" रविरिक्खा छ ब्बाला बारस,
तरुणा य नव परे थेरा । तरुणेहिं जाइ थेरेहिं न जाइ,
बाले भमइ पासे ॥ १ ॥ " न प्रेतकर्म कुर्वीत यमले सत्रिपुष्करे । क्रूरमिश्रध्रुवासु तथा मूलानुराधयोः ६१
व्याख्या -- प्रकर्षेण इतो गतो भवान्तरं प्रेतस्तस्य कर्म लोकरूडं । यमले इति, पञ्चके तु तद्दर्जनं प्राग
रविकुजवारौ चात्र त्याज्याविति दिनशुद्धौ ।
प्यूचे अन्यत्र त्वेवम्
"पुण्याश्विनी स्वातिहस्ता ज्येष्ठा श्रवणरेवती । एषु प्रेतक्रिया कार्या रविवारं विना बुधैः ॥ १ ॥”
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१२६
आरम्भ-सिद्धिः
मृते साधौ पञ्चदशमुहूर्तेनैव पुत्रकः । एकत्रिंशन्मुहर्त्तस्तु क्षेप्यः शेषैस्तु भैरुभौ ॥ ६२ ॥
66
व्याख्या–भानां पञ्चदशमुहूर्त्तत्वादि प्रागुक्तं । नैवेति अभिजित्यपि न कार्यः पुत्रकः अवड्ढ अभिई न कायन्वो " इत्युक्तेः । क्षेप्य इति पुत्रकः कृत्वा मृतसाधुपार्श्वे स्थाप्यः, संस्कारावसरे मध्य एव क्षेप्यश्चेति रीतिः ॥ सर्पदष्टः सुपर्णेन रक्षितोऽपि न जीवति । मूलार्द्राभरणीयुग्ममघाश्लेषाद्विदैवतैः ॥ ६३ ॥
व्याख्या - न जीवतीति शेषेषु जीवतीत्यर्थः । मूलेत्यादि, विवेकविलासे त्वेवम्" मूलाश्लेषामघाः पूर्वात्रयं भरणिकाश्विनी ।
कृत्तिकार्द्रा विशाखा च रोहिणी दष्टमृत्युदाः ॥ १॥ " तथा" तिथयः पञ्चमी पष्ठ्यष्टमी नवमिका तथा । चतुर्दश्यप्यमावास्याऽहिना दष्टस्य मृत्युदाः ॥ २ ॥ दष्टस्य मृतये वारा भानुभौमशनैश्चराः ।
प्रातःसन्ध्यास्तसन्ध्या च संक्रान्तिसमयस्तथा ॥ ३॥ " इत्यादि ॥ जातरोगस्य पूर्वार्द्रास्वातिज्येष्ठाहि भैर्मृतिः । भवेन्नीरोगता रेवत्यनुराधासु कष्टतः ॥ ६४ ॥ मासान्मृगोत्तराषाढे विंशत्यह्नां मधासु च । पक्षेण तु द्विदैवत्ये धनिष्ठाहस्तयोस्तथा ॥ ६५ ॥ व्याख्या-उत्तराषाढेति, अभिजिजात रोगस्य मासद्वयेन मृत्युरारोग्यं चेति वृद्धाः ॥ भरणीवारुणश्रोत्र चित्रास्वेकादशाहतः । अश्विनी कृत्तिकारक्षोनक्षत्रेषु नवाहतः । ६६ ।। आदित्यपुष्पा हिर्बुध्न रोहिण्यार्यमणेषु तु । सप्ताहादिह ताराया यदि स्यादनुकूलता ॥ ६७ ॥ व्याख्या - ताराया इति " शुक्लेऽप्यासूत्थिते रोगे " इत्युक्तेः ॥ प्रसङ्गान्मृत्युज्ञानं लिख्यते— "आवाह धरेविभुअंगह, पनरहमाहि ठवे विणु अंगद | बारह बाहिरि तस्स य दिजइ, जीवियमरण फुडं जाणिजइ ॥ १ ॥ ornaraभमादौ दत्त्वा भुजङ्गस्थापना यथा - स्थापना यथा नं. २.
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तृतीय विमर्श
Sprock
अत्र ये ये ग्रहा येषु येषु भेषु स्युस्ते ते तेषु तेषु भेषु देयाः, ततो sर्कभाद्रोगिनामभं यावद् गण्यते । यद्याद्यनाडीमध्ये प्रथमं १ नवमं९ त्रयोदश १३ एकविंशं २१ पञ्चविंशं २५ वा स्यात्तदा मरणं । यदि द्वितीयनाडीमध्ये द्वितीयं २ अष्टमं ८ चतुर्दशं १४ विंशं २० षड्विंशं २६ वा स्यात्तदा बहुक्लेशः । यदि तु तृतीयनाडीमध्ये तृतीयं ३ सप्तमं ७ पञ्चदशं १५ एकोनविंशं १९ सप्तविंशं २७ वा स्यात्तदाऽल्पक्लेशः । शेषद्वादशभेषु आरोग्यं । शुभाशुभग्रहवेधाच्च विशिष्य शुभाशुभं वाच्यं । यतिवल्लभे त्वेवमेव चक्रमाद्रमादौ दवा स्थाप्यमूचे
" आद्राद्यैः पञ्चदशभिस्त्रीणि त्रीण्यन्तरा त्यजन् । त्रिनाडिचक्रे चन्द्रा १ र्क २ जन्म ३ वेधे न जीवति ॥ १ ॥ विनाडिकचक्रस्थापना यथा नं. ३.
अमपूह चिस्वावियेम्पू उ श्र धरा पूरे अभ करोम्
चन्द्रार्कजन्मेति, अयं भावः - 'सूर्येन्द्रो रोगिणश्च कनाख्यां चेत्स्यान्मृत्यू रोगकाले नरस्य' इति । दिनशुद्धिग्रन्थे तु त्र्यन्त्रयत्यागं विनाऽप्यार्द्रादिचक्रस्थापनं फलं चैत्रमूचे, तथाहि-
""
आई अद्दा मिगं अंते, मज्झे मूलं पइट्ठिअं ।
रविंदू जम्मनख्खत्तं, तिविद्धो न हु जीवई ॥ १ ॥ " एतत्सूचित त्रिनाडिकचक्रस्थापनेयम् - नं ४.
हचिववि
ततश्च
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জিনতস
मू
- "रविंदूजम्मनख्खत्तं एकनाडीगयं जया ।
तया दिणे भवे मच्च नन्नहा जिणभासिअं ॥२॥ " केऽप्यत्रैवमप्याहुः" रोगिणो जन्मऋक्षस्य एकनाड्यां यदा रविः । यावद्दक्षं रवेर्भोग्यं तावत्कष्टपरंपरा ॥ १ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
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रोगिणो जन्मऋक्षस्य एकनाड्यां यदा शशी । तदा पीडां विजानीयादष्टप्राहरिकीं ध्रुवम् ॥ २ ॥ क्रूर ग्रहास्तदाऽन्ये तु यदि तत्रैव संस्थिताः । तदाsकाले भवेन्मृत्युः सत्यमीशानभाषितम् ॥ ३ ॥ एतैरन्यैश्व प्रकारौभाग्य क्रूरग्रहदशेन्दुप्रातिकूल्यतिथ्यादिच्छेदादिभिर्यथानायं रोगिणो मृत्युसमयो निर्णेयः ॥ भैषज्यमिष्टं मृगवारुगानुराधाधनिष्ठाश्रुतिरेवतीषु । पुष्याश्विनी राक्षस हस्त चित्रापुनर्वसुखातिषु देहपुष्टयै ॥ ६८ ॥ व्याख्या-- - भैषज्यं रसायनांदि । वारविशेषेऽनुक्तेऽपि सर्वत्र सौम्यवारा ग्राह्याः, इe asपि, भैषज्यस्य तत्रोक्तेः । एवं हय १ गजकर्म २ पशुविधि ३ नाटक ४ वापी ५ कूपा ६ राम ७ बालनामस्थापन ८ वेश्मकरण ९ हयवाहन १० बीजोप्ति ११ नगरादितोरणोच्छ्रय १२ सुरपूजादि १३ सर्वमंगल्यकस्वपि विशेषानुक्ते सौम्यवारा रविवारश्व ग्राह्या इत्यूह्यम् ॥
स्नानमुल्लाघनस्येष्टं वारयोर्तेन्दुशुक्रयोः । ब्राह्मपौष्णोत्तराश्लेषादित्यस्वातिमघासु च ॥ ६९ ॥
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व्याख्या - उल्लाघनं नीरुजीकरणं । वारेषु शुक्रेन्दू, भेषु ब्राह्मादीनि च त्याज्यानि । पू (पौ) र्णभद्रे बुधगुरू, हर्षप्रकाशे शनिश्व त्याज्या उक्ताः ॥ अभ्यंग मर्ककुजजीवसितेषु पर्वसंक्रान्तिविष्टिषु विवर्जित योगयुग्मे । कुर्याद् द्विषड्भुजग८दिक्१० तिथि १५शक्र १४ विश्व१३संख्ये तिथौ च न कदाचन भूतिकामः ॥ ७२ ॥
व्याख्या— अभ्यङ्गमिति स्वास्थ्येन तैलाभ्यङ्गयुतं स्नानमित्यर्थः । पर्वा - पयर्केन्दु ग्रहणदीपोत्सवादीनि । संक्रान्तीति सूर्य संक्रमणदिवसे । योगौ व्यतिपातवैधृत्याख्यौ, व्रणमुक्तस्य तु व्यतिपातविष्टयोरपि न स्नाननिषेधः । उक्तञ्च– " रविमन्दारवारेषु विष्टौ वा व्यतिपातकें |
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स्नातव्यं व्रणमुक्तेन शशिन्यशुभतारके ॥ १ ॥ भुञ्जीतानं नवं दत्त्वा शुभेऽह्नि ध्रुवचन्द्रभे । पुनर्वसुकर श्रोत्ररेवतीनां द्वयेषु च ॥ ७१ ॥ व्याख्या - द्वयेष्विति एवमष्टौ भानि ॥
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तृतीय विमर्शः
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राजावलोकनं कुर्यान्मृदुक्षिप्रधुवोडुभिः। वासवश्रवणाभ्यां च सुधीः सर्वार्थसिद्धये ॥ ७२ ॥
व्याख्या-राजेति, यो यस्य स्वामी स तस्य राजा ॥ गजवाजिकर्म नेष्टं रौद्रे पूर्वो ३ त्तरा ३ विशाखासु । भरणित्रितयाश्लेषाद्वितयज्येष्ठाद्वयेषु तथा ।। ७३ ॥
व्याख्या-गजानां कर्म शान्तिकदन्तकर्तनादि । अश्वानां शान्तिकनीराजनादि। रौद्रे इत्यादि शेषेषु तु कार्यमित्यर्थः । सामान्योक्तेऽपि चायं विशेषो दृश्यः-“ अश्विनी ? पुनर्वसु २ पुष्य ३ हस्तत्रयेषु ६ गजानां, तथाऽश्विनी . मृग २ पुनर्वसु ३ पुष्य ४ हस्त ५ स्वाति ६ धनिष्ठा ७ शतभिषक् । रेवती ९ वश्वानां च कर्म कार्यमिति " ॥
गवां स्थानं च यानं च प्रवेशश्च न शस्यते। . तिथो भूताष्टदर्शाख्ये श्रोत्रचित्राध्रुवे च मे ॥ ७४ ॥
व्याख्या-गवामित्युपलक्षणस्वाद् गजतुरगमहिष्यादीनामपि । स्थानमिति बन्धनाथ स्थानकरणं यानं गोचरादौ । प्रवेशो गृहादौ । भूतेति चतुर्दशी ॥ क्रयविक्रयो न हि गवां हस्तज्येष्ठाश्विनीधनिष्ठाभ्यः। अन्यत्र पौष्णवारुणराधादित्यद्वयेभ्यश्च ॥ ७५ ।।
व्याख्या-अन्यत्रेति हस्तादिवेव कार्यावित्यर्थः । अपि च" तीक्ष्णेषु पशुं दमयेत् दारुण्यं न ध्रवेषु संग्राह्यम् ।
पशुपोषणं विधेयं चरेषु दीक्षा रतं मृदुषु ॥१॥” इति लल्लः ॥ हलस्य वाहनारंभं न हि कुर्वीत कहिंचित् । पूर्वासु कृत्तिकासार्पज्येष्ठााभरणीषु च ॥ ७६ ॥
व्याख्या वाहनारंभमिति प्रथम हलेन भूम्युल्लेखनम् ॥ क्षेत्रारंभदिने किं भं ग्राह्यमित्यत्रार्थे हलचक्रमाह
हलचक्रेऽर्कमुक्ताद्भात्रयं नेष्टं शुभं त्रयम् । त्यजेन्नव शुभाय स्युः कृषो भानि त्रयोदश || ७७ ॥
व्याख्या-अर्कमुक्तादिति अर्केण भुक्त्वा मुक्ताद्भादारभ्याष्टाविंशतिभानि हलचके एवं स्थाप्यानि । तथाहि
" लागलं दण्डिका यपं योत्रद्वयसमन्वितम् । हलं न्यस्य लिखेद्भानि रविणो भुक्तधिष्ण्यतः ॥ १ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
दण्डिकाहलयूपानां द्विद्वयन्तेषु त्रयं त्रयम् ।
योत्रयोः पञ्चके न्यस्य गणना चक्रलोङ्गले ॥ २॥" भत्र चाश्विनी भुक्तभं प्रकल्प्य, भरणीस्थाकल्पनया हलचक्रस्थापना यथा-----
श ध श्र लक्ष्मीः
रेउपू
स्वामिनो भयम् । अश्विनी भुक्तभं प्रकल्प्य
लक्ष्मीअउपमृज्ये भरणीस्थार्क ।
अ
भ
---
कल्पनया हल
चक्र दंडिका
गवां हानिः रो मृ आ
स्थापना
लक्ष्मीयोत्र
मपूउहचि
लांगल स्वामिनो भयम्
पु पु अ
यूपलक्ष्मी ततश्च-"दण्डिकास्थे गवां हानि!पस्थे स्वामिनो भयम् ।
लक्ष्मीर्लाङ्गलयोत्रस्थे क्षेत्रारंभदिनर्भके ॥ १॥"
इति नरपतिजयचर्यायां । अत एव त्रयं नेष्टमिति, दण्डिकामूलस्थं त्रयं नेष्ट, तदने हलाधःस्थत्रयं शुभ, दंडिकामुखयूपप्रान्तद्वयसस्कानि नव त्यजेत, शेषाणि त्रयोदश भानि योत्रद्वयहलशीर्षस्थानि शुभानि । उक्तञ्च व्यवहारप्रकाशे" पूष्णो भुक्तभतस्त्रयं न शुभदं श्रेष्ट चतुर्थात्रयम्, न श्रेष्ठं त्रितयं च सप्तमभतो दिग्भाच्छुभं पञ्चकम् । सीरेऽग्न्यं त्रितयं न पञ्चदशतोऽप्यष्टादशात् पश्चक, श्रेष्टं नैव शुभ त्रयं च विकृतेः २३ षड्विंशतेः सत्रयम् ॥१॥" बीजोप्तो प्रतिषिद्धानि पूर्वाभरणीद्वयम् । सादित्यश्रुतिज्येष्ठाविशाखावारुणान्यपि ॥ ७८ ।।
व्याख्या–प्रतिषिद्धानीति, शेषभेषु तु सर्वबीजानामुप्तिः शुभतरा स्यादि. त्यर्थः । परं पूर्वोक्तचक्रशुद्धेषु शेषभेष्विति ज्ञेयमिति रत्नमालाभाष्ये । विशेषस्तु
" स्थाप्योऽहिः सूर्यमुक्ताद्धात्रिनाड्येकान्तरक्रमात् । मुखे त्रीणि गले त्रीणि भानि द्वादश चोदरे ॥ १ ॥ वेदाः ४ पुच्छे बहिः प दिनभाञ्च फलं वदेत् । क्ष्वेडमअनमन्नाप्तिः क्रमानिष्कणतेतिभीः ॥ २॥"
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तृतीय विमश
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मुखस्थे विके श्वेडं लस्यानामवृद्धिः स्यात् । गलस्थे निकेऽञ्जनमङ्गारक पातः । उदरस्थे द्वादशके वृद्धिः। पृच्छस्थे चतुष्के निस्तण्डुलता बगसरमिति यस नाम । बहिःस्थे पञ्चके मूषकाढीतीनां भीः । बिनाडीकफणिचक्रस्थापना यथा-नं५
अभ यूरो मुआपु पु म पूउह विस्वी रि अज्ये म पु
ष श पू उरे
इदं बीजोतिदिन· विचार्य मिति रत्नमालाभाष्ये । व्यवहारप्रकाशेऽप्युक्तम् . " अर्कभुक्ताष्टमाश्रीणि द्वादशाच त्रयं शुभम् । बीजोप्नो षोडशात्रीणि एकविशात्तथा त्रयम्।
इदं द्वादश शुभानि शेषाण्यशुभानि ॥ कृषिरूचे सूर्यादिषु५कुररसे६न्दग्नि३भूर से पन्दु१युगैः।। असुख१ सुख२ मध्य३ लाभा४ रति५ रति६ मध्या७ र्थ ८
दुःख ९ कृत्क्रमशः ।। ७९॥ व्याख्या-अन्न कृषिचक्रे शनिचक्रवदनुक्तोऽपि नराकारोऽभ्यूह्यः, तत मुखादिनवस्थानेषु सूर्यभादारभ्याष्टाविंशतिभान्येवं स्थाप्यानि, यशा|_ कृषिपुरुषः जलाशयं न कुर्वीताश्विनीमरणिमिश्रभै। मुखे ५ असुखं दक्षिणकरे सुख
आजपादश्रुतिस्वातिभाग्यदारूणभैस्तथा पादद्वये ६ मध्यम __ व्याख्या-जलाशयं वापीकूपतडागादिकं । आज वामकरे लाभ: पादं पूर्वभाद्रप्रदा। भाग्यं भगदैवतं पूर्वफल्गुनी । उदरे ३ अरतिः मस्तके रतिः
दारुणान्यश्लेषादीनि ॥ नेत्रद्वये ६ मध्यमं न वृक्षरोपणं कुर्यात्क्रूराद्रादित्यवह्निमः। गुदे ५ लक्ष्मीः । | गोदावं अश्लेषामारुतज्येष्ठाधनिष्ठाश्रवणैरपि ।
व्याख्या-आदित्यं पुनर्वसु । मारुतं स्वाति ॥ नृत्तं मैत्रे स्याद्वनिष्ठाद्वये वा, हस्तज्येष्ठापुष्यपोष्णोत्तरे३ वा। संधानाद्यं नाचरेत्किं च मुक्त्वाधिष्ण्यं क्रूरं दारुणं बारुणं वा।
व्याख्या-उत्तरास्तिम्नः । एषु नाटकं कर्तुं शिक्षितुं जा पारस्यते । संधा. नामिति मदिरादिकं नाचरेन्न कार्यमित्यर्थः ॥ इत्युक्तान्यन्त्र विभशे नामग्राहमे तान्युपयोगीनि कार्याणि । सन्ति चान्यान्यपि शुभाशुभानि कारागिण । तेषाम संक्षेपः पूर्णभद्रोक्तः
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आरम्भ-सिद्धिः
" रित्ततिहि असुहजोगे कूरविलग्गाइ कूरवारे अ।
आयरह कसिणपख्खं असुहे अन्नत्थ विवरीअं ॥ १ ॥"
अत्र 'कूरविलग्गाइ त्ति' यल्लग्नं करषड्वर्ग करग्रहाध्यासितं ऋरदृष्टं वा, भादिशब्दान्नक्षत्रेष्वपि नीयोग्रमिश्रेषु करग्रहाध्यासितेषु पातोपमहादिहतेषु वा । 'क्रूरवारे अ' त्ति चशब्दात् क्रूरग्रहहोरायां करकरणे च विष्टयाख्ये । “ अन्नस्थ विवरीअं ति" शुभे कार्ये तिथ्यादीनि सर्वाणि शुभान्येवादरणीयानि । लममपि शुभषड्वर्ग शुभग्रहाध्यासितं शुभदृष्टं वा । भान्यपि कार्यानुसारेण चरलघुमदुध्रुवाणि सौम्यग्रहाध्यासितानि ग्राह्याणीत्यर्थः । न चैतेषु कार्येषु कश्चिल्लमस्याग्रहः, " लग्नं विवाहे दीक्षायां प्रतिष्ठायां च शस्यते " इति च वक्ष्यमाणत्वात् । ये पुनरेतेष्वपि लग्नमादरीतुमिच्छन्ति, तेषां कृतेऽस्मिन् विमर्शे मौञ्जीबन्धाद्यग्निपरिग्रहान्तकार्याणामधेतनविमर्शे च यात्रायाः वास्तुनिवेशप्रवेशयोश्च सूत्रकृतैव लग्नबलान्युक्तानि । येषु तु नोक्तानि तेष्वेवं" शुक्रज्ययोबलवतोः शेषेष्वबलेषु पुप्रसवयोगे। द्विपदे लग्ने शीर्षोंदयिनि च गुरुशुक्रयुतदृष्टे ॥ १ ॥ यद्वा त्रिकोणकेन्द्रस्थितयोरनयोः स्वजन्मलग्ने वा । लग्नोपचयगे चन्द्रे ऋतौ सुतार्थी भजेद्भार्याम् ॥ २ ॥ "
अत्र पुंप्रसवेति पुंप्रसवयोगो जातकोक्तः । स चवम्"विषमः विषमनवांशसंस्थिता गुरुशशांकलग्नार्काः । पुजन्मकराः सममेषु योषितां समनवांशगताः ॥ १ ॥ बलिनौ विषमेऽर्कगुरू नरं स्त्रियं समग्रहे कुजेन्दुसिताः । लग्नाद्विषमोपगतः शनैश्वरः पुत्रजन्मकरः ॥ २ ॥” इत्याधानम् ।। सीमन्तकर्म पुरुष लग्नेशे च त्रिकोणकेन्द्रस्थे । जीवे त्रिकोणकेन्द्रव्ययाष्टमेष्वशुभरहितेषु ॥ ३ ॥ इति सीमन्तकर्म । गुरौ भृगौ वा केन्द्रस्थे मिश्रतीक्ष्णोग्रवर्जिमे ।। जातकर्म शिशोः कुर्यान्नामविन्यसनं तथा ॥४॥ इति जातकर्म३ नामस्थाने। कर्णवेधः शुभे लग्ने सौम्यग्रहविलोकिते । क्रूरोज्झिते च लाभत्रिसंस्थैः सौम्यग्रहैः शुभः ॥५॥ इति कर्णवेधः ५। ____ अन्नप्राशनलग्ने मादिस्थे ग्रहे फलमेवम्क्षोणे चन्द्रे भिक्षुः संपूर्ण सत्रदश्च यज्वा स्यात् । 'झेज्यसितैर्लग्नस्थैर्नीरुक्क्रूरैर्महाव्याधिः ॥ ६॥ , निधनत्रिकोणकेन्द्रान्त्यगैः फलं तद्यदेव तनुगेषु । लग्नात् षष्ठाष्टमगश्चन्द्रोऽनिष्टः शुभयुतोऽपि ॥७॥ इति पूर्वाशनम् ६ ।
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तृतीय विमर्शः
१३३
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-
क्षौरं शुभकरमिष्टैः केन्द्रस्थै! शुभं ग्रहैः क्रूरैः । द्वादशधनत्रिकोणाष्टगैर्भवेदसुखवृद्धिकरम् ॥ ८ ॥ इति क्षौरम् ७ । चूडा शुभाय क्षुर कर्ममेषु, सौम्येषु केन्द्रे म्रियते कुजेऽस्त्रात् । क्षीणे क्षयायोडुपती जराय, भानुः सुतस्तस्य च पशुताप्त्यै ॥९॥
इति चौलम् । सौम्यैर्दशमोपगतैर्लग्ने चन्द्रात्मजे गुरौ वाऽपि । विद्याशिल्पारम्भौ जीवेन्दुजवर्गगे चन्द्रे ॥ १० ॥ __ इति विद्या ९ शिल्पारंभी १० । बुधे विलग्ने शशिनि ज्ञराशौ गुरुवीक्षिते ।। हिबुक स्थैः शुभैर्नृत्यं काव्यं चारभ्यते बुधैः ॥ ११ ॥
इति नाट्य ११ काव्यारंभौ १२ । शीतांशी बुधराशिस्थे शुभेषूदयवर्तिषु । मंत्रादिग्रहणं कार्य हित्वा पापग्रहोदयम् ॥१२॥ इति मंत्रादिग्रहणम् १३। पित्र्येशयाम्यमूलेन्दुभेषु शुद्धेऽष्टमेऽपि च । वेतालसिद्धिः पाताले भृगौ से कुंभलग्नगे ॥ १३ ॥
इति वेतालमंत्रादिसाधनम् १४ । हिबुके गुरौ लग्ने धर्मारंभो रवेर्दिने । गुरुक्षलग्नवर्ग वा शुभारंभास्तयोबले ॥ १४ ॥ ___ इति धर्मारंभ १५ नन्द्यादिके १६ । मोक्षार्थिनां च दीक्षा स्थिरोदये कर्मगे त्रिदशपूज्ये । पापैर्धर्मप्राप्तैर्बलहीनः प्रव्रजितयोगे ॥ १५ ॥
__अत्र प्रवजितेति चतुरादिमिर्ग्रहरेक स्थानस्थैः प्रवज्यायोगः। तथा जन्मनि यत्र राशौ चन्द्रस्तद्राशीशोऽन्यग्रहैरदृष्टः सन् , शनि पश्येत्तदा प्रव्रज्यायोगः । यदि वा तद्राशीशं तथाविध शनिः पश्येत्तदपि प्रव्रज्यायोगः ॥ इति दीक्षा १७। पूणे चन्द्रे वेश्म ४ गेऽऽम्बर १० स्थे जीवे लग्ने वाक्पतेर्वासरे च। भीमन्त्यायुष्याणि कार्याणि कार्याण्युक्तस्तस्मिन्नेव राज्याभिषेकः ॥१६॥
इस्यायुष्यकार्याणि १८ । वस्त्रग्रहणं कुर्यात् रैस्त्यक्ताष्टमान्तिमैर्लग्ने । उपचयमेषु च सद्भिदृष्टेष्विन्दावुरचयस्थे ॥ १७ ॥ इति बसण्यापारः ५९।
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आरम्भ-सिद्धिः
औषधसेवा विहिता शुभाय बलवत्सु सौम्यखेटेषु । निधनान्त्यसप्तमरिपुत्यक्ते क्रूरे विना रिट ॥ १८ ॥ विना रिष्टमिति रिष्टयोगा जातको क्तास्तदभावे इत्यर्थः ॥ इत्यौषधसेवा २० लग्नेचरे केन्द्रगते च जीवे, क्रूरे दिने रिक्ततिथौ कृशेन्दो | केन्द्रत्रिकोणोपगतैश्च पापैः स्नानं हितं रोगविमुक्तिकाले ॥ १९ ॥
,
इति नीरुक् स्नानम् २१ ।
भौमे दिवाकरे या दशमायगते शुभग्रहविलग्ने । विद्यायुधोपजीवी योनिवशादाश्रयेदीशम ॥ २० ॥ योनिवशादिति वेणं हरिभमित्यादिकं योनिवैरं त्यक्त्वेत्यर्थः । इति नृपादिसेवा २२ ॥
लस्थिते शुभे शुद्धेऽष्टमे धिष्ण्ये स्वयोजिके । रक्षावृद्धिः क्रयश्चापि पशूनां शोभनो भवेत् ॥ २१ ॥ स्वयोनिके इति उरूनां योऽन्योऽश्वद्विपेत्यादिना य: पशुस्तद्योनिके नक्षत्रे । इति पशुकर्म २३ ॥
दौर्बल्ये पापानां शुक्रेन्दुबले गुरौ विलग्नस्थे ।
चन्द्रे जलराशिस्थे कुर्यात् कृषिकर्मबीजवृक्षोप्तोः ॥ २२ ॥ इति कृषिकर्म : ४ बीज २५ वृक्षोत्रयः २६ । तोयानां कर्माणि प्रोक्तानि बुधोद्गमे गुरोरुदये । चन्द्रे जलचरराशौ रव १० स्थासिते दुर्बलैरशुभैः ॥ २३ ॥ इति जलाश्रयादि २.७ ।
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शुभदा यद्वयोमचरैः सौम्यैलग्नाभ्रवित्तलाभगतैः ।
क्रूरैर्ययाष्टवर्ज विपणिः सेन्दौ सिते लग्ने ||२४|| इति विपणिः२८ | वित्तप्रयोगकालश्वरोदये पुत्रधर्मकेन्द्रेषु । शुभयुक्तेष्वथ निधने ग्रहरहिते शोभनः प्रोक्तः ॥ २५ ॥ इति वित्तप्रयोगः २९ ।
दशमैकादशे लग्ने वित्तकेन्द्रत्रिकोणगैः ।
शुभैः पण्यस्य कर्मोक्तं वर्जयित्वा घटोदयम् ॥ २६ ॥
दशमैकादशे इति स्वजन्मराशेर्जन्मलग्नाद्वेति शेषः । पण्यं भाण्डं रिक्त -
कुम्भधारिपुरुषरूपत्वात् कुम्भलग्नस्य वर्जनम् । इति क्रयविक्रयौ ३० । चन्द्रोदये तद्दिवसे केन्द्रे ज्ये रससंग्रहः । स्तेयस्य समय लग्ने बुधे भौमे नमः स्थिते ॥ २७ ॥
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तृतीय विमर्श
अत्र चन्द्रोदये इति लग्नस्थे चन्द्रे | इति रससंग्रह ३१ स्तेये ३२ ॥ किं बहुना ? व्ययनैधनसंशुद्ध सदोपचयोइये ।
यस्तेषु लग्नस्थेषु ।
केन्द्रे ज्ये इति केन्द्रस्थे गुरौ ।
सर्वारम्भेषु संसिद्धिश्चन्द्रे चोपचयस्थिते ॥ २९ ॥ सोपचयोदये इति, इष्टपुंसो जन्मलग्नाजन्मराशेर्वोपचयस्था ये राश
प्रायः शुभा न शुभदा निधनव्ययस्था,
धर्मान्त्यधी निधन केन्द्रगताश्च पापाः ।
सर्वार्थसिद्धिषु शशी न शुभो विलग्ने,
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सौम्यान्वितोsपि निधनं न शिवाय लग्नम् ॥ ३० ॥
अत्र निधनमिति, इष्टपुंसो जन्मलग्नाज्जन्मराशितो वाऽष्टमं लग्नं क्वापि कार्ये न ग्राह्यमित्यर्थः ॥ क्रूरकर्म पुनरेवम् - अभिचारविधिर्बलवाचंन्द्रे क्रूरस्य योगवर्गस्थे । रिपुनिधने लभस्थे रिष्टयोगे बुधे बलिनि ॥ ३१ ॥
अभिचारो मंत्रादिनोचाटनं । रिपुनिधने इति, रिपोर्जिंघांसितस्य जन्मलग्नाज्जन्मराशेर्वा योऽष्टमो राशिस्तस्मिँल्लग्नस्थे सति इत्यादि । एषु यानि निरवद्यकर्माणि तानि शुभेच्छुभिरादरणीयानि यानि तु धर्मबाधकानि तानि पापभीरुभिः परिहरणीयानि, न च सावद्यप्रवृत्तेभ्यः प्ररूपणीयानि ॥
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॥ इति कार्यद्वारम् ॥ ७ ॥
॥ इति श्रीमति आरम्भसिद्धिवार्तिके कार्यपरीक्षात्मकस्तृतीयो विमर्शः ॥ ३ श्रीसूरीश्वर सोमसुन्दर गुरोर्निःशेषशिष्याग्रणी
र्गच्छेन्द्रः प्रभुरत्नशेखर गुरुर्देदीप्यते साम्प्रतम् ।
तच्छिष्याश्चव हेमहंसरचितस्यारंभसिद्धेः सुधी
शृङ्गाराभिधवार्तिकस्य शिवडक ३ संख्यो विमशोऽभवत् ॥ १ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
॥ चतुर्थो विमर्शः ॥ ४ ॥ अथ गमद्वारम् ॥ ८
अथ गमद्वारं वदनादौ प्रस्थानविधिमाहप्रस्थानमन्तरिह कार्मुकपञ्चशत्याः, प्राहुर्धनुर्दशकतः परतश्च भूत्यै । सामान्य १ मांडलिक २ भूमिभुजां ३ क्रमेण,
स्यात् पञ्च सप्त दश चात्र दिनानि सीमा ॥ १ ॥
व्याख्या - प्रस्थानं प्रसिद्धं, यस्किल यात्रामुहूर्त्तसाधनाय क्रियते, तत्करणे च तिथिवारनक्षत्राणि तान्येव ग्राह्याणि यानि यान्त्रायां वक्ष्यति । तच राजादिराचार्यादिश्च स्वयं देहेन कुर्यात् छत्रधनुःस्व खड्गशयनासनायुध सन्नाहदर्पणादि प्रास्थानिकमक्षतमालापुस्तकादि वा वस्तु, गन्धार्चादिपूर्व प्रस्थापयेत् श्वेतवस्त्राद्यपि, न तु कृष्णजीर्णादि, नापि शंखमद्यौषधलवणस्नेहगुडोपानत्प्रभृति अन्यदप्युपहतं वस्तु वा । कार्मुकेति चतुर्विंशत्यङ्गुलमानैश्चतुर्भिर्हस्तैर्धनुः । प्रस्थानं यातां दक्षिणपार्श्वे साधनीयमिति वृद्धा: । सामान्येति, भूमिभुजो महानृपाः, मांडलिका मंडलेशा, ताभ्यामन्ये ये ते समाना एव, प्रस्तावादन्योऽन्यमिति स्वार्थे यणि सामान्याः, वाचस्पतिमते पुल्लिंगोऽयं शब्दः । दश चेति महानृपः प्रस्थानं प्राप्त एकत्र स्थाने दशाहं नोल्लंघेत दशदिनमध्य एव पुरस्तात्प्रयाणं कुर्यादित्यर्थः । एवं पच सतेत्यत्रापि भाव्यं । अथ कार्यवशात्तिष्ठेत् प्रास्थानिकं वा स्थापयेत् तदा पुनरन्येन सुमुहूर्तेन प्रस्थानकादप्रतश्वलेत्, न तु प्रथममुहूर्त्त बलेन । बिशे वस्तु — कतरदप्युद्दिष्टस्थानं प्रति सुलग्नमुहूर्ते प्रस्थितो नृपादिर्बहूनि प्रयाणानि गत्वा क्वचिदेकत्र प्रदेशे चेत्तिष्ठति, तत्र परमतान्येवं - " यदि क्वचित् पथि त्रिदिनीं स्थितस्तदाऽग्रे पुनरन्यसुमुहूर्त्तबलं गृहीत्वा चलनीयमिति गौतमः । पञ्चाहस्थितावित्यत्रिः । सप्ताहस्थिताविति चयवनः । लल्लोऽप्याह
>>
“ योधानामविरोधेन तोयेन्धनवशेन वा ।
त्र्यादिरात्रोषितां सेनां पुनर्भद्रेण योजयेत् ॥ १ ॥”
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चतुर्थी विमर्श
परमेतानि मतान्ययुक्तानि । यतः प्रथमे सुनिश्चिते लग्ने प्रस्थितो यावस्वगृहं नायाति तावत्तदेव लग्नमिति बहूनां सम्मतं मतमिति रत्नमालाभाष्ये । तथा एकेन सुमुहूर्तसुलग्नेन प्रस्थित एकामेव यात्रां कृत्वा पश्चानिवर्तेत, न तु प्रथमलग्न मुहू हूर्त्त बलेनैव द्वितीयामपि यात्रां कुर्यात् ।
66
यल्लल:- संसाध्यैकां यात्रां वीर्यादवहीयते ग्रहः सर्वः स्वेवं व्यवहारसारे
46
१३७
"" । नौ प्रस्थानं
रेवत्यां तु समुत्थानं श्रेष्ठं स्वामिहितावहम् । अश्विन्यां गतगामित्वं नौर्भवेद्रहुरत्नभृत् ॥ १ ॥ अनुराधामृगे चैव धनिष्ठा हस्तवैष्णवे । प्रस्थापयेत्ततो नावं सर्वकामसमृद्धये ॥ २ ॥ पूर्वाफाल्गुनी सौम्ये च हस्तचित्रासु वैष्णवे । वादित्रमङ्गलैश्चापि पोतं संचारयेजले ॥ ३ ॥
""
८.
प्राक् सीमाकथनेन पञ्चमेऽह्नि चलनीयमेवेति नियमितं । अथ यात्राहाणां नवनक्षत्राणां मध्यात यैर्नक्षत्रैः कृतप्रस्थानेन पुंसा पञ्चभ्यो दिनेभ्यो ऽवगपि चलनीय तान्याह -
श्रुतौ तदहरन्येद्युर्धनिष्ठापुष्य पौष्णभे ।
तृतीये मैत्रमृगयो हस्तेन तुर्येऽहनि व्रजेत् ॥ २ ॥
"C
"3
व्याख्या -- चेत् प्रस्थानं श्रवणे कृतं तदा तद्दिन एव प्रस्थानादग्रतश्चलनीयं । तदहरित्याधारस्य " कालाध्वभावे" त्यनेन कर्मत्वे द्वितीया । अन्येयुरिति अन्यत्र द्वितीयेऽह्नि अन्येद्युः, पूर्वापराधरोत्तरादेद्युस् इत्याद्युस् प्रत्यये "अघणूसु" इत्यव्ययत्वं । तुर्येऽहनीति पारिशेध्यादश्विनीपुनर्वस्वोः कृतप्रस्थानेन पञ्चम दिनेऽग्रतश्चलनीयमेव, एवं सप्ताहदशाहयोरपि यथासंप्रदायमर्वाग्दिन निममोऽभ्यूः ॥ प्रस्थाने समयशुद्धिमाह -
यात्रा दिनतिथिताराबलशुद्धौ मृगकरानुराधासु । आश्विन पौष्णधनिष्ठाश्रुत्यादित्यद्वये श्रेष्ठा ॥ ३॥ व्याख्या दिनेति । रयछन्न १ मन्भच्छन्नं २ पयंऽपवणं ३ तहास निग्धायं ४ | सुरधणु ५ परिवेस ६ दिलादाहाइ ७ जुअं दिणं दुडुं ॥ १ ॥
""
इति हर्षप्रकाशे । अत्र दुट्ठमिति प्रावृषं विनेति सर्वत्राभ्यू, एतद्रहितत्वे दिनशुद्धिः ः स्यात् सौम्यवारेण वा । यदुक्तं
" गमनेकदियो वाराः क्रमशः कुर्वते फलम् ।
नैः ख्यं १ धनं २ रुजं ३ द्रव्यं ४ जयं ५ चैव श्रियं ६ वधम् ७ ॥ १॥" इति व्यवहारसारे । राजादीनां तु रविवारोऽपि शुभ इति व्यवहारप्रकाशे । तथा - " पडिवइनव मडुमिचउदसीसु गमणं करे न बुहवारे " इति हर्षप्रकाशे । यद्वा
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आरम्भ-सिद्धिः
चैत्राद्या द्विगुणा मासा वर्तमानदिनैर्युताः । सप्तभिस्तु हरेद्भागं यच्छेषं तद्दिनं भवेत् ॥ १ ॥ श्रीदिन १ कलह २ चैव नन्दनः ३ कालकर्णिका ४ । धर्मः ५ क्षयो ६ जयश्चेति ७ दिना नामसदृक्फलाः ॥ २ ॥
23
१३८
4.
इति यतिवल्लभे । तिथीति पक्षच्छिद्रावमफल्गुदग्धक्रूराख्यतिथीनां त्यागातिथिशुद्धि:, पूर्णिमाऽपि च त्याज्या | यत:- " पूर्णिमायां न गन्तव्यं, यदि कार्यशतं भवेत्” इति व्यवहारसारे । तारेति यदुक्तं - " जन्माधानान्विता " इत्यादि । ताराबलं च यात्रायामवश्यं ग्राह्यं । श्रेष्ठेति अभिजित्यपि यात्रा श्रेष्ठैव । यल्ललः -- “ अभिजिति कृतप्रयाणः सर्वार्थान् साधयन्नियतम् | विशेषस्तु — " दसमि तेरसि पंचमि वीअगो, भिगुसुओ गमणेऽतिसुहावहो ! गुरुपुन्वसुपुसविसेसओसयभिसा अणुराह बुहे तहा ॥ १ ॥
33
इति दिनशुद्ध । तथा चन्द्रसत्कगोचरादेः शिवभुजगेत्याद्यक्त दिनरात्रिसुहूर्तानां लग्नस्यापि च बलं संभवे ग्राह्यमेव । यदुक्तं
" पछि कुसलुलग्गि तिहि कर्जासिद्धिलाभं मुहतओ होइ । रिख्खेणं आरुग्गं चंदेणं सुख्खसंपत्ती ॥ १ ॥
39
इति दिनशुद्धौ । तथा - ' - "तिथ्यादिगुणाः सर्वे शुभेन लभ्यन्ते" इति लल्लः ॥ मध्या तु ध्रुवपूर्वाज्येष्ठाद्वयवारुणेषु यात्रा स्यात् । निन्द्यार्द्राभरणीद्वयचित्रात्रय सार्पपैत्रेषु ॥
४ ॥
""
व्याख्या - मध्येति एतानि दश भानि नेष्टानि नाप्यनिष्टानीति भावः । निन्द्येति यतः 'कृतप्रयाणोऽष्टास्वेषु कदाचिन्न निवर्तते " इति व्यवहारसारे । नारचन्द्रे तु ' ज्येष्ठामूलयोः श्रेष्ठा, चित्रास्वातिश्रवणधनिष्ठासु मध्या, उत्तरात्रवे च निन्या यात्रा" इत्युक्तं, विशेषस्तु -
66
"
अशुभे भे शुभे घस्त्रे दिवा यात्रादि साधयेत् । शुभे त्वशुभे रात्री यात्रादि साधयेत् ॥ १ ॥ यतः---"नक्षत्रं बलवद्रात्रौ दिने बलवती तिथि: " इति लल्लः ॥ अथ भविशेषाद्यात्रायै दिनांश नियम माह
ܙܐ
न दिवाद्ये ध्रुवमित्रैस्तीक्ष्णैर्मध्येऽथ लघुभिरन्त्येऽशे । अंशेष्विति रात्रेरपि मैत्रो १ ग्र २ च ३ र्न भैर्यात्रा ||५|| व्याख्या - त्रिभागीकृतस्य दिवसस्याद्येऽशे ध्रुवमिश्र भैर्यात्रा न कार्येत्यादि, इति त्रिभागीकृताया रात्रेराद्येऽशे मैत्रभेषु यात्रा न कार्या । उग्रभेषु द्वितीयेऽशे, चरमेषु तृतीयेऽशे चेति । यल्लल:
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"
चतुर्थी विमर्श:
धनहानिर्मृत्युर्वा नियतो भङ्गः पराजयश्चव । यस्मादेर्भिः कालः प्रायेण विवर्जयेत्तस्मात् ॥ १ ॥ अस्य वक्ष्यमाणपरिघस्य नापवादमाह
"
सर्वदारकौ पुष्यहस्तो, मैत्राश्विनी युतौ । तावेव सर्वकालीनौ मृगश्रुतिसमन्वितौ ६ ॥
·
वायव्य
"
व्याख्या - सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च द्वारं ययोस्तो, एपु परिघो भदिक्शूलं च न स्यादित्यर्थः । " श्रवणरेवत्यावपि सर्वदिग्द्वारके इति नारद्रे | सर्वकालीनाविति एषु भेषु 'न दिवाद्ये' इत्यादि न प्रयोज्यमि त्यर्थः । दिनशुद्धिकृता तु दिग्यात्रायां षड्भानां सर्वकालीनत्वमूचे । तथाहिपुवदिसि सव्वकालं रिद्धिनिमित्तं विहारसमयस्मि । पुस्सस्सिणिमिगहत्था रेवहसवणा गहेअन्या ॥ १ ॥ अथ यात्राया दिक्शुद्धिं वदन् परिघमाह -
""
"
सप्त सप्त गमने वसुऋक्षादुत्तराप्रभृति दिक्षु शुभानि । वह्निवायुपरिघोऽत्र न लंघ्यो, मध्यमानि तु मिथः स्वदिशोः स्युः ॥ ७ ॥
1
परिघयन्त्रं
धश पूउरे अभ
उत्तर
व्याख्या - वसुऋक्षं धनिष्ठा, तत आरभ्य सप्त सप्त भान्युत्तरादिचतुर्दिक्षु गमने शुभानि । भयं भावः - एतानि सप्त सप्तोदीच्यादिदिग्द्वारकाणि । तथाहिधनिष्ठादि सप्तभान्युत्तरद्वारकाणि, कोऽर्थः ? एडु भेषूदीच्यां यात्रा शुभेति श्रीस्थानाङ्गचन्द्रप्रज्ञतिवृत्यादिषु । एवं कृत्तिक मघाद्यनुराधादीनि त्रीणि भसप्तकानि क्रमात् पूर्वदक्षिणपश्चिम दिग्द्वार| काणीत्यतोऽस्मिन् भसप्त| कत्रये क्रमात् पूर्वादिदिक्षु शुभा । भत्रेति गमने । वह्निवानिति सप्तरेख चक्रवच्चतुर्दिक्षु कृ'त्तिकादिसप्तसप्तभेषु स्थापितेषु आग्नेयवायव्य को'जयोः परिघः स्यात् ।
यात्रा
तस्य स्थापना यथा
पश्चिम अ ज्ये मू पू
الكامل
कुरो मृआपु पुअ
अग्रि
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१४०
आरम्भ-सिद्धिः
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भयमाग्नेयवायव्यकोणावलंबितान्तरालरेखारूप: परिघो नोलंध्यः । अयमर्थ:धनिष्ठादिचतुर्दशभेपूत्तरप्राच्योरेव, मघादिचतुर्दशभेषु दक्षिणप्रतीच्योरेव च गन्त. व्यं । मध्यमानीति मिथः स्वानि स्वजनभूतानि परिकपार्श्वस्थत्वेन यानि भानि सन्ति, तेषां दिशोस्तानि पार्श्वस्थदिगुक्तानि भानि यात्रायां मध्यमानि स्युः, न शुभानि नाप्यशुभानीत्यर्थः । अयं भाव:-धनिष्ठासप्तकस्य कृत्तिकासप्तकं स्वं, तहिक पूर्वा, तस्यां गमने धनिष्ठासप्तकं मध्यमं । एवं कृत्तिकासप्तकस्य धनिष्ठासप्तकं स्वं, तहिक उत्तरा, ततस्तस्यां गमने कृत्तिकासप्तक मध्यमं । एव. मन्यार्धेऽपि भाव्यं । नन्वेवं परिघोकत्या दिक्षु यात्रायां भनियम उक्तः, विदिक्षु यात्रायां तु को भनियमः ? उच्यते--पूर्वद्वारभैराग्नेयीं व्रजेत, दक्षिणद्वारभैनैऋती, पश्चिमद्वारभैवीयवीं, उत्तरद्वारभैरैशानी चेति स्फुटमेव, विदिशां दिगनु. गामित्वात् । उक्तञ्च दैवज्ञवल्लभे-" यायात् पूर्वद्वारभैरग्निकाष्ठां प्रादक्षिण्ये. नैवमाशा विपूर्वाः " । अत्राशा विपूर्वा इति विदिश इत्यर्थः । विशेषस्तु__ " स्वामिनः सप्त भौमाद्याः क्रमतः कृत्तिकादिषु ।
प्राच्योदौ तत्सनाथेषु तेषु यात्रा महाफला ॥ १ ॥" __इति पूर्णभद्रः । अस्यार्थः-कृतिकादिभसप्तकस्य क्रमेण भौमाद्याश्चन्द्रान्ताः सप्त ग्रहा: स्वामिनः, तेषु स्वस्वभस्थेषु पूर्वस्यां यात्रा शुभा । एवं मघादि. सप्तभानां तथैव भौमाद्याः सप्तेशाः, तेषु तत्तद्भस्थेषूदीच्यां यात्रा शुभा। एवं शेषदिशोरपि भाव्यं । तथा" प्राच्यादिषु चरन् भानुः सप्तके कृत्तिकादिके ।। वितनोति दिशामस्तं यात्रा तासु कृता श्रिये ॥१॥” इत्यपि पूर्णभद्रः ॥ उल्लंघ्यः परिघोऽपि लग्नबलतः शूलं तु भानां सदा, हेयं तच्च पुनः सुरेश्वरदिशि ज्येष्ठाम्वुविश्वोडुभिः । राधावैष्णववासवाजपदभै म्यां प्रतीच्यां पुनर्लाह्मया, मूलयुजा तथोत्तरदिशि स्यादर्यमःण च ॥ ८ ॥
व्याख्या- उल्लंघ्य इति एकान्तिकेंषु कार्येषु, परचक्रागमादिषु शुद्धे यात. व्यदिङ्मुखे ग्रहबलोपेते यात्रालग्ने सति परिघलङ्घनं न दोषायेत्यर्थः सदेति चलनक्षत्रेषु सत्सु, लग्नशुद्धावपि न गच्छेत्, यतो भशूलदोषः शुद्धलग्नेनापि न टलति । उक्तञ्च-"त्यजेल्लग्नेऽपि शूललं, शूलः नास्ति निवृतिः" इति व्यवहारप्रकाशे। सुरेति पुांबुविश्वोडुनी पूर्वोत्तराषाढे यामी दक्षिणा ।
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चतुर्थो विमर्श
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उ.
फा.
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दक्षिण
रवि
भशूलस्थापना
" पुब्वाइजिठुसाढा धणि उत्तर
पुवभड्दाहिणदिसाए । रोहिणिमूलवराए विसाह,
पुव्वफग्गुणुत्तरओ ॥१॥" पत्रिम नक्षत्रशूलं
पूर्व
इति तु पूर्णभद्रः । पुष्ये प्रतीच्या हस्त उदीच्यां च भशूलमिति तु नार
चन्द्र । यतिवल्लभे तु नक्षत्रकीला वि-अ-ध-पू. भ.
उक्ताः । तथाहि
" ज्येष्ठा१ भद्रपदा पूर्वार, वायव्य । उत्तर
रोहिण्यु३ त्तरफल्गुनी। ईशान मंगल मंगल
पूर्वादिषु क्रमात् कीलाशनि
गतस्यैतेषु नागतिः ॥१॥ दिग सोम
औत्सुक्याद्यपि पूर्वोविदिग शनि
क्तदंडलंघनवर्जने । शूलयन्नं पूर्व
असमर्थस्तदाऽवश्यं दक्की. गुरु
लान् वर्जयेदिमान् ॥२॥" नैऋत्य दक्षिण अग्नि लोके त्वेवमपि -- "उत्तरहत्था दख्खिण चित्ता, पुवा रोहिणि सुणिरे पुत्ता । पच्छिमसवणा म करसि गमणा, हरिहरवंभपुरंदरमरणा ॥ १॥" ___वाराणां दिग्विदिक्शूले प्राहशूलं सोमे शनौ च प्राग्गुरौ दक्षिणतस्त्यजेत् । रवी शुक्रे च वारुण्यानुत्तरेण कुजज्ञयोः ॥९॥ आग्रेय्यादिविदिक्शूलं क्रमादादित्यजीवयोः १ । शीतांशुशुक्रयो२ भौममन्दयो३ ज्ञस्य४ च त्यजेत् ॥१०॥
व्याख्या-दिक्शूलविदिक्शूलस्थापना यथा-- ___ अवश्यकर्तव्ये तु गमनेऽनयोर्विधानमाहदिक्शूलध्वंसि वन्देत चन्दनं १ दधि २ मृत्तिकाम् ३ । तैलंपिष्टं५च सर्पिश्चदखलं७वा (चा) र्कादिषु क्रमात्॥११॥
व्याख्या--दिक्शूलेति दिक्छब्देन विदिशोऽपि ग्राझाः । वन्देतेति कोऽर्थः? चन्दनदध्यायेस्तिलकं कुर्यात् ॥ योगिनीचारमाह
राक पश्चिम सोम
रवि
गुरु
शुक्र
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१४२
आरम्भ-सिद्धिः
3
स्याद्योगिनी शक्र १ कुबेर २ वह्नि ३,
रक्षो ४ ऽन्तका ५ प्पत्य ६निले ७ दिक्षु ८। यातुन भव्या प्रतिपन्नवम्या
दितो विना पश्चिमवामभागौ ॥ १२ ॥ व्याख्या-शककुबेररक्षोऽन्तकदिशः पुर्वोत्तरनतदक्षिणाः । अपां पतिः अप्पतिः वरुणः तद्दिक पश्चिमा। आसु तिथिषु क्रमादेतासु दिक्षु योगिनी वसति, यातुश्च संमुखी स्यात् । प्रतिपन्नवम्यादित इति प्रतिपत्तोऽष्टम्यवध्येकाऽऽवृत्तिः योगिन्याः। नवमीतः प्रभृति तु पक्षान्तं यावद् द्वितीया । ननु नवमीतो गुणने पक्षतिथयः सप्तव स्युर्दिशश्चाष्टौ, तत्कथं युक्तिः ? उच्यते-द्वितीयावृत्तिवेलायामनिलेशदिक्षिवत्येतदेवं व्याख्येयं । तथाहि-पूणिमायां वायव्यां योगिनी वसति. अमावस्यायां स्वशान्यां । एवं च द्वितीयावृत्ती तिथीनां सप्तकव दिशामपि सप्तकमेवेति । पूर्णभद्गोऽप्येवमेवाह"पुरउरआइनै४द५पक्ष्वाऽई। दिसिसु पडिवइनवमी उ जोइणिआ ।
वायवि पुन्निमाए ईसाणे अमावसाइ तहा ॥ १ ॥ योगिन्याः कोटकम् मतान्तरे योगिन्याः कोष्टकम् विनेति, अयमदिशा तिथि || दिशा कृष्णपक्षतिथयः शक्लपक्ष र्थ:-इयं यातुः पृष्ठे
| पूर्व १-६-११ । १-६-११ वामतो वा भव्या। उत्तर
दक्षिण । २-७-१२-२-७-१२ केचित्तु कृष्णप्रतिअग्नि
| पश्चिम ३-८-१३ ३-८-१३ पदादितिथि चतुष्के उत्तर
पूर्वादिचतुर्दिक्षु योदक्षिण | अधोदिशि १० ५-१५
गिनी,पञ्चम्यांतूज़। पश्चिम || ऊर्ध्वदिशि ५-१५ १.
एवं षष्ठयादिचतुष्के वायव्य ७-१५ । ईशान ८-३०
चतुर्दिक्षु, दशम्यां त्वधः । एकादश्यादिचतुष्के चतुर्दिक्षु, अमावास्यायां तूर्व । एवं शुक्लपक्षेऽपि, नवरं तत्र पञ्चम्यामधः, दशम्यां तूचं राकायां चाध इति वाच्यं । यदा च यद्दिशि योगिनी तदा दक्षिणपार्श्वस्थाविदिशिकरे कत्रिका, वामपार्श्वस्थविदिशिकरे तु कपरं, तास्तिस्रोऽपि च दिशो युद्धादौ पृष्टत एव शुभा इत्याहुः । उक्तञ्च व्यवहारप्रकाशे" योगिनि (नी) देवी पृष्ठे दक्षिणवामे स्थिता विजयदात्री ।
संमुखसंस्था युद्धे पराजयं नाशमादत्ते ॥ १ ॥"
पूर्व
२-१०
नैर्ऋत्य
४-१२
४-९-१४ । ४-९-१४
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चतुर्थी विमर्श:
त्रिशेषस्तु —अवश्यकर्तव्ये गमनेऽस्या दृगेव संमुखी त्याज्या, सा चैवं"ऊर्ध्वं तिथि१५ मितनाड्यो दश चाधो १० वाम१० दक्षिणे पार्श्वे घटिकाः पञ्चदशापि च १५ योगिन्याः संमुखी दृष्टिः ॥ १ ॥
99
इति नारचन्द्रे | तथा तत्कालयोगिन्यवश्यं त्याज्या, सा चैवम् - “दिणदिसि धुरि चउ घडिआ पुरओ पुश्वुत्तदिसि अणुक्रमसो । तक्काल जोइणी सा वजे अव्वा पयत्तेणं ॥ १ ॥ इति दिनशुद्धौ ।
अत्र दिदिसि धुरिति यदा यद्वर्तमानदिनं तस्य या या दिक् प्रोफा तस्यां तस्यां दिशि धुरि प्रभाते योगिनी वसति, तदनु यथाक्रमोत्तासु शेषदिक्षु भ्रमति, ततोऽयं भावः - प्रतिपदि प्राध्यां प्रथमं यामार्धं वसति शेषासूत्तराग्नेय्यादियथोक्तं क्रमाच्छेपाणि ग्रामार्थानि । एवं द्वितीयायां प्रथमं यामार्धमुत्तरस्यां शेषाण्यग्नेय्यादिप्राच्यन्तसप्तदिक्षु इत्यादि । एवं चाहोरात्रेण दिगष्टकेऽस्याः द्विरावृत्तिः ॥ पाशकालावाह
पाशो मासस्येष्टस्तिथिरष्टहृतावशिष्ट ऐन्यादौ । तत्संमुग्वस्तु कालः स तु दक्षिण एवं सौख्या ॥ १३ ॥
आ
व्याख्या - -मासस्य " व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिरिति " न्यायात् कृष्णपक्षादेदैविक मासस्य तिथिस्त्रिशल्लक्षणोऽष्टभिर्हते हरणे सत्यवशिष्ट ऐन्यादौ दिग्दशके पाश इष्ट इत्यन्वयः । भावश्चायं - मासे तिथयस्त्रिंशत्, तासामष्टभिर्भागे शेषं षट्, ( ८ । ३० । ३ । ) ततः कृष्णषष्टयां प्राच्यां पाशः, सप्तम्यामानेय्यां यावच्चतुर्दश्यामूर्ध्व, अमावास्यायां त्वधः । पुनः शुक्लप्रतिपदि प्राच्यां, यावत् शुक्लदशम्यामधः । पुनरेकादश्यां प्राच्यां यावत् कृष्णपञ्चम्यां चाध इति त्रिभिः परिवर्तैर्मासपूर्तिः । तथा च पाशस्थापनैत्रं
न
७
८
९
पू. कृ. ६ शु. १ २ ३ ११ १२ १३ १४
४
प०
१०
५
१५
वा
उ
99
६
७
कृ. រ २ ३
१४३
१२
"
1
ऊर्ध्व अघः
१४
३०
९
१०.
