Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/006367/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નમો અરિહંતાણે નમો સિદ્ધાણં, નમો આયરિયાણં નમો ઉવજઝાયાણં નમો લોએ સવ્વ સાહૂણં એસો પંચ નમુકકારો સવ્વ પાવપ્પણાસણો મંગલાણં ચ સવ્વસિં પઢમં હવઈ મંગલ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જિનાગમ પ્રકાશન યોજના પ. પૂ. આચાર્યશ્રી ઘાંસીલાલજી મહારાજ સાહેબ કૃત વ્યાખ્યા સહિત DVD No. 1 (Full Edition) :: યોજનાના આયોજક :: શ્રી ચંદ્ર પી. દોશી – પીએચ.ડી. website : www.jainagam.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIKALIK ASHAVAT SUTRA PART :01 શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ભાગ- ૦૧ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re : a g a Ol जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालव्रति-विरचितया आचारमणि मञ्जूषाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम् [प्रथमो भागः अध्ययन १-५] नियोजकः* संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात प्रियव्याख्यानि-पं० मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराजः । प्रकाशकः परमश्रद्धासंपन्न अ. सौ. पानकुंवरबाई धींगडमल्लजी कानुगा प्रदत्त द्रव्यसाहाय्येन श्रीअखिल-भारत-श्वेताम्बर-स्थानकवासि जैनशास्त्रोद्धार समितिः प्रमुख श्रेष्ठि-श्री. शान्तिलालमंगलदासभाई महोदयः राजकोट. तृतीयं संस्करणम्-५०० मूल्यम् रु. २५ वीर-संवत् विक्रम संवत् इस्वीसन् १९७४ १ २५०० २०३१ तृतीय-आवृत्तिः प्रति ५०० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રકાશક : પ્રાપ્તિ સ્થાન શ્રી અ.ભા.શ્વે સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ श्रीन ४ पासे, सोट. Published by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastrodhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurash tra), W. Ry, India ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥ हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति ओई तत्व इससे पायगा । हैं काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥ ત્રીજી આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૫૦૦ વીર સંવત : ૨૫૦૦ વિક્રમ સંવત્ : ૨૦૩૧ ઈસ્વી સન : ૧૯૭૪ भुद्र: મહત્ત સ્વામી શ્રી ત્રિભુવન દાસજ શાસ્ત્રી રામાનંદ પ્રિટિંગ પ્રેસ કાંકરિયા રેડ અહમદાવાદ-૨૨ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી વર્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી પૂજ્ય આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર માટે આ પે લ સમ્મતિપત્ર ઉપરાંત પૂજ્ય શ્રીઘાસીલાલજી મહારાજનાં બનાવેલાં બીજા સૂત્રો માટે તેઓશ્રીનાં મંતવ્યો તે મ જ અન્ય મહાત્માઓ મહાસતીજીઓ, અદ્યતન પદ્ધતિવાળા કોલેજના પ્રોફેસરો તે મ જ શાસ્ત્રજ્ઞ શ્રાવકોના અભિપ્રાય ઠે. ગ્રીન લેજ પાસે ) ગરેડીયા કૂવા રોડ * શ્રી અખિલ રાજકોટ : સૌરાષ્ટ્ર ! શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. कषायलिप्त कर्मबन्ध से बन्धे हुए संसारी प्राणियों के हितार्थ जगत हितैषी भगवान् श्री वर्धमान स्वामीने श्रुतचारित्ररूप दो प्रकार का धर्म कहा है । इन दोनों धर्म की आराधना करने वाला मोक्षगति को प्राप्त कर सकता है, इसलिये मुमुक्षु को दोनों धर्मों की आराधना अवश्य करनी चाहिए ! क्यों कि - " ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः " ज्ञान और क्रिया इन दोनो से मोक्ष होता है । यदि ज्ञान को ही विषेशता देकर क्रिया को गौण कर दिया जाय तो वीतरागकथित श्रुतचारित्र धर्म की आराधना अपूर्ण और अपंग मानी जायगी, और अपूर्ण कार्य से मोक्ष प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है, एतदर्थ वीतरागप्रणीत सरल और सुबोध मार्ग में निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को मानना ही आवश्यक है । कहा भी है ――――――― "व्यवहारं विना केचिद् भ्रष्टाः केवलनिश्चयात् । निश्चयेन विना केचित् केवलं व्यवहारतः ॥ १ ॥ " दृग्भ्यां विना न स्यात् सम्यगू द्रव्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चे, त्युक्तं स्याद्वादवादिभिः ॥२॥ स्याद्वाद के स्वरूप को निरूपण करने वाले भगवानने निश्चय और व्यवहार इन दोनों को यथास्थान आवश्यक माना है । जैसे दोनों नेत्रों के बिना वस्तु का अवलोकन बराबर नहीं होता है वैसे ही दोनों नयों के विना धर्म का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना जा सकता, और इसी कारण व्यवहार नय के विना केवल निश्वयवादी मोक्ष मार्ग से पतित हो जाते हैं और कितनेक - व्यवहारवादी केवल व्यवहार को ही मानकर धर्म से च्युत हो जाते हैं । आत्मा का ध्येय यही है कि सर्व कर्मसे मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करना; परन्तु उसमें कर्मों से छुटकारा पानेके लिये व्यवहाररूप चारित्रक्रिया का आश्रय जरूर लेना पडता है, क्यों ffair व्यवहार के कर्मक्षय की कार्यसिद्धि नहीं हो सकती ! जो ज्ञानमात्रही को प्रधान मानकर व्यवहार क्रिया को उठाते हैं वे अपने जन्म को निष्फल करते हैं । जैसे पानी में पडा हुआ पुरुष तैरने का ज्ञान रखता हुआ भी अगर हाथ पैर हिलाने रूप क्रिया न करे तो वह अवश्य डूब ही जाता है, जिस प्रकार नाइट्रोजन और ओक्सीजन के मिश्रण विना विजली प्रगट नहीं होती उसी प्रकार ज्ञान के होते हुए भी क्रिया विना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, इसीलिए भगवानने इस दशवैकालिक सूत्र में मुनिको ज्ञानसहित आचार धर्म के पालन करनेका निरूपण किया है । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज साहबने दशवैकालित सूत्र की आचारमणिमञ्जूषा नाम की टीका तैयार करके सर्व साधारण एवं विद्वान् मुनियों के अध्ययन के लिये पूर्ण सरलता कर दी है, पूज्यश्री के द्वारा जैनामुनों की लिखी हुई टीकाओं में श्री दशकालिक सूत्रका प्रथम स्थान है । इस के दश अध्ययन है (१) प्रथम अध्ययन में भगवानने धर्म के स्वरूप अहिंसा, संयम और तप बतलाया है। इसकी टीका में धर्म शब्द की व्युत्पत्ति और शब्दार्थ तथा अहिंसा, संयम और तप का विवेचन विशदरूपसे किया है । वायुकायसंयम के प्रसंग में, मुनि को सदोरकमुखaftaar मुखपर बांधना चाहिए इस बात को भगवती सूत्र आदि अनेक शास्त्रों से तथा ग्रन्थों से सप्रमाण सिद्ध किया है। मुनि के लिए निरवद्य भिक्षा लेनेका विधान है । तथा भिक्षा मधुकरी आदि छह भेदों का निरूपण किया है । ( २ ) दूसरे अध्ययन में संयम मार्ग में विचरते हुए नवदीक्षित का मन यदि संयम मार्ग से बाहर निकल जाय तो उसको स्थिर करनेके लिये रथनेमि और राजीमती के संवाद का वर्णन है एवं त्यागी अत्यागी कौन है वह भी समझाया है । ( ३ ) तीसरे अध्ययन में संयमी मुनि को वावन (५२ ) अनाचीणौका निवारण बतलाया गया है, क्योंकि वाचन अनाचीर्ण संयम के घातक हैं। इन अनाचीर्णो का त्याग करने के लिये आज्ञा निर्देश है । (४) चौथे अध्ययन में- 'जो बावन अनाचीणों का निवारण करता है वही छह काया का रक्षक हो सकता है' इसलिए छहकाय के स्वरूप का निरूपण तथा उनकी रक्षा का विवरण है | मुनि अयतना को त्यागे यतना को धारण करे । यतना मार्ग वही जान सकता है जिसे जब अजीव का ज्ञान है । जो जीवादि का ज्ञाता है वह क्रम से मोक्षको प्राप्त करता है । पिछली अवस्था में भी चारित्र ग्रहण करनेवाला मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। (५) पांचवें अध्ययन में छहकाया का रक्षण निरवद्य भिक्षा ग्रहण से होता है, अतः भिक्षा की विधी कही गई है । (६) छठवें अध्ययन में 'निरवद्य भिक्षा लेने से अठारह स्थानों का शास्त्रानुसार आराधना करता है, उन अठारह स्थानों का वर्णन है । उनमें सत्य और व्यवहार भाषा बोलनी चाहिये । (७) सातवें अध्ययन में 'अठारहस्थानों का आराधना करनेवाले मुनिको कौनसी भाषा बोलनी चाहिये' इसके लिये ४ भाषाओं का स्वरूप कहा गया है। उनमें सत्य और व्यवहार भाषा बोलनी चाहिये । आठवें अध्ययन में 'निरवद्य भाषा वोलनेवाला पांच आचाररूप निधानको पाता है' अतः उस आचाररूप निधान का वर्णन हैं । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) नववे अध्ययन में 'पांच आचार का पालन करने वाला ही विनयशील होता ' अतः विनय के स्वरूप का निरूपण किया है । (१०) दशवें अध्ययन में - पहले कहे हुए नव अध्ययनों में कहो हुई विधिका पालन करने वाला ही भिक्षु हो सकता है' इसलिए भिक्षु के स्वरूप का वर्णन किया है । निवेदक समीर मुनि * (श्री दशवेकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र ) ॥ श्रीवीरगौतमाय नमः ॥ सम्मति - पत्रम् - मए पंडियमुणि हेमचंदेण य पंडिय - मूलचन्दवासवारापत्ता पंडिय- रयण-मुणिघासीलाले विरइया सक्कय-हिंदी-भासाहि जुत्ता सिरि-दसवेयालिय-नाम सुत्तस्स आयारमणिमंजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अस्थि, एत्थ सदाणं अइसयजुत्तो अत्थो वणिओ विउजाणं पाययजणाण य परमोवयारिया इस वित्ती दीस ! आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुव्वं उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सरूत्रं जे जहा तहा न जाणंति तेर्सि इमाए वित्तीए परमलाही भविस्सर, कचुणा पत्तेयविसयाणं फुडरूवेण वण्णणं कडं, तहा मुणिणो अरहत्ता इमाए वित्तीए अवलोयणाउो अइसयजुत्ता सिज्झइ ! सक्कछाया सुपयाणं पयच्छेओ य सुबोहदायगो अस्थि, पत्तेयजिष्णासुणो इमा वित्ती agar | अम्हाणं समाजे एरिसविज्ज- मुणिरयणाणं सभाओ समाजस्स अहोभगं अस्थि, किं ? उत्तविज्जमुणिरयणाणं कारणाओ जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ अम्हकेरं साहिच्च च लुत्तप्पायं अत्थि तेसिं पुणोवि उदओ भविस्सर जस्स कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भविता पुणो निव्वाणं पाविहिर अओहं आयारमणि - मंजूसाए कत्तणो पुणो पुणो धन्नवार्य देमि - ॥ वि सं १९९० फाल्गुनशुक्लत्रयोदशी मङ्गले (अलवर स्टेट) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ इइ उवज्झाय- जइण- मुणी, आयारामो (पंचनईओ) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિ પત્ર શ્રમણુ સઘના મહાન આચાય આગમ વારિધિ સતન્ત્ર સ્વત ંત્ર જૈનાચાર્ય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિ પત્રને ગુજરાતી અનુવાદ. * Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મેં તથા પંડિત મુનિ હેમચંદ્રજીએ પંડિત મૂલચંદ વ્યાસ ( નામાવા વાંઢા) દ્વારા મળેલી પંડિત રત્ન શ્રીઘાસીલાલજી મુનિ વિરચિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રીદશવૈકાલિક સૂત્રની આચારમણિમંજૂષા ટીકાનું અવલોકન કર્યું. આ ટકા સુંદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દનો અર્થ સારી રીતે વિશેષ ભાવ લઈને સમજાવવામાં આવેલ છે. તેથી વિદ્વાન અને સાધારણ બુદ્ધિવાળાઓ માટે પરમ ઉપકાર કરવાવાળી છે. ટીકા કારે મુનિના આચાર વિષયને સારે ઉલ્લેખ કરેલ છે. જે આધુનિક મતાવલંબી અહિં સાના સ્વરૂપ ને નથી જાણતા, દયામાં પાપ સમજે છે તેમને માટે અહિંસા શું વસ્તુ છે? તેનું સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે. વૃત્તિકારે સૂત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવકનથી વૃત્તિકારની અતિશય ગ્યતા સિદ્ધ થાય છે. આ વૃત્તિમાં એક બીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલ સૂત્રની સંસ્કૃત છાયા હોવાથી સૂત્ર, સૂત્રનાં પદ અને પદછંદ સુબે દાયક બનેલ છે. પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનું અવલોકન અવશ્ય કરવું જોઈએ. વધારે શું કહેવું. અમારા સમાજમાં આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિ ૨નનું હોવું એ સમાજનું અહોભાગ્ય છે. આવા વિદ્વાન મુનિ રત્નોના કારણે સુપ્તપ્રાય-સુતેલો સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેપ પામેલું સાહિત્ય એ બંનેને ફરીથી ઉદય થશે. જેનાથી ભાવિતાત્મા મેક્ષગ્ય બનશે અને નિર્વાણ પદને પામશે આ માટે અમે વૃત્તિકારને વારંવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ. વિક્રમ સંવત ૧૯૯૦ ફાલ્ગણ શુકલ | ઈઈ. તેરસ મંગળવાર (અલવર સ્ટેટ) ઉવજઝાયજઈમુણુંઆચારામે પચનઇએ जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराज तथा न्याय व्याकरण के ज्ञाता परम पण्डित मुनि श्री १००७ श्री हेमचंद्रजी महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रका प्रमाण पत्र निम्न प्रकार है सम्मइवत्तं सिरि-वीरनिव्वाण-संवच्छर २४५८ आसोई (guળમા) પ મુવા સુફિયાણી . मए मुणिहेमचंदेण य पंडियरयणमुणिसिरि घासीलालविणिम्मिया सिरिउवासगसुत्तस्स अगारधम्मसंजीवणीनामिया वित्ती पंडियमूलचन्दवासाओ अज्जोवंतं सुया, समोईणं, इयं वित्ती जहाणाम तहा गुणेवि धारेइ, सच्चं, अगाराणं तु इमा जीवण (संजमजीवण) दाई एव अत्थि । वित्तिकत्तणा मूलसुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडोकओ, अहय उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवायवाओ' कम्मपुरिसहवाओ समणोवासयस्स धम्मदढत्ता य' इच्चाइविसया अस्सि फुडरीइओ वण्णिया, जेण कत्तुणो पडिहाए सुट्टप्पयारेण परिचओ होइ, तह इइहासदिडिओवि सिरिसमणस्स भगवओ महावीरस्स શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ 1 समए वट्टमाण-भरहवासस्स य कत्तुणा विसयप्पयारेण चित्तं चित्तितं पुणो सक्कयपाठीणं, वट्टमाणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासीणं य परमोवयारो कडो, इमेण कत्तुणो अरिता दीसह कणो एयं कज्जं परमप्पसंसणिज्जमस्थि । पत्तेयजणस्स मज्झत्थभावाओ अस्स सुत्तस्स अवलोयणमईव लाहप्पयं, अविउ सावयस्स तु ( उ ) इमं सत्यं सव्वसमेव अस्थि, अओ को अणेगकोडिसो घण्णवाओ अस्थि जेहिं अच्चतपरिसमेण जयिण जणतोवर असिमोवयारो कडो, अहय सावयस्स बारस नियमा उ पत्तेयजणस्स पढ़पिज्जा अस्थि, जेसि पहावओ वा गहणाओ आया निव्वाणाहिगारी भवइ, तहा भविव्यावओ पुरिसकारपरकमवाओ य अवस्थमेव दंसणिज्जो, किंबहुणा इमीसे वित्तीए पत्तेयविसयस्स फुडसदेहिं वण्णणं कथं जइ अन्नोवि एवं अम्हाणं पमुत्तप्पाए समा जेबिज्जं भवेज्जा तया नाणस्स चरित्तस्स तहा संघस्सय खिप्पं उदयो भविस्स' एवं हं मन्ने | भवईओ उवज्झाय - जपणमुणि— आयाराम, पंचनईओ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ 卐 सम्मतिपत्र ( भाषान्तर) श्री वीर निर्वाण सं० २४५८ आसो शुक्ला (पूर्णिमा) १५ शुक्रवार लुधियाना मैंने और पंडितमुनि हेमचन्दजीने पंडितरत्नमुनिश्री वासीलालजी की रची हुई उपासक दशांग सूत्रकी गृहस्थधर्मसंजीवनी नामक टीका पंडित मूलचन्दजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है । यह वृत्ति यथानाम तथागुणवाली - अच्छी बनी है । सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्रीसंयमरूप जीवनको देनेवाली ही है। टोकाकारने मूलसूत्र के भावों को सरल रीति से वर्णन किया है, तथा श्रावकका सामान्य धर्म क्या है ? और विशेष धर्म क्या है ? इसका खुलासा इस टोकानें अच्छे ढंग से बतलाया है । स्याद्वादका स्वरूप कर्म - पुरुषार्थ वाद और श्रावकको धर्मके अन्दर दृढता किस प्रकार रखना, इत्यादि विषयोंका निरूपण इसमें भली भाँती किया है । इससे टीकाकारक प्रतिभा खूब झलकती है । ऐतिहासिक दृष्टिसे श्रमण भगवान् महावीरके समय जैनधर्म किस जाहोजलाली पर था ! और वर्तमान समय जैनधर्म किप स्थिति में पहुंचा है ? इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है। फिर संस्कृत जाननेarmist तथा हिन्दी भाषाके जाननेवालोंको भी पुरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है उसकी सरल हिन्दी करदी गई हैं। इसके पढने से कर्ताकी योग्यताका पता लगता हैं कि वृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया हैं ? Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकारका यह कार्य परम प्रशंसनीय हैं । इस सूत्रको मध्यस्थ भावसे पढने वालोंको परम लाभकी प्राप्ति होगी । क्या कहें श्रावकों (गृहस्थों ) का तो यह सूत्र सर्वस्व ही हैं, अतः टोकाकारको कोटिशः धन्यवाद दिया जाता हैं, जिन्हींने अत्यन्त परिश्रमसे जैन जनताके ऊपर असीम उपकार किया हैं। इसमें श्रावकके बारह नियम प्रत्येक पुरुषके पढने योग्य है जिनके प्रभावसे अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है । तथा भवितव्यतावाद और पुरुषकार पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये । कहांतक कहें इस टीकामें प्रत्येक बिषय सम्यक् प्रकारसे बताये गये हैं। हमारी सुप्तप्राय (सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान् फिर बी कोई होंगे तो ज्ञान चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ्र उदय होगा, ऐसा मैं मानताहूँ आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजाबी इसी प्रकार लाहोरमें विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान् मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराजके दिये हुए, श्री उपाशकदशाङ्ग सूत्रके प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार हैं श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरन्जक है' इसे आपने बडे परिश्रम व पुरुषार्थसे तैयार किया है सो आप धन्यवादके पात्र हैं । आप जैसे व्यक्तियोकी समाजमें पूर्ण आवश्यकता हैं आपकी इस लेखनी से समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठावेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे-यह एक हमारे लिये बडे गौरवको बात हैं । वि. सं- १९८९ मा. आश्विन कुष्णा १३ वार भौम लाहोर. श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र की 'अनगार धर्माऽमृतवर्षिणी' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचाय श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र लुधियाना, ता. ४-८-५१ मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगार-धर्माऽमृत-वर्षिणी टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रवण किया । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म. ने बड़े परिश्रम से लिखी है। इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सार-पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें हैं । मूल स्थलोंको सरल बनाने में काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकों को लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है। मैं स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करूँगा कि वे वृत्तिकारके परिश्रमको सफल बनाकर शास्त्रमें दीगई अनमोल शिक्षाओं से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे। श्रीमान्जी जयवीर आपको सेवामें पोष्ट द्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इसपर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं पहुंचने पर समाचार देवें। श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म. ठाने ६ सुख शान्तिसे विराजते हैं । पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अर्जकर सुखशाता पूछे। पूज्य श्री घासीलालजी म. जी का लिखा हुआ (विपाकसूत्र) महाराजश्रीजी देखना चाहते हैं इसलिये १ कांपी आप भेजने की कृपा करें; फिर आपको वापिस भेज देवेंगे आपके पास नहीं हो तो जहांसे मिले वहांसे १ कांपी जरूर भिजवाने का कष्ट करे योग्य सेवा लिखते रहें। निवेदक लुधियाना ता. ४-८-५१ प्यारेलाल जैन जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-उपाध्याय-पण्डित-मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पंजाब) का आचाराङ्गसूत्र की आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मति-पत्र । मैंने पूर्व्यवर्य श्रीघासीलालजी (महाराज) की बनाई हुई श्रीमद् आचारागसूत्र के प्रथम अध्ययन को आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी। यह टीका-न्याय सिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियमसे निबद्ध है। तथा इसमें प्रसङ्ग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है। टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विषयों का विशेषरूप से संस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक हैं, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद के पात्र हैं। શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं आशा करता हूँ कि-जिज्ञासु महोदय इसका भली भाँति पठन द्वारा जैनागम सिद्धान्तरूप अमृत पी पी कर मन को हर्पित करेंगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पायेंगे । तथा आचार्यवर्य इसी प्रकार दूसरे भी जैनाममों के विशद विवेचना द्वारा श्वेताम्बर-स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि. सं. २००२ ) जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगसर सुदि १ । लुधियाना (पंजाब) शुभमस्तु । बीकानेरवाळा समाजभूषण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठिआनो अभिप्राय आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह बड़ा उपकारका कार्य है। इससे जैनजनता को काफी लाभ पहुँचेगा. (ता. २८-३-५६ ना पत्रमाथी) ॥श्री॥ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-जैनाचार्य-पूज्य श्री आत्मारामजीमहाराजानां पञ्चनद (पंजाब ) स्थानमनुत्तरोपपातिकसूत्राणा___मर्थबोधिनीनामकटीकायामिदम् सम्मतिपत्रम्. आचार्यवर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थबोधिनीनाम्नी संस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, यं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्यं प्रगटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान् स्पष्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकशो धन्यवादानहन्ति ते । यथा चेयं वृतिः सरला सुबोधिनी च तथा सारखत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदमभीप्सुनिर्वाणपदमनुसरद्भिर्ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभिः श्रावकैश्च ज्ञान दर्शन चारित्राणि सम्यक् सम्प्राप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते । आशासे श्रीमदाशुकविमुनिवरो गीर्वाणवाणीजुषां विदुषां मनस्तोषाय जैनागमसूत्राणां साराविबोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थं सरलाः सुस्पष्टाश्च वृत्तीविधाय तांस्तान् सूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्ठयिष्यति । अन्ते च "मुनिवरस्य परिश्रमं सफलयितुं सरलां सुबोधिनी चेमां सूत्रवृत्ति स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः।" इत्याशास्ते-- विक्रमाब्द २००२ श्रावणकृष्णा प्रतिपदा उपाध्याय आत्मारामो जनमुनिः । लुधियाना શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसेही :मध्यभारत सैलाना-निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासकजैन लिखते हैं कि:__ श्रीमान की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टि-गत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रह है यह ग्रन्थ सर्वांग-सुन्दर एवम् उच्चकोटि का उपकारक है। निरयावलिकासूत्रका सम्मतिपत्र आगमनवारिधि सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र ___ लुधियाना. ता. ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलाबचन्दजी पानाचंदजी । सादर जयजिनेन्द्र ।।। पत्र आपका मिला ! निरयावलिका विषय पूज्य श्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होनेसे उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महराजने सम्मति पत्र लिख दिया हैं आपको भेज रहे हैं ! कृपया एक कोपी निरयावलिका की ओर भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें! भवदीय गुजरमल-बलवंतराय जैन सम्मतिः (लेखक जैनमुनि पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराज) सुन्दरबोधिनीटीकया समलकृतं हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिकासूत्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढं मेऽभिमतम्, संस्कृतटीकेयं सरला सुबोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्बोधपद व्याख्यायुतत्वाच्च टीकैषा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिमैमि । हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादावषि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक संभावयामि । जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजानां परि श्रमोऽयं प्रशंसनीयो धन्यवादाश्चि ते मुनिसत्तमाः । एवमेव श्रीसमीरमल्लजी-श्री कन्हैयालालजी मुनिवरेण्ययोनियोजनकार्यमपि श्लाध्यं, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादा स्तः। सुन्दरप्रस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलङ्कृते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोषोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकतां सवऽप्यनेकषविद्वांसोऽनुभवन्ति । पाठकाः सूत्रस्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजकमहोदयानां परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र परत्वे जैन समाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूषण महान विद्वान संतोए तेमज विद्वान श्रावकोए सम्मतिओ समपी छे तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे (१) लुधियाना-सम्बत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के भंडार आगम रत्नाकर जैनधर्मदिवार श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य श्री मुनि हेमचन्दजी महाराज. (२) लाहौर-वि० सं० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डित रत्न श्री १००८ भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डित रत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचंद जी महाराज. (३) खिचन से ता. ९-११-३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८ श्री भारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज. (४) वालाचोर-ता. १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्न श्री १००८ श्री शतावधानीजी श्री रत्नचन्दजी महाराज. (५) बम्बई-ता. १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कि नानचन्द्रजी महाराज. (६) आगरा-ता..१८-११-३६, जगद वल्लभ श्री १००८ श्री जैन् दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणोजी श्री १००७ श्री साहित्य प्रेमी श्री प्यार चन्दजी महाराज. (७) हैद्रवाद (दक्षिण) २५-११-३६ का पत्र स्थविरपदभूषित भाग्यवान पुरुष श्री तारा चन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००७ श्री सोभागमलजी महाराज. (८) जयपुर-ता. २६-११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरववर्धक शांतस्वभावी श्री १००८ श्री पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला-ता. २९-११-३६ का पत्र, परम प्रतापी पंजाब केशरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री रामजी महाराज. (१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान् रत्नलालजी डोसी. (११) खीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ सुश्रावक श्रीयुत् माधव लालजी ता. २५. ११-३६ सादर जय जिनेन्द्र आपका भेजा हुआ उपासक दशांग सूत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित पर्वतक શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाण १४ सुख शांती में विराजमान हैं आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्रीघासीलाल जी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी बन्दना अर्ज कर सुख शांति पूछे आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मती मंगाई उसके विषय में वक्ता श्रीगोभागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं। मगर जैनशास्त्र की वृति रचनेका साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नहीं आता दूसरा यह शास्त्र उपयोगी तो यों है संस्कृत प्राकत हिन्दी और गुजराती भाषा होनेसे चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं जैन समाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभ कामना है आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा । योग्य लिखें शेष शुभ भवदीय जमनलाल रामलाल कीमती आगरा से: श्रीजैनदिवाकर प्रसिद्धवक्ता जगद्ववल्लभ मुनि श्रीचोथमलजी महाराज व पंडित रत्न मुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है। श्रीमान् न्यायतीर्थ पण्डित माधवलालजी खोचन से लिखते हैं किःउन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाधतत्त्वगवेषणा के विषय में में नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूँ। परन्तु:--- मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको पढा है बहुत सराहना की है वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसा ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं-ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम हैं ऐसे ग्रन्थरत्नोंके सुप्रकाशसे यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य वचनोंका पान करती हुई अपनीउन्नति में अग्रसर होती रहेगी। -:* : ता. २९-११-३६ अम्बाला (पंजाब શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र आपका मिला श्री श्री १००८ पंजाब केशरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढकर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाङ्ग सूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरू की एक प्रति भी प्राप्त हुई हैं, ऐसे ग्रन्धरत्नों के प्रकाशित करवाने की बड़ी आवश्यकता है। यह पुरुषार्थसराहनीय है । आपका शशिभूषणशास्त्री अध्यापक जैन हाई स्कूल अम्बाला शहर. शान्त स्वभावी वैराग्य मूर्ति तत्व वारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज साहेबने सूत्र श्री उपासक दशाङ्गजी को देखा । आपने फरमाया कि पण्डित मुनी घासीलालजी महाराज ने उपासक दशाङ्ग सूत्रको टीका लिखने में बडा ही परिश्रम किया है । इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रों की संशोधक पूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होनेसे भगवान निर्ग्रन्थों के प्रवचनो के अपूर्व रस का लाभ मिल सकता है. बालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पंडित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी फरमाते हैं कि : उत्तरोत्तर जोतां मूल सूत्रनी संस्कृतटीकाओ रचवामां टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कर्यों छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरूरी लेवा जेवू छे, वली करांचीना श्री संघ सारा कागलमां अने सारा टाइपमा पुस्तक छपावी प्रगट कयूछे जे एक प्रकारनी साहित्य सेवा बजावी छे. बम्बई शहेर में विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्द जी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है। खीचन से स्थविर क्रिया पात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडितरत्न मुनि सम्रथमलजी महाराज श्री फरमाते हैं कि-विद्वान महात्मा पुरुषोंका प्रयत्न सराहनीय है क्या जैनागम श्रीमद् उपासक दशाङ्ग सूत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुबोधनो शुद्ध हिन्दी भाषा बडी ही सुन्दरता से लिखी है। श्री वीतरागाय नमः॥ श्री श्री श्री १००८ जैनधर्म दिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घासीलालजो महाराज चरणवन्दन स्वीकार हो । अपरञ्च समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर सोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारो वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्य ने नहीं किया । ___ आपने स्थानकवासीजैनसमाज के ऊपरजो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा। हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेखनी को उत्तरोत्तर शक्ति प्रदान करें ता कि आप जैन समाज के ऊपर और भी उपकार करते रहे और आप चिरञ्जीव हों। हम है आप के मुनि तीन मुनि सत्येन्द्रदेव-मुनि लखपतराय-मुनि पद्मसेन उदेपुर. इतवारी बाजार नागपुर ता. १९-१२-५६ प्रखर विद्वान जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराजद्वारा जो आगमोद्धार हुआ और हो रहा है सचमुच महाराजश्री का यह स्तुत्य कार्य है। हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रों का सेट देखा और कइ मार्मिक स्थलो को पढा, पढ कर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पड़ी। वास्तव में मुनिराज श्री जैन समाज पर ही नहीं इतर समान पर भी महा उपकार कर रहे हैं। ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता वह सभी समाज की अनमोल निधि है जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घर घर में होना आवश्यक है। साहित्यरत्न मोहनमुनिसोहनमुनि जैन. શ્રમણ સંઘના પ્રચાર મંત્રી પંજાબ કેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકોટમાં પધારેલા હતા ત્યારે તેના તરફથી શાને માટે મલે અભિપ્રાય. શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્ર વારિધિ પંડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલાજી મહારાજદ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું છે તે કાર્ય જૈન સમાજ તેમાં ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મૌલિક સંસ્કૃતિની જડને મજબુત કરવા पाणुछे. * એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે માટે દરેક વ્યક્તિએ તેમાં યથાશક્તિ ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યક્તા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલ્દીથી જલદી સંપૂર્ણ પણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂજય આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના સૂત્રો સંબધે વિચારે નમામિ વીર ગિરી સારધીરે પૂજ્ય પાદ જ્ઞાન પ્રવરશ્રી ઘાસીસાલજી મહારાજ તથા પંડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણું છની સેવામાં અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત. આપ સર્વે થાણાઓ સુખ સમાધિમાં હશે નિરંતર ધર્મધ્યાન ધર્મારાધનમાં લીન હશે. સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય ત્વરીત થાય એવી ભાવના છે દશવૈકાલિક તથા આચાશંગના એક એક ભાગ અહીં છે ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પંડિતજનોને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સાથે સાથે ટીકા વીનાના મૂળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે. અત્રે પૂજ્ય આચાર્ય ગુરૂદેવને આંખે મેતી ઉતરાવ્યા છે અને સારું છે એજ. આસો સુદ ૧૦, મંગળવાર ત. ૨૫-૧૦-૫૫ પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છતે, દયા મુનિના પ્રણિપાત. દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પંડિત રત્ન ભાઈચંદજી મહારાજને અભિપ્રાય રાણપુર તા. ૧૯-૧૨-૧૯૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનપ્રવર પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિમુનિવરોની સેવામાં. આપ સવ સુખ સમાધીમાં હશો. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ સુંદર થઈ રહ્યું છે તે જાણી અત્યંત આનંદ. આપના પ્રકાશિત થયેલાં કેટલાંક સૂત્રો જેમાં સુંદર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાયને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પંડિત નેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભાવિ આત્માએને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના લી. પંડિતરત્ન બાળબ્રહ્મચારી ૫. શ્રી ભાઈચંદ મહારાજ ની આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનીના પાયવંદન સ્વીકારશે. તા. ૧૧૫-પદ વીરમગામ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચંદ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માથી, ક્રિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન, મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજને અભિપ્રાય. ખીચનથી આવેલ તા. ૧૧-૨–૫૬ ના પત્રથી ઊંધિત, પૂજ્ય આચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂત્રોનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે. તે સાહિત્ય, પંડિત મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ, સમય એાછા મળ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાને કારણે સંપૂર્ણ જોઈ શક્યા નથી, છતાં જેટલું સાહિત્ય જોયું છે, તે બહુ જ સારૂ અને મનન સાથે લખાયેલું છે. તે લખાણ શાસ્ત્ર આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે. આ સાહિત્ય દરેક શ્રદ્ધાળુ જીવને વાંચવા યોગ્ય છે. આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રદ્ધા, પ્રરૂપણું અને ફરસણાની દઢતા શાસ્ત્રાનુકૂળ છે. આચાર્ય શ્રી અપૂર્વ પરિશ્રમ લઈ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે. લી. કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલુ મુ. ખીચન. લીબડી સંપ્રદાયના સદાનદી મુનીશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે-જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થકર નામ ગેત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાન પ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુમોદન આપનાર જ્ઞાનાવર્ણિય કર્મને ક્ષય કરી-કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદનાં અધિકારી બને છે. શાસ્ત્રજ્ઞ-પરમ શાન્ત, અને અપ્રમાદિ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પોતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગોમાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશિ ધન્યવાદના અધિકારી છે વંદનીય છે–તેમની જ્ઞાન પ્રભાવનાની ધગશ ઘણું પ્રમાદિઓને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજ-શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના કાર્યવાહકે પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે. એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સૂચના છે કે શાસ્ત્રોદ્ધારક પ્રવર પંડિત અપ્રમાદિ સંત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે–પંડિતે વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે. તેને પહોંચી વળવા માટે સારું સરખું ફંડ જોઈએ. એના માટે મારી એ સૂચના છે કે -શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે,–જે બની શકે તે પ્રમુખ પિતે અને બીજા બે ત્રણ જણુઓ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બર બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે. જે કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે. છતાં જે સંભાવિત ગૃહ પ્રવાસે નીકળે તે જરૂર કાર્ય સફળ કરે. એવી મને શ્રદ્ધા છે. આર્થિક અનુકૂળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે. પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાન શક્તિને જેટલે લાભ લેવાય તેટલે લઈ લે. કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવા વિનંતી કરી અમદાવાદ પધરાવવા. અને ત્યાં–અનુકુળતા મુજબ બે ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ. થડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધાર કમીટી મળવાની છે. તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્ય શ્રીઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણ કારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરિરાદીને સશક્ત અને દીર્ધાયુ રાખી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે. ૩૦ અતુ. ચાતુર્માસ સ્થળ. લીંબડી ) સાં. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩.ગુરૂ. 5 સદાનંદી જૈનમુનિ છેટાલાલજી લિ શ્રીવધમાન સંપ્રદાય પૂજય શ્રી પુનમચંદ્રજી મહારાજને અભિપ્રાય શાસા વિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રીવાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈન આગમે ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે. તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે, તેમણે આગમે. ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું છે. આગામે ઉપરની તેમની સંસ્કૃત ટીકા ભાષા અને ભાવની દષ્ટિએ ઘણી જ સુંદર છે. સંસ્કૃત રચના માધુર્ય તેમજ અલંકાર વગેરે ગુણેથી યુક્ત છે. વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો ઉપાધ્યાયે વગેરે એ શાસ્ત્રો ઉપર રચેલી આ સંસ્કૃત રચનાની કદર કરવી જોઈએ અને હરેક પ્રકારને સહકાર આપ જોઇએ. આવા મહાન કાર્યમાં પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રીઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે આલૌકિક છે. તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એજ શુભેચ્છા સાથે. અમદાવાદ તા. ૨૧-૪-રવિવાર સુનિપૂર્ણચંદ્રજી મહાવીર જયંતિ ખંભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઇ સ્વામીને અભિપ્રાય લખતર તા. ૨૫-૪-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલભાઈ મંગળદાસ ભાઈ પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત . સ્થાજૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ. અમદાવાદ " અમે અત્રે દેવગુરૂની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ. વિ. માં આપની સમિતિ દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સૂત્રેનું કાર્ય કરે છે તે પૈકીનાં સૂત્રોમાંથી ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર, અનુત્તરોપપાતિક સૂત્ર દશવૈકાલિક સૂત્ર વિગેરે સૂત્રે જેમાં તે સૂત્રે સંસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાઓમાં હોવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણું જ લાભદાયિક છે. તે વાંચન ઘણું જ સુંદર અને મનોરંજન છે. આ કાર્યમાં પૂજય આચાર્ય શ્રી જે અથાગ પુરૂષાર્થે કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સૂત્રોથી સમાજને ઘણું લાભનું કારણ છે. હંસ સમાન બુદ્ધિવાળા આત્માએ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાએ અવલોકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે. માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સુચન કરું છું કે આ સૂત્ર પિતપોતાના ઘરમાં વસાવાની સુંદર તકને ચુકશે નહિ. કારણ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરંપરા ને પુષ્ટીરૂપ સૂત્રો મળવાં બહુ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યને આપશ્રી ત્થા સમિતિના અન્ય કાર્ય કરા જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે. તેમાં મહાન નિજ રાનુ કારણ જોવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એજ બરવાળાસ’પ્રદાયના વિદુષીમહાસતીજી મેાંધીભાઈ સ્વામીના અભિપ્રાય શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મગળદ્યાસભાઇ પ્રમુખ અ॰ ભ૦ વે॰ સ્થા જૈનશા ઉદ્ધાર સમિતિ મુા. રાજકાટ. લી. શારદાબાઇ સ્વામી ખંભાત સપ્રદાય. * ધંધુકા તા. ૨૭-૧-૫૬ અત્રે બીરાજતા ૩૦ ગુ૦ ભંડાર મહાસતિજી વિદુષી મેઘીબાઇ સ્વામી તથા હીરામાઈ સ્વામી આદિઠાણા અને સુખશાતામાં બીરાજે છે, આપને સુચન છે કે અપ્રમત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધમ ધ્યાન કરશેાજી એજ આશા છે. વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રીધાસીવાલજી મહારાજના રચેલાં સૂત્રો ભાઇ પેાપટ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલાં તે સૂત્રો તમામ આઘોપાંત વાંચ્યાં મનન કર્યાં અને વિચાર્યા છે તે સૂત્ર સ્થાનકવાસી સમાજને અને વીતરાગ માને ખૂબજ ઉન્નત્ત બનાવનાર છે. તેમાં આપણી શ્રદ્ધા એટલી ન્યાય રૂપથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે. હુંસ સમાન આત્માએ જ્ઞાન ઝરણાએથી આત્મરૂપ વાડીને વિક સીત કરશે. ધન્ય છે આપને અને સમિતિના :કાયકરાને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કેદની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનુ દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂ કરાવશે તેવી આશા છે. એજ લિ. ખરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મોંઘીબાઈ સ્વામી ના ફરમાનથી લી. ખાડીદાસ ગણેશભાઈ-ધંધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ. અદ્યતન પદ્ધતિને અપનાવનાર વડોદરા કેલેજના એક વિદ્વાન માફ઼ેસરના અભિપ્રાય સ્થાનકવાસી સ`પ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસીજીમહારાજ જૈનશાઓના સસ્કૃત ટીકાદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાષાંતરા કરવાના ઘણા વિકટ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે. શાસ્ત્રો પૈકી જે શાસ્ત્રો પસિદ્ધ થયાં છે તે હું જોઇ શકયા છું, મુનિશ્રી પોતે સ'સ્કૃત, અર્ધમાગધી હિંદી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમના ટુકા પરિચય કરતાં સહજ જણાઇ આવે છે. શાસ્ત્રનુ સંપાદન કરવામાં તેમને પેાતાના, શિષ્યવળના અને વિશેષમાં ત્રણ પંડિતાના સહકાર મળ્યા છે, તે જોઈ મને આનદ થયા. સ્થાનકવાસી સ ́પ્રદાયના અગ્રેસરાએ 'ડિતાના સહકાર મેળવી આપી મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે. સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વત્તા ઘણી ઓછી છે. તે દિગંબર, મૂર્તિપૂજક શ્વેતાંબર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતાં હું' વિરાધના ભય વગર, કહી શકું'. પૂ. મહારાજના આ પ્રયાસ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણ સારાં આપવામાં આવ્યાં છે. ભાષા શુદ્ધ છે એમ હું ચોક્કસ કહી શકું છું. ગુજરાતી ભાષાંતરો પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે. મને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીના આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જૈનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાંતરોને વાચનાલયમાં અને કુટુંબમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે. પ્રતાપગંજ, વડોદરા કેશવલાલ હિંમતરામ તા. ૨૭-૨-૧૯૫૬ એમ. એ. મુંબઈની બે કલેજેના પ્રોફેસરેને અભિપ્રાય. મુંબઈ તા. ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલ મંગળદાસ પ્રમુખ શ્રી અખિલ ભારત . સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, રાજકેટ. પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલા આચારાંગ. દશવૈકાલીક આવશ્યક, ઉપાસકદશાંગ વગેરે સૂત્રો અમે જોયા. આ સૂત્રો ઉપર સંસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે અને સાથે સાથે હીંદી અને ગુજરાતી ભાષાંતરો પણ આપવામાં આવ્યાં છે. સંસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હીંદી ભાષાંતરો જોતાં આચાર્ય શ્રીને આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચોટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર ગ્રંથમાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વતા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હીંદીમાં થયેલા ભાષાંતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નોંધપાત્ર છે. એથી વિજજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સંતોષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રોમાંથી હજુ ૧૩ સૂત્રો પ્રગટ થયાં છે. બીજા ૭ સૂત્રો લખાઈને તૈયાર થઈ ગયાં છે. આ બધાં જ સૂત્રો જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈન સૂત્ર-સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણાશે એમાં સંશય નથી. આચાર્યશ્રીના આ મહાન કાર્યને જૈન સમાજને-વિશેષતઃ સ્થાનકવાસી સમાજને સંપૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ. છે. રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેંટ ઝેવિયર્સ કોલેજ, મુંબઈ છે. તારા રમણલાલ શાહ, સેફિયા કેલેજ, મુંબઈ રાજકોટની ધમેન્દ્રસિંહજી કેલેજના પ્રોફેસર સાહેબને અભિપ્રાય જયમહાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકોટ, તા. ૧૮-૪-૫૬ પૂજ્યાચાર્ય પં. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જૈન સમાજ માટે એક એવા કાર્યમાં વ્યાપ્ત થએલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયોગી થઈ પડશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલાં શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ આચારાંગ, દશવૈકાલિક, શ્રી વિપાકશ્રત વિ. મેં જોયા. આ સૂત્રે જતાં પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાઓ ઉપરને અસાધારણ કાબુ જણાઈ આવે છે એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણી નથી. આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રો ઉચ્ચ અને પ્રથમ કેટિના છે. તેની વસ્તુ ગંભીર. વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પશી છે. આટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્ય સૂત્રોનું ભાષાંતર પૂ૦ ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કેટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણું અહોભાગ્ય છે. યંત્રવાદ અને ભૌતિકવાદનાં આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવના ઓસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલાં સૂત્રોનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદશક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ, સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સૂત્રો લખવામાં આવ્યા છે. મહારાજ શ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સંકળાયેલા જોઈએ છીએ. એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે. તેમનું જીવન સૂત્રમાં વણાઈ ગયું છે. સુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પોતાના શિષ્યોને તથા પંડિતોનો સહકાર મળ્યો છે. મને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકોને પોતાના ઘરમાં વસાવશે અને પોતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તો મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલો શ્રમ સંપૂર્ણ પણે સફળ થશે. પ્રો. રસિકલાલ કસ્તુરચંદ ગાંધી એમ. એ. એલ. એલ બી, ધર્મેન્દ્રસિંહજી કોલેજ રાજકોટ (સૌરાષ્ટ્ર) મુંબઈ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાર કેન્ફરન્સ તથા સાધુ સંમેલનમાં મોકલાવેલ ઠરાવ, હાલ જે વખતે શ્રી શ્વેતાંબર સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ માટે આગમ-સંશોધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાવોએ આ વાત દીર્ઘ દ્રષ્ટિથી પહેલી પોતાના મગજમાં લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પંડિત૨તન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુ મતે સાહિત્ય મંત્રી નીમ્યા છે તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ. ભા. . સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મોટી વગવાળી કમિટી છે તેની મારફતે કામ થઈ રહ્યું છે જેને પ્રધાનાચાર્યશ્રી તથા પ્રચાર મંત્રીશ્રી તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવોએ પિતાની પસંદગીની મહાર છાપ આપી છે અને છેલલામાં છેલ્લા વડોદરા યુનિવસીટીના પ્રેફેસર કેશવલાલ કામદાર એમ. એ. એ પિતાનું સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે તે શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટીના કામને આ સંમેલન તથા કોન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે. અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે-પંડિતની અને નાણાંની-પિતાની પાસેના ફંડમાંથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઈચ્છા ધરાવે છે. આ શાસ્ત્રો અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રશંસાપૂર્વક પસંદગી મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કોન્ફરન્સ પોતાની ફરજ માને છે અને જે કાંઈ ત્રુટી હોય શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ત પં. ૨. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાનિધ્યમાં જઈ, બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરે. આ કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કંઈપણ કામ સત્તા ઉપરના અધીકારીઓના વાણું કે વર્તનથી ન થાય તે જોવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે. (સ્થા. જૈન પત્ર તા. ૪-પ-૧૬) સ્વતંત્ર વિચારક અને નિડર લેખક જૈન સિદ્ધાંત' ના તંત્રીશ્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલને અભિપ્રાય શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ. શ્રી. ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમાં બોલાવી તેમની પાસે બત્રીસે સૂત્ર તૈયાર કરવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલેલો ત્યારે શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈએ તેમના એક પત્રમાં મને લખેલું કે “આપણું સૂત્રોના મૂળ પાઠ તપાસી શુદ્ધ કરી સંસ્કૃત સાથે તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં મુનીશ્રી ઘાસીલાલજી મ. સિવાય મને કોઈ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ જેવામાં આવતા નથી લાંબી તપાસને અંતે મેં મુનિ શ્રઘાસીલાલજી મ ને પસંદ કરેલા છે.” શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ પિતે વિદ્વાન હતા. શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા. શ્રાવકે તેમજ મુનિએ પણ તેમની પાસેથી શીક્ષા વાંચના લેતા, તેમ જ્ઞાન ચર્ચા પણ કરતા એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની પસંદગી યથાર્થ જ હોય એમાં નવાઈ નથી. અને પૂ. શ્રી. ઘાસી લાલજીમ. ના બનાવેલાં સૂત્રો જોતાં સૌ કોઈને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામોદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે એવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે બરાબર ફલી. ભૂત થયેલ છે. શ્રી વર્ધમાન શ્રમણસંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રો માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે, તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ. ના સૂત્રેની ઉપયોગિતાની ખાત્રી થશે. આ સૂત્ર વિદ્યાથીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વચકને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયોગી થઈ પડે છે, વિદ્યાથીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયોગી થાય તેમ છે. ત્યારે સામાન્ય હિંદી વાંચકને હિંદી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચ કને ગુજરાતી અનુવાદથી આખું સૂત્ર સરળતાથી સમજાય જાય છે. કેટલાકને એ ભ્રમ છે કે સૂત્ર વાંચવાનું આપણું. કામ નહિ, સૂત્ર આપણને સમજાય નહિ. આ ભ્રમ તદ્દન ખોટો છે. બીજા કેઈપણ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતાં સૂત્રો સામાન્ય વાચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભ. મહાવીરે તે વખતની લોક ભાષામાં (અર્ધમાગધી ભાષામાં) સૂત્રો બનાવેલાં છે. એટલે સૂત્ર વાંચવાં તેમજ સમજવામાં ઘણાં સરળ છે. માટે કોઈ પણ વાંચકને એને ભ્રમ હોય તે તે કાઢી નાંખવે. અને ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાંતનું સાચું જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રે વાંચવાને ચૂકવું નહિ. એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલાં સુત્રજ વાંચવા. સ્થાનકવાસીઓમાં આ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ જે કામ કર્યું છે અને કરી રહી છે તેવું કઈ પણ સંથાએ આજ સુધી કર્યું નથી. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ તિના છેલ્લા રિપાટ પ્રમાણે બીજા છ સૂત્રો લખાયેલ પડયાં છે, એ સૂત્રો-અનુયાગદ્વાર અને ઠાણાંગ સૂત્ર-લખાય છે તે પણ ઘેાડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે. તે પછી ખાકીના સૂત્રો હાથ ધરવામાં આવશે. તૈયાર સૂત્રો જલ્દી છપાઈ જાય એમ ઇચ્છીએ છીએ અને સ્થા. અંધુએ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને તેમનાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવે એમ ઇચ્છીએ. જૈન સિદ્ધાન્ત' પત્ર-મે ૧૯૫૫. * શ્રુત ભક્તિ (પૂ. આચાર્ય શ્રી ઇશ્વરલાલજી મ. સા. ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) ૪. સ. ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ ત. ૨૩-૬-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ, આજે લગભગ ૨૦ વષઁથી શ્રદ્ધેય પરમપૂજ્ય, જ્ઞાન દિવાકર પ. મુાનશ્રી ઘાસીલાલજી મ. ચરમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર, અનુપમ ન્યાય યુક્ત, પૂર્વાપર અવિરાધ, સ્વપર કલ્યાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના દ્યોતક એવા શ્રીજિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે. તેઓશ્રી પ્રાચીન, પૌર્વાંત્ય સંસ્કૃતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પડિત છે અને જિન વાણીના પ્રકાશ સસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિંદીમાં મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણુ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનંદના વિષય છે. ભ॰ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી. પર’તુ તેમની વાણી રૂપે અક્ષર દેહ ગણધર મહારાજાએ શ્રુત પરપરાએ સાચવી રાખ્યો. શ્રુત પરંપરાથી સચવાતું જ્ઞાન જ્યારે વિસ્તૃત થવાને સમય ઉપસ્થિત થવા લાગ્યા ત્યારે શ્રી દેવદ્ધિ ગણિ ક્ષમાશ્રમણે વલ્ભીપુર-વળામાં તે આગમાને પુસ્તકો રૂપે આરૂઢ કર્યાં. આજે આ સિદ્ધાંતે આપણી પાસે છે. તે અધ માગધી પાલી ભાષામાં છે. અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવાની તથા જનગગુની ધમ ભાષા છે. તેને આપણા શ્રમણેા અને શ્રમદ્ગોએ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાએ સુખપાઠ કરે છે; પરન્તુ તેના અર્થ અને ભાવ ઘણા ઘેાડાએ સમજે છે. જિનાગમ એ આપણાં શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્રો છે. એ આપણી આંખે છે. તેના અભ્યાસ કરવા એ આપણી સૌની–જૈન માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણાં સદૂભાગ્યે જ્ઞાન દિવાકર શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજે સત્સકલ્પ કર્યાં છે અને તે લિખિત સૂત્રોને પ્રગટાવી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમીતી દ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યમાં સકળ જૈનાના સહકાર આવશ્યક હાવા ઘટે અને તેને વધારેમાં વધારે પ્રચરા થાય તે માટે પ્રયત્ના કરવા ઘટે. ભ॰ મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન; સૂત્રની આરાધના કરવાથી શુ ફળ પ્રાપ્ત થાય છે ? ભગવાન તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રુતની આરાધનાથી જીવાના અજ્ઞાનના નાશ થાય છે. અને તેએ સંસારના કલેશેથી નિવૃત્તિ મેળવે છે. મને સ’સાર લેશે।થી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં મેક્ષ ફળનો પ્રપ્તિ થાય છે. આવા જ્ઞાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈના, દિગંબરો અને અન્ય ધર્માં હજારો અને લાખા રૂપીયા ખર્ચે છે. હિંદુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સે...કડે નહિ પણ હજારા ટીકા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગ્ર દુનિયાની લગભગ સર્વ ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. ઈસાઈ ધર્મના પ્રચારકે તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રન્થ બાબિલના પ્રચારાર્થે તેનું જગતની સર્વભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી, તેને પડતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધર્મ સૂત્રોને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લીમ લેકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું પણ અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાક કરે છે. આપણે પૈસા પરને મેહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતનો પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ. અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્ન કરવા જોઈએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદે સૌએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમાનુસાર રકમ ભરી સમીતીના સભ્ય અવશ્ય બનવું જોઈએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાઓના મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવું જોઈએ, આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમ–ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હરહંમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ, જેથી પરમ શાન્તિ અને જીવન સિદ્ધિ મેળવી શકાય. સ્થા. જૈન. તા. ૫-૭-૫૬) શ્રી. અ. ભ. શ્વે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખશ્રી વગેરે, રાણપુર પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાન્ત-શાવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ધારીલાલજી મહારાજનાં પુનિત પગલાં થયા છે ત્યારથી ઘણા લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણિય કર્મનાં પડળ ઉતાવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે. અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિ. શાને જનતા લાભ યે છે. મને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હોય છે. પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમેં અપ્રમત્ત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત માત્ર પાંચ-સાત સાધુઓ. જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજને શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે. સમાજાકાશમાં સ્થાજૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે- પ...ણ કે દિન.. શ્રીશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને હારી એક નમ્ર સૂચના છે કે–પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે. અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનને શરમાવે તેવી છે. તેમને ગામે ગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણું શારીરિક-માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે. તે કોઈ ગ્ય સ્થળ કે જ્યાંના શ્રાવકો ભક્તિવાળા હોય. વાડાના રાગના વિષથી અલીમ હોય એવા કેઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થીરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કરવું જોઈએ. બીજા કોઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તે છેવટ અમદાવાદમાં ચગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તે વધુ સારૂં. મ્હારી આ સૂચના પર ધ્યાન આપવા કરી યાદ આપું છું. ફરીવાર પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકને મારા અભિનંદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશે. લિ. સદાનંદી જૈનમુનિ છલાલજી. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જેન સિદ્ધાતના” તંત્રીશ્રીને અભિપ્રાય સ્થાનકવાસીઓમાં પ્રમાણભૂત સૂત્રો બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે. અને એના આ છેલ્લા રિપોર્ટ ઉપરથી જણાય છે કે તેણે ઘણી સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઈ આનંદ થાઘ છે, મૂળ પાઠ, ટીકા, હિંદી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સૂત્ર બહાર પાડવાં એ કાંઈ સહેલું કામ નથી. એ એક મહાભારત કામ છે. અને તે કામ આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણી સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણું ગૌરવને વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે. સમિતિ તરફથી નવસૂત્રો બહાર પડી ચૂક્યાં છે, હાલમાં ત્રણ સૂત્રો છપાય છે. નવ સૂત્રો લખાઈ ગયાં છે અને જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ તથા નંદીસૂત્ર તૈયાર થઈ રહ્યાં છે. હાલમાં મંત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઈચંદ સમિતિના કામમાં જ તેમને આ વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા છે. તેમના ખત માટે ધન્યવાદ અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તે છે વયોવૃદ્ધ પંડિત મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ. મૂળ પાઠનું સંશાધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે. મુનિ . આ ઉપકા૨ આખાય સ્થા. જૈન સમાજ ઉપર ઘણે મહાન છે. એ ઉપકારને બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી. પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેના બહાર પડેલાં સૂવે ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યચન કરવામાં આવે તે જ મહારાજ શ્રીનું થોડું ત્રણ અદા કર્યું ગણાય. ભગવાને કહ્યું છે કે દમ ત ત થ પહેલું જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મને યથાર્થ સમજ હોય તો ભગવાનની વાણીરૂપ આપણું સુત્રો વાંચવાં જ જોઈએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઈએ અને તેને ભાવાર્થ યથાર્થ સમજવો જોઈએ. એટલા માટે આ શાદ્ધારસમિતિના સર્વ સૂત્રા દરેક સ્થા. જૈને પિતાના ઘરમાં વસાવવા જ જોઈએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણું સૂત્રામાં જ સમાયેલું છે અને સત્રો સહેલાઈથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન આ સૂત્રો વાંચે એ ખાસ જરૂરનું છે. જૈન સિદ્ધાંત"ડીસેમ્બર-૫૬ શ્રી ઉપાશક દશાંગ સૂત્રને માટે અભિપ્રાય. મૂળ સૂત્ર તથા પૂ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે બનાવેલ સંસકૃત છાયા તથા ટીકા અને હિદી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત. પ્રકાશક-અ. ભા. . સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કૂવા રેડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકેટ. (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (માટુ) કદ. પાકે જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિંમત રૂા. ૮-૮-૦ આપણું મૂળ બાર અંગ સૂત્રમાંનું ઉપાશક દશાંગ એ સાતમું અંગ સૂત્ર છે, એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે શ્રાવકનાં જીવનચરિત્રો આપેલા છે તેમાં પહેલું ચરિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. આનંદ શ્રાવકે જૈન ધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બારવ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાનો લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે. તેની અંતર્ગત અનેક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ વિષયા જેવા કે, અભિગમ, લેાકાલેાકસ્વરૂપ, નવતત્ત્વ, નરક દેવલાક વગેરેનુ વર્ણન પણ આવે છે. આનંદ શ્રાવર્ક ખાર વ્રત લીધાં તે મારે વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે ખ આપેલુ' છે, તે જ પ્રમાણે ખીજા નવ શ્રાવકાની પણ વિગત આપેલ છે. આનદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં અત્યંત ચારૂં શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકા મૂર્તિ પૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેના અથ અરિહંતનું ચૈત્ય (પ્રતિમા) એવા કરે છે. ષણુ તે અથ તદ્ન ખાટા છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સબંધ પ્રમાણે તેના એ ખાટા અથ બધ બેસતા જ નથી તે મુનિશ્રી શ્વાસીલાલજીમ,જે તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણેા આપી સાબિત કરેલ છે અને અત્યંત વૈશ્યાડ઼ે ના અર્થ સાધુ થાય છે તે ખતાવી આપેલ છે. આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકાની ઋદ્ધિ, રહેઠાણુ, નગરી વગેરેના વર્ણ ના ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે ખાખતાની માહિતી મળે છે. એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવુ જોઇએ એટલુ જ નહિ પણ વારવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવુ જોઇએ. પુસ્તકની શરૂઆતમાં વર્ષોં માન શ્રમણ સંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજનુ સંમતિ પત્ર તથા મીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકાના સ'મતિ પત્રો આપેલા છે, તે સુત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે. “ જૈન સિદ્ધાન્ત ” જાન્યુઆરી, ૫૭ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ ॥ શ્રી ॥ दो शब्द जैन सामज में श्री दशवैकालीक सूत्रका स्थान बहुत ऊँचा है यह सूत्र कदके प्रकार में भले छोटा है । किन्तु इस सूत्र का महत्व बहुत बडा है । श्रीदशवकालीक सूत्र का अध्ययन करना मानो मुनिधर्म मे प्रवेश करने की प्राथमिक पाठशाला मे प्रवेश करना है । यदि मुनि अधिक प्रज्ञावान हो तो ज्ञानमे ग्यारह अंगसूत्र से लेकर चौदापूर्वतक का ज्ञान प्राप्त कर सकता है । यदि मुनि कम प्रज्ञा वाला है। अधिक परिश्रम करने पर भी ज्ञानावरणीय कर्मोदय के कारण ज्ञान नहीं बढ़ता तो श्री दशवैकालिक सूत्र का अध्ययन कर अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। इस सूत्र में आत्मसाधन के सभी विषय मोजूद है । भले इस सूत्र का स्थान अंग या उपाँग सूत्रो में नही है । फिरभी इस सूत्र का महत्व अधिक है। इससे जीवाजीवका ज्ञान पांच समिति तीन गुप्त इर्या भाषा एषणा गौचरी की वीधी आदी सभी आवश्यक कार्यक्रम मोजूद है श्री दशवैकालिक सूत्र कंठस्थ यदि है तो मुनि अपनी संयम यात्रा का निर्दोषपालन कर सकता है । इसीलिये दिक्षार्थी भाई बहिनों को सब से पहिले इसका अध्ययन कराया जाता है । प्रतिक्रमण के बाद इसका नम्बर आता है कई श्रावक श्राविकाएं इसे कंठस्थ करते है | कई निय इसका खाध्याय करते हैं । इस सूत्र की विस्तृत टीका श्रीमद जैनाचार्य श्रीघासीलालजी मा० 1 1 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सा० ने कर समाज पर महान उपकार किया है। इससे समाज आचार्य श्री का सदा ऋणी रहेगी और आचार्य श्री के स्वर्गवास बाद शास्त्रज्ञ पं० मुनि श्री. श्री कनैयालाल जी मा०सा० जो कार्य पूज्य श्री का अपूर्ण रहा था उसको पूर्ण करने का बीड़ा उठाया इससे समाज मुनिश्रीकनैयालालजी मा० का ऋणी रहेगी मुनिश्री के सदउपदेश से प्रभावित होकर सिवाना (मारवाड) निवासी सुश्राविका पानकुँवर बहन धर्म पत्नी श्रीधीगडमलजी सा० कानुगा इस सूत्रको छपवाने में अर्थ सहायक बनी श्री पानकुँवर बैन का संक्षिप्त परिचय श्री पानांवर बहिन का जन्म सिवाना निवासी बागरेचा श्री मुलतानमलजी की भार्या बरजूबाई की कुक्षी से हुवा श्रीमुलतानमलजी धर्मप्रेमी श्रावक है । और अपनीपुत्री मे धर्मके सुसंस्कार डाले और विवाह के पश्चात् श्रीधीगड मलजी कनुगा की मातुश्री'यारीबाई की धर्म प्ररेणा अच्छी रही इससे आप दिनो दिन धर्म मे द्रढ़ बनती रही अपने प्रतिक्रमणा थोकडे बोल चाल का काफी अध्ययन किया और अत्यंत श्रद्धावान श्राविका बनगइ आप कई प्रकार को नित्य तपश्चर्या करती रहती है सादा जीवन शांत स्वभाव आपका खास गुणहै पुण्य व सामाजीक कार्यो मे अग्रणी रहती है । महिलाओ मे धर्भध्यान बोल चाल सीखाने का प्रयत्नशील रहती है शेठ श्री कानुगाजी समाज के उत्थान के कार्यमे सदैक भाग लेतेरहते है श्रीधीगडमलजी सिवाना श्रीवर्द्धमान स्थानकवासी श्रावक संध के कोषाध्यक्ष पद पर सुशोभित हैं और समाज की सेवा कर रहे है मैं आपसे अनुरोध करता हूँ की आगे भी इसी प्रकार सामाजिक कार्यो मे भागलेते रहेगें और आप शास्त्रोद्धार समिती के आद्यमुरब्बी है आप जहाँ भी दान पुण्य का कार्य आता है अगवानी रहते हैं निवेदेक मुलतानमल राँका सिवाना मंन्त्री श्री अमरजैन शोध संस्थान सिवाना શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વાધ્યાય માટે ખાસ સૂચના આ સૂત્રના મૂલપાઠનો સ્વાધ્યાય દિવસ અને રાત્રિના પ્રથમ પ્રહરે તથા ચોથા પ્રહરે કરાય છે. (૨) પ્રાત:ઉષાકાળ, સન્યાકાળ, મધ્યાહ્ન, અને મધ્યરાત્રિમાં બે-બે ઘડી (૪૮ મિનિટ) વંચાય નહીં, સૂર્યોદયથી પહેલાં ૨૪ મિનિટ અને સૂર્યોદયથી પછી ૨૪ મિનિટ એમ બે ઘડી સર્વત્ર સમજવું. માસિક ધર્મવાળાં સ્ત્રીથી વંચાય નહીં તેમજ તેની સામે પણ વંચાય નહીં. જ્યાં આ સ્ત્રીઓ ન હોય તે ઓરડામાં બેસીને વાંચી શકાય. (૪) નીચે લખેલા ૩૨ અસ્વાધ્યાય પ્રસંગે વંચાય નહીં. (૧) આકાશ સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય કાલ. (૧) ઉલ્કાપાત–મોટા તારા ખરે ત્યારે ૧ પ્રહર (ત્રણ કલાક સ્વાધ્યાય ન થાય.) (૨) દિગ્દાહ–કોઈ દિશામાં અતિશય લાલવર્ણ હોય અથવા કોઈ દિશામાં મોટી આગ લગી હોય તો સ્વાધ્યાય ન થાય. ગર્જારવ –વાદળાંનો ભયંકર ગર્જારવ સંભળાય. ગાજવીજ ઘણી જણાય તો ૨ પ્રહર (છ કલાક) સ્વાધ્યાય ન થાય. નિર્ધાત–આકાશમાં કોઈ વ્યંતરાદિ દેવકૃત ઘોરગર્જના થઈ હોય, અથવા વાદળો સાથે વીજળીના કડાકા બોલે ત્યારે આઠ પ્રહર સુધી સ્વાધ્યાય ના થાય. (૫) વિદ્યુત—વિજળી ચમકવા પર એક પ્રહર સ્વાધ્યાય ન થા. (૬) ચૂપક–શુક્લપક્ષની એકમ, બીજ અને ત્રીજના દિવસે સંધ્યાની પ્રભા અને ચંદ્રપ્રભા મળે તો તેને ચૂપક કહેવાય. આ પ્રમાણે ચૂપક હોય ત્યારે રાત્રિમાં પ્રથમ ૧ પ્રહર સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૭) યક્ષાદીત-કોઈ દિશામાં વીજળી ચમકવા જેવો જે પ્રકાશ થાય તેને યક્ષાદીપ્ત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૮) ઘુમિક કૃષ્ણ-કારતકથી મહા માસ સુધી ધૂમાડાના રંગની જે સૂક્ષ્મ જલ જેવી ધૂમ્મસ પડે છે તેને ધૂમિકાકૃષ્ણ કહેવાય છે. તેવી ધૂમ્મસ હોય ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૯) મહિકાશ્વેત–શીતકાળમાં શ્વેતવર્ણવાળી સૂક્ષ્મ જલરૂપી જે ધુમ્મસ પડે છે. તે મહિકાશ્વેત છે ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૦) રજઉદ્દઘાત–ચારે દિશામાં પવનથી બહુ ધૂળ ઉડે. અને સૂર્ય ઢંકાઈ જાય. તે રજઉદ્દાત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨) ઔદારિક શરીર સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય (૧૧-૧૨-૧૩) હાડકાં-માંસ અને રૂધિર આ ત્રણ વસ્તુ અગ્નિથી