४
५
तत्संमुख इति ऊर्ध्वाधोदिशोरगणने पाशदिक्तः पञ्चम्यां पञ्चम्यां दिशि, संमुखः सदा कालः स्यात् यदा चाधः पाशस्तदोर्ध्वं कालः, यदा तूर्ध्वं पाशस्तदाऽघः कालः संमुखत्वस्यैवमेव भवनात् । उक्तञ्च -
"पुव्वाइदसदिसाहिं कमेण सिअ पडिवयाइ हुइ पासो ।
तस्संमुह अ कालो गमणे दुन्नि वि संमुहवज्जे ॥ २ ॥” इति दिनशुद्धौ । स कालः । सौख्यायेति, अयं भावः - पाशकालौ क्रमाद्वामदक्षिणावेव गच्छतां शुभौ । उक्तञ्च दिनशुन्दौ
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१४४
पश्चिम वायव्य उत्तर ईशान
६
७
ሪ
२
१२
११
,
आरम्भ-सिद्धिः
एवं च कालस्थापना --
९ ३०
४
१३ १४ १५ कृ
२
कुजा विहारि वामो पासो, कालो अ दाहिणओ " इति । वास्तुविद्याविदस्त्वाहु:- "शुक्लप्रतिपदादितिथि चतुष्के पूर्वाग्नेय्यादिदिक्चतुष्के पाशः, पञ्चम्यामूध्वं । ततः षष्ठयादितिथिचतुष्के पश्चिमवायव्यादि चतुर्दिक्षु पाशः, दशम्यां स्वधः । पुनरेकादश्यादितिथि चतुष्के पूर्वाग्नेय्यादिचतुर्दिक्षु, राकायां तूर्ध्वं पुनः । कृष्णप्रतिपदादितिथि चतुष्के पश्चिमवायव्यादिचतुर्दिक्षु पाशः, पञ्चम्यां त्वधः । एवमेव तृतीयाऽध्यावृत्तिर्वाच्या । तत्संमुखश्व सदापि काल इति । अत एव पूर्णातिथिषु प्रासादादेः खातध्वजारोपादिस्तैर्नेष्यते, अध उर्ध्वं वाऽप्यस्य कालस्य वाऽवश्यसंभवादिति " तथा"दिणवारं पुव्वाईकमेण संहारि जत्थ ठाणि सणी । कालं तत्थ वि आणसु तस्संमुहुपास भणइ इगे ॥१॥" इति ज्योतिषसारे । अत्रेशान वर्ज गणनीयं, ईशगृहत्वेन तत्र कालस्य प्रवेशाभवनादिति ते प्राहुः । एषां मते वारप्रतिबद्धावेव कालपाशौ, न तिथिप्रतिबद्धौ ॥ राहुचारमाहराहुरसंमुखामोऽष्टसु यामार्धेष्वहर्निशं कुमुखात् । क्रमशः षष्ठयां षष्ठयामिष्टः प्राच्यादिषु प्रचरन् ॥ १४ ॥
व्याख्या - द्युमुखादहर्निशमष्टसु यामार्धेषु क्रमशः प्राच्यादिषु षष्ठयां षष्ठयां दिशि प्रचरन् राहुरसंमुखवामः सन्निष्टो ज्ञेय इत्यन्वयः कार्यः । असंमुखेति यातां पृष्टतो दक्षिणतश्च कर्य इत्यर्थः । यामार्धशब्देऽभिसन्धिः प्राग्वत् । अहर्निशमिति दिवा रात्रौ च राहुश्चरति । घुमुखात् प्रभातादारभ्य षष्ट्यां षष्ठ्यामिति आये यामार्धे प्राच्यां द्वितीये ततः षष्ठयां वायव्यां तृतीये ततोऽपि षष्ठयां दक्षिणस्वामिति । उक्तञ्च हर्षप्रकाशे
८०
अधः ऊर्ध्व
१३ १४ ३०
९
१०
४
पश्चिम ५
नैर्ऋत्य ८
पूर्व आग्नेयी दक्षिण | नैर्ऋत
११
१२
५
97
" जामद्धे राहु गई पू१ वा२ दा३ ई४ प५ आ६ उ७ नैट दिसि । अप्रदक्षिणं गणने तु सा दिक् तुर्या तुर्या स्यात् । यदुक्तं नारचन्द्रे - अष्टासु प्रथमाधेषु प्रहराधेष्वहर्निशम् ।
"
पूर्वस्य वामतो राहुस्तुर्या तुर्या व्रजेद्दिशम् ॥ १ ॥ एवमहोरात्र राहोर्द्विरावृत्तिः ॥ चन्द्रचारमाह
राहुचार स्थापना
अहोरात्र द्विरावृत्तिः ॥
चन्द्रश्चरति पूर्वादौ, क्रमात्रिर्दिक्चतुष्टये | मेषादिष्वेष यात्रायां,
वायव्य २ उत्तर ७ ईशान ४
अर्धप्रहराणि पूर्व १
दक्षिण ३ आयी ६ सम्मुखस्त्वतिशोभनः १५
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चतुर्थी विमर्श
-
-
उत्तर
मिथुन, तुला, कुम्भ
पश्चिम
मेष, सिंह, धन
7 कर्क, वृश्चिक, मीन
व्याख्या--मेषादिचतुष्कस्थश्चन्द्रः क्रमात् पूर्वादिचतुर्दिक्षु चरति । एवं सिंहादिचतुष्कधन्वादिचतुष्कयोरपि ।
दिनशुद्धौ तु चन्द्रस्यापि शुक्रवत्रिचन्द्रचार
विधं सम्मुखत्वं ग्राह्यमूचे । तथाहि" उदयवसा १ अहवा दिसि
२दारभवसओ३हवई ससीसम्मुहो Int
सो अभिमुहो पहाणो गमणे,
अमिआई वरिसंतो ॥ १ ॥" * 'inet Rk
अतिशोभन इति, उक्तञ्च नारचन्द्रे-- " जयाय दक्षिणो राहुर्योगिनी वामतः स्थिता ।
पृष्ठतो द्वयमप्येतञ्चन्द्रमाः संमुखः पुनः ॥१॥" अतिशब्देन दक्षिणोऽपीन्दुः शुभ इत्युच्यते, यदुक्तं नारचन्द्र टिप्पनके" सम्मुखीनोऽर्थलाभाय दक्षिणः सर्वसंपदे ।।
पश्चिमः कुरुते मृत्यु वामश्चन्द्रो धनक्षयम् ॥ १ ॥"
रविचारमाहरविद्वौं द्वौ तु पूर्वादो यामौ रात्र्यन्त्ययामतः । यात्रास्मिन् दक्षिणे, वामे प्रवेशः, पृष्ठगे द्वयम् ॥१६॥
व्याख्या-राध्यन्त्येति रात्रेरन्त्यं दिनस्य प्रथमं याम चार्कः प्राच्यां तिष्ठति, दिनमध्यमयामौ तु दक्षिणस्यां, दिनांन्त्ययाम राध्याद्ययाम चापरस्यां रात्रेमध्य. मयामी तूदीच्यां । नारचन्द्रे तु सर्वग्रहाण'मुदयसमयादारभ्य भ्रमणवशादष्ट. दिकस्पर्शनमूचे । तथाहि
" स्वस्योदयस्य समयात्पूर्वयामादितः क्रमात् ।
संचरन्ति ग्रहाः सर्वे सर्वकालं दिगष्टके ॥ १ ॥" ग्रावेति-दक्षिणेऽके यात्रा कृता शुभा ! यल्लल्ल:" न तस्याङ्गारको विष्टिन शनैश्चरज भयम् । व्यतिपातो न दुष्येच्च यस्याको दक्षिणस्थितः ॥ १ ॥ नक्षत्रसमुच्चयेऽप्यत एवोक्तपूर्वाले चोत्तरां गच्छेत् प्राच्यां मध्यंदिने तथा । दक्षिणामपराहणे तु पश्चिमामर्धरात्रके ॥ १ ॥"
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१४६
आरम्भ-सिद्धिः
एवं गमनेको दक्षिण एव स्यादिति भावः । लल्लः पुनरपि चन्द्रार्कवारानुकूल्यमेवमाह -
""
रविशशिकरप्रदीप मकरादावुत्तरां च पूर्वी च । यायाच्च कर्कटादौ याम्यामाशां प्रतीचीं च ॥ १ ॥ अयनानुकूलयानं हि तमकेंन्द्रोर्द्वयार संपत्तौ ।
"
निशं प्रगृह्य यायाद्विपर्यये क्लेशवधबन्धाः ॥ २ ॥ अनयोरर्थः - यदाऽर्केन्दु मकरादिषट्के उत्तरायणे स्तः तदा पूर्वामुत्तरां च सर्वदा गच्छेत् । यदा च तौ कर्कादिषटके दक्षिणायने स्तस्तदा दक्षिणां पश्चिमां च सर्वदा गच्छेत् । सर्वदेति कोऽर्थ : ? दिवा रात्रौ चेति, अर्केन्द्रोरे कायनासंभवे तु यथासंख्यं दिवानिशं गच्छेत् । अयमर्थः यदाऽर्को मकरादौ तदा दिने उत्तरां पूर्वा च गच्छेत्, यदा ककोदो तदा दिने दक्षिणां पश्चिमां च गच्छेत् । एवं चन्दे मकरादिग्थे रात्रावुत्तरां पूर्वां च गच्छेत्, Caitr तु रात्रौ दक्षिणां पश्चिमां च गच्छेदिति । विपर्यये स्वशुभं कोऽर्थः ? रवीन्द्रोमकरादिस्थयोर्दक्षिणपश्चिमे यदि गच्छेत् कर्कादिस्थयोश्चोत्तरापूर्वे यदि गच्छेत्, तदा सूर्ये मकरादिस्थे दिवा दक्षिणपश्चिमे यदि गच्छेद्, चन्द्रे वा कर्कादिस्थे रात्रातरापूर्वे यदि गच्छेत्तदा यातुर्वधबन्धादिदोषाः ॥ रविचारमेव हंसचारेण विशिष्याह
हंसेऽन्तरा विशति दक्षिणतोऽथ पृष्ठ,
कृत्वा रविं प्रवहनाडिपदं पुरश्च ।
सिद्धये व्रजेदथ विजेतुमना विपक्ष-पक्षं
स्वतस्तु विदधीत विनाऽऽनपक्षम् ॥ १७ ॥
व्याख्या - अध्यात्मशास्त्ररीत्या हंसः प्राणवायुस्तस्मिन् विशति सति न तु निःसरति सति । यदाहुराध्यात्मिकाः
" पदशताभ्यधिकान्याहुः सहस्राण्येकविंशतिम् । अहोरात्रे नरे स्वस्थे प्राणवायोर्गमागमः ॥ १ ॥
""
प्रवहा प्रविशत्पवना पूर्णा नाडी नासारन्ध्ररूपा यस्य स्यात्तत्पदं वामं दक्षिण वाहिं पुरः कृत्वा च सिद्धयै कार्यस्येति शेषः । उक्तञ्च विवेकविलासे
66
दक्षिणे यदि वा वामे यत्र वायुर्निरन्तरः । तं पादमग्रतः कृत्वा निःसरेन्निजमन्दिरात् ॥ १ ॥ न हानिकलहोद्वेगाः कण्टकैर्नापि भिद्यते । निवर्तते सुखेनैव द्रोपद्रवर्जितः ॥ २ ॥
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चतुर्थी विमर्श:
दूरदेशे विधातव्यं गमनं तुहिनद्युतौ । अभ्यर्णदेशे दीप्ते तु तरणाविति केचन ॥ ३ ॥
""
अत्र तुहिनेति वामदक्षिणनाड्योः क्रमाच्चन्द्रसूर्यसंज्ञेयं । विशेषस्तु - दक्षिणनाड्यां पूर्णायां विषमपदैः १-३-५-७-९ गन्तव्यं प्रतीचीदक्षिणयोश्च न गन्तव्यं । वामायां तु पूर्णायां समपदैः २-४-६-८-१० गन्तव्यं, पूर्वोनस्योश्च न गन्तव्यमिति" स्वरोदयविदः । व्रजेदिति प्रस्तुतहंसचारादिशुद्धौ सत्यां जिनं प्रदक्षिणीकृत्य व्रजतो विशिष्य सर्वार्थसिद्धिः स्यात् । उक्तञ्च यतिवल्लभेप्राणप्रवेशे वहनाडिपादं कृत्वा पुरो दक्षिणमर्कबिम्बम् । प्रदक्षिणीकृत्य जिनं च याने विनाप्यहःशुद्धिमुशन्ति सिद्धिम् ॥१॥" उपलक्षणत्वाच्च प्रवेशेऽप्ययमेव विधिः । यदुक्तं दिनशुद्धौपुन्ननाडिदिसापायं अग्गे किच्चा या वि ऊ ।
66
9
9
"3
पवेसं गमण कुजा कुणंतो साससंगहं ॥ १ ॥ अथ विजेतुमना इति अरिं जिगीषुः सन् अर्थात्तमेव स्वतः सकाशात् आनो वायुस्तस्य पक्षं पार्श्व विना, एतावता शून्यपार्श्वे कुर्यात् । केचित् वितानपक्षे इति पेठुस्तत्र वितानशब्दः शून्यार्थः । कोऽर्थः ? रिक्तेऽङ्गे रिपुः कार्यो, न तु पूर्णे, यथा सुखाज्जीयते अर्थाचेष्टवर्गः पूर्णाङ्गे कार्यः । उक्तञ्च विवेकविलासे" अरिचौराधमर्णाद्या अन्येऽन्युत्पातविग्रहाः ।
66
66
"
रिक्त नाडीगतः शत्रुर्जीयते पृष्ठगे रवौ ॥ १ ॥ शुक्रस्तु यत्रोदयति भ्रमन् वा,
ययाति यदद्वारकमेति भं वा ।
१४७
कर्तव्याः खलु रिक्ताङ्गे जयलाभसुखार्थिभिः ॥ १ ॥ गुरुबन्धुनृपामात्या अन्येऽपीप्सितदायिनः । पूर्णाङ्गे खलु कर्तव्याः कार्यसिद्धिमभीप्सत ॥ २ ॥ दक्षिणतोऽथ पृष्ठे कृत्वा रविमित्येतदत्रापि योज्यं । यदुक्तं यतिवल्लभे" वहनाडिगतो वाच्यो दक्षिणेऽर्केऽथेलब्धये ।
""
gotow
इत्थं त्रिधा तद्दिशि संमुखः
स्याच्याज्यस्तु तत्रोदयसम्मुखीनः ॥ १८ ॥
शुक्रचारमाह
व्याख्या॥ - शुक्रो यत्रेति यस्यां दिशि प्राच्यां प्रतीच्यां वोदेति तद्दिशि यातां सम्मुखः स्यादित्यग्रे योज्यं । भ्रमन् वेति यथा स्वेभ्रमणवशाच्चतुर्दिक्स्पर्शनमूचे, तथा शुक्रोऽपि भ्रमन् यस्याः प्राच्यादिदिशो यां दिशं याति, यहा
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आरम्भ-सिद्धिः
मेषाद्याश्चत्वारश्वत्वारः पूर्वाद्याश्वतश्चतस्रो दिश इति तेषु भ्रमन प्राप्त इत्यर्थः । यद्वारकमिति परिघचक्रोक्तरीत्या यहिग्द्वारकं भं समेतीति विधा सम्मुखत्वभवनेऽपि शुक्रस्योदय दिगेव प्राची प्रतीची वा सम्मुखी त्याज्या । विशेषस्तुदिक्षिणोऽपि शुक्रस्त्याज्यः । यदुक्तं नारचद्रे
" केचित्
अग्रतो लोचनं हन्ति दक्षिणो ह्यशुभप्रदः । पृष्ठतो वामनश्चैव शुक्रः सर्वसुखावहः ॥ १ ॥ पौष्णाश्विनीपादमेकं यदा वहति च न्द्रमाः । तदा शुक्रो भवेदन्धः संमुखं गमनं शुभम् ॥ १ ॥ अस्य पूर्वार्ध - " अश्विन्या वह्निपादान्तं यावश्ञ्चरति चन्द्रमाः पठन्ति । तथा —
99
१४८
८८
इत्याहुः | इत्येके
" प्राच्यां भृगुर्जलधितत्त्व २५४ दिनानि तिष्ठेत्, तत्रास्तस्तु नयनादि ७२ दिनान्यदृश्यः । तिष्ठेच्च षोडशकृति २५६ दिवसान् ।
""
" काश्यपेषु वशिष्ठेषु भृग्वव्याङ्गिरसेषु न ! भारद्वाजेषु वात्स्येषु प्रतिशुक्रं न विद्यते ॥ १ ॥ एकग्रामे पुरे वापि दुर्भिक्षे राष्ट्रविभ्रमे । विवाहे तीर्थयात्रायां वत्सशुक्रो न चिन्तयेत् ॥ २ ॥ स्वभवनपुरप्रवेशे देशानां विभ्रमे तथोद्वाहे । नववध्यागमने च प्रतिशुक्रविचारणा नास्ति ॥३॥” इति लल्लः । अत्र स्वभवनेति स्वभावेन गृहप्रवेशमात्रे, न तु नव्यगृहप्रवेशोऽत्र ग्रामः, तत्र प्रतिशुक्रं त्याज्यमिति वक्ष्यमाणत्वात् । तथा शुक्रस्य बाल्यवार्धकत्वनीचस्त्रास्तमितत्ववक्रगामित्वग्रहपराजितस्वादिष्वपि सत्सु यात्रा दुष्टा, "याने शुक्रः सबलोsन्वेष्य" इत्युक्तेः । तथा च रत्नमालायाम्
66
नीच ग्रहजितेऽथ विलोमे, भार्गवे कलुषितेऽस्तमिते वा । प्रस्थितो नरपतिः सवलोsपि, क्षिप्रमेव वशमेति रिपूणाम् ॥ १ ॥” शुक्रस्योदयास्तदिनसंख्या चौत्सर्गिक्येवं नारचन्द्र टिप्पन के
93
प्रतीच्यामस्तंगत स्त्विह सय १३ दिनान्यदृश्यः ॥ १ ॥ तथा स्वजन्मनक्षत्रनाथेऽप्यस्तमिते यात्रा दुष्टेति दैवज्ञवलमे ॥ प्रतिशुक्र त्यजन्त्येके यात्रायां त्रिविधं बुधाः । तस्मात्प्रतिकुजं कष्टं ततोऽपि प्रतिसोमजम् ॥
१९ ॥
व्याख्या---
- संमुखोऽप्यनिष्टत्वात् प्रतिकूल शुक्रः प्रतिशुक्रः, एवमग्रेऽपि । त्रिविधमिति इदमपि मतं मन्थकृतः सम्मतं तेन यत्प्रागुक्तं 'त्याज्यस्तु
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चतुर्थी विमर्श:
तत्रोदयसम्मुखीन' इति तदैकान्तिककार्यविषयं, सौस्थ्ये तु यथाशक्ति त्रिविधमपि सम्मुखत्वं त्याज्यमिति द्रष्टव्यं । तथा चोक्तं दैवज्ञवल्लभेधनिष्ठादिकमले पापर्यन्तं भगणं भृगुः ।
यदा चरति नोदीचीं नापाचीं च तदा व्रजेत् ॥ १ ॥ मघादिश्रवणान्तानि भानि शुक्रो यदा चरेत् । नापाचीं न प्रतीचीं च तदा गच्छेजिजीविषुः ॥ २ ॥
"
66
'तस्मात् प्रतिकुजमिति' शुक्रादपि भौमः सम्मुखः कष्टदत्वात्कष्टः, तमपि त्रिविधं त्यजन्तीति योगः । तस्मादपि सोमजो बुधः सम्मुखः कष्टः । उक्तञ्च दैवज्ञवल्लभे
66
प्रतिशुक्रेऽपि निर्गच्छेदनुकूलो बुधो यदि ।
गतः प्रतिबुधेनान्यैः शक्यते रक्षितुं ग्रहैः ॥ १ ॥
""
शुक्रवद्भौमबुधयोरपि सम्मुखत्वं दक्षिणभुजस्थस्वं च त्याज्यमिति त्रिवि क्रमः । बुधः सम्मुख एव त्याज्य इति तु रत्नमालाभाच्ये ॥ वत्सचारमाहवत्सः प्राच्यादिषूदेति कन्यादित्रित्रिगे रखौ । प्रवासवास्तुद्राराचप्रवेशाः सम्मुखेऽत्र न ॥ २० ॥
१४९
व्याख्या -- प्रवासो दूरदेशयात्रा, वास्तु गृहादि तस्य द्वारं न निवेश्यते, अयतैत्यर्चा जिनादिप्रतिमा तस्याः प्रवेशो धनिकगृहानयनं । अत्रेति वत्से । नारचन्द्र टिप्पन के वत्सरूपमेवं प्रोचे
"
व पुरस्यः शतं हस्ताः शृङ्गयुगं षष्ठिसंयुता त्रिशती । पन्नाभिपुच्छशिरसां भूप १६ नव ९ त्रि ३ शर ५ करमानम् ॥ १॥ ”
स्थापना-
हस्ताः १०० ३६०
देहः
भृङ्गे
१६
९
३
५
पदाः | नाभिः । पुच्छं शीर्ष
विशेषस्तु -
“पञ्च १ दिक् २ तिथि ३ सत्रिंश ४ तिथि ५ दिक ६ शरवासरान् ७ । वत्सस्थितिर्दिक्चतुष्के प्रत्येकं सप्तभाजिते ॥ १ ॥
"
तथैव स्थापना - ( समीपस्थपत्रे विलोक्या ) इदं ज्योतिषसारे । केचिद्वत्सस्य वास्तुसंज्ञामाहुः ॥
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आरम्भ- - सिद्धिः
सम्मुखोऽयं हरेदायुः पृष्ठे स्याद्धननाशनः । वामदक्षिणयोः किन्तु वत्सो वाञ्छितदायकः ॥ २१ ॥ व्याख्या--सुगमः । अन्येऽर्कादिसर्वग्रहाणां वत्सवद् गृहाण्येवमाहुःपूर्व
१५०
१० १५ ३० १५
कन्या तुल वृश्चिक
उत्तर
१० १५ ३० १५ १० १ मिथुन कर्क सिंह,
पश्चिम कन्यातु लावृश्चिक
वत्सचार तथा वत्सनी
उत्तर
धन मकरकुंभ
0.8 88 ०६ ४४ ०४
पश्चिम
मेsaदुत्तरादौ दिशि विदिशि शिवो मासमेकं तथा द्वौ, संहत्या संस्थितो द्विभ्रमति भृशमहोरात्रमध्ये तु सृष्टया । अभ्यर्थे नाड़िके द्वे दिशि विदिशि घटीपञ्चके चैष तिष्ठन्, चन्द्रादेः प्रातिकूल्यं हरति किरति शं दक्षिणः पृष्ठगोऽसौ ||२||
रविचारचक्रम्
राहुचार चक्रम्
दक्षिण
पश्चिम मिथुन कर्क सिंह
स्थितिनुं चक्र
30
दक्षिण
१० १५ ३० १५ १० धन मकर कुंभ
दक्षिण
उत्तर
कन्या तुला वृश्चिक
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धन मकर कुभ
पूर्व
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चतुर्थों विमर्श
१५१
चन्द्र-मंगल-बुध-गुरु-शुक्र शनि चाराणां चक्रम्
.. उत्तर वृष मिथुन कर्क
पश्चिम कुंभ मीन मेष
सिंह कन्यातुला
"मीनादित्रयमादित्यो,
वत्सः कन्यादिकत्रये । धन्वादित्रितये राहुः,
शेषाः सिंहादिकत्रये ॥१॥" अत्र पूर्वादिदिक्षु वसन्तीति शेषः। सर्वेषां स्थापना यथा
इह प्रसङ्गात् शिवचक्रं लिख्यते यथा
-
chho
दक्षिण
वायव्य घडी २॥
ईशान घडी २॥
उत्तर मेषेऽकः घडी २॥
वायव्य घडी २॥
ईशान घडी २॥
कऽर्कः घडी २॥ पश्चिम
शिवचार चक्रम्
घडी २॥ मकरेऽर्कः
पूर्व
घडी २॥
अनि नैऋत्य दक्षिण
घडी २॥ तुलार्कः घडी २॥ घडी २॥ अग्नि नैऋत्य
| घडी २॥ अत्र चन्द्रादेरित्यादिशब्दात्ताराणामवस्था चेत्यूह्यं । शिवचारस्थापनाइयं च स्थापना स्थूलमानेन । सूक्ष्मेक्षिका पुनरेवम्सङ्क्रान्तेराद्यघस्ने स्वदिशि शर ५ पलान्येष भुक्त्वा भ्रमाभ्यां, पश्चात्सृष्टया तटस्थां दिशमटति दशैवं पलान्यन्यघस्ने । वृद्धिः पञ्चोत्तरैवं प्रतिदिवसमहो तावदेतस्य यावत्, सङ्क्रान्तेरन्त्यघस्ने स्थितिरधिककुभं सार्धनाडीद्वयं स्यात् ॥३॥"
अन भ्रमाभ्यामिति अहोरात्रेण तावत् शिवो द्विर्धमति । तत्र प्रथमश्रमणे सार्धपलद्वयं स्वदिशि तिष्ठति, द्वितीयभ्रमणेऽपि पुनरपरं सार्धपलद्वयं, एवं
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१५२
आरम्भ-सिद्धिः
पलपञ्चकं सक्रान्तेः प्रथमदिने भ्रमणद्वयेन स्वदिशि शिवः स्थित्वा ततः हष्टयाऽन्यदिशि याति । एवं द्वितीयदिनेऽपरं पलपञ्चकमिति दश पलानि स्थितिः । एवमेव तृतीयदिने पञ्चदश पलानि । एवं प्रत्यहं पञ्च पच पलानि तावद्वर्धनीयानि यावरसक्रान्तेश्वरमे त्रिंशे दिने सार्धशतपलैः साधं घटीद्वयं पूर्ण शिवस्य स्वदिशि स्थितिः स्यात् । तदनु पुनः संहारेण द्वितीयदिश्यप्यागत. स्वायमेव क्रमो ज्ञेयः ॥ " विवादे शत्रुहनने रणे झगटके तथा ।
द्यूते चैव प्रवासें वा पृष्ठे मुष्टौ शिवे जयः ॥ ३ ॥ स्वराश्च शकुना दुष्टां भद्रा ग्रहबलं तथा । दिग्दोषा योगिनीमुख्या अभयाः स्युः शुभे शिवे ॥४॥" तथा" सूर्यराश्यादितः सव्ये लग्नं तत्कालसम्भवम् । पृष्ठदक्षिणगं कृत्वा जयेद्युद्धे न संशयः ॥ १ ॥
अस्यार्थ:-यत्र राशावोऽस्ति तत्पूर्वस्यां दत्त्वा तत आरभ्य सृष्ट्या गण्यते, सतश्च तदानीं यद्वर्तमानं लग्नं स्यात्तत् पृष्ठतो दक्षिणतो वा कृत्वा ॥
युद्धादि कुर्वन् जयी स्यात् ॥ उक्ता यात्रायां समयशुद्धिर्दिकशुद्धिश्च । मथ चेष्टानिमित्तादीनां शुद्धिमाहउत्सवमशनं स्लानं प्रगुणं चोपेक्ष्य मङ्गलमशेषम् । असमापिते च सूतकयुगेऽङ्गनत्तौ च नो यायात् ॥ २२ ॥
व्याख्या-प्रगुणत्वं सर्वेषु योज्यं । उत्सव: कौमुद्यादिः । सानमुल्लाघनस्य सामान्येन वा । मङ्गलं विवाहपुत्रानप्राशनादि । सूतकयुगं जातमृतसूत कमेदात् ॥ अवमन्य माननीयान्निर्भयं स्त्री च कमपि संताड्य । बालमपि रोदयित्वा जिजीविषु व निर्गच्छेत् ॥ २३ ॥
व्याख्या-अत्रैतदपि लल्लोक्तं लक्ष्यं" प्रमत्तो व्याधितो भोतः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ।
अध्वानं न प्रपद्येत क्लीबवेषस्तथैव च ॥ १ ॥ रात्रौ तु मैथुनं कृत्वा प्रभाते योऽभिगच्छति । यात्राकालेऽथवा प्राप्त मैथुनं यो निषेवते ॥ २ ॥ यो वाःप्रस्थानके गत्वा पुनर्गहमुपागतः । इत्येवमादिचेष्टाभिः सिद्धिर्नात्यभिगच्छतः ॥ ३ ॥"
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चतुर्थी विमर्श:
क्षुतगृहकलहज्वलनौ तु युद्धदुर्वचनवसन सङ्गाद्यम् | अशुभं यात्रावसरे शुभमपि शकुनागमाद्विन्द्यात् ॥ २४ ॥
व्याख्या -क्षुतेति, उक्तञ्च -
१५३
" सर्वतः श्रुतमशोभनमुक्तं, श्वौतुगोपशुकृतं मृतिदं तु । केचिदाहुरफलं हि बलाद्यद्वृद्धपीनसिकबालकृतं च ॥ १ ॥ "
गृहेति गृहशब्दः कलह ज्वलनाभ्यां योज्यः । ओतुयुद्धेति महिषादियुद्धमपि । दुर्वचनं माडगा: मरिष्यसीत्याद्यमङ्गलवाक्यं । वसनाञ्चलस्य सङ्गः कपाarat विलगनं । आद्यशब्दात् शिरः संघट्टांह्निस्खलनादि । शुभमपीति शुभाशुभं शकुनं ज्ञात्वा कुर्यान्न कुर्याद्वेति भावः । विशेषस्तु
" रिक्तोऽनुकूलः कुम्भोऽम्भः प्रणाय प्रयोजितः । विद्यार्थिचौरवणिजां प्रयाणेऽतीव सिद्धिदः ॥ १ ॥ इति भास्करव्यवहारे ।
""
अस्यायं भावः- यात्रायां चेत् कश्चित् रिक्तघटहस्तो जलार्थी अध्वगेन सह समेति तदा सोsपि घट इव पूर्णीभूय निवर्तते । तथा-
४८
"
आधे विरुद्धे शकुने प्रतीक्ष्य प्राणान्नृपः पञ्च च षट्च यायात् । अष्टौ द्वितीये द्विगुणास्तृतीये, व्यावृत्य नूनं गृहमभ्युपेयात् ॥ १ ॥ इति रत्नमालायां ।
अत्र प्राण: पलस्य षष्ठांशरूपः । पञ्च षट् चेत्येकादश । अष्टौ द्विगुणान् षोडशेत्यर्थः । शकुनागमादिति वसन्तराजादिरचितशकुनशास्त्रात् । अयमन्त्राभिसन्धिः - अन्यैराचार्यैः स्वस्वग्रन्थेषु यात्राधिकारे तशकुना अपि विस्तरेणोक्ताः, अस्माभिस्त्विहा प्रस्तुतत्वाच्छकुनशास्त्रादपि तत्परिज्ञानसंभवाच्च न ते प्रोक्ताः ॥
चातुर्वर्ण्यसाधारण यात्रामुक्त्वाऽथ रिपुविजयप्रयोजनां नृपादियात्रां चत्वारिंशता श्लोकैः कथयन्नादौ दुर्निमित्तपरिहारमाहआकालिकीषु विद्युद्गर्जितवर्षासु वसुमतीनाथः । उत्पातेषु च भौमान्तरिक्षदिव्येषु न प्रवसेत् ॥ २५ ॥
,
व्याख्या-- आकालिक्योsa ऽ कालजाः गर्भ वर्षाकालं व। विना सञ्जाता इत्यर्थः । वसुमतीनाथ इति, उपलक्षणत्वात्सामन्तादेराचार्यादीनां च ग्रहणं । उत्पातेषु चेति चकाराद्वाहुयोगिन्यावपि चिन्तयेदिति रत्नभाष्ये । भौमेत्यादि भौमो भूमिकम्पधडहडादिः । यच्च चराणां स्थिरत्वं स्थिराणां वा चरत्वं पुष्पफलादिवैकृतं वा स सर्वोऽपि भौम उत्पातः । आन्तरिक्षा उल्कानिर्घातपवन गन्धर्वपुरशक्रचापरोहितैरावत परिवेषदण्डपरिघादयः । दिव्याश्चन्द्रार्केपरागादिग्रहर्क्षवैकृतकेतुदर्शनादयः । लालाट धनुरैन्द्रं न शुभकृदन्यत्र शस्तफलमिति तु ललः । न प्रवसेदिति, आ सप्ताहादिति दैवज्ञवलमे । एकाहं तु
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९५४
आरम्भ-सिद्धिः
त्याज्यमेवेति सारङ्गः । दृष्टः केतुः षोडशाहं विवर्ज्यश्चैत्रे वैशाखे च दृष्टः शुभोऽसौ इति तु वराहः ॥ अथ यात्रार्थं लग्नमाह - यातव्यं दिग्मुखे लग्ने सिध्ध्यै शीर्षोदये तथा । एतद्विलोमयोर्जातु यात्रा यातुर्न सिद्धये ।। २६ ।।
व्याख्या -- मेषाद्याश्चत्वारश्चत्वारश्वत्वारश्चतुर्दिगीशा इति प्रागुक्तं, ते च तत्तद्दिग्मुखा इति ज्योतिर्ज्ञाः । तथा चेयं चतुर्दिग्मुखलग्नानां स्थापना । ( समीपस्थपत्रे विलोक्या) विशेषस्तु - यात्रायां लग्नं प्रायश्वरमेव ग्राह्यं । एतद्विलोमयो- रिति उत्तरपूर्वामुखलग्नेषु यथासङ्ख्यं दक्षिणपश्विमामुखलग्नेषूत्तरपूर्वागमने पृष्टोदयलग्ने चेत्यर्थः । न सिद्धये इति यल्लल: - "अनिष्टदं दिक्प्रतिलोमलग्नं पृष्ठोदये वाञ्छित कार्य नाशः ॥
•
लग्नस्य दिग्मुखचक्रम्
पश्चिम
मिथुन तुला कुंभ
उत्तर
कर्क वृश्चिक मीन
(6
दक्षिण
ह
मेष सिंह धन
पूर्व
जन्मलग्ने शुभा यात्रा जन्मराश्युदये तु न । तयोश्चोपचयस्थेषु राशिष्विष्टा परेषु न ||२७||
यात्रा
व्याख्या - जन्मलग्ने इति यात्रा - कर्तुर्नृपादेर्यजन्मलग्नं तस्मिन् लग्ने शुभा, एवमग्रेऽपि भाव्यं । अनेन चेदं सूचयति - आदौ तावज्जनुलग्ने ज्ञाते सति यात्रालग्नं देयं, नान्यथा, यतो जन्मलग्ने ज्ञाते सति
दशायुर्ब्रहबलान्यवलोक्य दत्तं यात्रादिमुहूर्त्त फलदं स्यात् । अज्ञातजन्मनोऽप्यन्यैर्यानं योज्यमिति स्मृतम् । प्रश्न लग्ननिमित्ताद्यै विज्ञाते सदसत्फले ॥ १ ॥
""
इति रत्नमालायां । अत्र यानं योज्यमिति यात्रालग्नं देयमित्यर्थः । जन्मराशीति जन्मनि यत्रेन्दुः स जन्मराशिः स एवोदयो लग्नं तत्र यात्रा न शुभा । रत्नमालायां तु जन्मराशिलग्नेऽपि शुभा यात्रेत्युक्तं । तयोरिति जन्मलग्नजन्मराश्योरपेक्षया ये उपचयस्थास्त्रिषड् दशैकादशा राशयः परेषु द्वयोरप्यनुपचयस्थराशिषु यात्रा नेष्टा । विशेषस्तु-राशेर्जन्मराशिर्जन्मलग्नं वा तदधिपौवा तत्काललग्नाच्चतुर्थे सप्तमे वा स्थानके भवतस्तदाऽपि यात्राकर्तुर्जयः यदि च शत्रु खत्कजन्मराशि जन्मलग्नयोरुपचयगृहाणि चतुर्थे सप्तमे वा स्युस्तदापि जय एवेति रत्नमालायाम् ॥
पारस्ताम्बुगैर्दृष्टे युते वा जन्मलग्नभे । सौम्यग्रहस्तु नैवं चेत्तदा यातुः पराभवः ॥ २८ ॥
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चतुर्थी विमर्श
व्याख्या - अस्तेति यत्र तत्र भवने स्थितो जन्मलग्नस्य राशिर्यात्रालग्ने सप्तमतुर्यस्थैः पापग्रहैर्यदि युतो दृष्टो वा स्यात् : सौम्येति स एव चाम्बुगैः सौम्यैर्यदि न युतो न दृष्टो वा तदा पराभव:, पापैरिव सौम्यैरपि यदि युतदृष्टस्तदा न पराभव इति भावः । विशेषस्तु - यात्रासमये जन्मकुण्डलिकासम्ब न्धिनी अष्टषष्टभवने क्रूरसौम्यग्रहाधिष्ठिते अशुभे । यदुक्तं दैवज्ञवल्लभे- "वधः प्रयातुस्त्वरिभि: प्रसूतौ रन्धारिभेकरशुभान्विते चेत्" ॥
१५५
अष्टमं स्वेन्दुलग्नाभ्यां ताभ्यां षष्टमथ द्विषः । तद्राशिनाथयुक्तं वा लग्नं यातुरनर्थकृत ॥ २९ ॥
व्याख्या - जन्मकालीयो य इन्दुः स स्वेन्दुः स्वलग्नं च जन्मलग्नमेव, ताभ्यामष्टमं यलग्नं तद्यात्रायां त्याज्यं, ताभ्यामेव यत् षष्ठं तदपि त्याज्यं । तथा द्विषस्ताभ्यां यत् षष्टं, कोऽर्थः ? द्विषोऽभिषेणवितुमिष्टस्य जन्मलग्नाज्जन्मराशेश्च
66
स्थानस्थौ यो राशी तावपि लग्ने त्याज्यौ | तद्वाशिनाथेति ये स्वेन्दुलग्ना - भ्यामष्टमे षष्टे च ये च या (जे) तव्यस्य जन्मेन्दुजन्मलग्नाभ्यां षष्ठे गृहे तेषां षण्णामपि राशीनां ये ईशास्तैर्मूर्तिस्थैर्युतं यलग्नं तदपि त्याज्यं । तथा च दैवज्ञवल्लभे
जन्मर्क्ष १ लग्नाष्टमराशिलग्ने २, षष्ठोदये ४ शत्रुभलग्नतो ६ वा । तद्राशिनाथै ६ रथवोदयस्थैः करोतु यात्रां विषभक्षणं वा ॥ १ ॥ कर्कवृश्चिक मीनानामुदयेऽशे च न व्रजेत् । मूर्तिस्थेऽहर्बले रात्रौ रात्रिवीर्येऽह्नि च ग्रहे ॥ ३० ॥
"
व्याख्या – उदये लग्नेऽशे नवांशे च तत्र कर्कवृश्चिकयोः कीटवेन यात्रायामक्षमत्वाद्वर्जनं । मीने तु प्रस्थितो वक्रेण पथा भ्रान्त्वा भ्रान्त्वासिद्धकार्य: पश्चात् समेति । उक्तञ्च रत्नमालायां, "वक्रः पन्था मीन लग्नेश के वा, कार्यासिद्धौ स्यान्निवृत्तिश्च तत्र ” । तथा कुम्भस्य रिक्तत्वात् कुम्भलग्नकुम्भांशावपि त्याज्यावुक्तौ रत्नमालायां । मूर्तिस्थ इति यात्रालग्ने स्थितो ग्रहो यद्यहर्बली तदाऽहन्येव यात्राss न निशि, निशाबली चेत्तदा निश्येत्र नाहि । उक्तं हि - "बलिनोऽह्नि गुरुसितार्का" इत्यादि ॥ सिध्ध्यै सौम्येश लग्नानि नौयानं जलभेष्वपि । जानीयाल्लोकतश्चात्र राशीनां वश्यतां मिथः ॥ ३१ ॥
व्याख्या - सिध्ध्यै इति कार्येष्विति शेषः । नौयानमिति जलचरलग्ने, उपलक्षणत्वाज्जलचरनवांशे वा नौयात्रासिद्धिः । प्रवहणपुरणे च निर्विघ्नतालाभ स्यातां । वश्यतामिति, उक्तं हि दैवज्ञवल्लभे
66
चतुष्पदा विशा विसिंहाः, सरीसृपश्चाम्बुचरास्तु भक्ष्याः । सिंहस्य वश्या विसरीसृपाः स्युरूह्यं जनोक्तव्यवहारतोऽन्यत् ॥ १ ॥ स्थलाम्बुसंभूतसरीसृपाख्या, भवन्ति वश्या बलिनां स्वकानाम् । समा संस्था विषमान् भजन्ते, वश्या रजन्यां विषमाः समानाम् ॥२॥ "
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आरम्भ-सिद्धिः
अनयोरर्थः- अजवृषसिंहा धनुरपरार्धं मकराद्यार्धं च चतुष्पदाः, मिथुनकन्या तुला कुम्भा धनुराद्यार्धं च मनुष्याः, कर्कमीनौ मकरपश्चार्धं च जलचराः, सरीसृपो वृश्चिक इति । ततश्च सिंहं विनाऽन्ये मेषवृषवृश्चिक कुम्भा मानुषाणां वश्याः, जलचराः कर्कमकरमीना मनुष्याणां भक्ष्याः सिंहस्य वृश्चिकं विना सर्वे वश्याः । अन्यदिति वृश्चिकस्य सिंहोऽपि वश्यः । सर्वे पुंराशयः कन्याया वश्याः, धनुषः सर्वोऽपि वश्य इत्यादि । स्थलाम्बुसम्भूतेति, यदि द्वावपि राशी स्थलजौ जलजौ सरीसृपौ वा तदा द्वयोर्मध्ये यो बलिष्ठस्तस्येतरो वश्यः, यथा वृषस्य मेषो वश्यः, मकरस्य मीनकक वश्यौ, वृश्चिकस्यापरो वृश्चिको बलहीनत्वे सति वश्यः स्यात्, मेषद्वयवृषद्वयादीनां सम्भवेऽपि च वृश्चिकवदेव बलाधिक्यं विचार्य वश्यता भावनीया! समा संस्था इति, इष्टलग्नं किल दिवा स्याद्रात्रौ वा, तत्र दिवा समराशयो विषमराशीनां वश्या:, रात्रौ तु विषमराशयः समराशीनां वश्या इति । अस्य प्रयोजनं तु "यच्च वश्यं स्वलग्नेन्द्वोः " इति लोके वक्ष्यति ॥ जन्मकाले शुभैर्युक्ता द्वितीयास्तरणेश्च ये । निष्क्रूरा निर्विकाराश्च ते लग्ने राशयः शुभाः ॥ ३२ ॥
و
व्याख्या - द्वितीया इति येषां किल जातके वेशिसंज्ञा, "सूर्याद्वितीयमृक्षं बेशि : " इत्युक्तेः । निष्क्रूरा इति जन्मकाले येषु करग्रहो नाभूत् । निर्विकाराइति, क्रूरभुक्तराशिः सविकार, चन्द्रेण भुक्तस्तु निर्विकारः जन्मकाले ये राशय ईशास्ते यात्रालग्ने शुभाः ॥
यच्च वश्यं स्वलग्नेन्द्वोर्न च वश्यं द्विषस्तयोः । शत्रोरेवाष्टमं ताभ्यां लग्नं यातुर्जयावहम् ॥ ३३ ॥
व्याख्या --- यद्यात्रालग्नं सौवजन्मलग्नजन्मराइयोर्वश्यं स्यात् द्विषो जेतब्यस्य जन्मलग्नजन्मराश्योर्वश्यं च । तथाशत्रोरेव न तु स्वस्य ताभ्यां जन्मलग्नजन्मराशिभ्यां यदष्टमं स्यात्तल्लग्नं यात्रायां शुभम् ॥
इत्युक्तमष्टभिः श्लोकैर्यात्रा लग्नं । अथ “जत्ता छव्वग्गसुद्धीए " इति हर्षप्रकाशोक्तेर्यात्रा होरादिवर्गपञ्चक्रमाह
विमुक्ताकान्तभोग्यानि राश्यर्धान्युष्णरश्मिना । ऊर्ध्वतिर्यगधोमुख्यो होराः स्युरुदयावधि ॥ ३४ ॥
व्याख्या - या होराsर्केण भुक्त्वा मुक्ता सा ऊर्ध्वमुखी, भुज्यमाना तिर्यङ्मुखी, भोक्ष्यमाणा स्वधोमुखी, पुनस्तदग्रेतन्यस्तिस्रः क्रमादूर्ध्वतिर्यगधोमुख्यः पुनस्तथैव तिस्रः क्रमादूर्ध्वादि मुख्यः, एवं पुनः पुनरुदयावधीति सूर्योदयं यावत् । यद्वा उदयो लग्नं तत्राधिकृता होरेत्यर्थः तं यावत् एवं त्रिविधा होराः कल्प्याः । एवं चाहोरात्रे चतुर्विंशतिहोरात्मके त्रिविधहोराणामष्टाष्टा वृत्तय: स्युः ॥ फलमाह -
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चतुर्थो विमशः जयमूर्ध्वमुखी होरा विपदस्तिर्यगानना । अधोमुखी रणे यातु भङ्ग दिशति लग्नगा ।। ३५ ॥
व्याख्या-जयमिति एवं कल्प्यमाने सत्यभीष्टा लग्नहोरा ययूर्ध्वमुखी स्यात्तदा जयदा ॥
द्रेष्काणः फलरत्नाढ्यः शुभनाथः शुभेक्षितः। शुभोऽशुभस्तु सास्त्राहिपावकः पापवीक्षितः॥ ३६ ॥
व्याख्या-राशौ राशौ यत्रयभावात् षट्त्रिंशद्रेष्काणाः स्युः, तेषु यः फलरत्नरुपलक्षणत्वात्पुष्पैर्भाण्डैर्वाऽऽन्यः सौम्यस्वामिकः सौम्येन पूर्णदृशा दृष्ट एवं सौम्याकारो वा यः स्यात्स यात्रालग्ने शुभः । अशुभस्विति यस्तु शस्त्रसारिन. भिर्युतः, केचित् पावकस्थाने पाशकं पठन्ति, तेन पाशैर्बन्धनैर्वा युतः, तथा क्रूरदृष्टः उपलक्षणत्वात् क्रूरयुतः ऋरेशः क्रूराकारो वा सोऽशुभः । उक्तञ्च" द्रेष्काणाकारचेष्टागुणसदृशफलं योजयेद् वृद्धिहेतो, द्रेष्काणे सौम्यरूपे कुसुमफलयुते रत्नभाण्डान्विते च । सौम्यैर्दष्टे जयः स्यात्प्रहरणसहिते पापदृष्टे च भङ्गः, साग्नौ दाहोऽथ बन्धः सभुजगनिगडे पापयुक्तेऽपि वाऽश्रीः ॥१॥"
___ तेषां रूपाणि चैवं बृहज्जातके-मेषे प्रथमद्रेष्काणो नरोऽभ्युद्यतपशुहस्तः कृष्णो रक्ताक्षो रौद्रः ।। अयं द्रेष्काणो मनुष्य एव, विशेषानभिधानात् , एवं येषु विशेषो न वक्ष्यते ते मनुष्या एव ज्ञेयाः । द्वितीयः स्त्री शोणाम्बराऽश्वाऽऽस्या दीर्घमुखोरुपादी (पदी) एकेनाहिणोपलक्षिता, चतुष्पदोऽयं, तत्तुल्यास्थत्वात् , एव मग्रेऽपि यथायोगं भाव्यं २ । तृतीयो नरः करः कपिलो रक्ताम्बरोऽभ्युद्यतदण्ड. हस्तः ३ । १ । वृषे आद्यः स्त्री कुञ्चितलूनकेशी स्थूलोदराऽग्निदग्धवस्त्रा भूष. णानीच्छति १ । द्वितीयो नरोऽजास्यो धान्यक्षेत्रवास्तुहलशकटकर्मणि दक्षश्चतुष्पदोऽयं २ । तृतीयो नरो बृहत्कायपादः ३ । २ । मिथुने आद्यः स्त्री सुरूपा दीनप्रजा उच्छितभुजा ऋतुमत्याभरणार्थे सादरा १ । द्वितीयो नरो गरुडास्य उद्यानस्थो बाणकवचधनुष्मान् खगोऽयं २। तृतीयो नरो रत्नमण्डितः पण्डितो बद्धतूणकवचो धनुष्मान् ३ । ३ । कर्के आद्यो नरो हस्तिसमाङ्गोऽश्वकण्ठः सूकरास्यः पत्रमूलभृत् चतुष्पदोऽयं १ । द्वितीयः स्त्री यौवनस्था ससा वनस्था २ । तृतीयो नरः सर्पवेष्टितो नौस्थः स्वर्णाभरणान्वितः ३ । ४ । सिंहे भाद्यः शाल्मलिवृक्षोपरि गृध्रः शृगालः श्वा नरश्च मलिनवासाः अयं नरः खगश्चतुष्पदश्च ।
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आरम्भ-सिद्धिः
द्वितीयो नरोऽश्वाकृतिः कृष्णाजिनकम्बलभृत् दुर्धर्षो धनुष्मानताग्रनासः चतुष्पदोऽयं २ | तृतीय ऋक्षास्यो वानरचेष्टो नरः कूर्चीकुञ्चितकेशो दण्ड फलामिषहस्तः चतुष्पदोऽयं ३ | ५ | कन्यायामाद्यः स्त्री पुष्पपूर्णघटयुता मलिनाम्बरा गुरोः कुलं वान्छति १ । द्वितीयो नरो लेखिनीहस्त: श्यामो लोमशो वस्त्राङ्कितशिरा विस्तीर्णधन्वपाणिः २ | तृतीय: स्त्री गौरोच्चा सुधौताम्रदुकूलाच्छादिता कुम्भकडुच्छुकहस्ता देवालयं प्रवृत्ता ३ । ६ । तुलायामाद्यो नरस्तुळाहस्तश्चतुष्पथरथो मानोन्मानचतुरो भाण्डं विचिन्तयति १ । द्वितीयो नरो गृध्रास्यो घटान्वितः क्षुधितस्तृषितः खगोऽयं २ । तृतीयो नरः फलामिषधरो हैमतूणवर्मभृद्वानररूपो रत्नचित्रितो धनुर्हस्तो वने मृगान् भीषयते चतुष्पदोऽयं३ । ७ । वृश्चिके आद्यः स्त्री नग्ना स्थानच्युता सर्पनिबद्धपादा मनोरमाऽब्धितः कूलमायाति । द्वितीयः
भर्तृकृते सर्पावृताङ्गी कूर्मकुम्भाकृति स्थानसुखानि वान्छति २ तृतीयो नरः सिंहरूपश्चिपिट कूर्म तुल्यास्यः अयं कूर्मश्चतुष्पदश्च ३ । ८ । धनुषि आद्यो नर आयतधन्वपाणिर्नृमुखोऽश्वकायः चतुष्पदोऽयं १ । द्वितीयः स्त्री सुरूपाऽब्धिरत्नानि विघट्टयन्ती गौराङ्गी २ । तृतीयो नरो गौरो निषण्णो दण्डहस्तः कूर्चीकौशेयकचर्मवाही ३ । ९ । मकरे आयो नरो रोमशः सूकराकृतिः स्थूलदंष्ट्रो बन्धनभृत् रौद्रास्यः चतुष्पदोऽयं १ । द्वितीयः स्त्री श्यामा सालङ्कारा लोहाभरणभूषितकर्णी २ । तृतीयो नरः किन्नराङ्गस्तूणी कवची धनुष्मान् सकम्बलः स्कन्धे रत्नचित्रितं कुम्भं वहति ३ । १० । कुम्भे आद्यो नरश्वर्मभृद् गृध्रास्यः सकम्बलः स्वगोऽयं १ । द्वितीयः स्त्री मलिनाम्बरा शीर्षे भाण्डवाहिनी अग्निना दग्धें शकटे लोहानि गृह्णाति २ । तृतीयो नरः सिंहरूपश्च श्यामः सरोमकर्णः किरीटी त्वपत्रनिर्यासफलभृत् ३ । ११ । मीने आद्यो नरः स्रग्मौक्तिकशङ्खपाणि: साभरणो नौस्थोऽधि तरति १ । द्वितीयः स्त्री गौराङ्गी नौस्थाऽन्धितः कूलं याति २ । तृतीयो नरो नग्नो भीरुचौराग्निभ्यां व्याकुलितः सर्पावृताङ्गो तान्तिकस्थः अयं व्याकुलद्वेष्काणः ३ । इति १२ । एषां चिन्तानष्टादिप्रश्ने प्रयोजनं “द्रेष्काणैस्तस्कराः स्मृता " इति । रोगिप्रश्न "गृध्रकोलोरगभ्यं शैरुदितै रोगिणो मृतिरिति” । बन्धमोक्षप्रश्ने " धृतोरगे त्र्यंशे सशृङ्खलापाशो बन्धः" इत्यादि । यात्रायां तु यथोपयोगस्तथोक्तमेव । शुभनाथ इति द्वेष्णाणेशाः प्रागुक्ता एव । शुभेक्षित इति, यो द्रेष्काणो लग्नेऽधिकृतोऽस्ति तन्नामा राशिर्यात्राकुण्डलिकायां यत्र तत्र स्थितो यदि शुभग्रहैर्दृश्येत तदा स द्वेष्काण: शुभैर्दृष्ट इत्युच्यते ।
स्थापना यथा
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चतुर्थी विमर्श
____ अत्र वृषे द्वितीयस्य कन्याद्रेष्काणस्य स्वामी बुधः सौम्यस्तस्य मीनमूर्तिस्थयो: शुक्रजीवयोश्च पूर्णा दृष्टिः, एवं पापस्वामिकत्वं पापदृष्टस्वं च भाव्यं । एवं वक्ष्यमाणे उदयास्तशुद्ध्यादौ नवांशादीनामपि,
सौम्यकरदृष्टत्वं च भाव्यम् ॥ शन्यन्दुकुजाँस्त्यक्त्वा शुभोऽन्येषां नवांशकः । लग्नवद् द्वादशांशस्तु त्रिंशांशस्तु नवांशवत् ।। ३७ ।।
व्याख्या-त्यक्त्वेति, यदुक्तं दैवज्ञवल्लभे" लग्नेऽर्कस्य नवांशे वाहननाशः कुजस्य वह्निभयम् । इन्दोः प्रतापहानिः शनेनवांशे मरणमेव ॥ १ ॥ "
लग्नवदिति “यातव्यं दिङ्मुखे लग्ने (२६)" इत्यत भारभ्य " यबवा वश्यं स्वलग्नेद्वोः (३३)" इति यावल्लग्न विषयं यदुक्तं तत्सर्व द्वादशांशेऽपि योज्यं । नवांश वदिति, अयमर्थः-शनिकुजवर्जानां त्रिंशांशः शुभः, अर्केन्द्रोस्त्रिंशांशाभावात् ॥ उक्ता षड्वर्गशुद्धिः । अथ यात्रायां द्वादश भावानाहतनुः१ कोशोर भटो३यानं४मन्त्रोऽरिवर्त्मजीवितम् ८ । मनः९कर्मा १० जना ११ मन्त्री १२भावाः स्युरुदयादयः॥३८॥
___ व्याख्या-कर्मेति भाग्यं व्यापारो वा । एषु स्थानेष्वेषां शुभाशुभोदर्का ग्रहबलाद्विचार्यन्ते ॥ इह च पूर्वोक्ता भावविचारणा बहुसमैव । विशेषस्तु यात्रायां द्वादशभावेषु ग्रहविचारमाहहन्ति योधायकर्मान्यानसौम्यः कर्म चासितः। सौम्योऽप्यरिं सितोऽध्वानं चन्द्रश्च तनुजीविते ॥ ३९ ॥ ____ व्याख्या-असौम्यः क्रूरो ग्रह स्त्रिदशैकादशवर्जान् सर्वान् भावान् हन्ति त्रिदशैकादास्तु पुष्णातीत्यर्थः । किं सर्वोऽपि कर एव ? नेत्याह-कर्म चासित इति, असितः शनिर्दशमभावमपि हन्ति, शेषाँश्च सर्वान्, केवलं ध्येकादशावेव शनिः पुष्णातीति भावः । सौम्योऽप्यरिमिति, सौम्योऽपि गुरुकशुखुधेन्दुरूपो ग्रहोऽरि षष्ठभावं हन्ति "सौम्याः षष्ठेऽरिना" इत्युक्तेः, शेषभावाँस्तु पुष्णात्येव, करग्रहस्तु षष्ठभावं हन्त्येव क्रूरत्वादेवेत्यपेरर्थः । ननु किं सवाऽपि सौम्योऽरि. वर्जसर्वभावान् पुष्णात्येव ? नेत्याह-सितोऽध्वानमिति सितः शुक्रोऽध्वानं ससमभावमपि हन्ति, चन्द्रश्च प्रथमाष्टमभावावपिन्ति, शुक्रन्दू षष्ठभावं विनाशयत इति सूक्तमेव । एवं चायमर्थः सम्पन्न:
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आरम्भ-सिद्धिः
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"ख १० स्थशनिवर्जमुपचयगाः ऋराः सर्वगाः शुभाः सौम्याः । हित्वास्ते ७ सितमष्टम ८ लग्न १ ग-शशिनञ्च यात्रायाम् ॥१॥"
इति कृता यात्राकुण्डलिकायां सामान्येन द्वादशभाव विचारणा ॥ अथ मूर्तिस्थग्रहव्यवस्थामाहजन्मन्यनिष्टः सौम्योऽपि न लग्नस्थः शुभो ग्रहः । तत्रेष्टदस्तु पापोऽपि यात्रालग्रस्थितः शुभः ॥ ४० ॥
___ व्याख्या-सौम्योऽपि यो जन्मसमये मृत्युव्ययभवनस्थत्वादिना अशुभा स यात्रालग्ने मूतों न शुभः, तत्रेष्टद इति. यस्तु रोऽपि रिपु ६ लाभ " स्थानादिना जन्मनीष्टदः स यात्रालग्ने मूर्ती शुभ एव, जन्मशुभाशुभग्रहाच विस्तरतो जातकाज्ज्ञेयाः । समासेन त्वेवम्"क्रूरास्त्रिषडायस्थाः सितेन्दुगुरवोऽन्तिमाष्टरिपुवर्जाः । ध्यष्टान्तिमरिपुवर्जी बुधः प्रशस्यो जननसमये ॥ १ ॥" स्थापना
जन्मकुण्डलिकायां शुभाः ।
रवि
३-६-११
चन्द्र मंगल बुध
१-२-३-४-७-९-१०-११ 1-२-३-४-५-७-१-१०-११
गुरु
शनि
पापोऽप्यभीष्टदो जन्मलग्नःस्वामिनोः सुहृद् । मूर्तिस्थितः शुभोऽपि स्यादशुभोऽरातिरेतयोः ॥४१॥
व्याख्या---जन्मलग्नाति जन्मलग्नेशजन्मराशीशयोर्यों मित्रम् ॥ सुहृद्दशापतेः सद्यः सफलो जनने बली। करोऽपि विविधो भद्रस्तनौ सौम्योऽपि नेतरः॥४२॥ व्याख्या-यात्राकाले यस्य ग्रहस्य दशाऽस्ति स दशापतिस्तस्य सुहृन्मित्रम् । विशेषस्तु दशापतिरपि यात्रासमये सबलो विलोक्यते । यल्ललः
" यात्रा नैव दशापतावुपहते नैवास्तगे नावले, . नीचस्थे न च नैव वक्रिणि नृणां देया कदाचिद् बुधैः । " इति
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चतुर्थी विमर्श
१६१
दशाक्रमतत्प्रमाणतद्विभागादिस्वरूपं च जातकादिभ्यो ज्ञेयं, इह त्वप्रस्तुतत्वादतिविस्तरत्वाच्च न प्रतन्यते, स्थानाशून्यार्थं तु वार्षिकं दिनदशाप्रमाणं स्थूलं दर्श्यते, तथाहि
33
" निजनामराशितः प्रभृति गण्यते वर्तमान सङ्क्रान्तेः । गतदिवसावध्येवं दिवसदशाः स्युः क्रमादेताः ॥ १ ॥ रवी १ न्दु २ भौम ३ ज्ञ ४ शनी ५ ज्य ६ राहु ७ सकेतु ८ शुक्रेषु ९ नखाः २० खबाणाः ५० । अष्टावि २८ षड्वाण ५६ रसाग्नि ३६ देव ३३ देवा ३३ तिशीत्य ३४ भ्रहया ७० दशाहाः ॥ २ ॥ सर्वे दिनाः षष्ट्यधिका त्रिशती ३६० ।
59
“ हानिं १ धनं २ रुजं ३ लक्ष्मीं ४ दैन्यं ५ लक्ष्मीं ६ च बन्धनम् ७ । भयं ८ श्रियं ९ चार्कादीनां दद्युर्दिनदशाः क्रमात् ॥ ३ ॥
अत्रायमाम्नाय :- स्वनामराशौ यद्दिनेऽर्कः सङ्क्रान्तस्तद्दिनादारभ्य वर्तमानदिनं यावद्दिना गण्यन्ते इयन्तो दिना गता इति, तत्राद्या विंशतिर्दिना रवेर्दिनदशा: अग्रे पञ्चाशद्दिना इन्दोरित्यादि, एवं गणने यस्य ग्रहस्य दिनदशा तदानीं समेति स दशापतिरिति । 'सद्यः सफल' इति यस्तदानीं गोचरेण प्रतिकूलवेधेन वा शुभः स सद्यः सफल:, यस्तु गोचरेणानुकूलवेधेन वाऽशुभः स सद्योऽफलः । तथा जन्मपत्रिकायां यो बली रूपवानित्यादिवदतिशायने मत्वर्थीयोऽयं ततो यः सर्वोत्कृष्टबल इत्यर्थः । 'इतर' इति यो वर्तमानदशेशस्यारिः, यो वा तदानीम फलः, यो वा जन्मकाले निर्बल इति । ननु यदि जनने बलीत्युक्तं तदा जन्मनि सर्वोत्कृष्टबलोsपि यो मृत्युस्थत्वादिनाऽनिष्टदस्तस्यापि मूर्ती ग्राह्यत्वप्रसङ्गः । मैवं, " जन्मन्यनिष्टः सौम्योऽपि" इत्यनेनैव तस्य निषेधभवनात् ॥
३४ ७०
ग्रहाणां र. सो मं. बु. श. गु. रा. के शु. , दशादिनानि २० ५० २८ ५६ ३६ ३३ ३३ फलम् हानिः धनं रुजं लक्ष्मी दैन्य लक्ष्मी बंधनं भयः श्रीः आ. सि. १४
जन्मकाले विधोर्यद्वाऽन्योऽन्येनोपचयस्थिताः । तानाख्याः सौम्यवत्क्रूरा जानकोक्ताश्च कारकाः ॥ ४३ ॥ व्याख्या - जन्मपत्रिकायां चन्द्रात्रिषड्दशैकादशस्थानां ग्रहाणां चन्द्रापेक्षय तानसंज्ञा । तथा जन्मन्येव येऽन्योऽन्यस्मादुपचय स्थास्तेषामप्यन्योऽन्यं तान संज्ञा । कोऽर्थः ? पितृपुत्रगुरुशिष्यादिवत्तानशब्दस्य सम्बन्धिशब्दस्वेन द्विष्ठत्वा
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१६२
आरम्भ-सिद्धिः
देकैकग्रहस्य शेषास्तानसंज्ञया व्यवहियन्ते, अन्योऽन्यस्य कार्य तन्वन्ति विस्तारयन्तीति कृत्वा । एवं कारकसंज्ञाया अपि द्विष्ठत्वं सान्वर्थत्वं च भाग्यं । ते च क्रूरा अपि सौम्यवत् स्युः तन्वादियथोक्तभावेषु शुभा इत्यर्थः । जातकोक्ता इति जातके ये कारकसंज्ञयोक्तास्तेऽपि करा अपि सौम्यवस्स्युः । ते चैवं-तत्रोक्ता ये ग्रहाः स्वझे स्वोच्चे स्वत्रिकोणे वा स्थिताः केन्द्रेषु स्युस्ते सर्वेऽप्यन्योऽन्यं कारकसंज्ञाः, तेषां मध्ये दशमकेन्द्रस्थो ग्रहः शेषग्रहाणां विशिष्य कारकः, सर्वेषां चैतेषां चन्द्रयुतिदृष्टया बलवत्त्वं, यथा कर्के लग्ने तत्स्थे चन्द्रेऽर्काऽऽरगुरुमन्दाः स्वस्वोच्चस्थाः सन्तो मिथः कारकाः स्युः । स्थापना यथा
तथा लग्नस्थग्रहस्य दशमतुर्यस्थो ग्रहः सर्वोऽपि स्वगृहस्वोच्चस्वत्रिकोणेष्वस्थितो. ऽपि कारकाख्यः स्यात् । तथा लग्नं केन्द्र वा विनाऽपि स्थितस्य ग्रहस्य यदि कश्चिद
ग्रहो दशमस्थाने स्वों त्रिकोणाना. १२! मन्यतमस्थो निसर्गमैच्या तात्कालिकमैय्या
च सम्पन्नः स्यात्तदा सोऽपि तस्य कार
- काख्यः स्यात् । उक्तञ्च" स्वर्शोच्च (क्षतुं) गमूलत्रिकोणगाः, कण्टकेषु यावन्त आश्रिताः । सर्व एव तेऽन्योऽन्यकारकाः, कर्मगस्तु तेषां विशेषतः ॥१॥"
भत्रोदाहरणम्“ कर्कटोदयगते यथाडुपे, स्वोच्चगाः कुजयमार्कसूरयः । कारका निगदिताः परस्परं १, लग्नगस्य सकलोऽम्बराम्बुगः २ ॥२॥"
अत्र सकल इति स्वगृहोच्चत्रिकोणेष्वस्थितोऽपीति भावः ॥ " स्वर्भकोणोच्चगः खेटः खेटस्य यदि कर्मगः ।
सुहृत्तद्गुणसम्पन्नः कारकश्चापि संस्मृतः ॥ ३ ॥" जन्मलग्नेशयोस्तानः कारको वाऽपि लग्नगः । असौम्योऽपि शुभाय स्याद्वयस्तः सौम्योऽपि चान्यथा ४४
___ व्याख्या-ईशशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धाजन्मेशलग्नेशयोरिति योज्यं । अयमर्थ:--यात्राचिकीर्षोनूपादेर्जन्मनि यत्रेन्दुस्तद्राशीशो जन्मेशः तस्य तजन्मसस्कलग्नेशग्रहस्य वा यो ग्रहो जन्मपत्रिकायां तानरूपः कारकरूपो वा स्यात् स करोऽपि यात्रालग्ने मूर्तिस्थः शुभ एव । व्यस्त इति विपरीतः सौम्यग्रहोऽपि जन्मपत्रिकायां जन्मेशलग्नेशयोस्तानः कारको वा नास्ति स यात्रालग्ने मूर्ती न शुभः । तदयं भावः-यात्रायां तानस्य कारकस्य वा बलं गायमेव । तथा
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चतुर्थो विमशः
" नायकाः स्युः प्रसूतौ ये रक्षका ये च वर्धकाः । ते क्रूरा अपि यात्रायां लग्नस्थाः शुभदा ग्रहाः ॥ १॥"
इांत देवज्ञवल्लमे । एषां च स्वरूप बृहज्जातके ॥ वक्री केन्द्रेऽथ तद्र! लग्ने यातुर्जयापहः । गतिप्रमाणवर्णैर्वा विकृतश्च नभश्चरः॥ ४५ ॥
व्याख्या-अर्केन्द्वोर्वक्रासम्भवाझौमाद्यन्यतरो यो ग्रहस्तदानीं वक्रगोऽस्ति स एकोऽपि यात्रालग्ने केन्द्रस्थो जयं हन्ति, किं पुनर्वित्राः? अथेति तस्यैव वक्रिणो ग्रहस्य वर्गो होराया असम्भवाद् गृहद्रेष्काणनवांशादिरूपश्चेल्लग्नेऽस्ति तदा सोऽप्यशुभः । वक्रमार्गदिनसङ्ख्या चेयं ज्योतिषसारे"पणसट्टि ६५ इकवीसा २१ बारस अहियं सयं च ११२ बावन्ना ५२। चउतीस सयं च १३४ कमा वक्कदिणा मङ्गलाईणं ॥ १ ॥ लगसय पणाल७४५विणवइ९२चुआलसय १४४ पञ्चसयचउव्वीसा५२४॥ दोअ सया चालीसा २४० मङ्गलमाईण मग्गदिणा ॥ २ ॥".
गतीत्यादि गत्यायेविकृतोऽपि ग्रहो यात्रालग्ने मूत्तौ न शुभः, अतिचरितो अहो गतिविकृतः । अतिचारस्वरूपं चैवं लल्लोक्तम्" पक्षं १ दशाहं २ त्रिपक्षी ३ दशाहं ४ मासषट्तयी ५ । अतिचारः कुजादीनामेष चारस्त्वितोऽपरः ॥ १॥" ग्रहाणां
श.
वक्रदिनानि |
११२
१३४
मार्गदिनानि | ७४५ ९२ | १४४
५२४]
२४०
अतिचारः | पक्षं | १० त्रिपक्षी| १० ६ मास प्रमाणेति पूर्वप्रमाणात् हस्वो महान् वा खे लक्ष्यमाणः प्रमाणविकृतः, एवं वर्णविकृतोऽपि भाव्यः। लल्लस्स्वाह-“यस्य ग्रहस्य जन्मक्षं फरग्रहोल्काद्यैः पीडितं स्यात्सोऽपि ग्रहो यात्रालग्ने मूत्तौ न शुभः" ग्रहजन्माणि चैवं"विशाखा १ कृत्तिका २ प्यानि ३ श्रवणो ४ भाग्य ५ मिज्यभम् ६। रेवती ७ याम्य ८ मश्लेषा ९ जन्माण्यर्कतः क्रमात् ॥ १॥"
उत्तरान्तश्चरो भानो शुभो नान्यस्तनौ ग्रहः । फलेन वर्गो वारश्च तनुगव्योमगोपमः ॥ ४६॥
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१६४
आरम्भ-सिद्धिः
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व्याख्या--इष्टेऽह्नि यत्राऊदयास्ते स्यातां तत्स्थानं सम्यग्निीय चिह्नयितव्यं, यत्र च विवक्षितग्रहस्योदयास्ते स्यातां तदपि । एवं च योऽर्कादुदीच्यामुदेत्यस्तमेति च स उत्तरचरः । यश्चार्कस्थान एवोदेत्यस्तमेति च सोऽन्तश्चरः । एतौ यात्रालग्ने मूत्तौ शुभौ । अन्य इति अर्का दक्षिणचरस्त्वशुभः । इदं च मूर्तिग्रहस्वरूपमिह यद्यपि यात्रामुद्दिश्योक्तं तथापि विवाहादिसर्वकार्यलग्नेष्वपि योज्यं । विशेषस्तु" लग्नेऽकारी शनेर्धाम्नि शुभावन्यत्र भदौ ।
शीतांशुरुदयप्राप्तः सर्वकार्येषु नाशदः ॥ १ ॥ जीवशुक्रशनिस्थाने स्थितो लग्ने जयार्थदः ।। स्थानेष्वन्दुभौमानां शशितूनुरनर्थदः ॥ २ ॥ मन्दारबुधसूर्याणां स्थानेषु शुभदो गुरुः । शुक्रेन्दुस्थानगो लग्ने धनयोधविनाशकः ॥ ३ ॥ सौम्यस्थाने शितः शस्तो लग्नस्थोऽन्यत्र नेष्टदः । छायापुत्रो रविस्थाने प्रीतिदोऽन्यत्र नाशदः ॥ ४ ॥ स्वस्थाने न शुभो मन्दो लग्नेऽन्यत्र शुभावहः । यात्रायां चन्द्रमाः शस्तो दिग्बलेन विवर्जितः ॥ ५ ॥"
इति देवज्ञवल्लभे ।
इत्युक्ता सार्धषट्श्लोकैर्मुर्तिस्थग्रहव्यवस्था। अथ यात्रालग्ने षड्वर्ग वारच नियमयति-फलेनेति वर्गः षड् वः यात्रादिने वारश्च तनुगो मुर्तिस्थो यो व्योमगो ग्रहस्तत्तुल्य फलो ज्ञेयः। अयं भावः-जन्मन्यनिष्ट इत्यत आरभ्यतच्छलोकपूर्वाधं यावदक्तया रीत्या यादृशो ग्रहो मौ शुभोऽशुभो वा निर्धारितखादृशस्यैव ग्रहस्य षड्वों ग्रहहोरादिमृत्तौ शुभोऽशुभो वा ज्ञेयः । यात्रादिने वारोऽप्येवमेव निर्धार्यः विशेषस्तु" उपचयकरस्य वर्गः करस्यापि प्रशस्यते लग्ने । चन्द्रो वा तद्युक्तो न तु विपरीतस्य सौम्यस्य ॥ १ ॥ उपचयकरग्रहदिने सिद्धिः करेऽपि यायिनां भवति । सौम्येऽप्यनुपचयकरे न भवति यात्रा शुभा यातुः ॥ २ ॥"
इति लल्लः । तथा"सौम्योऽपि न शुभं दत्ते रिपोर्वारे विलमपः । वारे मित्रस्य पापोऽपि भवेच्छुभफलप्रदः ॥१॥” इति दैवज्ञवल्लमे ।
तथा येषां वारः शुभोऽशुभो वा तेषां कालहोराऽपि तथैव । तत्फलं चैवं"रूपं ग्रहस्य वर्ग स्वदिने द्विगुणं स्वकालहोरायाम् । त्रिगुणमरिवर्गयोगे फलस्य प्रान्त्यस्तृतीयांशः॥१॥" इति शौनकः । तथा--
"बलिनः कण्टकसंस्था वर्षाधिपमासदिवसहोरेशाः ।। द्विगुणशुभाशुभफलदा यथोत्तरं,ते परिक्षेयाः ॥ १॥” इति ललः ।
U
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चतुथों विमर्श
उक्ता मूत्तौं ग्रहतत्षड्वर्गादिव्यवस्था । अथ शेषकेन्द्राद्याश्रित्याहकेन्द्रेषु ग्रहशून्येषु लग्ने वीर्येण वर्जिते । बलहीनैश्च सौम्यैः स्यादभिषेणयतो भयम् ॥ ४७ ॥
१६५
व्याख्या - ग्रहशून्येध्विति प्रथमं तावदेकस्मिन्नपि केन्द्रे यदि कश्चित्सौम्यग्रहः स्यात्तदैव यात्रायामन्यकार्येषु च शुभं, न त्वन्यथा । सौम्यग्रहाभावे यद्येकमपि केन्द्रमुपचयकरेण क्रूरेगाप्यधिष्ठितं स्यात्तदापि शुभं । सर्वकेन्द्राणां शून्यत्वं तु सर्वथाऽनिष्टम् - यदुक्तम् । "पापोsपि कामं बलवान्नियोज्यः, केन्द्रेषु शून्यं न शिवाय केन्द्रम् ।" इति रत्नमालायां ।
विशेषस्तु - सौम्यग्रहाश्वेत्केन्द्रेषु पापग्रहयुताः स्युस्तदा महता कष्टेन यात्रा सिध्येत् । यल्लुल्लः
<6
"
सौम्यैश्च पापैश्च चतुष्टयस्थैः कृच्छ्रेण संसिद्धिमुपैति यात्रा ।
वीर्येणेति स्वामि सौम्यग्रहयुतिदृष्टयभावेन क्रूराणां तत्सद्भावेन च लग्नं निर्वीर्यं स्यात् । बलहीनैरिति अष्टादशधा किल ग्रहाणामबलता भुवनदीपकवृत्तावुक्ता, तथाहि
"स्व १ मित्रनीचगो २ चक्रः ३ स्वराश्यस्ता ४ रिवर्गगः ५ । लग्नाद्द्द्वादशगः ६ षष्ठः ७ क्रूरैर्युक्तो ८ ऽथ वीक्षितः ९ ॥ १ ॥ याभ्यो १० राह्वास्य ११ पुच्छस्थो १२बालो १३वृद्धो१४ऽस्तगो१५जितः१६ । मुथुशिले १७ मूशरिफे पापै१८रित्यबलो ग्रहः ॥ २ ॥ "
अत्र नीचग इति नीचगृहस्थो नीचांशस्थोऽपि च ग्राह्यः । वक्र इति वाभिमुखोऽपि वक्रवत् । स्वराश्यस्तेति स्वगृहराशेः सप्तमराशिस्थः । अरिवर्गगः शत्रोरधिशोर्वा ग्रहस्य गृहहोरादिषट्कस्थः । याम्यः कर्कादिषट्क रूपदक्षिणायनवर्ती | राह्रास्यपुच्छेति -
"
यत्र ऋक्षे स्थितो राहुर्वदनं तद्विनिर्दिशेत् ।
मुखात्पञ्चदशे ऋक्षे तस्य पुच्छं व्यवस्थितम् ॥ १ ॥
बालः स्वल्पदिनोदितः । वृद्धोऽस्ताभिमुखः । अनेन ह्रस्वरूक्ष बिम्बो निर्दोप्तिकश्चेत्याद्यपि सङ्गृहीतं । अस्तगः रविरश्मिषु प्रवेशादस्तमितः । जितो यो ग्रहयुद्धे दक्षिणगामी शुक्रस्तूत्तरगामी सन् जितः स्यादिति वराहः । मुथुशिले इत्यादि शीघ्रो ग्रहो मन्दगतिग्रहस्यैकांशे यदा मिलितोऽद्यापि पश्चात्स्थो वा तदा 'मुथुशिल' इथिशालाऽपराख्यो योगः । यदा तु शीघ्रो ग्रहो मन्दगतिग्रहस्यैकांशे मिलित्वा तमंशमतिक्रम्याग्रतो याति तदा मूशरिफयोगो राज्यन्तं यावत् । यथा कल्पनया तृतीये त्रिंशांशे मन्दगतिगुरूरस्ति तत्रागतो ख्यादिः क्रूर ग्रहो यावत्तमंशमतिक्रम्य न याति तावन्मुधुशिलः, यदा तु चतुर्थांशे गतस्तदा
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आरम्भ-सिद्धिः
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मूशरिफस्तावद्यावाश्यन्ते यातीति, एतौ च योगौर शीघ्रो ग्रहो यदि कर आगत्य कुरुते तदा मन्दगतिग्रहो निर्बलः स्यादिति । प्रश्नप्रकाशे तु नवधैव निर्बलस्व मुक्तं, तथाहि"पापः शीघ्रः १ शुभो वक्री २ बालो ३ वृद्धाऽरिभा ५ स्तगः ६। नीचः ७ पापान्तरे ८ अष्टस्थ ९ इत्युक्तो बलवर्जितः ॥ १ ॥"
एवमन्यत्रापि यथासम्भवं दौर्बल्यं भाव्यं । अभिषेणयत इति सेनयाऽभिमुखं प्रस्तावारिणो विजयाय गच्छतः ॥ दिगीशः केन्द्रगः श्रेयान् दिग्बली भालगस्तु न। बलिनौ जन्मलग्नेशो केन्द्रोपचयगौ शुभौ ॥ ४८ ॥
___ व्याख्या-केन्द्रग इति "ग्रहाः स्युरेन्द्री" त्यादिनोत्तो यातव्यदिशः पतिर्ग्रहो बलवान् , यात्रालग्ने यत्र तत्रापि केन्द्रे स्थित: शुभः परं दिग्बलीति यातव्य दिगीशो ग्रहो लग्ने दिग्बली न श्रेयान् , ग्रहाणां दिग्बलत्वभव. नप्रकारस्तु लग्नाद्युत्क्रम केन्द्रेत्यादिना प्रागुक्त एव । तथा भालगस्त्विति यातन्य. दिगीशो ग्रहो लग्ने तद्दिकस्थत्वेन यातां मम्मुखीनो न शुभः। उक्तञ्च दैवज्ञवल्लमे__ " दिगीश्वरो ललाटस्थो यदि वा दिग्बलान्वितः ।।
वधबन्धप्रदो यातु: केन्द्रगस्तु जयार्थदः ॥ १ ॥" ललाटस्थभवनप्रकारश्चायं पूर्वरूचे ---
ईशान्य
१२.
अग्नि
गुरु
शुक्र
रवि
उत्तर बुध
यात्रालग्ने ललाटस्थग्रहचक्रस्थापना
मंगल दक्षिण
शनि
चंद्र
पश्चिम
वायव्य
नैर्ऋत्य
"लग्ने १ भानुर्व्यय १२ भव ११ गतः शुक्र आरो नमः १० स्थो, राहुर्धर्मा ९एम ८ गृहगतः सप्तमस्थोऽर्कपुत्रः । नोहारांशू रिपु ६ तनय ५ गो बन्धु ४ गः सोमपुत्रो, जीवत्रिद्विस्थित इति ललाटस्थिताः पूर्वतः स्युः ॥ १ ॥" स्थापना~यात्रालग्ने ललाटस्थग्रहचक्रम्- ललाटग्रहफलं चैवम्
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चतुर्थो विमर्शः
१६७
"शस्त्राग्निभयं १ व्याधि २ र्धनक्षयो३ बन्धनं ४ मृति ५ ाधिः ६। हारिः ७ सैन्यविमर्दो ८ भालगदिगधिपफलं क्रमशः ॥ १ ॥"
विशेषस्तु केतुरुहितः सन् यातव्यदिकसम्मुखनताग्रो यात्रायां शुभः । तथा उपचयकरस्य ग्रहस्य दिशं गच्छेत् न स्वपचयकरस्येति लल्लः । बलिनी जन्मलग्नेशाविति जन्मेशलग्नेशयोगण्डान्तस्थत्व १, गोचरादिप्रातिकूल्य २, गतिप्रमाणवर्णवैकृत्य ३, सूर्यतो दक्षिणचारित्व ४, प्रागुक्ताष्टादश विधदुर्बलत्वाना ५, मभावेन षड्विधवलसम्पन्नत्वविजितरिपुत्वादीनां भावेन च बलिष्ठत्वं भावनीयं । केन्द्रेति सामान्योक्तावपि सप्तमवज्जे एव केन्द्रे लग्नेशः शुभ इति ज्ञेयं । विशेषस्तु-"कुरावपि जन्मलग्नेशौ सौम्यवदेव व्यवहर्तव्यो" सर्वकार्येषु सबलस्वविधानेनेति लल्लः ॥ उक्ता केन्द्रादिषु ग्रहव्यवस्था । अथ यात्रायाः कुण्डलिकायां कैर्ग्रहैः कीदृशैर्यात्रायां गतस्य क उपायो जयदः स्यादित्याहसितेज्या विन्दु २ राज्ञितमोऽन्त्याः ३ सूर्यमङ्गलौ ४। सामादिसाधकाः केन्द्रोपचयेषु बलोत्कटाः ॥ १९॥
व्याख्या-राज्ञां साम, दाम २ भेद ३ दण्डा ४ श्चत्वार उपायाः । ततश्च यात्रालग्ने यदि शुक्रगुरू बलिनी केन्द्रोपचयस्थौ स्यातां तदा सामोपायेन जयः स्यात् सन्धिविधिनेत्यर्थः । अत्र यथा सन्धिः कृतो निश्शलः स्यात्तथोच्यते"भाग्ये मैत्रे शीतरश्मौ सपुष्ये, द्वादश्यां वा शुक्रदृष्टे च लग्ने । अष्टम्यां वा तैतिलाख्ये प्रदिष्टा, पूर्वाचार्यरत्र सन्धानसिद्धिः ॥१॥"
इति रत्नमालायां । एवं इन्दौ तथास्थे दानेनेत्यादि । अन्त्यः केतुः । विशेषस्तु-एषां लग्नेषु नवांशेषु वा वारहोरास्वपि च क्रमाद्यथोक्तैरुपायैः सर्व. कार्येषु सिद्धिः स्यात् ॥ अथ यादृशग्रहबलेन रिपुतः प्रथमं पश्चाद्वाऽभिषेणनं क्रियमाणं सफलं स्यात्तदाहपौरा ज्ञजीवमन्दाः स्युरपरे यायिनो ग्रहाः। सफला यायिभिर्यात्रा बलिभिः स्थितिरन्यथा ॥ ५० ॥
___ व्याख्या-पौरा इति स्थायिन इत्यर्थः । यायिनां सबलत्वे सति रिपुतः प्रथममभिषेणनं सफलं । अन्यथेति पौराणां तु सबलत्वे स्वस्थान स्थितिरेव सफला । कोऽर्थः ? तथा सति रिपुतः प्रथममात्मना यात्रा न कार्या । विशेषस्तुपौराणां यायिनां च मिश्राणां सबलत्वे द्वैधीभावं कुर्यात् । कोऽर्थः ? सैन्यार्धन स्थिति सैन्यार्धन यात्रां च कुर्यात् । तथा सौम्येषु बलिषु सन्धिः कार्यः, करेषु बलिषु विग्रहेण जयः, सर्वैरप्यबलैरन्यं सभाग्यं नृपमाश्रयेदिति योगयात्राग्रन्थे। इत्युक्तं सप्रपञ्च पञ्चविंशत्या श्लोकात्रालग्नकुण्डलिकास्वरूपं । इदं च सामान्येन राजादीनधिकृत्य ज्ञेयं, यतो राजानोऽपि वक्ष्यमाणयोगालामे केवललग्नबलेनापि यात्रां कुर्युः । यल्लल्लः
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आरम्भ-सिद्धिः
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“ ऐकान्तिकगन्तव्ये दैवेन निपीडिते च यातव्ये । केवलविलग्नयोगादपि याता सिद्धिमाप्नोति ॥ १॥"
अथ शुभतिथिनक्षत्रलग्नादिबलं विनापि यै ग्रहयोगै राज्ञां यात्रा सफला स्यात्तान् राज्ञामेव योग्यानन्यासाधारणान् यात्रोचितग्रहयोगानभिधित्सुराहचौराणां शकुनर्यात्रा नक्षत्रैश्च द्विजन्मनाम् । मुहतः सिद्धयेऽन्येषां राज्ञां योगैश्च ते त्वमी ।। ५१ ।।
व्याख्या-शकुनैरिति शान्तप्रदीप्तदिग्विभागानुरूपफलैर्मरुदेशीयवृद्धानामनुभवसिद्धैरागन्तुकशकुनैः, नक्षत्रैरिति नक्षत्राणां गुणैरित्यर्थः । मुहूत्तैरिति शिवभुजगमित्रेत्याद्युक्तेः शुद्धद्विधटिकैरियर्थः । अन्येषामिति वैश्यशूद्रकारुप्रभृ. तीनां । योगैश्चति, अयं भाव:-तिथिवारभलमादिशुद्विनिरपेक्षमपि राज्ञामेतैन. हयोगैर्यात्रा फलति । यदुक्तं दैवज्ञवल्लमे" तिथि १ क्षण २ भ ३ वाराणां ४ साध्यं योगेन सिध्यति ।
तस्मात्सर्वेषु कार्येषु ग्रहयोगान् सुचिन्तयेत् ॥ १ ॥" ___ नन्वस्त्वेवं, परं बलवति लग्नेऽपि ग्रहाणां सौम्य करता यत्नेन विचायंते, इह तु तद्विचारलेशोऽपि नेत्यत्र को हेतुः ? उच्यते-इह योगस्यैव बलं प्रधानं । तथाहि-यथौषधान्तरसंयोगाद्वत्सनागादिविषमपि रसायनीभूय जन्तुजीवातुः स्यात्, तथा कृरोऽपि ग्रहो योगाच्छुभदः स्यात् । यथा च घृतमधुनी सममेव उपविषं मृत्युदमिति चरकवचः, तथा शुभग्रहा अपि योगादशुभाः स्युः। तदेतैयाँगेर्मास १ तिथि २ वार ३ भ ४ योग ५ क्षण६ चन्द्र ७ तारा ८ लग्नानां ९ विरुद्धत्वेऽपि यात्रा सफला स्यादिति प्रत्येयं । उक्तश्च रत्तमालायां--- " तिथौ क्षणे मे करणे च' वारे, योगे विलये हिमगौ नृपाणाम् । पापेऽपि यात्रा सफलाऽत्र योगैः......" ॥ इति ।
एतच्चैकान्तिककार्यविषयं । स्वस्थे तु मासतिथिनक्षत्रादिबलं योगबलन विलेक्यं । यद्भास्कर:-" अवमाधिमासयोर्न प्रतिष्ठतेऽभीष्टसिद्ध्यर्थीति" । तथा-"पहि कुसलुलग्गि" इत्यादि ॥ योगानेवाह - अर्कार्किशशिनः सिद्ध्यै राज्ञा लग्ना१रि६ मध्य१० गाः(१) सितेज्यमन्दज्ञाराश्च लग्ना१स्तत्रि३सुखापरिक्ष्गाः(२)।५२॥
व्याख्या-अर्धद्वयेऽपि यथासंङ्ख्यं योजना ॥ , योगाङ्कोऽयं, एवं सर्वत्र. .
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चतुर्थी विमर्श:
शुक्रज्ञाकश्च लग्न ? स्व२ भ्रातृषु३ क्रमशः श्रिये (३) । लग्ना१रि६गौ च जीवार्कौ जयदौ व्यष्टमे विधौ (४) ॥ ५३ ॥ व्याख्या - क्रमश इत्युत्तरार्धेऽपि योज्यं । व्यष्टमे इति, यदीन्दुरष्टमगृहे न स्यात् ॥ मन्दारौ त्र्याश्य११ षट्सु ज्ञसितेज्याश्चोत्कटाः श्रिये (५) । केन्द्रे च बलिनौ ज्ञेज्याविन्दौ त्वापोक्लिमेऽबले (६) ||५४||
व्याख्या - उत्कटा इति यत्रतत्रस्था अपि बलिन इत्यर्थः । चन्द्रे आपोक्लिमस्थे निर्बले च सति ॥
श्रिये विधुः सुखेऽस्ते तु सिनज्ञौ (७) व्यत्ययेन वा (८) । याने त्रिकोणकेन्द्रस्थाः सौम्याः षट् आयगाः परे (९) ।। ५५ ।। व्याख्या-- सितज्ञौ सुखे, चन्द्रोऽस्ते इति व्यत्ययः । याने इति यात्रायां श्रिये स्युरिति योगः | परे क्रूराः ॥ जयाय मूर्ती ? मार्त्तण्डः सौम्यः स्वे२ सप्तमो विधु: (१०) । बृहस्पतिर्वा केन्द्रस्थः शेषेषु स्वा१य११ वर्तिषु (११) । ५६ ।।
व्याख्या – स्वं द्वितीयं । शेषेषु क्रूरसौम्येषु सर्वेषु । एवं योगा एकादश यातुः प्राग्दक्षिण योज्ञे सितान्तर्जयकरः सुखे चेन्दुः (१२) । गुरुरेकान्तर आर्के (१३)ज्ञवा शुक्राच्च (१४) भौमाद्वा (१५) । ५७ ।
व्याख्या–प्राच्यां दक्षिणस्यां वा चेद्यात्रा तदा ज्ञशुक्रयोर्मध्येऽन्तराले तिष्ठन्निन्दुः शुभः । परं यदि सुखे तुर्यस्थाने स्यात्तदैव शुभः, नान्यथा । प्रतीयुदीच्योस्तु यात्रायामयं योगो नापेक्ष्यः । तथा गुरुरेकान्तर इति शनितो गुरुरेकान्तरगृहे स्थित इत्येको योगः । ज्ञो वेति शुक्राबुध एकान्तरगृहे स्थित इति द्वितीयः । भोमाबुध एकान्तरगृहे स्थित इति तृतीयः । दैवज्ञवल्लभेऽप्युक्तम्
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भृगुजादथवा महीसुताद्बुध एकान्तरभे स्थितो यदा । रविजादथवा गुरुस्तदा, व्रजतो यान्त्यरयः क्षयं रणे ॥ १ ॥ तदेवमत्र श्लोके योगाश्चत्वारः ।
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गुरुर्जयाय लग्न १ स्थः क्रूरैर्लाभ ११ नभो १० गतैः (१६) । तथा चन्द्रेऽष्टमे षष्ठे शुक्रे लग्नगतो गुरुः (१७) ॥५८॥ व्याख्या - एते सर्वे प्रत्येकयोगाः सप्तदश ॥ भथ योगपिण्डमाह आ. सि. १५
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आरम्भ-सिद्धिः
सिद्ध्यै धी५ धर्म९ केन्द्रेषु बुधवाक्पति भार्गवैः । योगोऽधियोगो२ योगाधियोग ३ क१द्विक २त्रिकैः ३ ॥ ५९ ॥
व्याख्या- बुधगुरुशुक्राणामन्यतम एकश्चेत् धीधर्मकेन्द्राणामन्यतमस्थानस्थ: स्यात्तदा योगः १ । द्वौ चेत्तथा तदाऽधियोगः २ । त्रयोऽपि चेत्तथा तदा योगाधियोगः ३ । एषां फलान्येवं दैवज्ञवल्लभे
"योगेन यो याति नृपोऽरिदेशं, सुखेन सोऽभ्येत्य १, धियोगयाता । प्राप्नोति कीर्ति विजयं धनञ्च २, योगाधियोगेन महीमशेषाम् ३ ॥१॥"
अनाम्नाय :- यद्यपरो यात्रायोगो लभ्यते वा न लभ्यते वा परमुभयथाsपि यात्रा तदैव कार्या । यदि बुधगुरुशुक्राणामन्यतम एकोऽपि धीधर्मकेन्द्राणामन्यतमे स्थाने स्थितः स्यात् द्विप्रभृतीनां तु किमुच्यते ? इह च स्थूरवृत्त्या योगास्त्रयः, सूक्ष्मेक्षिकायां तु द्विचत्वारिंशदधिका त्रिशती ३४२ योगानामुत्पद्यते । कथमिति चेदुच्यते- एकक योगास्तावदष्टादश । कथं ? धीधर्म केन्द्रस्तावत् घट् स्थानानि सन्ति, तथाहि ५-९-१-४-७-१० । एषु षट्सु प्रत्येक बुध एवैकः स्थित इति लब्धा बुधेन षड्भङ्गाः । एवं गुरुशुक्राभ्यामपि प्रत्येकं षट् षट्, एवमष्टादश १८ ।
अथ द्विकयोगा अष्टोत्तरं शतं । कथं ? ज्ञगुरुशुक्राणां ग्रहाणां तावत्रीणि द्विकानि स्युः । तथाहि - ज्ञगुरू १ ज्ञशुक्रौ २ गुरुशुक्रौ ३ चेति । तत्र ज्ञगुरू समुदितौ प्रत्येकं षट्स्थानेषु स्थिताविति लब्धा एकेन द्विकेन षड्भङ्गाः । एवं शेषद्विकाभ्यामपि षट् षड् लभ्यन्ते, एवमष्टादश १८ । एते समस्तद्विकयोगाः ॥ अथ व्यस्तद्विकयोगाः, तथाहि -धियां बुधं धर्मे च गुरुं न्यस्य, गुरुः पुनः पुन रुत्थाप्य षष्ठं पदं यावच्चाल्यते, अनेनाक्षचारणिकाख्यकरणेन लब्धाः पञ्च भङ्गाः । पुन बुधं प्रथमे गुरुं च न्यस्य पुनः पुनर्गुरुरुत्थाप्य पुरः पुरो मण्ड्यते, एवं लब्धाश्चत्वारः ४ । एवमेव पुनस्त्रयः ३ । पुनद्वौ २ । पुनरेक १ श्वेति मीलने सर्वे पञ्चदश १५ । एते ज्ञगुर्वोः क्रमस्थापनया लब्धाः । यदा खेतौ विपर्ययेण स्थापयेते, कथं ? धियां गुरुर्धर्मे बुधः इति न्यस्य, बुधः पुनः पुनरुत्थाप्य पुरः पुरो मण्ड्यते, एवं लभ्यते पच । पुनर्धम्र्मे गुरुं प्रथमे बुधं च न्यस्य बुधस्य पुनः पुनरुत्थापनया लभ्यन्ते चत्वारः । तथैव पुनस्त्रयः, पुनद्द, पुनरेकश्चेति मीलने एतेऽपि पञ्चदश । उभयोः पञ्चदशकयोर्योजने त्रिंशत् ३० . | एते प्रथमद्विकेन क्रमोत्क्रमस्थापनाभ्यां लब्धाः । एवमेव द्वितीयद्विकेऽपि मोक्रमाभ्यां त्रिंशत् ३० । तृतीयद्विकेऽपि तथैव त्रिंशत् ३० । तिसृणां त्रिंशतां योगे नवतिः ९० । पाश्चात्याष्टादशयोजनेऽष्टोत्तरशतं द्विकयोगाः १०८ | अथ त्रियोगाः षोडशाधिका द्विशती २१६ । कथं ! त्रयाणां त्रिकयोगस्ताव देक
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चतुर्थी विमर्श
एव । ततो ज्ञगुरुशुक्राणां त्रिकं समुदितमेव षट्सु स्थानेषु तिष्ठतीति जातः षड्भङ्गाः । अथ धियां बुधं धम्र्मे गुरुशुक्रौ च न्यस्य समुदितावेव तौ पुनः पुनरुत्थाप्य पुरः पुरो मण्ड्येते, एवं लब्धाः पच । धर्मे ज्ञं प्रथमे गुरुशुक्रौ च न्यस्य प्राग्वत् तद्युग्मस्य पुन: पुनरुत्थापनया लभ्यन्ते चत्वारः, तथैव पुनत्रयः, पुनद्व, पुनरेकश्चेति मीलने सर्वे पञ्चदश १५ । एते ज्ञस्य धुरि स्थापने लब्धाः । यदा तु गुरुधुरि स्थाप्यते शेषौ चाग्रे तदाप्यनेनैव करणेन पञ्चदश लभ्यन्ते । यदा च शुक्रो धुरि स्थाप्यते शेषौ चाग्रे तदापि तथैव पञ्चदश । पञ्चदशकत्रयमीलने पञ्चचत्वारिंशत् ४५ । अथ धियां समुदितौ बुधगुरू, धर्मे शुक्रं च न्यस्य, शुक्रस्य पुनः पुनरुत्थाप्य पुरः पुरश्वालने लब्धाः पञ्च । ततो
समुदितौ बुधगुरू प्रथमे शुक्रं न्यस्य शुक्रस्य पुनः पुनरुत्थापनेन लभ्यन्ते चत्वारः, तथैव पुनस्त्रयः, पुनद्दों, पुनरेकश्चेति मीलने सर्वे, पञ्चदश । एते ज्ञगुरुयुग्मस्य धुरि स्थापने लब्धा: । यदा तु ज्ञशुक्रयुग्मं धुरि स्थापयते गुरु श्राग्रे तदाप्यनेनैव करणेन पञ्चदश लभ्यन्ते । यदा च गुरुशुक्रयुग्मं धुरि स्थाप्यते बुधश्चाग्रे तदापि तथैव । पञ्चदशकत्रयमीलने च पुनरपि पञ्चचत्वारिंशत् ४५ । पञ्चचत्वारिंशतोर्द्वयस्य मीलने नवतिः ९० । अथ धियां बुधं धर्मे गुरुं प्रथमे शुक्रं च न्यस्य, शुक्रः पुनः पुनरुत्थाप्यते तदा चत्वारो लभ्यन्ते, यदा च गुरुत्थाय प्रथमे मण्ड्यते शुक्रश्च चतुर्थे तदापि शुक्रस्य पुनः पुनरुस्थापने त्रयो लभ्यन्ते । एवं गुरोः पुरः पुरश्वारणेन शुक्रस्य पुनः पुनरुत्थापनया च पुन २ । पुनस्तथैवैकः १ । सर्वेऽप्येते दश १० । एते बुधे धुरि स्थिते लब्धाः । यदा च बुधोऽप्युत्थाप्य धर्मे मण्ड्यते, शेषौ चाग्रेतनस्थानयोस्तदाध्यक्षचारणिकया लभ्यन्ते षट् ६ । यदा बुधः पुनः पुनरुत्थाप्य प्रथमे मण्ड शेषौ चाग्रतनस्थानयोस्तदाऽप्यक्षचारणया त्रयो लभ्यन्ते । पुनर्बुधस्योत्थाप्य पुरश्वाने एकः । एतेऽपि सर्वे दश १० । दशकद्वययोगे विंशतिः २० । एते बुधगुरुशुक्र इति स्थापनाक्रमे सति लब्धाः । इह च स्थापनाक्रमाः षट् स्युः । कथं ? यथा-' 'पुव्वाणुपुविवहिट्ठा समयाभेएण कुरु जहाजिहं । उवरिमतुलं पुरओ निसिज्ज पुग्वक्कमो सेसो || 9 || जम्मि उ निखिखते खलु सो चेत्र हविज अंकविन्नासो । सो होइ समयभेओ वज्जेभन्वो पयत्तेण ॥ २ ॥
"
इति गाथोक्तकरणेनैककद्विकत्रिकाणां षोढा स्थापनाक्रमः स्यात्, तथाहि
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१२३-२१३-१३२-३१२-२३१-३२१
तथाsत्र ज्ञगुरुशुक्राणामेककद्विकत्रिकरूपत्वकल्पनया षोढा स्थापनाक्रमः स्थाप्यते, तथाहि
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आरम्भ-सिद्धिः
बु गु शु'| गु बु शु | बु शु गु | शु बु गु गु शु बु शु गु बु
ततः प्रथमे स्थापनाक्रमे यथा विशांतर्भङ्गा जातास्तथा द्वितीये स्थापना. क्रमेऽपि विंशतिः, एवं तृतीयेऽपि यावत् षष्ठेऽपि स्थापनाक्रमेऽपि विंशति विशतिर्भङ्गाः स्युः । ततो विंशतेः षभिर्गुणने जातं विंशं शतं १२० । तस्य पाश्चात्यानां नवतेः षण्णां च मीलने जाते द्वे शते षोडशाधिक २१६ । एते त्रिकयोगभङ्गाः । एतैः सह एककद्विकयोगानामष्टादशकाष्टोत्तरशतयोर्मीलने त्रिशती द्विचत्वारिंशदधिका ३४२ योगानामुत्पद्यते इति सिद्धम्-:
ग्रहदृष्टिनिरपेक्षान् योगानुक्त्वाऽथ दृष्टि प्लापेक्षं योगद्वयमाहशुक्रं च्या ३या११ म्बु गं पश्यन् जीवो यात्रासु केन्द्रगः। राज्ञां दत्त जयं क्रूरैः कलत्रादित्रयान्यगैः ॥ ६० ॥
व्याख्या---त्रयं सप्तमाष्टमनवमभावरूपम् ॥ बुधो वपुः१सुख ४द्वेषि ६ व्योम १० स्थो वीक्षितः शुभैः। जयाय राज्ञां पापेषु लमा १ स्त७ व्यय १२ वर्जिषु ॥६॥ __व्याख्या-एवं सर्वेऽप्येते यात्रायोगास्त्रीणि शतान्येकंषष्ठयधिकानि ३६१ ॥ अथ समर्थयति-- इति सप्तरूपकार्धेः सकलश्लोकत्रयेण चोक्तेषु । योगेषु राजयोगेष्वपि शुभदा भूभुजां यात्रा ॥६२॥
व्याख्या-रूपकशब्दोऽत्र वृत्तवाची, सप्तानां रूपकाणामधैरर्धेऽर्धे वाक्यसमाप्तेरवश्यंकृतत्वादेवमूचे । राजयोगेष्वपीति, बृहज्जातकोक्ता राजयोगा अपि यात्रायामुपयुज्यन्त इत्यर्थः, ते चामी सर्वकार्येषूपयोगिरवासव्याख्या उपदर्यन्ते, यथा
" वकार्कजागुरुभिः सकलैत्रिभिश्च,
स्वोच्चषु षोडश नृपाः कथितैकलग्ने । द्वयेकाश्रितेषु च तथैकतमे विलग्ने,
स्वक्षेत्रगे शशिनि षोडश भूमिपाः स्युः ॥ १ ॥" सकलैरिति एषु चतुर्वपि स्वोच्चस्थेषु । कथितैकलने, इत्येषां चतुर्णा ग्रहाणां मध्य देकैकस्मिन् लग्नगे चत्वारो राजयोगाः । विभिश्चेति तेषां मध्यात्रिषूच्चस्थेषु तेषामेव च त्रयाणां मध्यादेकैकस्मिन् लग्नगे द्वादश, एवं षोडश । तथा द्वयकाश्रितेविति, एतेषां चतुण, वक्रादिग्रहाणां
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चतुर्थों विमर्श
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मध्याद्वाभ्यामुच्चस्थाभ्यां तयोरेव चैकैकस्मिन् लग्नगे चन्द्रे कर्कस्थे द्वादश । एषां मध्यादेकस्मिनुच्चस्थे तस्मिन्नेव च लग्नगे कर्कस्थे चन्द्रे चत्वारः, एवमपि षोडश । सर्वे द्वात्रिंशत् । तथाहि-मेषेऽर्कः कर्के जीवस्तुले शनिर्मकरे भौमः शेषा यथेच्छं, ईदृश्यां गृह स्थिती मेष लग्ने एको योगः १, कर्के द्वितीयः २, तुले तृतीयः ३, मकरे चतुर्थः ४, एवं चत्वारः । अथ त्रिभिः मेषेऽर्क: कर्के जीवस्तुले शनिः शेषा यथेच्छं, एवं मेष लग्ने एकः १, कर्के द्वितीयः २, तुले तु तृतीयः ३ । सर्वे सप्त ७ । अथ मेषेऽर्क: कर्के जीव: मकरे भौमः शेषा यथेच्छं, एवं मेष लग्ने एकः १, कर्के द्वितीयः २, मकरे तृतीयः ३ । सर्वे दश १०॥ अथ मेषेऽर्कस्तुले शनिर्मकरे भौम: शेषा यथेच्छं, एवं मेष लग्ने एकः १, तुले द्वितीयः २, मकरे तृतीयः ३, एवं त्रयोदश १३ । अथ कर्के जीवस्तुले शनिर्मकरे भौमः शेषा यथेच्छं, एवं कर्के लग्ने एकः १, तुले द्वितीय: २, मकरे तृतीयः ३, एवं सर्वे षोडश १६ । एते पूर्वार्धोक्ताः । अथ द्वयाश्रितेषूच्यन्ते-कर्के चन्द्रः मेषेऽर्कः कर्के जीवः शेषा यथेच्छं । एवं मेषे लग्ने एकः १, कर्के द्वितीयः २ । अथ मेषेऽर्कः कर्के चन्द्रस्तुले शनिः एवं मेषलग्ने तृतीयः ३, तुले चतुर्थः ४। अथ मेषेऽर्कः कर्के चन्द्रो मकरे भौमः एवं मेष लग्ने पञ्चमः ५, मकरे षष्टः ६ । अथ कर्के चन्द्रजीवी तुले शनिः एवं कर्के लग्ने सप्तमः ७, तुलेऽष्टमः । अथ कर्कस्थौ जीवेन्दू मकरे भौमः । एवं कर्क लग्ने नवमः ९, मकरे दशमः १० । अथ कर्के चन्द्रस्तुले शनिर्मकरें भौमः एवं तुले लग्ने एकादशः ११, मकरे द्वादशः १२ । अथैकाश्रितेषु कर्के चन्द्रे मेषलग्नस्थेऽके एकः १, कर्के लग्ने चन्द्र जीवौ द्वितीयः २, कर्के चन्द्रे तुललग्ने शनी तृतीयः ३, कर्के चन्द्रे मकरलग्नस्थे भौमे चतुर्थः ४, एते पूर्वैः सह षोडश १६ । सर्वे द्वात्रिंशत् ३२ राजयोगाः । अथ पञ्चशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि ५२८ राजयोगानामाह__ " वर्गोत्तमगते लग्ने चन्द्रे वा चन्द्रवर्जितैः ।
चतुराधैर्ग्रहैदृष्टे नृपा द्वाविंशतिः स्मृताः ॥ २ ॥ "
लग्ने वर्गोत्तमगते राशिसमाननामकनवांशस्थे इत्यर्थः । अयं भावःयो राशिर्लग्नेऽस्ति तस्य यो नवांशो राशिसमनामाऽस्ति स वोत्तमाख्यः, स एव च नवांशो लग्नेऽधिकृतोऽस्ति तदा लग्नं वर्गोत्तमगतमुच्यते, एवं चन्द्रेऽपि वाच्यं, तस्मिन् 'चन्द्रवर्जितै रिति चन्द्रस्य नापेक्षा, तदन्यैर्ग्रह श्चतुर्भिः पञ्चभिः षद्भिर्वा दृष्टे प्रतिलग्नं द्वाविंशतिराजयोगाः, एवं चन्द्रेऽपि वोत्तमगते राशि राशिं प्रति द्वाविंशतिः। कथं ? लग्ने चतुर्भिदृष्टे पञ्चदश १५ भेदाः, पञ्चभिदृष्टे षट् ६, षभिरेकः १ । तथाहि-लग्ने रविभौमबुधगुरुभिदृष्ट एको योगः १,
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आरम्भ-सिद्धिः
रविभौम बुधशुक्रेर्द्वितीयः २, रविभौमबुधशनिभिस्तृतीयः ३, रविभौमजीवशुक्रश्वतुर्थः ४, रविभौमजीवशनिभिः पञ्चमः ५, रविभौमशुक्रशनिभिः षष्ठः ६, रविबुधजीवशुभैः सप्तमः ७, रविबुधजीवशनिभिरष्टमः ८, रविबुधशुक्रश निमिर्न - वमः ९, रविजीव शुक्रश निभिर्दशमः १०, भौमबुधजीवशुभैरेकादश: ११, भौमबुधजीवशनिभिर्द्वादशः १२, भौमबुधशुक्रशनिभिस्त्रयोदशः १३, भौमजीवशुक्रशनिभिश्चतुर्दशः १४, बुधजीव शुक्रशनिभिः पञ्चदशः १५ । अथ पञ्चानां दृष्टिरवि भौमबुधजीवशुरेकः १, रविभौमबुधजीवशनिभिर्द्वितीयः २, रविभौमबुधशुक्रशनिभिस्तृतीयः ३, रबिभौमजीव शुक्रशनिभिश्चतुर्थः ४, रविबुधजीव शुक्रशनिभिः पञ्चमः ५, भौमबुधजीव शुक्रशनिभिः षष्टः ६ । अथ षण्णां दृष्टि:- रविभौमबुधगुरुशुक्रशनिभिरित्येकः १ । सर्वेऽप्येते द्वाविंशतिः २२ । एते मेषलग्ने वर्गोत्तमगते सति स्युः, एवं द्वादशलग्नेष्वपि वर्गोत्तमगतेषु भावादृद्वाविंशतेर्द्वादशभिर्गुणने जाते द्वे शते चतुःषष्ट्यधिके २६४ । एवं चन्द्रस्याप्येकैकराशौ वर्गोत्तमनवांशस्थस्य द्वात्रिंशतेर्द्वाविंशतेर्भावाद्वे शते चतुःषष्ट्यधिके २६४ । मीलने पञ्च शतान्यष्टाविंशानि ५२८ | अथ पञ्च योगानाह-
" यमे कुम्भेऽर्केऽजे गवि शशिनि तैरेव, तनुगै युसिंहालिस्थैः शशिजगुरुवकैर्नृपतयः । यमेन्दू तुङ्गे सवितृशशिजौ षष्ठभवने, तुलाजेन्दुक्षेत्रेः ससितकुजजीवैश्च नरपौ ॥ ३ ॥ ५
"
कुम्भे शनिमेषेऽर्कः वृषे चन्द्रः, नृयुगिति मिथुनं तत्र बुधः सिंहे जीवः वृश्चिके भौमः ईदृश्यां ग्रहस्थितौ तैरेव तनुगैरित्युक्तेः कुम्भे लग्ने एको योगः १, मेषे द्वितीयः २, वृषे तृतीयः ३ । तथा यमेन्दू इति शनीन्दू स्वोदे लग्नस्थौ, ततश्च तुले शनिः, वृषे चन्द्रः षष्ठभवनं षष्ठराशिः कम्येत्यर्थः, तत्रार्कबुधौ, तुले शुक्रः, मेषे भौमः कर्के जीवः, एवं तुले लग्ने एको योगः १, वृषे द्वितीयः । सर्वेऽप्येते पञ्च । अथ त्रीनाह—
•
و
" कुजे तुङ्गेऽर्केन्द्रोर्धनुषि यमलग्ने च नृपतिः, पतिर्भूमेश्वान्यः क्षितिसुतविलग्ने सशशिनि । सचन्द्रे सौरेऽस्ते सुरपतिगुरौ चापधरगे, स्वतुङ्गस्थे भानावुदयमुपयाते क्षितिपतिः ॥ ४ ॥
"
मकरे भौमः धनुषि सूर्येन्दू यमलग्न इति यत्र तत्र राशौ शनिर्लग्नगः इत्येको योगः १ । पतिर्भूमेश्राम्य इत्यस्मिन्नेव योगे भौमे सेन्दी लग्नगेऽर्थादेवा धनुःस्थे द्वितीयो योगः २ । सचन्द्रे सौरेऽस्त इति मेषलग्नेऽर्कः धनुषि गुरुः तुले शनीन्दू एवं तृतीयः ३ । पुनर्द्वावाह-
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चतुर्थी विमर्श:
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वृषे सेन्दी लग्ने सवितृगुरुतीक्ष्णांशुतनयैः,
सुह ४ जाया ४ ख १० स्थैर्भवति नियमान्मानवपतिः । मृगे मन्दे लग्ने सहजरिपुधर्म्मव्यय गतैः, शशाङ्काद्यैः ख्यातः पृथुगुणयशाः पुंगणपतिः ॥ ५ ॥
""
वृषे लग्ने चन्द्रः सिंहेऽर्कः वृश्चिके जीवः कुम्भे शनिः इत्येको योगः १ | 'मृगे मन्दे' इति मकरे लग्ने शनिः मीने चन्द्रः मिथुने भौमः कन्यायां बुधः धनुषि जीवः शुक्राक यथेच्छं इति द्वितीयः २ । पुनस्त्रीनाह - " हये सेन्दौ जीवे मृगमुखगते भूमितनये, स्वस्थौ लग्ने भृगुजशशिजावत्र नृपती । सुतस्थौ वक्रार्की गुरुशशिसिताश्चापि हिबुके,
""
बुधे कन्या लग्ने भवति हि नृपोऽन्योऽपि गुणवान् ॥ ६ ॥ हये इति धन्यश्वपश्चार्धक इत्युक्तेर्धनुषि जीवेन्दू मकरे भौम एवं सति मी लग्ने शुक्रे एको योगः १, कन्यालग्ने सबुधे द्वितीय: २, सुतस्थाविति कन्या लग्ने बुधः मकरे भौमशनी धनुषि चन्द्रजीवशुक्रा इति पुनस्त्रीनाह -
तृतीयः ३ ।
" झपे सेन्दी लग्ने घटमृगमृगेन्द्रेषु सहितै
मार्केर्योऽभूत्स खलु मनुजः शास्ति वसुधाम् अजे सारे मूर्ती शशिगृहगते चामरगुरौ,
,"
सुरेज्ये वा लग्ने धरणिपतिरन्योऽपि गुणवान् ॥ ७ ॥
मीने लग्ने चन्द्रः कुम्भे शनिः मकरे भौमः सिंहेऽर्क: इत्येको योगः १ । अजे सारे इति मेषे लग्ने आरो भौमः कर्के जीव इति द्वितीयः २ । यद्वा कर्के लग्ने जीवः मेषे भौमः इति तृतीयः ३ ।
" कर्कणि लग्ने तत्स्थे जीवे चन्द्रसितज्ञैरायप्राप्तैः । hardse जातं विद्याद्विक्रमयुक्तं पृथिवीनाथम् ॥ ८ ॥ "
कर्के लग्ने जीवः वृषे चन्द्रशुक्रबुधाः मेषेऽर्कः एवं योगः १ । " मृगमुखेऽर्कतनये तनुसंस्थे, छगकुलीरहरयोऽधिपयुक्ताः । मिथुन तौलिसहितो बुधशुक्रौ, यदि ततः पृथुयशाः पृथिवीशः ॥९॥" मकरे लग्ने शनिः मेषे भौमः कर्के चन्द्रः सिंहेऽर्क: मिथुने बुधः तुले शुक्रः एवं योगः १ ।
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स्वोच्च संस्थे बुधे लग्ने भृगौ मेषूरणाश्रिते । सजीवेऽस्ते निशानाथे राजा मन्दारयोर्मृगे ॥ १० ॥ "
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आरम्भ-सिद्धिः
कन्यालग्ने बुधः, मिथुने शुक्रः, मीने जीवेन्दू, मकरे शनिभौमौ, एवं योगः १ । सर्वेऽप्येते राजयोगाः पञ्च शतान्ये कोनाशीत्यधिकानि ५७९ प्रथमभङ्गे एषां फलमाह
" अपि खलकुलजाता मानवा राज्यभाजः, किमुत नृपकुलोत्थाः प्रोक्तभूपालयोगैः । नृपतिकुलसमुत्थाः पार्थिवा,
वक्ष्यमाणैर्भवति नृपतितुल्य स्तेष्वभूपालपुत्रः ॥ ११ ॥ "
पूर्वोक्तराजयोगैः सामान्यकुलजा अपि नृपाः स्युः, नृपकुलजानां तु किं वाच्यं ? वक्ष्यमाणैस्तु नृपकुलजा नृपाः स्युः, अन्यकुलजास्तु नृपतुव्याः । ते चामी
" स्वोच्चक्षेत्रिकोणगैर्वलिष्ठैत्र्याद्यैर्भूपतिवंशजा नरेन्द्राः | पञ्चादिभिरन्यवंशजा, हीनैर्वित्तयुता न भूमिपालाः ॥ १२ ॥ " स्वोच्चस्वगृहस्वत्रिकोणगैस्त्रिभिश्चतुर्भिर्वा ग्रहैर्बलवत्तैर्नृपवंशजा नृपाः पञ्चभिः षड्भिः सप्तभिर्वाऽन्यवंशजा अपि । हीनैरिति ज्यादयश्चेत् स्वोच्चादिस्थिता अपि बलहीनास्तदा प्रस्तुता धनिनः स्युर्न तु नृपाः । अत्र त्रिचतुरादिभिः सप्तान्तैः पञ्च योगाः । तथा
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सिंहस्थेsasजेन्दौ लग्ने, भौमे स्वोच्चे कुम्भे मन्दे |
S
"
LC
स्वामी भूमेः ॥ १४ ॥
चापं प्रान्ते जीवे राज्ञः, पुत्रं विद्याद्भूमेर्नाथम् ॥ १३ ॥ अजेन्दाविति मेषे लग्ने चन्द्र इत्यर्थः । इति योगः १ । पुनद्ववाह - स्व शुक्रे पातालस्थे, धर्मस्थानं प्राप्ते चन्द्रे | दुश्चिक्याङ्गप्राप्तिप्राप्तैः शेषैर्जातः स्व शुक्रे इति यदा कुम्भो लग्नं तदा पातालस्थे स्वर्क्ष वृषे शुक्रः तुले चन्द्रः शेषा रविकुजबुध गुरुश नयस्तृतीयल ग्नैकादशस्था मेषकुम्भ- धनुःस्था इत्यर्थः इत्येको योगः १ । यदा तु कर्को लग्नं तदा पातालस्थे स्वर्क्षे तुले शुक्रः मीने चन्द्रः शेषाः कन्याकर्कवृषस्था इति द्वितीयः २ । अष्टौ ८ । तथा-
,
सर्वे योगा
" सौम्ये वीर्ययुते तनुसंस्थे, वीर्याढ्ये च शुभे सुकृतस्थे । धर्मार्थोपचयेष्वथ शेषैर्धर्मात्मा नृपजः पृथिवीशः ॥ १५ ॥ "
लग्ने बली बुधः, नवमे बली शुभग्रहः शुक्रो गुरुर्वा, शेषा नवमद्वितीयत्रिषड्दशैकादशस्थाः, एवं योगा नव । अथ द्वावाह
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चतुर्थी विमर्श
"वृषोदये मूर्त्तिधनारिलाभगः, शशाङ्कजीवार्कसुतापरैर्नृपः । सुखे गुरौ खे शशितीक्ष्णदीधिती, यमोदये लाभगतैर्नृपोऽपरैः ॥ १६ ॥" वृषे लग्ने चन्द्रः मिथुने जीवः तुले शनि: मीनेऽकंकुजबुधशुक्राः इत्येको योगः १ | सुखे गुराविति शनिर्लने तुयें जीवः दशमेऽर्केन्दु एकादशे भौमबुधशुका:, इति द्वितीयः २ । सर्वे योगा एकादश ११ । पुनर्द्वावाहमेपूरणा १० य ११ तनु १ गाः शशिमन्दजीवा, ज्ञारों धने सितरवी हिदुके नरेन्द्रम् |
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वक्रासितौ शशिसुरेज्यसितार्कसौम्या, होरा १ सुखा ४ स्त ७ शुभ ९ खा १० हि ११ गताः प्रजेशम् ॥ १७ ॥
""
दशमे चन्द्र एकादशे शनिः लग्ने जीवः द्वितीये बुधभौभौ तुर्ये शुक्रा इत्येको योगः १ | वासिताविति होरेति लग्नं शुभं धर्मभवनं आप्तिलभिः, ततोऽयमर्थः - भौमशनी लग्ने तुर्ये चन्द्रः सप्तमे जीवः नवमे शुक्रः दशमेऽर्कः एकादशे बुधः इति द्वितीय : २ । स ेऽप्येते द्वितीये भङ्गे राजयोगास्त्रयोदश १३ । अथ प्रासङ्गिकमाह
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गुरुसितबुधल सप्तमस्थेऽर्कपुत्रे, वियति दिवसनाथे भोगिनां जन्म विद्यात् । शुभबलयुतकेन्द्रः क्रूरभस्थैश्च पापैर्व्रजति शबरदस्युस्वामितामर्थभाक च ॥ १८ ॥
,,
""
गुरुशुक्रबुधानामन्यतभो लग्ने, यद्वा गुर्वादीनां लग्नेषु सत्सु धन्विमीनवृषतुला मिथुनकन्यालग्नेष्वित्यर्थः । सक्षमे शनि: दशमेऽर्कः एवं योगे जाता भोगिनः स्युः । शुभेति शुभग्रहाणां राशयः सबलाः केन्द्रेषु क्रूरग्रहाः क्रूरराशिस्थाः एवं योगे जात: पुलिन्दानां चौराणां च स्वामी स्यात् धनी च । ॥ इति बृहजातके राजयोगाध्यायः ॥ अन्येऽपि राजयोगाः सन्ति, तथाहि-
लग्ने शौरिस्तथा चन्द्रस्त्रिकोणे जीवभास्करौ ! कर्मस्थाने भवेद्वौमो राजयोगस्तदा भवेत् ॥ १ ॥ धने चन्द्रशनी मेषे जीवः खे राहुभार्गवी २ । अथवा दशमे जीवबुधशुक्रास्तथा शशी ३ ॥ २ ॥ अथवा दशमे शार्कौ भौमराह च पष्टौ । राजयोगेष्वेषु जाता राजानः स्युर्नरोत्तमाः ४ ॥ ३ ॥ आदौ जीवः सित: प्रान्ते यथा मध्ये निरन्तरम् । राजयोगं विजानीयाः कुटुम्वबलवर्धनम् ॥ ४ ॥
" विशिष्य च
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आरम्भ-सिद्धिः
५ ॥
सहजस्थो यदा जीवो मृत्युस्थाने यदा सितः ! निरन्तरं ग्रहा मध्ये राजा भवति निश्चितम् ॥ आदौ जीवः पञ्चमे वा दशमे चन्द्रमा भवेत् । राज्यवान स्यान्महाबुद्धिस्तपस्वी वा जितेन्द्रियः ॥ ६ ॥ स्वक्षेत्रस्था यदा जीवबुधसूर्यसुतास्तदा । जातकस्य सुदीर्घायुः सम्पदश्च पदे पदे ॥ ७ ॥ द्वितृतीये सुले धर्मे कर्मण्यपि यदा ग्रहाः । राजयोगं विजानीयात् जातस्तत्रोत्कटो भवेत् ॥ ८ ॥ धने व्यये यदा लग्ने सप्तमे भवने महाः । छत्रयोगस्तदा नीचकुलोऽपि नृपतिर्भवेत् ॥ ९ ॥ सिंहे जीवस्तथा शुक्रः कन्यायां मिथुने शनिः । स्वक्षेत्रे हिबुके भौमः स पुमान्नायको भवेत् ॥ १० ॥ कन्यायां शौरिचन्द्रौ च मृगे भौमो घटे तमः । सिंहे जीवो भवेजातो राजा शत्रुक्षयङ्करः ॥ ११ ॥ शुक्रा जीवो रविभौमो धने मकरकुम्भयोः । मीने च वत्सरे त्रिंशे जातः स्यात्सर्वकर्मकृत् ॥ १२ ॥ लग्ने सौरिस्तथा चन्द्रश्चाष्टमे भवने सित: । राजमान्यो महाकामी भोगपत्नीरतस्तथा ॥ १३ ॥ मिथुने च यदा राहु: सिंहस्थो भूमिनन्दनः । वृश्चिके च यदा जीवः स पुमान्नृपतिर्भवेत् ॥ १४ ॥ स्वगृहे च धने जीवः तुलायां च भवेत् सितः । शौरिर्मकरे मिथुने चन्द्रः स्याद्राजयोगकृत् ॥ १५ ॥ युग्मे शशी वृषे जीवः सिंहे शौरिर्मृगे कुजः । शुक्रस्तुलायां कन्यायां बुधार्कौ राज्ययोगदाः ॥ १६ ॥ धनेशुक्रश्च भौमश्च मीने जीवस्तुले बुधः । नीचश्चन्द्रो रवेर्युक्तो राजयोगोऽभिधीयते ॥ १७ ॥ मीने शुक्रो बुधश्वान्ते लग्ने सूर्यो धने शशी । सहजे च भवेौमो राजयोगं प्रचक्षते ॥ १८ ॥ भ्रातृस्थाने यदा जीवो लाभस्थाने शशी भवेत् । उच्छेषु वा शुभः केन्द्रे लग्ने वा जीव एककः ॥ १९ ॥ यद्वा-सिंहे जीवस्तुलाकीटधनुर्मकरकेषु च । ग्रहाः स्थाने तदा जातो देशभोगी भवेन्नरः ॥ २० ॥
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. चतुर्थी विमर्शः
-
विद्यास्थाने यदा सौम्याः कर्मस्थाने च चन्द्रमाः । धर्मस्थाने पुनः सौम्यास्तदा राज्यं विधीयते ॥ २१ ॥ युग्मे वृषे मेषमीने कुम्भे च मकरे ग्रहाः। यद्वा शगुरुशुक्रन्दुराहवः स्युश्चतुष्टये ॥ २२ ॥ यद्वा तुर्य सितारेन्दुगुर्वर्कशनयः स्थिताः । • योगेष्वेतेषु ये जातास्तेषां स्याद्राजयोगिता ॥ २३ ॥ जन्मचतुर्थ भवने भार्गवरविराहुचन्द्रभौमेषु । जातो बुधयुक्तेषु च पृथिवीपालो भवेत् पुरुषः ॥ २४ ॥ जन्मचतुर्थ भवने भार्गवगुरुचन्द्रभौमशनियुक्तः ।। जातं विदधाति रविः प्रथवीपालं न संदेहः ॥ २५ ॥ धने व्ययेऽष्टमे षष्ठे सौम्यक्ररा युता यदि । यत्नात्स पुरुषो रक्षईश्वर: कुलवधेनः ॥ २६ ॥ तृतीये वैकादशे वा त्रिकोणे वा भवेंद्यदि । सप्तमें वा भवेजीव: सुरूपो राजमानिनः ॥ २७ ॥ गुरुलेग्ने धने करो व्यये करो भवेत् पुनः ।। सप्तमे भवने करो धनसौभाग्यजातकम् ॥ २८ ॥"
ते ग्रन्थान्तरोता एकत्रिंशद्राजयोगाः । तथा" यदि सर्वग्रहदृष्टिलग्ने परिपतति दैवतवशेन । तद्भवति नृपतियोगः कल्याणपरम्पराहेतुः ॥ २९ ॥ अन्योऽन्यस्योच्चराशिस्थौ यदि स्यातां ग्रहौ तदा । राजयोगं जिनोः प्राहुर्दर्शने तु महाफलम् ॥ ३० ॥ " एतौ पूर्णभद्रज्योतिषे । तथा" रविवर्ज द्वादशगैरनुफाश्चन्द्राद्वितीयगैः सुतुफाः । उभयस्थितैर्दुरधरा केमद्रुममन्यथैतेभ्यः ॥ ३१ ॥"
अन रविवर्जमिति रविवर्जा भौमादिग्रहा इत्यर्थः । ततोऽयं भाव:जन्मपत्रिकायां चन्द्राद्वादशे स्थाने भौमादिश्चेत्कश्चिद्ग्रहः स्यात्तदाऽनुफायोगः । चन्द्राद्वितीये स्थाने चेद्भौमादिः कश्चिद्ग्रहस्तदा सुतुफायोगः । उभयं चन्द्राद्वितीयद्वादशरूपं तयोयोरपि चेद्भौमादिः कश्चिद्ग्रहस्तदा दरधरायोगः । अन्यथेति यदि चन्द्राद्वादशद्वितीयस्थानयोभौंमादीनां मध्ये कश्चिद्ग्रहो नास्ति तदा केमद्रुमयोगः । " सूर्याद्वययगर्वोशि द्वितीयगैश्चन्द्रवर्जितैर्वेशि । उभयस्थैरुभयचरी राजयोगाः षडप्यमी ॥ ३२ ॥"
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१८०
आरम्भ-सिद्धिः
वोशियोगेऽपि चन्द्रवर्जितैरिति योज्यं, चन्द्रवर्जितै भौमादिग्रहैरिति चार्थः षडपीति पूर्वश्लोकस्थैस्त्रिभिः सहैते त्रय इति षट् । यद्यपि च सूक्ष्मेक्षिकयात्रापि योगभङ्गा बहवोऽप्युत्पद्यन्ते तथापि स्थूरवृत्तिरेवात्र विवक्षिता, वैचित्र्यार्थ ग्रन्थकृताऽपि षडप्यमी इत्येव सङ्ख्योक्तेश्व, सप्तमः केमद्रुमस्त्वधमः, चन्द्रे सर्वप्रदृष्टे तु स एव भग्नकेमद्रुमाख्यो राजयोग: स्यात् । एते सप्तापि राजयोगा जातको क्ताः । लल्लुस्वाह - " केन्द्रे शीतकरेऽपि वा ग्रहयुते केमद्रुमो नेष्यते" । एवमेते विकीर्णराजयोगाश्वत्वारिंशत् ४० । सर्वमीलने यात्रायोगा नव शतानि शीत्यधिकानि ९८६ ॥
अथ चित्तशद्धिः सर्वनिमित्तेभ्यो बलिनीत्याहसकलेष्वपि कार्येषु यात्रायां च विशेषतः ! निमित्तान्यप्यतिक्रम्य चित्तोत्साहः प्रगल्भते ॥ ६३ ॥
व्याख्या - निमित्तानीति, यद्यपि निमित्तं किल दैहिकं वामदक्षिणा. स्फुरणादि । उक्तं हि दैवज्ञवल्लभे
" स्यन्दनं दक्षिणे पार्श्वे विपृष्ठहृदये हितम् ।
वामपार्श्वे तु नारीणां मनसश्चानुकूलता ॥ १ ॥
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अङ्गस्पर्शादि विङ्गितं. दुर्गादिश्च शकुनः, लग्नादि तु ज्योतिषं, तथायत्राभेदकल्पनया सर्वेषां निमित्तत्वमेवोचे । चित्तोत्साह इ अङ्गिरा मनोत्साहं " इत्युक्तेः प्रागविसंवादितयाऽनुभूतं प्रातिभज्ञानं लग्नादिभ्योऽपि बलवदित्यर्थः ॥ यात्रायां दिग्विभागविधिमाह
-
ऐन्द्यादि ४ दिक्षु मातङ्ग १ रथा २ व ३ नरवाहनैः ४ । व्रजेत्क्रमेण भूपालो दिक्पालोल्ला सिमानसः ॥ ६४ ॥
व्यख्या - नरवाहनं शिबिकादि । दिक्पालेति यातव्यदिशः पतिमिन्द्रा १ मि २ यम ३ नैर्ऋत ४ वरुण ५ वायु ६ कुबेरे ७ शान ८ रूपं । तथा ग्रहाः स्युरेन्द्रे " त्यादिकाव्योक्तं सूर्यादिग्रहं च महर्ष ध्यायन्
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सनित्यर्थः । उक्तञ्च रत्नमालायाम्
" ध्यायन्नाशाधीश्वरं हृष्टचेताः क्षोणीपालो निर्विलम्बं प्रयायात्
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|| इति गमद्वारम् ॥ ८
.
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चतुर्थो विमर्श
१८१
॥ अथ वास्तुद्वारम् ॥ अथ वास्तुद्वारमाहवास्तु नव्यं विभूत्यायुः कीर्तिकामो निवेशयेत्, ज्ञात्वाऽऽय पक्ष २च्ययां ३ शाँस्तु चन्द्र ५ ताराबले६अपि !
व्याख्या--वास्तु ग्रहहदृप्रासादादि । विभूतीत्यादि, अनेनेदमसूचि"कार्यसिद्धिसुखायूंषि निमित्तशकुनादिभिः । ज्ञात्वा प्रष्टुगहारम्भे कीर्तयेत् समयं सुधीः ॥ १ ॥"
अत्रादिशब्दादङ्गस्पर्शादि गृह्यते । ननु कथमङ्गस्पर्शनेन निर्णयः ? उच्यते"शीर्ष १ मुखरबाहु ३ हृदयो ४ दराणि ५ कटिबस्तिगुह्य ८ संज्ञानि । ऊरू९जानू १० ज ११चरणा १२ विति राशयोऽजाद्याः ॥ १ ॥"
इति लघुजातके । अनाजाद्या इत्युक्तं तथापि यत्तात्कालिकं लग्नं तदेव शिरः, ततोऽन्याङ्गानि । ततश्व
" कालपुंसो यदङ्गं तत्स्प्र (त्प) टा स्पृशति चेच्छुभैः ।
- युक्तं विलोकितं वापि सननिर्माणमादिशेत ॥१॥" इति दैवज्ञवल्लमे ॥ भायादीन्येवाहखरः ६ | गजः ७ काकः ध्वजो१ धूमोर हरिः३ श्वा ४ गौः | उत्तर । ईशान
१५ खरो ६ हस्ती७द्विकः ८क्रमात् । वृषः ५ आयबल
ध्वजः : पूर्वादि ८ बलिनोऽष्टाया पूर्व
विषमास्तेषु शोभनाः ॥ ६६ ।।
__व्याख्या--ध्वजधूमाद्याह्वा अष्टते आयाः नैऋत्य दक्षिण अग्नि | मात्पूर्वाग्नेय्याद्यष्टदिक्षु बलिनः, सर्वदाप्येत. आ. सि. १६.
दिग्निवासिल्वात् । उक्तञ्च" ईशानान्ते च दिग्भागे पूर्वादिक्रमतः स्थिताः ।
अन्योन्याभिमुखा होते विज्ञेया वास्तुकर्मणि ॥ २ ॥"
विषमा इति सर्वेष्वपि गृहेषु प्रायो विषमा एव श्रेष्ठा:. न तु समाः, विरुद्धसंज्ञाफलदत्वात्, मान्वयनामानो ह्येते । एषां स्थापनध्य वस्था चेयम्
" वृषं सिंहं गजं चैव खेटकटकोट्टयोः । द्विपः पुनः प्रयोक्तव्यो वापीकूपसरस्सु च ॥ १ ॥ मृगेन्द्रमासने दद्याच्छयनेषु गजं पुनः । वृषं भोजनपात्रेषु च्छत्रादिषु पुनर्वजम् ॥ २ ॥
वाय
-
। पश्चिम
-
-
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१८२
आरम्भ-सिद्धिः
अग्निवस्मसु सर्वेषु गृहे वन्युपजीविनाम् । धूमं नियोजयेत् किञ्चिछ्वानं म्लेच्छादिजातिषु ॥ ३ ॥ खरो वेश्यागृहे शस्तो ध्वाङ्क्षः शेषकुटीषु च । .. वृषः सिंहो गजश्चापि प्रासादपुरवेश्मसु ॥ ४ ॥"
. इत्यादि विवेकविलासे ॥ आयेषु विनिमयं नियमयति-- ध्वजः पदे तु सिंहस्य तौ गजस्य वृषस्य ते । एवं निवेशमर्हन्ति स्वतोन्यत्र वृषस्तु न ६७ ।।
व्याख्या-यत्र सिंहायः प्राप्तस्तत्र सोऽपि च दीयते, न दोषः, एकमग्रेऽपि । तौ गजस्येति गजाये प्राप्ते सोऽपि ध्वजसिंहावपि च देयौ । वृषस्य ते इति वृषाये प्राप्ते सोऽपि ध्वजगजसिंहाश्चापि देयाः | वृषस्तु नेति वृषाये एव प्राप्ते वृषायो देयोऽन्येष्वायेषु प्राप्तेषु तु वृषायो न देय इत्यर्थः ।। आयाधानयने करणमाह
आयो देान्ययो_तः फलमष्टहृतेऽधिकः। फलमष्टगुणं भा २७प्ते भं तत्राष्टहृते व्ययः॥१८॥
____ व्याख्या-दैान्ययोर्घातः फलं स्यात् । स एवाष्टहृताधिक आय: स्थादित्यन्वयः । भावश्चायं-दैर्ध्यादन्यो विस्तारः, घातो मिथस्ताडनं सगुणनमिति यावत् । ततश्चेष्टवास्तुनो देध्ये विस्तरेण गुणिते योऽङ्कः स्यात् स फलाख्य:, क्षेत्रफलमित्यपि तस्य नाम । अष्टेति स एल फलाङ्कोऽष्टभिर्भज्यते यच्छे षमधिकं तिष्ठति स इष्टवास्तुन आयः, एकशेषे ध्वजः, द्विशेषे धूम इत्यादि, शून्यशेषे तु ध्वाङ्काय इति । अयमनाम्नाय:-षड्भिर्यवैस्तावदङ्गुलं, चतुर्विंशत्यमुलैर्हस्तः, चतुभिहस्तैदेण्ड: इति, ततो यत्र दण्हैहस्तैर्वा मितं क्षेत्रं तत्र सर्वत्रामुलानि दत्वा हित्वा वाऽभीष्टायः प्रसाध्यः, यदि ह्यङगुलानि न दीयन्ते त्यज्यन्ते वा, किं तु निरुद्धा दण्डा हस्खा एव वा स्थाप्यन्ते तदा तेषां दण्डानां हस्तानां वाऽगुलरूपीकरणादन्वष्टभिर्भागे शून्यस्यैव शेषीभवनेन ध्वाभाय एव समेति, स चोत्तमानां गृहेष्वयुक्तः । अथ वासना-अगुलरूपयोर्दैर्ध्य विस्तारयोर्धाते क्षेत्रफलं स्यादिति, कोऽर्थः ? तस्मिन् क्षेत्रे सर्वसङ्ख्यया तावन्त्येवामुलानि स्युः आयाश्चाष्टैव, ततोऽष्टभक्ते क्षेत्रफले शेषाङ्कसमो ध्वजाद्यायः स्यात्, स च विषभ एवं श्रेष्ठो न तु समः । ततश्व हस्तानामुपर्यगुलानि दत्वा हित्वा वा तथा कथञ्चिद्दर्य पृथुःवे कल्पयेत् यथाऽष्ट भक्त क्षेत्रफले विषमाङ्क एवावशिष्यते । उक्तञ्च दैवज्ञवल्लभे"न हस्तमानेन गुणान्वितं स्याद्यदा तदा तद्गणितोक्तयुक्त्या । प्रदाय हित्वा यदि वागुलानि, प्रसाधयेत्क्षेत्रफलं शुभायम् ॥ १॥"
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चतुर्थो विमर्शः
अत्र शुभाय मित्युपलक्षणं तेन नक्षत्राद्यपि यथा तस्मिन् गृहेऽनुकूलमुत्पद्यते तथा क्षेत्रफलं साध्यं । नक्षत्रानुकूल्य प्रकारश्चाग्रे वक्ष्यते - " प्रारब्धं सम्मुखे चन्द्रे इत्यादिना । विशेषस्तु -
१८३
33
"गृहेषु कर्मिकहस्तेन मानं स्वामिकरेण वा ।
,"
देवतानां तु धिष्ण्येषु कर्मिहस्तेन केवलम् ॥ १ ॥
अन कर्मिहस्तः काम्बिक ( कार्मिक ) हस्त इत्यर्थः । तथा देवगृहे भित्तिबाहुल्य क्षेत्रफलमध्ये गण्यते, अन्यत्र तु भित्तयः क्षेत्रफलात् पृथग्गण्याः ।
उक्तञ्च
"
क्षेत्रफलान्तभित्तीर्देवगृहेऽपि प्रकारयेद्विद्वान् ।
33
आक्रम्य बाह्यभूमिं क्षेत्राद्भित्तोर्नृणां गेहे ॥ १ ॥
इति व्यवहारप्रकाशे । इत्युक्ता आया: । अथ जन्मभं, तत्र सामान्येन वास्तुनस्तावज्जन्मभं कृत्तिका । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे
"'
भाद्रपदतृतीयायां शनिदिवसे कृत्तिकाप्रथमपादे | व्यतिपाते रात्र्यादौ विष्टयां वास्तोः समुत्पत्तिः ॥ १ ॥
""
इष्टवास्तुनस्तु जन्मभानयनमेवं-फलमष्टगुणमिति अधिकशब्दोऽग्रे सर्वत्र सम्बध्यते, फलाङ्कोऽष्टगुणो भाप्ते इति भैः सप्तविंशत्या भागे यदधिकं शेषं तिष्ठेत्तदिष्टवास्तुनो जन्मभं । अस्मादेव भात् गृहाणां स्वामिना सह षडष्टमकादि चिन्त्यते । तत्राष्टेति तस्मिन् भाङ्केऽष्टभिर्भक्ते शेषाङ्केन व्ययः स्यात्, अष्टभिर्भागा प्राप्तौ तु भाङ्क एव व्ययाङ्कः, व्ययश्व देवा पैशाच १ यक्ष २ राक्षस ३
भेदात् । यत्सारंगः -
66
पैशाचस्तु समायः स्याद्राक्षसचाधिके व्यये । आयातूनतरो यक्षो व्ययः श्रेष्टोऽष्टधा त्वयम् ॥ १ ॥ शान्तः १ क्रूरः २ प्रद्योतश्च ३ श्रेयान४थ मनोरमः ५ । श्रीवत्सो ६ विभवश्चैव ७ चिन्तात्मको ८ व्ययोऽष्टमः ॥ २ ॥ अत्रैकशेषे शान्तौ व्ययः, द्विशेषे क्रूरः यावत् शून्यशेषे चिन्तात्मक इति भावना || अंज्ञानयनमाह---
फले व्ययेन वेश्माख्याक्षरैश्वाढ्ये विभाजिते ।
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अंशाः शक्रा १ न्तक २ क्ष्मापा ३ स्तेषु स्यादधमो यमः ॥ ६९ ॥ व्याख्या - क्षेत्रफलाङ्के व्ययाङ्के तद्गृहनामाक्षरसङ्ख्यां च क्षिप्त्वा त्रिभिर्भागे यच्छेषं सोऽंशः । तथाहि – एकशेषे इन्द्रांश: द्विशेषे ममांशः शून्यशेषे राजांशः ॥ वेश्माख्येत्युक्तं ततस्ताः प्राह
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१८४
आरम्भ-सिद्धिः
ध्रुवं १ धन्यं २ जयं ३ नन्दं ४ खरं ५ कान्तं ६ मनोरमम् ७ । सुमुखं ८ दुर्मुखं ९ क्रूरं १० सुपक्षं ११ धनदं १२ क्षयम् १३ आक्रन्दं १४ विपुलं १५ चैव विजयं १६ चेति षोडश । सम्प्रत्यमीषां पस्त्यानां प्रस्तारः प्रतिपाद्यते ॥ ७१ ॥ युग्मम् ॥
व्याख्या - एताः किल ध्रुवादिसंज्ञाः सान्वर्थाः तेन खर १ दुर्मुख २ क्रूर ३ क्षया ४ क्रन्दा ५ ख्यानि गृहाणि अशुभानि । तदुक्तं वास्तुशास्त्रे - “थैर्ये १ धनं २ जयः ३ पुत्रो ४ दारिद्र्य ५ सर्वसम्पदः ६ । मनोहोदः ७ श्रियो ८ युद्धं ९ वैषम्यं १० बान्धवा ११ धनम् १२ ॥१॥ क्षयश्च १३ मृत्यु १४ रारोग्यं १५ सर्वसम्पदि १६ ति क्रमात् । ध्रुवादीनां फलं ज्ञेयं " इति ।
केचित्सुपक्षस्थाने विपक्षनामाहुः । पस्त्यानि गृहाणि ॥ प्रस्तारप्रकारमाहगुरोरधो लघु न्यस्येत् पृष्ठे त्वस्य पुनर्गुरून् । अग्रतस्तूर्ध्ववद्देयाद्यावत्सर्वलघुर्भवेत् ॥ ७२ ॥
व्याख्या - आपक्तौ चत्वारो गुरवः स्थाप्याः, शेषप इङ्क्तिष्वाद्यगुर्वघो दुः, अग्रे तूर्ध्वसमं । यत्र तु पृष्ठे रिक्तं स्थानं तिष्ठति तेषु स्थानेषु गुरवो देयाः, एवं तावद्यावत्सर्वलघुरन्त्यो भङ्गः स्यात् । चतुरक्षरवृत्तजाताविवात्र षोडश
भङ्गाः । स्थापना यथा
प्रस्तार स्थापना
ง SS S S ५ऽऽ । ऽ
२ । SS S
६ । ऽ । ऽ
३ sss
8 || S S
SIIS
८।।।s
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चतुर्थी विमर्श
१८५
व्याख्या - गृहद्वारादिति यस्यां दिशि गृहद्वारं सा पूर्वा, ततः प्रदक्षिणं दक्षिणाद्या दिशः । उक्तञ्च विवेकविलासेंपूर्वादिदिग्विनिर्देश्या गृहद्वारव्यपेक्षया । भाकरोदय दिक पूर्वा न विज्ञेया यथा श्रुते ॥ १॥ " दैवज्ञवल्लभेऽप्युक्तंगृहस्य मुखतः प्राचीं प्रकल्प्य तत्प्रदक्षिणम् । पर्यटद्भिरलिन्दैः स्युः प्रस्तारादेश्मनां भिदा ॥ १ ॥
"
66
86
ततोऽत्राद्यमङ्गे चतुर्भिर्गुरुभिगृहस्य पूर्वाद्याश्चतस्रोऽपि दिशोऽनावृता ज्ञेयाः । दिक्ष्व लिन्दैर्लघूदितैरिति लघुभिरुदिताः कथिता ज्ञापिता इति यावत् तैः 1 तोऽयमर्थः - यत्र लघुस्तस्यामेव दिशि अलिन्दः प्रतिश|लागोजार्यादिः, ततश्व यत्रैकोऽपि न लघुस्तदेकापवरकमात्रं गृहं ध्रुवाख्यं यत्र । तु प्राच्यामलिन्दुस्तवन्यं, यत्र तु दक्षिणस्यां तज्जयमित्यादि । एवं यत्र यत्र लघुस्तस्यां तस्यां दिशि लघुसंस्थानवशादेको द्वौ त्रयो वाऽलिन्दाः । षोडशे तु चत्वारोऽलिन्दा: । आद्यगृहे तु लध्वभावान्नास्त्यहिन्दः । सर्वेषां सुव्यक्ताकारस्थापना यथा
SSSS
ध्रुव १
SSIS
खर ५
SSSI
दुर्मुख ९
क्षय १३
ISSS
धान्य २
11
ISIS
कान्त ६
ISSI
क्रूर १०
आक्रन्द्र १४
SISS
जय ३
SIIS
मनोरम ७
सुपक्ष-विपक्ष ११
SIII
1 [
विपुल १५
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1159
नन्द ४
1115
सुमुख ८
धनद १२
विजय १६
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आरम्भ-सिद्धिः
ss fro द्विव्याद्यपवरकाणां गृहाणामनेके प्रकाराः स्युः । एकापवरकाणामपि चतुरुत्तरं शतं प्रकाराः सम्भवेयुः । इह तु दिङ्मात्रार्थं षोडशभङ्ग्यूच्ये । उक्तञ्च रत्नमालाभाष्ये
१८६
-mm
" वेश्मनामे कशालानां शतं स्याच्चतुरुत्तरम् । द्विपञ्चाशद्विशालानां त्रिशालानां द्विसप्ततिः ॥ १ ॥” वास्तुनि चन्द्रबलमाहप्रारब्धं सम्मुखे चन्द्रे न वस्तुं वास्तु कल्प्यते । पृष्ठस्थे खात (त्र) पाताय द्वयोस्तेन त्यजेद् गृही ॥ ७४ ॥
व्याख्या - परिधचक्रवत् कृत्तिकादीनि सप्त सप्त भानि चतुर्दिक्षु न्यस्य यद्धं गृहस्योत्पद्यमानमस्ति तद्विचार्यते, यदि तद्धं गृहस्य द्वारदिशि समेति तदा तस्य गृहस्य सम्मुखश्चन्द्रः स्यात् स चाशुभः, यतोऽग्रतःस्थे चन्द्रे कर्तुस्तत्र न निवासः । यदि तु पाश्चात्यभित्तिदिशि समेति तदेन्दुः पृष्ठस्थ: स्यात् सोऽप्यशुभः । यतः पृष्ठस्थेन्दौ चौरकृतानि खात्राणि बहुशः पतन्ति । यदि तूभयपार्श्वभित्तिदिशोः समेति तदा भव्यं । प्रासादेषु तु सम्मुखेन्दुः शुभाय | उक्तञ्च वास्तुशास्त्रे - " प्रासादनृपसौध श्रीगृहेषु पुरतः शशी " । अत एवात्र गृहीत्युक्तं । इति चन्द्रबलं ।
प्रीतिषडष्टमकादिकं राशिबलमपि तत्वतश्चन्द्रबलमेव । ताराबलं पृथग् त्विह नोक्तं, परं नक्षत्रकथने तदपि सुज्ञातत्वात्सूचितं ज्ञेयं । तथाहिगुरुशिष्यादिवदत्रापि त्रिपञ्चसप्तमी तारा त्याज्या, केवलं तत्र मिथो गण्यते, इह तु गृहेशभाद्गृहभं यावद् गण्यं, गृहेशस्यैव प्रीतेरिष्टत्वात् । आह च सारङ्ग:"गणयेत् स्वामिनक्षत्राद्यावद्धिष्ण्यं गृहस्य च ।
नवभिस्तु हरेद्भागं शेषं तारा प्रकीर्तिता ॥ १ ॥ शान्ता १ मनोरमा २ क्रूरा ३ विजया ४ कलहोवा ५ । पद्मिनी ६ राक्षसी ७ वीरा ८ ऽऽनन्दा ९ चेति तारकाः ॥ २ ॥”
?
अथायाद्या उदाह्रियन्ते - यथा कस्यचिद् गृहस्थ दैर्ध्य सप्त हस्ता नवाङगुलानि च, हस्त ७ अङगुल ९ । विस्तारश्च पञ्च हस्ताः सप्ताङ्गुलानि हस्त ५ अं ७ । द्वावपि हस्ताङ्कौ चतुर्विंशत्या सगुण्याङ्गुलानि मध्ये योज्यन्ते । जातो दैर्ष्याङ्कः सप्तसप्तत्यधिकं शतमङ्गुलानि १७७ । विस्ताराकस्तु सप्तविंशं शतं १२७ । द्वयोरप्यङकयोर्मियो घाते जातं द्वाविंशतिसहस्राः चतुःशत्येको नाशीतिश्च २२४७९, इदं क्षेत्रफलं अस्याष्टभिर्भागे शेषं सप्त ७ । सप्तमो गजायस्तस्य गृहत्यागतं ( 1 ) । अथ भं- क्षेत्रफल २२४७९ मष्टभिर्गुणित जातं लक्षमेकोनाशीतिसहस्रा अष्टशती द्वात्रिंशच १७९८३२ । अस्य सप्तविंशत्या २७ भागे शेषं द्वादश १२ अश्विनीतो द्वादशभमुत्तर फल्गुनी तस्य गृहस्येत्यागतं । तच गृहं
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चतुर्थो विमर्शः
१८७
-
कल्पनया पूर्वाभिमुखं, तेनोत्तर फल्गुनी में दक्षिणभित्तौ समागतत्वाद्भव्यं (२)। अथ व्ययः-भाङ्को द्वादश, तस्याष्टभिर्भागे शेषा श्रत्वारः ४, चतुर्थः श्रेयान व्ययः (३)। अथांश:-तस्य गृहस्य कल्पनयाध्रुवसज्ञा, तद्वर्णाङ्को द्वौ, व्ययाङ्कश्च चत्वारः, माभ्यां योजितं क्षेत्रफल जातं २२४८५ । अस्य त्रिभिर्भागे शून्यशेषस्वाद्राजांशस्तद्गृहस्य (४) । चन्द्रबलं नक्षत्रोक्त्यवसरे उक्तं (५) । राशिवल स्वग्रे वक्ष्यते । ताराबलं वेवम्-गृहेशस्य जन्मभं कल्पनया धनिष्ठा, ततो गणने उत्तरफल्गुन्यष्टमी तारा (६) ।
__भ वास्तुप्रारम्भे मासानाहवैशाखे श्रावणे मार्गे पौषे फाल्गुन एव च । कुवात वास्तुप्रारम्भं न तु शेषेषु सप्तसु ॥ ७५ ॥ व्याख्या--- वास्तुप्रारम्भ मिति सूत्रपातखातादिकर्मकरणेनेत्यर्थः । न स्विति, यदुक्तं"शोकं १ धान्यं २ मृत्युदं ३ पञ्चतां च ४, स्वाप्तिं ५ नैःस्व्यं ६ सङ्गरं ७ वित्तनाशम् ८ । स्वं ९ श्रीप्राप्ति १० वह्निभीति ११ च लक्ष्मी १२, कुर्युश्चैत्राद्या गृहारम्भकाले ॥ १ ॥" इति दैवज्ञवल्लभे ।
नवरमेते शुक्लप्रतिपदाद्याश्चान्द्रमासा एवं प्रायाः ॥ अथ सङ्क्रान्तिचिह्नितान् सौरमासानाहधामारभेन्नोत्तरदक्षिणास्यं, तुलालिमेषर्षभभाजि भानौ। प्राक्पश्चिमास्यं मृगकुम्भकर्कसिंहस्थिते द्वयङ्गगते न किञ्चित्
____ व्याख्या-तुलालीत्याद्युक्तेऽपि पूर्वोक्तचान्द्रमासपञ्चके एव, न शेषमा. सेष्विति स्वयं ज्ञेयं । द्वयङ्गा द्विस्वभावा राशयः । न किञ्चिदिति चतुर्दिग्मु. खमपि नारभेतेत्यर्थः । “मेषसिंहधनस्थेऽर्के पूर्वामुखे गेहे कृते राजभयं । वृषकन्यामकरस्थेऽर्के दक्षिणामुखे गेहे कृते पुत्रादिमृत्युः । मिथुनतुलाकुम्भस्थेऽर्के पश्चिमामुखे गेहे कृते सन्तापादि । कर्कवृश्चिकमीनस्थेऽके उत्तरामुखे गेहे कृते कुलक्षय" इति तु नारचन्द्रटिप्पनके ॥
कस्यां दिशि प्रथमं खननारम्भः कार्य इत्याहभाद्रादित्रित्रिमासेषु पूर्वादिषु चतुर्दिशम् । भवेद्वास्तोः शिरः पृष्टं पुच्छं कुक्षिरिति क्रमात् ॥ ७७ ॥ व्याख्या-भन्न वास्तुनो दक्षिणपार्थोपपीढं सुप्तस्य नागस्याकारेण स्थापना यथा
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भाद्रादिमासन्रयापेक्षया नागचारस्य दिक्षु शिरादयः ।
उत्तर
पश्चिम
आरम्भ-1 -सिद्धिः
फा. चै. वै.
पुच्छं
ज्ये. आ. श्री.
कुक्षिः
पृष्ठं
मार्ग. पो. मा.
शिरः
भाद्र. आ. का.