સર્વથા બળી ન જાય, પાણીથી ધોવાઈ ન જાય અને સામે દેખાય તો ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. ફૂટેલું ઇંડુ હોય તો અસ્વાધ્યાય. (૧૪) મળ-મૂત્ર—સામે દેખાય, તેની દુર્ગધ આવે ત્યાં સુધી અસ્વાધ્યાય. (૧૫) સ્મશાન—આ ભૂમિની ચારે બાજુ ૧૦૦/૧૦૦ હાથ અસ્વાધ્યાય. (૧૬) ચંદ્રગ્રહણ–જ્યારે ચંદ્રગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૮ મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૨ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૭) સૂર્યગ્રહણ—જ્યારે સૂર્યગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૧૨ મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૬ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૮) રાજવ્યગ્રત–નજીકની ભૂમિમાં રાજાઓની પરસ્પર લડાઈ થતી હોય ત્યારે, તથા લડાઈ શાન્ત થયા પછી ૧ દિવસ-રાત સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૯) પતન–કોઈ મોટા રાજાનું અથવા રાષ્ટ્રપુરુષનું મૃત્યુ થાય તો તેનો અગ્નિસંસ્કાર ન થાય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય કરવો નહીં તથા નવાની નિમણુંક ન થાય ત્યાં સુધી ઊંચા અવાજે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૦) ઔદારિક શરીર–ઉપાશ્રયની અંદર અથવા ૧૦૦-૧૦૦ હાથ સુધી ભૂમિ ઉપર બહાર પંચેન્દ્રિયજીવનું મૃતશરીર પડ્યું હોય તો તે નિર્જીવ શરીર હોય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૧થી ૨૮) ચાર મહોત્સવ અને ચાર પ્રતિપદા–આષાઢ પૂર્ણિમા, (ભૂતમહોત્સવ), આસો પૂર્ણિમા (ઇન્દ્ર મહોત્સવ), કાર્તિક પૂર્ણિમા (સ્કંધ મહોત્સવ), ચૈત્રી પૂર્ણિમા (યક્ષમહોત્સવ, આ ચાર મહોત્સવની પૂર્ણિમાઓ તથા તે ચાર પછીની કૃષ્ણપક્ષની ચાર પ્રતિપદા (એકમ) એમ આઠ દિવસ સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૯થી ૩૦) પ્રાતઃકાલે અને સભ્યાકાળે દિશાઓ લાલકલરની રહે ત્યાં સુધી અર્થાત સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તની પૂર્વે અને પછી એક-એક ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૩૧થી ૩૨) મધ્ય દિવસ અને મધ્ય રાત્રિએ આગળ-પાછળ એક-એક ઘડી એમ બે ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો. ઉપરોક્ત અસ્વાધ્યાય માટેના નિયમો મૂલપાઠના અસ્વાધ્યાય માટે છે. ગુજરાતી આદિ ભાષાંતર માટે આ નિયમો નથી. વિનય એ જ ધર્મનું મૂલ છે. તેથી આવા આવા વિકટ પ્રસંગોમાં ગુરુની અથવા વડીલની ઇચ્છાને આજ્ઞાને જ વધારે અનુસરવાનો ભાવ રાખવો. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय के प्रमुख नियम (१) (३) इस सूत्र के मूल पाठ का स्वाध्याय दिन और रात्री के प्रथम प्रहर तथा चौथे प्रहर में किया जाता है। प्रात: ऊषा-काल, सन्ध्याकाल, मध्याह्न और मध्य रात्री में दो-दो घडी (४८ मिनिट) स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, सूर्योदय से पहले २४ मिनिट और सूर्योदय के बाद २४ मिनिट, इस प्रकार दो घड़ी सभी जगह समझना चाहिए। मासिक धर्मवाली स्त्रियों को स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, इसी प्रकार उनके सामने बैठकर भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, जहाँ ये स्त्रियाँ न हों उस स्थान या कक्ष में बैठकर स्वाध्याय किया जा सकता है। नीचे लिखे हुए ३२ अस्वाध्याय-प्रसंगो में वाँचना नहीं चाहिए(१) आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्यायकाल (१) उल्कापात-बड़ा तारा टूटे उस समय १ प्रहर (तीन घण्टे) तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२) दिग्दाह—किसी दिशा में अधिक लाल रंग हो अथवा किसी दिशा में आग लगी हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । गर्जारव-बादलों की भयंकर गडगडाहट की आवाज सुनाई देती हो, बिजली अधिक होती हो तो २ प्रहर (छ घण्टे) तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। निर्घात–आकाश में कोई व्यन्तरादि देवकृत घोर गर्जना हुई हो अथवा बादलों के साथ बिजली के कडाके की आवाज हो तब आठ प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । विद्युत—बिजली चमकने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए यूपक-शुक्ल पक्ष की प्रथमा, द्वितीया और तृतीया के दिनो में सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा का मिलान हो तो उसे यूपक कहा जाता है। इस प्रकार यूपक हो उस समय रात्री में प्रथमा १ प्रहर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए (८) यक्षादीप्त—यदि किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा प्रकाश हो तो उसे यक्षादीप्त कहते हैं, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । धूमिका कृष्ण-कार्तिक से माघ मास तक धुंए के रंग की तरह सूक्ष्म जल के जैसी धूमस (कोहरा) पड़ता है उसे धूमिका कृष्ण कहा जाता है इस प्रकार की धूमस हो उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) महिकाश्वेत—शीतकाल में श्वेत वर्णवाली सूक्ष्म जलरूपी जो धूमस पड़ती है वह महिकाश्वेत कहलाती है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (१०) रजोद्घात—चारों दिशाओं में तेज हवा के साथ बहुत धूल उडती हो और सूर्य ढँक गया हो तो रजोद्घात कहलाता है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (९) ऐतिहासिक शरीर सम्बन्धी १० अस्वाध्याय — (११,१२,१३) हाड-मांस और रुधिर ये तीन वस्तुएँ जब तक अग्नि से सर्वथा जल न जाएँ, पानी से धुल न जाएँ और यदि सामने दिखाई दें तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । फूटा हुआ अण्डा भी हो तो भी अस्वाध्याय होता है । (१४) (१५) (१६) मल-मूत्र – सामने दिखाई हेता हो, उसकी दुर्गन्ध आती हो तब-तक अस्वाध्याय होता है । I श्मशान — इस भूमि के चारों तरफ १०० - १०० हाथ तक अस्वाध्याय होता है । (१९) चन्द्रग्रहण—जब चन्द्रग्रहण होता है तब जघन्य से ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १२ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए | (१७) सूर्यग्रहण – जब सूर्यग्रहण हो तब जघन्य से १२ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १६ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१८) राजव्युद्गत — नजदीक की भूमि पर राजाओं की परस्पर लड़ाई चलती हो, उस समय तथा लड़ाई शान्त होने के बाद एक दिन-रात तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । पतन — कोई बड़े राजा का अथवा राष्ट्रपुरुष का देहान्त हुआ हो तो अग्निसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए तथा उसके स्थान पर जब तक दूसरे व्यक्ति की नई नियुक्ति न हो तब तक ऊंची आवाज में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२०) औदारिक शरीर — उपाश्रय के अन्दर अथवा १०० - १०० हाथ तक भूमि पर उपाश्रय के बाहर भी पञ्चेन्द्रिय जीव का मृत शरीर पड़ा हो तो जब तक वह निर्जीव शरी वहाँ पड़ा रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२१ से २८) चार महोत्सव और चार प्रतिपदा - आषाढ़ी पूर्णिमा ( भूत महोत्सव), आसो पूर्णिमा (इन्द्रिय महोत्सव), कार्तिक पूर्णिमा ( स्कन्ध महोत्सव), चैत्र पूर्णिमा (यक्ष महोत्सव) इन चार महोत्सवों की पूर्णिमाओं तथा उससे पीछे की चार, कृष्ण पक्ष की चार प्रतिपदा (ऐकम) इस प्रकार आठ दिनों तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९ से ३०) प्रातःकाल और सन्ध्याकाल में दिशाएँ लाल रंग की दिखाई दें तब तक अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त के पहले और बाद में एक-एक घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (३१ से ३२) मध्य दिवस और मध्य रात्री के आगे-पीछे एक-एक घड़ी इस प्रकार दो घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त अस्वाध्याय सम्बन्धी नियम मूल पाठ के अस्वाध्याय हेतु हैं, गुजराती आदि भाषान्तर हेतु ये नियम नहीं है । विनय ही धर्म का मूल है तथा ऐसे विकट प्रसंगों में गुरू की अथवा बड़ों की इच्छा एवं आज्ञाओं का अधिक पालन करने का भाव रखना चाहिए । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १-४ ५-८ ९-५१ ५२-६४ ६५-७६ ७७-७८ ७९-८१ ८२-८६ ८७-८८ श्री दशवैकालिक सूत्रकी विषयानुक्रमणिका अनुक्रमाङ्क विषय प्रथम अध्ययन १ मङ्गलाचरण धर्ममहिमा२ अहिंसा का स्वरूप३ संयमका स्वरूप एवं मुखवत्रिका संबन्धि विचार ४ तपके भेदों का निरूपण ५ गोचरी विधिमें भ्रमर का दृष्टान्त ६ भिक्षागृहण वेषयक शिष्यकी प्रतिज्ञा ७ साधुओं का स्वरूप कथन __ दूसरा अध्ययन ८ श्रामण्य में अधिकारी का लक्षण - ९ त्यागी का स्वरूप कथन१० कामरागके दोषों का विचार११ कामराग निवारण का उपाय१२ छोडे हुए भोगों का पुनः, अंगीकार करने में सर्पका दृष्टान्त - १३ राजीमती के द्वारा प्रतिबोध को प्राप्त हुआ रथनेमी का संयममें स्थिरभाव रहने से पुरुषोत्तमत्व की सिद्धि __ तीसरा अध्ययन १४ मुनियों के आचार का निरूपण में महर्षियों के स्वरूपनिरूपण१५ (५२) अनाचीर्ण १६ शय्यातर विचार१७ वसति याचन विधि१८ शय्यातर के घरमें कल्प्यकल्प्य की विधि१९ (५२) अनाचीर्ण२० अनाचीर्ण त्यागी मुनिकास्वरूप२१ उपसंहार अध्ययन समाप्ति - चतुर्थ अध्ययन १०६ १०७-११२ ११३-११६ ११७-१२१ १२२-१२८ १२९-१३० १३१-१३२ १३३-१३८ १३९-१४४ १४५-१४६ १४७-१५० શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प २३५ अनुक्रमाङ्क विषय २२ प्रवचन संबन्धी आप्तोपदेश १५१-१५२ २३ भगवत् शब्द का अर्थ तथा षट् जीवनिकाय का स्वरूप १५३-१७५ २४ षट् जीवनिकाय के दण्ड परित्याग का उपदेश १७६-१८५ २५ प्राणातिपातादि पंचअप्रत एवं रात्री भोजन विरमण १८६-२०४ २६ शिष्य का महाव्रत स्वीकार २०५२७ पृथ्विकायादि षट्काययतना का स्वरूप कथन २०६-२२७ २८ अयतना से दुःख फल प्राप्ति का कथन एवं यतनावान को पापबन्धनन होने का कथन २२८-२३४ २९ ज्ञान प्राप्ति का उपाय ३० संयमज्ञ का परिचय २३६-२३७ ३१ पुण्य का स्वरूप एवं जीवों के कर्मबन्ध के स्वरूप कथन २३८-२५४ ३२ मोक्ष का स्वरूप २५५-२६२ ३३ पुण्यादि ज्ञानसे भोग का विचार २६३-२६४ ३४ भोग के विचार से संयोगादि का त्याग एवं संवरधर्म तथा शुक्ल ध्यान व लोकस्वरूपका कथन २६५-२६८ ३५ शैलेशीकरण का स्वरूप तथा अयोगी ध्यान की सिद्धि और खिद्धों के उर्ध्व स्वरूपगमन का कथन २६९-२८८ ३६ सुगति धर्म फल किस को दुर्लभ एवं किस को सुलभ है उसका कथन २८९--२९० ३७ चारित्र का महत्व एवं अध्ययन का उपसंहार २९१-२९३ पांचवां अध्ययन ३८ पांचवां अध्ययन की अवतरणिका २९४-२८५ ३९ भक्तपान गवेषण की विधि २९६ ४० गोचरी में चित्त की स्थिरता का उपदेश २९७-२९८ ४१ गोचरी गमन की विधि २९९-३०० ४२ विषममार्गसे जाने में संयमविराधनाका संभव ३०१-३०२ ४३ गमनमें पृथ्वीकायकी यतना रखने का विचार ३०२४४ अपकायादिकी यतनाका विचार ३०३४५ चतुर्थ महाव्रत-ब्रह्मचर्य यतनाका विचार ३०४-३०६ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ अनुक्रमाङ्क विषय ४६ मार्ग गमन में यतनाका विचार ४७ गोचरीमें कायचेष्टा का विचार ४८ गोचरीमें कुल (गृह) प्रवेशविधि का विचार ४९ भिक्षा के लिये स्थितमुनिकी कायचेष्टा का विचार ५० गृहस्थके घर स्थित रहनेका विचार ५१ पाकादिकार्यमें स्त्रीकी उपस्थितिका विचार ५२ संहरणमें चतुर्भङ्गीका विचार ५३ पुरः कर्मका कथन ५४ पश्चात्कर्मका कथन ५५ आहार गृहणमें विवेक विचार ५६ शंकित-मुद्रित आहार गृहणका निषेध ५७ दानादि के लिये या पुण्यके लिये उपकल्पित आहार गृहणका निषेध ५८ औद्दोशिक क्रीत्कृतादि आहारका विचार ५९ निःशङ्कित आहार गृहणकी आज्ञा ६० तेजोविराधनामें आहार गृहणका निषेध ६१ दुर्गममार्ग में गमन का निषेध ६२ मालाहृत भिक्षाका निषेध ६३ आहार गृहण विवेक विचार ६४ त्याज्य फलों के नामोल्लेख ६५ पान गृहण विधि ६६ कारणोपस्थितिमें गोचरीमें आहारविधि ६७ आहारमें आये बीजादिका परिठवनकी विधि ६८ उपाश्रय में आकरही आहार करने का कथन ६९ गोचरीमें अतिचारोंकी आलोचनविधि ७० कायोत्सर्गमें चिन्तनप्रकार ७१ अन्यमुनियोंको आहार गृहणके लिये प्रार्थनाका विचार ७२ आहार का उपभोगकी विधि ३०७-३०८ ३०९-३१३ ३१४-३१७ ३१८-३१९ ३२०-३२२ ३२३ ३२४-३३० ३३१-३३४ ३३५-३३७ ३३८-३४३ ३१४ ३४५-३५१ ३५२-३५६ ३५७-३५८ ३५९-६६१ ३६२-३६३ ३६४-३६६ ३६७-३६८ ३६९-३७० ३७१-३७७ ३७८-३८१ ३८२ ३८३-३८४ ३८५ ३८६-३८७ ३८८-३९० ३९१-३९४ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ विषय पृष्ठ ३९४-३९५ ३९६-३९९ ४००-४०१ ४०२-४०३ ४०३-४०६ ४०७-४०८ अनुक्रमाङ्क ७३ मुधा दाता एवं मुधा उपभोक्ताका मोक्षगमन का कथन ___ पांचवें अध्ययन का दूसरा उद्देश ७४ अपर्याप्त आहार होने पर पुनर्गोचरी गमन की विधि ७५ समय की मर्यादानुसार गोचरी गमन का कथन ७६ गोचरी में क्षेत्र यतना का कथन ७७ भिक्षाके लिये गृहप्रवेश विधि ७८ पुष्प संस्पर्शहस्तसे भिक्षालेनेका निषेध ७९ सचित्त हरितकाय गृहणका निषेध ८. सचित्त आहार पान लेनेका निषेध ८१ भिक्षाचरणमें विवेकशील होने का कथन ८२ भिक्षामें चोरी का निषेध एवं चोरी के दोष ८३ मद्यपान का निषेध ८४ मध सेवन करनेवाले के दोषका कथन ८५ मद्यपान के दोषोंका त्याग करनेवालेका गुण कथन ८६ तपचोर के र्दोष कथन ८७ तपचोर को अनिष्ट फल प्राप्तिका कथन ८८ उपसंहार ४१०-४११ ४१२-४१८ ४१९-१२२ ४२३-४२४ ४२५-४२९ ४३०-४३२ ४३३-४३५ ४३६-४३७ ४३८-४४० समाप्त શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्रीघासीलालवतिविरचितया आचारमणिमजूषाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम् मङ्गलाचरणम्. नम्री भूतपुरन्दरादिमुकुट, भ्राजन्मणिच्छायया, चित्रानन्दकरी सदा भगवतो, यस्याद्धिलक्ष्मीः परा। यद्विज्ञाननिरन्तसिन्धुलहरी, मनाः स्वकर्मक्षयं, कृत्वाऽनन्तसुखस्य धाम भविनः, प्रापुः श्रये तं जिनम् ॥१॥ विमलः केवलाऽऽलोक,-प्रभासंभारभोसुरः । त्रिजगन्मुकरो धीरो, वीरो विजयतेतराम् ॥२॥ श्रीसुधर्मा महावीर-लब्धरत्नोज्ज्वलो गणी । निबबन्ध तदुक्ताथै, नमस्तस्मै दयालवे ॥३॥ अर्थतत्करुणालब्ध,-विवेकामृतबिन्दुना । दशवैकालिकव्याख्या, घासीलालेन तन्यते ॥४॥ __ अथ प्रथममध्यनयम् । मूलम्-धम्मो मंगलमुक्टिं, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमंसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ छाया-धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टम्, अहिंसा संयमस्तपः । देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः ॥१॥ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ श्रीदशवेकालिकसूत्रे जीवों की रक्षा करने रूप उक्किट्ठे - उत्कृष्ट - सबसे श्रेष्ठ सया - सदा - हमेशां धम्मे नमसंति = नमस्कार करते सान्वयार्थः- अहिंसा=प्राणव्यपरोपणका त्याग करने तथा अहिंसा संजमो - संयम और तवो - तप (यह ) धम्मो = धर्म मंगलं=मङ्गल है– कल्याणकारी है । जस्स - जिसका मणो मन = धर्म में ( लगा रहता है) तं= उसको देवावि = देवता भी हैं, अर्थात् निरन्तर धर्ममें लीन प्राणी देवोंद्वारा भी पूज्य हो जाते हैं ॥