दक्षिण
ततो भाद्रपदादिमास त्रिके प्राच्यां वास्तोः शिरः, दक्षिणस्यां पृष्ठ पश्चिमायां पुच्छं, उत्तरस्यां कुक्षिः । मार्गादिमासत्रिके दक्षिणादिचतुर्दिक्षु शीर्षादीनि, फाल्गुनात्रिके पश्चिमादिचतुर्दिक्षु, ज्येष्ठादिम |सत्रि के तूत्तरादिचतुर्दिक्षु । अयं भावःकुक्षावेव प्रथमं खननारम्भः कार्यः, नान्यदिक्षु । यदुक्तं
1
" शिरः खनेन्मातृपितृन्निहन्यात् खनेश्च पृष्ठे भयरोगपीडाः । पुच्छं खनेत्स्त्रीशुभगोत्रहानि, स्त्रीपुत्ररत्नान्नवसूनि कुक्षौ ॥ १ ॥ " इति दैवज्ञवल्लभे । केचिद्वास्तोर्वत्सनामाहुः । भनेन च वास्तोरङ्गदिकथनेन खातादौ दिनियम उक्तः । विदिनियमः पुनरेवं
"
पूर्व
ईशानादिषु कोणेषु वृपादीनां त्रिके त्रि । शेषाहेराननं त्याज्यं विलोमेन प्रसर्पतः ॥ १ ॥
""
अस्यार्थः -- संहारेण शेषस्त्रिभिस्त्रिभिर्मासैर्भ्रमति, ततो यदा मासत्रयं तन्मुखमीशाने तदा आग्रेये मासत्रयं नाभि:, नैर्ऋते मासत्रयं पुच्छं, वायव्ये मुस्कलं श्रेयः । यदा वायव्ये मुखं तदेशाने नाभिः, आझेये पुच्छं, नैर्ऋऋते मुत्कलं, एवं संहारेण शेषो भ्रमति । वृषादित्रिके ईशाने मुखं, सिंहादित्रिके वायव्ये, वृश्चिकादित्रिके नैर्ऋते, कुम्भादित्रिके त्वाग्नेये मुखं । स्थापना चेयं एवं च" विदित्रयं स्पृशस्तिष्ठेत्स्ववक्त्र १ नाभि २ पुच्छकैः ३ । शेषस्तत्रितयं त्यक्त्वा भूखातकार्यमाचरेत् ॥ १ ॥
नाभौ चम्रियते भार्या धनं पुच्छे मुखे पतिः । इति मत्वा शिलान्यासे भूखाते तत्रयं त्यजेत् ॥ २ ॥ "
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चतुर्थो विमर्शः
विदिक्षु शेष चारः ।
पूर्व
ईशान
बुगु | 23 शरसो
MORN
दक्षिण
सो मं
बु गु
शु
पश्रिम
कुशिक
भरस
इति वास्तुशास्त्रे ॥ आयाद्युक्तेस्तात्पर्य माहसमाधिकव्ययं कर्तुः समनामयमांशकम् । विरुद्धराशितारं च विनाऽन्यद्वेश्म शोभनम् ।। ७८ ॥
व्याख्या-यत्रायेन समोऽधिको वा व्ययस्तद्गृहं त्याज्यमिति सर्वत्र भाव्यं । एतेन न्ययादधिक आयः श्रेष्ठः, सोऽपि विषमोऽतिश्रेष्ठः स्थिरत्वात् । यल्लल्लः-, कुर्यात् स्थिराधिकायं. स्वयोनिभं शुद्धतारांशम्" इति ।
यस्य गृहस्य नाम कर्तुर्नाम्ना समं । यत्र अमांशोत्पत्तिः। यस्य राशिना सह स्वामिराशेः शत्रुषडष्टमकं द्विद्वादशादिकमुत्पद्यते । यस्य च तारा स्वामितारातस्त्रिपञ्चसप्तमी स्यात् । चकाराद्यस्य भं रक्षोगणे स्वामिभयोन्या सह विरुद्धबलिष्ठयोनिकं वा तद्गृहं त्याज्यं । यल्लल्लः - .
"आयविरुद्ध भवने न सुखं षडष्टमके स्थिते मरणम् । न धनं द्विद्वादशके नवपञ्चमके त्वपत्यमृतिः ॥ १ ॥ निधनं सप्तमतारे पञ्चमतारे च तेजसो हानिः । विपदस्तृतीयतारे यमांशके गृहपतेर्मत्युः ॥२॥"
नाडीवेधस्तत्र श्रेष्ठ एव, तद्भावे योनिविरोधादिदोषाणामप्यदुष्टत्वसम्भ. वात् । नन्वस्त्वेवं, परं यत्र गृहे द्विपादं त्रिपादं वा भं स्यात्तत्र कथं रहस्य
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आरम्भ-सिद्धिः
राशिः कल्प्यते, तत्कल्पनां च विना कथं षडष्टमका दिर्विचार्यते ! उच्यतेतदा भपाद आनीयते । तथाहि
“ क्षेत्रफले रद ३२ गुणिते भक्ते वस्वभ्रभूमिभिः १०८ शेषात् । व्येकान्नवभिः शेषं पादो लब्धं वृषाद्भगणः ॥ १ ॥ "
इति व्यवहारप्रकाशे । उदाहृतगृहस्य भमुत्तराफाल्गुनीति त्रिपाद, ततस्तत्रैवास्यार्थो भाव्यते- प्रागानीतं क्षेत्रफल २२४७९, इदं द्वात्रिंशता गुणितं जातं सप्त लक्षा एकोनविंशतिसहस्रास्त्रिशत्यष्टाविंशतिश्व ७१९३२८ । एषामष्टशतेन भागे शेषमष्टचत्वारिंशत् ४८ । व्येकं ४७ । तस्य नवभिर्भागे लब्धं पञ्च । वृषात् पञ्चमो राशि: कन्या । शेषं च द्वौ । उत्तरफल्गुनीभस्य द्वितीयः पादः तस्य गृहस्येत्यागतं । ततश्च धनिकस्य धनिष्ठोत्तरार्धजन्वा जन्मराशिः कुम्भः, स च विषमः तस्मादष्टमस्य कन्याराशेः प्रीतिषडष्टमकं " ओजात्स्यादष्टमे प्रीतिः" इत्युक्तेः ॥ वर्णानां वशाद् गृहेष्वायमुखयोर्व्यवस्थामाहक्रमाद्विप्रादिवर्णानां विषमायैर्ध्वजादिभिः । धीमद्भिर्धाम निर्दिष्टं प्रतीच्यादिमुखं क्रमात् ॥ ७९ ॥
व्याख्या -- विप्राणां ध्वजाये पश्चिमामुखं गृहद्वारं कुर्यात्, ध्वजो हि प्राच्यां तिष्ठति, प्रतीचीमुखे च द्वारे स विप्राणां प्रवेशे सम्मुखः स्थितः शुभाय स्यात् । एवं सिंहाये उत्तरामुखं द्वारं राज्ञां गृहेषु दक्षिणदिक्स्थत्वासिंहस्य | एवं शेषेष्वपि भाव्यम् ॥ आयद्यपवादमाह
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ये गृहेऽलिन्दनिर्यूह निर्गमाद्याश्चतुर्दिशम् |
न तेष्वायादिकं योज्यं बाह्यभूषासु वास्तुनः ॥ ८० ॥ व्याख्या- - अलिन्दः प्रागुक्तार्थः । निर्यूहो भित्यादेर्बहिर्निर्गतो दारुविशेषो मर्दनालकादिः । आदेः प्रग्रीवादिग्रहः ॥ गृहे सूत्रपाताद्याहसूत्रस्य सिद्धिर्वनाथ हस्तमै त्रस्थिरस्वातिशतर्क्षपुष्यैः । न्यासः शिलायाः करपुष्यमार्गपौष्णध्रुवेषु श्रवणे च शस्तः। व्याख्या - वसुनाथं धनिष्ठा । मैत्राणि मृदुभानि । तिथिवारशुद्धिस्तु रिक्तादिवर्जनात् स्फुटैव । उक्तञ्च ब्रह्मशम्भुटीकायाम्
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:9
एकादशी द्वितीया पञ्चमी सप्तमी तृतीया च । प्रतिपदशमी चेष्टा त्रयोदशी पौर्णमासी च ॥ १ ॥ सूर्येन्दुजीवसौस्यानां भार्गवस्य च वासरे । सूत्रपातादिकं कार्य निष्पत्तिमभिवाञ्छता ॥ २ ॥ गृहनिवेशे लग्नबलमाहचरादन्यत्र लग्नेन्द्वोः शुभैः संयुक्तदृष्टयोः । कर्म १० स्थितेषु सौम्येषु गेहारम्भः शुभावहः ।। ८२ ।।
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चतुर्थो विमर्श केन्द्र त्रिकोणगैः सौम्यैः, क्रूरैः शत्रत्रिलाभगैः। शुभाय भवनारम्भोऽष्टमः क्रूरस्तु मृत्यवे ।। ८३ ॥
___ व्याख्या--मत्यवे इति गृहस्वामिन इति शेषः । विशेषस्तु"गुरुर्लग्ने जले शुक्रः स्मरे ज्ञः सहजे कुजः । रिपो भानुर्यदा वर्षशतायुः स्याद् गृहं तदा ॥ १ ॥ सितो लग्ने गुरुः केन्द्रे खे बुधो रविरायगः । निवेशे यस्य तस्यायुर्वेश्मनः शरदां शतम् ॥ २ ॥ त्रिशत्रुसुतलग्नस्थैः सूर्यारेज्यसितैर्भवेत् । प्रारम्भः सद्मनो यस्य तस्यायुर्द्व समाशते ॥ ३ ॥ व्योम्नि चन्द्रः सुखे जीवो लाभे भौमशनैश्चरौ । यस्य धास्नः समाशीति स्थितिस्तस्य श्रिया युता ॥ ४ ॥ स्वोच्चस्थे लग्नगे शुक्रे १ हिबुकस्थेऽथवा गुरौ २ । स्वोच्चे मन्देऽथवा लाभे ३ धाम्नः सश्रीः स्थितिश्चिरम् ॥५॥"
चिरमिति अमितायुरित्यर्थः । येऽमी गृहारम्भलग्ने विशेषा उच्यमाना: सन्ति ते जिनालयादिप्रारम्भलग्नेष्वपि योज्याः । तथा" स्वक्ष चन्द्रे विलग्नस्थ जीवे कण्टकवतिनि ।। भवेल्लक्ष्मीयुते धाम्नि भूरिकालमवस्थितिः ॥ ६ ॥ स्वमित्रोच्चग्रहांशस्थैस्तदंश्याश्चिरमासते। खगैरन्यगतैरन्ये नीचगैश्चापि निर्धनाः ॥ ७ ॥ अनस्तगैः सितेज्येन्दुजन्मराशिविलग्नपैः । स्वोच्चस्वक्षेत्रभागस्थैर्भवेच्छीसौख्यदं गृहम् ॥ ८ ॥ गृहिणीन्दी गृहस्थोऽर्के गुरौ सौख्यं सिते धनम् । विबले नाशमायाति नीचगेऽस्तंगतेऽपि च ॥ ९ ॥ " इति दैवज्ञवल्लभे । तथा-- " गहेषु यो विधिः कार्यो निवेशनप्रवेशयोः ।
स एव विदुषा कार्यों देवताऽऽयतनेष्वपि ॥ १॥" इति व्यवहारप्रकाशे । लग्ने दोषमाहवर्णेशो दुर्बलः कुर्यादावर्षादन्यहस्तगम् । एकोऽपि द्यून ७ कर्म १० स्थः परांशे स्याद्यदि ग्रहः ॥८॥
व्याख्या-कुर्यादिति गृहमिति शेषः । परांशे इति परकीयनवांश उत्तरार्धोक्तयोगे केवलजावनेकान्तः, पूर्वाधोक्तयोगमिलने त्वेकान्त एव, द्वाभ्यां परनवांशगाभ्यां तु सकालेऽपि गृहनाशः स्यात् ॥ यात्रानिवृत्तनृपादेः सामान्येन नव्यगृहे वा प्रवेशविधिमाह
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आरम्भ-सिद्धिः
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व्याख्या-चरादन्यत्रेति स्थिरे द्विस्वभावे वा लग्ने, चन्द्रेऽपि च स्थिरद्विस्वभावराशिस्थे ॥ गृहप्रवेश सुविनीतवेषः, सौम्येऽयने वासरपूर्वभागे। कुर्याद्विधायालयदेवतार्चा, कल्याणधीभूतलिक्रियांच८५ व्याख्या-सुविनीतोऽनत्युद्भटः पवित्रोचितश्च । सौम्ये इति उत्तरायणे । यदुंक्त
"सौम्येऽयने कर्म शुभं विधेयं, यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणे च ।" __ अन शुभमिति, नवरं--- "मालादिसङ्ख्यानियतं सीमन्तोन्नयनादिकम् । . याम्यायनादौ तत्सर्व क्रियमाणं न दुष्यति ॥ १." इतित्रिविक्रमः । ____ अत्रादिशब्दादधिकमासक्षयमासावपि तत्र न दुष्टावित्यर्थः। पूर्व भागे इति चटव इति भावः । आलयेति वास्तुशास्त्रोपदिष्टं वास्तुपूजनं भूतबलिं च दिक्षु विदिक्षु विधाय । कल्याणधीरिति तदानीं सद्बुद्धिरेवानेयेति भावः । वाराद्याह
प्रविशेद्वेश्म वारेषु हित्वाऽर्कक्षितिनन्दनौ । . भैश्च पुष्यध्रुवस्वातिधनिष्ठामृदुवारुणैः ॥ ८६॥ विधाय वामतः सूर्य पूर्णकुम्भपुरस्सरः । गृहं यद्दिङ्मुखं तदिग्द्वारधिष्ण्ये विशेषतः ८७॥ युग्मम्।
व्याख्या-प्रविशेदिति चन्द्रे गोचराष्टकवर्गविधिनाऽनुकूलेऽरिक्ततिथौ विष्कम्भादिकुयोगाभावे चेति स्वयमूहां। यदुक्तं -"तारेन्द्वोबलकाले तिथावरिक्त. ऽह्नि शुभदस्येति " व्यवहारप्रकाशे । हित्वेति रविकुजयो रोग-रक्तप्रकोपकारित्वात् । भैश्चति, यदुक्तं"विशाखासु राशी सुतो दारुणेषु, प्रणाशं प्रयात्युग्रमेषु क्षितीशः । गृहं दह्यते वह्निना वह्निधिष्ण्ये, चरैः क्षिप्रधिष्ण्यैश्च भूयोऽपि यात्रा॥"
इति दैवज्ञवल्लभे । पूर्णकुम्भेति जलकलशानग्रतः कृत्वेत्यर्थः । गृहं यदिग्मुखमिति, अयं भावः-पूर्वाभिमुखे गृहे पूर्वद्वारकेपु कृत्तिकादिसप्तभेषु प्रवेष्टुमधिकारः, तेन पूर्वोक्तगुणयुतमपि प्रवेशभं यदि गृहाभिमुखदिग्द्वारकं स्यात्तदाऽतीव शुभं । विशेषस्तु" सर्वग्रहैविमुक्तं प्रवेशमं शस्यते प्रयत्नेन । कैश्चित्सौम्यसमेतं शुभप्रदं कीर्तितं मुनिभिः ॥ १ ॥” इति लुल्लुः । तथा नव्यगृहप्रवेशे शुक्रः सम्मुखस्त्याज्य: । यत् त्रिविक्रमः" त्यजेत् कुतारा प्रस्थाने शुक्रज्ञौ गहवेशके ।
यात्रासु च नवोढरीवर्ज सम्मुखदक्षिणी ॥ १ ॥" अत्र गृहवेशके इति नव्यगृहप्रवेशे ॥ लग्नबलमाह, पवित्रचित्तश्चेति साधीयान्.
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चतुर्थी विमर्श
जन्मराशिविलग्नाभ्यां प्रथमोपचयस्थितम् । लग्नं स्थिरं तदंशाच प्रवेशे सद्भिरिष्यते ॥ ८८॥ व्याख्या-प्रथम जन्मराशिजन्मलमरूपमेव लग्नं प्रवेशे श्रेयः । यल्लल्ल:" स्वनक्षत्रे स्वलग्ने वा स्वमुहूर्त स्वके तिथौ ।
गृहप्रवेशमाङ्गल्य सर्वमेतत्तु कारयेत् ॥ १ ॥"
क्षुरकर्म विवादं च यात्रां चैव न कारयेत् । " ताभ्यामुपचयस्थोऽपि राशिर्लग्ने शस्तः । यल्लल्लः" आरोग्यदो १ धनहरो २ धनदः ३ सुखघ्नः ४,
पुत्रान्तको ५ रिगणहा ६ ऽथ नितम्बिनीघ्नः ७ । प्राणान्तकृत् ८ पिटकदो ९ ऽर्थ १० धनौघ ११ भीदो १२, जन्मर्मतस्तदुदयाञ्च विलग्नराशिः ॥ १॥"
स्थिरमिति सामान्योक्तेऽपि ग्राम्य स्थिरं ग्राह्य, न स्वारण्यं । अनेन वृषकुम्भयोरन्यतमे (रे) लग्ने तन्नवांशे च प्रवेशः श्रेष्ठः, तयोरेव ग्राम्यत्वादिति भावः । तदंशाश्चेति चकाराद् द्विस्वभावावपि लग्नांशौ प्रवेशे दुष्टी, न चराणामेव लग्नांशानां दोषोक्तेः । तथाहि
ग्रहसंस्थेयं गृहनिवेशप्रवेशयोःउत्तम मध्यम
अधम 1८-१-४
-४-७-१०.. चन्द्र १-४-७-१०-९-५,-३-१६१८-२-६-१२
मंगल
बुध
गुरु
१-४-७-१०-९-५-३-११८-२-६-१२
शुक्र शनि राहु
८-१-४-७-१०-१२-२] 1८-१-४-७-१०-१२-२
-६-११
"पुनः प्रयाणं मेषे स्यान्मृत्युः कर्के तुले रुजः । धान्यनाशो मृगे लग्नरंशश्च फलमीदृशम् ॥ १॥” इति लल्लः ।
ग्रहसंस्था तु या गृहनिवेशने उक्ता, सैव गृहप्रवेशेऽपीति पृथग्नोक्ता । ग्रहाणामुत्तमादित्रिभङ्गी त्वैवं ज्योतिषसारे उक्ता -
"कूरा तिछगारसगा सोमा किंदे तिकोणगे सुहया । कूर ठम अह असुहा सेसा मज्झिम गिहारम्भे ॥ १ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
किंदट्ठमंति कूरा असुहा तिइगारहो सुहा सन्वे ।
कुरा बीआ असुद्दा सेस समा गिहपवेसे अ ||२||" स्थापना - विशेषस्तु --
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" रात्रौ विवाहभे शस्तः सन्मुहूर्त्ते स्थिरोदये ।
वधूप्रवेशो नैवात्र प्रतिशुक्राद्भयं विदुः ॥ १ ॥ " इति भास्करः । तथा"पुनर्वसौ च सूतिकागृहस्य निर्मितिः स्मृता । विरञ्चिविष्णुभान्तरे प्रवेशनं च तत्र तु ॥ १ ॥ " इति रत्नमालायां । अत्र पुनर्वसाविति तस्य देवमातृस्वामिकत्वात् । विरवीति अभिजिच्छ्रवणयोरन्तराले, सृष्टिपालनकर्तृस्वामिकत्वात्तयोः । अत्यौत्सुक्ये स्वनयोरुदयान्तरे तत्र प्रवेशः कार्यः ॥
॥ इति वास्तुद्वारम् ॥ ९ ॥ ॥ इति श्रीमति आरम्भसिद्धिवार्तिके गम १
वास्तुनिवेशप्रवेशपरीक्षात्मक २ चतुर्थी विमर्शः सम्पूर्णः ॥ ४ ॥ श्रीसूरीश्वर सोमसुन्दरगुरोर्निः शेष शिष्याग्रणी - गच्छेन्द्रः प्रभुरत्नशेखर गुरुदैदीप्यते साम्प्रतम् ।
तच्छिष्याश्रव हेमहंस रचितस्यारम्भसिद्धेः
सुधी- शृङ्गाराभिधवार्तिकस्य समभूत्तुर्थी विमर्शोऽर्थतः ॥ १ ॥ ”
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पञ्चमो विमर्शः
पञ्चमो विमर्शः ॥ ५॥
॥ विलग्नद्वारम् ॥१०॥ अथ विलग्नद्वारमाहलग्नं विवाहे दीक्षायां प्रतिष्ठायां च शस्यते । रवी मकरकुम्भस्थे मेषादित्रयगेऽपि च ॥१॥
___ व्याख्या-दीक्षायामिति उपस्थापनाऽपि दीक्षक, प्रतिष्ठा जिनबिम्बप्रासादादीनां । चोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, तेन राज्याभिषेकसूरिपदाभिषेकयोरपि ग्रहणं । शस्यते इति अवश्याऽऽदरणीयतया बहु मन्यते । एतानि कार्याणि शुद्धलग्नबलेनैव कार्याणि, नान्यथा । शेषकार्याणि तु दिननक्षत्रशुद्धौ सत्यां सुमुहूर्त्तमात्रेऽपि कार्याणीति भावः । ननु यदि जन्मलग्नाच्छुभाशुभं स्यात्तदा विवाहादिलग्नप्राबल्यविचारणैः किं प्रयोजनं ? अथ चैत्तेषामेव प्रामाण्यं तदा जातकादिशास्त्राणामानर्थक्यप्रसङ्गः । भैवं, यतो यजातकादौ शुभाशुभफलमुक्तं तस्य विवाहादिलमबलेनाधिक्यं न्यूनता वा स्यात् , यथा किल जन्मफलं शुभमपि दशाप्रवेशका. लीयतात्कालिकलग्ने दशापति-तन्मित्रादीनां लग्नादिस्थत्वेनेन्दोमित्रोच्चोपचयनि कोणादिस्थानवशाच्च शुभतरमुक्तं बृहजातके, तथाह्नि" पाकस्वामिनि लग्नगे सुहृदि वा ४वर्गस्य सौम्येऽपि वा,
प्रारब्धा शुभदा दशा त्रिदशषड्लामेषु वा पाक-पे । मित्रोञ्चोपचयत्रिकोणमदने पाकेश्वरस्य स्थित-श्चन्द्रः सत्फलबोधनानि कुरुतेपापानि चातोऽन्यथा ॥ १ ॥"
अत्र पाकस्वामिनीति दशापतौ । अपि च प्राणिनां जन्मलग्नमशुभमपि तत्कालविवाहादिलग्नबलाच्छुभमपीति सर्वमनवद्यम् ॥
"विवाहादौ स्मत: सौरः" इति रत्नमालाभाष्योक्तेलेग्नेऽर्कसङक्रान्तिप्रवृत्तानां सौरमासानां नियम उक्तः । अथ चान्द्रमासान्नियमयति
x वर्गेऽस्य वग्र्येऽस्येति च प्रत्यन्तरे. .
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आरम्भ-सिद्धिः
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माघफाल्गुनयो राधज्येष्ठयोश्चापि मासयोः। लग्नं श्रेयः परे त्वाहुस्तद्वत्कार्तिकमार्गयोः ॥२॥
व्याख्या-राधो वैशाखः । एते शुक्लप्रतिपद्याश्चान्द्रमासा एव ग्राह्याः । ज्येष्ठयोरिति, ननु ज्येष्ठे तावन्मिथुनसक्रान्तिः स्यात्, सा च प्रागपि प्रायोक्ता, ततः किमिति पुनज्येष्ठोपन्यासः ? उच्यते-आषाढमासे मिथुनसक्रान्यामपि सत्यां सर्वथा निषेधार्थम् । कैश्चिन्मिथुनसक्रान्ती सत्यामाषाढस्य शुक्लदशमी यावदाद्यस्त्रिभाग आहतोऽपि । तथा च त्रिविक्रम:-“कैश्चिदिष्टस्त्र्यंशः शुचेरपीति" । कार्तिकेति कार्तिकमार्गशीर्षयोर्मध्यमत्वात् हीनजातिविवाहः स्यादिति भावः, परं कार्तिकशुक्लैकादश्यनन्तरमेवेत्यूछ । यदुक्तम्"कार्तिकमासे शुद्धिगुरोर्विलोक्या रवेश्च चन्द्रबलम् । अक्रूरयुते धिष्ण्ये देवोत्थानाशाहं स्यात् ॥१॥” इति व्यवहारप्रकाशे ।
एतेन शेषेषु षट्सु चान्द्रमासेषु लग्नं न ग्राहमेवेत्यर्थः । पाकश्रीकारस्स्वाह-" चतुर्यु कार्तिकादिमासनिकेषु क्रमाचत्वारि स्थिरराशिलग्नान्यमृतस्वभावानि" तथाहि-कार्तिकादिमासनये वृषलग्नं शुभं, माघादिमासत्रये सिंहलग्नं, वैशाखादिनये वृश्चिकलग्नं, श्रावणादिनिके कुम्भलग्नं च । एषां वर्गोत्तमस्य मध्यमांशस्योदये सर्वकार्यसिद्धिः ॥ अथ येषु सत्सु लग्नं न गृह्यते तानाह
जीवे सिंहस्थे धन्वमीनस्थितेऽर्के विष्णौ निद्राणे चाधिमासे च लग्नम् । नीचेऽस्तं वाप्ते लग्ननाथेंशपे वा, जीवे शुक्रे वाऽस्तङ्गते वापि नेष्टम् ॥ ३ ॥
व्याख्या--सिंहस्थे इति, यदाहुः सप्तर्षयः" गुरुर्मघायां पुरुषं हन्ति भाग्ये स्थितः स्त्रियम् । उत्तराफल्गुनीपादे द्वयं हन्ति न संशयः ॥ १ ॥ गोदावर्युत्तरतो यावद्भागीरथीतटं याम्यम् । तत्र विवाहो नेष्टः सिंहस्थे देवपतिपूज्ये ॥ २॥" ___ केऽप्याहुः-यावद्गुरुर्मघां नोल्लङ्घते तावत् सिंहस्थदोषो गरीयान् । यच्छौनकः"पितृमे यदि सुरपूज्यो नीचः वाऽथवारिसंयुक्तः कन्योढा वैधव्यं प्रयाति संवत्सरैः षड्भिः ॥ ॥"
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पञ्चमो विमर्श
यदि तु मघामुत्तीर्णस्तदा न तादृग्दोषः । तेन कन्यातिकालक्रमणाद्वरलोभाद्देशविभ्रमादिहेतुना वा सम्पूर्णसिंहस्थस्य त्यक्तुमशक्यत्वे ते मघास्थमेव जीवं त्यजन्ति । आहुश्च"बहवोऽप्येवं जगदुः सिंहारूढोऽपि वृत्रशत्रुगुरुः । समतिकान्तमघों न विरुद्धः सर्वकार्येषु ॥ १॥" पराशरस्त्वाह
सिंहस्थज्येन यद्याद्याः पञ्च नवांशाः सिंहस्य भुक्तास्तदा देश विशेषात् सिंहस्थदोषो न लगति । तथाहि
" सिंहस्थेज्योऽनुसिंहांशाजाह्नवीतीरयोद्धयोः । न दुष्टो गङ्गयोर्मध्यदेशेषु तु स दुःखदः ॥ २ ॥"
सप्तर्षयस्त्वाहु:-" देशविशेषात् सिंहस्थेज्य आदितोऽप्यदुष्ट एव" । तथाहि" भागीरथ्युत्तरे तीरे गोदावर्याश्च दक्षिणे ।
विवाहो व्रतबन्धो वा सिंहस्थेज्ये न दृष्यति ॥ १ ॥" ___ अन्ये स्वाहुः-" मेषस्थेऽके चेल्लग्नं गृह्यते तदा भुक्तमघस्य सिंहस्थेज्यस्य न दोषः" । पठन्ति च" सिंहटिअ जइ जीवो महभुत्तं होइ अह रवि मेसे।। ता कुणह निविसंकं पाणिग्गहणाइकल्लाणं ॥ १ ॥”
इह च ग्रन्थान्तरसंवादो विवाह फलमाश्रित्य दर्शितः । प्रतिष्ठादीक्षादि.वकार्येष्वप्येतदनुसारेण फलमूह्यं । एवमग्रेऽपि । धन्वमीनेति, अन विशेषः"झषो न निन्द्यो यदि फाल्गुने स्थादजस्तु वैशाखगतो न निन्द्यः । मध्वाधितौ द्वावपि वर्जनीयौ, मृगस्तु पौषेऽपि गतो न निन्द्यः" ॥
__इति विद्याधरीविलासग्रन्थे । केचिदिदं वृत्तमेवं पठन्ति---- "झषो न निन्द्यो यदि फागुने स्यादजस्तु चैत्रेऽपि गतो न निन्द्यः । मृगस्तु पौषेण च सम्प्रयुक्तो, वशिष्टगग्र्गादिभिरेतदुक्तम् ॥"
___अस्मिन् पाठेऽयं विशेषः-चैत्रमासेऽपि यदि मेषेऽकः स्यात्तदा लग्नं गृह्यमाणं न दोषायेति । रत्नमालाभाष्ये त्वेवमूचे" कर्कादिराशिषटकं च पूर्वार्ध पौषचैत्रयोः ।
अस्तमितं गुरुं शुक्रं त्यजेन्डादिकर्मणि ॥ १ ॥" ___अत्र पूर्वार्ध पौषचैत्रयोरित्येतदक्षममाणः श्रीपतिः प्राह" सौम्येऽयनेऽप्यविकलौ पौषचैत्रौ परित्यजेत् । पक्षोऽपरः शुभः कैश्चिन्न चैतद्युक्तिमद्वचः ॥ १ ॥” इदं दैवज्ञवल्लमे ।
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आरम्भ-सिद्धिः
निद्राण इति, इदं वचो लोकरूढ्या आषाढकार्तिक शुक्लैकादश्योरन्तरालकाले इत्यर्थः । अधिमासे इति, यदाउमावास्यामध्ये एका सङ्क्रान्तिर्लगेत् भन्या चान्यमासप्रतिपदि तदा सक्रान्तिहीनो मध्येऽधिकमासः । उक्तञ्च" एकोऽमावास्यायां भवेद्रवेः सङ्क्रमः परो दर्शात् । ऊध्व जायेत यदा तदाऽधिमासः शुभेऽनिष्टः ॥ १ ॥ " विशेषस्तु" मासद्वयेऽब्दमध्ये तु सङक्रान्तिनं यदा भवेत् । प्राकृतस्तत्र पूर्वः स्यादधिमासस्तथोत्तरः ॥ १॥".
अत्र प्राकृत इति प्रकृतिधर्मव्यवहारस्तरसम्बन्धी वर्षमध्येऽधिमासकद्वये सति प्रथमाधिकमासे प्रथम एव मासो व्यवहर्तव्यो न द्वितीयः, द्वितीयेऽधिमासे तु द्वितीय एवेत्यर्थः । इदं कालनिर्णयग्रन्थे । ब्रह्मसिद्धान्तेऽप्युक्तं"वर्षमध्ये मासद्वयवृद्धौ प्रथममासवृद्धौ कर्मकृदाद्योऽपरस्स्वशुभ' इति । अधिमासे चेति चकरात् क्षयमासोऽपि लग्ने त्याज्यः । स चैवं-यदैका सङ्क्रान्तिः शुक्लप्रतिपदि, अन्या च तस्मिन्नेव मासेऽमावास्यायां, नदा “द्विसङ्क्रान्तिवान् क्षयमासः." स च कार्तिकमार्गशीर्षपौधानामन्यतम एव स्यात् । उक्तश्च कालनिर्णयग्रन्थे
" असङ्क्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुट स्यात्, द्विसङक्रान्तिमासः क्षयाख्यः कदाचित् । क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात् ,
ततो वर्षमध्येऽधिमासद्वयं स्यात् ॥ १ ॥" तथा-- " यस्मिन्मासे न सङ्क्रान्तिः सङ्क्रान्तिद्वयमेव वा ।। ___ मलमासः स विज्ञेयः सर्वकार्येषु वर्जितः ॥ १ ॥” इति काठगृह्ये ।
नीचेऽस्तं वेति. लग्नांशयो थौ नीचस्थौ त्याज्यो। यदुक्तं प्रश्नप्रकाशे"त्रि द्वयरकगुणा३ऽर्धबलः४ खग, उच्चग वक्रर शीघ्रश्नीचस्थ" इति । अस्तमितस्य तु सर्वथा नास्ति बलं, केवलं बुधोऽस्तमित उदितो वा विवाहादिलग्नेषु सरशफल एव । उक्तञ्च" रविकिरणमध्यवर्ती चरति सदा सवितृमण्डले शशिजः ।।
तस्मान्न दोषकृत्स्यात् सोऽस्तं यातोऽपि भांशपतिः ॥ १॥" ___ ग्रहाणां सामान्यत उदयाऽस्तदिनसङ्ख्या चेयं ज्योतिषसारे"छस्सयसह ६६० छत्तीसा ३६ तिन्निबहुत्तर ३७२ दुएगपन्नासा २५१ । तिनिबयाला ३४२ अंगारयमाई उदयदिवस कमा ॥ १ ॥ सुन्नरवि १२० सोल १६ दसणा३२नंद ९ बयालीस-४२ पच्छिमत्थविणा। भोमाई तह पुव्वे बुह-सिम छत्तीस ३६ सम्सयरी ७७॥२॥"
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पञ्चमो विमर्शः
ग्रहाणामुदयास्तभवनप्रकारस्स्वयं
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सूर्या: १२ सप्तदश १७ त्रिभूपरिमिता १३ रुद्रा ११ नवा ९ ब्धीन्दवः १४, कालांशाः शशिनोऽनृजोईगुरुणः काव्यस्य मन्दस्य च ॥ १ ॥ अयं भावः - चन्द्रादिग्रहाणां खेरेतावत्रिंशांशमध्यागमनेऽस्तमयः स्यात्, अन्यथा तूय एवेति खण्डखाद्यभाष्यादौ । अस्तं वाप्ते इत्युपलक्षणं, तेन पोऽशपो वा यदि क्राग्रहयुतः क्रूरदृष्टो वा स्यात्तदाऽप्यशुभं लग्नं । जीवे शुक्रे वाऽस्तमिति, यल्लल्लः
1
" अस्तमिते भृगुतनये नारी म्रियते बृहस्पती पुरुष......." इति ॥ केऽप्याहु:
अभिजिद्वारुणादित्यरेवतीसङ्गते सति ।
तदा लोपगते जीवे विवाहादि विवर्जयेत् ॥ १ ॥
44
१९९
ני
अस्यायं सम्प्रदायः- मासाः किल सर्वेऽप्येकान्तरं नक्षत्रनामाङ्किताः । तथाहि - अश्विन्या आश्विनः, कृत्तिकाया: कार्तिकः, मृगशीर्षस्य मार्गशीर्षः, पुण्यस्म पौषः इत्यादि । एवं चान्तरान्तरा यानि यानि भान्यधिकानि सन्त्यभिजित् १ शतभिषा २ रेवती ३ पुनर्व्वसु ४ रूपाणि तेष्वागतो गुरुलोंपगत इत्युच्यते, तस्मिन् सति लग्नं न ग्राह्यमिति । तथा
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" अस्तङ्गते भृगुसुते भवेद्यदि बुधोदयः । पुत्राष्टकस्य जननी तदोढा कन्यका भवेत् ॥ १ ॥ शशाङ्कजो यदोदेति गुरोरस्तमनं यदि । जननी तदोढा कन्यका भवेत् ॥ १ ॥ दीक्षा शुक्रास्तेऽपि न दुष्टेति तु दिनशुद्धिग्रन्थे । जीवेऽस्तगते लग्नं नेष्टं तथा तस्य नीचत्वा (स्था ) दावपि । यदुक्त विवाहपटले
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पुत्राष्टकस्य
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"वाक्पतौ मकरराशिमुपेते, पाणिपीडनविधिर्न विधेयः । तत्र दूषणमुशन्ति मुनीन्द्राः, केवलं परमनीचनवांशे ॥ १ ॥ इति । " हित्वा पञ्चैव नीचांशान् " इति तु ग्रन्थान्तरे । तत्र लोकरूया आया एव परमनीचांशान्ताः पञ्च नीचांशास्त्रिंशांशरूपास्त्यज्यमानाः सन्ति । सर्वत्र लोके पञ्चत्रिंशांशस्यैव परमनीचत्वेऽपि च यदेवं क्रियते तल्लोक रूढ्यनुरोधादिति ज्योतिर्विद्वचः । इह वृत्ते जीवे सिंहस्थे इत्यनेन वर्षस्य, धन्वमीनस्थितेऽर्के इत्यादिना च मासस्य शुद्धी उक्ते । काचिन्माशुद्धिं दिननक्षत्रशुद्धी ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे ” (मिश्राद्वारे लो० ६) इत्यादिना, "उद्वाहे मृगपै" (मिश्राद्वारे लो०९) इत्यादिना च वक्ष्यति । समयशुद्धिस्त्वेवं - निशीथमध्यं
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इति सारङ्गः ।
गर्गः । विशेषस्तु - यथा
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आरम्भ-सिद्धिः
दिनयोः सन्धिकाले लग्नं न ग्राह्यं । यद्गदाधरः" निवसति मुहूर्त्तकालो महानिशायां च दिनदले यस्मात् । दश पूर्व दश परतस्तस्माद्वाच्चरपलानि ॥ १ ॥"
यत्त केऽप्याहः-दिनस्यापराधैं प्रतिष्ठाविवाहादिलग्नं न स्यात्, अत एवोक्तं गृहप्रवेशाधिकारे--"सौम्येऽयने वासरपूर्वभागे" (वास्तुद्वारे श्लोक ८५) इत्यादि, तदयुक्तमिव विवाहे दिनापराधलग्नस्य सूत्रकारेणैवानुज्ञास्यमानत्वात् । तथा च वक्ष्यति-"विवाहे त्वर्कार्की त्रिरिपुनिधनायेषु शुभदौ” (मिश्रद्वारे श्लोक ३६) न हि खलु विवाहलग्नेऽस्याष्टमस्थत्वमपराह्नं विना सम्भवतीति, परमपराहे प्रतिष्ठादिलग्नग्रहणव्यवहारः प्रायो न दृश्यते, विवाहलग्नं स्वपराह्ने गृह्णन्तः क्वचिद् रश्यन्तेऽपि, तदत्र वृद्धाः प्रमाणम् ॥
जीर्णः शुक्रोऽहानि पञ्च प्रतीच्यां, प्राच्यां बालस्त्रीण्यहानीह हेयः। त्रिघ्नान्येवं तानि दिग्वैपरीत्ये,
पक्षं जीवोऽन्ये तु सप्ताहमाहुः ॥ ४ ॥ व्याख्या-जीर्ण इत्यनेनास्तसूचा अस्तेच्छुः सन्नित्यर्थः । बाल इत्यनेनोदयसूचा नवोदितः सन्नित्यर्थः । विनानीति त्रिगुणानि पञ्चदश दिनानि नव वेत्यर्थः । एवमिति जीर्णो बालश्च क्रमात् । दिग्वैपरीत्य इति, यदि प्राच्यामस्तेच्छुः प्रतीच्यां चोद्गत इति, तदयं पिण्डार्थ:-प्राच्यामुदित शुक्रो बालत्वास्म्यहं त्याज्यः, प्रतीच्यां तु नव दिनानि । प्राच्यामस्तेच्छुः सन् स वृद्धत्वात्
पक्षं त्याज्य:, प्रतीच्यां तु पञ्चाहं । पक्षं जीव इति । गुरुस्तु नवोदितत्वे बालोऽस्ताभिमुखत्वे वृद्धश्च पक्षमेव त्याज्यः । “गुरुरपि व्यहं बालः पञ्चाहं वृद्ध" इत्येके । गुरोस्तु पूर्वास्तपश्चिमोदयौ न स्त: । अन्ये तु (त्विति) सप्ताद्या उभयोर्गुरुशुक्रयोरुभयोरपि दिशोरुदयेऽस्ते च बाल्यं वार्द्धकं च, सप्ताहमेवाहुः । अनयोबाल्ये वार्धके च सति लग्नं न ग्राह्यमिति तात्पर्य । "इयं च बाल्यवार्धककल्पना निर्बलत्वरूपतत्फलज्ञप्त्यर्थमेव कृता, न तु तात्त्विकीति रत्नमालाभाष्ये' । विशेषस्तु" अरिगयनीए वक्त अत्थमिए लग्गरासि निसिनाहे।
अबले रविगुरुसुक्क सामि अदिट्ठ चयह लग्गं ॥ १ . " एते सर्वत्र भङ्गदा लग्नदोषाः ॥
आ. सि. १७. ॥ इति विलमद्वारम् ॥ १० ॥
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पञ्चमो विमर्श
॥ अथ मिश्र द्वारम् ॥ ११ ॥
अथ मिश्र द्वारं वदन्नादौ तावल्लग्नग्रहणे ग्रहगोचरशुद्धिमाह - लग्ने गुरोर्वरस्याथ ग्राह्यं चान्द्रबलं बुधैः । शिष्यस्थापककन्यानां जीवेन्द्वर्कबलानि च ॥ ५ ॥
व्याख्या - लग्ने इति लग्नसमये । गुरोरिति दीक्षाप्रतिष्ठालग्नयोर्गुरो:, विवाहलग्ने तु वरस्य । चान्द्रबलमिति प्रागुक्तविधिना राशिगोचर १ नवांशगोचरा २ ष्टवर्गशुद्धि ३ शुभतारा ४ शुभावस्था ५ वामवेध ६ शुक्लेतरपक्षप्रारम्भ ७ मित्राधिमित्रगृहस्थिति ८ सौम्यगृहस्थिति ९ मित्राधिमित्रांश स्थिति सौम्यांशस्थिति ११ मित्राधिमित्रग्रहयुति १२ सौम्यग्रहयुति १३ मित्राधिमित्रग्रहदृष्टि १४ सौम्यग्रहदृष्टि १५ प्रकाराणामन्यतरे ( मे ) णापि प्रकारेण चन्द्रामुकूल्यबलं ग्राह्यमेव । यदुक्तं
१०
२०१
" सर्वत्रामृतरश्मेर्बलं प्रकल्प्यान्यखेटजं पश्चात् ।
"
चिन्त्यं यतः शशाङ्के बलिनि समस्ता ग्रहाः सबलाः ॥ १ ॥ शिष्येति शिष्यो दीक्षणीयः पदे स्थाप्यमानो वा, स्थापको यः श्राद्धादिव्यं व्ययति । जीवेन्द्रकेति एतान्यवश्यब्राह्माणि । यदुक्तं - रविशशिजीवैः सबलैः शुभदः स्याद्गोचर... इति । ग्रहाणां बलतारतम्यादिविभागश्चैवम् —
"
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66
पूर्ण २० खेटाष्टकबलमूनं पादेन १५ गोचरं प्रोक्तम् । वेधोत्थमर्द्धमानं १० पादबलं ५ दृष्टितः खेचरे ॥ १ ॥
"
इदं सामान्येन सर्वग्रहानाश्रित्योक्तं । चन्द्रस्य तु विशिष्याह"पणाङ्के गोचरबल १ मटक २ तारोत्थ ३ वेध ४ पक्षभवम् ५ । क्रमशस्तारा १ वेधज २ पक्षभवानी ३ह गौणानि ॥ २ ॥” क्रमश इति एतानि बलानि यथोत्तरं न्यून
न्यूनतर २ न्यूनतमानि
३ । आद्यबलयोस्तु स्वरूपमाह
(6 ग्रहगोचरा १ व २ तुल्यबलौ शुद्धिकारणादनयोः । एकेनापि बलेन प्राप्तेन भवेत्सुशुद्धिरिह ॥ ३ ॥ चेद्गोचरान हि भवेत्तदाऽष्टवर्गाद्विलोक्यते शुद्धिः । गोचरतोsट्रकवर्गो बलवानुद्रादीक्षादौ ॥ ४ ॥
तस्मादष्टकशुद्धिर्गुरोर्विलोक्या रवेश्च चन्द्रस्य ।
निधना ८ न्त्या १२ म्बु ४ गतेष्वपि रेखाधिक्यात्सुशुद्धिः स्यात् ॥ ५ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
समशुद्धिरपि श्रेष्ठा शुद्धिपतेर्यदि भवेच्छुभा रेखा । शुद्धोशस्य न रेखा यदा तदा षड्विधादिवीर्यवतः ॥ ६ ॥ मित्रग्रहस्य रेखा समरेखां शुद्धिमुत्तमां कुरुते ।
तामन्तरेण मुनिभिने हधिकाऽपि प्रशस्यते रेखा ॥ ७ ॥ समशुद्धयामष्टकतः शुद्धिपते रेखिकामृते वेधात् । शुभदे ग्रहे सति शुभा शुद्धिः स्यात् प्रोच्यते विबुधैः ॥ ८ ॥ तथा-- नवमद्विपञ्चमगतः समरेखोऽप्यधिकशुभफलः सूर्यः । सङ्क्रमकालेन्दुबलात् समोऽपि सर्वत्र शुभदोऽर्कः ॥ ९ ॥ तथा
दशमादूर्व केवललग्नबलेन स्त्रिया विवाहः स्यात् ।। शुद्धि वालोक्या रवीज्ययोः पूजयोद्वाहः ॥ १० ॥"
अत्र दशमादिति वर्षादिति शेषः । इतीदं सर्च व्यवहारप्रकाशे। "जन्मद्विपञ्चनवमानगः खरांशुः, पूजां च वाञ्छति न चाष्टचतुर्व्ययस्थः । जीवस्त्रिजन्मदशमारिगतस्तु पूजामिच्छेत्कदाचिदपि नाष्टचतुर्व्ययस्थः॥१॥"
_इति तु व्यवहारसारे ।
अन न चेति यत्रस्थः पूजां नेच्छति तत्रात्यन्तमशुभत्वात् पूजयाऽप्यनुकूलो न स्यादिति भावः । गर्गस्त्वाह-" गोचरविरुद्धे जीवे वैधव्यमेव, पूजा त्वप्रमाणं " || अथोक्तशेषां मास शुद्धिं दिननक्षत्रशुद्धी चैकश्लोकेनाहज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे मासि स्यात्पाणिपीडनम् । न पुनस्त्रयमप्येतन्मासाहर्भेषु जन्मनः ॥ ६ ॥
व्याख्या-ज्येष्ठापत्यस्य पुत्रस्य पुन्या वा पाणिपीडनमिति उपलक्षणमिदं शेषकार्याणां । यदुक्तं हर्षप्रकाशे-“ सुहकजे वजे सम्वहिं पि जिस्स जिटुंति " । सप्तर्षयस्त्वाहुः" ज्येष्ठे न ज्येष्ठयोः कार्य नृनार्योः पाणिपीडनम् । तयोरेकतमे (रे) ज्येष्ठे ज्येष्ठेऽपि न विरुध्यते ॥ १॥".
त्रयमिति दीक्षाप्रतिष्टोद्वाहरूपं । मासाहभैब्विति जन्मसम्बन्धिनि मासे दिने मे चोद्वाहादि त्याज्यं । इह चोद्वाहे वरकन्ययो,र्दीक्षायां शिष्यस्य, प्रतिठायां च शिष्यस्थापकयोरिति स्वयमूहं । केऽप्याहुः-पक्षो यद्यपरस्तदा जन्म. मासोऽपि न विरुद्धः । जन्मतिथिरपि दिनरात्रिभागपरावर्तेनाविरुद्धा। जन्मभमपि राशिपार्थक्ये भव्यमेव । उक्तञ्च - "जन्ममासि विपरीतपक्षयोयत्यये दिननिशोर्जनुस्तिथौ । जन्मभेऽपि किल राशिभेदतः, पाणिपीडनविधिर्न दुष्यति ॥१॥"
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पञ्चमो विमर्शः
२०३
इति व्यवहारसारे । एकपक्षेऽपि वाऽनया रीत्या जन्ममासोऽपि न बिरुद्धः । तथाहि शुक्लपञ्चम्यां कार्यचिकीर्षाऽस्ति शुक्लाष्टमी च जन्मतिथिरित्थं न दोषः, यतस्तस्य पुंसः किल शुक्लाष्टमीत एवं जन्ममासप्रारम्भः, शुक्ल पञ्चमी तश्वतोऽपरमासस्थैवेति, विपर्यये तु जन्ममासदोषो लागत्येवेति ज्योतिर्ज्ञाः । व्यवहारप्रकाशे तूक्तं - " बलिनि शुभग्रहे केन्द्रस्थे सति जन्मममपि न दुष्टं । तथाहि
""
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नो जन्मभं च कार्य बलिनि शुभं केन्द्रगे सौम्ये......' दिनशुद्धिं पृथगाह
सादिमं ग्रहणस्याहः सप्ताहं च तदग्रतः, त्यजेत्रिंशांशमेकैकं प्राक् पश्चाच्चापि सङ्क्रमात् ॥ ७ ॥
व्याख्या - सादिममिति चतुर्दशीसहितं । केचित्रयोदशीमपि वर्जयन्ति । पठन्ति च- " त्रयोदशीतो दशाहं सूर्येन्दुग्रहणे त्यजेत्...' सप्ताहं चेति सामान्योक्तेऽप्ययं विशेषो दृश्यः
" सर्वग्रस्तेषु सप्ताहं पञ्चाहं स्याद्दग्रहे । त्रिद्वयेकागुलग्रासे दिनत्रयं विवर्जयेत् ॥ १ ॥ " इत्यङ्गिराः । विशेषस्तु -
"राहो दृष्टे शुभं कर्म वर्जयेद्दिवसाष्टकम् | त्यक्त्वा वेतालसंसिद्धिं पापदंभमयं तथा ॥ १ ॥” इति दैवज्ञवल्लभे । त्रिशांशमिति सङ्क्रान्तिमासस्य त्रिंशत्तमं भागं सामान्येन दिनमित्यर्थः । सङ्क्रान्तिदिनात् पुरः पृष्ठे चैकैकं दिनं सङ्क्रान्तिदिनं चेति दिनत्रयमित्यर्थः । हरिभद्रसूरिभिरप्युक्तं - " संकंतीय पुव्वं संकेतिदिणं तयग्गिमं च दिणं, वजिज्जंति.... ." नारचन्द्रेऽपि -
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I
"
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त्यज सङ्क्रमवासरं पुनः सह पूर्वेण च पश्चिमेन च
.. इति ॥
एकान्तिकार्ये तु दिनत्रयस्य त्यक्तुमशक्यत्वे प्राक् पश्चात् षोडशावश्यं त्याज्या नाड्योऽर्कसङ्क्रमात् इत्यपि बहूनां मतम् ॥
।
भद्रार्धयामगण्डान्तकुलिकोत्पातदूषितम् दिनं तपसि कां च स्थापने च कुजं त्यजेत् ॥ ८ ॥ व्याख्या—भद्रेत्यादि भद्राद्यैः किलासाध्यदोषैर्लनमपि हन्यते, यदुक्तं— गण्डान्तेषु सवैधृतावुभयतः सङ्क्रान्तियामद्वये, यामार्धव्यतिपातवि प्रिकुलिकैर्भग्नं विलग्नं जगुः । इति विवाहवृन्दावने । उत्पाता भौमादिभेदाः प्राग्वर्णिताः । सारङ्गस्तुस्पातेषु पञ्चाहं त्याज्यमाह, तथाहि ८
"
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२०४
आरम्भ-सिद्धिः
" निर्घातोल्कामहीकम्पग्रहभेदादिदर्शने ।
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आपञ्चवासरादूढा नाशमाप्नोति कन्यका ॥ १ ॥ तथा--- " दंपत्योः सह मरणं पाणिग्रहणोदिते केतौ. दीक्षायां राका त्याज्या, न तु प्रतिष्ठायां । यन्नारचन्द्र:
"
" त्र्येकद्वितीयपञ्चमदिनानि पक्षद्वयेऽपि शस्तानि । शुक्लेऽन्तिमत्रयोदशमान्यपि च प्रतिष्ठायाम् ॥ १ ॥ " तेजस्विनी १ क्षेमकृ २ दग्निदाहविधायिनी ३ स्याद्वरदा ४ दृढा च ५ । आनन्दकृ६त्कल्प निवासिनीच, सूर्यादिवारेषु भवेत्प्रतिष्ठा ॥ १ ॥
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इति रत्नमालायां । अत्र तेजस्विनीति रविवारे कृता प्रतिष्ठा प्रतिमायास्तेजो वर्धयति कारयितुश्च । कल्पनिवासिनीति आचन्द्रार्कस्थायिनी । रज्यादीनां लभेषु षड्वर्गेऽपि च प्रतिष्ठायामेवमेव फलमूझमिति रत्नमालाभाष्ये । स्थापने चेति चकाराद्दीक्षोद्वाहराज्याभिषेकादिष्वपि कुजवारस्त्याज्यः । यदुक्तं यतिवल्लभे
" राजाभिषेके विवाहे सत्क्रियासु च दीक्षणे । धर्मार्थकामकार्ये च शुभा वाराः कुजं विना ॥ १ ॥
"
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सङ्कीर्णानां प्रशंसन्ति दारकर्म न संशयः ॥ १ ॥ इति दैवज्ञवल्लभे || भनियममाह
श्रीपतिना तूाहे रविकुजशनिवारा दारिद्र्यदौर्भाग्यदाः, सोमवारस्तु सपत्नीप्रद इत्युक्तं । विशेषस्तु -
" कृष्णपक्षे निषिद्धेषु वारधिष्ण्यक्षणादिषु ।
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। तपसि
उद्वाहे मृगपैत्र प्रतिष्ठायां तु ते उभे । आदित्यपुष्यश्रवणधनिष्ठाभिः ममं शुभे ॥ ९ ॥ व्याख्या - प्रतिष्ठायामिति प्रस्तावाजैन बिम्बादेः, देवतान्तरादीनां प्रतिष्ठासु तु भान्येवं रत्नमालाया मूचिरेरोहिण्युत्तरपौष्णवैष्णवकरादित्याश्विनी वासवानुराधैन्दवजीवमेषु गदितं विष्णोः प्रतिष्ठापनम् ।
पुष्यश्रुत्यभिजित्सु चेश्वरकयोर्वित्ताधिपस्कन्दयोमैत्रे तिग्मरुचेः करे निर्ऋतिमे दुर्गादिकानां शुभम् ॥ १ ॥
""
ईश्वरकयोरिति 'को' ब्रह्मा । तिग्मरुचेः करे इति सङ्क्षेपोऽयं विस्तरस्त्वेवं भीमपराक्रमग्रन्थे उक्तः -
"
" भगधिष्ण्यचतुष्केण मैत्राहिर्बुनपूषभैः । सपुनर्वसुभिः कुर्यात् प्रतिष्ठामुष्णरोचिषः ॥ १ ॥
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पचमो विमर्श
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दुर्गादिकानामिति आदेर्भूतयक्षगणसर्पादिग्रहणं । तथा" गणपरिवृढरक्षोयक्षभूतासुराणां, प्रथमफणिसरस्वत्यादिकानां च पोष्णे। श्रवसि सुगतनाम्नो वासवे लोकपानां, निगदितमखिलानां स्थापनं च स्थिरेषु ॥ २॥"
भन्नाखिलानामिति उक्तशेषाणामिन्द्रादीनां स्थिरेषु ध्रुवमेषु । तथा"सप्तर्षयो यत्र चरन्ति धिष्ण्ये, कार्या प्रतिष्ठा खलु तत्र तेषाम् । श्रीव्यासवाल्मीकिघटोद्भवानां, तथा स्मृता वाक्पतिमे ग्रहाणाम् ॥३॥"
भत्र सप्तर्षयो यत्रेत्यस्यायं भाव:" आसन्मघासु मुनयः शासति राज्यं युधिष्ठिरे नृपती । पद्विकपञ्चद्वि२५२६मितः शककालस्तस्य राशश्च ॥ १॥ एकैकस्मिन् धिष्ण्ये शतं शतं ते चरन्ति वर्षाणाम् । प्रागुत्तरतश्चैते सदोदयन्ते ससाध्वीकाः ॥ २॥"
अत्र आसन्मघास्विति युधिष्ठिरराज्यसमये सप्तर्षयो मघायामभूवन् । तदनु पद्विशत्यधिकपञ्चविंशतिवर्षशतैर्गतैः शककालो लमः, एकैकमे च वर्षशतमेषां स्थितिा, भतः शकादौ ते पुष्येऽभूवनित्यागतं । एषामुदयव्यवस्था चैवं
" पूर्व भागे भगवान् मरीचिरपरे स्थितो वशिष्ठोऽस्मात् । तस्याङ्गिरास्ततोऽत्रिस्तस्यासन्नः पुलस्त्यश्च ॥ १ ॥ पुलहः क्रतुरिति भगवानासन्नानुक्रमेण पूर्वाद्याः ।
तत्र वशिष्ठं मुनिवरमुपस्थिताऽरुन्धती साध्वी ॥ २ ॥" - इदं सप्तर्षिस्वरूपं वाराहसंहितायां । श्रीग्यासेति यत्र मे सप्तर्षयवरम्ति तत्रैव मे श्रीग्यासादीनामपि प्रतिष्ठा कार्या। वापतिमे इति ग्रहाणां स्वस्खवारेतु पुण्यमे प्रतिष्ठा कार्या । तथा
" स्वतिथिक्षणनक्षत्रकरणेषु न्यसेन्सुरान् ।। वापोकूपतडागाद्यं न्यस्येद्वरुणदेवते ॥ १ ॥ अहिर्बुध्नाधिपे लेप्यमारामाद्यं तथाऽनिले ।
गृहस्थापनयोगा ये तानप्यत्र विचिन्तयेत् ॥ २॥" इति दैवज्ञवल्लभे। इदं देवतान्तरादिप्रतिष्ठादिस्वरूपं ज्योतिर्विदा सम्मतमिति प्रसङ्गादुक्कं ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
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दीक्षायां स्वाश्विनादित्यवारुणश्रुतयः शुभाः। त्रिषु मैत्रं करः स्वातिर्मूलः पौष्णध्रुवाणि च ॥१०॥ व्याख्या-दिनशुद्धयादिग्रन्थेषु तु पूर्वभद्रपदापुष्ययोरपि दीक्षोका । तथाहि" उत्तररोहिणिहत्थाणुराहसयभिसयपुचभहवया ।
मूलं पुणन्वसुरेवई पुस्सासिणि सवणसाइ वए ॥१॥" तथा" मृगचित्राधनिष्ठान्यमृदुक्षिप्रचरध्रुवैः ।
शिष्यस्य दीक्षण कार्य तथा मूलाजपादयोः ॥ १॥" त्रिध्विति प्रतिष्ठादीक्षोद्वाहेषु । ततश्चैवं भानां स्थापनाजैनप्रतिष्ठायां । रो । मृ । पुन । पु । म उ.फा । ह दीक्षायां अश्वि
। ह स्वा । अनु विवाहे
पुन
उ.फा उ.फा । ह ।
Fho ho
मृ ।
म
स्वा । अन
स्वा | भनु
मू
।
उ.षा
उ.भा
| मू । उ.षा उ.मा रे ।
विवाहमेषु विशेषमाहस्त्रियः प्रियत्वमुद्वाहे मूलाहिर्बुधवैश्वभैः। पौष्णब्राह्ममृगैः पुंसां मिथा शेषैस्तु पञ्चभिः ॥११॥
व्याख्या-प्रियस्वमिति न तथा पुमान् खियो वल्लभो यथा पुंसः सी वल्लभा इति सियाः सौभाग्यमित्यर्थः । प्राग भाधिकारे एषां मूलादित्रयाणामिग्दुना सह पश्चार्धयोगिस्वेनोः । पुंसामिति खिया: पुमान् वल्लभो न तु पुंसः बी तथा इति खिया न ताहक सौभाग्यमित्यर्थः, पोष्णादित्रयाणां पूर्वार्धयोगि
के । मिथ इति अन्योऽन्यं प्रियस्वं । पञ्चभिरिति मघो । तरफल्गुनी । हख ३ स्वात्य ४ नुराधाभिः ५, एषां पसभानां मध्ययोगिस्वात् । एषामेवैकादशभानां वैवाहिकस्वाच्छेषभानां न परिगणनं । अपि च" वल्लभः स्यानरो नार्या बलिभिः पुरुषग्रहः। स्त्रीग्रहैः पुरुषस्य स्त्री सर्वैः प्रेमोभयोरपि ॥ १॥" इति वैवज्ञवल्लभे ।
भत्र बलिभिरिति उद्वाहलग्ने इति शेषः ॥ वर्णकाचं विवाहः कुमार्या वरणं पुनः । खातिपूर्वा ३ नुराधाभिर्वैश्वत्रयहुताशमः ॥ १२ ॥
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पञ्चम विमर्शः
२०७ ग्याख्या-वर्णको भित्यादौ चित्रकर्म वधूवरयोर्वर्णकाक्यं मालकर्म वा आधमन्दाक्ष्यमाणश्लोकोक्तं कुसुम्भाधपि विवाहकृस्यं सर्व वैवाहिकमेष्वेव कार्यम् ॥
लग्नादर्वाग्न कुर्वीत त्रिषष्ठनवमे दिने । कुसुम्भमण्डपारम्भवेदीवर्ण-यवारकान् ॥ १३ ॥
व्याख्या--लमादिति लग्नदिनात् । यवारकानिति उपलक्षणस्वात् कन्यावरणाद्यपि लग्नादाक् विषष्ठनवमदिनेषु न कुर्यात् ॥
नान्ये प्रतिष्ठां जन्मः दशमे षोडशे च मे ।
अष्टादशे त्रयोविंशे पञ्चविंशे च मन्यते ॥ १४ ॥ ग्याख्या-जन्मः इति प्रतिष्ठाप्यस्य प्रतिष्ठाकारयितुश्च जन्ममे तदपरिज्ञाने नाममे वा, तस्माद्दशमादिषु च भेषु प्रतिष्ठा न कार्या । श्रीहरिभद्रसरिभिस्स्वेवमूचे
" कारावयस्स जम्मण रिक्खं दस सोलसं तहठारं ।
तेवीस पंचवीसं बिम्बपइट्टाइ वजिज्जा ॥ १ ॥" विशेषतस्तु एषां भानां संज्ञा इमाः" जन्माचं दशमं कर्म सङ्घातं षोडशं पुनः ।
अष्टादश समुदयं त्रयोविंशं विनाशभम् ॥ १ ॥ मानसं पञ्चविंशं भमिति षड्भोऽखिलः पुमान् ।
जातिदेशाभिषेकैश्च नव धिष्ण्यानि भूपतेः ॥ २॥" तत्र जातिधिष्ण्यान्येवम्" विप्राणां कृत्तिकापूर्वा३ राज्ञां पुष्यस्तथोत्तराः३ । सेवकानां धनिष्ठेन्द्रचित्रामृगशिरांसि च ॥ १ ॥ उग्राणां भानि वायव्यमूलाशिततारकाः । कर्षकाणां मघाः पौष्णमनुराधाविरचिभम् ॥ २ ॥ वणिजामश्विनी हस्तोऽमिजितादित्यमेव च। चण्डालानां श्रुतिः सार्प यमदेवं द्विदैवतम् ॥ ३॥"
देशभानि तु यथा पाचके । राज्याभिषेकभं स्वमिषेकक्ष । ननु जन्म. आदीनां त्यागः कस्मात् क्रियते ? उच्यते-प्रायो भानि क्रूरग्रहाद्यैः पीबन्ते, यदि चेपुंसो जन्मादीनि प्रतिष्ठादिष्वधिक्रियन्ते तदा तेषु क्रूरग्रहायैः पीडितेषु सत्सु तस्य पुंसोऽनिष्टं स्यात्, यदि तु नाधिक्रियन्ते तदा तानि पीडि तान्यपि नानिफलं दातुमलं । कथमेवमिति चेदुच्यते यथा"विलग्नस्थोऽष्टमो राशिर्जन्मलग्नात् सजन्मभात् । न शुभः सर्वकार्येषु लग्नाश्चन्द्रस्तथाष्टमोः ॥१॥" इत्यादि दैवज्ञवल्लमे ।
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आरम्भ-सिद्धिः
एवंविधाच लग्नादियोगा बहुशोऽपि मिलन्ति, न च किमप्यनिष्टफल रघुः । यदि तु यात्रादिष्वधिक्रियन्ते तदाऽनिष्टफलदाः प्रायः स्युरेव, तथाऽत्रापि अम्मादीनां पीडा, तत्फलं चैवं" केत्वर्काकिभिराकान्तं भौमवक्रभिदाहतम् ।
उल्काग्रहणदग्धं च नवधाऽपि न भं शुभम् ॥ १॥ ततश्च" देहविनाशो जन्मक्षपीडने कर्मणश्च कर्मः ।।
उत्सवबान्धवनाशी समुदयसङ्घातयोहतयोः ॥ २ ॥ स्वतनुविनाशो वैनाशिके हते मानसे मनस्तापः । कुलदेशस्त्रीनाशो जातिभदेशाभिषेकेषु ॥ ३ ॥ राज्याभिषेकदिवसेऽभिषेकधिष्ण्यं च देशनक्षत्रम् । पद्मविभागे शेयं प्रादक्षिण्येन भूमध्यात् ॥४॥" पद्मचक्रस्थापना चैवम्"कर्णिकाष्टदलैराढये पझे नाभौ दलेषु च । प्राध्यादिस्थेषु भानीह न्यस्याग्निभत्रयादितः ॥ ५ ॥” तथाहि
पाचक-स्थापना
ततश्च-" त्रितयैराग्नेयाद्यैः क्रूर ग्रहपीडितैः क्रमेण नृपाः ।
पाश्चालो मागधिका२ कालिङ्गश्च३ क्षयं यान्ति ॥६॥ आवन्त्यो ऽथानों५ मृत्युं चायाति सिन्धुसौवीरः६ ।। राजा च हारहूरो ७ मद्रेशो८ ऽन्यश्च कौणिन्दः९ ॥ ७ ॥"
मन्त्र क्षयं यान्तीति एषां देशानां कणिकायां पूर्वाग्नेय्याद्यष्टदिकपत्रेषु च स्थितत्वादिति भावः । दिङ्मानं चेदं देशेशानां नामपरिगणनं, तेन नवखण्डकल्पितोव्यां यत्र खण्डे ये ये देशाः स्थिताः स्युस्ते ते देशास्तत्तनेषु पीडितेषु पीच्यन्ते इत्यूचं । नरपतिजयचर्यायां तु पद्मस्थाने कूर्मस्थापनयाऽयमेवार्थों वर्षिणतः । अन्ये जन्मभवदेकोनविंशमाधानभमपि क्रूरग्रहपीडितस्वे सति प्रवासदायित्वाद्वर्जयन्ति । सर्वमिदं लल्लकृते रत्नकोशे ॥
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पञ्चमो विमर्श
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तस्य दौष्टये सति नवांशशुद्धमपि लग्नमशुद्धमेवेति सप्तयुक्तेर्य थोक्तभानां दोषप्रकार माहक्रूरेण मुक्तमाक्रान्तं भोग्यं ग्रहणभं तथा ।
दुष्टं ग्रहोदयास्ताभ्यां ग्रहैर्भिन्नं च मं त्यजेत् ॥ १५ ॥
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व्याख्या--: - क्रूरेणेति क्रूरत्वमत्र स्वाभाविकं ग्राह्यं, न त्वौपाधिकं, यथा क्षीणत्वेनेन्दोः पापयुतत्वेन बुधस्य चेति । ततोऽयमर्थः - यद्मं क्रूरेण रविकुजशनिराह्वन्यतरेण भुक्त्वा मुक्तं, आक्रान्तं तेनैव भुज्यमानं, भोग्यं तु तदनन्तरमेव भोक्ष्यमाणं । एषां फलानि त्वेवं
"क्रूराश्रितक्रूरविमुक्तक्रूरगन्तव्यधिष्ण्येषु कुमारिकाणाम् ।
' वदन्ति पाणिग्रहणे मुनीन्द्रा, वैधव्यमन्दैस्त्रिभिरत्रिमुख्याः ॥ १ ॥" इति. सारङ्गः । अन्ये त्वाहु:
भुक्तं भोग्यं च नो त्याज्यं सर्वकर्मसु सिद्धिदम् । यत्नात्त्याज्यं तु सत्कार्ये नक्षत्रं राहुसंयुतम् ॥ १ ॥ ग्रहणभमिति यत्र दिनभेऽर्केन्द्वोर्ग्रहणं जातं । ग्रहोदयेति यत्र दिनभे ग्रहा उदयमस्तमयं वाऽकार्षुः । आगमे च वक्रिग्रहाक्रान्तमपि भं त्याज्यमूचे, तथाहि
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आरम्भ-सिद्धिः
"विड्डरमवहारिअ " अत्रापद्वारितं वक्रिप्रहाक्रान्तमित्यर्थः । प्रहैर्भिन्नमिति भौमायाः पञ्च ताराग्रहा यस्य कृत्तिकारोहिण्यादेर्मध्येन भित्त्वा ययुस्तद्ग्रहभिनं । उक्त लग्नशुद्धौ - ''मज्झेण गहो जस्स उ गच्छह तं होइ गहभिन्नं । 33 नारचन्द्र टिप्पनके त्वेवं-यत्र ग्रहाणां वामदक्षिणा दृक् पतेत्तद्ग्रहभिनं दृग्ज्ञानायात्र सप्तरेखचक्रवत्कृत्तिकादिसप्तसप्तभानां चतुर्दिक्षु स्थापना यथा (पृ. २०९ ) - ततश्च -- " यस्मिन् धिष्ण्ये स्थितः खेटस्ततो वेधत्रयं भवेत् । ग्रहदृष्टिप्रभावेण वामदक्षिणसम्मुखम् ॥ १ ॥ वगे दक्षिणा दृष्टिर्वामदृष्टिश्च शीघ्रगे । भौमादिपञ्चकस्य स्यान्मध्यदृष्टिश्च मध्यमे ॥ २ ॥ राहुकेतू सदा वक्रौ, सदा शीघ्रौ विधूष्णगू | क्रूरा वक्रा महाक्रूराः सौम्या वक्रा महाशुभाः ॥ ३ ॥ "वेधद्वयं भजति धिष्ण्यमिभारिदंष्ट्रा संस्थानदिग्द्वयगतोडुगतग्रहाभ्याम् । एकं तथाऽभिमुखसंस्थितमध्य नासापर्य्यन्तभागधृतधिष्ण्यगतग्रहेण ||४|| " इति नरपतिजयचर्यायां ।
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उदाहरणं यथा—मृगशीर्षे कार्यचिकीर्षा, चित्रायां च कश्चिद्धौमादिसप्तकान्यतमो वक्री ग्रहः स्यात्तदा तस्य वक्रगतित्वेन दक्षिणा हम्मृगशीर्षे पतिता । रेवत्यां चार्कादिसप्तकान्यतमः कश्चिदतिचारी ग्रहः स्यात्तदा तस्य शीघ्रगतित्वेन वामा दृगित्युभयतो ग्रहडपातात्तदा मृगशीर्षं ग्रहभिन्नं स्यात् । उत्तराषाढायां च भौमादिपञ्चानां मध्ये कश्चिन्मध्यगतिर्ग्रहः स्यात्तदा सम्मुखशा तृतीयस्तद्वेधोऽपि । एवमन्यत्रापि भाव्यं । परमेष तृतीयो वेधो वेधेनैकार्गलेत्यस्मिन् लोकेऽधिकरिष्यते, शेषाभ्यां स्वत्राधिकारः ॥ अशुद्धभानां शुद्ध्युपायमाहधिष्ण्यं कार्याय पर्याप्तं चन्द्रभोगाद्रहाहतम् । शुद्धं षड्भिर्भवेन्मासैरुपरागपराहतम् ॥ १६ ॥
व्याख्या - पर्याप्तमिति योग्यं भवेदिति सण्टङ्कः । महाहवमिति क्रूरप्रहेण विमुक्काक्रान्तभोग्यत्वेन प्रहैरुदयास्त करणेन वक्रिग्रहाक्रान्तत्वादिना वाटूषितं । चन्द्रभोगादिति ग्रहकृतदोषापगमादनु यदि चन्द्रेण भुक्तं स्यात्तदाऽऽदरणीयमित्यर्थः । यदाह वराहः
" दोषैर्मुक्तं यदा विष्ण्यं पश्चाचन्द्रेण संयुतम् । ततः पश्चाद्विशुद्धं स्यान्नान्यथा शुभदं भवेत् १ ॥ "" " तत्सूर्येन्वोर्भेौगात्कर्मण्यत्वं प्रयाति भूयोऽपि । धियं कर्मसु शुद्धं तापनिषेकात्सुवर्णमिव ॥ १ ॥ १
"
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पञ्चम विमर्श:
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अत्र सूर्येन्द्वोर्भोगादिति सूर्येण ताप्यते पश्चाच्चन्द्रेण निव्र्वाप्यते इत्यर्थः । उपरागोन्द्वोर्ग्रहणं (तेन) पराहतं दूषितं ग्रहण भमित्यर्थः, तत् षण्मा साँस्त्याज्यं । यावचा भुङ्क्ते तावन्याज्यमित्यन्ये । विशेषस्तु -
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पक्षान्तरेण ग्रहणद्वयं स्याद्यदा तदाद्यग्रहणोपगं भम् ।
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पक्षाद्विशुद्धं भवति द्वितीयग्रहोपगं शुध्यति मासषदकात् ॥ १ ॥ सप्तर्षयः । भे केतोरुदयः स्यात्तत्रैव षण्मासान् केतुरिति तदपि षण्मासस्त्याज्यं । यस्मिन् दिनभे ताराग्रहयो भौमादिपञ्चकान्यतरयोर्मिथो मेदनं स्यात्तदपि मं षण्मासाहत्याज्यं । उक्तञ्च विवाहवृन्दावने - " यस्मिन् धिष्ण्ये वीक्षितौ राहुकेतू, भेदस्ताराखेटयोर्यत्र च स्यात् । आषण्मासांस्तत्र लग्नेन्दुभाजि,
भ्राजिष्णु स्यानो शुभं कर्म किञ्चित् ॥ १ ॥
दिनभेऽर्केन्द्वोर्ग्रहणं स्यात्तत्र राहुर्वीक्षित इत्युच्यते, यत्र भे केतोरुदयः स्यात्तत्र केतुर्वीक्षितः कथ्यते । ननु कथं केतूयभं ज्ञायते इति चेदुच्यते" मेषेऽर्के सति रेवत्यां यदि याति विधुन्तुदः । भाद्रमासोत्तरार्धे स्यात् पुष्ये केतूदयस्तदा ॥ १ ॥ सूर्ये वृपस्थितेऽश्विन्यां यदि याति विधुन्तुदः । आश्विनस्योत्तरार्धे तद्रोहिण्यां केतुरीक्ष्यते ॥ २ ॥ भरणीमिथुनस्थेऽर्के यदि याति विधुंतुदः । कार्तिकस्योत्तरार्धे तदार्द्रायां केतुदर्शनम् ॥ ३ ॥ कर्कस्थेऽर्के कृत्तिकायां यदि याति विधुंतुदः । मार्गशीर्षापरार्धे तत्केतूदयः पुनर्वसौ ॥ ४ ॥ सिंहेsh सति रोहिण्यां यदि याति विधुन्तुदः । पौषमासापराधे तदश्लेषायां शिखीक्ष्यते ॥ ५ ॥ कन्यास्थेऽर्के मृगशीर्ष यदि याति विधुंतुदः । माघमासोत्तराधे तच्चित्रायां दृश्यते शिखीं ॥ ६ ॥ तुलार्के सति आर्द्रायां यदि याति विधुन्तुदः । फाल्गुनस्योत्तरार्धे स्यान्भूले केतूदयस्तदा ॥ ७ ॥ वृश्चिके के पुनर्वस्वोर्यदि याति विधुंतुदः । चैत्रमासोत्तरार्धे स्यात् स्वाती केतूदयस्तदा ॥ ८ ॥ धनुः स्थिते रवौ पुष्यं यदि याति विधुंतुदः । वैशाखस्योत्तरार्धे स्यान्मूले केतूदयस्तदा ॥ ९ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
अश्लेषां मकरस्थेऽर्के यदि याति विधंतुदः ।। ज्येष्ठमासोत्तरार्द्ध तज्ज्येष्ठायां दृश्यते शिखी ॥ १० ॥ कुम्भस्थेऽर्के मघा धिष्ण्यं यदि याति विधंतदः । आषाढमासोत्तरार्धे श्रुतौ केतूदयस्तदा ॥ ११ ॥ मीनेऽऽपरफल्गुन्यां यदि याति विधुतुदः । श्रावणस्योत्तरार्धे तद्वारुणे दृश्यते शिखी ॥ १२ ॥"
इदं त्रिविक्रमशतकटीकायां । उल्कापातपरिवेषहतमपि भ षण्मासाँ स्त्याज्यमित्येके ॥
वेधेनकार्गलोत्पातपातलत्ताभिधैरपि । दोषैरुपग्रहाद्यैश्च नक्षत्रं दुष्टमुत्सृजेत् ॥ १७ ॥ व्याख्या-वेधेन सप्तरेखपञ्चरेखचक्राभ्यां वर्णितेन ! उत्पाता भौमाद्यास्ते यस्मिन् दिनभेऽभूवस्तगमुत्पातदूषितं । अपिशब्दाद्ग्रहयुद्धाद्यैरपि एतद्दोषदुष्टान्यपि च भानि तदोषापगमादनु चन्द्रभुक्त्या शुद्धानि स्युरिति रत्नभाष्ये ॥ वेलाशुद्धिमाहअर्केन्द्वोर्मुक्तांशकराशियुतौ क्रान्तिसाम्यनामायम् । चक्रदले व्यतिपातः पातश्चक्रे च वैधृतस्त्याज्यः॥१८॥
व्याख्या-स्फुटार्केन्द्वोः सायनयोर्भुक्तांशराशिमिलने राश्यङ्कस्थाने षटकं द्वादशकं वा यदि स्यात्तदा क्रान्ति साम्यसम्भवः, तद्वेला च त्याज्या, स च क्रान्तिसाग्यनामा दोषो यदि चक्रदले चक्रार्धे षडरूपे स्यात्तदाऽस्य व्यतिपात इत्याह्वा । यदि च चक्रे द्वादशरूपे स्यात्तदाऽस्य 'पात इति' 'वैश्त इति' चाहद्वयं । भथानेदं तत्त्वं-कान्तिसाम्यवेला तावन्नियता वक्तुं न पार्यते, प्रतिवर्ष तत्परावतभवनात् । तदुक्तं विवाह वृन्दावने"त्रिभागशेष ध्रुवनानि चैन्द्रत्र्यंशे गते सम्प्रति सम्भवोऽस्य" । इति तदनु च कैश्चिदूचे-" पूर्वार्धे पुनरैन्द्रस्य पश्चिमाधै भ्रवस्य च " इति । साम्प्रतं तु-" ब्रह्मणश्चरणे शेषे ध्रुवस्य चरणे गते ।
तत्सम्भव इत्याहुाः० ॥ " कोऽत्र प्रत्यय इति चेत्, उच्यते-एतद्वेलासत्कावन्दू राश्यंशादिरूपतया स्फुटीकृत्य तद्वर्षीयायनांशांस्तयोर्मध्ये क्षिप्त्वा पश्चात्तयोमियो मीलने चेद्राशीनां षट्कं द्वादशकं वा स्यात्तदा क्रान्तिसाम्यसम्भवोऽस्तीति ज्ञेयम् । तत्रापि विशेषःयदि निरुद्धमेव षटकं द्वादशकं वा स्यात्तदा तदानीयं क्रान्तिसाम्यम् । यदि तु किञ्चिदधिकं तत्तदा क्रान्तिसाम्यमतीतं । यदि तु किञ्चिन्न्यूनं तदाऽतः परं भावि । कियता कालेन प्राग भूतं भविष्यति वेति ज्ञातुमिच्छा चेत्स्यात्तदाsन्द्वोर्गती कलाविकलात्मिके स्पष्टीकृत्य मिथः सम्मील्य विकलारूपे कार्ये । तदनु
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२२३
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सायमार्केन्दुमीलने यत्किञ्चिदधिकषट्कद्वादशकरूपं राश्यंशादिजात्तमस्ति तम्माद्वाश्व त्यक्त्वा शेषस्य विकलाः कृत्वा तस्याङ्कस्य विकलारूपेण गत्यङ्केन भागो देयः, बलब्ध तद्दिनं, शेषं षष्टया सगुण्य पुनस्तेनैव भागे यल्लब्धं ता घञ्यः, तथैव पुनर्भागे लभ्यन्ते तानि फ्लानि । इमान्यतीतानि इयद्दिनघटीपलेभ्यः प्राक् क्रान्ति साम्यमतीतमित्यर्थः । यदि च षट्कं द्वादशकं वा किञ्चिदूनं तदा तत्सर्व षट्कद्वादशकामध्यात् पातयित्वा शेषस्य विकलाः कार्याः, तस्याङ्कस्य प्राग्वद् गतिविकलाङ्केन भागे यल्लब्धं तद्दिनं, पुनः प्राग्वद् गुणने भजने च लब्धं घटीपलानि, इतानि एष्याणि इयद्भिर्दिनघटीपलैर्गतः क्रान्तिसाभ्यं भविष्यतीत्यर्थः । यदि च प्रथमवारभजने भागो न प्राप्नोति तदा दिनस्थाने शून्यं क्रान्ति साम्यादर्वाग्दिनं गतमेष्यं वा नास्ति, किन्तु घटीपलाम्येव कियन्ति सन्ति । यदि च द्वितीयवारभजनेsपि भागो नाप्यते, तदा घटीस्थानेऽपि शून्यं, कोऽर्थः ? क्रान्तिसाम्यादर्वाक् घट्योsपि गता एस्या वा न सन्ति किं तु पलान्येव कियन्ति सन्तीत्यर्थः ॥ तत्र षट्कोदाहरणं यथा - संवत् १५१२ वर्षे वैशाख शुक्कदशम्यां १० गुरौ मघायां प्रातर्घटी १ पलानि४५ समये ध्रुवस्याद्यपादे गते सति क्रान्तिसाम्यं विचार्यते । तथाहि - तदानीं राइयंशकला विकलारूपः स्फुटोऽर्कः ०-१८-५०-२६, तद्वर्षे चायनांशाः १५ कला ३४ युताः सन्ति, तद्योजने सायनोऽर्कः १-४२४-२६ । रविगतिः स्फुटा कलाः ५७ विकलाः ५८ । तदा च स्फुटेन्दुः ४११-२-३० । अयनांशकला : १५ ( विकलाः ) ३४, योजने सायनेन्दुः ४ - २६-३६-३० । चन्द्रगतिः स्फुटा कलाः ७५० । सायनार्केन्दुमीलने जातं ६-१-०-५६ । अत्र क्रान्ति साम्यमतीतं, कियता कालेनेति ज्ञातुमंशा (शः ) वारद्वयं ष्टया सगुण्य विकलारूपः कृतः, ५६ विकलाक्षेपे (च) जातं ३६५६ । सूर्येन्दुगती अपि मीलयित्वा षष्टया ६० गुणने विकलाः कृताः, ५८ (विकला) क्षेपे जातं ४८४७८ । अनेन प्राक्तनाट्रस्य ३६५६ भजने भागो न लभ्यत इत्यतो दिनस्थाने शून्यं । ततः सोऽङ्कः ३६५६ षष्ट्या गुणने जातं २१९३६०, पश्चात्ते. नाङ्केन ४८४७८ भागे लब्धं घटी ४ । शेषं षष्टया सगुण्य पुनस्तेनैव भागे लब्धं ३१ फ्लानि, एतैर्घटी४ पलैः ३१ कान्तिसाम्यं प्रागतीतम् ॥
greestareरणं यथा - संवत् १५१३ वर्षे लौकिकवैशाखकृष्णाष्टम्यां भौमे धनिष्ठायां घ०१८ ५० ९४ समये ब्रह्मयोगस्यान्त्यपादे शेषे सति क्रान्तिसाम्यं विचार्यते । तथाहि तदानीं राइयादिरूपः स्फुटोऽर्कः १-०-४१-१३। अयनांश (१५-३४) क्षेपे सायनोऽर्क : १-१६-१५-१३ । रविगतिः स्फुटा क० ५७ वि० ३० । तदा च स्फुटेन्दुः ९-२९-१०-५३ सायने - ( १५-३४) न्दुस्तु १०- १४-४४-५३ | चन्द्रगतिः स्फुटा क० ८४२ वि० ६ । सायनाके
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आरम्भ-सिद्धिः
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ग्दुमीलने जातं .-1-०-६ । अत्रापि क्रान्तिसाम्यमतीतं, कियता कालेनेति ज्ञातुमत्रापि प्राग्वत् करणेण लब्धं घट्य:४, ४ घटीभ्यः प्राक् कान्तिसाम्यमती.. तम् । एवं किचिन्न्यूनषट्कद्वादशके एध्यस्यापि कान्तिसाम्यस्य पूर्वोक्तयुक्त्या एष्यदिनघटयाचानेयम् । ग्रहाणां तद्गतीनां च स्फुटीकरणविधिरने वक्ष्यते । इदं च स्थूलमानेन क्रान्तिसाम्यसम्भवस्थानमेव सूत्रकृतोक्तम् । अस्माभिरपि तदनुवत्तनया तदेव विवृतं । यस्तु सूक्ष्मक्षिकार्थी स्यात् , तथाहि-क्रान्तिसाम्यं कदा भवितुं प्रवृत्तं ? कियती वेलां भूत्वा कदा च समाप्तं ? क्रान्तिसाम्यशब्दस्य च कोऽन्वर्थः कथं च षट्कद्वादशकोत्पत्तावपि क्रान्तिसाम्यं न स्यात् ? कथं च पटकद्वादशकानुत्पत्तावपि क्रान्तिसाम्यं स्यादिति ? कथं च क्रान्तिसाम्यं सदापि दोषकारि न स्यात् ? इत्यादि, तेन करणकुतूहलभास्करसिद्धान्ताद्यन्वेष्यम् । ननु यदुक्तं भवद्भिः कान्तिसाम्यस्य स्थान प्रतिमासवर्ष परावर्तते इति, तझस्ति कापि तत्परावर्तस्थानसीमा यद्वा नास्ति ? उच्यते-अस्ति सीमा, तथाहि-- " गण्डोत्तरांर्धानुक्लादेः क्रान्तिसाम्यस्य सम्भवः ।। सार्धपञ्चसु योगेषु तत्च्यहं परिवर्जयेत् ॥ १ ॥"
अस्थार्थः-गण्डोत्तरार्धादारभ्य साधं योगपञ्चक यावत् क्रान्तिसाम्यशा। एवं शुक्लयोगस्यादेरारभ्य सार्धयोगपञ्चकावधि क्रान्तिसाम्यस्य शङ्का, तदनन्तरं तु न तच्छङ्कापीति खण्डखाद्यभाष्यादौ । एतेन-स्थानद्वयेऽपि साधं योगपञ्चकमेव क्रान्तिसाम्यस्य परावर्तनास्थानं, सार्धयोगपञ्चकं व्यतीत्य तु न कदापि यातं यास्यति वेत्यर्थः । तत्व्यहमिति, भस्यायं भावः-ब्रह्मान्त्यपादश्रुवाद्यपादरूपादुक्तस्थानतः पश्चादच्छत्क्रान्तिसाम्यं कदाचिद्गतदिने याति, अग्रतो गच्छच्च कदाचिदग्रेतनदिने यातीत्यतः क्रान्तिसाम्यसम्भवस्थानाङ्कितमेकं दिनं तत्पुरः पृष्ठे चैकैकमिति त्रिदिनी त्याज्या । अन्यथापि वा व्यहं त्याज्य । यदुतं" गत १ मेष्य २ द्वर्तमानं ३ सुख १ लक्ष्म्या २ युषां ३ क्रमात् । क्रान्तिसाम्यं सृजेद्धानि व्यहं तेनात्र वय॑ताम् ॥ १॥"
केचित्क्रान्तिसाम्याक्रान्तमे कमेव दिनं त्याज्यमाहुः । अन्ये तहिनेऽपि क्रान्तिसाम्यभवनसमयमेव त्याज्यमाहुः । पठन्ति च
"विषप्रदिग्धेनहतस्य पत्रिणा, मृगस्य मांसं सुखदं क्षताहते। . यथा तथैव व्यतिपातयोगे, क्षणोऽत्र वज्यों न तिथिन वारः ॥१॥"
क्रान्तिसाम्यस्म वेलायाखादात्विकं यथावत्परिमाणं च करणकुतूहलायुक्तविधिना निर्वामिति सूक्तमेव प्राक् । महादोषश्चैषः । यल्लल्लः" खड्गाहतोऽग्निना दग्धो नागदष्टोऽपि जीवति ।। क्रान्तिसाम्यकृतोद्वाहो म्रियते नात्र संशयः ॥१॥" भन्नावश्योद्धरणीयाष्टादशदोषसङ्ग्रहकाव्यं यथा---
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पश्चम विमर्शः
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६ स्युर्वेधः१ पात२ लत्ते३ ग्रहमलिनमुड४ क्रूरवारा५ ग्रहाणां जन्मदि विष्टि७ रर्धप्रहरक८ कुलिको९ पग्रह१० क्रान्त्य११ वस्थाः १२ । कोत्पातादि१३ घंटो१४विगतबलशशी१५ दुष्टयोगार्गलाख्या१६, गण्डान्तो१७दग्धरिक्ताप्रमुखतिथि१८रथो नामतोऽष्टादशैते ॥१॥"
भस्य विषमपदगमनिका-ग्रहेण मलिनं "करेण मुक्तमाकान्तं" इतिलोकोक्तदोषदुष्टं चन्द्रभुक्त्याऽद्याप्यसञ्जातशुद्धि च भं । क्रूरवारा. इति करहोरा अप्यन्त्र लक्ष्याः । ग्रहाणां जन्म: “भरचितुत्तरे" त्यायुक्तं "विशाखाकृत्तिके" त्यादिश्लोकोक्तञ्च । अर्धप्रहरकुलिकेति "यामार्द्धन भवेच्छोषः कुलिकेन तनुक्षयः" इति सारङ्गः । तथा"लग्नं पञ्चचतुर्वर्ग दुष्यते क्रूरहोरया। अपि षड्वर्गसंशुद्धं कुलिकेन विहन्यते ॥१॥” इतिरत्नमालाभाष्ये ।
अत्र कालवेलाकण्टकोपकुलिका अपि लक्ष्याः, तेन यथाशक्ति तेऽपि त्याज्याः । उपग्रहेति दुष्टरवियोगा अप्यत्र लक्ष्याः । क्रान्तीति अर्कसक्रान्ति: क्रान्तिसाम्यञ्च च । अवस्था दुष्टा इन्दोः प्रोषिताधाः । कर्कोत्पातादीति आदिशब्दाचे योगास्तिथिनक्षत्रसम्भववारप्रातिकूल्यरूपा मृत्युकाणसंवर्तकवज्रपातादयस्तेऽत्र सर्वेऽपि ग्राह्याः । घंटो यमघंटः सत्यभामा भामेतिवत् । अस्य पृथगणनमतिदौष्टयज्ञप्त्यर्थम् । यल्लल्लः
" यमघण्टे गते मृत्युः कुलोच्छेदः करग्रहे। __ कर्तुमत्युः प्रतिष्ठायां शिशुजर्जातो न जीवति ॥ १ ॥"
विगतबलशशीति, अन्न गोचरादिविरुद्धोऽपीन्दुः, कृष्णपक्षे विरुद्धतारा चोया । दुष्टयोगा विष्कम्भाद्याः । अर्गल एकार्गलः, स च विष्कम्भादिकुयो गनान्तरीयकत्वात्तत्सम्मिलित एव पेठे । गण्डान्त इति, अन तिथ्यादिसन्धिदो. षोऽपि विवाहवृन्दावनायुक्तो लक्ष्यः । प्रमुखेत्यनेन पक्षच्छिद्रक्रूरतिथ्यवमफल्गुतिथिग्रहः । यत्सारङ्गः
" सूर्योदये यथा तारा विनश्यन्ति समन्ततः । __ यथाऽग्निरम्बुना लग्नं तथा वृद्धिक्षये तिथिः ॥ १ ॥"
शेषं स्पष्टं । एतेऽष्टादश दोषाः शुद्धनक्षत्रबलेन च्छायालमादौ यदा प्रतिष्ठादीक्षादिकार्य क्रियते तदाप्यवश्यं त्याज्या एव, घटिकालनेषु तु किं वाच्यं । एषु च केषांचिदोषाणां भङ्गविधिः पूर्वाचार्यैरेवमूचे । तथाहि"लग्ने गुरुः सौम्ययुतेक्षितो वा, लग्नाधिपो लग्नगतस्तथा वा। कालाख्यहोरा च यदा शुभा स्याङ्गवेधदोषस्य तदा हि भङ्गः ॥१॥"
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आरम्भ-सिद्धिः
इति वशिष्ठः । अत्र भ-वेधेति नक्षत्रवेधस्यैव भङ्गो न तु तत्पादवेधस्येति भावः । व्यवहारप्रकाशे स्वनया रीत्या वेधः प्रत्युत शुभोऽप्युक्तः, तथाहि"सौम्यैश्चरणान्तरितः शुभः शुभैः केन्द्रगैर्वेधः" । इति वेधदोषभङ्गः । । " एकार्गलोपग्रहपातलत्ताजामित्रकर्तर्युदयादिदोषाः । लग्नेऽर्कचन्द्रज्यबले विनश्यन्त्यौदये यद्वदहो तमांसि ॥ १ ॥"
इति सप्तर्षयः । तथा" अङ्गेषु वनेषु वदन्ति पातं, सौराष्ट्याम्ये खचरस्य लत्ताम् । उपग्रह मालवसैन्धवेषु गण्डान्तयुक्तिं सकले पृथिव्याम् ॥१॥" इति केचित् । वामदेवस्वाह" लत्तां बंगालदेशे च पातं कौलिके त्यजेत् ।
उपग्रह गौडदेशे (च) वेधं सर्वन वर्जयेत् ॥ १ ॥"
इति पातलत्तोपग्रहैकार्गलाना भङ्गः ५ । "होराः क्रूराः सौम्यवर्गाधिके स्युर्लग्ने मोघाः सौम्यवारे च राज्याम्। पापारिष्टं निष्फलं शक्तिभाजां, स्यात् षड्वर्गे लग्नगे सद्ग्रहाणाम् ॥१॥" त्रिविक्रमोऽप्याह-"क्रूरस्य कालहोरां च क्रूरवारे दिवा त्यजेत्" इति ।
अस्यार्थः-यदि क्रूरो दिनवारो, दिवा च कार्य, तदा क्रूरहोरां त्यजेव, किं तु सौम्यया कालहोरया क्रूरवारदोषस्यापगमारसा ग्राह्या, सौम्यवारे तु दिवा रात्रौ वा होरया नास्त्यधिकार इत्यर्थः । इति सूर्ये न्दुग्रहणवर्जग्रहमलिनोडु । पूरवारहोरा २ दोषयोर्भङ्गः ७ । जन्मक्षदोषभस्तु वक्ष्यमाणकर्कादिभङ्गसम एव ८ । विष्टस्तु नास्ति भगः, अस्ति वा "विष्टिपुच्छे ध्रुवं जय" इत्यादि । भवस्थादोषभास्तु वक्ष्यमाणविगतबलेन्दुदोषभङ्गवच्छिवचक्रवलेन कार्यः ।। कास्पातादीति
" अयोगास्तिथिवारक्षजाता येऽमी प्रकीर्तिताः ।
लग्ने ग्रहबलोपेते प्रभवन्ति न ते क्वचित् ॥ १ ॥ यत्र लग्नं विना कर्म क्रियते शुभसंक्षकम् ।
तत्रैतेषां हि योगानां प्रभावाजायते फलम् ॥ २ ॥" इति ग्यवहारसारे ।
इति कर्कोस्पातादिदोषभाः ११ । घंट इति, भस्य दुष्टघटय एवं" पनरस तेर२ ठारस३ एगा सग५ सत्त६ अB७ घडिमाओ। जमघटस्स उ दुठा रविमाइसु सत्तवारेसु ॥ १ ॥"
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पञ्चम विमर्श:
इदमर्थतः श्रीहरिभद्रफलग्रन्थे । अन्ये स्वाहु:
'तिथि १५रस ६रुद्रा ११ स्वरगुण ३० सार्द्धद्दया७॥ भ्रर्तु६० खगुण ३० मितघटिकाः त्याज्या घंटे व्यादिष्वाद्या उत्तरास्तु शनिबुधयोः ॥ १ ॥
"
शेष व्यस्त्वदुष्टा एवेति यमघंटदोषभङ्गः १२ । विगतबलशशिदोषस्तु " लग्ने गुरोर्वरस्येति" श्लोकोक्तपञ्चदशान्यतरस्यापि चन्द्रानुकूल्य प्रकारस्य सर्वथाऽप्यलाभे शिवचक्रवलेन हन्यते चन्द्रादेः प्रातिकूल्यं हरतीत्युक्तेः १३ । दुष्टयोगानां तु विष्कम्भादीनां दुष्टघट्य एवावश्यं हेयाः, शेषाणां त्यागे तु कामचार इत्युक्तेः स्फुट एवं दोषभङ्गः १४ । गण्डान्तस्य तु लग्नतिथ्युडूनां त्रित्रिभागान्तरे जायमानस्य नास्ति भङ्गः । यस्तु सर्वतिथिभयोगानां सन्धिषु सन्धिनामा दोष उक्तस्तद्भङ्ग एवं -
धिष्ण्यस्यादावन्ते त्यजेच्चतस्रो घटीः करग्रहणे ।
यदि शुद्धे द्वे धिष्ण्ये विवाहयोग्ये तदा श्रेष्ठे ॥ १ ॥ " इति व्यवहारप्रकाशे । तथा
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गुरुर्भृगुर्वाकेन्द्रे वा त्रिकोणे वा यदा भवेत् । भसन्धिस्तिथिसन्धिश्च योगसन्धिर्न दोषदः ॥ १ ॥ येsन्ये सन्धिकृता दोषास्ते सर्वे विलयं ययुः । इति प्रोक्तं तु गर्गेण वशिष्ठात्रिपराशरैः ॥ २ ॥
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इति भतिथियोगादिसन्धिदोषभङ्गः १५ । तिथिदोषस्तु “तिथिरेकगुणा प्रोक्ता" इतिवचनात्सुभञ्ज एव यद्वा ' दिने बलवती तिथि: " इति, " तिथ्यर्धे तिथिफलं समादेश्यम् " इति वा १६ । अपि च“ सर्वेषां तु कुयोगानां वर्जयेद् घटिकायम् ।
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उत्पात मृत्युकाणानां सप्त षट् पञ्च नाडिकाः ॥ १ ॥ इति नारचन्द्र टिप्पनके ।
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केचिन्मृत्युयोगे द्वादश घटयस्याज्या इत्याहुः । तथा—
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" यमघंटे नवाटा व कालमुख्यां विवर्जयेत् ।
दुग्धे तिथौ कुवारे च नाडिकानां चतुष्टयम् ॥ १ ॥ " इत्यध्यन्ये । तथा" कुतिहिकुवारकुजोगा विठ्ठी वि अ जम्मरिख्ख दढतिही । मज्झहदिणाओ परं सव्वं पि सुभं भवेऽवस्सं ॥ १ ॥ " इति हर्षप्रकाशे लल्लोऽप्याहविश्यामङ्गारके चैव व्यतीपातेऽथ वैधृते । प्रत्यरे जन्मनक्षत्रे मध्याह्नात् परतः शुभम् ॥ १ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
अन्न प्रत्यरे इति सप्तमतारायां । उपलक्षणं चेदं तृतीयपञ्चमाधानताराणां, तेन तावपि मध्याह्नात् परतः शुभमेव इति, सामान्येन प्रतिष्ठायां बहुदोषभङ्गः ॥ अथ प्रतिष्ठायां लग्नांशनियममाह
लग्नं श्रेष्ठं प्रतिष्ठायां क्रमान्मध्यमथावरम् । दूध स्थिरं च भूयोभिर्गुणैराज्यं चरं तथा ।। १९ ।।
व्याख्या - जैनप्रतिष्ठायां द्विस्वभावलग्नं श्रेष्ठ, स्थिरं तु मध्यमं, चरं स्ववरमिति अभ्रमं तच्छातीवसबल बहुशुभग्रहभूषितं चेत् स्यात्तदा तृतीयभङ्गे ग्रामपि । स्थापना यथा
श्री जिनेश्वरप्रत्तिष्ठायां लग्न स्थापना
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ध मी.
द्विस्व० ल० मि क स्थि० ल० वृष सिं चर० ल० मे कर्क तु
वृ.
कुं
म
देवान्तरप्रतिष्ठायां तु लग्नान्येवं
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श्रेष्ठ
मध्यमं
अधमं
सिंहोदये दिनकरो घटभे विधाता, नारायणस्तु युवता मिथुने महेशः । देव्यो द्विमूर्तिभवनेषु निवेशनीयाः,
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क्षुद्राश्चरे स्थिरगृहे निखिलाश्च देवाः ॥ १ ॥
इति रत्नमालायाम् । अत्र क्षुद्रा इति व्यन्तराधा: निखिला इति उक्तशेषा इन्द्राद्याः । लल्लस्स्वाह" सौम्यैर्देवाः स्थाप्याः क्रूरैर्गन्धर्वयक्षरक्षांसि |
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गणपतिगणांश्च नियतं कुर्यात्साधारणे लग्ने ॥ १ ॥ अंशास्तु मिथुनः कःया धन्वाद्यार्धं च शोभनाः । प्रतिष्ठायां वृषः सिंहो वणिग्मीनश्च मध्यमाः ॥ २० ॥
व्याख्या—धन्वाद्यार्द्धमिति धनुरंशस्य प्रथमार्ध तल्लमस्याष्टादशांशरूपम् । मध्यमा इति देवस्य सुपूज्यत्वभवनेऽपि कर्तृस्थापकादीनां हानिकरत्वात् । सामर्थ्याच्चेदं लभ्यते - शेषा मेषकर्कवृश्चिकमकर कुम्भांशा धतुरंशान्त्यार्ध चाधमाम्येव । उक्तञ्च नारचन्द्र टिप्पनके
मेषांशे स्थापितो देवो वह्निदाहभयावहः १ ।
वृषांशे म्रियते कर्त्ता स्थापकश्च ऋतुत्रये २ । मिथुनांशः शुभो नित्यं भोगदः सर्वसिद्धिदः ३ ॥ १ ॥ षट्पदी ॥ कुमारं तु हन्ति कर्कः कुलनाश ऋतुत्रये । विनश्यति ततो देवः षभिरब्दैर्न संशयः ४ ॥ २ ॥
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पञ्चम विमर्शः
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सिंहांशे शोकसन्तापः कर्तस्थापकशिल्पिनाम् । सजायते पुनः ख्याता लोकेऽर्चा सर्वदेव हि५ ॥ ३ ॥ भोगः सदैव कन्यांशे देवदेवस्य जायते । धनधान्ययुतः कर्ता मोदते सुचिरं भुवि६ ॥ ४ ॥ उच्चाटनं भवेत्कर्तुबन्धश्चैव सदा भवेत् । स्थापकस्य भवेन्मृत्युस्तुलांशे वत्सरद्वये७ ॥ ५ ॥ वृश्चिके च महाकोपं राजपीडासमुद्भवम् । अग्निदाहं महाघोरं दिनत्रये विनिर्दिशेत्८ ॥ ६ ॥ धन्वांशे धनवृद्धिः स्यात् सद्भोगं च सदा सुरैः । प्रतिष्ठापककतारी नन्दतः सुचिरं भुवि९ ॥ ७ ॥ मकरांशे भवेन्मृत्युः कर्तृस्थापकशिल्पिनाम् । वज्राच्छनाद्वा विनाशस्त्रिभिरब्दैन संशयः१० ॥ ८ ॥ घटांशे भिद्यते देवो जलपातेन वत्सरात् ।। जलोदरेण कर्ता च त्रिभिरब्दौर्वनश्यति११ ॥ ९ ॥ मीनांशे त्वच॑ते देवो वासवाद्यैः सुरासुरैः ।। मनुष्यैश्च सदा पूज्यो विना कारापकेन तु१२ ॥ १०॥"
रत्नमालायां तु भौमवजेसर्वग्रहाणां षड्वर्गाः प्रतिष्ठायामनुज्ञाता: अथ दीक्षायां लग्नांशानाहव्रताय राशयो द्वयङ्गाः स्थिराश्चापि वृष विना। मकरश्च प्रशस्याः स्युलग्नांशादिषु नेतरे ॥ २१ ॥
व्याख्या-प्रशस्या इति, एवं मिथुन, सिंह२ कम्या३ वृश्चिक धनु ५र्मकर६ कुम्भ७ मीनाः। एतेऽष्टौ शस्याः । इतर इति, मेष, वृषर कर्क। तुला४ एते चत्वारो लमेषु नवांशेष्वादिशब्दाद् द्वादशांशेष्वपि च हेयाः । उक्तब नारचन्द्रे" भृगोरुदय१ वारांश३ भवने४ क्षण५ पञ्चके।
चन्द्रांशोर दय२ वारे च३ दर्शने च४ न दीक्षयेत् ॥ १ ॥" ___ अत्र भृगोरुदयेति शुक्रस्योदयस्थत्वं लग्नस्थस्वमित्यर्थः ।। तथा शुक्रवार: २। लग्ने शुक्रनवांशकः ३ । शुक्रभवनयोवृषतुलयोः ४ । यदि सकलदृष्टया शुको मूर्ति सप्तमगृहं वा पश्यतीति ५ पत्रके । तथा चन्द्रांशे । चन्द्रस्योदयस्थत्वे कोऽर्थः ? लमस्थत्वेर । तथा चन्द्रवारे३ । चन्द्रदर्शने च । दीक्षालनं न देयमिति षड्वर्गशुद्धिः । तथा" जीवमन्दबुधार्काणां षड्वों वारदर्शने । शुभावहानि दीक्षायां न शेषाणां कदाचन ॥ १॥"
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२२०
आरम्भ-सिद्धिः
हर्षप्रकाशे तु वृषांश: शुक्र पत्कोऽपि वर्गोत्तमत्वादनुज्ञातः, तथाहि" मेसविसाणं मुत्तूण सेसरासीण पंचमे अंसे ।
नय दिख्खिज जओ सो विणसइ तह तह पओगाओ ॥१॥" अथ विवाहे लग्नांशायाहविवाहे नाग्रहः कोऽपि लगानामिह केवलम् । नवांशा धनुराधाद्धयुग्मकन्यातुलाः शुभाः ॥ २२ ॥
___ व्याख्या-नाग्रह इति, एतानि लग्नानि ग्राह्याणि, एतानि हेयानीति यो नियमः स आग्रहः। स किल यथा प्रतिष्ठादीक्षयोरुक्तस्तथा विवाहे कोऽपि नास्ति । केवलमिहेति विवाहे यत्तल्लग्नमस्तु, परमंशा एत एव मनुष्यत्वाद् ग्राह्या, नान्ये, "मनुष्यांशेभ्योऽन्यत्रासती दरिद्रा च स्यादिति" रत्नमालाभाष्योतः । “धनुषि पराभवयुक्तां" इति केऽप्याहुः । ग्रन्थकृन्मते तु धनुरन्त्यार्धमेव विरुद्ध पूर्वार्धस्य मनुष्यत्वात् । रत्नमालायां तु लग्नान्यपि नियमितानि" कन्या नृयुग्मं च वणिग्विलग्ने, स्थितो विवाहः शुभमादधाति " । इति परं तेष्वयंशनियमो यथोक्त एव । यद्भास्करः
" निन्द्यपि लग्ने द्विपदांश इष्टः, कन्यादिलग्नेष्वपि नान्यभागः " इति । व्यवहारप्रकाशे त्वेवमचे"धन्वंशो न बुधास्ते भौमास्ते नो तुलांशकः कार्यः ।
न तुलांशश्चरलग्ने देयस्तुलमकरसंस्थेन्दौ ॥ १ ॥" अथ सर्वलग्नसाधारणमाहत्रिष्वपि क्रूरमध्यस्थौ शुक्रराश्रितयुनौ । नेष्टौ लग्नविधु केन्द्रस्थितसौम्यौ तु तो मतौ ॥ २३ ॥
व्याख्या-त्रिष्वपीति प्रतिष्ठादीक्षोद्वाहेषु । मध्यस्थाविति एतेनायमर्थःलग्नस्य द्वयोरपि पार्श्वयोद्वितीयद्वादशगृहयोश्चेत् करग्रही चन्द्रस्यापि चैवमिति
द्वधाऽपि क्रूरकर्तरी । इयं च प्रत्येकं वेधाअतिदुष्टा । दुष्टा २ अल्पदुष्टा३ च । तथाहि-यदा धनस्थः करग्रहोवक्री व्यय. स्थस्तु मध्यगतिः रस्तदोभयतः संघटमानाकरकर्त्तयतिदुष्टा । स्थापना यथा--
___यदा तु व्ययस्थः ऋरोऽतिचरितखदा ६ . विशिष्यातिदुष्टा, शीघ्रमेव संघटमानत्वात
१ । यदा धनव्य ययोरपि मध्यगती करो, यद्वा द्वयोरपि तयोः वक्रगती क्रूरौ तदा मध्यदुष्टा सा, एकत एव संघटमा
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पञ्चम विमर्शः
२२१
नत्वात् २ । यदा तु धने मध्यगतिः करो व्यये च वक्री तदाऽल्पदुष्टा, कर्तर्या उभयतोऽपि विघटमानत्वात् , तत्रापि धनस्थश्चेदतिचारवाँस्तदा तु विशिष्य स्वल्पदुष्टा, शीघ्रमेव विघटमानत्वात् ३ । भावना स्थापनायां कार्या । एवं चन्द्रस्यापि पार्शद्वयस्थग्रहैः क्रूरकर्तर्यास्त्रिविधता भाव्या । विशेषस्तु" क्रूर ग्रहस्यान्तरगा तनुर्भवेन्मृतिप्रदा शीतकरश्च रोगः ।
शुभैर्धनुस्थैरथवान्त्यगे गुरौ, न कर्तरी स्यादिह भार्गवा विदुः ॥१॥ त्रिकोणकेन्द्गो गुरुस्त्रिलाभगो रविर्यदा। तदा न कर्तरी भवेज्जगाद बादरायणः ॥ २ ॥"
अपि चान्यलग्नाभावेन यदि क्ररकर्तरी त्यक्तुं न शक्यते, तदा लग्नस्योभयपार्श्वयोः प्रत्येकं पञ्चदशानां त्रिंशांशानां मध्ये यदि ऋर ग्रहौ स्यातां तदा सा क्रूरकर्तर्य वश्यं त्याज्या । एवं चन्द्रस्यापि । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे“पूर्व पश्चात् पापात्तिथ्यंशा १५ घाटमध्यगश्चन्द्रः । वर्जयितव्या योगे यस्मादाश्यंशरश्मियुतिः ॥ १ ॥ "
शुक्ररेति, लग्नाचन्द्राच्च सप्तमे शुक्रः क्रूरग्रहो वा चेत्स्यात्तदा जामित्राख्यो दोषः । उक्तश्च" उदयात्सप्तमसंस्थे शुक्रे सूर्येऽथवा शनी राही । . वैधव्यं क्षितितनये सप्तमगे कन्यका म्रियते ॥१॥” इति सारङ्गः । तथा-- " सुक्क १ गारय २ मंदाण ३ सत्तमे ससहरे गहिअदिक्खो । पीडिजए अवस्सं सत्थ १ कुसीलत्त २ वाहीहिं ॥ १ ॥"
इति लग्नशुद्धौ । तथा--- "शुक्रार्कशनिभौमानां सप्तमेन्दौ विवाहिता । ससापत्न्या १ च विधवा २ निष्पुत्रा ३ स्वैरिणी ४ क्रमात् ॥ १॥"
इति दैवज्ञवल्लभे । ___ राहुस्तु विशेषानुक्तौ सर्वत्र शनिवत् । विशेषस्तु"द्वौ ग्रहो यदि जामित्रे करौ सौम्यौ च संस्थितौ । अब्दत्रयेण दारिद्य कन्या प्राप्नोति दारुणम् ॥१॥” इति देवज्ञवल्लभे।
अथ शुक्ररेत्यस्यापवादमाह-केन्द्रस्थितेत्यादि लग्नाचन्द्राच्चतुर्वपि केन्द्रेषु सौम्यग्रहाश्चेत् स्युस्तदा शुक्रक्रराश्रितधुनावपि लग्नेन्दू मता विति । कोऽर्थः ? क्वचिदादरणीयावपि । सारङ्गस्तु चन्द्राकेन्द्रस्थकरस्य दोषमेवमाह" लग्ना१म्बुरसप्त३व्योमस्थो भवेत्क्रूरग्रहो विधोः ।
आपीडाश्चैव सम्पीडा २ भृग्वाद्या३ वर्तिताः ४ क्रमात् ॥ १ ॥ आत्मनोरवन्धुवर्गस्यरजायायाः३कर्मणः४क्रमात् । विनाशो जायते नूनं तद्वेलाकार्यकारिणः ॥ २ ॥"
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१२२
आरम्भ-सिद्धिः
ननु किमित्यत्र लग्नेन्द्वोर्गुणदोषयोः समकक्षतयाऽऽख्यानं ? उच्यते" लग्नबलाच्छरीरं चन्द्रबलान्मानसं ग्रहाः सर्वे । दद्युर्भावाश्रयजं शुभमशुभं वा फलं नियमात् ॥ १ ॥” इति व्यवहारप्रकाशे ॥ अथ चन्द्रात्सप्तमक्रूर भवजामित्राख्यदोषस्य भङ्गमाह-
गुरुर्बुधश्च शीतांशुसम क्रूरदोषहृत् ।
पुष्टयेन्दुं दृशा पश्यन लग्न १ खा१०म्बु४त्रिकोण ९-५गः ॥ व्याख्या - शीतांश्विति चन्द्रात्सप्तमस्थ ग्रहस्य दोषं हरति । पुष्टयेति पूर्णया पादोनया वा ॥ अथ दीक्षायां चन्द्रस्य युतेः फलमाह - दीक्षायां कुरुते चन्द्रः क्रमाद्भौमादिभिर्युतः । कलि१भियः मृर्ति ३नैः स्व्यं ४ विपदं५ भूमिभृद्भयम्६ ॥ २५ ॥
व्याख्या- कलिमिति भौमादारभ्यार्क यावत्क्रमेणामूनि फलानि । विशेषस्तु नीचेऽस्तं वाप्ते इत्यत्र ये ग्रहाणामस्तमय विषये कालांशा उक्ताः सन्ति तेषामर्धविभागे यदि ग्रहाणां योगः स्यात्तदा सा युतिर्दुष्टा । यदि तु कालार्द्ध विभागप्राप्ता अतीता वा स्युर्ब्रहास्तदा यथोक्तदोषा उत्पद्यन्ते परं निवर्त्तन्ते ।
यच्छौनकः - " योगा यथोक्तफलदाः कालार्ध विभागसंश्रितानां तु । अप्राप्तातीतानामिच्छामात्रं फलं तेषाम् ॥ १ ॥
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विवाहदीक्षयोः साधारणमाह
विवाहदीक्षयोर्लने यूनेन्दू ग्रहवर्जितौ ।
शुभौ केचित्तु जीवज्ञयुक्तमिन्दुं शुभं विदुः ॥ २६ ॥ व्याख्या– ग्रहवर्जिताविति सप्तमं गृहं ग्रहशून्यं शुभं, यदाहुः सप्तर्षयः" वैधव्यं १ सापत्यं २वन्ध्यात्वं ३ निष्प्रजत्वं ४ दौर्भाग्यम्५ । वेश्यात्वं गर्भच्युति ७रर्काद्या लग्नतोऽस्तगाः कुर्युः ॥ १ ॥ चन्द्रश्चैकाकिस्थितः शुभः । केचिदिति ते होन्दोर्बुधगुरुवर्जग्रहयुतेः फलमेवमाहु:, तथाहि
" रविणा १सणिरभोमेहिं३ सुक्क ४ के ऊहिं५राहुणा६ । एगरासिगए चंदे जुइदोसो पवुच्चइ ॥ १ ॥ दरिहारसमणी२चेव मरए३ससवत्तिआं४ ।
कवालिणी अस्सीला६कमा नारी विवाहिआ ॥ २ ॥
"
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शुक्रेन्द्वोर्युतिर्विवाहे सर्वथा त्याज्येति व्यवहारसारे । सत्यसूरिस्वाह -
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अन्यर्थेऽन्यगृहे वा कुजबुधगुरुशुक्रशौरिभिः सार्धम् । न भवति दोषाय शशी प्रदक्षिणं याति यदि चैषाम् ॥१॥
१ ससपत्नीका ।
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पञ्चम विमर्शः
२२३
विशेषस्तु-" द्वयाद्यैः क्रूरैर्युते चन्द्रे व्यसुः प्रव्रजितः शुभैः । "
इति दैवज्ञवल्लभे ॥ अथ शुक्कराश्रितानावित्यस्य मतान्तरेणापवादमाहपञ्चपञ्चाशमेवांशं जामित्रं परमं परे। अंशादुज्झन्ति लग्नेन्द्रोहितग्रहदूषितम् ॥ २७॥
व्याख्या-अंशादिति लग्नेन्द्वोः सस्कादधिकृतादंशात् पञ्चपञ्चाशमेवांशं । गर्हितग्रहदूषितं सन्तं तत एव हेतोः परमजामित्राख्यं तं दोषं परे उज्झन्तीत्यन्वयः। भावना त्वेवं-यरप्लयो नवांशो लग्नेऽधिकृतस्तत्सङ्ख्यः सप्तमस्थानस्थराश्यशः पञ्चपञ्चाशः स्यात्, इन्दुरपि राशौ यत्सङ्ख्येऽशेऽस्ति तत्सप्तमराशेखावत्सङ्ख्योऽशश्चन्द्राक्रान्तादंशात् पञ्चपञ्चाशः स्यात्, ततो लग्नांशाञ्चन्द्रांशाद्वा पञ्चपञ्चाशेंऽशे चेत्करग्रहोऽस्ति शुक्रो वा तदा परमं जामित्रं । यथा-मेषस्याद्यांशे लग्नं चन्द्रो वा तुलायाश्चाद्येऽशे करग्रहः शुक्रो वेति, मेषस्य द्वितीये चेत्तदा तुलाया अपि द्वितीये, एवं द्वयोरपि तृतीये तुयें चेत्यादि । एतत्त्याज्यमेव । यदुक्तम्" लग्नेन्दुसंयुतादंशात् पञ्चपञ्चाशदंशके ।
ग्रहोऽन्यो यद्यसौ दोषो न गुणैरपि हन्यते ॥ १ ॥" इति दैवज्ञवल्लभे।
यदि तु पञ्चपञ्चाशानन्यूनोऽधिको वा स्यात्तदा स जामित्राख्य एव दोषो न तु परमजा मित्राख्यः । यथा मेषस्य तृतीयेऽशे लग्नमिन्दुर्वा तुलायाश्चाचे द्वितीये वा करग्रहः शुक्रो वा स्थितस्तदा सोंऽशस्त्रिपञ्चाशश्चतुःपञ्चाशो वा स्यात् । यदा च मेषस्यायेंऽश लग्नमिन्दुर्वा तुलायाश्च द्वितीये तृतीये तुर्ये वांशे क्रूरग्रहः शुक्रो वा, तदा स तस्मात् षट्पञ्चाशः सप्तपञ्चाशोऽष्टापञ्चाशो वा स्यादित्यादि । अयं च दोषो नाति दुष्ट इति तन्मतं । बहुमतं चैतत् ॥ प्रतिष्ठायां ग्रहयुतिदृष्टयोः फलमाहस्थापने स्युर्विधौ युक्ते दृष्टे वाऽऽरादिभिः क्रमात् । अग्निभीरऋद्धिरसिद्धार्चा३श्री४पञ्चत्वा५ग्निभीतयः६॥
व्याख्या-स्थापने प्रतिष्ठायां आरेण युते दृष्टे वा चन्द्रेऽग्निभीः ।। बुधेन ऋद्धिः २ । गुरुणा सिद्धार्चा, कोऽर्थः ? प्रतिमा साधिष्टायिका स्यात् " गुरुणा सर्वपूजिता " इति तु दैवज्ञवल्लभे ३ । शुक्रेण श्रीः ४ । शनिना मृत्युः ५ । रविणा त्वग्निभीः ६ । अत्र दृष्टिः सामान्योक्तेऽपि पुष्टा ज्ञेया ॥ भथ सर्वकार्यलग्नानां साधारणानि त्याज्यानि षडभि: श्लोकैराह
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आरम्भ-सिद्धिः
जन्मराशिं जनेर्लग्नं ताभ्यामन्त्यं तथाष्टमम् । लग्न लग्नांशयोवेशौ लग्नात् षष्ठाष्टमी त्यजेत् ॥ २९ ॥
२२४
व्याख्या - जन्मराशि मूर्ती त्यजेत् स च दीक्षायां शिष्यस्य, प्रतिष्ठायां स्थापक शिक्षयविवाहे वरकन्ययोश्चेत्यूह्म, एवमग्रेऽपि । जनेर्लनमिति इदं नारचन्द्रे वर्जितं नाति । तथाऽष्टममिति केचित्तुर्यमपि त्याज्यमाहुः, तथाहि" दम्पत्योरुपचयभं जन्मक्षदुदयतश्च शुभलग्नम् । निधनं व्ययं च हिबुकं नेष्टं शेषाणि मध्यानि ॥ १ ॥ इति व्यवहारप्रकाशे । तथा
"चतुर्थद्वादशे कार्ये लग्ने बहुगुणे यदि ।
I
अष्टमं तु न कर्त्तव्यं यदि सर्व्वगुणान्वितम् ॥१॥” इति गर्गः । विशेषस्तु"अष्टमदयोद्भूतदोषो नश्यति भावतः । लग्नेशाष्ट्रमराशीशौ मिथो मित्रे यदा तदा ॥ १ ॥” इति बृहस्पतिः । " तथा चतुर्थे रिष्पं वा मित्रत्वेन शुभं स्मृतम् ।
गुरुणा भृगुणा केन्द्रत्रिकोणस्थेन चेक्षितम् ॥१॥” इति सारङ्गः । तथा" होराष्ट्रमं जन्मगृहाष्टमं वा, लग्नं शुभं ज्ञेज्यसितेक्षितं चेत् ...”। इति केशवः । तथा---
" जन्मगृह जन्मभाभ्यामष्टमभवनं मृतिप्रदं लग्ने । व्यय हिबुक केन्द्र संस्थैः शुभग्रहैः शोभनं बलिभिः ॥ १ ॥ " इति व्यवहारप्रकाशे । लझलभांशयोश्चेति चकाराद् द्रेष्काणस्यापि लग्नात् षष्ठाष्टौ त्यजेदिति ।
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9
-" लग्नस्थेऽपि गुरौ दुष्टः षष्ठस्थो लग्ननायकः.
यल्ललः इति । लक्ष्मीधराऽप्याह
"
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" विलग्नाधिपतौ षष्ठे वैधव्यं स्यात्तथांशपे । Postणाधिपतौ मृत्युर्विलग्ने बलवत्यपि ॥ १ ॥
""
अष्टमस्तु लग्नेशस्तावदशुभ एव । ततोऽपि यदि लग्नेशोऽष्टमभवने लग्नद्रेष्काणाद् द्वाविंशे द्रेष्काणे स्यात्तदा भृशमशुभः । यदि च लग्नपतिमृत्युपती एक द्रेष्काणस्थौ स्यातां तदा भृशतरमशुभं । अथ षष्ठाष्टमान् लग्नांशद्वेष्काणेशानाश्रित्य रत्नमालाभाष्ये लोकोऽयम्
" वर्षमासदिनैर्गेह द्रेष्काणनवमांशपाः ।
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राशिमानेन दास्यन्ति फलमित्याह शौनकः ॥ १ ॥
षष्ठाष्टमावित्युपलक्षणत्वाद् द्वादशोऽपि लग्नेशो न शुभः । विशेषस्तु लग्न लग्नांशयश्वश इत्यस्यापवादोऽयं । वृश्चिके लग्नेंऽशे वा गृह्यमाणे तदीशे भौमे मेषस्थे सति तथा वृषे लग्नेंऽशे वा गृह्यमाणे ती शुक्रे तुलास्थे सति तथा कुम्भे लग्नेशे वा गृह्यमाणे तदीशे शनौ
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पञ्चम विमर्शः
मकरस्थे सति न कश्चिद्दोषः, एकस्वामिकत्वात् । उक्तच"न वृश्चिकं हन्ति कुजोऽजवर्ती, वृषं न शुक्रोऽपि तुलाधरस्थः । तथैव कुंभ रविजो न हन्ति, मृगस्थितो वा तनुगं व्ययस्थः ॥ १ ॥ "
तथाsनयैव युक्त्या मेषे तुलायां वा जन्मकग्ने सति जन्मराशौ वा सति ताभ्यामष्टमावपि वृश्चिकवृषौ लग्नत्वेन गृह्यमाणौ न दोषाय । तदुक्तं विवाहवृन्दावने " व्यलिवृषं जननर्क्षविलग्नयोर्भवनमष्टममभ्युदितं त्यजेत् " इति तथा - " जन्मराशिजन्मलग्नाभ्यां द्वादशमष्टमं च लग्नेशं त्यजेदित्यपि " रत्नमालाभाष्ये ॥
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इन्दुक्रूरयुतं लग्नं तथा लग्नोदितांशकात् । अधिकांशग्रहं दूष्यगृहादर्वागपि त्यजेत् ॥ ३० ॥ व्याख्या- - इन्दुक्रूरेति, यल्लल्ल:
"
" सौम्यग्रहयुक्तमपि प्रायः शशिनं विवर्जयेल्लग्ने । क्रूर ग्रह न लग्ने कुर्यान्नवपञ्चमधने वा ॥ १ ॥ -" लग्नस्थे तपने व्यालो१ रसातलमुखः कुजे२ ।
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क्षयो मन्दे३ तमो राहौ४ केतावन्तकसंज्ञितः५ ॥ १ ॥ योगेष्वेषु कृतं कार्यं मृत्युदारिद्र्यशोकदम् । " इति दैवज्ञवल्लभे । लग्नोदितांशकादिति लग्ने उदिताः कथिताः कन्यादयो ये नवशास्तेऽपीन्दुकरयुता हेयाः कोऽर्थः ? यस्मिन् राशाविन्दुः क्रूर ग्रहो वा स्वात्तनामा लग्नेशस्य नवांशोऽपि त्याज्यः । यद्गदाधरः-" यस्मिन् राशौ भवेच्चन्द्रस्तमंशं परिवर्जयेत् । तस्माद्भवेश्च वैधन्यमावर्षान्मुनयो जगुः ॥ १ ॥ यस्मिन् राशौ भवेत् क्रूरस्तमंशं परिवर्तयेत् । लग्ने मृत्युं विजानीयात् पञ्चमेऽब्दे न संशयः ॥ १ ॥ "
तथा अधिकांशग्रहमितिलग्नेऽधिकृत उदयप्राप्तो योंऽशऽस्तस्मतादधिकेष्यग्रेवंशेषु यो ग्रहस्तिष्ठति स भावरीत्याऽग्रेतनगृह एव स्थित उच्यते, तत्रस्थफलस्यैव दायकत्वात् । ततोऽनयापि रीत्या तेम ग्रहेणाधिष्ठीयमानं सत्तद्गृहं यदि दूषणीयतां प्राप्नोति तदाऽवस्थितमपि ग्रहं त्यजेत् तद्ग्रहेणाप्राप्तमपि तद्गृहं दूष्यते इत्यर्थः । आह च भास्करः – "लग्नोदितांशाम्यधिको ग्रहो यो, भावेऽग्रिमे भावफलेन स स्यात् । ग्रहो यदा भावफलेन याति, स्थाने निषिद्धे तमपीह जह्यात् ॥ १॥"
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-सिद्धिः
तदयं भावः - येशा लग्नस्योदितास्तेषु सिष्ठन् ग्रहस्तावफलप्रदः । वस्तु तानुलंग्य स्थितः सोऽग्रेतनभावफलप्रदः । एवमन्यभावेष्वपि धनसहजादिषु विचार्य । उक्तं च भास्करेणैव
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लग्नस्य येशा उदिता ग्रहो यस्तेषु स्थितः स्थानफलं स दत्ते । यस्तानतीतः स भवेद्वितीयः, स्थानेषु शेषेष्वपि चिन्त्यमेतत् ॥ १ ॥” दैवज्ञलमेsयुक्तम्
लग्नस्थः प्रोच्यते सोऽत्र ग्रहो य उदितांशगः । द्वितीयोऽनुदितांशस्थः सर्वराशिष्वयं क्रमः ॥ १ ॥
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अत्र सर्वराशिष्विति श्रमं तावदाम्नायः यावतिथोऽशो लग्नसत्कः कार्ये वर्तमानतयाऽधिकृतस्तावतिथ एवांशो द्वादशस्वपि भावेषु वर्तमानतयते । एवं च सति यत्र तत्रापि भावे यो ग्रहो वर्तमानमुल्लध्यं स्थितः सोऽप्रेतनभावस्थ एव ज्ञेयः । ततश्च दूष्यगृहादर्वागपि त्यजेदित्यस्यायं भावः । अनयाऽपि रीत्या - sharभावस्थोऽसौ ग्रहो यदि त्याज्यस्वेनोक्तः स्यात्तदा लग्नं न ग्राह्यं । यथा प्रतिष्ठायां कन्यालग्ने षष्ठे मिथुनांशे गृह्यमाणे सति कुंभराशौ यदि सप्तमाद्यंशेषु कुजः स्यात्तदा भावरीत्या मीनस्थत्वात् सप्तम एवेत्यतस्तल्लग्नमपि त्याज्यमेव । तत्स्स्थापना यथा
२२६
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१
अंश
आरम्भ
एवमन्यत्रापि भाव्यं । ननु यद्येवं दूष्यगृहं त्याज्यमूचे तदाऽनयैव रीत्या यद्गृहं ग्रहेण दूष्यमाणंस्यात्तस्यादरणीयतयाऽपि भविष्यति, मैवं ईहग्गुणानामाहार्यत्वेनानादरणीयत्वस्यैवार्हत्वात् । उक्तं
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च -
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" नाङ्गीकारो भावजानां गुणानां तद्दोषाणां तस्वतस्त्याग एव । भावव्यक्तावष्टमत्वं गतोऽपि, त्याज्यो लग्नात्सप्तमः सप्तसप्तिः ॥ १ ॥ तथा-- सप्तमस्थो यदा चन्द्रो भवेद्भावफलाष्टमः ।
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39 तथा
न तदा दीयते लग्नं शुभैः सर्वग्रहैरपि ॥ १ ॥ " प्रत्याख्येयः पाक्षिकोऽपीह दोषः सम्यग्ग्यापी यो गुणः सोऽनुगस्यः । यस्मादशैर्देहभावादिकः सन्न स्याद्भूत्यै भार्गवः पञ्चमोऽपि ॥ १ ॥ " इदं विवाहमाश्रित्य विवाहवृन्दाबनादो ॥
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पञ्चम विमर्शः
२२७ भवेज्जन्मनि जन्मान्मृत्युधामनि यो ग्रहः। शुभोऽपि लग्नवर्येष सर्वकार्येषु नो शुभः ॥ ३१ ॥
___ व्याख्या--जन्मनि जन्मकाले । जन्मदिति ऋक्षशब्दस्योभयार्थत्वेन जन्माजन्मराशतो जन्मलनाडा शुभोऽपीति कृत्स्व नु कि वाय। भास्करस्त्वाह-“जन्मःजन्मलग्नाभ्यां यो रन्ध्रेशावथाष्टमे ।
लग्ने ताँश्च तदंशांश्च तद्राशीनपि च त्यजेत् ॥ १॥" शनिस्त्रिकोणकेन्द्रस्थो बलीयान सुहृदीक्षितः। कुजः केन्द्रान्त्यधर्माष्टस्थितो वा भद्रभञ्जनः ।। ३२ ॥
___ व्याख्या-अतिशयेन बली बलीयान् । बलीयान् सुहृदीक्षित इति कुजेऽपि योज्यं । अष्टस्थित इति यद्गर्गः" लग्नाद्भौमेऽष्टमगे दम्पत्योर्वह्निना मृतिः समकम् ।। जन्मनि यो वाऽष्टमगस्तस्मिल्लग्नं गते वापि ॥ १ ॥"
भद्रभान इति अस्य कुयोगस्य सान्वर्थयं संज्ञा ॥ रविः कुजोऽर्कजो राहुः शुक्रो वा सप्तमस्थितः । हन्ति स्थापककर्तारौ स्थाप्यमप्यविलम्बितम् ॥ ३३ ॥ व्याख्या-कर्ता प्रतिष्ठाया गुर्वादिः । अयं श्लोकः प्रतिष्ठामाश्रित्य ज्ञेयः ॥ लग्ना१म्बु४स्मर७गो राहुः सर्वकार्येषु वर्जितः । त्रिषडेकादशः शस्तो मध्यमः शेषराशिषु ॥ ३४ ॥
व्याख्या-सर्वकार्येष्विति दीक्षाप्रतिष्ठादिषु । केतुस्तु जन्मसप्तमस्यः शशियुतश्च त्याज्यः, त्रिषडेकादशो ग्राह्यः, शेषस्थानेषु मध्यम इति नारचद्रोक्तिः । अनया च राहुनवमद्वादशोऽपि श्रेष्ठ इत्यागतं । अन्यथा केतोनिषष्ठस्वसंपत्त्यसंभवात् । इत्युक्ताः सामान्येन घटिकालग्नेषु त्याज्या दोषाः ॥
अथ सर्वकार्येषु घटिकालग्नेषु साधारणी भनदा ग्रहसंस्था तावदेवंशनिरवीन्दुभौमा लग्नस्थाः, चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रा अष्टमस्थाः, चन्द्रशुक्रलग्नेशांशेशाः षष्ठगाः, सर्वे सप्तमगाश्वाशुभाः । यत्रिविक्रमः- . " त्याज्या लग्नेऽन्धयो ४ मन्दात् षष्ठे शुक्रन्दुलग्नपाः । रन्ध्रे८चन्द्रादयः पञ्च सर्वेऽस्तेऽजगुरू समौ ॥१॥"
भन्न मन्दादिति राहुरपि मन्दवज्ज्ञेयः । समाविति सर्वेऽप्यस्तेऽशुभा, केषाचिन्मते तु चन्द्रगुरू सप्तमे उदा सीनावित्यर्थः सर्वकार्येषु शुभप्रहसंस्था स्पे
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२२८
आरम्भ-सिद्धिः
"लग्नादुपचयस्थे ३-५-१०-११ऽऽन्त्या १२स्त७कर्मा १०य ११गे विधौ । क्षोणीपुत्रेऽर्कपुत्रे च दुश्चिक्य३रिपुदलाभ ११गे ॥ १ ॥ वक्तरिष्पा१२ष्टमेटसौम्ये जीवेऽष्टापरिव्ययो१२ज्झिते । सर्वकार्याणि सिध्यन्ति त्यक्तषट्सप्तमें सिते ॥२॥" इति दैवज्ञवल्लमे । एतत्प्रकारद्वयोत्तीर्णा तु मध्यमा ग्रहसंस्था । त्रिविधानामप्यासां स्थापना
उत्तम रवि
३-६-१०-११
१२-७-१०-११ मंगल
३-६-११ बुध
१-२-३-४-५-६-७-९-१०-११ गुरु
१-२-३-४-५-७-९-१०-११
१-२-३-४-५-८-९-१०-११-१२ शनि
३-६-११ ३-६-११
३-६-११ मध्यम
अधम २-४-.५-८-९-१२
१-७
चन्द्र
शुक्र
१-७-८
२-४-५-९-१०-१२ १२ ६-१२
६-७ २-४-५-८-९-१०-१२.
१-७ २-५-८-९-१०-१२
१-४-७ | २-५-८-९-१०-१२
१-४-७ ___ एवं सत्यपि दीक्षालग्नेऽसाधारणी शुभग्रहसंस्थामाह--- दीक्षायां तरणिर्धन रत्रिइतनया५रिक्षस्थः शशी द्वित्रि३ पड़, व्योम१० स्थाक्षितिभूस्त्रिषड्दशमगो ज्ञेज्यौ व्यया
१२ष्टोटज्झितौ १-२-३-४-५-६-७-१०-११ शुक्रोऽन्त्या१२रिसुत५त्रि३धर्म९धनरगो मन्दो धनरभ्रातृ षट्६,पुत्रपच्छिद्रटगतश्च शोभनतमः सर्वे च लाभस्थिताः॥
___ व्याख्या-एते यथोक्तस्थानस्था दीक्षालग्ने श्रेष्ठत्वा३खानदाः हर्षप्रकाशादिषु तु ग्रहाणामुत्तमादिभंग्येवमूचे
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पञ्चम विमर्श:
२२९
"दु पण छ रवि ति दु छ ससी, कुज ति छ दह, बुह ति दु छ पण दसमो । किंद तिकोणे य गुरू, सुक्को तिअ छ नव बारसमो ॥ १ ॥ मंदो दु पण छ अडमो, सुक्क विणा सव्विगारसहा सुहया । चंदाउ कूर सत्तम अइअसूहा दिख्खसमयस्मि ॥ २ ॥
रवि ति ३, ससि सत्त दसमो, बुहेग चउ सत्त नव गुरुति छ दो । सुक्को दु पंच सणि तिथ मज्झिम सेसा असुह सव्वे ॥ ३ ॥
39
स्थापना
रवि
चन्द्र
मंगल
बुध
गुरु
उत्तम
२-५-६-११
|२-३-६-११
३-६-१०-११
३-२-६-५-१०-११ |१-४-७-१०-९-५-११
66
शुक्र
शनि
| राहु-केतु ३-६-११
|३-६-९-१२
| २-५-६-८-११
मध्यम
३ ७-१०
०
१-४-७-९
३-६-२
२-५
३ १२-५-८-९-१०-१२
अधम |१-४-७-८-९-१८०-१२ १-४-५-८-९-१२ १-२-४-५-७-८-९-१२
८-१२
८-१२
| १-७-४-८-१०-११
१-४-७-९-१०-१२ १-४-७
इदमिह तत्वं—
अहवा वि मज्झिमबलं काऊण सणि गुरुं च बलवंतं । अबलं सुकं लग्गे तो दिख्खं दिज सीसस्स ॥ १ ॥
"
इति श्रीहरिभद्रसूरिवच: । एते च क्रमान्मध्यमोत्कृष्टहीनबला एवमेव
"
स्युः, तथाहि - शनिर्द्विपञ्चाष्टकादशः पणफरस्थत्वान्मध्यमबलः । षष्ठस्तु आपोक्किमस्थत्वेऽपि दिग्बलाढ्यत्वान्मध्यमबलः । गुरुस्तु केन्द्रत्रिकोणेषु बलिष्ठ इति स्फुटमेव । एकादशं तु गुरोर्हर्षस्थानं वक्ष्यते तेन तत्रापि बलिष्ठः । शुकस्तु त्रिषड्नवद्वादशेष्वापोक्लिमस्थस्वाद्धीनबलः । उक्तञ्च त्रैलोक्यप्रकाशे
""
1
रूपा २० ६ १० पाद ५ वीर्याः स्युः केन्द्रादिस्था नभश्वराः 1 तेनैते उत्तमभङ्गे न्यस्ताः । शेषग्रहास्तु यत्रस्थाः सर्वसम्मलत्वेन रेखाप्रदास्तेऽप्युत्तमभङ्गे । येषां तु रेखाप्रदत्वे ग्रन्थान्तरविसंवादस्ते मध्यमभङ्गे । चन्द्रस्तु सप्तमः प्रस्तुतगाथानुसरणार्थमेव मध्यमभङ्गेऽलेखि । एतद्भङ्गइयोत्तीर्णास्त्वधमभङ्गे । शुक्रस्त्वेकादशः सूत्रे रेखाप्रदत्वेनोकोऽपि नारचन्द्रलग्नंशुद्ध्यादिषु निषिद्धत्वा दधमभङ्गेऽलेखि || विवाहलग्नरेखाप्रदां ग्रहसंस्थामाह
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२३०
आरम्भ-सिद्धिः
विवाहे त्वर्कीि त्रिरिपु६निधना८ ११येषु शुभदौ, विधुः स्व२त्र्या ३येषु११ क्षितितनय आय ११त्रि३ रिपुगः। बुधेज्यौ सप्ता ७ ष्ट ८ व्यय १२ विरहितावास्फुजिदरि६स्मरा७ष्टान्त्या१२न्मुक्त्वा वितनु१सुख४कामेवथ तमः।
व्याख्या--स्वव्यायेष्वपि, यल्लल्लः-. “योन्दु यगतो न तृतीयो न द्वितीयगश्चापि ।। अनुकूलैरपि शेषैस्तल्लग्नं वर्जयेन्मतिमान् ॥१॥” सप्ताष्टेति यच्छौनकः - " सप्तमगते बुधे सति सप्ताब्दान्मारयेत् पतिं कन्या । मासत्रयेण कन्या निधनगते पश्चतां याति ॥ १ ॥ आयुःसोभाग्ययोभङ्गः पुंसां द्यूनगते गुरौ । भृगौ तु योषितामाह विवाहे देवलो मुनिः ॥ २॥" आस्फुजित् शुक्रः । अरिस्मराष्टेति, यदुक्तं दैवज्ञवल्लभे
" लग्नस्थेऽपि गुरौ दुष्टे, भृगुः षष्ठोऽष्टमः कुजः ।" इति । वितन्विति यच्छौनकः-"लग्नस्थो वरमरणं राहुर्दिशति धुने कनीमरणम् ।” इति । " त्यज्या लग्नेऽब्धयो मन्दात् "
इति श्लोकोक्तभङ्ग स्थानानि तुर्यं च विना शेषेषु पञ्चमसप्तमेषु नवमदशमानामन्यतमे सौम्यक्षेत्र शुभदृष्टश्च शशी रेखाप्रद एवेति त्रिविक्रमः ॥
अथ षष्ठाटमद्वादशस्थानानामशुभत्वात्तत्र ग्रहस्थितिनिर्धारसङ्ग्रहमाहविवाहे नाष्टमाः श्रेष्ठाः पञ्च सूर्यशनी विना । षष्ठी चेन्दुसितौ तद्वदन्त्येऽन्त्य इति केचन ।। ३७ ॥
व्याख्या--शुक्रशनी स्वष्टमावपि श्रेष्ठौ, न शेषाः । षष्ठौ चेन्दुसितो तद्वदिति चन्द्रशुक्रौ षष्टौ न श्रेष्ठौ, शेषाः पञ्च श्रेष्ठा एव । केचिस्वाहु:-भन्स्ये द्वादशेऽन्त्यः केतुर्न श्रेष्ठः । एषा किलोत्तमभङ्गे ग्रहसंस्था । विशेषस्तु" भौमे लग्नकलत्रनधनगते शुक्रे रिसप्ताटगे, चन्द्रे रन्ध्रविलग्नषष्ठनिरते लग्नास्तगे भास्वति । तद्वद्भानुसुते गुरौ निधनगे सौम्येऽष्टजामित्रगे, जायाम्भोनिधिलग्नभाजि तमसि प्राहुर्न पाणिग्रहम् ॥ १॥
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पञ्चम विमर्शः
एतेऽधमा यतिवल्लभोक्ताः । भजद्वयोत्तीर्णास्तु मध्यमभङ्गे । स्थापना त्वियम्-विवाहलग्नग्रहसंस्थेयम्
मध्यम् , २-४-५-९-१०-१२ ४-५-७-९-१०-१२ २-४-५-९-१०-१२
अधम १-७ १-६-८ १-७-८
उत्तम रवि ३-६-८-१० चन्द्र २-३--११ मंगल
३-६-११
१-२-३-४-५-६-९-१०-११ गुरु १-२-३-४-५-६-९-१०-११ शुक्र १-२-३-४.५-९-१०-११ शनि रा० के० २-३-५-६-८-९-१०-११ ।
७-१२
१२ २-४-५-९-१
१२ ।
१-७
अथ चतुर्भिः श्लोकैर्विवाहलग्ने विशेषानाह
चन्द्रे च लग्ने च चरेऽङ्गनाग्रहैदृष्टे च केन्द्रे बलिभिः श्रितेचरैः १ । युग्मलंगे वाऽथ विधौ विलोकिते
पापग्रहैः २ स्याद्युक्तेः पतिद्वयम् ॥ ३८ ॥ व्याख्या-चन्द्रे चरराशिस्थे सति, लग्ने च चरे सति, तयोश्च चन्द्रलग्नयोः स्त्रीग्रहाणां दृष्टौ सत्यां । तथा केन्द्रे इति, एकस्मिन्नपि केन्द्रे किं पुनर्द्वित्रिषु बलवद्भिश्वरग्रहैर्यायि संज्ञैः, सूर्येन्दुकुजशुक्ररूपैरधिष्ठिते च सति इत्येको योगः ।। मिथुनस्थे चन्द्रे पापग्रहैः पूर्णदृशा दृष्टे चेति द्वितीयः २ । उक्तञ्च दैवज्ञवल्लमे
“चरराशौ विलग्नेन्द्वोरङ्गनाग्रहदृष्टयोः ।
बलिभिर्यायिभिः केन्द्रे भजेन्नारी पतिद्वयम् ॥ १ ॥" “चन्द्रे युग्मस्थिते पापैदृष्टेऽन्यो योषितः पतिः । " इति तथारविचन्द्रकुजैर्नीच १ लैंग्नेशे शत्रुराशिगे २। निर्वीर्ये चापि जामित्रे ३ युवत्या निरपत्यता ॥ ३९ ॥
ग्याख्या-जामित्रं सप्तमं, स्वामिसौम्यग्रहयुतिदृष्टयभावक्ररतद्भावादिना निर्वीर्यस्वं । अत्र त्रिभिः पादैस्त्रयो योगाः ॥ तथा
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२३२
आरम्भ-सिद्धिः
जामिनेशः पतिः स्त्रीणां श्वशुरो भृगुभास्करो। तैरुचादिस्थितैस्तेषां श्रेयः स्यादन्यदन्यथा ॥ ४० ॥
व्याख्या-श्वशुराविति भृगुः श्वश्रूः, रबिः श्वशुरः, एकशेषे श्वशुरौ । तैरति जामिनेशाद्यैः । उच्चादीति स्वोच्चे दीप्तः १ । स्वः स्वस्थः २ । सुहृद्गृहे मुदिलः ३ । स्ववर्गगः शान्तः ४ । स्फुटकिरणभृत् शक्तः ५। स्वं नीचमतिक्रान्तः स्वोचाभिमुखः प्रवृद्धवीर्यः ६ । स्वांशस्थः सौम्यैदृष्टोऽधिवीर्यः ७ । सूर्यहतो विकल: ८ । शत्रुगृहे खलः ९ । ग्रहविजितः पीडितः १० । नीचः दीनः ११ । इति लल्लोक्तास्वेकादशसु ग्रहावस्थासु शुभावस्थैः तेषां पत्यादीनां । अन्यदन्यथेति, भास्वेवावस्थास्वशुभावस्थैर्जामिनेशशुक्राः क्रमात्तेषां पत्यादीनामश्रेयः ॥ तथा
लग्नोदितांशः स्वेशेन युतो दृष्टोऽथवा नृणाम् । तद्वजामित्रगः स्त्रीणामिष्टोऽनिष्टो विपर्यये ॥ ४१ ॥
व्याख्या-लग्नेऽधिकृत उदयी यो नवांशः स लग्नोदितांशः तक्षामा राशिर्यत्र तत्र स्थितोऽपि चेत्स्वस्वामिना युतो दृष्टो वा स्यात्तदा लग्नोदितांशः स्वेशयुतदृष्ट उच्यते । स नृणामिति वरस्य इष्ट इति लग्नस्थो यत्सङ्ख्योऽश उदयी तत्सङ्ख्यः सप्तमगृहस्यांशो यदि पूर्ववत् स्वेशयुतदृष्टस्तदा स्त्रीणामिति कन्यायाः शुभदः । विपर्यय इति उदयी लग्नांशश्चेत् स्वेशयुतदृष्टो न स्यात्तदा पत्युमत्युः। द्यनस्य तत्सङ्ख्य एवांशश्चेत् स्वेशयुतदृष्टो न स्यात्तदा वध्वा मृत्युः । तदयं भावः-एकः किलोदयास्तशुद्धिप्रकारोऽयं । यदुक्तं यतिवल्लभे"लग्नोदिते तत्प्रभुणा नवांशे, दृष्टे युते वोदयशुद्धिरुक्ता । तत्सप्तमांशे तु कलत्रभाजि, स्वस्वामिनैवं कथिताऽस्तशुद्धिः ॥ १॥"
___ अत्र तत्मप्तमांशे स्विति कोऽर्थः ? लग्ने यावतिथोऽश उदितः सप्तम. भावस्य कलत्राख्य स्य तावतिथोऽशो लग्नोदितांशाद्गणनया सप्तम एव स्यात् , इत्येकोऽयमुदयास्त शुद्धयोः प्रकारः । अन्दश्चाने वक्ष्यते । उभावपि चोदयास्तशुद्विप्रकारौ विवाह लग्नेष्ववश्यं ग्राह्यौ । भास्करस्तु पञ्चमगृहे तावतिथं पुत्रनवांशकमपि स्वेशयुतदृष्टमिच्छति । आह च
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पञ्चम विमर्शः
२३३
" नाथायुक्तेक्षिता लग्नभार्यापुत्र नवांशकाः । __ क्रमात् पुंस्त्रीसुतान् घ्नन्ति न घ्नन्ति युतवीक्षिताः ॥ १ ॥" अथ नवभिः श्लोकैः सर्वकार्यसाधारणान् ग्रहसंस्थात्मकान् शुभाशुभयोगानाहलाभेऽरौि शुभा धर्मे श्रीवत्सो यद्यरो शनिः । अर्धेन्दुर्विक्रमे मन्दो रवि भे रिपो कुजः २ ॥ ४२ ॥
व्याख्या-यद्यराविति ये ये ग्रहाः स्थानेषु नियमितास्ते ते तथा विलोक्यन्ते, शेषास्तु यथेच्छं । एवं सर्वयोगेषु यथासम्भवं ज्ञेयम् ॥ शङ्खः शुभग्रहैबन्धुधर्मकर्मस्थित भवेत् ३ । ध्वजः सौम्यैर्विलग्नस्थैः क्रूरैश्च निधनाश्रितः४॥ ४३ ॥ गुरुर्धर्म व्यये शुक्रो लग्ने ज्ञश्चेत्तदा गजः५ । कन्यालग्नेलिगे चन्द्रे हर्षः शुक्रेज्ययोमंगे६ ॥ ४४ ॥
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चिंट
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--...