१॥ टीका – 'धम्मो मंगल' - मित्यादि । धर्मः = धरति = प्राणीनो दुर्गतौ पतनाद् रक्षति शुभे स्थाने च स्थापयति यः स तथोक्तः । उक्तश्च " दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून्, यस्माद्धारयते पुनः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म्म इति स्मृतः ॥ १ ॥” इति । उत्कृष्टम् – उत्तमं, मङ्गलं - मङ्गलस्वरूपम्, कस्तादृशो धर्मः ? इत्यत आह - अहिंसा संयमस्तप इति । तत्राऽहिंसा नाम हिंसावर्जनं प्राणिप्राणरक्षणं तदिच्छा चेति । न हिंसा - अहिंसेति विग्रहे अहिंसाया अभावरूपत्वेनाऽवस्तुतया किमपि कार्य प्रति कारण हिन्दी-भाषानुवाद. धम्मो मंगल मित्यादि । जो नरक आदिमें गीरते हुए प्राणियों को बचाने और स्वर्गमोक्ष आदि शुभस्थानों में पहुंचावे उसे धर्म कहते हैं । कहा भी है- "दुर्गतिमें पड़ते हुए जीवों की रक्षा करता है और फिर उन्हें शुभगति में पहुंचाता है, इसीसे वह धर्म कहलाता है " ॥ अर्थात् जो दुःखों से छुडाकर प्राणियों को अनन्त सुखकी प्राप्ति कराता है वही धर्म है । धर्म उत्कृष्ट मङ्गल है | अहिंसा, संयम और तप, ये तीनों उसके लक्षण हैं । अहिंसा -- हिंसाका त्याग करना अर्थात् प्राणियों के प्राणों की रक्षा करना और उनके प्राणों के रक्षण की इच्छा रखना अहिंसा है। हिंसा के अभाव को अहिंसा कहा जाय शुभराती भाषानुवा६. 'धम्मो मंगल' इत्यादि ने नए महि दुर्गतिमां पडता आलीयोने मन्यावे अने સ્વગ માક્ષ આદિ શુભ સ્થાનામાં પહેાંચાડે તેને ધર્મ કહે છે. કહ્યું પણ છે કે- ‘દુર્ગતિમાં પડતા જીવેાની રક્ષા કરે છે અને પછી તેમને શુભ ગતિમાં પહોંચાડે છે, તેથી તે ધમ કહેવાય છે. ’ અર્થાત્ દુ:ખાથી છેડાવીને પ્રાણીઓને અનંત સુખની પ્રાપ્તિ જે કરાવે છે, તે ધર્મ છે. ધર્મ ઉત્કૃષ્ટ મોંગલ છે, અહિ ંસા, સયમ અને તપ, એ ત્રણ તેનાં લક્ષણા છે. અહિ'સા–હિ'સાને ત્યાગ કરવા અર્થાત્ પ્રાણીઓના પ્રાણની રક્ષા કરવી અને તેમના પ્રાણેાની રક્ષા કરવાની ઇચ્છા રાખવી એ અહિંસા છે, હિં'સાના અભાવને અહિંસા કહેવામાં શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ धर्ममहिमा त्वाऽनापत्तिरतोऽहिंसाऽपि भावरूपैव, तेन प्राणरक्षणमप्यहिंसाशब्दार्थः सिध्यति । ये तु स्वतः परतो वा प्राणिप्राणरक्षणमहिंसेति न मन्यन्ते ते तु अहिंसाशब्दरहस्यानभिज्ञा एवेति बोध्यम् । उक्तं हिं भगवता प्रश्नव्याकरणे प्रथमसंवरद्वारे-- " इमं च णं सव्वजीवरक्खणदयट्ठाए पावयणं भगवया सुकहियं" इत्यादि । सकलजीवानां रक्षणं प्राणव्यपरोपणवारणं प्राणरक्षणोपयोगी व्यापार इति यावत् तदर्थ, दया परदुःखप्रहाणेच्छा तदर्थ चेदं प्रवचनं भगवता सुकथितमित्यर्थः, उक्तश्च दयाशब्दार्थों वाचस्पत्याभिधाने “यत्नादपि परक्लेशं, हत्त या हृदि जायते । इच्छा भूमिसुरश्रेष्ठ ! सा दया परिकीर्तिता ॥१॥” इति । तस्मात् सर्वप्राणिनां रक्षण रक्षणेच्छा चेति द्वयमेवाहिंसातत्त्वं सकलधर्ममूलम्चेति। उक्तश्च संस्तारकप्रकीर्णकटीकायाम्-- तो अहिंसा अभावरूप हो जायगो । अभाव किसी कार्य के प्रति कारण नहीं हो सकता, इस कारण अहिंसा से स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ती नहीं होगी, अतएव अहिंसा को भावरूप (वस्तुरूप) मानना उचित है, और जब कि वह वस्तुरूप है तो प्राणो की रक्षा करना अहिंसाशब्द का अर्थ सिद्ध हुआ । जो जीवों की रक्षा करने कराने को अहिंसा नहीं मानते वे अहिंसा के यथार्थ तत्त्वको नहीं जानते । भगवानने प्रश्नव्याकरणके प्रथम संवरद्वार में कहा है--"समस्त जीवों की रक्षा (मरते हुएको, अपने या दूसरों के द्वारा बचाना) और दया (दुःखो से छुडानेकी इच्छा) के लिए इस प्रवचन का उपदेश दिया है "। वाचस्पत्य महाकोशमें कहा भी है-“हे भूमिसुरश्रेष्ठ ! प्रयत्नसे पर प्राणियों के क्लेशको निवारण करनेके लिए हृदयमें जो इच्छा उत्पन्न होती है उसे दया कहते हैं " ॥१॥ આવે તે અહિંસા અભાવ-રૂપ થઈ જશે. અભાવ કોઈ કાર્યને પ્રતિ કારણ થઈ શકતું નથી, તેથી કરીને અહિંસાથી સ્વર્ગ મેક્ષની પ્રાપ્તિ નહિ થાય. એટલે અહિંસાને ભાવરૂપ (વસ્વરૂપ) માનવી જ ઉચિત છે. અને જે તે વસ્તુરૂપ છે, તે પ્રાણેની રક્ષા કરવી એ અહિંસા શબ્દનો અર્થ સિદ્ધ થયો. જેઓજી ની રક્ષા કરવી-કરાવવી એને અહિંસા નથી માનતા તેઓ અહિંસાના યથાર્થ તત્વને જાણતા નથી. ભગવાને પ્રશ્નવ્યાકરણના પ્રથમ સંવરદ્વારમાં કહ્યું છે કે- “બધા જીવની રક્ષા (મરતા જીવને પિતે અથવા બીજાઓ દ્વારા બચાવવા) અને દયા (દુઃખથી છોડાવવાની ઈચ્છા)ને માટે આ પ્રવચનને ઉપદેશ આપે છે. ” વાચસ્પત્ય મહાકેશમાં પણ કહ્યું છે કે-“હે ભૂમિસુરિશેષ ! પ્રયત્ન વડે પર પ્રાણીઓના કલેશનું નિવારણ કરવાને માટે હૃદયમાં જે ઈચ્છા ઉત્પન્ન થાય છે તેને દયા કહે છે.” - શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे "न तहानं न तद्धयानं, न तज्ज्ञानं न तत्तपः । न सा दीक्षा न सा भिक्षा, दया यत्र न विद्यते ॥१। इति । तथा-"मूलं धम्मस्स दया, तयणुगयं सव्वमेवऽणुट्ठाणं ।। सिद्धं जिणिदसमए, मग्गिज्जइ तेणिह दयालू ॥१॥” इति धर्मरत्नप्रकरणे। भगवतीसूत्रेऽपि पञ्चदशे शतके प्रोक्तम्-- "तए णं अहं गोयमा ? गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अणुकंपणट्टयाए वेसियायणस्स चालतवस्सिस्स तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा अहं सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, जाए सा ममं सोयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स सा उसिणा तेयलेस्सा पडिहया" इति । हे गौतम ! मङ्खलिपुत्रस्य गोशालकस्यानुकम्पनार्थं बालतपस्विनो वैश्यायनस्य तेजःप्रतिसंहरणार्थ च मया शीतलां तेजोलेश्यामुद्भाव्य तदीयोष्णा तेजोलेश्या प्रतिहतेत्यर्थः तत्र 'अणुकंपणट्टयाए' 'तेयपडिसाहरणट्टयाए' इति पदद्वयेन गोशालकरक्षणार्थ भगवतस्तेजोलेश्यासमुद्भव इति स्पष्टो भवति । संथारगपइन्नाकी टीकामें कहा है-“वह दान दान नहीं, वह ध्यान ध्यान नहीं, वह ज्ञान ज्ञान नहीं, वह तप तप नहीं, वह दीक्षा दीक्षा नहीं और वह भिक्षा भिक्षा नहीं, जहाँ कि दया नहीं है । अर्थात् दयारहित सब क्रियाएँ मिथ्या यानी निष्फल हैं" ॥ २॥ धर्मरत्नप्रकरणमें भी कहा है-"धर्मका मूल दया है, दयापूर्वक की हुई समस्त क्रियाएं सफल होती हैं, इसलिए जिनेन्द्र के मार्गमें दयावान् ही धर्मका अधिकारि हो सकता है" ॥ ३ ॥ उक्त कथनसे यह स्पष्ट हो गया कि मरते हुए प्राणीको बचाना भी अहिंसा है। भगवतीसूत्रके पन्द्रहवें शतकमें भगवान श्रीगौतमसे कहते हैं-- "हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालककी अनुकम्पा करनेके लिए मैंने शीतल तेजोलेश्यासे बालतपस्थी वैश्यायनके द्वारा निकाली हुई उष्ण तेजोलेश्याका तेज शान्त करके उसे बचाया" । यहां यह संदेह हो सकता है कि यदि बचाने में धर्म होता तो भगवान्ने अपने समवसरणमें स्थित सर्वानुभूति और सुनक्षत्र नामक शिष्यों को क्यों न बचाया ? સંથારગપઈનાની ટીકામાં કહ્યું છે કે- “એ દાન દાન નથી, એ ધ્યાન ધ્યાન નથી, એ જ્ઞાન જ્ઞાન નથી, એ તપ તપ નથી, એ દીક્ષા દીક્ષા નથી, અને એ ભિક્ષા ભિક્ષા નથી કે જ્યાં દયા નથી; અર્થાત્ દયારહિત બધી ક્રિયાઓ મિથ્યા એટલે નિષ્ફળ છે. ” ૨ છે ધર્મરત્નપ્રકરણમાં પણ કહ્યું છે કે—“ધર્મનું મૂળ દયા છે; દયાપૂર્વક કરેલી બધી ક્રિયાઓ સકળ થાય છે, તેથી જીનેન્દ્રના માર્ગમાં દયાવાન જ ધર્મના અધિકારી થઈ શકે છે. ” ૩ ઉક્ત કથનથી એ સ્પષ્ટ થઈ ગયું કે મરતા પ્રાણીને બચાવવો એ પણ અહિંસા છે. ભગવતીસૂત્રના પંદરમા શતકમાં ભગવાન્ શ્રી ગૌતમને કહે છે કે –“હે ગૌતમ ! બાલતપવી વૈશ્યાયન દ્વારા કાઢવામાં આવેલી ઉષ્ણ તેજલેશ્યાના તેજને શીતલ તેલેશ્યાથી શાંત કરીને; મંખલિપુત્ર ગોશાલકની ઉપર દયા કરવા માટે મેં તેને બચાવ્યું.” શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ अहिंसास्वरूपम् न च रक्षणं यदि धर्मस्तर्हि स्वसमवसरणे वर्तमानौ सर्वानुभूतिसुनक्षत्रनामानौ शिष्यौ किं न भगवता रक्षितौ ? इति वाच्यम् , भगवतः सर्वज्ञतया तयोरायुःसमाप्तिसन्दर्शनात् । ननु यथा समाप्तायुषं कोऽपि नैव रक्षितुं प्रभवति तथा विद्यमानायुषं न कोऽपि हन्तुं शक्नुयात् ? इति चेन्न, त्रिषष्टिशलाकापुरुषान् देवान् नारकांश्च विहायान्येषां प्राणिनामायुषः सत्त्वेऽपि विषशस्त्रादिभिरकालमरणसंभवात्, इदृशस्याकालमरणस्य बहुशः शास्त्रे प्रतिपादितत्वाच्च, अत एवाऽऽयुषः सत्त्वेऽपि प्राणिनां प्राणव्यपरोपणं संभवतीति ग्रन्थविस्तरभिया विरमामः । एवञ्चाहिंसाशब्दस्योक्तार्थः सुस्पष्ट एव । इसका समाधान यह है कि भगवान् सर्वज्ञ थे, इसलिए किसका आयुष्य कितना अवशेष है या समाप्त हो चुका है इसे वे अपने निर्मल केवल ज्ञानसे जानते थे । सर्वानुभूति और सुनक्षत्र शिष्योंका वर्तमान आयुष्य समाप्त हो चुका था । प्रश्न-जैसे वर्तमान आयुष्य समाप्त होने पर कोई किसीको बचा नहीं सकता वैसे ही आयुष्य रहते हुए कोई किसीको प्राणरहित भी नहीं कर सकता ? उत्तर-ऐसी शङ्का करना भी उचित नहीं है । क्योंकि त्रिषष्टिशलाकापुरुष, देवता और नारकोंके सिवाय समस्त प्राणियोंकी आयु रहते हुए भी विष शस्त्र आदि कारणोंसे अकालमृत्यु भी हो सकती है, यह बात शास्त्रसिद्ध है, अत एव आयुष्यके सद्भावमें भी प्राणों का व्यपरोपण हो सकता है। विस्तार भयसे इस प्रकरणको यहाँ ही समाप्त करते हैं। प्राणिप्राणरक्षण और उसकी इच्छाको अहिंसा कहते हैं । यह सिद्धान्त हुआ। અહીં એ સંદેહ થઈ શકે છે કે–જે બચાવવામાં ધર્મ થાય છે તે ભગવાને પિતાના સમવસરણમાં રહેલા સર્વાનુભૂતિ અને સુનક્ષત્ર નામના શિષ્યોને કેમ ન બચાવ્યા? એનું સમાધાન એ છે કે-ભગવાન સર્વજ્ઞ હતા, તેથી કેનું આયુષ્ય કેટલું અવશેષ રહ્યું છે અથવા સમાપ્ત થઈ ચૂકયું છે તે ભગવાન પોતાના નિર્મળ કેવળ જ્ઞાનથી જાણતા હતા. સર્વાનુભૂતિ અને સુનક્ષત્ર શિષ્યોનું વર્તમાન આયુષ્ય સમાપ્ત થઈ ચૂક્યું હતું. પ્રશ્ન–જેમ વર્તમાન આયુષ્ય સમાપ્ત થવાથી કંઈ કોઈને બચાવી શકતું નથી; તેમજ આયુષ્ય બાકી હોય તો કઈ કઈને પ્રાણરહિત પણ કરી શકતું નથી. ઉત્તર—એવી શંકા કરવી જ ઉચિત નથી, કેમકે ત્રિષષ્ટિશલાકા પુરૂષ, દેવતા અને નારકીઓ સિવાય બીજા બધા પ્રાણીઓનું આયુષ્ય બાકી હોય તે પણ વિષ, શસ્ત્ર, આદિ કારણેથી તેમનું અકાળ મૃત્યુ પણ થઈ શકે છે. એ વાત શાસ્ત્રસિદ્ધ છે. એટલે આયુષ્યને સદ્ભાવ હોવા છતાં પણ પ્રાણનું વ્યપરોપણ થઈ શકે છે. વધારે વિસ્તાર નહિ કરવાના હેતુથી આ પ્રકરણને અહીં જ સમાપ્ત કરીએ છીએ. પ્રાણિપ્રાણરક્ષણ અને તેની ઈચ્છાને અહિંસા કહે છે એ સિદ્ધાન્ત થશે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे अथ प्राणिप्राणरक्षणं तदिच्छा चेति द्वयम् 'अहिंसे'-ति सिद्धान्तितम् । अहिंसाइत्यत्र का नाम हिंसेति चेदुच्यते हिंसा नाम प्रमादपारवश्यात् प्राणव्यपरोपणम् । प्रमादश्च मद्य-विषयकषाय-निद्राविकथाभेदात्पञ्चधा, यद्वा अज्ञान-संशय-विपर्यय-राग-द्वेष-स्मृतिभ्रंश-योगदुष्प्रणिधानधर्मानादरभेदादष्टविधः । सा च हिंसा त्रिविधा द्रव्यतो भावत उभयतश्चेति तत्र द्रव्यतो हिंसा आत्मनो विशुद्धपरिणामस्य सत्त्वेऽप्यकस्मादनिच्छया जन्तुविराधनं, यथा-भिक्षाचर्यादौ प्रवृत्तस्य समितिगुप्त्यादिधारकस्य चलनार्थ पादोत्थाने कृते एकेन चरणेन तिष्ठतः साधोरुत्थापितचरणतले तदानीं कुतश्विद्भयाद् दुर्लक्ष्यकारणवशाद्वा वेगेन समागतस्य कस्यचिद् द्वीन्द्रियादिजन्तोरितस्ततः साधुना तद्रक्षणप्रयासे कृतेऽपि अक स्माचरणतलसंलग्नतया विराधनम् । अहिंसा शब्द घटक जो हिंसा शब्द है उसका अभिप्राय क्या है ? इस पर कहते हैं-प्रमादके वश होकर प्राणका अतिपात करना हिंसा है । प्रमाद - (१) मद्य, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा और (५) विकथाके भेदसे पांच प्रकारका, अथवा (१) अज्ञान, (२) संशय, (३) विपर्यय, (४) राग, (५) द्वेष, (६) स्मृति-भ्रंश, (७) योगदुष्प्रणिधान, (८) धर्मानादर, के भेदसे आठ प्रकारका है । हिंसा तीन प्रकारकी है--(१) द्रव्यहिंसा, (२) भावहिंसा और (३) उभयहिंसा । (१) द्रव्यहिंसा-आत्माके परिणाम विशुद्ध होने पर भी अकस्मात् इच्छाके विना ही जन्तुको पीडा हो जाना द्रव्यहिंसा है, जैसे-आहार विहार आदिमें प्रवृत्त समिति और गुप्तिके धारण करनेवाले मुनिने जब एक चरण उठाया तो उठाये हुए चरणके नीचे किसी भयसे या अन्य कारणसे कोई द्वीन्द्रिय आदि लघुकाय जीव अचानक नीचे आ जाय और साधु उनकी रक्षा करनेका प्रयत्न भी कर रहे हों, फिर भी अचानक दब जानेसे बिराधना होना । इस અહિંસા શબ્દમાં જે હિંસા શબ્દ છે એને અભિપ્રાય શું છે? આ સંબંધમાં કહે છે– પ્રમાદને વશ થઈને પ્રાણુને અતિપાત કરે તે હિંસા છે. (१) मध, (२) विषय, (3) ४पाय, (४) निद्रा मने. (५) १४ा, ये मेहे रान प्रभात पाय प्रारना छे. अथवा (१) अज्ञान, (२) संशय, (3) विषय, (४) २ (५) द्वेष, (6) મૃતિભ્રંશ, (૭) ગદુપ્રણિધાન, (૮) ધર્મને અનાદર, એ ભેદે કરીને પ્રમાદ આઠ પ્રકાર છે डिसा प्रा२नी छ:- (१) द्रव्यडिसा, (२) माहिसा, मने (3) नया सा. (૧) દ્રવ્યહિંસા-આત્માના પરિણામ વિશુદ્ધ હોવા છતાં અકસ્માત્ ઈચ્છા વિના જંતુઓની વિરાધના થઈ જાય તે દ્રવ્યહિંસા છે. જેમકે–આહાર વિહાર આદિમાં પ્રવૃત્ત, સમિતિ અને ગુણિને ધારણ કરવાવાળા મુનિએ જ્યારે એક પગ ઉપાડે ત્યારે ઉપાડેલા પગની નીચે કાંઈ નયને લીધે અથવા બીજા કેઈ કાણુથી કઈ બેઈદ્રિય આદિ લઘુકાય શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ अहिंसास्वरूपम् एवंविधा च हिंसा काययोगस्य चपलतया सर्वथा परिहर्तुमशक्येति व्यवहारनयमात्रगम्या । ___ भावतो हिंसा प्राणव्यपरोपणेच्छालक्षण आत्मनोऽशुद्धपरिणामः, यथा-मकरनाम्नो जलजन्तुविशेषस्य भूप्रदेशे लब्धजन्मा तण्डुलदघ्नोऽन्तर्मुहूर्त्तायुष्कोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रगर्भनिवासानन्तरमुत्पादशीलस्तण्डुलाभिधानो मत्स्यविशेषस्तत्र स्थित एवावलोकयति-- मकरोऽयं मत्स्यानशितुं तावत्तुण्डतस्तोयमाकर्षति, ततश्च जलवेगादाननान्तःसमागतेषु प्रचुरतरेषु मीनेषु पश्चात्तानवरुध्याऽऽस्यगतं नीरं निस्सारयति तदा दशानान्तरावकाशनिर्गतोदकवेगतो बहुतरं मीना लघुतरा निस्सरन्त्येव । एवं बहिब्रजस्तानिरीक्ष्यासौ तण्डुलमत्स्यो मनसि विभावयतिप्रकारकी हिंसा, शरीरके योगकी चपलताको सर्वथा दूर करना अत्यन्त कठिन होनेके कारण व्यवहारनयमात्र है। (२) भावहिंसा-प्राणों से रहित करनेकी इच्छारूप आत्माका अविशुद्ध परिणाम, भावहिंसा कहलाती है। जैसे-मगर नामके जलचर-जीव-विशेषकी भोह पर बारीक चावलके समान शरीरवाला एक तन्दुल नामका मत्स्य होता है, वह अन्तर्मुहूर्त गर्भमें रहकर जन्म लेता है; उसकी आयु अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकी होती है। गर्भज न होनेके कारण उसको मन होता है । वह वहाँ (भौंह पर) बैठा हुआ मगरका कृत्य देखता है कि वह मगर जलजन्तुओं को खानेके लिए पहले अपने मुँहमें पानीको खींचता है, फिर पानीके वेगसे आईहुई मछलियों