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व्याख्या-कन्येति हर्षयोगे कन्यालग्नं नियमयन् ज्ञापयति, अपरयोगेषु लग्ननियमः कोऽपि नास्तीति । हर्षयोगस्थापना--- धनुरष्टमगैः सौम्यैः पापैर्व्ययगर्भवेत् ७ । कुठारो भार्गवे षष्ठे धर्मस्थेऽर्के शनी व्यये ८ ॥ १५ ॥ मुशलो (लं) बन्धुगे भौमे शनावन्त्येऽष्टमे विधौ९ । चक्रं च प्राचि चक्रार्धे चन्द्रात् पापशुभैः क्रमात् ' ० ॥४६॥ ___व्यख्या-प्राचि चक्रार्धे इति, लग्नस्य यावन्तोऽशा उदिताः दशमस्य तावद्भयोशेभ्योऽग्रे प्रदक्षिणं गमने तुर्यस्य तावदंशान् यावच्चक्रस्य प्राच्यमध तत्र धुरि चन्द्रस्तस्मादेकान्तरं गृहेषु पापः शुभश्चेति ग्रहसंस्थायां चक्रयोगः । स्थापना
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२३४
आरम्भ-सिद्धिः
२सौ
४ सो
१क्र
१२ सौ
चं १०
क्रू ११
कूर्मः पुत्रार्थररन्ध्रान्त्ये १ष्वारमन्देन्दु भास्करैः ११ । वापी पापैस्तु केन्द्रस्थै १योगाः स्युर्द्वादशेत्यमी ॥ ४७ ॥ व्याख्या---- - कूर्मयोगे स्थानानां ग्रहाणां च यथासङख्यं ज्ञेयं । रत्नमालायां तु गजादिचतुष्कलक्षणमेवमूचे - "तनुनवभवगैः क्रमेण योगो, बुधविबुधार्चितपङ्गुभिर्गजः स्यात् । अत्र भवेत्येकादश रुद्रा इत्येकादशं गृहं लक्ष्यते ।
,"
66
""
व्ययरिपुहिबुकेषु वक्रशुक्रद्युमणिसुतैः क्रमशः कुठार एपः ॥ १ ॥ रविकविरविजेन्दुभिः क्रमेण, व्ययधनषनिधनेषु कूर्म एषः । व्ययनिधनतनूषु मन्दचन्द्रारुणकिरणैर्मुशलं जगुर्मुनीन्द्राः ॥ २ ॥ एभ्यः श्रीवत्सपूर्वाः षट् पूर्वे सर्वेषु कर्मसु । श्रेयस्तमा धनुर्मुख्यास्त्वन्यथा स्युः षडुत्तरे ॥ ४८ ॥
व्याख्या--- - श्रीवत्सपूर्वा इति श्रीवत्साद्याः षट् पूर्वे प्रथमा: । अन्यथेति अत्यन्तमशुभाः । विशेषस्तु —
"(
उमगे मम्मं १ नवपंचमि क्रूरकंटयं भणियं २ | दसम उत्थे खलं ३ कुरा उदयत्थितं छिद्दं ४ ॥ १ ॥ मम्मदोसेण मरणं कंटयदोसेण कुलख्खओ होइ । सल्लेण रायसत्तू छिद्दे पुत्तं विणासेह ॥ २ ॥ इति पूर्णभद्रः ॥ आनन्द १जीव २ नन्दन ३ जीमूत ४जय५ स्थिरा ६ मृता७योगाः । ज्ञगुरुसितैः प्रत्येकं द्विकत्रिकैश्चापि लग्नगतैः ॥ ४९ ॥
व्याख्या - लग्ने स्थितैः प्रत्येकं ज्ञायैः क्रमेणानन्दादि त्र्यं ३, शगुरुभ्यां जीमूत: ४, ज्ञशुक्राभ्यां जय: ५, गुरुशुक्राभ्यां स्थिरः ६, त्रिभिरपि लग्नस्थैरमृतः ७ । द्विकत्रिकैश्चेति द्विका द्वयरूपाः, त्रिकास्त्रयरूपाः u
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पञ्चम विमर्शः
योगा यथार्थनामानः सर्वेषूत्तमकर्मसु । ऐश्वर्य राज्य साम्राज्यविधातारः क्रमादमी ॥ ५० ॥
व्याख्या— साम्राज्येति " 'सम्राट् तु शास्ति यो नृपान् " । अमी इति, क्रमाद्विकमिता एककद्विकत्रिकयोगाः एवमेते सर्वयोगास्त्रयोविंशतिः ॥ प्रतिछालग्ने रेखाप्रदग्रह संस्थामाह
प्रतिष्ठायां श्रेष्ठो रविरूपचये ३-६-१०-११ शीतकिरणः,
स्वधर्मादये तत्र २-३-६-९-१०-११ क्षितिजरविजौ घ्यायरिपुगौ ३-११-६ । बुधस्वचार्यौ व्ययनिधन वर्जी
66
२३५
१-२-३-४-५-६-७-९-१०-११ भृगुसुतः, सुतं यावलग्नान्नवमदशमायेष्वपि
तथा १-२-३-४-५-९-१०-११ ॥ ५१ ॥ - भङ्गदास्त्वेवं त्रिविक्रमेणोक्ताः
व्याख्या---२
लग्नमृत्यु सुतास्तेषु पापा रन्ध्रे शुभाः स्थिताः । त्याज्या देवप्रतिष्ठायां लग्नषष्ठाष्टगः शशी ॥ १ ॥
99
अत्र पापा इति ख्यारशनिराहवो नान्ये, तत एकस्मिन्नपि भङ्गदस्थानस्थे ग्रहे सति रेखाधिकेऽपि लग्ने प्रतिष्ठा न कार्या, भङ्गदत्वं विना केषुचिदिष्टेषु केषुचिदनिष्टेषु च सरस्वपि रेखाधिके लग्ने प्रतिष्ठा कार्या । यत्तु कैश्चित् षष्ठशशी प्रतिष्ठायां रेखाप्रद इत्युक्तं तद्योगवशादेव नापरथेग्यू- ह्यमिति त्रिविक्रमशतकटीकायां । नारचन्द्रे तूत्तम १ मध्यम २ विमध्यमा ३ धम ४ चतुर्भङ्गी ग्रहाणामूचे । तथाहि
"त्रिरिपा १ वासुतखेर स्वत्रिकोणकेन्द्रे३ विरैस्मरेऽत्रा४ ग्न्यर्थे५ । लामे६ क्रूर१ बुधारचिंत३ भृगु४ शशि५ सर्वे६ क्रमेण शुभाः ॥ १ ॥ " आसुतेति भयात् पञ्चमं यावद्यानि स्थानानि तेषु । विरैस्मरेऽनेति, स्वत्रिकोण केन्द्रैर्यानि सप्त स्थानानि तन्मध्यात् रैस्मरेति द्वितीय सप्तमे त्याज्ये, शेषपवस्थानेष्वित्यर्थः अग्निस्तृतीय, अथ द्वितीयं । भचितो गुरुः । अपि च" खेऽर्कः केन्द्रारिधर्मेषु शशी शोऽरिनवास्तगः । षष्ठेज्यः स्वनिगः शुक्रो मध्यमाः स्थापनक्षणे ॥ २ ॥ आरेन्द्रर्काः सुतेऽस्तारिरिष्ये शुक्रस्त्रिगो गुरुः । विमध्यमाः शनिर्धीखे सर्वे शेषेषु निन्दिताः ॥ ३ ॥ "
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२३६
66
प्रतिष्ठायां ग्रहसंस्थेयं -३
उत्तम
रवि
चन्द्र
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
३-६-११
२- ३-११
३-६ - ११
३-६-११
रा. के. ३-६-११
१-२-३-४-५-१०-११
१-२-४-५-९-७-१०-११ १-४-५-९-१०-११
विमध्यम
५
ג'
५
०
आरम्भ-सिद्धिः
३
६-७-१२
५-१०
०
-स्थापना यथा
मध्यम
૧૦
१-४--६-७-९-१०
0
६-७-९
२-३
४-५
अधम
१-२-४-७-८-९-१२
८-१२ १-९-४-७-८-९-१०-१२
८-१२
८-१२
८
१-२-४-७-८-९-१२ १-७
-९-१०-१२
पूर्णभद्रस्तु ग्रहसंस्थाफलान्येवमाह
'प्रासादभङ्ग १हानी २घनं ३ स्वजन ४ पुत्र पीड५ रिपुघाताः ६ ।
स्त्री मृति७मृतिधर्म गमाः ९ सुख १०र्द्धि ११शोका १२ स्तनोः प्रभृति सूर्यात् ॥ कर्तृविनाश१ धनागम२ सौभाग्य३ द्वन्द्व४ दैन्य५ रिपुविजयाः ६ । शशिनोऽसुख७ मृति८ विनार नृपपूजा१० विषय ११ वसुहानी १२ ॥ २॥ दहनं १ सुरगृहभङ्गो भूलाभो३ रोगट पुत्रशस्त्रमृती५ । रिपु६ नारी७ स्वजन८ गुणभ्रंशा९ रोगा१० र्थ ११ हानयो १२ भौमात् ॥३॥ चिरमहिम ? धन२ रिपुक्षय३ सुख४ सुत५ परिपन्थिमरण६ वरकन्याः७ । शशिजेन सूरिमृत्यु वैसुर कर्मा१० भरण११ रैनाशाः १२ ॥ ४ ॥ कीर्ति १ वृद्धिः २ सौख्यं ३ रिपुनाशः ४ सुतसुखं५ स्वजनशोकः ६ । स्त्रीसुख गुरुमृति धन९लाभ१० ऋद्धया ११ हानि१२रमरगुरोः ॥ ५ ॥ सिद्धि१धन २मान ३ तेजः४ स्त्री सुख५ दुष्कीर्तयः ६ सुताप्तियुता । चैत्यादि सर्वहानि७श्चासुख८मितरेषु९-१०-११-१२ पूज्यता शुक्रात् |६|
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पञ्चम विमर्शः
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पूजा १ कर्तृविघात २ भूरिविभव ३ प्रासादबन्धुक्षयाः ४, पुत्राक्षेम ५ विपक्षरोगविलय ६ ज्ञातिप्रियाण्यापदः ७।। गोत्रप्राणिविपत्ति ८ पातकपरिप्वङ्गौ च ९ कार्यक्षतिः १०, कान्ताकाञ्चनरत्नजीवितधनं ११ मन्देन मान्द्योदयः १२ ॥ ७॥" "सकलकुण्डलिकासु विधुन्तुदः, शनिसमानफलो हि विचार्यताम् ।" लल्लरत्वाह-बलवति सूर्यस्य सुते बलहीनेऽङ्गारके बुधे चैव ।
मेषवृषस्थे मर्ये क्षपाकरेऽहिती स्थाप्या ॥ १॥" " मेषमृगस्थे सूत्र...............” इति केचित् पठन्ति । " बलहीने त्रिदशगुरौ बलवति भौमे त्रिकोणसंस्थे वा । असुरगुरौ चायस्थे महेश्वरार्चा प्रतिष्ठाप्या ॥ २ ॥ बलहीने त्वसुरगुरौ वलवति चन्दात्मजे विलग्ने वा । त्रिदशगुरावायस्थे स्थाप्या ब्राह्मी तथा प्रतिमा ॥ ३ ॥ शुक्रोदये नवम्यां बलवति चन्द्रे कुजे गगनसंस्थे । त्रिदशगुरौ बलयुक्ते देवीनां स्थापयेदर्चाम् ॥ ४ ॥ बुधलग्ने जीवे वा चतुष्टयस्थे भृगौ हिबुकसंस्थे । वासवकुमारयक्षेन्दुभास्कराणां प्रतिष्ठा स्यात् ॥ ५ ॥ यस्य ग्रहस्य यो वर्गस्तेन युक्त निशाकरे । प्रतिष्ठा तस्य कर्तव्या स्वस्ववोदयेऽपि वा ॥ ६ ॥ अस्मात्कालाद् भ्रणास्ते कारकसूत्रधारकर्तृणाम् ।।
क्षयमरणबन्धनामयविवादशोकादिकर्तारः ॥ ७ ॥" विशेषस्तु सर्वग्रहै रेखाप्रदैः नर्व कार्येपु विशति विशोपकं लग्नं स्यात् । तथाहि“ अध्धु विसा रविणो पण ससिणो तिन्नि हुंति तह गुरुणो ।
दो दो बुहसुकाणं सडढा सणिभोमराहूर्ण ॥ ६ ॥" ___ एवं मीलने विंशतिर्विशोपाः ॥ प्रतिष्ठालग्ने विशेषानाह-. बलहीनाः प्रतिष्ठायां रवीन्दुगुरुभार्गवाः । गृहेश१गृहिणीरसौख्य३स्वानि४ हन्युर्यथाक्रमम् ॥ ५२ ॥
व्याख्या-बलहीना इति, अष्टादशधा नवधा वाऽबलता प्रागुक्ता, यद्वा नीचः क्रूरयुतोऽस्तमितो वा ग्रहो विबल एव ॥ तथातनुबन्धु४सुन५धून७धर्मेषु९ तिमिरान्तकः । सकर्मस्तु१० कुजाकी च संहरन्ति सुरालयम् ।। ५३ ।।
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आरम्भ-सिद्धिः
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व्याख्या - तिमिरान्तकोऽर्कः । सकर्मस्विति कुजार्को तम्बादिवदशमस्थावपि । सुगलं प्रासादम् || अथ सर्वकार्ये शुभग्रहाणां शक्तिफलमाहसौम्यवाक्पति शुक्राणां य एकोऽपि बलोत्कटः । क्रूरैरयुक्तः केन्द्रस्थः सद्यो रिष्टं पिनष्टि सः ॥ ५४ ॥ व्याख्या-- - बलोत्कट इति, ग्रहे कि बलं विंशतिधा, तथाहिस्व१ मित्र२ ३ च४ मार्गस्थ५ स्व६ मित्रवर्गगो७ दितः८ । जयी९ चोत्तरचारी च१० सुहृत्११ सौम्यावलोकितः १२ ॥ १ ॥ त्रिकोणा १३ यगतो लग्नात् २४ हर्षी २७ वर्गोत्तमांशग: ९८ । मुथु शिलं १९ मूशरिफं२० यदि सौम्यैग्रहै सहः ॥ २ ॥ सर्वयोगे भवेदेवं बलानां विंशतिग्रहै । यावद्रयुताः खेटास्तावद्विशोपकाः फलम् ॥ ३ ॥ हर्षाति कोऽर्थः ? ग्रहाणां तावच्चतुर्धा हर्षस्थानं, तथाहि “गो९५३६काश्य१९धी रिप१२स्थानानि भास्करादिषु । हर्ष स्थानमिदं पूर्व १ सर्वेषु स्वोच्चमं परम् ॥ १ ॥ निशि सायं १ दिने २ योषित् १ पुंग्रहैश्च २ परं क्रमात् ३ । तुर्ये व्योम्नस्तनुं यावत्तुर्य्याद्यावच्च सप्तमम् ॥ २ ॥ पुंग्रहेषु तनोयवित्तु सप्तमतो नभः ।
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स्त्रोग्रहेषु मुदः स्थानं ४ फलं तदनुमानतः ॥ ३ ॥
भाव्या ।
८.पूच्चं प्रागुक्तत्वान्न तिनिति त्रिधा हर्षित्वं । पूर्वोक्तेकादशावस्थासु शुभावस्थः षड्विधादिबल्युको वा बली । एवमन्यत्रापि सबलता सद्यो रिष्टमिति तात्कालिकं रिष्टयोगं । कोऽर्थः ? तत्काले यानि लग्नतिथिवारादीनि स्युस्तेषां योगेनोपको रिष्टयोगो मधुसर्पिषोः समसमायोगेन विषयोगवत् तं । स चैवं—
"उदयागतलग्नमिति (ति) सङ्क्रान्तेर्भुक्त दिवसमितियुक्ताम् ।
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सैकां च विधाय बुधः पृथक् पृथक् पञ्चधा न्यसेत् ॥ १ ॥ क्षिप्त्वा तत्र क्रमशः तिथि २५रवि१२दश१०वसु८मुनीन् ७भजेन्नवभिः । शेषाङ्कः शरसङ्ख्यो यदि भवति तदा वदेनिपुणः ॥ २ ॥ कलह १ कृशानुभीतिर्भूपभयं३ चौरविद्रवो ४ मृत्यु ५ ।
क्रमशो भवेत् प्रतिष्ठा परिणयनादी तदा रिष्टम् ॥ ३ ॥ इति ज्योतिषसारादौ । यद्वा
तिथिवार भलग्नाङ्कान् सम्मील्य न्यस्य पञ्चशः । रसा६रामा३मही ? नागावेदा४स्तेषु क्रमाद् ध्रुवाः ॥ १ ॥
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पचम विमर्शः
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क्षेप्यास्ततो ग्रहै ९ भांगे पञ्चशेष फलं क्रमात् । .. रुजाग्निरक्षितिभृ३ञ्चौरभयंमृत्युभयं ५तथा ॥ २ ॥ राशिपञ्चकशेषाणां योगे तु नवभिहते । पञ्चशेष भवेन्नागभीतिर्लग्ने निशागते ॥ ३ ॥
॥ इति बुधपञ्चकदोषः ॥ पिनष्टीति जातकवृत्तावप्येवमुक्तं यदुत बुधगुरुशुक्राणां बलौस्त्रव्ये योगकर्तृग्रहोपरि तेषां पुष्टदृष्टया च सर्वेषां रिष्टयोगानां निर्बलस्वमितीहापि तथैचोचे ॥ एषामेव तुङ्गत्वे शक्तिफलमाह-- बलिष्ठः स्वोच्चगो दोषानशीति शीतरश्मिजः । वाक्पतिस्तु शतं हन्ति सहस्रं चासुरार्चितः ॥ ५५ ॥
व्याख्या-अतिशयेन बलवान् बलिष्ठः रविबिम्बायुतत्वादिना, इदं-- स्वोच्चग इति च, गुरुशुक्रयोरपि योज्यं । दोषानिति पादगतवेधक्रान्तिसाम्याचसाध्यदोषविवर्षानिति स्वयमूह्य । अशीतिशतसहस्रशब्दा बहुबहुतरबहुतमत्वमा. अलक्षकाः, न तु यथोक्तसङ्ख्यानिष्टाः । ऐवीदृशेषु सत्सु प्रतिष्ठादि श्रेष्टमित्याशयः । एवमप्रेऽपि ॥ एषामेव केन्द्रस्थरवे शक्तिमाहवुधो विनार्केण चतुष्टयेषु, स्थितः शतं हन्ति विलग्नदोषान् । शुक्रः सहस्रं विमनोभवेषु, सर्वत्र गीर्वाणगुरुस्तु लक्षम् ॥
व्याख्या-विनार्केणेति त्रिष्वपि योज्यम् । विमनोभवेविति सप्तमवकेन्द्रेषु । सर्वत्रेति चतुर्वपि केन्द्रेषु । रत्नमालाभाष्ये तु विमनोवेष्विनि त्रिष्वपि योजितम् । तच्च विवाहदीशे अधिकृत्यात्रापि सम्यग्योज्यं, " विवाहदीक्षयोलग्ने छूनेन्दुग्रहवर्जितो" इत्युक्तेः । लक्षमिति, उक्त" तिथिवासरनक्षत्रयोगलग्नक्षणादिजान् । सबलान् हरतो दोषान् गुरुशुक्रो विलग्नगौ ॥ १ ॥ त्रिकोणकेन्द्रगा वाऽपि भङ्गं दोषस्य कुर्वते । वक्रनीचारिगा वाऽपि ज्ञजीवभृगवः शुभाः ॥२॥ शुभाः इत्यस्यायं भाव:--- " वकारिनीचराशिस्थः शुभकृत्प्रोच्यते गुरुः । स्वोच्चांशस्थः स्ववर्गस्थो भृगुणा शेन वा युतः॥१॥ इति व्यवहारप्रकाशे ।
विशेषस्तु-दोषाः किल द्विधा-एकाकिनोऽप्येके लममुपनन्ति, केचित्तु द्वित्रा मिलित्वैव नन्ति, न स्वेकाकिनः । ते चंवै
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आरम्भ-सिद्धिः
दीक्षायां पूर्णिमा तिथिः १ । प्रतिष्ठायां मंगलवारः २ । प्रतिष्ठादौ गुरोश्चन्द्रबलं न ३ । शिष्यस्थापकयोस्तु जीवेन्द्वबलानि समुदितानि विलोक्यन्ते तानि न सन्ति ४ । विवाहे वरस्य चन्द्रबलं न ५। कन्यायास्तु जीवे. न्दुबलानि समुदितानि विलोक्यन्ते तानि न स्युः ६ । शिष्यस्थापकवरकन्यानां जन्मगशिलग्नानि १०, जन्मलग्नलग्नानि १४, ताभ्यामेवाष्टमानि २२, द्वादशानि च लग्नानि ३० । तेषामेव शिष्यादीनां जन्मराशितो ३४ जन्मलग्नाद्वाऽष्टमस्थग्रहाणां तात्कालिकलग्ने मूर्ताववस्थानं ३८ । तेषामेव जन्मभानि ४२ । प्रतिष्ठादिसर्वकार्यलग्ने षु च कौमुक्त ४३ भोम्या ४४ ऽऽकान्तभानि ४५ । ग्रह विद्धं वा ४६, ग्रहभिन्नं वा ४७, ग्रहै रुदया ४८ स्तकरणेन दूषितं वा ४९, वक्र ग्रहाक्रान्तं वा ५०, उल्काद्युत्पातदूषितं वा भं ५१ । लग्न ५२ तिथि ५३ नक्षत्रगण्डान्ताः ५४ । एकार्गल ५५ विष्टि ५६ व्यतिपात ५७ वैधत ५८ क्रान्तिसा. म्यानि ५९ । सङक्रान्तेरुभयपार्श्वयोः षोडश षोडश घट्यः ६०। भर्धयाम ६१ कुलिको ६२ । ग्रहणभं ६३ । ग्रहण दूषितदिनाः ६४ । लग्नाद्वा ६५ चन्द्राद्वा ६६ उभाभ्यां वा परमजामित्रस्थः करग्रहः ६७, शुक्रो वा ७० । अशुभे वार- होरे युगपत् ७१ । अशुभस्थानेषु ग्रहा: ७२ । भावरीत्यापि निषिद्धस्थानेष्वापतन्तो ग्रहाः ७३ । लग्नस्य ७४ चन्द्रस्य ७५ उभयोरपि वा प्रत्येकमुभयतः पञ्चदशत्रिंशांशमध्ये क्रूर महाविति काकर्तर्यः ७६ । लग्नेशः ७७ अंशेश: ७८ उभावपि भावाषष्ठौ ७९, तथैव भावाष्टमौ वा ८२ । अनुक्तो नवांशः ८३ । चन्द्रेण ८४ करेण वाऽऽश्रितत्वेनाशुद्धं लग्नं ८५, नवांशो वा ८७ । उदया ८८ स्तयोरशुद्धि ८९ श्चति ॥
" एषां मध्यादेकेनापि हि दोषेण दृष्यते लग्नम् । द्वित्रैर्दोषमिलितैयैर्न शुभं तानथो वक्ष्ये ॥ १ ॥ चन्द्रस्य मृतावस्था १ यमाहिरक्षोऽग्निपः क्षणो यत्र २ । अवमं त्रिदिनस्पृग्वा ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ २ ॥ पापग्रहलत्ता १ चेदुपग्रहः २ स्थाद्वरायुधः पातः ३ । ज्ञात्वैवं त्रिभिरेतेर्भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ३ ॥ द्विव्ययगाश्चेत् क्रूराः १ सौम्यानां केन्द्रसंस्थितिर्न भवेत् २ । लग्नपतिर्दुष्टयुतो ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ४ ॥ शुभांगहीनं लग्नं १ प्रसूतिभं नो शुभैर्यतं दृष्टम २ । केन्द्रस्थाश्चेन्न शुभा ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ५॥"
___भत्र प्रसूतिभमिति, शिष्यस्थापककन्याद्यन्यतरस्य जन्मराशिः शु भैयु तदृष्टो न स्यादित्यर्थः ।
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पचम विमर्शः
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" रविजीवौ समरेखौ शुद्धयां १ लग्नेऽपि मध्यभावफलो २ । केन्द्रगतो नो सौम्यौ ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ६ ॥ व्ययगः सौरो १ नवमे पापखगः सदग्रहैवियुक्तः स्यात् २ । भृगृसुतयुक्तश्चन्द्रो ३ भवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ७ ॥" ___ प्रतिष्ठायां शुक्रेन्दयुतिः श्रेष्टा । तेन विवाहादावयं योगो योज्यः । " अन्त्यचतुर्थ लग्न जन्मतिथिर्मास एव जन्माख्यः ३। फाल्गुनमीनार्कयुतिभेवेत्तदा लग्नमशुभाय ॥ ८ ॥ "
इत्येते समुदायिनो दोषा बुधगुरुशुकैः केन्द्रादिस्थैर्हन्यन्ते, यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे" हन्ति शतं दोषाणां शशिजः समुदायिनां हि केन्द्रस्थः । शुक्रो हन्ति सहस्रं बली गुरुलक्षमेकं हि ॥ १॥"
अथ ये एकाकिनो दोषास्ते द्विधा-साध्या असाध्याश्च । तत्र गण्डान्तविष्टिपरमजामित्रवेधादयो साध्याः, तेषु सत्सु सर्वग्रहबलादिनानागुणसद्भावेऽपि लग्नं न ग्राह्यम् । यदुक्तं' एकोऽपि दूषयेद्दोषः प्रवृद्धं गुणसञ्चयम् ।। सम्पूर्ण पञ्चगव्येन मद्यबिन्दुर्घटं यथा ॥ १ ॥"
ये तु साध्यदोषास्तेषां प्रतीकारं श्लोकद्वयेनाह-- लग्नजातान्नवांशोत्थान् करदृष्टिकृतानपि । हन्याज्जीवस्तनौ दोषान् व्याधीन् धन्वन्तरियथा ।। ५७ ॥
व्याख्या-तनाविति मूर्तिस्थोऽतिबलिष्ठो गुरुरेतान् दोषान् हन्ति । लग्रजातानिति "जन्मराशि जनेलग्नं.................." इत्याधुक्तान् नवांशोत्थानिति अनधिकृतनवांशस्वादिना जातान् । करदृष्टिकृतानिति, उक्तं हि " स्थापने स्युर्विधौ दृष्टे युक्त च" इत्यादि । तथा सति
"दर्शने यदि स्यादंशद्वादशकमध्यगः क्रूरः । . इन्दोर्लग्नस्य तथा न शुभः सर्वेषु कार्येषु ॥ १ ॥"
ॐ स्यार्थः-लग्नं चन्द्रोऽन्येऽपि च ग्रहाः स्वस्वत्रिंशांशकस्थास्तात्कालिकाः स्पष्टीकाराः । ततो यग्रहलग्नेन्दू दृश्येते तेषां लग्नेन्द्वोश्च भुक्तत्रिंशांशानां विश्लेषे कृते चेत् द्वादश यावदुद्धरन्ति तावत् क्रूरग्रहो न शुभः, सौम्यग्रहस्तु शुभः । यथा शनिर्विशांशस्थो लग्नं चन्द्र वाऽष्टमांशस्थं पश्यति, अन्तरे कृते द्वादश, एवमेकादशदशादयोऽपि वज्यों द्वादशभ्योऽशेभ्य उपरिस्थस्य तु क्रूरस्य रष्टिर्न दुष्टेति भावः । कृतानपीत्यपिशब्दात् क्रायुतिकृता अपि दोषा इह लक्ष्याः । उक्तं हि-" दीक्षायां कुरुते चन्द्रः" इत्यादि । व्याधीनिति यथा
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आरम्भ-सिद्धिः
तनौ शरीरे धन्वन्तरिर्व्याधीन् हन्ति ॥ शुभग्रहाणां दृष्टेः शक्तिमाहलग्नात् क्रूरो न दोषाय निन्द्यस्थान स्थितोऽपि सन् । दृष्टः केन्द्रत्रिकोणस्थैः सौम्यजीव सितैर्यदि ॥ ५८ ॥ व्याख्या-- - निन्द्येति, उक्तं हि - " त्रिष्वपि क्रूरमध्यस्थौ ' " इत्यादि । " भवेजन्मनि जन्मक्षत्" इत्यादि । शनिस्त्रिकोणकेन्द्रस्थ " इत्यादि ।
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'रविः कुजोऽर्कजो राहुः " इत्यादि । "तनुत्रग्धुसुतधून " इत्यादि च, तेषां तेषां दोषाणामपवादोऽयं । दृष्ट इदि च, सामान्योक्तेऽप्यत्र दृष्टिः पुष्टाऽभ्यूह्य । यदि च तस्य क्रूरस्य सौम्यजीवसितैः सह मैत्री जैसगिकी तात्कालिकी वा स्यात्तदा दृष्टेरधिकतरो विशेषः । केन्द्र त्रिकोणस्थैरिति उपलक्षणत्वात् स्वोगत्वादिना बलिष्टतरैरिति भावः । जीवेति, उक्तञ्च
कुरा हवन्ति सोमा सोमा दुगुणं फलं पयच्छन्ति । जइ पास किंदठिओ तिकोणपरिसंठिओ वि गुरू ॥ १ ॥ " शुभग्रहसंस्थां सङ्कलयन्नाह -
त्रिकोणकेन्द्रायगतैः शुभग्रहैर्विसप्तमेनासुरपूजितेन च । स्युः क्रूरचन्द्रे रिपु६विक्रमा३य ११गैः,
कर्तुः श्रियः सन्निहिताश्च देवताः ॥ ५९ ॥
व्याख्या - सप्तमबर्ज केन्द्रेषु त्रिकोणे वा स्थितः शुक्रः । क्रूरचन्द्रैरिति क्रूराश्चन्द्रश्चेति स क्रूरग्रहाः प्रतिष्ठिता दिलग्ने त्रिषडायगता एव शुभा, इत्यत्रापवादोऽयं - "पापोऽपि कर्तृजन्मेशः केन्द्रस्थः शस्यते ग्रहः ।
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अशून्यानि च केन्द्राणि मूर्ती जीवज्ञभार्गवाः ॥ १ ॥ अस्यार्थः - कर्तुः प्रतिष्ठाकारयितुः श्रावकस्य दीक्षणीयस्य दीक्षादातुर्गुरोर्वा जन्मनि नाम्नि वा यो राशिस्तत्स्वामी पापोऽपि केन्द्रस्थोऽपि शस्यते, केन्द्राणि
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शुभग्रहैरेवाधिष्ठितानि श्रेयांसि न तु शून्यानीति भावः । सन्निहिताश्चेति, देवता प्रतिमायामवतिष्ठते इत्यत एवंरूपे लग्ने प्रतिष्ठा कार्येति भावः । इह प्रतिष्टोद्देशेनोक्तं परमीदृशी ग्रहसंस्था सर्व्वकार्येषु सिद्धिदेति ज्ञेयम् ॥ अथोदयास्तशुद्धी प्राह
पश्यन्नंशाधिपो लग्नं भवेदुदय शुद्धये ।
अंशास्ते७शस्तु लग्न । स्तमस्तशुद्धयै विलोकयन् ॥ ६० ॥
व्याख्या - अंशाधिप इति, अंशशब्देनात्र सर्वत्र नवांश एव ग्राह्यः, तत्रैव ह्युदयास्तशुद्धी अन्वेष्ये, " प्रभुरिह नवांश " इत्युक्तेः, न तु द्वादशां
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पञ्चम विमशः
शत्रिंशांशेषु । उदयशुद्धये, इत्यत्र तादर्थे चतुर्थी, एवमग्रेऽपि, तत उदयिनवांशेशः स्वस्थानस्थो लग्नं पश्येत्तदोदयशुद्धिः स्यात, लग्नवीक्षणे तरस्थस्य नवांशस्यापि तदपृथग्भूतत्वेन वीक्षणभवनादित्यर्थः । अंशाधिप इत्युपलक्षणं, तेन पृच्छादिलग्नेषु लग्नेश एव लग्नं पश्यन् विलोक्यते, "शिरः शून्यं तदा लग्नं यदा स्वामी न पश्यति" इत्युक्तेः । अंशास्तेश इति, अस्तं सप्तमं ततो लग्ने यदाशिना मा नवांशस्तस्मादाशितो यदस्तं सप्तमं स्थानं तदीशचेल्लग्नापेक्षयाऽस्तं सप्तमं गृहं पश्येत्तदाऽस्तशुद्धिः । इयमत्र भावना-किल कर्कलग्नस्य तृतीये कन्यानवांशे गृह्यमाणे चेन्नवांशराशिका यास्थानासप्तमस्थानस्थस्य मीनराशेः स्वामी गुरुमेघवृश्चिकवृषकन्यातुलमिथुनकाणामन्यतमस्थः कर्कलग्नालप्तममकरराशिं पश्येत्तदा कर्कलग्ने कन्यानवांशेऽ'तशुद्धिः । पवमन्यत्रापि भाव्या (व्यं)। अन्ये स्वाहुः-" लग्ननवांशसमनामा गशिर्यत्र तत्रस्थः स्वेशदृष्टः स्यात्तदोदयशुद्धिः स्यात्"। श्रीहरिभद्रसूरयोऽप्याहुः"उदयत्थसुद्धिमिहि भणामि उदओ नवंसगो इत्थ । तम्मि अ लग्गविइण्णे सनाह दिठे उदयसुद्धी ॥ १ ॥"
अस्योदाहरणं यथा-मिथुनलग्ने मीन नवांशे गृह्यमाणे तदीशजीवेन मीनराशौ दृष्टे सत्युदयशुद्धिः, एवं सर्वत्र । स्थापना यथा
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व्यवहारप्रकाशे स्वेतस्प्रकारद्वयमपि बहु मेने । तथाहि"अंशाधिपतेदृर्घ्यदांशशास्तपस्य भागास्ते१ । भागपतेलग्ने वाऽप्यंशास्तपतेविलग्नास्ते२ ॥ १ ॥ उदयास्तस्य च यदि दृष्टेः शुद्धिर्भवेद्विलग्नेऽत्र ।। कान्ताया मङ्गल्यान्यतनूनि तनौ प्रजायन्ते ॥ २ ॥"
यतिवल्लभे स्वेवमप्यस्ति" उदयास्तांशतुल्यारम्यराश्योरपि विलोकने । योगेऽथवा परे प्राहुरुदयास्तविशुद्धताम् ॥ १॥" विलोकने इति, स्वस्वामिभ्यामिति शेषः । योगे इति, उदयास्तांशाख्य
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आरम्भ-सिद्धिः
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राश्योः : स्वाम्यधिष्ठितयोः सतोरित्यर्थः । इह चोदयातशुद्धयाधिकारे दृष्टिमात्रेणैव कार्य, तेन पुष्टाऽपुष्टा वा दृष्टिरिति वि.षो नान्धेष्यः ॥ विवाहेषु द्वयो ह्या विशुद्धिरुदयास्तयोः। प्रतिष्ठादीक्षयोस्तावान स्तशुद्धौ तु नाऽऽग्रहः ॥ ६१॥
व्याख्या-ग्राह्येत्यावश्य के ध्यण, अवश्य ग्रावेत्यर्थः । नाग्रह इति, उदयशुद्धिस्तु सर्वकार्यलग्नेषु विलोक्यत एवेत्याशयः। श्रीहरिभद्रसूरयस्त्वाहु:• वयगहणपइटासु उदयत्थविसुद्धिजि पि सुहं । मन्नति केइ लग्गं त च मयं बहुमयं नेय ॥ १ ॥"
अथ ग्राह्ये लग्ने तन्नवांशादौ च गुणदोषचिन्तां कृत्वा, निर्णीतेऽपि तत्समयः कदा समेतीति लग्नाकालानयनं वक्ष्यते, तत्रादौ लग्नानां मानमाहमध्ये मेषझषो पलैर्भनयनै २२७र्मातङ्गतत्वै२५८वृषः, कुम्भो वा मिथुनः पुनर्मकरवतर्काभ्रधूमध्वजैः ३०६ । कर्की धन्विवदम्बराम्बुधिगुण३४०रभ्राब्धिरामैरलि:३४०, सिंहश्वाथ कनीघटौ ग्रहरदै३२९रुद्यन्त्यमी राशयः ॥१२॥
व्याख्या-मध्य इति “हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्य" मित्यादिनिघण्टक्ते मध्यदेशे एते एते राशय उद्यन्ति उदयं यान्ति, इयद्भिरियद्भिः पलैर्घट्याः षष्टिभागरूपैः, पलमानं च षष्टिगुर्वक्षरैः, तथाहि" देवः श्रीसर्वज्ञो विश्वश्रीशः सिद्धिस्त्रीकान्तः, कामद्रुद्रोहाग्निर्मायादोषाभास्वानोरागः । चन्द्रश्वतश्लोकः स्याद्वादारामान्दो लोकार्यो, वीतापायः शान्तो लोकेभ्योऽसङख्यं सौख्यं देयात् ॥ १ ॥"
कामक्रीडाच्छन्दः । ईदृशस्य पलप्रमाणवृत्तस्य परिवारान् पठने घटी स्यात् । ननु द्रुतं द्रुततरं मन्यरं मन्थरतरं वा पलप्रमाणवृत्तस्य पठनसम्भवात् कथमिदं पलमानं न विसंवदते? मैवं, अद्रुतमन्थरं मध्यमगत्या पठनस्यैवानेष्टस्वात्, सर्वव्यवहाराणां मध्यममानेनैव लोके प्रवृत्तेः । सूक्ष्मे शिकार्थिनां त्वेवं वा वाच्यं-सङ्गीतशास्त्रप्रसिद्धस्य पञ्चमातृकतालस्याविच्छेदेन चतुर्विशतिवारान् हस्तमुखाभ्यां सम्यगुद्घट्टने सर्वथाऽप्यविसंवादि जलपल मेकं स्यादिति । ताल स्य स्वरूपं तदुद्घट्टनविधिश्व संगीतशास्त्रवेदिनां मुखाज्झेयः । भनयनैरिति, अत्रायं सम्प्रदायः"लङ्कोदया नागतुरङ्गदना२७८,गोऽङ्काश्विना२९९रामरदा३२३ विनाड्यः। क्रमोत्क्रमस्थाश्चरखण्डकैः स्वैः, क्रमोत्क्रमस्थैश्च विहीनयुक्ताः ॥ १ ॥ • "मेषादिषण्णामुदयाः स्वदेशे, तुलादितोऽमी च षडुत्क्रमस्था....... "
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पश्चम विमर्शः
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___ अस्यार्थ:-लङ्काया उंदया लग्नानि विनालङ्कालनपलमानम् ।
ड्यः पलानि, ततो लङ्कालग्नपलमानानां मेष २७८ मीन
क्रमोत्क्रमेग स्थापनेयम्वृष २९९ कुम्भ
____एभ्य एव "अयनलवे'' त्यादिकरणमिथुन ३.३ मकर कर्क ३२३ धन । कुतूहलरीत्याऽऽप्तस्वस्वदेशचरखण्डानां क्रमेण सिंह २९९ वृश्चिक | शोधन गाभ्यां स्वस्वदेशीयान्ति लग्नमानाकन्या २७८ तुला | न्यायानि । सा रीति श्वेयं
अयनलवदिनैः प्राग्मेषसङ्क्रान्तिकालाद्भवति दिवसमध्ये या प्रभाऽक्षप्रभा सा, दश१० गज८ दश१० निघ्नी सा प्रभाऽन्त्या त्रिभक्ता, प्रतिग्रहचरखण्डानीतिः ॥ १ ॥"
अस्यार्थ:- यद्दिने मेषेऽर्कः सङक्रामति तदिनात् प्रागयनांशमितदिनानि मुक्त्वा पाश्चात्य दिने मध्याह्नसमये यत्र देशे यावती देहच्छाया स्यात्सा विषुवच्छायाऽक्षप्रभा चोच्यते, सा त्रियस्य क्रमाद्दशा१. ट८ दश १० भिर्गुण्यते, अन्त्या च:त्रिभिर्भज्यते, लब्धं चरखण्डानि स्युः । एवं च मध्यदेशे एकपञ्चाशत् एकचत्वारिंशत् सप्तदश चेत्येतानि ५१-४१-१७ चरखण्डानि । क्रमोत्क्रमस्थाश्चरखण्डकैः स्वैरित्यादि, ततो यथा लङ्कोदयानां राशिवयं क्रमोक्रमेण न्यस्तं, तथा चरखण्डानां राशित्रयमपि क्रमोक्रमाभ्यां न्यस्य पूर्वेभ्यस्त्रिभ्यो लग्ने भ्यः शोध्यते, अग्रेतनेषु त्रिषु क्षिप्यते, ततो मेषादीनि षड् लग्नानि मध्यदेशसत्कानि यथोक्तानि स्युः, तान्येव च षडुत्क्रमेण तुलादीनि लग्नानि स्युः । तेषां स्थापनामध्यदेशलग्नपल स्थापना । मेष २२७ मीन अथ तथैव रीत्याऽणहिल्लपत्तने त्रिपञ्चावृष २५८ कुम्भ मिथुन ३०६ मकर शस्त्रिचत्वारिंशदष्टादश चेत्येतानि ५३-४३-१८ कर्क ३४० धन
चरखण्डानि स्युः । सिंह ३४० वृश्चिक कन्या ३२९ तुला कथं ?-" अणहिलपुरे तस्मिन् दिने मध्याह्नसम्भवा ।
छाया विषुवती पश्चागुलाव्यगुलविंशतिः ॥ १ ॥ दशादिघ्ने ये षष्टया हृतेऽथ व्यगुलाङ्कके । लब्धं चोपरि संयोज्यं मानमेवं ततो भवेत् ॥ २॥"
इति मुहूर्तसारे ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
लग्नाना उदयप
तत एतेः संस्कृतानि लङ्कालग्नानि पत्तनीयानि लग्नानि स्युरित्याहश्रीमद्गौजरपत्तने त्वजझषौ तत्त्वाक्षिभि १२५ ोघटो, षट्तत्वैः२५६शरग्वाग्निभिश्च:०५मिथुनो मार्गाननोवा पलैः कर्की क्षमातिशयै३४१र्धनुर्वद लिव त्मिहो द्विवेदत्रिकैः ३४२, कन्येन्दुत्रिदशै३३१स्तुलावदुदयं यान्तीति मेषादयः ॥६३॥
व्याम्या-उदयं यान्तीति इयद्भिरियद्भिः स्थापना ।
परेतान्येतानि लमान्युदोयन्ते । स्थापना मेष २२५ मीन यथा--- वृष २५६ कुम्भ
अथ लग्ना घटीमिथुन ३०५ मकर मानं होगदीनां च पलकर्क ३४१ धन मानमुदयमक प्रसङ्गादत्र
| लिख्यते, तथाहिसिंह ३४२ वृश्चिक न्या ३३१ तुला
लग्नानां मान | होराणां द्रेष्काणान
| नवांशानां मा द्वादशांशानां त्रिंशांशामानं मान
__मानं नां मानं घटी-पल पल-अमर पल - अक्षर पल-अमर ज्यवर पल-अक्षर पल-अक्षर मेर ३-४५ ११२-३०७५ २५
१८-४५ वृष ४-१६ १२८८५-२०
१-२० मिथुन५-१५१५२-३००१-४० ३३-५३-२० ५-२५ १०-१० कर्क ५-४१ १७०-३०११३-४०
३७-५३-२० ८-२५ ११सिंह ५-४२१७ ।।
११-२ कन्या ५-३११६५-३०१
३६-४६-४०
११-२० तुला ५-३१ १६५-३०११ ३६-४६-४० २७-३५ १५-२० वृश्चिक५-४२ १७१
२८-३० धन ५-४११७०-३०
२८-२५ ११-२२ मकर ५-५ १५२-३०
३३-५३-२० २५-२५ १०-१० कुम्भ ४-१६ १२८
१०, २८-२६.४०
२१-२०
८-३२ मीन ३-४५ ११२-३० ७५ २५
१८.४५ ७-३०
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पञ्चम विमर्श:
बिशेष – “ रेवत्युदयादृव्यादीन्युद्गच्छन्ति जलपलेः क्रमशः । चित्रान्ताम्यतुन ६९६र्द्धिखरूपै १०६ रखावनिभिः १०८ ॥ १ ॥ शरकुकुभिः ११५खद्विकुभि १२० युगगुणरू १३४र्वसूदधिमृगाङ्कः १४८ । शशिपञ्चकुभि१५१स्त्रिशग्क्ष्माभिः ९५३करविषयवसुधाभिः ९५२ ॥ २ ॥ त्रीषुकुभि९५३रयुगकुभि ४८रगचतुरेकः १४७ डब्धिकुभि१४६रेवम् । हस्तादेः प्रतिलोमं स्वात्याद्युदये क्रमात्मानम् ॥ ३ ॥ " अभिजिच्च वसुजिनैः ७८रिति ऋक्षाणामुदय पलसंस्था ...
स्थापना
ऋक्षणामुद्रयपलस्थापना ।
पलानि ९.६ अ
उ. भा. १०२ भ
पू. भा. १०८ कृ ११५ रो
श
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श्र
उ. बा. १४८ पुन पू. बा. १५१ पु
१५३ अश्ले
१५२ म
१५३ पू फा
१४८ उ. फा
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अभिजित् २४८
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२४७
द्वादशराशिर्भगणो राशिस्तु त्रिंशता भवति भागेः ।
भागे पटिलिप्ता लिप्ता षष्ट्या विलिप्ताभिः ॥ ६४ ॥
39
एभिजि सपादद्वयमानमीलने यथोक्तं राशिनानं स्यात् ॥
राशिपु संज्ञाशेस्तत्यमाणानि चाह
व्यख्या- - भागस्य 'त्रिंश'श' इति नामान्तरं । तन्मानं चैवं
लग्नानां सर्वदेशेषु यन्मानं घटिकादिकम् ।
तच्च द्विघ्नं पलाद्यं स्यान्मानं त्रिंशांशकस्य हि ॥ १ ॥ "
लिप्ताविलिप्तयोः कलाविकलेति नामान्तरं । विशेषस्तु-विलिप्तायां षष्टिः परमविकलास्तासामक्षरेत्याख्यान्तरं । अझरेऽपि षष्टिर्व्यक्षराणि स्युस्तानि चातिसूक्ष्मत्वादसंव्यवहार्याणि ।
उक्तं लग्नानां मानं । अथार्क स्पष्टयितुं द्वादशसङ्क्रान्तीनामन्तरालघटीराह
सङ्क्रान्त्यन्नरनाडिका अथ धृति १८ मेषादितोऽश्वेषुभि५७ - भूते भै ८५ मुनि गोभि ९७रवसुभि८८ नैत्रर्तुभि६२२७स्तथा ।
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२४८
अत्यष्टिश्च '७समन्वितानिवभि ९३खेतुभिः ६९ग्वर्तुभिः ६० सप्ताङ्गै६७र्निधिकुञ्जरै८९२थ धृति १८श्चन्द्रेक्षणैश्च२१ क्रमात् ॥
व्याख्या--- -- सङ्क्रान्तयोऽकंस्य द्वादशर शिपु तासामन्तरे नाड्य एतावत्य एतावत्यः स्युः । नृत्यत्यष्टी अष्टादश सदस्य छन्दोजाती । मेवादित इति, मेपवृषसङ्क्रान्तयोरन्तराले धृति १८२श्वेषुभिः५७ समन्विता, कोऽर्थः ? अष्टादश शतानि सप्तपञ्चाशद्युतानि घटीनां ग्युरित्यः । एवमग्रेऽपि । अथ सङ्क्राभ्यन्तरभुक्तीनां स्थापना
सङ्क्रान्त्यन्तरनाडिकास्थापना |
आरम्भ- -सिद्धिः
अथ भानुयोग्य स्पष्टीकर्तुमाभिर्भानोः स्पष्टीकरणमाहस्फुटोऽथ भानुर्गतनाडिकाभ्यः, सङ्क्रान्तितः खज्वलना ३० हताभ्यः । भागादिभिः स्वान्तर भुक्तिलब्धै, राइयादिकं स्याद्वतराशियुक्तैः ॥ ६६ ॥
मेष वृष मिथुन कर्क
सिंह कन्या
तुळा वृश्चिक
धन
मकर
कुम्भ मीन
घट्यः
१८५७
वृष १८८५ मिथुन
१८९७
कर्क
१८८८ सिंह
१८६२ कन्या
१८२७ तुला
१७९३ १७६९ धन
१७६० मकर
१७६७ कुम्भ १७८९ मीन १८२१ मेष
वृश्चिक
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व्याख्या -- गतनाडिकाभ्य इति इष्टकाले वर्तमानार्कसङ्क्रान्तेयवत्यो घढ्यो गताः स्युः ताः सर्वाः सम्मील्य, खज्वलनेति त्रिंशता गुण्यन्ते, स्वान्तर भुक्तिः सङ्क्रान्त्यन्तरनाडिकाश्वेत्येकोऽर्थः । ततः स्वकीययाऽन्तरभुक्त्या भागं दत्त्वाऽंशकलाविकलारूपं त्रिस्थं फलं ग्राह्यम् । गतराशीति यावन्तो राशयोऽर्केण भुक्ताः स्युस्तदङ्क उपरी देयः, एवं राश्यादिकं इति राश्यंशकला विकलारूपोऽर्क : स्फुट: स्यात्
अनोदाहरणं यथा - विक्रमसंवत् १५१२ वर्षे वैशाख शुक्तम्यां ७ सोमे पुण्ये, मेषेऽकगमनादनु सप्तदशे दिने कर्कलझस्य कन्यानत्रांशी गृह्यमाणोऽस्ति, तदानीं मेषसङङ्क्रान्तेर्गत घट्यः ९९४ | कथं ? किञ्चिदधिक १६ - दिनैस्तावद्वादरवृस्याऽर्केण मेषस्य १६ त्रिंशांशा भुक्ताः, शेषाः १४, तत्पलसङ्ख्या १०५ वृषमानं पल २५६, मिथुनमानं पल ३०५, कर्कस्याद्यनवांशद्वयपलानि ७५ अक्षर ४६,
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'पञ्चम विमर्शः
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७४२, षष्टया भागे लब्धं १२, एता लग्नंदिनस्य घट्यः, (ष पल ) २२ । मेषसङ्क्रान्तिदिनशे घट्यः २२ । 'सङ्क्रान्तिदिनल नदिन योरन्तराले दिन १६ तद्घव्यः ९६०, सर्वभीलने जातं गः घट्यः ९९४, पलानि २२, गतघट्यः ३० गुणिताः, जातं २९८२ ०, आसां मेषवृषमडक्रान्त्यन्तरभुक्त्या १८५७ घटीरूपया भागे लब्धं १६ भागा अंशा इत्यप्युच्यन्ते (ते)। शेषं १०८, तत् । ६० गुणने २२ क्षेपे च जातं ६५०२, पुनः १८५७ भागे लब्धं ३ कलाः, शेष ९३१, तदपि ६० गुणने जातं ५५८६०, तस्यापि १८५७ भागे लब्धं ३० विकलाः, शेषं १५० त्यक्तं, इति भागकलाविकलाभिरंशादिकोऽर्कः स्फुटोऽभूत् । गतराशियुक्तरित्युक्ते वृषादिसङ्क्रान्तिषु गतराशयः पूर्व लिख्यन्ते तदा राश्यादिकोऽपि स्यात् . इह तु भुक्तगशिरेकोऽपि नास्ति, तेन राशिस्थाने शून्यं देयं, जात: कार्य वेलायां स्फुटोऽर्कः-राशिः , अंशाः १६, कलाः १, विकलाः ३०॥ ... कथं स्फुटास्सिायनांशार्कस्य भोग्यमानयतिगणितविदुपदेशात्तत्र दत्त्वाऽयनांशान् , - पुनरपि भगणाध ६ रात्रिलग्ने तु दद्यात् । अथ हत उदयस्त्रि(क्तशेषैलवाद्यै
रुपरि च खगुणा ३०प्तः स्यात्पलात्मार्कभोग्यम् ॥६॥
व्याख्या-तनेति स्फुटार्केऽयनांशान् पुनरपि भगणास्तद्वर्षीयाः क्षिप्यन्ते, अयनांशा नित्येवोक्तेऽपि कलाद्यपि लभ्यते, तासां तदंशरूपत्वात् , एवं सर्वत्र । पुनरपीति, अथ चेद्रात्रिलनं स्यात्तदा पुनर्भगणाधं षटकरूपं राशिमध्ये क्षेप्यं । अथ हत इति, एवं कृते उपरि यो राशिरागत: स भुक्तः, यस्तु तदतनो गशिः स उदय उच्यते, तन्मानं पलरूपं त्रिः स्थाप्यते, अधश्चया अंशकला. विकल। सनि ता भुक्ताः, ताभ्यः शेषा या अंशकलाधिकलाः सन्ति ताभिस्त. लम मानं त्रिस्तं च क्रमाद् गुण्यते, अधोऽङ्कयोः षष्टया मागं दत्वा दवा उपर्युपरि क्षेपे योऽङ्क ऊवं स्यात्तस्य खगुणेति त्रिंशता भागे यल्लभ्यते तत्पलामकमर्कभोग्य स्थात्, उद्धरिताङ्कस्य षष्ट्या सगुण्य त्रिंशता भागेऽधोऽक्ष राण्यप्यायान्ति ।
. अथोदाहरणमनुनियते-अयनांशानयने तावद्गणित विदामुपदेशोऽयं-वैकमाद्गोश्ववाणा५७९ब्दात्-शाकात्तु अब्ध्यध्यधि४४४ वर्षादारभ्य अब्धिखमन्व१४८४ब्दानि यावत् प्रतिवर्ष मेका कलैका विकला विंशतिः परमविकलाश्च वर्धन्ते, पया कलाभिरयनांशः । एवं १४०४ वर्षेः २३ अंशा: ५५ कलाः १२
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२५०
आरम्भ-सिद्धिः
विकलाश्च वर्धन्ते इत्ययनांशवृद्धिरिष्टा, पुनस्तेनैव क्रमेण हीयमानास्ते तावद्भिरेवा १४०४ ग्दै निलेपीभविष्यन्ति, एवं पुन पुनस्तवृद्धिहानी भाव्ये, एषां च लग्ने क्रान्तिसाम्ये चरानयने चोपयोगः । उक्तश्च
" अयनांशाः सदा देया लग्ने क्रान्तौ चरागमे ।"
इष्टकाले चायनांशानयनाय करणमिदम्" आषाढे विक्रम नन्दसप्तेषू ५७९ नं त्रिधा कु १ भू' १। नखै २० निघ्नं भजेत् षष्टया लब्धे स्युरयनांशकाः ॥ १ ॥"
व्याख्या-चत्रादिः किल शाकाब्दः स पञ्चविंशोत्तरशत।१५ क्षेपे वैक्र. माब्दः स्यात् , स चाषाढादिः सविक्रमाब्दः स्थाप्यते, स चात्र १५१२ रूपः, भस्मात् ५७९ कर्षणे जातं ९३३, इदं त्रिय॑स्य क्रमात् १-१-२० अर्गुण्यते, षष्टया षष्टया भक्त्वा भक्त्वा उपर्युपरि चटापने जातं अंशाः १५, कलाः ५३, विकलाः ४४। इदं १५१२ वर्षेऽयनांशपरिमाणं सूक्ष्मेक्षिकयाऽऽयाति. परं प्रत्यब्दमेकैव कला किञ्चिदधिका वर्धते इति स्थूलमानमेव बहुज्योतिर्विदा सम्मतं, ततोऽस्माभिरपि तदेवात्राहतम् । तथा च १५१२ वर्षे १५ अंशाः ३५ कला. श्वायान्ति, इदं स्फुटाकै शितं जातं भागा एकत्रिंशत् ३१ कलाः ३७ विकलाः ३० । ततो राशिस्त्रिंशदंशमानस्वादयनांशापेक्षयाऽर्केगाखिलोऽपि मेषगशिर्भुक्तः वृषस्य चैकोऽशः ३७ कला: ३० विकलाश्च भुक्ता इत्यागतं, स्थापना १-१-३७-३०, अयं सायनोऽर्कः ।
अथानोदयो वृपस्तत्पलमानं २५६ त्रिः स्थाप्यते, यथा-२५६, २५६, २५६, ततः सूर्यः भुक्तादंशादेरपेक्षया शेषमंशाग्रुत्पाद्यते, तश्चेदं-अंशाः २८, कलाः २२, विकलाः ३० । एतैः क्रमारत्रयोऽपि राशयो गुण्यन्ते, जातं ७१६८-५६३२-७६८० । क्रमात् ६० भक्त्वा ऊर्ध्वमूर्ध्व क्षेपे जातमुपरि ७२६४, अस्य ३० भागे लब्धं पलानि २४२, इदमर्कभोग्यमग्रे उपयोक्ष्यते इत्यतः स्थाप्यम् ॥ ६७ ॥ अथेष्टलनेभुक्तानयनेनेष्टसमयं स्फुटीकर्तुमाहइष्टाद्भुक्तनवांशकैर्दशगुणैस्च्याप्तैलवाद्यं फलं. लग्नं मायनमूर्ध्वराशिसहितं सैकप्रवृत्त्यंशकम् । तद्भुक्तेन लबादिना तदुदयः क्षुण्णो हृतस्त्रिंशता, भास्वद्भोग्यवदान्तरोदययुतः कालः पलात्मा भवेत॥६८॥
, कुभूनरवैरिति समस्त ज्ञेयम् ।
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पञ्चम विमर्शः व्याख्या-लग्ने यो नवांश इष्टोऽस्ति तस्मादवांग येऽशास्ते दशगुणीकृत्य निभिर्भज्यन्ते यल्लब्धमंशकलाविकलारूपं त्रिस्थं फलं स्यात् । लग्नमिति तदेव लग्नं ज्ञेयम् । तच्च सायनमूर्वमतीतराशियुतं च कृत्वा एकः प्रवृत्त्यंशोऽधिकृतनवांशसत्कत्रिभागरूपो मध्ये देयः । धनुरंशे तु प्रतिष्ठाविवा हयोर्गमाणे नवांशत्रिभगस्याधं क्षिपेत् , तत्र धनुरंशपूर्धिस्यैवेष्टत्वात् । ततः एवं कृते यस्स्यात्तेन भुक्तन लवकलाविकलारूपेणेष्टलनमानं पल रूपं त्रिय॑स्य क्रमाद्गुण्यते । प्राग्वत् षष्टया ऊर्व क्षेपे उपरि योऽङ्कः स्यात्तस्य त्रिंशता भागे यल्लब्धं पलाक्षररूपं तदिष्टलग्नभुकमुच्यते। तन्मध्ये पूर्वानीतमर्कभोग्यं क्षिप्यते। तथाऽर्काकान्तराशे रिष्टलग्नस्य चान्तराले यावन्ति लनानि स्युस्तेषां मानानि पलरूपाणि तन्मध्ये क्षिप्यन्ते । एवं कृते योऽङ्कः स्यात्तावद्भिः पलेरौंदयादनु इष्टलसस्य इष्टोऽशः समेतीति ॥
____ यथाऽत्र कर्कलग्नस्य तृतीये कन्यानवांशे गृह्यमाणे इष्टानवांशादर्वाग्भुक्तनवांशी द्वौ दशगुणौ २० कृत्वा त्रिभिर्भक्तो लब्धास्त्रिंशांशाः षट, शेषं २/३ । कोऽर्थः ? यादशैत्रिभिस्त्रिंशांशः स्यात्तादशौ द्वावंशी । एतावतांशाः षट् कलाश्च चत्वारिंशदिति स्यात् , एकैकस्य त्रिंशांशस्य षष्टि कलानिष्पनत्वात् , दाभ्यां त्रिभागाभ्यां स्थिताभ्यां चस्वारिंशस्कलाः स्युरिति भावः। एतच्च लग्नं सायनं क्रियते, भयनांशाः १५ कलाश्च ३४ मील्यन्ते । तथाऽतीता गशयो ये स्युस्तेषामको राशिस्थाने दीयते, स चात्र त्रिक एव, कर्कलमस्य गृह्यमाणस्वात् । तथांशाङ्क. मध्ये एकः प्रवृत्यशो दीयते कलासप्तकं च, यत एकैकस्मिन्नवांशे त्रयस्त्रिंशांशाः कलाविंशतिश्च स्युः, तत्रिभागे कृते यथोक्तमेवायातीति, ततो जातं त्रयो राशयोऽतीताः, वर्तमानकर्कलग्नस्य चांशाः २३ कला: २१ एतावद् भुकं, गतराशिमिश्च नास्त्यत्रोपयोगः, ततस्तद्भुक्केन वर्तमानकर्कलमभुक्तेन २३ भाग २१ कलारूपेण तदुदयोऽत्र प्रस्तावात् कर्कोदयः ३४१ पल रूपो द्विय॑स्य गुणितः, यदि विकलाः स्युस्खदा त्रियस्य तृतीयस्थाने विकलाभिरपि गुण्यते, इह तु ता न सन्तीति द्विरेव न्यास उचे, जातं क्रमात् ७४४३-७१६१, अधः ६० भागे लब्धं ११९, अस्योपरि क्षेपे जातमुपरि ७९६२, अस्य ३० मागे लब्धं पलानि । २६५ शेष १२, तस्य ६. गुणने ३० भागे च लम् अक्षराणि २४, इदं २६५ पल २४ अक्षररूपं कर्कलग्नभुक्तं । रविभोग्ययुक्तमन्तराले लग्नपलप्रमाणरूपान्तरोदययुतं च क्रियते, यथाऽत्र रविभोग्यं पलानि २४२, भान्तरोदयम्तु मिथुनमेव, तन्मानं ३.५, त्रयाणां मीलने जातं ८१२ सूर्योदयादियस्पलैः, कोऽर्थः ? १३ घटीभिः ३२ पलैश्च गतैः कर्कस्य कन्यांशः समेतीति । विशेषस्तु
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आरम्भ-सिद्धिः
" द्वयोर्नवांशयोः शुद्धिः प्रतिष्ठायां विलोक्यते ।
आद्येऽधिवासना बिबे द्वितीये च शलाकिका ॥ १ ॥ संस्थाप्य लग्नमानं गुण्येन्मध्यनवांशकैः । नवभिस्तु हृते भागे लब्धेऽन्तरपलागमः ॥ २ ॥"
अत्र कल्पितमुदाहरणमात्रं, यथा-भत्रैव कर्कलग्ने प्रतिष्ठायां तृतीयः कन्यानवांशोऽष्टमः कुम्भ नवांशच गृह्यमाणो स्तः । ततश्च कुम्भनवांशादर्वाक कन्यादयो नवांशाः पञ्च मन्ति, अतः कर्कमानं ३४। पञ्चभिर्गुगयेत् , जातं १.७०५, अस्य नवभिर्भागे लब्ध १८९, इदश्च तृतीयकन्यानवांशग्रहणाय स्पष्टीकृते १३ घटी ३२ पल रूपे काले क्षिप्यते, जातं घट्यः १६ पलानी ४१, इयति काले गते कुम्भनवांशवेला ॥
.. अथ लग्नांशसमयस्पष्टनायाऽयनांश निरपेक्षं प्रकारमाह, यद्वासङ्क्रान्तिराशेर्गतनाडिकाघ्ने, माने दिवा निस्यथ सप्तमस्य। सान्तिभोगेन हृते तदीययंशान्विते शेषमिहाभोग्यम्॥ - व्याख्या-दिनलग्ने सूर्याक्रान्तराशेर्मानं सङ्क्रान्तिसमयात् प्रभृति लग्नसमयादर्वाग् या घट्यो गतास्ताभिर्गुण्यते । रात्रिलग्ने तु सति सूर्याक्रान्ताचः सप्तमो राशिस्तन्मानं ताभिर्गुण्यते । ततः स्वान्तरभुक्त्या भज्यते । यल्लब्धं तन्मध्ये प्रस्तुतराशेस्त्रिभागः पृथक्कृत्य क्षिप्यते । ततस्तथा कृते सति यस्स्यात्तदर्क भुक्तं सूर्याकान्तराशिमध्यात् पात्यते; यच्छेषं तदभोग्यम् । - यथाऽत्रैव दिनलग्ने सङ्क्रान्तिराशेस्तदानीं सूर्याक्रान्तराशेर्मेषस्य मानं २२५, तत्सङ्क्रान्तिसमयादनु लग्नतोऽर्वाग या गता घव्यः ९९४, तामिर्गुणितं जातं २२३६५० । अस्य स्वान्तरभुक्त्या १८५७ रूपया भागे लब्ध पलानि १२.। ततश्चार्काकान्तराशेर्मानस्य त्रिभिर्भागे यल्लभ्यते तन्मध्ये क्षेप्यम् । यथाऽत्र मेषमानस्य २२५ त्रिभिर्भागे लब्धं पलानि ७५ । इदं प्रागानीत १२० मध्ये भितं जातं १९५, इदं सूर्यभुक्तम् । सूर्याक्रान्तराशेर्मेषस्य मानात् २२५ रूपात् पास्यते, जातं ३० पलानि, इदमर्कभोग्यं, एवं दिनलग्ने कार्यम् । . रात्रिलग्ने स्वकाकान्तराशितः सप्तमस्य राशेः सूर्यभुक्तघटीगुणनतदन्तरभुक्ति भजनाचं सर्वमप्यर्काक्रान्तराशिवत् कार्यम् ॥
. . मुक्तेऽथ लग्नस्य तदंसकाच, दद्यात्रिभागावुदयप्रवृत्योः । तल्लग्नभुक्तश्च तथा भोग्य,कालोऽन्तरालोदययुक्पलात्मा।
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पञ्चम विमर्श:
२५३
व्याख्या - अथेति तदनन्तरं । तदंशकादिति दृष्टनवांशादवतने लग्झस्य भुक्ते उदयप्रवृत्योस्त्रिभागौ दद्यादित्यन्वयः । अयमर्थः - अधिकृत नवांशादर्वाग् यावन्मान्नं लग्नस्य भुक्तं तत् स्पष्टीकृत्य तन्मध्ये तल्लमस्य त्रिभागं तन्नवांशस्य च त्रिभागं प्रवृत्यंशापराद्धं क्षिपेत, ततस्तल्लमभुक्तं पूर्वानीतमर्क भोग्य मन्तराललझपलमानं च मील्यते, यत्स्यात्तावद्भिः पलैः सूर्योदयानुइष्टलग्नस्येष्टोऽंशः स्यात् ॥
यथाऽत्र कर्कस्य मानं ३४१, नवभिर्भागे लब्धं पानि ३८, इदमेकनवांशमानं, इष्टस्य तृतीयस्य नवांशस्यार्वाक् च द्वौ नवांशौ स्तः, तेन ३८ द्विगुणाः, जातं पलानि ७६, इदं तल्लग्नं भुक्तं, ततोऽत्र कर्कमानस्य ३४१ त्रिभिर्भागे लब्धं पलानि ११४, अयमुदयभ्यंशो लग्नमुक्ताय ७६ पलरूपस्य मध्ये क्षिप्यते जातं १९० | तदनु यो नवांशो दत्तोऽस्ति तस्य यन्मानं ३८ पलरूपं, तस्य त्रिभागः पल १२ रूपः सोऽपि तन्मध्ये क्षिप्तः, जातं पलानि २०२ । रविभोग्यं च पलानि ३० । तथार्काक्रान्तराशेरिष्टलग्नस्य चान्तराले वृषमिथुनौ स्तः, तयोर्मानं २५६-३०५ । सर्वेषां स्थापना- | २०२-३०-२५६-३०५ मीलने पलानि ७९३, एषां ६० भागे लब्धं घट्यः १३ पलानि १३ । एतास्कालेनादयादनु कन्यांशागमः । करणान्तरत्वात् पलेषु वैसदृशं न दोषाय । एवमन्यत्रापि भावनीयम् ॥ ७०
एवं लग्नास्कालानयनमुक्तं, अथ प्रत्ययार्थं वृत्तद्वयेन काला लग्नमानयतित्यक्त्वाऽर्कभोग्यं च पलात्मकालाड्रागादिभोग्यं तरणौ निदध्यात् ।
क्रमेण शेषानुदयान् विशोध्य,
राशीन्न्यसेत्तत्प्रमिताँश्च भानौ ॥ ७१ ॥
व्याख्या— कश्चिद्विवक्षितकालं घटीपलमानमुक्त्वा तदानीं कतमलग्नांशाद्यस्तीति पृच्छेत्तदा तदुक्तं घट्यादि सर्वं पली कार्य । ततस्तत्र यावत्पलमानमर्कभोग्यं स्यात्तस्मात्पली कृतकालात् शोध्यं, भागादीति सायनस्फुटार्केण यो राशिराक्रान्तस्तस्य शेषलवकलाविकलारूपं सूर्यभोग्यं तरणाविति सायनस्फुटार्के एव न्यस्यं स राशि: पूर्णीकृत्य लेख्य इत्यर्थः । ततस्तस्मात् पली कृतकालादकssकान्तरायतनानि पलरूपाणि लग्नानि यावन्ति शुध्यन्ति तावन्ति संशोध्य तावद्वाशीनामङ्कोऽर्के देयः ॥
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शेषादध खगुण ३० गुणादविशुद्धोदयहृतादवाप्तेन । भागादिना सनाथो दिननाथो निरयनांशको लग्नम् ॥ ७२ ॥
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आरम्भ-सिद्धिः
व्याख्या - यत्र शेषे सति लग्नं शोधयितुं न पार्यते तस्माच्छेषात्, खगुणेति त्रिंशद्गुणीकृतादशुद्धलग्न मानेन भागे यल्लभ्यतेऽशकलाविकलारूपं तत्सूर्ये दवा ततोऽयनांशाः कर्ण्यन्ते, शेषं स्फुटमिष्टकाले लग्नं नवांशश्च i
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इदमाचप्रकारे भाव्यते - यथा घट्यः १३ पलानि ३२, गणो धृत्वा पलीकृतो जातं ८१२ पलानि, एभ्योऽर्कभोग्यपळाङ्कस्य २४२ रूपस्य शोधने स्थितं ५७० । अथ सायनस्फुटार्क १-१-३१-३० रूपे वृषराशेः शेवं २८ भागाः २२ कलाः ३० विकलारूपं भागादिभोग्यं क्षिप्तं, जातोऽर्कः २०-०-० । तदनु पलीकृतकालात् ५५७ रूपात् अर्काक्रान्तवृपराइयग्रेतनस्य मिथुनस्य मानं ३०५ रूपं शुद्धमित्येक शिक्षेपे जातोऽर्की ३-०-०-० | शेषस्य २६५ रूपस्य मध्यात् कर्कस्य मानं ३४१ रूपं न शुध्यतीत्यतः शेषं ३० गुणने जातं ७९५० अशुद्धस्य कर्कस्य मानेन ३४१ भागे लब्धं त्रिस्थं फलं भागाः २३ कलाः १८ विकलाः ४९ | इदमर्के योजितं जातं ३-२३ - १८-४९ अस्मादयनांशाः भाग १५ कला३४रूपाः शोध्यन्ते, जात लग्नं ३-७-४४-४९ । अत्र कर्कस्य सप्त ७ भागाः ४४ कलाः ४९ विकलाश्च भुक्ता इत्यागतं । एकैकस्मिँश्च नवांरी त्रिंशांशत्रयं तुर्यत्रिंशांशस्य विंशतिकाश्च स्युरिति षड्भर्भागै: ४० कलाभिश्च नवांशद्वयगतं, उपरि चैको भागः कलासप्तकं च प्रवृत्त्यर्थं दत्ते अभूतां ते स्त इति ज्ञेयं । द्वित्रकलाविशेषे च न दोषः, लग्नफलाना मतिसूक्ष्मत्वात् । विशेषस्तु स्थूरवृत्याऽह्नि काला लग्नांशानयनमेवं---
“ अष्टांशं प्रति धीवेदाः ४५ सङ्क्रान्तेर्गतवासराः । तदैक्यादभ्ररामा३०प्तं लग्नमाकान्तराशितः ॥ १ ॥ शेषे षष्टिते भक्ते द्विशत्या लब्धमंशकः । होराद्युक्ताङ्कभक्तेन होराद्यमपि लभ्यते ॥ २ ॥ "
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व्याख्या- -अशो यामस्तं प्रति ४५ पलानि धुत्रकः । तत आद्ये या मे पूर्णे ४५ द्वितीये ९० एवं त्रको पत्तिः । यदा च यावद्दिनमानं तदा तदेव चतुर्भक्तमेकैकग्राममानं । ततो याममानघटीविभक्त ४५ घुत्रकाद्यल्लभ्यते तदेव घटीं घटीं प्रति धुत्रको लेख्यः । यथाऽत्र मेषेऽर्कभवनदि नादनु सप्तदशेऽह्नि त्रिभागो नाष्टघटक यामेषु घटीं घटीं प्रति किञ्चिदून षट्पलानि ध्रुवक राशि केन समेति । कथं ? तद्दिनसत्कं ७ घट्यः ४२ पलानि चेत्येतद्याममानं पलीकृतं जातं ४६२ । ततो यदि ४६२ पलै: ४५ पलानि ध्रुवकः स्यात्तदा १ वटी सत्क ६० पलैः किं स्यादिति राशित्रयस्थापना- ४६२-४५-६० मध्यराशिरन्त्येन गुणितः जातं २००० । आधराशिना भागे लब्धं पल ५ अक्षर ५०, यद्यपि
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पञ्चम विमर्शः
चैवम रित तथापि किञ्चिदूनत्वात् षट् पलानि पूर्णान्येव विवक्ष्यन्ते, ततोऽत्र १३ घट्यः षड्गुणाः, जातं ७८ । उपरिस्थ ३२ पलापेक्षया पलत्रये क्षिप्ते जात ८१, सङ्क्रान्तर्गत दिना: १६ मीलने ९७, अस्य ३० भागे लब्धं ३ शेषं ७, लग्नत्रयं गतं, तुर्यस्य कर्कलग्नस्य त्रिंशांशसप्तकं चेत्यर्थः । नवांशानिनीषायां तु ७ षष्टया हता जातं ४२०, द्विशत्या २०० भागे लब्धं द्वौ शेषं २०. नवांशद्वयं गतं तृतीयस्य २० कलाश्च गता इत्यर्थः। होरादीति षष्टिहताङ्कस्य होराघकैः ९००-६००-१५०-६० भागे क्रमात् होराद्रेष्काणद्वादशांशत्रिंशांशा अपि लभ्यन्ते । नवांशस्य तु प्रभुतया मुख्यत्वात् पृथगुक्तिः। अनेन विधिना कलावध्येव व्यक्तीस्थान तु विकलाः, अत एव स्थूरोऽयं विधिरित्यूचे । ननु च सर्वत्र नवांशस्यैव चेत् प्रभुता तदा किमर्थं लग्नानां ग्रहाणां च त्रिंशांशा व्यक्तीक्रियन्ते ? उच्यते-'त्रिवर्धाप करमध्यस्थौ" इत्यत्र लग्नेन्द्वोः पञ्चदशत्रिंशांशमध्यस्थ रग्रहकर्तरीविचारः । तथा सति "दर्शने यदि स्यादंशद्वादशकमध्यगः क्रूरः" इत्यत्र लग्नेन्द्वोः ऋरग्रह दृष्टिविचार इत्याद्यक्त एव त्रिंशांशानामुपयोगः । तथा लग्ने षडवर्गः करग्रहसत्कः सौम्य ग्रहसत्को वा, अयं ग्रहः स्त्रवर्गस्थोऽन्यवर्गस्थो वा इत्यादि चिन्तायामपि । ननु भवति तर्हि कलादिव्यकीकृतिः क्वोपयोक्ष्यते ? उच्यते-यदा कलाराशिः पश्यपेक्षयाऽर्धाधिक: स्यात्तदा रूपं गृहीत्वा त्रिंशांशेषु दीयते । एवं विकलानामर्धाधिके कलासु रूपं देय मित्यादि, जातकादौ चांशायु:-पिण्डायुर्दशान्तर्दशाद्यानयने कलादिव्यक्तर्विशिष्योपयोग इत्यलं प्रसङ्गेन । एवं दिवा लग्नांशानयनमुक्तं । " रात्री तु मूनि यद्धिष्ण्यं तस्मान्नक्षत्रमष्टमम् ।
उदेति पूर्वस्यां तेन लग्नोदयविनिर्णयः ॥ १ ॥" तथा रेवत्युदयादन्वश्विन्युदयं यावदश्विन्या एव चत्वारः पादा उद्गच्छन्ति, एवमश्विन्युदयादनु भरण्युदयं यावद्भरण्या एव चत्वारः पादा उद्गच्छन्तीत्येवं शिरःस्थभस्य पादकल्पनयोदयी नवांशोऽपि निर्धार्य: । इत्युक्ता लग्नस्फुटीकृतिः।
अथ दिवा कालज्ञानं प्रायः शकुच्छायाऽऽयत्तमित्यतः कालत छाया, छायातः कालश्चानीय दर्यते । तत्रादौ तावत्सूक्ष्मदिनमानानयनमेवम्"दत्तायनांशा रविभुक्तभागाः, फलेन गुण्या दिनवृद्धिहान्योः । षष्याभिलब्धं घटिकाद्यमेतत् , स्यादाढ्य द्य)नूनं प्रथमद्यमानात् ॥१॥”
व्याख्या-इष्टेऽहन्यर्केण स्वाक्रान्तराशेर्यावन्तस्त्रिंशांशा भुक्ताः स्युस्तन्मध्ये तद्वर्षीयायनांशान क्षिप्त्वा उपर्यागतराशिसत्केन दिनवृद्धिहानिफलेन कर्केत्यादिना पूर्वोक्तेन सगुण्य षष्टया भागे यल्लभ्यते तद्घव्यादिकं रसद्विनाड्य इत्याद्युक्तस्य मुख्याहमानस्य मध्ये क्षेप्यं मृगादिषट्कस्थेऽर्के, कर्कादिषट्कस्थे स्वकें
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आरम्भ-सिद्धिः
तस्मादूनं कार्यं, एवं स्पष्टं दिनमानमायाति, तस्मिन् षष्टिघटीरूपाहोरात्रमध्याच्छोधिते शेषं स्पष्टं रात्रिमानं । अनयोश्च कुलिकस्पष्टीकरणादावुपयोगः । यथाऽन मेगमनादनु सदशेऽह्नि प्रातस्त्यघटी १३ पल ३२ समये “ स्फुटोऽथ भानुः" इत्यादिकरणेन सञ्जाताः स्फुटार्कभुक्तभागाः १६ कलाः ३ विकलाः ३० । एतन्मध्येऽयनांश १५ कला ३४ क्षेपे जातं राशिः १ भागः १ कला: ३७. विकलाः ३० । अत्र सायनार्केण मेषराशिः पूर्णोऽपि भुक्तो वृषस्य चैकोशः १ कलाः ३७ विकलाश्च ३० भुक्का इत्यागतं, ततोऽत्र वृषराशिसत्का दिनवृद्धिः पल २ अक्षर ५२ रूपा गता, ततोऽंशाद्यङ्का गोमूत्रिकारीत्या स्थानद्वये न्यस्य एकत्र द्विकेन अपरत्र द्वापञ्चाशता च गुण्यन्ते स्थापना । २-५२ गुणिते च
२-७४-६० । ५२-१९२४-१५६०
जातं क्रमात् | सर्वाधःस्थस्य ६० भागे लब्धं २६, इदमुपरिस्थे क्षिप्तं जातं, १९५०, इदं चाधराश्येधः स्थान ६० रूपेण सह समपक्तिस्थत्वात् मीलितं जातं २०१० । अस्य ६० भागे लब्धं ३३ उपरि क्षिप्तं जातं पलादि ८५ एतन्मध्ये आद्यराशिसत्कः ७४ रूपोऽङ्कः समपङ्क्तिस्थत्वात् क्षिप्तो जातं १५९ । अस्य ६० भागे शेषं अक्षराणि ३९, लब्धं पले २ उपरि क्षिप्तं जातं पलानि ४ । अस्य ६० भागे लब्धं घटीस्थाने शून्यं । स्थापना- | घटी० पलानि ४ अक्षराणि ३९, इदं वृषाचार्माने घटी ३१ पल ४६ रूपे क्षिप्तं जातं घट्यः ३१ पलानि ५० अक्षराणि ३९ इदं स्पष्टं तद्दिनमानं । तद्वाशिमानं तु घट्यः २८ पलानि ९ अक्षराणि २१ । भथेतो मध्यच्छायानयनं यथा
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ज्येष्ठदिनाद्दिनं शोध्यं शेषाद्दशगुणात् स्वतः ।
त्यजेत्सप्तशरै ५७ र्लब्धं सूर्ये १२ मध्याह्नयः स्मृताः ॥ १ ॥
व्याख्या – इष्टाहर्मानं ज्येष्ठाहमीनाच्छोभ्यते, शेषं दशभिर्गुण्यते, तत स्वत इति तदेवाधो न्यस्य ५७ भागे यल्लभ्यते तन्मुख्याङ्कात् कर्त्यते, भागाप्राप्तौ यदि ५७ अपेक्षयोर्ध्वस्थोऽङ्कोऽर्धाधिकः स्यात्तदा रूपं गृहीत्वा मुख्याङ्कात् कर्ण्यते, तदनु तस्य सूर्ये १२ भीगे यल्लभ्यते ते मध्याह्नच्छायायां पादाः शेषा
गुलानि । यथाऽत्र तद्दिनमानं ज्येष्टाद्दर्मानात् घटी ३३ पल ४८ रूपाच्छोधितं जातं घटी १ पलानि ५७ अक्षराणि २१, इदं शेषत्वादशभिः सगुण्या षष्टा भक्त्वा भक्त्वा उपरि क्षेपे जातमधः ३३ ऊर्ध्वं च १९ । अस्य स ५७ भागो नाप्यते, नापि ५७ अपेक्षयाऽस्यार्धाधिक्यं ततस्तत्प्रक्रियामकृत्ववैकोनविंशतेः १२ भागे लब्धं पदं १, शेषमङ्गुलानि ७ व्यङ्गुलानि ३३, इयं तहिने मध्याह्नच्छाया । अथेत इष्टकालच्छाया
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पञ्चम विमर्शः
" खमहीकर २१० हतदिवसे विहृते वाञ्छित पलैर्द्युगतशेषैः । लब्धं मध्यपदैर्युग् नग ७ रहितं स्यात् पदच्छाया ॥ १ ॥ शेषर्क १२ गुणं कृत्वा वाञ्छितैस्तु पलैर्हृतम् । लब्धमङ्गुलसंज्ञं स्यादेवं छायाङ्गुलागमः ॥ २ ॥
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स्पष्टौ । उदाहरणं यथा - तद्दिनं घन्यः ३१ पलानि ५० अक्षराणि ३९, इदं २१० हतं जातं ६५१०- १०५००-८१९० । षष्ट्या भक्त्वा भक्त्वा उपरि क्षेपे जातमध: ३० तदुपरि १६, तस्याप्यूर्ध्व ६६८७ । ततोऽस्य गति पूर्वाह्णे गतपलैर्भागः, अपराह्णे तु शेषपलैः । अत्र पूर्वानीत १३ घटी ३२ पलसरकै ८१२ भागे लब्धं पदानि ८, शेषं १९१, तत् १२ गुणनेऽधःस्थ १६ क्षेपे च जातं २३०८, भस्य ८१२ भागे लब्धं भङ्गुलद्वयं २, शेषं ६८४, इदं व्यङ्गुलानयनाय ६० गुणं, अधःस्थ ३० क्षेपे जातं ४१०७०, तस्यापि ८१२ भागे लब्धं व्यङ्गुलानि ५०, शेषं ४७० त्यक्तं । अस्य पद ८ अङ्गुल २ व्यगुल ५० [ ५१ ] रूपस्य मध्ये मध्यच्छायापदाङ्गुलभ्यङ्गुलक्षेपे पदाङ्कात् ७ कर्षणे च जातं पद २ भगुल १० व्यङ्गुल २३ [ २४ ] | इयं सप्ताङ्गुलशङ्कुच्छाया १३ घटी ३२ पलसमये स्यादित्यागतम् । अथ प्रत्ययार्थमेतच्छायातोऽयं काल आनीयते
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" साद्रि ७ शङकुपदैरर्क १२ गुणैर्मध्याङ्गुलोनितैः । द्विवेद ४२ मे दिने भक्ते युगतं शेषमाप्यते ॥ १ ॥ यथाऽत्र साद्रि ७ शकुपदा ९ र्क १२ गुणाः १०८ अधःस्थ १० अगुलक्षेपे जातं ११८ । इतो मध्यच्छायायाः १ पद ७ अगुरुरूपत्वादङ्गुलरूपत्वकरणे १९ अङ्गुलकर्षणे जातं ९९ । अथ तद्दिनमानाङ्कत्रयं ४२ गुणी - कृत्य षष्ट्या भक्त्वा भक्त्वोपरि क्षेपे जातं अधः ४२ उपरि २८, तस्याप्युपरि १३३७ । अस्य ९९ भागे लब्धं घटी १३ शेषं ५० । तत् ६० गुणनेऽधःस्थ २८ क्षेपे च जातं ३०२८ । अस्य ९९ भागे लब्धं पलानि ३० शेषं ५८ । तत् ६० गुणनेऽधःस्थ ४२ क्षेपे च जातं ३५२२ । अस्यापि ९९ भागे लब्धमक्षराणि ३५ शेषं ५५ तच ९९ अपेक्षयाऽर्धाधिकमित्यतो रूपग्रहणेऽक्षराणि ३६ । अय ३६ अङ्कः ६० अपेक्षयाऽर्घाधिकोऽस्तीत्यतोऽस्मात् १ पलग्रहणे जात पलानि ३१, तत आगतं पदे २ अङ्गुलानि १० व्यङ्गुलानि २४, छायायां घटी १३ पल ३१ रूपं चटितदिनं । अपराह्णे त्वेतावत्यां छायायां शेष'दिनमेतावत् स्यात् । एकद्विपलविसंवादे च न दोषः, करणान्तरखात् । इति
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आरम्भ-सिद्धिः
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प्रसङ्गाच्छायाकालयोरानयनमूचे । अथ प्रस्तावाद् ग्रहाणां च तद्वतीनां च स्फुटीकृतिरुच्यते" गतेष्टनाड्यो गुणिताः खखेभैः ८००-६००-४००-२००,
सर्वक्षनाडीविहृताः कलाद्यम् । भुक्तायुक्तं सकला ग्रहाः स्युः,
षष्टया हतेष्वष्टशतेषु भुक्तिः ॥ १ ॥” अस्य भाष्यं" इष्टात् प्राग्गतनाड्योऽष्टतायेगुणितास्ततः । सर्वसंघटिका भक्ताः कलाद्याः स्युरिति स्फुटम् ॥ १ ॥ भुक्तऋक्षाष्टशत्यादिप्रमाणसहितास्ततः । षष्टिभक्तेशकादि स्याच्छेषे षष्टिगुणे ततः ॥ २ ॥ सर्वसंघटिकाभक्ते लब्धं स्याद्विकलादिकम् । एवं स्पष्टा ग्रहाः सर्वे कर्तव्या गणकोत्तमैः ॥ ३ ॥"
स्पष्टाः । नवरं अष्टशताबैरिति समग्रनक्षत्रसत्कगतनाडीगुणने तद्भोगस्य ८०० कलारूपत्वात् ८०० गुणकारः। आद्यशब्दात् यत्र नक्षत्रपादत्रयस्य द्वयस्य नक्षत्रैकपादस्य वा गतनाड्य इष्टाः, तत्र ६००-४००-२०० रूपाः क्रमाद्गुणकारा इति स्वयमूह्यं । सर्वक्षेति, अत्रापि समग्रनक्षत्रतत्पादत्रयद्वयादिसत्कामिरेव सर्वनाडीमिस्तत्र तत्र भजनमूह्यम् । एवं भुक्तऋक्षाष्टशत्यादीत्यत्राप्येकद्वित्रिपादभुक्तत्वसम्भवे २००-४००-६०० कलानां लब्धकलासु क्षेपोऽभ्यूह्यः । ऋक्षशब्देन च राशयोऽप्युच्यन्ते, तेन यदि कत्यपि राशयस्तेन ग्रहेण भुक्ताः स्युस्खदा तेऽप्युपरि लेख्याः । अयमेवार्थो व्यक्त्योच्यते-- " इन्दोर्गुण्या गता घटयोऽष्टशत्या प्रतिभं सदा । भौमसूर्यज्ञशुक्राणां गुण्या अष्टशतादिभिः ॥ १ ॥ शनिवाक्पतिराहूणां द्विशत्या पादगत्वतः । गता घटयो हताभ्यांन्हिघट्याप्तं स्यात्कलादिकम् ॥ २ ॥ राहोमिगतित्वेन लब्धा या विकलाः कलाः । शोध्यास्ता द्विशतीमध्याच्छेषं भोग्यकला इह ॥ ३ ॥"
व्याख्या-अष्टशत्येति चन्द्रचारस्य सर्वत्र नक्षत्रापेक्षयैव टिप्पनकेषु लिखनात् । अष्टशतादिभिरिति भौमादीनां चारस्य नक्षत्रापेक्षया राश्यपेक्षयाऽपि च लिखनात्, द्विशत्येति शन्यादीनां चारस्य तु भैकपादापेक्षयैव लिखनात् तदपेक्षयैव वर्तनीयं, तत्र भपादसरकगतेष्टनाड्यः २०० गुणिता भपादात् पादान्त
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पञ्चम विमर्श:
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रसङ्क्रमणान्तराल सर्व घटीभिर्भज्यन्ते, लब्धं कलाद्यं भुक्तं स्यात् । राहोस्तु वामगतित्वेन लभ्यते तत् २०० मध्यात् पात्यते, शेषं राहुणा तस्य पादस्य भोग्यं ज्ञेयं तस्य च भोग्यऋक्षाष्टशत्यादियोग एव कार्य:, राशयोऽपि तत्र भोग्या एवोपरि देयाः, एवं सूर्यादीनां क्वचित् पादापेक्षया क्वचित पादद्वयत्रयापेक्षया च स्वधिया वर्तना कार्या । केवलमनया रीत्याऽर्काद्याः सप्त ग्रहा भुक्तापेक्षया स्फुटीस्युः, राहुस्तु भोग्यापेक्षया स्फुटीस्यात् । यदि च राहुराश्यङ्कमध्ये षट्कं क्षिप्यते तदा केतुरपि भोग्यापेक्षयैव स्फुटीत्यात् । षष्ट्या हतेष्वष्टशतेषु भुक्तिरिति सर्वर्क्षनाडी विहृतेष्विति शेषः । भयं भावः - अष्टशत्या यथासम्भवं षट्चतुद्विंशतीनां वा षष्ट्या सगुण्य सर्वर्क्षनाडीभिर्यथायोगं त्रिद्वयेकपादनाडीभिर्वा भागे हृते यल्लभ्यते द्विस्थं फलं तत्कलाविकलारूपं ग्रहाणां दैवसिकगतिमानं ज्ञेयम् ॥ अथान तारकालिकानां नवग्रहाणां स्फुटीकरणेनोदाहरणं दर्श्यते तत्रार्कस्तावत् प्रागेव स्फुटीकृतोऽस्ति तस्य च द्वादशसङ्क्रान्तिषु क्रमात् कलाविकलारूपं दैव सिकगतिमानं प्राय एवंविधं स्यात्, तथाहि
" वस्व निधयो५८- ९ नवे पुसधृतिः ५९-१८ द्विः षट्शरं५६-५६ यूनिका, षष्टिर्द्वादश ५७ - १२ कुञ्जरेषुगगनं ५८-० चैकोनषष्टियाः ५९-७ । षष्टिर्विश्वयुता६०-१३ कुषट् च सगुणा६१-३क्वङ्गं द्वियुग्विंशतिः ६१-२२, क्वङ्गं सन्निधि६१ ९षष्टिकाम् युगयुगं २२ खेटेषु धृत्या युतम् ५९ - १८ ॥ १ ॥” इन्दुस्तु तद्दिने पुष्येऽस्ति तस्य गतघढ्यः कार्यसमये १७ ता: ८०० गुणाः, जातं १३६०० । पुष्य सर्वघट्यः ६६, ताभिर्भागे लब्धकलाः २०६ विकलाः ३ शेषं ४२, तस्य ६६ अपेक्षयाऽर्घाभ्यधिकत्वाद्विकलाः ४ । पुनर्वस्वोरन्त्यपादस्य २०० कला: कलामध्ये क्षिप्ताः, जाता: कला: ४०६, आसां ६० भागे लब्धं ६ अंशाः कलाः ४६ विकलाः ४ । भुक्तराशित्रयमुपरि दत्तं जातस्तदानीं स्पष्टेन्दुः ३ - ६-४६-४ । तद्गतिस्तु कल।: ७२७ विकलाः १६ ॥ अथ भौमस्तद्दिनेषूत्तरभद्रपदास्वस्ति । तदा गतघढ्यः १४९ । कथं ? उ० भ० मङ्ग० ४४ । तद्दिनशेषघट्यः १६ । कार्यदिनघव्यः १३ । अन्तरालदिनद्वयस्य घट्यः १२० मीलने १४९ । ताः ८०० गुणा जातं ११९२००। सर्व्वर्क्षनाड्यः १०२२ । आभिर्भागे लब्धं कलाः ११६ विकलाः ३८ | पूर्व भद्रपदान्त्यपादसरक २०० कलाक्षेपे जाताः ३१६ कलाः । तासां ६० भागे लब्धं पक्ष ५ अंशाः उपरि ११ राशिदाने जातः स्पष्टो भौमः ११-५-१६-३८ । तद्गतिस्तु कलाः ४६ विकलाः ५८ ।
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आरम्भ-सिद्धिः
अथ बुधस्तद्दिनेषु वृषे कृत्तिकास्वस्ति । तदानीं गतघट्यः १७० । कथं? वृषे बुधः २३, तद्दिनशेषघट्यः ३७ | कार्यदिनघट्यः १३ | अन्तरालदिनद्वयघढ्यः १२० मीलने १७० । ताः कृत्तिकापादत्रयस्यैव वृषस्थत्वात् ६०० गुणा जातं १०२००० । अथेह वृषे बु० इत्यत आरभ्य रोहि० बु० इत्यतोऽर्वाक् पादत्रयस्य यास्ताः सर्वर्क्षनाड्यः ४५७ । ताभिर्भागे लब्धं कलाः २२३ विकला : ११ शेषं ३१३, तस्य ४५७ अपेक्षयाऽर्धाधिक्याद्विकलाः १२ । कलानां ६० भागे लब्धं ३ अंशाः उपरि भुक्तराशि १ दाने जातः स्पष्टो. बुधः १-३-४३१२ । तद्गतिरपि षट्शत्या एव ६० गुणने पादत्रयं नाडीभि ४५७ भेजने व आताः कलाः ७८ विकला : ४६ ॥ अथ गुरुस्तद्दिनेष्वाद्रथपादेऽस्ति । तदानीं गतघढ्यः २७६ । कथं ? रौद्रे प्र० गु० ३७ | तद्दिनशेषनाड्यः २३ । कार्यदिनव्यः १३ | अन्तरालदिन चतुष्कघढ्यः २४० मीलने २७६ । ता गुरोः पादगतत्वात् २०० गुणाः जातं ५५२०० | आर्द्राद्यपादभोगसर्व नाड्यः ११९२ । ताभिर्भागे लब्धं कला: ४६ विकलाः १८ मृगार्धसत्का: ४०० कलाः कलासु क्षिप्ताः जातं ४४६ । तासां ६० भागे लब्धं ७ अंशाः उपरि भुक्तराशिद्वय दाने जातः स्पष्टो गुरुः २- ७-२६-१८ | तद्गतिरपि द्विशत्या एव ६० गुणने आद्वैकपादसर्व नाडीभिर्भजने च जाताः कलाः १० विकलाः ४ ॥
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अथ शुक्रस्तद्दिनेषु पूर्व भद्रपदास्वस्ति । तदानीं गतघढ्यः ५४१ । कथं ? पू० भ० सि० १२ तद्दिनशेषघव्यः ४८ । इष्टदिनघट्यः १३ । अन्तरालदिन ८ घन्यः ४८.० मीलने ५४१ । ताः पूर्वभद्रपदपादत्रयस्यैव कुम्भसत्कत्वात् ६०० गुणाः जातं ३२४६०० । अथ मीने सि० इत्यतोऽर्वाग् यास्ता एव सर्वनाड्य ५८२ । आभिर्भागे लब्धं कलाः ५५७ विकला: ४४ भुक्तनवांशानां षण्णां कलाः १२०० कलासु क्षिप्ता जाता: १७५७ कलाः विकलाः ४४ । भासां ६० भागे लब्धाः २९ अंशाः उपरि १० राशिदाने जातः स्पष्टः शुक्रः १०- २९-१७४४ । तद्गतिस्तु कलाः ६१ विकलाः ५१ ॥ अथ शनिर्वक्री तद्दिनेष्वनुराधातुर्थपादेऽस्ति । तदानीं गतवढ्यः १४७७ । कथं पुनरंनु० च श० ३६ । तद्दिनशेषघट्यः २४ । इष्टदिनघव्यः १३ । अन्तरालदिन २४ घट्यः १४४० मीलने १४७७ ता: शनेः पादगतत्वात् २०० गुणाः जातं २९५४०० तु पादभोग सर्वघठ्यः ४१८२। आमिर्भागे लब्धं कलाः ७० विकलाः ३८ । इदं शनैर्वक्रित्वात् २०० मध्यात् कर्षणे जातं १२९ कला: २२ विकलाश्च । उपरितननवांश चतुष्क सरक ८०० क्षेपे जाताः ९२९ कलाः । आसां ६० भागे लब्धं १५ अंशाः उपरि ७ राशिदाने जातः स्पष्टः शनिः ७-१५-२९-२२ । तद्गतिस्तु कले २ विकलाः ५२ ॥ अथ राहुस्तदा चित्रान्त्यपादेऽस्ति । तदानीं गतनाढ्यः १२८३ । कथं ? चित्रा च०रा०५०। तद्दिनशेषघट्यः १०। कार्यदिनघढ्यः १३ | अन्तरालदिनानि २१, तद्वट्यः १२६० मीलने १२८३ | ता राहोः पादगतत्वात् २०० गुणाः जातं २५६६०० भन
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पञ्चम विमर्शः
६ । ७४।१०।६१
चित्रान्स्यपादभोग सर्वनाड्यः ३७७४ । आभिर्भागे लब्धं कलाः ६७ विकला: ५९ । भासा २०० मध्यात् पातने जातं कलाः १३२ विकला । । कन्याम. ध्ये चित्रातृतीयपादसक २०० कलाः क्षिप्ताः, जाताः कलाः ३३२ । कलानां ६० भागे लब्धं ५ अंशा: । उपरि ६ राशिदाने जातो भोग्यापेक्षया स्पष्टो राहुः ६-५-३२-: । गतिस्तु कला: ३ विकला: " राहो राश्यङ्के ६ क्षेपे जातः स्पष्टः केतुः ०-५-३२-१ । तद्गतिस्तु राहुवदेव ।
ननु ग्रहाणां अत्र तात्कालिक स्पष्टीकृतनवग्रहाणां सतिकानां स्थापना यथा- I पानी १ २ | ३ | ४ | ५ | ६ | . । . किं फलं? उच्य.
ते-कलाविकलारूपया प्रतिदिनगत्या पूर्वकार्य| वेलायां स्पष्टी|कृतग्रहकालाद|नन्तरं द्वितीय
कार्यकालादर्वाक् यावत्यो घट्यो गताः स्युस्ताः स्थानद्वये संस्थाप्य क्रमागण्यन्ते । ततः षष्ट्या भागे लब्धं कलादिकं पूर्वकार्यवेलायां स्पष्टीकृतग्रहमध्ये क्षिप्यते । वक्रिग्रहमध्यात् भोग्यापेक्षास्पष्टीकृतराहुमध्याञ्च कयते । ततो द्वितीयकार्यवेलायां ग्रहाः स्पष्टाः स्युः । यथा प्रागुक्त एव वर्षमासपक्षे १३ दिने हस्तार्केऽष्टघटीचटने केनचित् कार्य मिष्टं तद्वेलायाः प्रागुदाहृतवेलायाश्चान्तरं घट्यः ३५५ । कथं ? वैशाख शुक्ल सप्तम्याः १३ घट्यः प्रागुदाहृताः । तद्दिन शेषघट्यः ४७ । हस्तार्कदिनस्य ८ घट्यः । अन्तरालदिनानि ५ तद्घट्यः ३०० मीलने ३५५ । मेष. स्थार्कस्य गतिश्च ५८-९ रूपा | अनया ३५५ स्थानद्वये गुण्यते, स्थापना १८. जातो राशी २७७९० अधः ६० भागे लक्ष ५१ उपरि क्षिप्तं जातं २०६४३ । अस्य ६० भागे लब्धं कलाः ३४४ ई.पं विकला: ३। एवमन्येषामपि ग्रहाणां कला आनीताः ताश्चैवं जातास्तथाहि । स्थापना
सव | चन्द्र मगल | बुध । गुरु शुक्र शनि राहु । कतु कलाः ३४४ ४३०२ | २७७४६६ ५९ ३६५ १६ १८१८ विकला: ३ । ५९ | ५३ । २ ३३ । ५६ ५७ एतामिः संस्कृताः प्रागानीतग्रहा द्वितीयकार्य समये एवंविधा जाताः, तथाहि
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आरम्भ-सिद्धिः
अथ ये ग्रहा अनन्तरमेव कृतवा वक्राभिमुखा वा मार्गीभूता मार्गाभिमुखा वा स्युस्तेषां स्फुटीकृतिरुच्यते
रवि । चन्द्र । मंगल बुध | गुरु । शुक्र
क
currm -
२९ ।
m
४० । " वक्रानपश्चिमे भुक्ता भोग्या मार्गाग्रपश्चिमे ।
अन्तरांशकला ग्राह्यास्तासां सीमा च सर्वभम् ॥ १ ॥ वक्रादूर्व फलं लब्धं भुक्तभागोघतस्त्यजेत् । सभोग्यभुक्तभागौघात्त्याज्यं मार्गादितः फलम् ॥२॥" अनयोर्भाष्यम्" वक्रात् पूर्वगता नाड्यो हताः स्वर्शकलादिभिः । सीमान्तसर्वभघटीविभक्ताः स्युः स्फुटं कलाः ॥ ३ ॥ शेषे षष्टिगुणे सर्वक्षलब्धे विकलागमः । भुक्तायुक्त तत्राङ्के षष्टिभक्तेशकादिकम् ॥ ४ ॥ वक्रपश्चादपीत्थं स्यात्सीमाधिष्ण्येऽग्रत: स्थिते ।। लब्धं फलं पुनस्त्याज्यं भुक्तभागौघतस्तदा ॥ ५ ॥ मार्गात् पूर्वगता घट्यो गुण्या भोग्यकलादिभिः । शेषं प्राग्वद्भोग्ययुक्तभुक्तांशेभ्यः फलं त्यजेत् ॥ ६ ॥" मार्गपश्चात्तु रूढयेति वक्रिमार्गिग्रहाः स्फुटाः । ” इति ।
एषां व्याख्या - वक्र अपश्चिमे इति, वक्रीभवनादनन्तरमर्वाक चेत्यर्थः । मार्गाग्रपश्चिमे इति, मार्गीभवनादनन्तरमर्वाक् चेत्यर्थः । अन्तरांशकला ग्राह्या इति, यथा स्वभावगते ग्रंहस्व स्फुटीकर्तुं गसेष्टनाडीनां ८०० कलाभिर्गुणनमुक्तं. तथाऽत्र वक्रिमार्गीभवनसमयटिप्पनकलिखितभुक्तभागकलाभिर्गुणनं कार्यम् । केवलं वक्रीभवनस्योभयतो भुक्तकलाभिर्मार्गीभवनस्योभयतस्तु भोग्य कलाभिरिति । तासां सीमा च सर्वभमिति तासां प्रस्तावात्सर्वनाडीनां । अयमर्थ:-यथाऽन्यत्र सर्वक्षनाडीभिभीग उक्तस्तथा इष्टसमये तद्ग्रहाऽऽक्रान्तनक्षत्रस्य तत्पादस्य वा लगनादारभ्य वक्रिमागीभवन यावत् । अथवा वक्रिमार्गीभवनादारभ्य नक्षत्रान्तरे तत्पादान्तरे वा सङ्क्रमणं यावद्याः सर्वघट्यस्ताभिर्भागो देयः । ततश्च वक्रादूर्ध्वमिति यदि वक्रीभवनानन्तरं ग्रहः स्पष्टीक्रियमाणोऽस्ति तदा यल्लब्ध कलादिकं फलं तद्वक्रीभवनसम्रयटिपनकलिखितभुक्तभागकलादिमध्यात् कर्षणीयं । वक्रात् प्रथमं तु गतेष्टनाडीनां यथोक्तरीत्या भुक्तालाभिर्गुणने सर्वघटीभिर्भजनं
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पञ्चम विमर्शः
२६३
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च विधाय लब्धं भुक्तसंयुक्त कार्यमिति सुगममेव । मार्गादित इति, यदि मार्गीभवनादाग ग्रहः स्पष्टीक्रियमाणोऽस्ति तदा मार्गीभवनसमयटिप्पन कलिखितभुक्तभागकलामध्ये तस्यैव भोग्यं भागकलादिकं सम्मील्य तपिण्डमध्यालब्धं कलादिकं शोध्यते, मार्गीभवनानन्तरं तुं रूढ्येति, कोऽर्थः ? यथास्वभावगतीनां ग्रहाणां कला भानीय भुक्तक्षयोग: क्रियते तथा सोऽत्रापि कार्यः, एवं वक्रिणो मारिंगणस्तथास्वाभिमुखाश्च ग्रहाः स्पष्टीस्युः । इदं बुधशुक्राभ्यामुदाहियते तयोः प्रायो वक्रिमार्गित्वस्य बहुशो भवनात् ।
तत्र वावं वर्त्तनैवं कार्या-वृषराशी वक्रितस्य बुधस्य वर्तनं यथावक्रदिनशेषधव्यः २६, लग्नदिनवव्यः १०, अन्तराल दिन ४ घट्यः २४० मीलने २७६ । एतत् पृथक्कृत्वा स्थाप्यते । ततो बुधस्य वक्रीभवनदिने वृषराशिभुकं टिप्पनकलिखितं यथा भागा: २५ कलाः ४४. इदं सर्व कलीकृतं जातं १५४४ अस्मात् कृत्तिकापादयरोहिणीसत्काः १४०० कलाः कृष्यन्ते, शेषं १४४, इदं मृगशीर्षस्य भुक्तं । एतेन वक्रारपश्चिमेऽन्तरांशकला भुक्ता ग्राह्या इति व्याख्यातं। ततोऽनेन १४४ मृगशिरोभुक्तन पूर्वमीलिता गतेष्टघट्यो २७६ गुण्यन्ते, जातं ३९७४४ । ततष्टिप्पनकं निरीक्ष्यते। वक्रदिनादारभ्य पुना रोहिण्यां बुधः घट्यः ७ इत्यन्तं यावद् घट्यः सर्वा एकत्र मील्यन्ते. तथाहि-वकदिनशेषघट्यः २६, पुना रोहिण्यां बुधः घव्यः ., अन्तरालदिन ६ घटयः ३६०, सर्वासां मीलने जातं ३९३ । अनेन सर्वक्षनाडी रूपेण पूर्वोक्ताकस्य ३९७४४ भागे लब्धं कलाः :०१ विकला: ८ । इदं पूर्वोक्तान्मृगशीर्षभुक्तात् १४४ रूपात् शोध्यते । एतेन चक्राचे फलं लब्धं भुक्तभागौघतस्त्यजेदिति व्याख्यातं । कृष्टशेष कला: ४२ विकला: ५२, इदं कृत्तिकापादत्रयरोहिणीसक ४०० कलायुक्तं कृतं, जातं कला: १४४२ विकला: ५२ । कलानां ६० भागे लब्धं २४ अंशाः, उपरि भुक्त। राशिदाने जातः स्पष्टो बुधः १-२४-३-५२। अथ गति:-अष्टशतीस्थानीयोऽङ्कः १५४ रूपः ६० सगुण्य सर्वक्षनाडीभिः ३९३ रूपाभिर्भकः, लब्धं कलाः २१ विकलाः ५९ । इयं वावं लग्नदिने बुधगतिः । गतिस्पष्टीकृतेः फलं प्राग्वत् । नवरमनया गत्या गतेष्टघटीनां प्रागुक्तरीत्या गुणने यस्कलादिकं फलं लभ्यते, तद् द्वितीयकार्य वेलायां पूर्व कार्यकालिकाहेभ्यः शोध्यते, ततस्तद्वेलाग्रहाः स्पष्टीस्युः ॥
अथ वक्रात् पूर्व वर्तनैवम्-पुनर्वसुशुक्रः घट्यः ५९ इति दिनानन्तरं द्वितीये दिने १० घव्य नन्तरं लग्नं गृह्यमाणमस्ति, तो लमदिन घट्यः १० पुनर्वसुशुक्रागमन दिनशेषघटी १ मीलने ११ । ततष्टिप्पनकं निरीक्ष्यते कदा शुक्रो वक्रीभविष्यतीति, ततो लग्मदिनादन वक्री सितः धन्यः ४९ भागाः २१ कला: १० इति टिप्पनके लिखितं दृष्टं । एतच्च भागादि सर्व कलीकृतं जातं १२७०,
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आरम्भ-सिद्धिः
एतन्मध्यान्मृगार्धाऽऽर्दापका १२०० कला: कृष्यन्ते, शेष ७० । इदं पुनर्वसु. भुक्तं । एतेन वक्रादग्रे पूर्व चान्तरांशकला भुक्ता ग्राह्या इति व्याख्यातं । ततोऽनेन ७० पुनर्वसुभुक्तेन गतेष्टघट्यो ११ गुण्यन्ते, जातं ७७० । तत: पुनष्टिप्पनकं विलोक्यते शुक्रपुनर्वस्वागमनदिनशेषघटी १ वऋदिनघटी ४९ अन्तरालदिन ५ घटी ३०० मीलने ३५० । भाभिः सर्वक्षनाहीभिः पूर्वोक्ताङ्कस्य ७७० भागे लब्धं कले २ विकलाः १२ । इदं लग्नवेलायां शुक्रेण पुनर्वस्वोर्भुक्तं इदं मृगा. ह्यऽऽासक १२०० कलामध्ये क्षिप्तं जातं कलाः १२०२ विकलाः १२ । कलानां ६० भागे लब्धं २० भागाः । उपरि राशिद्वयदाने आतो लावेलायां स्पष्टः शुकः २-२०-२-१२ । अथ गतिः-अष्टशतीस्थानीयः ७० रूपोऽङ्कः ६. सगुण्य सर्वक्षनाडीभिः ३५० रूपाभिर्भक्तः, लब्धं कला: १२ विकला | इयं वक्रा. तपूर्व लग्नदिने शुक्रगतिः । अनया गत्या गुणने च यत् कलादिकं फलं लभ्यते तत्पूर्वकालीनग्रहेषु योज्यम् ॥ अथ मारपूर्व वर्त्तनैवं-पुना रोहिण्यां बुधः घव्यः . इतिलिखितोपलक्षितादनन्तरमष्टमे दिने पश्चघट्यनन्तरं लग्नं गृह्यमाणमस्ति, भतो लमदिनघटयः ५ पुना रोहिण्यां बुध इत्येतद्दिनस्य शेषघव्यः ५३ अन्तरालदिन ७ घट्यः ४२० मीलने ४७८, एता गतेष्टनाड्यः । ततष्टिप्पनकं निरीक्ष्यते, तत्र लग्नदिनादनन्तरं सप्तमे दिने माग्गों बुधः घट्यः । ४५ भागाः १३ कला: १३ विकलाः ८ इति लिखितं दृष्टं । तत इदं भागादिकं कलीकृतं जातं ७९३ विकला: ८, एतच्च टिप्पनके लिखितं बुधेन वृषस्य भुक्तं ज्ञेयं, भोग्यं तु कलाः १०७६ विकलाः ५२, अनेन भोग्येन गतेष्टनाडयः ४७८ स्थानद्वये न्यस्य क्रमा. द्गुण्यन्ते, स्थापना यथा-८ । एतेन भोग्या मार्गाग्रपश्चिमे इति वचनादन भोग्या एव कला गतेष्टनाडीगणनाय गृहीताः । गुणने च क्रमाजातं ४८०८५८ अधो ६० भागे लब्धं ४१४ आये क्षितं जातं १८१२८२ ततः पुना रोहिण्यां बुध इत्येतद्दिनस्य शेषवठ्यः ५३ मार्गी बुध इति दिनस्य घट्यः ४५ अन्तरालदिन १४ घट्यः ८४. मीलने ५३८ । आभिः सर्वक्षनाडीभिः पूर्वोक्ताङ्कस्य . १८१२८२ भागे लब्धं कला: ५१३ विकलाः ६, एतच लब्धं फलं लग्नदिनादष्टमे दिने टिप्पनकलि खितात् मार्गी बुध: भाग १३ कला १२ विकला ८ रूपात् वृषगशिभुक्ताद्धोग्यकला १..विकला ८ सहितात् मीलने १८०० कलारूपीभूतात् शोध्यते सभोग्यभुक्तभागौघात्याज्यं मार्गादितः फल मितिवचनात् जातं १२८६ कला: ५४ विकलाश्च । कलानां ६० भागे लब्धं २१ भागाः कला: २६ विकला: ५४ । इदं मार्गात् पूर्व लग्नदिने बुधेन वृषगशेभुक्तं । उपरि १ राशिदाने जानः स्पष्टो बुधः १-२१-२६-५४ । गतिस्तु १००६-५२ इत्याचाकस्य ६. सगुण्य ९३८ सर्वक्षनाडीभिर्भजने लब्धं कलाः ६४ विकलाः १३। अनया लब्धं कलाधं पूर्वग्रहेभ्यः शोध्यम् ॥
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पञ्चम विमर्शः
२६५
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मार्गावं स्वेवं वर्तनीयं-मार्गी बुधः ४५ इति भवनादनु सप्तमे दिने सप्तघट्यनन्तरं लग्नं गृह्यमाणमस्ति । ततो मार्गी बुधः ४५ दिनस्य शेवघटी १५ लग्नदिनघटी ७ अन्तरालदिन ६ घटी ३६० मीलने ३८२ । एता गतेष्ट. नाड्यः स्थानद्वये न्यस्य मार्गी बुधः घट्यः ४५-भागाः १३-कलाः १३-विकलाः ८, एवं टिप्पनकलिखितशेषाभिभौग्यकलाविकलाभिः १००६-५२ कमाद्गुण्यन्ते भोग्यमार्गाप्रपश्चिमे इति वचनात् जातं ३८४६२३-४ । ततः पुनष्टिप्पनकं निरीक्ष्यते मार्गीभवनादनु १४ दिने मृगे बुधः ४७ इति लिखितं दृष्टं । ततो बुधमार्गीभवनदिनशेषघटी १५ मृगे वुधागमनदिनघटी ४७ अन्तरालदिन १३ घटी ७८० मीलने ८४२ । आभिः सर्वक्षनाडीभिः पूर्वोक्ताङ्कस्य ३८४६२३ भागे लब्धं कलाः ४५६ विकला: ४८ । कलानां ६० भागे लब्धं ७ भागा: शेष कलाः ३६ विकलाः ४८, इंदं मार्गीभवनदिनलिखितभाग १३ कला १३ विकला ८ मध्ये शितं मार्ग पश्चात्तु रूट्येतिवचनात् जातं भागा: २० कलाः ४९ विकला: ५५, इदं लग्नवेलायां बुधेन वृषराशेभुक्तं । उपरि । राशिदाने जातः स्पष्टो बुधः १-२०-४९-५५। गतिस्तु १००६-५२ इत्याद्या
स्य ६० गुणने २८२ सर्वक्षनाडीभिर्भागे लब्धं कलाः ७१ विकला: ३३ । अनया लब्धं कलाद्यं फलं पूर्वानीतग्रहेषु योज्यं । एवमन्येषामपि ग्रहाणां वर्तनोक्तानुसारेण स्वधिया कार्या । इदं सर्व ज्योतिर्विदा सर्वदेष्टत्वात् प्रस्तावाच दर्शितम् ॥ अथ विवाहे गोधूलिकलग्नमाह
सन्ध्यालग्नमपि श्रेयो गोखुरोत्खातधूलिभिः। गोपानां हीनवर्णानां प्राचां च स्यात्करग्रहे ॥ ७३ ॥
व्याख्या-सूर्यस्यास्तसमयेऽर्द्धबिम्बभवनादनु गोखुरोत्खातधूलयो यावन्न शाम्यन्ति तावद्गोधूलिकलग्नसमयः, अत एव धूलिभिरित्युक्तं यावत्तारा नेक्ष्यन्ते तावदिति भावः । अभ्रच्छने स्व प्रपुनानाटपत्रमीलनशकुनिकुलकोलाहलकुलायौत्सुक्यादिलिङ्गैनिर्णय । श्रेय इति लोकरूढ्योक्तम् । हीनवर्णानामिति सामान्येनोक्तं, यद्गदाधरः-"घटिकालग्नाभावेऽङ्गीकार्य गोरजोऽपि विप्रै. श्च" । इति ॥ अथ गोधूलिके एतावत्येव शुद्धिरपेक्ष्यत इत्याहशीतद्युति षष्ठमथाष्टमंच, भद्रार्धयामी कुलिकं च हित्वा। विनापि लग्नांशग्वगानुकूल्यं, गोधूलिकं प्राग्रहरं वदन्ति॥७४॥
व्याख्या-षष्टमिति लग्नात षष्ठाष्टमेन्दुः कन्यामृत्युदः, भौमोऽपि मूर्त्यष्टमगः पत्युमत्युदस्वास्याज्य एवेति सारङ्गः । अर्धयामी कुलिकं चेति, अनेन गोधूलिके गुरुशनिवारी त्याज्यौ तहिनयोस्तदानीं क्रमेणार्धयामकुलिकोत्पत्तेरित्यसूचि । केशवार्कस्त्वाह
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आरम्भ-सिद्धिः
" सार्क शनौ चिरविचित्र शिखण्डिनौ, तत्केवलं कुलिकयामदलोपलम्भात् ।
"
अत्र सार्कमिति शनौ सूर्ये सति गोधूलिकं कार्यं पश्चात् कुलिकभवनात् । गुरौ तु सूर्यास्तादनु कार्य, प्रथममर्धयामसद्भावादिति । खगा ग्रहाः । विनाsपीत्युक्तेऽपि च किल क्रान्तिसाम्यादयो बृहद्दोषास्त्याज्या एव । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे
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२६६
" इति ।
क्रूरैर्युतं नक्षत्रं व्यतिपातं वैधृतिं च सङ्क्रान्तिम् । क्षीण चन्द्र ग्रहणभशनि गुरु दिनक्रान्ति साम्यानि ॥ १ ॥ दम्पत्योरटमभं लग्नात् षष्ठाष्टमं च शीतांशुम् । रविजीवयोरशुद्धिं विवर्ज्य गोधूलिकं शुभदम् ॥ २ ॥ गोधूलिक परिणयने येषां केन्द्रोपगः शुभो न मृतौ ॥ ३ ॥ प्राग्रह रमिति दोषान्तरैरजय्यत्वात् प्रधानं । यत्सारङ्गः" जामित्रं न विचिन्तयेद्ग्रहयुतं लग्नाच्छशाङ्कात्तथा,
नो वेधं न कुवासरं न च गतं नागामि भं पाप्मभिः । नो होरां न नवांशकं न च खगान्मूर्त्यादिभावस्थितान्, हित्वा चन्द्रमसं षडष्टमगतं गोधूलिकं शस्यते ॥ १ ॥
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अत्र यद्यपि षष्ठाष्टमेन्दुत्याग एवापेक्ष्यते, न त्वन्यत् किमपीत्युक्तं तथापीदं ज्ञेयं - गोधूलिकलग्नेऽपि वैवाहिकमेव भं, तच्छुद्धिर्वर्षमासपक्षदिनशुद्धयश्चावश्यं गवेष्यन्त एवेति । अत्राह परः- यदि दोषान्तराजयत्वाद्गोधूलिकस्य प्राधान्यं तदा पूर्वोक्तलग्नादिफलानामप्राधान्यापातः, सत्यं, अनुल्लङ्घ्य ( धित) कुल देशधर्मानुसारात्तेषां क्वचिदप्राधान्यापातोऽपि नानिष्टः । यदुक्तं
"
न शास्त्रदृष्ट्या विदुषां कदाचिदुल्लङ्घनीयाः कुलदेशधर्माः । देशे गतोऽप्येकविलोचनानां निमील्य नेत्रं निवसे मनीषी ॥ १ ॥ "
एवं यथोक्तकुलदेशेषु गोधूलिकस्यैव प्राधान्यं न तु लग्नादिफलानामिति न कश्चिद्दोषः । अपि च न केवलं गोधूलिकविषया एव ग्रहगोचरादिविषया अपि कुलदेशधर्माः सन्ति । तथाहि - विवाहे नागराणां षडष्टमकाद्यगणन भार्गवेषु भाद्रपदसितदशम्यामेव विवाहः । एते कुलधर्माः । देशधर्मा यथागौडदेशीयाः सूर्यं गोचरेण श्रेष्ठमपेक्षन्ते, गुरुं त्वष्टकवर्गेण । दाक्षिणात्या गुरुं गोचरेण श्रेष्टमिच्छन्ति, सूर्य स्वष्टकवर्गेण । लाटदेशीया रविगुर्वोरष्टकवर्ग गोचरं चेच्छन्ति । मालवीयानां गोचरो न प्रमाणं, किन्त्वष्टकवर्ग एव प्रमाणं । शेषेषु देशेषु गोचरोऽष्टकवर्गश्च प्रमाणम् ॥
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पञ्चम विमर्शः
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अथ पूर्वोक्तच्छायालग्नसमानबलं ध्रुवलग्नमाहस्युर्दीक्षास्थापनादीनि ध्रुवचक्रे तिरःस्थिते । ऊर्चे खातध्वजोच्छायप्रायाणि प्रायशः श्रिये ॥ ७५ ॥
व्याख्या- स्थापना प्रतिष्ठा, आदिशब्दादन्यदपि स्थिरकर्म । तिर इति तिर्यक । ऊर्ध्व इति ऊर्ध्वस्थिते ध्रुवस्य परितः स्थितं श्रङ्खलकं झप्रदक्षिणक भ्राम्यदहोरात्रे द्विस्तिर्यक स्यात् द्विशोछ । ततश्च. तिर्यगृर्ध्व स्थिते चक्रे तत्प्रान्तगततारके । समसूत्रे यदा स्यातां ध्रुवलग्नं भवेत्तदा ॥ १ ॥"
तत्समयश्चातिसूक्ष्मग्राहिण्या स्वदृशा ध्रुवभ्रमयन्त्रेण वा निर्णेयः । स्थूरवृत्त्या त्वेवं पूर्वाचा निर्णीतोऽस्ति । तथाहि" उदए महाधणिठ्ठाण उड्ढं अणुराहकित्ति धुअ तिरिओ" त्ति ।
परमुदयमानत्वं भस्य तथा स्पष्टं दृग्गोचरीकर्तुं न पार्यते, तेन शिरःस्थनक्षत्रापेक्षया ध्रुवलग्नस्वरूपं कथ्यते, तथाहि-अश्लेषायां श्रवणे च मस्तकादुत्तरति सति ध्रुवस्तिरश्चीनः स्यात् । भरण्यां विशाखायाञ्च मस्तकादुत्तरन्त्यां ध्रुव ऊर्ध्वः स्यादिति, तथा" स्यादुर्बो मृगकर्के तु समस्तिर्यक् तुलाजयोः । यथा तथा तु शेषेषु लग्नेषु स्थाध्ध्रुवं ध्रुवः ॥ १ ॥"
तद्वेला च तादात्विकोदयलग्ननवांशमात्रीत्येके । तस्यापि मध्यमत्रिभागमात्रीति स्वन्ये । रात्रिजमेव तिर्यगूर्ववं ध्रुवलग्नमुच्यते, न तु दिनजं, रविकरलुप्तत्वात् । प्रायाणीति, प्रायशब्दाद्यात्रादिग्रहणम् । यदुक्तम्• पृष्ठतो वा रविं कृत्वा गच्छेद्दक्षिणगं तथा । उत्तानपादपुत्रस्य शेखरे चोर्ध्वसंस्थिते ॥ १॥"
अनोत्तानपादपुत्रो ध्रुवः । हर्षप्रकाशेऽपि ध्रुवलग्नमूचे, तथाहि" जइ पुण तुरिअं कजं हविज लग्गं न लब्भए सुद्धं । ता छायाधुवलग्गं गहिअव्वं सयलकजेसु ॥१॥" अत्र राजाद्यभिषेकमाहअभिषिक्तो महीपालः श्रुतिज्येष्ठालघुध्रुवैः। मृगानुराधापोष्णश्च चिरं शास्ति वसुन्धराम् ।। ७६ ।।
व्याख्या-एवमभिषेकभानि त्रयोदश ॥ सबलत्वे जन्मदशा लग्नेशानां कुजार्कयोरपि च । राज्ञां शुभोऽभिषेकः सितगुरुशशिनां च वैपुल्ये ॥ ७७॥
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२६८
आरम्भ-सिद्धिः
व्याख्या-जन्मनि यत्रेन्दुस्तद्राशीशो जन्मेशः । अभिषेकसमये यस्य ग्रहस्य दशाऽस्ति स दशेशः । जन्मलग्नपतिर्लग्नेशः । वैपुल्यं बहुदिनोदितत्वेन विशाल बिम्बस्वं सत्किरणस्वं च ॥
भूत्यै स्वस्वत्रिकोणो१ च२ गृह३ मित्रः४ गैर्ग्रहैः ।
अभिषेको न नीचारिक्षेत्रगास्तमितैः पुनः ॥ ७८ ॥ स्वस्वेति पदं त्रिकोणादिचतुष्केऽपि योज्यं । एतैरीदृशैरेवाभिषेकः श्रेष्ठः । यतः"सुहृत्रिकोणस्वगृहोच्चसंस्थाः, श्रियं च कीत्तिं च दिशन्ति खेटाः । अस्तङ्गताः शत्रुभनीचगा वा, भयाय शोकाय भवन्ति राज्ञाम् ॥ १॥" ग्रहैरिति सामान्योक्तेऽपि विशिष्य गुन्दुिशुऊर्जन्मदशालग्नेशदिनवारैश्च । यल्लल्लः " विशेषाजन्मलग्नेशदशेशदिनभर्तृषु ।
यस्मात्तस्मात् प्रयत्नेन सौस्थ्यमेषां प्रकल्पयेत् ॥ १ ॥ " ताराबले शशिबले शुद्धौ तिथिवारधिष्ण्ययोगानाम् । त्रिषडायस्थैः पापैः सौम्यैस्त्र्यायत्रिकोणकेन्द्रगतः ॥७९॥
र व्याख्या-तारेन्द्वोर्द्वयोरपि बलं राज्याभिषेकेऽवश्यं ग्राह्यं, तेन शुक्लकष्णपक्षापेक्षयोभयोर्बलमिति न व्याख्येयं । तिथेः शुद्धिर्दग्धरिक्तादित्यागात् । वारशुद्धिः सौम्यवारैः । धिष्ण्यशुद्धिः क्रूराऽऽक्रान्तादित्यागात् । योगशुद्धिर्दुष्टयोगोपयोगवर्जनात् । व्यायेति, उपलक्षणत्वाद्धनभवनेऽपि सौम्यग्रहैरेव सहिते । सामर्थ्याच्चेदमपि लभ्यते । अष्टमद्वादशगृहे शून्ये एव भव्ये, तत्रस्थानां शुभा. नामशुभानां च ग्रहाणामनिष्टदत्वात् ॥ जन्मदुिपचयभे स्थिरेऽथ शीर्षोदयेऽथवा भवने । सौम्यैर्विलोकितयुते न तु पापैर्भूपमभिषिञ्चेत् ।। ८० ॥
अभिषिच्यमानस्य पुंसो जन्मराशित उपचयभे लग्नस्थे सति, यद्वा स्थिरे लग्ने, अथवा शीर्षोंदयिनि । न तु पापैरिति, करग्रहैरदृष्टेऽयुते वेत्यर्थः ॥
यमार्कयोस्च्या ३ ऽऽय ११ गयोर्गुरौ तु, सुखा ४ म्बर १० स्थे नृपतिः स्थिरश्रीः। यद्वा त्रिकोणो ९-५ दयगे १ सुरेज्ये, शुक्रे नभः १० स्थे क्षितिजे रिपुस्थे ॥ ८१ ॥
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रवि चन्द्र
मंगल ३-६-११
व्याख्या - यमः शनिः ॥
अभिषिक्तो बलीयोभिर्ग्रहैः केन्द्र त्रिकोणगैः । क्रूरः पापैः शुभैः सौम्यो मिश्रः साधारणो भवेत् ॥ ८२ ॥ व्याख्या - यदि केन्द्रत्रिकोणगा बलिनो ग्रहाः सर्वे क्रूरास्तदा नृपः क्रूरः स्याद् | सर्वे शुभाश्चेत्तदा सौम्यः । यदि मिश्राः कोऽर्थः ? केचित् क्रूराः केचिच्च सौम्या इति, तदा साधारणो नातिक्रूरो नातिसौम्यश्च । अपि च "बुधगुरुशुकैः साकैः" इति, यः श्लोक उपनयाधिकारे प्रोक्तः सोऽत्रापि योज्यः ॥ अभिषेके बृहद्दोषमाह - चन्द्रे सौम्येsपि वाऽन्यस्मिन् रिपु ६ रन्ध्र ८ स्थिते ग्रहैः । क्रूरैर्विलोकिते मृत्युरभिषिक्तस्य निश्चितः ॥ ८३ ॥
"
विलोकिते इति पुष्टदृष्ट्या | अभिषेके तन्वादिषु पापग्रहस्थितेः फलमाहरोगी तनु १ स्थैरधनो घना २ न्त्य १२ गै
दुःखी च पापैर्नृपतिस्त्रिकोण ५-९ गैः । पदच्युतोsस्ता ७ म्बु ४ गतैर्मृति ८ स्थितैरल्पायुराकाश १० गतैस्त्वकर्मकृत् ॥ ८४ ॥
उत्तम
३-११
पञ्चम विमर्शः
१-२-३-४-५-७-९-१०-११ ६-८-१२
बुध
गुरु
शुक्र शनि ३-११
राहु
३-६-११
मध्यम
१-२-४-५-६-७-८-५९-१०-१२
१-२-३-४-५-७-९-१०-११ ६-८-१२
१-२-३-४-५-७-९-१०-११ ६-८-१२ १-२-३-४५-७-९-१०-११
६-८-१२
२६९
१-१-४-५-७-८-९-१०-१२
१-२-४-५-६-७-८-९-१०-१२ १-२-४-५-७-८-९-१०-१२
व्याख्या अकर्मकृदिति अकिञ्चित्करो निरुद्यम इत्यर्थः ॥ इति वक्तव्यता येयं भूपालस्याभिषेचने । आचार्यस्याभिषेकेऽपि मा सर्वाप्यनुवर्तते ॥ ८५ ॥ - अपिशब्दादन्यत्रापि पदस्थापने । तदेवं राज्याभिषेकसूरिपदादौ कुण्डलिकेयं सिद्धा । तथाहि- विशेषस्तु - " राजयोगाः खयोगाश्च चन्द्रयोगास्तथायुषः । सर्वेऽप्यत्र विकल्प्याः स्युर्वास्तुलग्नगुणाश्च ये ॥ १ ॥
व्याख्या-
"
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२७०
आरम्भ-सिद्धिः %3
इति दैवज्ञवल्लभे। अस्यार्थः-राजयोगा प्रागुक्ताः । खयोगा नामसंयोगाः । चन्द्रस्यान्यग्रहैः संयोगाः चन्द्रयोगाः । आयुषो योगा इति, कोऽर्थः १ येऽरिष्टयोगा उक्तास्तेषां भञ्जका ये योगास्ते भायुषो हितस्वादायुषो योगा इत्युच्यन्ते एषां सर्वेषां स्वरूपं जातकाज्ज्ञेयं । अत्रेति अभिषेकलग्ने विकल्प्या विचार्याः । वास्तुलमगुणाः प्रागुक्ताः। भपि च सर्वग्रहबलालङ्कृतलमाऽलाभे सर्वेष्वपि कार्ये'वेवं ज्ञेयं--"पञ्चभिः शस्यते लग्नं ग्रहैबलसमन्वितैः ।।
चतुर्भिरपि चेत्केन्द्रे त्रिकोणे वा गुरु गुः ॥ १॥" अत्र पञ्चभिरित्युक्तेऽप्यय विशेषो ज्ञेयः-गुर्वन्दुमध्यादेकस्यापि बलाभावेऽन्यः पञ्चभिः सबलैरपि लग्नं नाऽऽद्रियते, इति रत्नमालाभाष्ये। केऽप्याहुः
" त्रयः सौम्यग्रहा यत्र लग्ने स्युबलवत्तराः । बलवत्तदपि ज्ञेयं शेषेर्होनबलैरपि ॥ १ ॥"
॥ इत्येकादशं मिश्रद्वारम् ॥ ११ ॥
अथ सकलग्रन्थार्थ समर्थयतिइत्युक्तखेटबल शालिनि दोषमुक्ते,
लग्ने शुभैश्च शकुनैः शशिनः प्रवाहे । कार्याणि भूमिजलतत्त्वगतौ कृतानि,
निर्दम्भभाऽभ्युदयिकी प्रथयन्ति लक्ष्मीम् ॥८६॥
व्याख्या- खेऽटन्तीत्यचि तत्पुरुषे कृतीति, सप्तम्यलुपि खेटा ग्रहाः तेषां बलं, अनेन तिथ्यादिबलमपि लक्ष्यते । दोषमुक्ते इति, बृहदोषरहिते इति भावः । सर्वथा निर्दोषस्य लग्नस्यास्वल्पदिनैरप्यलाभात् , अत: स्वल्पदोषं महागुणं च लममादाय कार्याणि कार्याणि, न तु सर्वथा निर्दोषल मापेक्षया बहुतरविलम्बः कार्यः, धनयौवनजीवितानां स्थैर्याभावादित्याशयः । उक्तञ्च“यस्मादशेषगुणसम्पदहोभिरल्पै.राविदापि गणकेन न लभ्यतेऽत्र । तस्मादनल्पगुणसंयुतमलपदोषं, लग्नं नियोज्यमखिलेष्वपि मङ्गलेषु ॥१॥
स्वल्पो नानर्थकृद्दोषो लग्ने बहुगुणे भवेत् ।
तोयबिन्दुरिव क्षिप्तः समिद्धे कृष्णवर्त्मनि ॥ २ ॥" शकुनैरिति शकुना जाङ्घिकादयः । प्रधानं च शकुनिकाः । यदुक्तं व्यवहारप्रकाशे
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पञ्चम विमर्श:
"
नक्षत्रस्य मुहूर्त्तस्य तिथेश्च करणस्य च । चतुर्णामपि चैतेषां शकुनो दण्डनायकः ॥ १ ॥ अन्नाङ्गस्फुरणमनःप्रसस्यादिनिमित्तमपि लक्ष्यं । एभिः शकुनादिभिः शुभैर्लअशुद्धौ निर्णीतायां तलनाssदरणे कार्यकर्तुर्जयः स्यात् । लल्लोप्याह - " अपि सर्वगुणोपेतं न ग्राह्यं शकुनं विना ।
"
लग्नं यस्मान्निमित्तानां शकुनो दण्डनायकः ॥ १ ॥ शशिनः प्रवाहे इति, अध्यात्मशास्त्रे किल वामदक्षिणनासे चन्द्रसूर्यसंज्ञे । ततश्च
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२७१
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सार्धघटीद्वयं नाडिरेकै कार्कोदयाद्वहेत् ।
अरघट्टघटी भ्रान्तिन्यायान्नाड्योः ः पुनः पुनः ॥ १ ॥ शतानि तत्र जायन्ते निःश्वासोच्छ्वासयोर्नव । खखषट्कुकरैः २१६०० सङ्ख्याऽहोरात्रे सकले पुनः ॥ २ ॥ षट्त्रिंशद्गुरुवणांनां या वेला भणने भवेत् ।
सा वेला मरुतो नाड्या नाड्यां सञ्चरतो लगेत् ॥
३ ॥ " तत्र वामनासायां प्रविशत्पवनापूर्णायां सर्वं शुभकार्य कार्य । यदुक्तं - " लाभे दानेऽध्ययने गुरुदेवाभ्यर्चने विषविनाशे ।
पुरमन्दिरप्रवेशे गमाssगमादौ शुभा वामाः ॥ १ ॥ पूजादग्यार्जनोद्वाहे दुर्गाद्विसरिदाक्रमे । गमागमे जीविते च गृहक्षेत्रादिसङ्ग्रहे ॥ १ ॥ ऋये विक्रयणे दृष्टौ सेवायां विद्विषो जये । विद्यापट्टाभिषेकादौ शुभेऽर्थे च शुभः शशी ॥ २ ॥ भूमिजलतत्वगताविति । उक्तं हि—
""
"वायोर्वहनेरपां पृथ्या व्योम्नस्तत्त्वं वहेत् क्रमात् । वहन्त्योरुभयोर्नाड्योर्ज्ञातव्योऽयं क्रमः सदा ॥१॥" एषां प्रवाहा एवं -
" तथा
ऊर्ध्वं वह्निरधस्तोयं तिरचीनः समीरणः ।
" प्रमाणं तु
पृथ्वी मध्यपुटे व्योम सर्वगं वहते पुनः ॥ १ ॥ +6 पृथ्व्याः पलानि पञ्चाश ५० चत्वारिंश ४० तथाऽम्भसः । अग्नेस्त्रिंश ३० तथा वायोविंशति २० नभसो दश १० ॥ १ ॥” एवं सार्धशनं १५० पलान्येकैकनाडीप्रमाणं । एवं च वामनाढ्यामपि यदा पृथ्वीजलतत्वे स्यातां तदा शुभकार्य कार्यं, न तु वह्निवायुव्योमतस्वेषु । यतः -
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२७२
आरम्भ-सिद्धिः
-
" तत्त्वाभ्यां भूजलाभ्यां स्याच्छान्ते कार्य फलोन्नतिः । दीप्तास्थिरादिके कृत्ये तेजोवाय्वम्बरैः शुभम् ॥ १ ॥ पृथ्व्यशेजोमरुद्वयोमतत्त्वानां चिह्नमुच्यते । आद्ये स्थैर्य स्वचित्तस्य शैत्यकामक्षयौ परे ॥ २ ॥ तृतीये कोपसन्तापौ तुर्ये चञ्चलता पुनः ।। पश्चमे शून्यतैव स्यादथवा धर्मवासना ॥ ३॥ " तथाश्रुत्योरगुष्ठको मध्यागुल्यौ नासापुटद्वये । सृक्कणोः प्रान्त्यकोपान्त्यागुली शेषे दृगन्तयोः ॥ १ ॥ न्यस्यान्तस्तु पृथिव्यादितत्त्वज्ञानं भवेत् क्रमात् । पीत१ श्वेता२ रुण३ श्यामै४ बिन्दुभिनिरुपाधि खम्५ ॥ २ ॥ पोतः कार्यस्य संसिद्धिं बिन्दुः श्वेतः सुखं पुनः । भयं सन्ध्यारुणो ब्रूते हानि भृङ्गसमद्युतिः ॥ ३ ॥ जीवितव्ये जये लाभे सस्योत्पत्तौ च कर्षणे । पुत्रार्थे युद्धप्रश्ने च गमनागमने तथा ॥ ४ ॥ पृथ्व्यप्तवे शुभे स्यातां वह्निवातौ च नो शुभौ । अर्थसिद्धिः स्थिरोग्यां तु शीघ्रमम्भसि निर्दिशेत् ॥५॥" अपि च" षोडशाङ्गुलिका पृथ्वी १ जलं तु द्वादशागुलम् २ । तेजश्चाष्टाङ्गुलं ३ वायुश्चतुरगुलको मतः ४ ॥ १ ॥
नैकमप्यङगुलं व्योम ५ वहतीत विनिर्णयः।" ___ अन्न षोडशाङ्गुलिकेति, यदा वायुर्वहन् षोडशाङ्गुलमाकाशं व्याप्नोति तदा पृथ्वीतत्वमित्यादि ज्ञेयं । यद्वा वाक्यमिदमन्यथा व्याख्यायते, तथाहिदोषमुक्त लग्ने भूमिजलतत्वगताविति सम्बन्धनीयं । भावश्चायं-शुद्धलग्नेऽपि यदा भूजलतत्त्वे स्यातां तदा शुभ कार्य कार्य, न स्वग्निवायुव्योमतत्त्वेषु । यदुक्तं"पृथ्वी राज्यं १ जलं वित्तं २ वह्निहानि ३ समीरणः । उद्वेगं ४ गगनं दत्ते पञ्चतां ५ सर्वलग्नतः ॥१॥" तदुस्पादप्रकारश्चायं“त्रिंशांशं पञ्चधा हन्याशा १०८ षड् ६ युगा ४ श्वि २ भिः । भू १ जला २ ग्न्य ३ निल ४ व्योम्नां ५ समझे जायते मितिः ॥१॥ द्वय२ ब्ध्य ४ ङ्ग ६ वसु ८ दशभि १० स्तद्वत्रिशांशकाहतिः । खा १ निला २ ग्नि ३ जले ४ लाना५ मोजराशौ मितिः स्मृता ॥२॥"
अनयोरर्थ:-लमानां पलरूपाणां त्रिंशांशं त्रिंशो भागः । यथा मेषलमस्य पञ्चविंशत्यधिकद्विशती २२५ पलमानस्य त्रिंशांशः पलसप्तकत्रिंशद
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पञ्चम विमर्शः
२७३
क्षररूपः ७-३० । इमं पञ्चवारान्न्यस्य विषमराशौ द्वयन्ध्यादिभिर्गुणयेत् क्रमामादितत्त्वानां मानमेति । समराशौ तु दशाष्टादिभिर्गुणयेत क्रमात् पृथ्व्यादितवानां मानं स्यात् । यद्वा यस्य लग्नस्य यत्पलमानं तस्य पञ्चदशभिर्भागे यलभ्यते तत्क्रमादेकद्वित्रिचतुष्पञ्चभिर्गुणितमोजराशौ व्योमादितत्त्वानां मानं स्यात् । समराशौ तु पञ्चचतुस्त्रिद्वयैकगुणितं क्रमात् पृथ्व्यादितश्वानां मानं स्यात् । एवं च यज्जायते तस्य स्थापनाव्यक्तिरेवम्
मेषमान पल २२५ वृषमान पल २५६ त्रिंशोऽंशः पल ७ अक्षर३० त्रिंशोऽशः पल ८ अक्षर ३२ व्योमंतरवं पल १५ पृथ्वीत० वटी १पल२५भ२० अप्तत्त्वं घटी १-८-१६ तेजस्तत्त्वं पल ५१-१२
पवनतत्रं पल ३० तेजस्तत्त्वं पच ४५ जलतत्वं घटी १
वायु पल ३४-८
पृथ्वीतत्त्वं घटी १ पल१५ व्योम पल १७-४
कर्कमान पल ३४१ त्रिंशोऽशः पल ११ अक्षर२२ पृथ्वी घटी १-५३-४० अप् घटी १-३०-५६ तेज घटी १-८-१२
पवन पल ४५-२८ गगन पल २२-४४
तुला मान पल ३३१ त्रिंशोऽशः पल ११-२
गगन पल २२-४ पवन पल ४४-८ तेज घटी १-६-१२ अप् घटी १-२८-१६ पृथ्वी घटी १५०-२० मकर मान पल ३०५ त्रिंशोऽशः पल १०-१० पृथ्वी घटी १ - ४१-४० अप् घटी १-२१-२० तेज घटी १-१
पवन पल ४०-४० गगन पल २०-२०
सिंहमान पल ३४२
कन्या मान पल ३३० त्रिंशोऽशः पल ११ अक्षर २४ | त्रिंशोऽशः पल ११-२
गगन पल २२-४८ पवन पल ४५-३६ तेज घटी १-८-२४ अप् घटी १-३१-१२ पृथ्वी घटी १-५४ वृश्विकमान पल ३४२ त्रिंशोऽशः पल ११-२४ पृथ्वी घटी १-५४ अप घटी १-३१-१२ तेज घटी १-८-२४ पवन पल ४५-३६ गगन पल २२-४८ कुम्भ मान पल २५६ त्रिंशोऽशः पल ८-३२ गगन पळ १७-४ पवन पल ३४-८ तेज पल ५१-५२ अप घटी १-८-१६ | पृथ्वी घटी १ - २५-१०
मिथुन मान पल ३०५ त्रिंशोऽशः पल १०अ १० व्योम पल २०-२० पवन पल ४०-४० तेज घटी १-१ अप् घटी १-२१-४० पृथ्वी घटी १-४१-४०
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पृथ्वी घटी १-५०-२० अप् घटी १-२८-१६ | तेज, घटी १-६ - १२
पवन पल ४४-८ गगन पल २२-४
धनुर्मान पल ३४१ त्रिंशोऽशः पल ९१-२२
गगन पल २२-१४ पवन पल ४५-२८ तेज घटी १-८-१२ अप् घटी १-३०-५६ पृथ्वी घटी १-५३-४० मीन मान पल २२५ त्रिंशोऽशः पल ७-३० पृथ्वी घटी १-१५ अप् घटी १ तेज पल ४५
पवन पल ३०
गगन पल १५
एवं लग्ने लग्ने पञ्च तत्वानि क्रमोत्क्रमेण स्युः । विशेषस्तु भूजलतत्त्वाङ्कितान्यपि पलानि यदि षड्वर्गशुद्धानि पञ्चवर्गशुद्धानि वा स्युस्तदाऽत्यन्तं शुभानि ।
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૨૭૪
आरम्भ-सिद्धिः
तानि चेत्थं, यथा-मेषलग्ने सप्तमस्य तुलांशस्यायेष्वष्टादश (१८) पलेषु लग्नाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा मेषलग्ने नवमे धनुरंशेऽन्त्येष्वष्टादश (16) पलेषु पञ्चवर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च १ । वृषलग्ने तृतीये मीनांशे आयेषु सप्त (७) पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा वृषलग्ने पञ्चमस्य वृषांशस्यायेषु चतुर्दश (१४) पलेषु षड्वर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च २। मिथुनलग्ने षष्टस्य मीनाशस्यायेष्वष्ट (6) पलेषु षड्वर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च । पञ्चवर्गशुद्धिस्तु सम्पूर्णेऽपि नवांशेऽस्ति द्वादशांशाशुद्धः३। कर्कलग्ने आये कक्कांशे आद्यष्वष्टाविंशति (२८) पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा कर्कलग्ने तृतीये कन्यांशे सम्पूर्ण षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च ४। सिंहलग्ने षष्ठे कन्यांशे दशपलेभ्योऽन्वष्टाविंशति (२८) पलेषु लग्नाशुद्धेः पञ्चवर्गशुद्धिर्जलतत्वं च ५। कन्यालग्ने तृतीये मीनांशे नवपलेभ्योऽनु सप्तविंशति (२७) पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्वं च ६ । तुला. लग्नेऽष्टमे वृषांशे आयेष्वष्टादश (१८) पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा तुलालग्ने नवमे मिथुनांशेऽन्त्येषु सप्तविंशति (२७) पलेषु षड्वर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्त्वं च ७। वृश्चिकलग्ने तुर्ये तुलांशे आयेष्वष्टाविंशति (२८) पलेषु लग्नाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिर्जलतत्त्वं च ८। धनुर्लग्ने षष्ठे कन्यांशे सम्पूर्णेऽपि पञ्चवर्गशुद्धिकाणाशुद्धेर्जलतत्वं च । तथा धनुर्लग्ने सप्तमे तुलांशेऽन्त्येषु नव (९) पलेषु द्वादशांशाशुद्धेः पञ्चवर्गशुद्धिः पथ्वीतत्वं च । तथा धनुर्लग्ने नवमे धनुरंशे आयेषु नव (९) पलेषु द्वादशांशाशुद्धः पञ्चवर्गशुद्धिः पृथ्वीतत्वं च ९ । मकरलग्ने पञ्चमे वृषांशे आयेषु षोडश (१६) पलेषु लग्नाशुद्धेः पञ्चवर्गशुद्धिर्जलतत्वं च १०। कुम्भलग्ने षष्ठस्य वृषांशस्यान्त्येषु विंशति २० पलेषु लग्नाशुध्धेः पञ्चवर्गशुध्धिजलतत्त्वं च । तथा कुम्भलग्नेऽष्टमस्य वृषांशस्यान्त्यानि चतुर्दश (१४) पलानि, नवमस्य च मिथुनांशस्याद्यानि सप्ते (७) त्येकविंशति (२१) पलेषु लग्नाशुध्धेः पञ्चवर्गशुध्धिः पृथ्वीतत्त्वं च ११ । मीनलग्ने आये काशे आयेष्वष्टादश(१८) पलेषु षड्वर्गशुधिः पृथ्वीतत्त्वं च । तथा मीनलग्ने तृतीये कन्यांशे सम्पूर्णे पञ्चविंशति (२५) पलरूपे षड्वर्गशुध्धि: पृथ्वीतत्वं चेति १२ । कृतानीति अत्र वृध्धाः प्राहुः-दीक्षाप्रतिष्ठातीर्थयात्रापदारोपादिकार्येषु यत्र कार्ये यन्नक्षत्रं यो वारो या तिथिश्वाधिकृतानि तानि शुध्धानि सम्यग्विलोक्य रवियोगसिध्धियोगादियुता पूर्व दिनशुध्धिस्ततो लग्नशुध्धिनवांशशुध्धिश्च विलोक्ये । सर्वथाऽपि शुध्धलग्नालाभे कार्यस्याऽवश्यकर्तव्यत्वे च शुभदिनशुधौ छायालग्ने ध्रुवलग्ने विजयमुहूर्ते शुभचतुर्घटिके वा कार्य कार्यमिति सकलग्रन्थरहस्य । प्रथयन्तीति, एवं कृतानि कार्याणि सर्वाङ्गीणमभ्युदयं प्रथयन्ति ॥ इति श्रीमति आरम्भसिद्धिवार्तिके विलग्न १ मिश्र २ द्वारपरीक्षा
त्मकः पञ्चमो विमर्शः सम्पूर्णः ॥५॥
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पञ्चम विमर्शः
२७५
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श्रीसूरीश्वरसोमसुन्दरगुरोनिःशेषशिष्याग्रणी
गच्छेन्द्रः प्रभुरत्नशेखरगुरुर्देदीप्यते साम्प्रतम् । बच्छिष्याश्रवहेमहंसरचितस्यारम्भसिद्धेः सुधी
शृङ्गाराभिधवार्तिकस्य बुधभाः ५ सङ्ख्यो विमर्शोऽभवत् ॥१॥ विमर्शः पञ्चभिः प्रेष्ठविषयैरिव संवृतम् ।
न कस्याहाददायीदं सुधीशृङ्गारवार्तिकम् ॥ २ ॥ बहुज्योतिःशास्त्रात्मकमणिसुवर्णापणगणा
न्मया सारं सारं द्युतिमयमुपादाय किमपि । सुधीशृङ्गारोऽयं व्यगचि रुचिरः सैष मुधियां, करे कण्ठे कर्णे हृदि च सुषमां पल्लवयतु ॥ ३ ॥
अथ प्रशस्तिः । श्रीमचन्द्रकुले पुराऽजनि जगञ्चन्द्रो गुरुयस्तपा
चार्यख्यातिमवाप तीव्रतपसा तस्यान्वयेऽजायत । प्रौढः श्रीवरदेवसुन्दरगुरुस्तत्पट्टपूर्वागिरेः,
शृङ्गे श्रीप्रभुसोमसुन्दरगुरुर्भानुर्नवीनोऽभवत् ॥ ४॥ यतःभानोर्भानुशतानि षोडश लसन्त्येकत्र मास्याश्विने, __ यच्छिष्यास्तु ततोऽधिका अपि महीमुद्योतयन्ते सदा । तस्याऽहं चरणानुपासिषि चिरं श्रीमत्तपागच्छप
क्षोणीविश्रुतसोमसुन्दरगुरोश्चारित्रचूडामणेः ॥५॥ मारियन निवारिताऽसुरकृता संसूज्य शान्तिस्तवं,.
सूरिः श्रीमुनिसुन्दराभिधगुरुर्दीक्षागुरुः सैष मे । यस्य श्यामसरस्वतीति विरुदं विख्यातमुर्वीतले.
गुी श्रीजयचन्द्रसूरिगुरुरप्याशत् प्रसत्तिं स मे ॥६॥ साम्प्रतं तु जयन्ति श्रीरत्नशेखरसूरयः । नानाग्रन्थकृतस्तेऽपि पूर्वाचार्यानुऽकारिणः ॥ ७॥ एतानाचार्यहय॑क्षान् प्रत्यक्षानिव गौतमान् । वीतमायं स्तुवे स्फीतश्रीतपागच्छनायकान् ॥८॥ अपि च
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२७६
आरम्भ-सिद्धिः
एकोऽप्यनेक शिष्याणां यश्चित्ताब्जान्यबोधयत् । तं श्रीचारित्ररत्नं भो नभोरत्नसमं स्तुमः ॥ ९ ॥ चिन्मयानां मयाऽमीषामृषीणां सुप्रसादतः । हेमहंसाभिधानेन वाचनाचार्यतायुजा ॥ १० ॥ श्रीमविक्रमवत्सरे मनुतिथौ १५१४ शुक्ल द्वितीयातिथौ, नक्षत्रे गुरुदैवते गुरुदिने मासे शुचौ सुन्दरे । आशापल्लिपुरे पुरः प्रतिनिधेः श्रीमद्युगादिप्रभो -
ग्रन्थः सैप समर्थितः प्रथयतादाद्यं पुमर्थ्यः सताम् ॥ ११ ॥ इति श्रीतपागच्छपुरन्दर श्री सोमसुन्दरसूरि श्रीमुनिसुन्दर सूरिश्रीजयचन्द्रसूरिप्रमुखश्रीगुरुसाम्प्रत विजयमानश्रीगच्छनायक श्री रत्नशेखरसूरिचरणकमलसेविना महोपाध्यायश्री चारित्ररत्नगणिप्रसाद प्राप्त विद्यालवेन वाचनाचार्य श्रीहे महंसगणिना स्वपरोपकाराय सुधीशृङ्गाराख्यं श्रीआरम्भसिद्धिवार्तिकं सर्वथा सावद्यवचनविरतैः सुविहिताचार्यवर्यैर्वाच्यमानं चिरं नन्दतात् ॥
अथ ग्रन्थकृत्स्वाभिप्रायं प्रकाशयति, तथाहिविद्यारम्भतपःक्रियाप्रभृतिकप्रारम्भव समे
-
Sप्यारम्भा अशुभाः शुभाव नियतं सावग्रतादूषिताः । सर्व्वारम्भविश्वसिद्धिकरणादारम्भसिद्ध्याह्नयो,
ग्रन्थोऽयं तत एव चाप्रकटनायोग्यो विशूकात्मसु || १|| ततश्च येन श्रीप्रभु सोमसुन्दरगुरोः काले कलौ जङ्गमश्रीमतीर्थकरस्य चारु सुचिरं सेवा कृता तस्य मे । एतज्ज्योतिषवार्त्तिकप्रणयनं नो युज्यते सर्वथा,
ग्रन्थोऽयं तदपीह येन विधिना जातस्तदाऽऽकर्ण्यताम् ॥ २ ॥ केचित् केचिदपि कचित् क्वचिदपि ग्रन्थे विशेषा मया । दृष्टा ज्योतिषगोचराः किल समुच्चेतुं च ते चिन्तिताः । प्रक्रान्तश्च समुच्चयो रचयितुं संवर्धमानः पुनः,
सोऽयैरेव शनैः शनैः समभवद्ग्रन्थानुरूपाकृतिः ॥ ३ ॥
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पञ्चम विमर्शः
प्राप्तः सोऽयमचिन्तितामपि यदा ग्रन्थस्य रीतिं तदा,
चित्तेऽचिन्ति मया धिया निपुणया सम्यग्विचार्याऽऽयतिम् । निःशूकैर्यतिभिस्तथा गृहिभिरप्यादास्यतेऽसौ यदा,
सावधप्रथितेताधिकरणं सम्पत्स्य तेऽलं तदा ॥ ४ ॥ तेनैतस्य जलावमजनविधिग्रन्थस्य निर्माप्यते,
नोत्सर्प त्यधिकाधिकाधिकरणस्फातियथाऽस्मादिति । तत्कर्तु तु न शक्यते स्म विविधग्रन्थोच्छवृत्या हुता,
गच्छेऽत्र स्थितिमावहन्तु कथमप्येते विशेषा इति ॥ ५॥ एतमादभिसन्धितः परिहताम्भोमजनः सजनाः, सोऽयं ग्रन्थ उपागमत् करतले युष्माकमायुष्मताम् । सत्याप्योऽथ तथा कथश्चन यथाऽऽरम्भप्रथाकारणं, धाणामपि कर्मणां प्रणयने जात्वेष नो जायते ।.६॥ यथा हि । खड्गः खण्डनहेतवे खलजनस्याऽऽदीयते धीयते,
नो सम्यग्यदि सोऽपि सौवधनिकोच्छेदाय तज्जायते । वेतालोऽपि विधेयतामपि गतो यत्रापि तत्रापि चेत् ,.
संयोज्येत यथा तथा ननु तदा स्वं साधकं बाधते ॥ ७ ॥ एवं ज्योतिषशास्त्रमेतदखिलं सावधसज्जात्मनां, __ चैत्यादेरपि चेन्मुहूर्त कथने व्यापार्यते साधुभिः । तत्तेषामनवद्यभाषणमयं याति व्रतं सर्वथा,
लिप्यन्तेऽपि च पातकेन महता ते शास्त्रका समम् ॥ ८॥ नन्वेवं यदि जैनचैत्यरचनाश्रीतीर्थयात्रादिनः, पुण्यस्यापि मुहूर्तमात्रमृषिभिर्नोदेयमित्युच्यते । तत्पुण्योपचयः कथं नु भविता गाईस्थ्यभाजां नृणां, नानाग्रामनिवासेनामथ यतेः स्यात्पुण्यलाभः कथम् ? ॥९॥ अत्रोच्यते
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आरम्भ-सिद्धिः
-
-
पुण्यं स्यादनुमोदनैव यतिनां चैत्यादिनिर्मापणे,
मौहूर्ताः पुनरर्पयन्ति गृहिणामुद्वाहनादाविव । चैत्याधेऽपि मुहूर्तमद्भुततरं संवादमेषां पुन
ज्योतिर्जा यतयो दिशन्त्यखिलमप्येवं सुयुक्तं भवेत् ॥ १० ॥ एवं सत्यपि कर्मगौरववशाधः पातकाभीलुकः,
शास्त्रस्यास्य बलेन वक्ष्यति जने मूढो मुहर्चादिकम् । तस्यैवैतदधं पतिष्यति शिरस्यारम्भसम्भार,
नैतद्ग्रन्थविधायिनस्तु मम तत्सम्बन्धलेशोऽपि हि ॥ ११ ॥ तस्मात्तवमिदं वदामि तदिदं शास्त्रं रहो भण्यतां,
शिष्याणामपि भाज्यतामवगतास्ते चेदघाद्भीरवः । पर्यायान् परिवर्द्धगन्तु च बुधाः सर्वेऽपि बोधस्य ते,
यस्मात्केवलमेतदेव हि फलं मेऽभीष्टमेतत्कृतेः ॥१२ । ततश्चज्ञानांशोपचयैकपेशलफलप्रस्फुर्तये वार्तिकं,
- कुर्वाणेन मया शुभाशयवश द्यत्पुण्य कर्मार्जितम् । दिष्टया तेन भवे भवै भवतु मे सज्ज्ञानलाभोदयो,
यस्मादद्भुतधाम शाश्वतचिदानन्दं पदं प्राप्यते ॥ १३ ॥ इत्येतानि ग्रन्थकर्तुरभिप्रायसूचकानि काव्यानि वाचयित्वा यथोपदिष्टमार्गानुष्ठानाय यतनीयं तत्वज्ञैः॥
॥ इति प्रशस्तिः ॥
-RRIES
इत्यारम्भसिद्धिः सटीका सम्पूर्णा।
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परिशिष्टे श्लोकानामकारायनुक्रमः ॥
२७९
-
श्रीआरम्भसिद्धिग्रन्थस्य श्लोकसूची ॥
- -:: परिशिष्ट अ::पृष्ठाङ्काः. श्लोकाः । पृष्ठाङ्काः श्लोकाः
३ ॐ नमः सकलारम्भसिद्धि० १४२ भायो दैान्ययोर्घात: ९० अर्कः स्वमन्दभौमेभ्यो। २७० इत्युक्तखेटबलशालिनि० १६८ अर्काकिंशशिनः सिध्यै. २६९ इति वक्तव्यता येयं० ६२ भाद्युच्चान्यजवृष.
१७२ इति सप्तरूपकाधैः सकलं. ९५ अक्कारयोजस्य गुरोः०
२२५ इन्दुकायुतं लग्नं. २१२ अर्केन्द्रो(कांशक.
२५० इष्टाद्भुक्तनवांशकैर्दश० ५५ अग्रतो नवमे राहो.. १५२ उत्सवमशनं स्नानं. १० अथ बलबाल बकौलव० १६३ उत्तरान्तश्चरो भानो:० ९८ अधोमुखानि पूर्वाः स्यु. २६ उत्तराषाढमन्त्यांहिं० अनुराधा ननीनूने०
१२२ उदयेऽथ नवांशे वा० ११९ अभ्यक्तस्नाताशिता.
५९ उद्यद्घोषवतीगदं० १२८ अभ्यङ्गमार्ककुजजीवसितेषु०
२०४ उद्वाहे मृगपैत्रः प्रतिष्ठा २६९ अभिषिक्तो बलीयोभि.
१०६ उडूनां योन्योऽश्वद्विप० २६७ अभिषिक्तो महीपालः. १०४ उपकुल्यानि भरणा० १५२ भवमन्य माननीयानि
४५ उपयोगास्वश्वि० १५५ भष्टमं स्वेन्दुलग्नाभ्यां० ६६ उपान्त्यं सर्वतोभद्र० २१८ अंशास्तु मिथुनः कन्या० १४. उल्लङ्ध्यः परिघोऽपि १८४ भाक्रन्दं विपुलं चैव० ९९ ऊर्ध्वास्यान्युत्तरा:० १५३ आकालिकीषु विद्युद्ग० ९९ स्वाद्यधुचतुष्टयवर्जी० १४१ भाग्नश्यादि विदिक
४९ एकागल: कुयोगेषु० ११६ भाघाटनं प्राथमल्लिक २३४ एभ्यः श्रीवरसपूर्वा..
भाषाम्बूपचये लग्नात्. ९६ एलाशिलापन कय० । १२६ भादित्यपुष्याहिर्बुध्न० १८० ऐन्यादिदिक्षु मातङ्ग. ४५ भानन्दः कालदण्डश्र० १५५ कर्कवृश्चिकमीनाना० २३४ भानन्दजीवनन्दनजीमूत. ११६ कर्णवेधोऽह्नि सौम्यस्य. ९२ आयव्ययाटगोऽर्का०
२१ कण्टकोऽपि दिनाष्टांशे०
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૨૦૦
पृष्ठाङ्काः
९
९८
लोकाः करणान्यथ शकुनि ० कार्य वितारेन्दुबलेsपि पुष्ये ०
कुज इन्दोरुपचयभे० कुजशनितो व्यन्त्यारिषु०
७७
कुजस्य ज्ञो रिपुर्मध्यौ ० कुम्भोन्त्य धनिष्ठा०
५८
२९ कुर्यात्प्रयाणं लघुभि० कुलभान्यश्विनी पुग्यो ० कुलिको द्विघ्नशन्यन्त०
कुलोपकुल भान्याद्री ० कूर्मः पुत्रार्थ रन्ध्रान्त्ये ०
९१
९१
*
२१
१०४
२३४
६६ केन्द्र चतुष्टयकण्टक ० केन्द्रत्रिकोणगैः सौम्यैः ०
१९१
१६५ केन्द्रेषु ग्रहशून्येषु० केन्द्रोपचयधीधम्मै० २३ कृतनवभागे वाससि०
१२१
९६
कृष्णतिलाञ्जनलाजैः ०
१३१ कृषिरूचे सूर्य ० १२० क्रमादंशेषु सूर्य्यादे: ०
१९०
१२९
१५३
११६
आरम्भ-सिद्धिः
१२२
क्रूरा: कुर्युर्धने निःस्व० २०९ क्रूरेण मुक्तमाक्रान्तं ० क्षिते दग्धेऽथ लिप्ते० क्षुतगृहकलहज्ज्वलनौ ० क्षौरं शुभस्याहनि तारका ०
१२४
क्रमाद्विप्रादिवर्णानां ० क्रयविक्रयौ न हि गवां०
५)
खर्जूरकस्य शीर्ष ० गजवाजिकर्म नेष्टं ०
१२९
२४९ गणितविदुपदेशात्तत्र ०
३८
४८
गण्डान्तं च त्यजे श्रेधा० गण्डो वृधिव
१२९ गवां स्थानं च यानञ्च ०
पृष्ठाङ्काः
९१
१६९
श्लोकाः
गुरुः केन्द्रस्वरन्धाये ०
गुरुर्जयाय लग्नस्थः०
२३३
२२२
१८४
३३
१०४
गुर्कान्दवः कुल्याः ०
९०
गोचरेण ग्रहाणां चेद्० २५ गोसासीसूः शतभि०
११२
१२१
गुरुर्ध में व्यये शुक्रो०
गुरुर्बुधश्च शीतांशु०
गुरोरधो लधुं न्यस्येत्०
गुरौ पुष्याश्विना०
७ २
१९२ गृहप्रवेशं सुविनीतवेषः ० महाः स्युरैन्द्याद्यधिपा० चक्रे त्रिनाडिके धिष्ण्य० चतुष्टयेऽर्कादिषु राजसेवी ० चत्वारोऽकचटा वर्गाः ० चन्द्रश्वरति पूर्वादौ ० चन्द्रश्वोपचये लग्ना०
११३
१४.४
९०
९०
८६
१२२
चन्द्रादुपचयस्थो ०
चन्द्रावस्था प्रोषित ० चन्द्रेऽर्के वा त्रिशत्रु०
२३१
चन्द्रे च लग्ने च चरे० २६९ चन्द्रे सौम्येऽपि वाऽन्य०
१२१
चन्द्रे षष्ठाष्टमे मृत्युर्मु० ८३ चन्द्रो जन्म त्रिषट्सप्त० २८ चरम हुश्चलं स्वाति ०
चरादन्यत्र लग्नेन्द्वोः • चुचेचोलाऽश्विनी ज्ञेया०
१९०
२४
१६८
४५
९०
८४ अनिभावकेषु त्रिषु० जन्मकाले विधोर्यद्वा० १५६ जन्मकाले शुभैर्युक्ता ०
१६१
चौराणां शकुनैर्यात्रा ० छत्रं मित्रं मनोज्ञश्च ० छिद्र त्रिलाभात्मज०
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परिशिष्टे श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः ॥
पृष्ठाङ्काः श्लोकाः
पृष्ठाङ्काः श्लोकाः २६८ जन्मादुपचयमे स्थिरेऽथ० २४२ त्रिकोणकेन्द्राऽऽयगतैः० १६. जन्मन्यनिष्टः सौम्यो० ___६६ त्रित्रिकोणं च नवम० २२४ जन्मराशि जनेर्लन०
२७ त्रिश्यङ्गभूतजगदिन्दु. १९३ जन्मराशि विलनाभ्यां०
८ त्रिशश्चतुर्णामपि मेष. १६२ जन्मलग्नेशयोस्तान:० २२० त्रिष्वपि क्रूरमध्यस्थौ० १५४. जन्मलग्ने शुभा यात्रा० . ६ श्रीन वारान्स्पृशती त्याज्या० जन्माधानान्विता०
दग्धाऽक्केण धनुर्मीने. १५७ जयमूर्ध्वमुखी होरा०
६ दग्धामर्केण सङक्रान्तौ० १६९ जयाय मूत्तौ मार्तण्डः० १० दशामूनि विविष्टीनि० १३१ जलाशयं न कुवातक
दारुणं तीक्ष्ामश्लेषा० १२६ जातरोगस्य पूर्वार्दा १४१ दिक्शलध्वंसि वन्देत० । २३२ जामित्रेशः पतिः स्त्रीणां० १६६ दिगीशः केन्द्र गः श्रेयान् । १२२ जितेरस्त मितीच०
दिव्यो गणः किल पुनः २०० जीर्णः शुक्रोऽहानि पञ्चक २२२ दीक्षायां कुरुते चन्द्रः०
जीवस्यात्रियो मित्रा० २२८ दीक्षायां तरणिर्धन त्रि० जीवात्स्वान्त्यायारिषु.
दैवज्ञदीपकलिकां० जीवे मजानि कुसुमैः० १.३ द्वयेषु गुरुशिष्यादेः० १९६ जीवे सिंहस्थे धन्वमीन० २४७ द्वादशराशिगणो० २०२ ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे० १५७ द्रेष्काणः फलग्नान्यः ९५ ज्ञोऽखिले फलदो०
२३३ धनुगष्टमगैः सौम्यैः० २४ डीडूडेडोभिराश्लेषा०
५८ धन्वोमूलं पूर्वाषाढा० १५९ तनुः कोशो भटो यानं मन्त्रो १८७ धामारभेन्नोत्तरदक्षिणा० २३७ तनुबन्धुसुनद्यन.
२१. धिष्ण्यं कार्याय पर्याप्त २६८ नाराबले शशिबले शुद्धौ० १८२ ध्वजः पदे तु सिंहम्य ५० तिर्यक त्रयोदशो३०
ध्वजो धूमो हरिः श्वा गौः० ९९ तिर्यमुग्वानि चादित्यः १८४ ध्रवं धन्यं जयं नन्दं० ७४ ते स्थान बलिनो मित्रा १३ न गुरौ वारुणाग्नेय० ५८ तौली चित्रात्याधं०
३३ न चन्द्रे वासवाषाढा० २५३ त्यक्त्वाऽर्कभोग्यञ्चक
३२ न चा वारुणं याम्यं० ४९ त्यजेद्वा पञ्च विष्कम्भे० । १३८ न दिवाधे ध्रुवमि श्रे० १.३ त्यजेश वीक्षेत समाष्टकं वा० ४ नन्दा भद्रा जया रिक्ता० 10 त्याज्योऽर्धयामो०
१२५ न प्रेतकर्म कुवातक
mm
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૨૮૨
पृष्ठाङ्काः
३३
३३
१२२
६८
१३१
श्लोकाः
न बुधे वासवाश्लेषा०
न भौमे चोतराषाढा०
नववाससः प्रधानं वास०
नवांशाः स्युरजादीना० न वृक्षारोपणं कुर्य्यात्०
३४
३४
न शनौ रेवती सिध्ध्यै ० न शुक्रे भूतये ब्राह्म० १२५ नष्टं चतुर्भिग्न्धाद्यै० २०७ नान्ये प्रतिष्ठां जन्मर्क्षे ०
११३ नामादिवर्गात मथैकवर्गे० नियमालोचना योगतपो०
११९
४३ नोपग्रहास्तु भूत्यै० १३१ नृत्तं मैत्रे स्याद्धनिष्ठा०
३८ पञ्चकं श्रवणादीनि० पञ्चके वासवान्त्या० पञ्चपञ्चाशमेवांश
३७
२२३
१२० पराजितेऽरिवेश्मस्थे
७६
२४२
आरम्भ-सिद्धिः
पश्यन्ति पादतो वृध्ध्याo पश्यन्नंशाधिपो लग्नं०
पश्येत्पूर्ण शनिर्भ्रातृ० पातः सूर्यतोऽश्लेषा पातं शूलस्य गण्डस्य० ११६ पात्र भोगोऽश्विनीचित्रा० १५४ पापैरस्ताम्बुगैर्दृष्टे •
१६०
पापोऽप्यभीष्टदो जन्म०
७७
५६
५७
१४३ पाशो मासस्येष्ट०
१८४ पूर्वादितो गृहद्वाराहि० पूर्वादिदिक्षु मेषाद्याः०
६०
१०४ पूर्वेषु जाता दातारः० ९६ पृषादितोषाय च पद्मराग०
१६७
पौग ज्ञजीवमन्दाः स्यु० ७३ पृच्छादिष्वपरे केतुं०
पृष्ठाङ्काः
श्लोकाः
१४ प्रतिशुक्रं त्यजन्स्ये के०
प्रतिष्ठायां श्रेष्ठो रवि०
२३५
१९२
प्रविशेद्वेश्वारेषु०
१३६ प्रस्थानमन्तरिहकार्मुक० १८६ प्रारब्धं सम्मुखे चन्द्रे०
फले व्ययेन वेश्माख्या०
१८३
२३७
७५
२३९
१२.
१३०
३३ बुधे मैत्रं श्रुतिज्येष्ठा बुधोऽक्कतोऽन्त्याय ०
९ १
१७२ बुधो वपुः सुग्वद्वेषि० २३९ बुधो विनाऽक्र्केण चतुष्टयेपु० भद्राऽर्धयामगण्डान्त०
२०३
१४
१२६
२२७
बलहीनाः प्रतिष्ठायांο
गुरुसितार्का ०
बलिनो बलिष्ठः स्वोच्चगो दोषाο बाण - द्विदिग्- जलधि ० बीजोतौ प्रतिषिध्वानि
१८७
३२
२३
१२८
९६
३३
૧૨૦
भद्रेन्द्राष्टाश्वतिथ्य० भरणी वारुणश्रोत्र ० भवेज्जन्मनि जन्मक्ष०
भाद्रादित्रित्रिमासेपु० भानौ भूत्यै करादित्य भानोर्भनयनर्तवः ०
२५२
१२८
२६८
२५ भेभोजाज्युत्तराषाढा० २६
भेवास्त्वश्वियमां०
२९ भेषु क्षणान् पञ्च दशै०
भुक्तेऽथ लग्नम्य तदंश० भुञ्जतान्नं नवं दवा० भूत्यै स्वस्व त्रिकोणोच्च०
भैषज्यमिष्टं मृग० भौमे बलाहिङ्गुल०
भौमेऽश्विपौष्णाहि० मध्या तु पूर्वा०
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परिशिष्टे श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
२८३
पृष्ठाङ्काः श्लोकाः २४४ मध्ये मेषझषौ पलै० ८७ मन्दर्भतः प्रथम-वेद-षड० ७७ मन्दस्यऽऽज्ञसितौ० १६९ मन्दाऽऽरी व्यायषट्सु १९६ माघफाल्गुनयो राध० १२० माघादौ पञ्चके मासां० १२६ मासान्मृगोत्तराषाढे० ७४ मित्रमध्यारयो येऽत्र० ५८ मिथुनो मगार्द्धमा० २८ मिश्रं साधारणं च द्वे० २३३ मुशलो (लं) बन्धुगे भौमे०
४५ मुसलो गजमातङ्गो० १०१ मूर्दास्य स्कन्धबाहाकर० १०५ मूर्दास्यांमभुजाकरोग्य १०० मुलस्यांहि चतुष्के पितृ०
मेषाच्छोणार्जुन हरि० ६७ मेषादीशाः कुजः शुक्रो० १२० मौजीबन्धोऽष्टमे गर्भा० १२६ मृते साधौ पञ्चदश
२८ मदु मैत्रं मगश्चित्राऽनु० १५६ यच्च वश्यं स्वलग्नेन्द्रो० ४८ यत्प्रातिकूल्यं वाराणां ३७ यमलाख्यो द्विपाद२० २६८ यमार्कयोस्यायगयो० ૧૧૪ यातव्यं दिग्मुखे लग्ने० १६९ यातुः प्राग दक्षिणयोर्वासिता
यात्रा दिनतिथितारा १९० ये गृहेऽलिन्दनियंह०
३६ योगः कुमारनामा शुभः० २३५ योगा यथार्थनामानः
४२ योगो रवेभ्भात १२३ योषित करपञ्चक
पृष्ठाङ्काः श्लोकाः १०७ रक्षोगणः पितृभराक्षस. २२७ रविः कुजोऽर्कजो राहुः० २३, रविचन्द्रकुजींचे० २० रविचन्द्रमङ्गलबुधा० ७५ रविचन्द्रावुदगयने० १४५ रविद्वौं द्वौ तु पूर्वादो० ७७ रवेः शुक्रशनी शत्रू० ३६ राजयोगो भरण्याये० १२९ राजावलोकनं कुर्या० ११ रात्रौ चतुर्थे कादश्यो० ५८ राशिरथ तत्र मेषोऽश्विनी १०७ राशेरोजाम्मृतिः षष्टे० १४४ राहुरसम्मुखवामोऽष्ट
५ रिक्ता षष्ठयष्टमीद्वादश्य० ૧૨ रेवत्यादिचतुष्केषु० २६९ रोगी तनुस्थैरधनो०
लग्नजातानवांशोत्थान २४२ लग्नात् करो न दोषाय०
लग्नादग्नि कुठवीत. लग्नाद्भावास्तनु द्रव्य.
लग्नाद्युत्क्रमकेन्द्रा० २२७ लग्नाम्बुस्मरगो राहुः०
__ लग्ने गुरोर्वरस्याथ० १२१ लग्ने गुरौ त्रिकोणे० २३२ लग्नोदितांशः स्वेशेन० १९५ लग्नं विवाहे दीक्षायां० २१४ लग्नं श्रेष्ट प्रतिष्ठायां० ५५ लत्तयन्ति भमर्काद्याः० ५४ लत्ता वयष्टभादळ० २33 लाभेऽकारौ शुभा धर्मे० १६३ वक्री केन्द्रे ऽथ तद्वग्र्गो० ४० वज्रपातं त्यजेद् द्वित्रिक
२०१
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२८४
आरम्भ-सिद्धिः
श्लोकाः
पृष्ठाङ्काः २०६ वर्णकाद्यं विवाहे०
७४
वर्णानां जीवसितौ ०
वर्णशो दुर्बलः कुर्या० वत्सः प्राच्यादिषूदेति०
वह्नेः परिग्रहं प्राहुः० वाचस्पतेः स्वतनयास्त १५ वारादिरुदयादूर्ध्व ०
८०
१९१
१४९
१२१
१२३
वासः प्राप्तं विवाहादो० १८१ वास्तु नव्यं विभूत्यायुः०
१९२
११९ विद्यां सुराध्यापक राजपुत्र० विधाय वामतः सूर्ये० १२१ विधु-गुरुशुकैः साक्र्के० १५६ विमुक्ताक्रान्तभोग्यानि० २२२ विवाहदीक्षयोर्लग्ने० २३० विवाहे off त्रिरिपु० ૨૨૦ विवाहे नाऽऽग्रहः कोऽपिo २३० विवाहे नाष्टमाः श्रेष्ठाः ० ५३. विवाहे पूर्ववत्पञ्च २४४ विवाहेषु द्वयोर्माचा १०० विषकौमारजन्मस्या० विष्कम्भः प्रीतिरायुष्मान्० वेध ऊर्ध्वतिरः सप्त० ७९ वेधस्त्रिषड्गगनलाभ० २१२ वेधेनै कालोस्पात
४८
५२
२४
darकाकी मृगशिर० वैशाखे श्रावणे मार्गे० व्यतिपात वैधृताख्यौ ० २१९ व्रताय राशयो द्वयङ्गाः०
१८७
४९
२३३ शङ्खः शुभग्रहैर्बन्धु० २२७ शनिस्त्रिकोणकेन्द्रस्थो० ९२ शनिः स्वात्यायपुत्रारि० नौ ब्राह्म श्रुति द्वन्द्वा०
३४
पृष्ठाङ्काः श्लोकाः १५९ शन्यर्केन्दुकुजाँ०
१२०
शाखाधिपे बलोपेते०
२६५ शीतद्युतिं षष्ठमधाष्टमं च०
१६९
૧૪૭
शुक्रज्ञाक्कश्चि लग्नस्व ० शुक्रस्तु यत्रोदयतिo
३४
९२ शुक्रो लग्नादासुत०
शुक्रे पौष्णाश्विनाषाढा०
૭૨
१४१
२५३ शेषादथ खगुणगुणाद० ११९ श्मश्रुकर्म नरेन्द्राणांο
शुक्रं व्यायाम्बुगं पश्यन् शूलं सोमे शनौ च०
१६९
२४६
१३७
८०
श्रेयान्
गौचरdisशुमा०
१०९
श्रेयो मैत्र्यात् परे स्वाहुः
१०६
श्वणं हरीभमहिबञ्ज०
११९ षट्कृत्तिकोऽष्ट वैर 2 ૬૧
षड् निशाब लिनोऽजोक्ष०. ७१ षड्वर्गेष्टादश नवषडо गां व्यादिषु वर्णेषु० सकलेष्वपि कार्येषु०
૭૧
૧૮૨
श्रिये विधुः सुखेऽस्ते तु
श्रीमद् गौर्जरपत्तने
९४
१३९
श्रुतौ तद्हरन्येद्युर्ध०
२५२ सङ्क्रान्तिराशेत ना २४७ सङ्क्रान्त्यन्तरनाडिका अथo २६५ सन्ध्यालग्नमपि श्रेयो०
१३९
सप्त सप्त गमने वसु १२६ सर्पदष्टः सुपर्णेन
२६७
सबलत्वे जन्मदशा०
१५० सम्मुखोऽयं हरेदायुः० समाधिकव्ययं कर्तुः ०
१८९
सर्वत्रेन्दुः कुजः सङ्ख्ये
सर्वदिग्द्वारकौ पुष्य ०
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परिशिष्टे उपयुक्तग्रन्थानां सूचि ॥
श्लोकाः
पृष्ठाङ्काः २०३ सादिमं ग्रहणस्याह : ० १६७ सितेज्याविन्दुरार्किक० २३ सिध्धच्छाया क्रमाद०
४८
सिद्धः साध्यः शुभः०
४८
सिद्धियोगः कुयोगश्च ०
१७०
सिध्यै धीधर्म केन्द्रेषु०
१५५ सिध्ध्ये सौम्येशलग्नानि ०
५८
१००
सिंहस्तु मघाः पूर्वा० सीमन्तः स्यान्नृवारेषु०
१२४
सुरनरदनुज- पलादाः ० १२४ सुलभं स्वं भवेन्न्यस्तं ०
१६० सुहृद्दशापतेः सद्यः० ६५ सुहृन्मन्दिरपाताल०
१९०
सूत्रस्य सिद्धिर्वनाथ ० ३२ सोमे सिध्ध्यै मृगब्राह्म ० २३८ सौम्यवाक्पति शुक्राणां ०
७६
२०६
सौम्यैग्बलिनो दृष्टा स्त्रियः प्रियत्वमुद्राहे० स्थापने स्युर्विधौ युक्ते ० ३६ स्थिरयोगः शुभो रोगो.
२२३
पृष्ठाङ्काः
श्लोकाः
१२८ स्नानमुल्लाघनस्येष्टं०
२४८
७९
१०५
६६
१४२
७९
२६७
६९
स्फुटोऽथ भानुर्गतनाडि०
स्याद्गोचरेणात्र शुभोsपि० स्याज्जातकर्म चरलघु० स्यातां तृतीये दुश्चिक्य ०
यद्योगिनी शकुबेर ०
स्यान्मङ्गलस्य सहज०
स्युर्दीक्षास्थापनादीनि ० स्युर्द्वादशांशाः स्वगृहा० स्वाssदिखाssय सुखधी ० ६२ स्वोच्चतः सप्तमं नीचं०
९१
१५९
हन्ति योधाssय कर्म्मा० १२९ हलकं मुक्ता०
१७
६७
१२९
२४
३८ हानिवृध्ध्यादिकं सर्व० होनमध्योच्चवलता०
८४
हलस्य वाहनारम्भं० हस्तः पुषठैर्वणै०
२८५
होरा: पुनरकर्कसितज्ञचन्द्र० होग रायमोज ०
१४६ हंसेन्तरा विशति ०
२०५ दीक्षायां त्वाश्विनादित्य० । समग्रम् - ४१३ "
-:: परिशिष्ट ब :: वार्त्तिके उपयुक्त ग्रन्थानां ग्रन्थकृतां वा सूचि । ( बुकाकारानुसारेण पृष्ठं पङ्क्तिश्च )
---
अङ्गिरसः - पृष्ठं २०३ पङ्क्तिः १६ | आगमस्य० २०६-२४ । आवश्यक बृहद्वृत्ति-टिप्पनकस्य 30-6 |
आम्नायस्य० ५६-६ । १२२१ । ८२-२४ । १३६- १४ । १८२-२० । | आध्यात्मिक ग्रन्थस्य० १४१-२३ । करणकुतूहलस्य०२१४-१०-२७ । २४५-४ । कल्पाख्यच्छेदग्रन्थस्य० १२४-११ । काठगृह्यस्य० १९८- २१ | कालनिर्णयग्रन्थस्य०
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________________
૨૮
સાજ-હિતિ
૧૯૮–૧૦–૧૪, વેરાવસ્થ૦૩૯-૨૨ I ૫૬–૭ ૨૨૪-૧૬ ૫ ૨૬૫-૩રા
ઉrઘમાધ્યચ૦ ૨૧૪-૧૭ | ચ૦ ૧૦૭-૧૩ ૫ ૧૧૪-૧૫ ૧૯૯-૨૦ મે ૨૦૨-૧૬ | ૨૨૪–૧૦ / ૨૨૭–૧૦ જજિવિવાથ૦ ૧૧૯૧૨. વાઘ૦ ૧૧૦-૩૦ / ૨૦૦-૧૫ ૨૨૫-૧૯ી ૨૬૫-૨૫ | - વપુરાથ૦ ૩૮-૬I નૌતમરથ૦ ૧૩૬-૨૨ રાશિવૃ૦ ૧૩૯૨૧. થાન૧૩૬-૨૬ વાતચ૦ ૬૨-૨૩. ૧૬-૧૦૧૬૨૪ | ૧૮૦–૬ ૨૭૦-૪ | T ૦ ૬૦-૨૫ ૮૪-૪ , ૨૩૯-૬ .
પુજ્ઞ૦ ૬૨-૧૨ મે ૧૮૧-૧૧ I હષા. ૧૯-૨૦ ૫ ૬૨-૧૨ ૬૮૬ | ૭૧–૧૧. ૧૫૭-૧૬ | ૧૬૩-૩ [ ૧૭૨–૧૯ / ૧૯૫-૧૬ ! થોતિજસ્થ૦ ૭૭–૧૨ ૮૨–૫-૨૪ ૮૯-૨૩ / ૧૪૪-૧૫ . ૧૪૯૨૭ ૫ ૧૬૩-૯ / ૧૯૩૯-૨૯ | ૧૯૮-૨૮ ૨૩૮-૩૦ |
રશે તાનિચ૦ ૬૨-૧૩ / ૬૩ -૨ / છ૭-૧૪ . ત્રિવિરામથ૦ ૧૧-૧૫ | ૩૬-૪ | ૪૦-૧૧ | ૫૬-૨૧૦૦-૩ / ૧૦૯-૧૫ / ૧૧૦૧૨ / ૧૨૦-૬ મે ૧૯૨-૯-૨૯ મે ૧૯૬-૭ | (ત્રિવિત્ર તરીકat) ૨૧૨-૭. ૨૧૬-૧૫ ૨૨૭-૨૫ મે ૨૩૦-૧૭ | ૨૩૫–૧૪–૨૦ | ગ્રહો
થuarફાસ્થ૦ ૬૭-૪. ૦૪-૧૯ | ૨૨૯-૨૪. લિથિરિચ૦ ૧૮ ૧૦ ! ૧૯-૨૨ ૨૯-૧૪ ૪૧–૧૩ ! ૮૬-૨૬ | ૧૨૫-૧૫-૨૪ ! ૧૨૭-૧૪ ૫ ૧૩૮-૧૨-૧૬ | ૧૩૯-૮ ૫ ૧૪૩-૬-૩૦-૩૨ ૧૪૫-૪ ! ૧૪૭-૧૦ | સુરિશ૦ ૧૧૯-૧૬ શિવજીમચ૦ ૨૦-૨૧ ૨૬૨૫ / ૬૦-૬ | ૬૧-૧૧ | ૬૮-૨૬૫ ૭૧-૧૯ ૮૩–૫-૮-૧૧. ૧૧૩૧૫ ૧૨૦-૨૩ [ ૧૪૦–૧૧ / ૧૪૮-૨૮૧૪૯-૨-૯ ૧૫૩-૩૩ છે ૧૫૫-૫-૧૫-૩૧ મે ૧૫૯-૯ ૫ ૧૬૩-૩ ૫ ૧૬૪–૧૭-૩૦ ૧૬૬-૧૪ ! ૧૬૮-૧૧ , ૧૬૮-૨૧ [ ૧૭૦-૫૫ ૧૮૦-૧૩૫ ૧૮૧-૧૫ ૧૮૨-૩૦ ૧૮૭-૧૫ | ૧૮૮-૧૮ ૧૯૧-૨૪૧૯૨-૨૩ | ૧૯૭-૩૧ | ૨૦૩૧૮ | ૨૦૪-૨૦ | ૨૧-૨૩-૬ | ૨૨૩-૨-૧૬-૨૮ ૨૨૫-૧૭ ૨૨૬-૬ રર૮-૪૨૩૦-૧૨ | ૨૩૧-૨૦ ૨૭૦-૧ | નાનારથયાદo ૨૪-૧ | ૪૪-૧૯ ૫૭-૧૨ | ૯૪-૧૯ ૧૧૨-૨૦. ૨૧૦૧૪ | નક્ષત્રમુગચ૦ ૮૪-૮૫ ૧૪૫–૨૮. ર ચ૦ ૨૨-૧૬ : ૧૮ ! ૨૩-૨૨ ૩૭–૨૬ | ૩૮–૧૦ | ૪૩–૧૭૫ ૬૨–૧૨-૨૩ ૧૩૮૨૧ મે ૧૩૯-૭ ૧૪૧-૬ ૧૪૩-૪ : ૧૪૪-૨૭ { ૧૪પ-૧૦-૨૧ | ૧૪૮-૪ | ૨૦૩-૨૨ મે ૨૦૪-૪ | ૨૧૯-૨૪ | ૨૨૪-૫ | ૨૨૭-૨૦ | ૨૨૯ -૨૯ ૨૭૫-૨૧ ના દિgનવરચ૦ ૧૧-૫-૨૩ / ૪૦-૨૨ | ૪૯-૬, ૮૩-૧૮ ૮૬-૨૬ ૧૧૦-૯ ૧૧૪-૧૫ ૧૪પ-૧૩, ૧૪૮૨૩ ૧૪૯-૧૮ ૧૮૭-૨ ૫ ૨૧૦-૪૫ ૨૧૭-૨૩ ૨૧૮-૨૭ી પt
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________________
परिशिष्टे उपयुक्तग्रन्थानां सूचि ॥
शरस्य० ८६-११। १९७-५। पाकश्रीग्रन्थस्य० ३२-१ । ३५-७। ३७५। ४२-८।१२-२३ । १४-१४ । ७५-२६ । १९९-१२ । पुराणस्य० ११८-१३। पूर्णभद्रस्य० १२-१२ । ३५-४ । ३६-१८ । 43-७। ५४१६ । ५९-31१८-१९-२३ । ८२-१ । ११५-२८ । ११७-१3 । १२८१७ । १४०-१५-२० । १४१-५ । १४२-१२ । १७८-२२ । २३४-१९। २३१-२० । प्रश्नप्रकाशस्य० १९९-२ । १८८-२२ । प्रश्नशतकवृत्तेः० १४-१४ । ७९-१ । ब्रह्मशम्भुटीकाया:० १८०-२६ । ब्रह्मसिद्धान्तस्य० १८८-१० । बृहस्पतेः० २२४-१२। भास्करस्य०८६-२६। १९८-२५ । १८४-५ । २२०-१४ । २२५-२८ । २२६-3 । २२७-५ । २३२-२४ । 'भीमपराक्रमग्रन्थस्य० २०४-30 ।
श भुवनदीपकस्य० ७३-२१ । ७८-११-२९ । भुवृत्तः० १६५ १४ । भोजस्य० ११९-११ । महादेवस्य० ११४-२७ । मुहूर्तसारस्या ७५-१४ । २४५-३२ । यतिवल्लभस्य० ८-११ । १७-२3 । २१-१ । २४-२ । ४२-२५ । ५१-८ । ५५-२० । ७-८-१७ । ८१-१८ । ८७८ । १२७-७ । १3८-५ । १४१-७ । १४७-७-२१ । २३१-१ । २३२१८ । २४३-१२ । यवनाचार्यस्य० ६५-१२। १७-८ । ७८-२६। योगनिधानग्रन्थस्य० ११४-१० । योगयात्राग्रन्थस्य० १९७-३० । रत्नमालाया:० ५-५ । ३०-१३ । १-८ ! १४८-२० । १५३-१७ । १५४२४-२९-31 । १५५-२२-२४ । १९५-८ । ११७-१८। १९८-२१ । १८० २५ । १९४-७ । २०४-९-२४ । २१८-१८।२१८-1७। २२०-१२ । २३४-६ । र० भाष्यस्य० ५-१७ । ३०-१४ । ३४-१६ । ७८-१३ । .८२-९-२८ । ८३-२६।८६-७-२४ । २८-१३ । १.६-७ । १०७-२२ । ११२-८ । ११८-१३ । १२२-१३ । १३७-२ । १४८-१३ । १५३-२८ । १८६-31 १८५-२३ । १८७-२८ । २००-२६ । २०४-११। २१२-१३ । २१५-११ । २२०-१० । २२४-२७ । २२५-८ । २३८-१८ 1 २७०-८ । रुद्रयामलस्य० ८७-१४ । लक्ष्मीधरस्थ० २२४-२१ । लग्नशुध्धेः० 38१३ । १८-3 । २०३-११ । २१०-3 । २१७-१ । २२१-२० । २२४२०-२८ । २४३-१२ । २४४-६ । ललुस्य०४-२४ । 8-४ । १२-२२ । १७-१८।२१-४।२८-१३-१५ । ३८-५ । ५१-२२ । ७१-१३-२०२३ । ८3-१-१२ । ८४-२२ । ८५-११-२१ । ८१-२ । ११०-१४ । ११७-१८-२६ । ११८-४-८ । १२२-१३।१२४-७। 136-२३ । १3८८-16-२५-३१। १४५-२५। १४-1। १४८-18 । १५२-२४ । १५३33 । १५४-८ । १९०-२८ । १९३-१५-२३ । १६४-२८-३५ । १९५
"। १९७-४-10-33 । १८०-६।१८९-१७-२।। १८२-२८ । १८3-3-७-२७ । १९९-७ । २१०-२८ । २१४-30 । २१५-१७। २१७
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૨૮૮
આમ-સિદ્ધિ:
૨૯ | ૨૧૮-૧૯ ૫ ૨૨૪-૨૦ | ૨૨૫-૧૧| ૨૩૦-૫ | ૨૩૭-૬ 1 ૨૬૮
૯ ! ૨૭૧-૪૫ હો શ્રોત્ર થય૦ ૩૪-૨૦ ૧-૩૫-૧૦-૧૧ માં ૬૨-૧૩ | વાદસંહિતાયા:૦૭૬-૯ । ૮૧-૧ | ૮૨-૨૧ | ૧૦૦-૧૮ | ૧૨૦-૨૬ | ૧૫૪-૨૫ ૧૬૫-૨૮૫ ૨૧૦-૨૭ ૫ ૪૦ ૯૬-૧૯-૨૨૫ ૨૧૬-૧ વામદેવસ્ય૦ ૨૧૬-૯ | વાસ્તુશાસ્ત્ર૦ ૧૮૪-૬ | ૧૮૬-૧૪૫ ૧૮૯૧૨ । વિદ્યાધરીવિહાલપ્રન્થય૦ ૧૯૭-૨૨। વિવાદ૫૪૦-૨૦૧૯૯-૨૩
|| વિવાદજીન્દાવનસ્થ૦ ૪૦-૬ ૫ ૫૪-૧૨ । ૮૪૧૨ | ૯૮
૧૭ । ૮-૧૫ | ૨૦૩-૩૦ ગ્ ૨૬૧-૮ | ૨૧૨૦-૨૧ । ૨૧૫૨૩ ૨૨૫-૫ ! ૨૨૬-૨૯ । વિવેવિહાર૬૦ ૯૮-૪૧૫ ૧૦૨-૨૫૫ ૧૨૬-૮ ૧૪૬-૨૭ ! ૧૪૭-૧૬ | ૧૮૨-૫ | વ્યવસ્રાપ્રાĪ૦ ૧૮-૧ | ૨૨-૧૦ ૩૧-૧૭ | ૮૩-૧૯ | ૮૪-૨૧ | ૯૩૨૮ | ૧૦૦-૮-૧૫ ૧૦૫૦૨૨ ૧૦૬-૨૩ ૧ ૧૯-૨૩ । ૧૧૬-૨૬ | ૧૨૩-૬ | ૧૩૭-૩૨ | ૧૪૮-૨૯ ૧૪૨-૨૮ । ૧૮૩-૧૧-૧૨ । ૧૯૦-૪ | ૧૯૧-૨૭૫ ૧૯૨-૧૯ । ૧૯૬-૧૧ | ૨૦૨-૧૧ | ૨૦૩-૫ | ૨૧-૨ | ૨૧૭–૧૩ | ૨૨૦-૧૬ | ૨૨૧-૧૧ । ૨૨૨-૩ ! ૨૪-૮-૧૮ | ૨૩૯૨૭ ૨ ૨૪૧-૯૨ ૨૪૩-૧૭૫ ૨૬૬-૫ ! ૨૭૦-૨૭ । વ્યવહારસારણ્ય૦ ૩૨-૪ । ૩૭૨૫ । ૭૫-૧૦ | ૧૦૯૨૭ । ૧૧૬-૫ | ૧૧૯૨૮ । ૧૨૩-૭ | ૧૩૭-૬-૩૨ | ૧૩૮-૭૨૦ | ૨૦૨-૧૪ ૨૦૩-૧ | ૨૧૬-૨૭ ૫ ૨૨૨-૨૯ ।રાનાશ્રય૦ (વસતરાન‰ત) ૧૫૩-૧૮ | શૌના૬૦ ૧૦૫-૨૪ ૫ ૧૬૪-૩૩ ૫ ૧૯૬-૨૭૫ ૨૨૨-૧૫ . ૨૭૦-૭૫ શ્રીપત્તિયુતિવ્રન્થચ ૪-૧૯ ૧ ૬-૬ । ૩૯-૨૦ | ૫૩-૧૩૫ ૫૫-૧૮ । ૭૧-૨૩૫ ૧૯૭-૨૯ ૨૦૪-૧૬ । શ્રુતે૦ ૯૮-૧૭૫ સત્યપૂરેઃ૦ ૨૨૨-૨૯ ! સત્ત્વઃ૦ ૭૫-૨૪૫ ૧૯૬-૨૧ ૧૯૭૧૦ | ૨૦૨-૨૨ | ૨૦૯ ૧૦૨ ૨૧૧-૬ | ૨૧૬-૭૬ / ૨૨૨-૨૦ । સારકય૦ ૩૯૨૧ ૫૯-૨૩ । ૭૯-૧૪ । ૯૪-૨૦૫ ૧૦૮-૨૮ / ૧૦૯-૧૮ | ૧૫૪-૧ | ૧૮૩-૨૦ । ૧૮૬ ૧૯ । ૧૯૯-૧૮ | ૨૦૯-૨૦ | ૨૧૫-૯-૨૪ ૫ ૨૨૧-૧૭-૨૯ | ૨૨૪-૧૪ । ૨૬૫-૩૦ | ૨૬૬-૧૧ | સારાવસ્થા:૦ ૧૧૪-૨ | ચાના સૂત્રT૦૧૩૯ ૨૧ । વરચય૦ ૨૫-૧૭ । ૫૦ વિવરણમ્ય ૨૬-૨। રે:૦ ૧૧૬૧૨ ઢર્ષવારા૫૦ ૬-૧૦ | ૭-૨૨ | ૨૩-૨૧ ૪ ૩૩-૨૨ ૪ ૩૪-૧૯ । ૩૫-૨૩ । ૪૦-૨૧ | ૪૨૨૧ | ૬૮-૨૪ | ૭૩-૨૭ । ૮૩-૨૦ | ૯૭-૮ । ૧૧૩-૨૧ | ૧૧૫-૧૯ । ૧૧૬-૨૬ | ૧૧૭-૧૧-૨૩ ૧૨૮૧૦ | ૧૩૭-૨૮ ૩૩ । ૧૪૪-૨૬ | ૧૫૬-૨૧ | ૨૨-૨૧ | ૨૧૦-૨૯ ! ૨૨-૧ ૨૨૮૩૨ ૫ ૨૬૦-૨૩ / દ્દોરામસ્થ૦ ૬૮-૮ । ચર્િ ॥ ૭૭ ॥
जैनं जयति शासनम् || कल्याणमस्तु ॥
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सुयोगादियन्त्रं पश्यतु पृ. ६५
११ यांगाः | अमृत सिद्धि | उत्पात प्रवा) मृत्यु -मरण योगः योगः १ सयोगः १
वारा:
रवि
चन्द्र
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शोन
यमघंयोग: वज्रमु योगा 'सूर्यादेर्जन्मभैः
भरणा ३
चित्रा
मघा
विशाखा
अर्दा
मूल
कृत्तिका रोहिणी
हस्त २
शुक्र
शनि
वाराः
रवि
चन्द्र मंगल
हस्त
मगशिर
अश्विनी
अनुगंधा
पुष्य
रेवती
पुष्य
रोहिणी उ. फा.
शत्रुयोगः
भरणी
पुष्य
बुध
गुरु
विशाखा पूर्वाषाढा
धनिष्ठा
रेवती
रोहिणी
उत्तराषाढा
धनिष्ठा
उत्तराफा०
ज्येष्ठा
रेवती
शुक्र
शनि
अनुराधा
उ. पाढा
शतभि०
अश्विनी
मृगशिर
आले.
हम्त
उत्तराषाढा
आर्द्रा
विशाखा
५-१०-११-१५
१-६-११-१३
४-८-५-१४
काणयागः व्याधियोग १
रोहिणी
शतभिषा
चरयोग: कक
अस्थिरयोगः क्रकचयोगः
तिथि १२
उत्तराषाढा
आर्द्रा
विशाखा
रेवती
मघा
७
शतभिषा मूल
६
1 एताः संज्ञाः पूर्ण भद्रमतेन । २ आषाढा द्वयमत्रेति पाकश्रीकृत । ३ अस्य स्थानेऽश्वितीति लोकश्रियाम् । स्थिरकार्येषु चर ( अस्थिर ) योगो वर्ज्यः । प्रतिकार्येषु शत्रुयोगः वर्जनीयः ॥
ज्येष्ठा
अभि०
१२-१३
१११
पू. भाद्र ०
भरणी
आर्द्रा
मघा
चित्रा
८-१३-१४
२-४-७-१२
४-९-१४
५-१०-१५
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19
१०
सिद्धियोग:
९
८
वारा:
वारभयोः द्विक-सुयोगाः ।
रवि अश्विनी - रोहिणी - मृगशिर- पुनर्वसु पुष्य - उत्तरा ३ - धनि-रेवती. सेम | रोहिणी - उत्तराफाल्गुनी - हस्त अनुराधा - शतभिषक्. मंगल कृत्तिका - मृगशिर पुष्य-अश्लेषा उत्तराफाल्गुनी-मूल-रेवती. बुध रोहिणी - मृगशिर- पुष्य-उत्तराफाल्गुनी- हस्त-उ - ज्येष्टा पूर्वाषाढा श्रवण. अश्विनी अलंबा पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढा पूर्व भाद्रपद - स्वाति धनिष्ठा - रेवती. अश्विनी - मृगशिर- पुनर्वसु-हस्त- अनुराधा - पूर्वाषाढा-उत्तराषाढा. अश्विनी - पुष्य- मघा अनुराधा श्रवण- धनिष्ठा.
गुरु
मूल
श्रवण
उ. भाद्र ०
कृतिका
पुनर्वसु
पू. फा०
स्वाति
संवर्तकयोगः
तिथि ७
०
०
वारतिथ्योः सुयोगाः । वारति० सामा० | वारभयोः सामा०यो०
१-८--९
६-११-१४
शतभिषक्
२ - ९,
अश्विनी, आर्द्रा, धनिष्ठा
३-६-८-१३
मघा.
२-७-१२
अश्लेषा शतभिषक्, हस्त, अभिजित्
मृग-पू फा. शत- उषा.
१-३
२
199
ज्येष्ठा
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________________
विमर्शः
प्रथमः
39
परिशिष्ट के आरम्भसिद्धेः सङ्क्षेपानुक्रमः ॥
द्वारम्
१ तिथि
२ नार
9.
द्वितीय:
५ शि ६ गोचर
तृतीयः ७ कार्य
चतुर्थः
पञ्चमः
13
समग्रम्
३ नक्षत्र ४योग
३ बुधस्वाम भात् भागिति
८ गम
९ वास्तु
१० विलग्न
११ मिश्र
૧૧
x
शुक्रस्वामी धन पणफर
विस्थाम
मुल शिष्य
१९५ - २००
२०१ – २७८
२७८
परिशिष्टानि अ ब क ड
पश्यतु पृ. ६५
सहन
दुःधिकय
४
विक्रम/ आयोजिम चंद्रस्वामी
उपचय
प्रठाङ्काः
१-१५
१६-२४
२५-३२
३३-५७
५८--८०
८०-९७
९८--१३५
१३६ - १८०
१८१ – १९४
पनफर
६
धीः त्रिकोण बुधस्यामो और आयोकिय
उपचय
वंधु अंधु सुहन्मंदिर केंद्र चतुष्ट्य कंटक
पाताल हिबुक अम्बु सुख चतुर मातृभवन
गृहमवन
मंगल स्थायी तनु मूर्ति
केंद्र चतुष्ट्य
कंटक
ज्ञायंत्रम
प्र.
१५
८
२५
२३
१७
३८
४५
१४
७
शुक्रस्वामी स्त्री काम जामित्र धुन
धून अस्त
लोकाः
६- १४
१५-२२
२३ - ३८
३९-८४
५९ बृहस्पति स्वामी (सदसद्) व्यथ आपोक्किम रिष्य
Aho ! Shrutgyanam
१-४३
४४-७३
६
७८
। २७८
पृ. २७९ - २९२
१-८२
१-६४
६५-८८
१-४
५-८६
४१३
→
कर्म व्याकारमान
केंद्र चतुष्ट्य कंटक मध्य मेपूरण व्याय उपचय
น
शिनैश्चर स्वामी आप
बठाकर
লटলआद सर्वतोभद्र शनैश्वर स्वामी उपचय
१०
बृहस्पति स्वामी धने माग्य
आयोकिय वित्रिकोण
दचतुष्ट्य कंटक कालस्वाम चिकोण विवाह र मृत्यु छिद्र वर्णकर अनायुः पानात कुख
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________________
राशयः मास:
मेष०
वृष
मिथु०
कर्क ० पौष
सिंह०
ज्येष्ठ
कन्या०
तुला०
वृश्वि०
धन०
राशिसम्बद्धानि वर्ज्य - घात स्थानानि ॥
नक्षत्रं वारः
चन्द्रः
कार्त्तिक मघा रवि
प्रथमः
मार्गशिर्ष हस्त शनि
आषाढ स्वाति चन्द्र
मकर०
कुम्भ०
मीन०
भाद्रपद
अनु
मूल
श्रवण
बुध
शनि
शनि
माघ
शत.
गुरु
शुक्र
आश्विन रेवती
श्रावण भरणी शुक्र
वैशाख रोहिणी
मंगल
ᄏ
आर्द्रा गुरु
फाल्गुन आले- शुक्र
[मेष - मंगल स्वामि-चु चे चो ला अश्विनी लि लु ले लो भरणी । भ [ वृष- शुक्र इ उ ए कृत्तिका । ओ व विवु रोहिणी ।
वे वो [ मिथु० बुध-क - कि मृग० । कुछ आर्द्रा । के को ह [ कर्क-चन्द्र-हि पुन० । हु हे हो डा पुष्य० । डि डु डे डो-अम्ले० । सिंह - सूर्य- -म-मि मु मे मघा । मोट टि टु-पू-फा० 1
टे [कन्या- बुध टोप पिउ फा० ।
पुषण ठ- हस्त ।
पेपो [तुला शुक्र - गरि चित्रा ।
·
पञ्चमः
नवमः
द्वितीयः
षष्ठः
तिथयः
१-६-११
स्वामिकराशियुतानि नक्षत्रपादाक्षराणि ॥
५-१०-१५
२-७-५२
३-८-१३
दशमः ५-१०-१५
तृतीयः
४-९-११४
सप्तमः
१-६-११
तुर्यः
३-८-१३
भष्टमः ४-९-१४
एकादशः ३-८-१३
द्वादशः ५-१०-१५
२-७-१२
रु रे रो ता स्वाति । ति तु ते [वृश्चि० - मंगल० तो वि० न नि नु ने अनु० नो य यि यु ज्ये० । [धन-गुरु-ये यो भभि - मूळ । भुधफढ- पू बा० । भे [ मकर- शनि - भो - ज-जि.उ. पा०| जु जे जो ख अभिजित् । खि खु खे खो श्रवण | [कुम्भ-शनि-गु-गे धनिष्ठा० ।
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गोससि सु शत० । से सोद [मीन-गुरु-दि-पू- भा० ।
दुश झ थ उ. भा । दे दो च चि-रेवती । १२ ॥
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संज्ञाफलमें
- (१) स्वामिनो (०) गवां हानिः। भयम् ।
(२) लक्ष्मीप्राप्तिः।
(२) हले-रे उभा-पू.भा.
लागलं. (हलं.)
परिशिष्ट ड भरणीस्थसूर्यापेक्षया हलयन्त्रम् ॥
पश्यतु पृ. १३० ॥
रविभुक्तभात् गणनीयानि ॥ अत्र भुक्तभं अश्विनी भुज्यमामभं भरणी ॥
गोत्रे-
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'यूप-न -श. ..)
अभि-उपा-एषा-मूल्ये(२)
अभि-उधा-पूष
(०)दण्डिकामले
अ.भ..
।
योत्रे-
__ यूपे- (रो. मृ.आ.
-म-पू-फा-उफा-ह-चि-(२) - पुन-पु-आ-(२.)
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________________ योगाः |सिद्धियोगः / मृत्युदाति० | फांकडं दग्धयोगः यमघंटः रविवार 1-6-11 | 7 | 12 मघा - - चन्द्रवार 2-7-12 विशाखा - - मंगलवार 3-8-13 1-6-11 आर्द्रा बुधवार 2-7-12 ! 3-8-13 3 | मूल गुरुवार | 5-10-15) 4-9-14 6 | कृत्तिका शुक्रवार 1-6-11 2-7-12 8 | रोहिणी शनिवार | 4-9-14 5-10-15/ 1 | 9 | हस्त / अ. सिद्धो यमदंष्टः अ मसि | सिद्धियोग / अ- सि सिद्धियोगः धनि-मघा हस्त मूल-विशा- | मृगशिर श्रवण - भर-कृत्तिका | अश्विनी | प्रामादिप्रवेशः उ. भा. पुन-रेवती | अनुराधा कृत्तिका अश्वि-उ. षा. | पुष्य विवाहः पुनर्वसु - - रोहि-अनु. | रेवता ) - रोहिणी प्रयाण | | 11 श्रव-शत- श्रव-शत प्रयाण / स्वाति समाप्तानि परिशिष्टानि / . Aho! Shrutgyanam