को मुँहमें रोककर जब पानीको निकालता है तब दाँतो के छिद्रों द्वारा पानीके साथ-साथ बहुतसो छोटी २ मछलियां निकल जाती हैं, तब निकलतो हुई मछलियों को देखकर तन्दुलमत्स्य विचारता है कि-- જીવ અચાનક પગ નીચે આવી જાય, અને મુનિ એની રક્ષા કરવાનો પ્રયત્ન પણ કરી રહ્યા હેય, તે પણ અચાનક દબાઈ જવાથી વિરાધના થાય. આ પ્રકારની હિંસા, શરીરના ગની ચપલતાને સર્વથા દૂર કરવી અત્યંત કઠિન હોવાને કારણે વ્યવહારનયમાત્ર છે. (૨) ભાવહિંસા–પ્રાણથી રહિત કરવાની ઈચ્છારૂપ આત્માનું અવિશુદ્ધ પરિણામ એ ભાવહિંસા કહેવાય છે. જેમકે-મગર નામના એક જળચર પ્રાણીની ભમ્મર પર ચેખા જેવા બારીક શરીર વાળો એક તંદુલ નામને મત્સ્ય થાય છે. એ મત્સ્ય અંતર્મુહૂત ગર્ભમાં રહીને જન્મ લે છે. તેનું આયુષ્ય અંતમુહૂર્ત જેટલું હોય છે. તે ગર્ભજ જીવ હોવાને લીધે તેને મન થાય છે. તે મગરની ભમ્મર પર બેઠે બેઠે મગરનું કૃત્ય જુએ છે કે આ મગર જળમાંના જીને ખાવાને માટે પહેલાં પોતાના મોંમાં પાણીને ખેંચે છે, પછી પાણીના વેગથી આવેલી માછલી એને મહેમાં રેકીને જ્યારે પાણીને કાઢી નાંખે છે, ત્યારે દાંતના છિદ્રો દ્વારા પાણીની સાથે સાથે ઘણુય નાની નાની માછલીઓ બહાર નીકળી જાય છે. એ નીકળી જતી મા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे “यदि मम वपुरीदृशं बृहत् स्यात् तर्हि मम मुखाग्निर्गन्तुमेकोऽपि मत्स्यो न शक्नुयात्, मया सर्वेऽपि भक्षिता भवेयुः "इति । इत्थं कलुषिताध्यवसायरूपया भावहिंसया स्वकीयमन्तर्मुहूर्तप्रमाणमायुष्यं समाप्य त्रयस्त्रिंशत्सागरप्रमाणं नरकायुष्यं निबध्यासौ (तण्डुलमत्स्यः) तमस्तमाऽभिधायाँ सप्तम्यां नरकपृथिव्यां नारकत्वेन समुत्पद्यते ।। यद्वा-अल्पीयसि प्रकाशे रज्जुमालोक्य 'व्यालोऽयं'-मित्यालोचयतः शस्त्रादिना तत्प्रहरणं तदभिलाषमात्रं वा रज्जोरचेतनत्वेन प्राणव्यपरोपणाऽभावेऽपि आत्मन उक्तस्वरूपाऽशुद्धपरिणामोदयाच्चतुर्गतिभवभ्रमणहेतुबन्धो नियतं भवति । उभयतो हिंसा=आत्मनोऽशुद्धपरिणामपूर्वकं प्राणव्यपरोपणं, यथा केनचिद् व्याधेन मृगजिघांसया शरप्रक्षेपेण कृतं तद्धननम् । इस (मगर) के तो दांतों के छिद्रों द्वारा वहुतसी मछलियां निकल जाती हैं, किन्तु, अगर मेरा शरीर मगरके बराबर होता तो मैं इनमेंसे एकको भी नहीं निकलने देता-सबको भक्षण कर जाता। इस प्रकार वह परम कलुषित अध्यवसायरूप भावहिंसासे तेंतीससागरप्रमाण नरेकायुष्य बांधकर अन्तर्मुहूर्तकी अपनी आयुष्यको समाप्त करके तमतमा नामकी सातवीं नरकपृथिवीके अन्दर नारकीपनमें उत्पन्न होता है । अथवा जैसे-मन्द-मन्द प्रकाशमें किसी हिंसकने रस्सीको सर्प समझकर क्रूर परिणामसे मारा, या मारनेका प्रयास किया तो वहां रस्सीके अचेतन होनेके कारण यद्यपि प्राणों का व्यपरोपण नहीं हुआ तथापि आत्मामें अशुद्ध परिणामके उदय होनेसे वह भी भावहिंसा है। उस हिंसासे निश्चय ही चतुर्गतिमें परिभ्रमण कराने वाले कर्मोका बन्ध होता है। (३) उभयहिंसा-अशुद्ध परिणामों से जीवका घात करना उभयहिंसा है, क्योंकि इस हिंसामें आत्माके अशुद्ध परिणाम और प्राणों का नाश दोनों पाये जाते हैं, जैसे-कोई व्याध લીઓને જોઈને. તંદુલ મત્સ્ય વિચારે છે કે આ મગરના દાંતનાં છિદ્રોની વાટે ઘણીય માછલીઓ બહાર નીકળી જાય છે, પરંતુ જે મારું શરીર મગરના જેટલું મોટું હેત તે હું એમાંથી એક પણ માછલીને બહાર નીકળવા ન દેત બધીયનું ભક્ષણ કરી જાત. જ આ પ્રમાણે એ પરમ કલુષિત અધ્યવસાયરૂપ ભાવહિંસાથી તેત્રીસ સગરનું નરકાયુષ્ય બાંધીને અંતમુહૂર્તનું આયુષ્ય સમાપ્ત કરે છે અને તમતમા નામની સાતમી નરકમૃથિવીની અંદર નારકીપણે ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા જેમ-મંદ મંદ પ્રકાશમાં કઈ હિંસકે દોરડાને સર્પ સમજીને કૂર પરિણામથી માર્યો, અથવા મારવા પ્રયાસ કર્યો, તે તેમાં દેરડું અચેતન હોવાથી જે કે પ્રાણનું વ્યપરોપણ થયું નહીં, તે પણ આત્મામાં અશુદ્ધ પરિણામને ઉદય હવે એ પણ ભાવહિંસા છે. આ હિંસાથી નિશ્ચિતપણે ચતુર્ગતિમાં પરિભ્રમણ કરનારાં કર્મોને બંધ થાય છે. (૩) ઉભયહિસા–અશુદ્ધ પરિણામોથી જીવને ઘાત કરવો એ ઉભયહિંસા છે, કેમકે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ संयमस्वरूपम् संयमः । संयमः संयमन सम्यगुपरमणं सावधयोगादिति संयमः, सच सप्तदशविधः, तदुक्तं समवायाङ्गे-- "सत्तरसविहे संजमे पण्णत्ते--(१) पुढवीकायसंजमे (२) आउकायसंजमे (३) तेउकायसंजमे (४) वाउकायसंजमे (५) वणस्सइकायसंजमे (६) बेइंदियसंजमे (७) तेइंदियसंजमे (८) चउरिदियसंजमे (९) पंचिंदियसंजमे (१०) अजीवकायसंजमे (११) पेहासंजमे (१२) उवेहासंजमे (१३) अवहटु(परिट्ठावणा)संजमे (१४) पमज्जणासंजमे (१५) मणसंजमे (१६) वयसंजमे (१७) कायसजमे" इति । ___छाया--सप्तदशविधः संयमः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-(१) पृथिवीकायसंयमः (२) अप्कायसंयमः (३) तेजस्कायसंयमः (४) वायुकायसंयमः (५) वनस्पति कायसंयमः (६) द्वीन्द्रियसंयमः (७) त्रीन्द्रियसंयमः (८) चतुरिन्द्रियसंयमः (९) पञ्चेन्द्रियसंयमः (१०) अजीवकायसंयमः (११) प्रेक्षासंयमः (१२) उपेक्षासंयमः (१३) अपहृत्यसंयमः (१४) प्रमाजनसंयमः (१५) मनःसंयमः (१६) वाक्संयमः (१७) कायसंयमः। तत्र (१) पृथिवीकायसंयमा सचित्तपृथिव्या हस्तपादादिना संघट्टनादिविरतिः हरिणको मारनेको इच्छासे बाण चलाता है और उससे उसके प्राणोंका नाश हो जाता है । संयम-सावद्ययोगसे सम्यक्प्रकारसे निवृत्त होनेको संयम कहते हैं । वह सतरह प्रकारका है। समवायाङ्गके सतरहवें समवायमें कहा है-(१) पृथिवीकायसंयम, (२) अप्कायसंयम, (३) तेजस्कायसंयम, (४) वायुकायसंयम, (५) वनस्पतिकायसंयम, (६) द्वीन्द्रियसंयम, (७) त्रीन्द्रियसंयम, (८) चतुरिन्द्रियसंयम, (९) पञ्चेन्द्रियसंयम, (१०) अजीवकायसंयम, (११) प्रेक्षासंयम, (१२) उपेक्षासंयम (१३) अपहृत्यसंयम (परिष्ठापनासंयम), (१४) प्रमार्जनासंयम, (१५) मनःसंयम, (१३) वाक्संयम, (१७) कायसंयम । (१) पृथिवीकायसंयम हाथ पैर इत्यादिसे सचित्त पृथिवीका संघटन (संघटन) आदिका वर्जन करना । એ હિંસામાં આત્માના અશુદ્ધ પરિણામ તથા પ્રાણ નાશ અને રહેલા હોય છે. જેમકેકઈ પારધી હરણને મારવાની ઈચ્છાથી બાણ છેડે છે અને એ રીતે હરણને પ્રાણુને નાશ थ/ लय छे. - સંયમ–સાવદ્યગથી સમ્યફ પ્રકારે નિવૃત્ત થવું તેને સંયમ કહે છે. સંયમ સત્તર પ્રકારનું છે. સમવાયાંગના સત્તરમા સમવાયમાં તે પ્રકારે કહ્યા છે. (૧) પૃથિવીકાય सयम, (२) २५५४ासयम, (3) ते४२४३यसयम, (४) वायुयस यम, (५) वनस्पतियसयम, (१) दीन्द्रययभ, (७) allन्द्रयसयम, (८) यतुन्द्रियसयम, (८) पचन्द्रियसयम, (१०) १४ायसयम (११) प्रेक्षासंयम, (१२) उपेक्षासयम, (13) अपत्यसयम (परिठापना सयम), (१४) प्रभाग नासयम, (१५) मनः संयम, (१६) यम, (१७) यस यम. (૧) પૃથિવીકાયસંયમ–હાથ પગ ઈત્યાદિથી સચિત્ત પૃથિવીનું સંઘટન (સ્પર્શ) વગેરેને 4 . શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्र (२) अप्कायसंयमा सचित्तजलस्य संघटनाधकरणम्, (३) तेजस्कायसंयमः पचनपाचनादिनिमित्तकाऽनलारम्भनिवर्तनम्। (४) वायुकायसंयमः वस्त्रपात्रव्यजनवक्त्रादिसमुत्पन्नवायुजनितवायुकायोपमर्दननिवृत्तिः, तत्र वस्त्रपात्राणामयतनया निक्षेपणादानप्रक्षेपनिपातनादिकारणवशात्, तथा तेषां (वस्त्रपात्राणां) व्यजनपर्ण शाखादीनां च विधूननेन वायुकायविराधनं भवति । अनावृतमुखेन संभाषणे च तन्निर्गतोष्णवायुना तद्विराधनं जायते । (५) वनस्पतिकायसंयमः, तरुलतिकादिहरितकायमात्रस्य संघटनादिवर्जनम् । एवं (६) द्वीन्द्रियादि- (९) पञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां सर्वथाऽनुपमर्दनं तत्तत्संयमः (१०) अजी (२) अप्कायसंयम सचित्त जलका संघटा (स्पर्श) आदि न करना । (३) तेजस्कायसंयम-पचन पाचन आदि किसी प्रयोजनके लिए अग्निके संघटा आदिका वर्जन करना । (४) वायुकायसंयमवस्त्र, पात्र, पंखा, फूंक आदिसे उत्पन्न हुए वायुद्वारा वायुकायकी विराधनाका वर्जन करना । वस्त्र, पात्रोंको अयतनासे रखनेसे, अयतनासे लेनेसे, फेंकनेसे, गिरानेसे, तथा वस्त्र, पात्र, पंखा, आदिको हिलाकर वायुकायकी उदीरणा करनेसे तथा बोलते समय उष्णवायु निकलनेके द्वारा मुखसे वायुकायकी विराधना होती है । वनस्पतिकायसंयम-वृक्ष, लता आदि हरित कायके संघटा आदिसे निवृत्त होना । (६-७-८-९) द्वीन्द्रियादिसंयम द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय, जीवोंका सर्वथा उपमर्दन न करना तत्तत्संयम, अर्थात् द्वीन्द्रियसंयम, त्रीन्द्रियसंयम, चतुरिन्द्रियसंयम, पञ्चेन्द्रियसंयम कहलाता है। (२) अ५।यस यम-सयित्त खानु सघटन मान ४२७ (૩) તેજ કાયસંયમ-રાંધવું, રંધાવવું વગેરે કોઈ પ્રયજનને માટે અગ્નિના સંઘટન આદિને વર્જવું. (४) वायुअयसयम-१स, पात्र, ५ो, त्याहथी अपन था वायुदा। વાયુકાયની વિરાધના વજેવી. વસ, પાત્રે ઈત્યાદિને અયતનાપૂર્વક રાખવાથી, અયતનાપૂર્વક લેવાથી, ફેંકવાથી પાડવાથી, તથા વસ્ત્ર-પાત્ર-પંખે વગેરેને હલાવીને વાયુકાયની ઉદીરણા કરવાથી તથા બોલતી વખતે મુખના ઉના વાયુથી વાયુકાયની વિરાધના થાય છે. (૫) વનસ્પતિકાયસંયમ–વૃક્ષ, લતા આદિ હરિતકાયના સંઘટન આદિથી નિવૃત્ત (6-७-८-८) द्वीन्द्रियासियम-दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, यतुरिन्द्रिय, मने पथन्द्रिय છવાનું સર્વથા ઉપમર્દન ન કરવું, તે તે પ્રકારને સંયમ, અર્થાત દ્વીન્દ્રિયસંયમ, ત્રીન્દ્રિય સંયમ, ચતુરિન્દ્રિયસંયમ અને સેન્દ્રિયસંયમ કહેવાય છે. यः શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा० १ संयमस्वरूपम् वकायसंयमः=बहुमूल्यवतां वस्त्रपात्रादीनामनुपादानाम्, उपादेयवस्त्रपात्रादीनां सयत्नमुपादानं स्थापनं च, (११) प्रेक्षासंयमः - वसतिवस्त्रपात्रादीनां सयतनं सविधि प्रतिलेखनम्, (१२) उपेक्षासंयमः–संयममार्गे क्लेशमाकलयतोऽसंयममार्गे प्रवर्तमानस्य वा स्वात्मनः परस्य वा असंयमदोषान् संयमगुणांश्चावबोध्य संयमयोगेषु प्रवर्त्तनं संयमसमीपानयनलक्षणं संयमसामीप्यदर्शनमित्यर्थः । यद्वा प्रेक्षासंयमः सकृत्प्रतिलेखनम् । उपेक्षासं यमः = पुनः पुनः प्रतिलेखनम् । (१३) अपहृत्य ( परिष्ठापना) संयमः - उच्चारादीनां विधिना समुत्सर्गः परिष्ठापनमित्यर्थः । (१४) प्रमार्जनासंयमः - विधिना वसतिपात्रादेः परिशोधधनम् । (१५-१६-१७) मनोवाक्कायसंयमः - अकुशलानां मनोवाक्कायानां निरोधेन कुशलानामुदीरणम् । तत्राऽऽर्त्तरौद्र ध्यान परिहारपूर्वक धर्म शुक्लध्यानप्रवर्त्तनं मनःसंयमः । ११ (१०) अजीव काय संयम = बहुत मूल्यवाले वस्त्र पात्र आदिका ग्रहण न करना, तथा कल्पनीय वस्त्र पात्र आदि को यतनाके साथ लेना और रखना । (११) प्रेक्षा संयम = वसती, वस्त्र, पात्र, पाट, पाटला, आदिका यतनापूर्वक सविधि प्रतिलेखन करना । (१२) उपेक्षा संयम-संयममार्ग में अनुकूल प्रतिकूल परीषहोंसे क्लेशका अनुभव करनेवाले अथवा असंयममें प्रवृत्ति करनेवाले स्वपरकी आत्माको संयमके गुण और असंयमके दोष समझाकर फिर संयममार्ग में प्रवृत्त करना । अथवा वस्त्र पात्र आदिके उपभोग करते समय एक बार प्रतिलेखन करना प्रेक्षासंयम है, और बारंबार चारों ओर से प्रतिलेखन करना उपेक्षासंयम है । (१३) अपहृत्य (परिष्ठापना ) संयम - यतनापूर्वक उच्चार - प्रस्रवणको त्यागना । (१४) प्रमार्जनासंयम - यतनाके साथ वसती वस्त्र पात्र आदिको पूँजना (प्रमार्जन करना) (૧૦) અજીવકાયસચમ—મૂલ્યવાન વસ્ત્ર પાત્ર આદિને ગ્રહણુ ન કરવાં, તથા કલ્પે તેવાં જ વસ્ત્ર પાત્ર આદિને યતનાપૂર્વક લેવાં તથા રાખવાં, (११) प्रेक्षास यभ - वसती, वस्त्र, पात्र, घाट, पाटला त्याहिने यतनापूर्व तथा વિધિસર પ્રતિલેખન કરવાં. (૧૨) ઉપેક્ષાસ યમ—સંયમમાગ માં અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ પરીષહેાથી કલેશના અનુભવ કરનારા, અથવા અસયમમાં પ્રવૃત્તિ કરનારા, સ્વપરના આત્માઓને સંયમના ગુરુ તથા અસંયમના દેષ સમજાવીને પછી સયમમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત કરવા અથવા વસ્ત્ર-પાત્ર આદિના ઉપલેાગ કરતી વખતે એકવાર પ્રતિલેખન કરવું એ પ્રેક્ષાસંયમ છે, અને વારવાર ચારે માજુએથી પ્રતિલેખન કરવુ. એ ઉપેક્ષાસ યમ છે. (१३) अपहृत्य (परिष्ठापना) संयम - यतनापूर्व ४ अय्यार - प्रसवाने परववां -त्यभवां (१४) प्रभानासंयभ - यतनापूर्व'! वस्ती वस्त्र पात्र माहिने नवां (अभाव). (૧૫) અના સગા—અકુશળ મનનેા નિરાધ કરીને કુશળ મનની પ્રવૃત્તિ કરવી, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे सावधपरिहारपूर्वकनिरवद्यभाषणं वाक्संयमः । अयतनापरिहारेण यतनापुरस्सरकायप्रवर्तन कायसंयमः इति विवेकः । प्रकारान्तरेणापि संयमः सप्तदशविधः, यथा "पञ्चास्रवाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥१॥” इति । तत्र पञ्चास्रवविरमण-पञ्चास्रवाः प्राणातिपातादय एतेभ्यो विरमणं-निवृत्तिः (५), पञ्चेन्द्रियनिग्रहः तत्तद्विषयेष्वप्रवर्तनम्, इष्टानिष्टेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणमित्यर्थः (१०), कषायजयः उदयभावमप्राप्नुवतां क्रोधादीनां चतुर्णा निरोधः, उदयभावं प्राप्तानां च तेषां निष्फलीकरणम् (१४) दण्डत्रयविरतिः-दण्डयते-रत्नत्रयैश्वर्यापहारादसारीक्रियते आत्मा यैरिति दण्डास्तेषां त्रयं दण्डत्रयं मनोदण्ड-वचोदण्ड-कायदण्डलक्षणास्त्रयो दण्डा इत्यर्थः, तस्माद्विरतिः निवृत्तिः (१७)। (१५) मनःसंयम-अकुशल मनका निरोध करके कुशल मनकी प्रवृत्ति करना, अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यानका त्याग करके धर्म और शुक्लध्यानमें मनको लगाना । (१६) वचनसंयम-अशुभ (सावद्य) वचनका त्यागकर शुभ (निरवद्य) वचन बोलना । (१७) कायसंयम-अयतनाको छोडकर यतना पूर्वक ही कायकी प्रवृत्ति करना । संयमके सत्तरह भेद दूसरे प्रकारसे भी होते हैं, जैसे-प्राणातिपात आदि पांच आस्रवों का विरमण (५), पांच इन्द्रियों के इष्ट विषयों में राग न करना अनिष्ट विषयों में द्वेष न करना (१०) उदयमें न आये हुए क्रोध आदि चार कषायों का निरोध करना और उदयमें आये हुएको निष्फल करना, जैसे-क्रोधका उदय होने पर क्षमा रखना, मानका उदय होने पर मार्दव भाव रखना, मायाका उदय होने पर सरलता रखना, और लोभकषायका उदय होने पर निर्लोभता धारण करना (१४) ज्ञान आदि गुणोंका अपहरण (नाश) करके आत्माको दरिद्र बनाने वाले मनदण्ड वचनदण्ड, और कायदण्डका त्याग करना (१७), અર્થાત્ આધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનને ત્યાગ કરીને ધર્મધ્યાન તથા શુકલધ્યાનમાં મનને (૧૬) વચનસંયમ–અશુભ વચનને ત્યાગ કરીને શુભ વચન બોલવાં. (૧૭) કાયસંયમ–અયતનાને ત્યજીને યતનાપૂર્વકજ કાયાની પ્રવૃતિ કરવી. સંયમના સત્તર ભેદ બીજે પ્રકારે પણ થાય છે. જેમકે પ્રાણાતિપાત આદિ પાંચ આસનું વિરમણ (૫), પાંચ ઈન્દ્રિયોના ઈષ્ટ વિષયોમાં રાગ ન કરે, અનિષ્ટ વિષમાં દ્વેષ ન કર (૧૦), ઉદયમાં ન આવેલા ક્રોધ આદિ ચાર કષાયે નિરોધ કરો અને ઉદયમાં આવેલાને નિષ્ફળ કરવા. જેમકે ક્રોધને ઉદય થતાં ક્ષમા રાખવી, માનનો ઉદય થતાં માર્દવભાવ રાખ, માયાનો ઉદય થતાં સરલતા રાખવી, અને લેભકષાયને ઉદય થતાં નિર્લોભતા ધારણ કરવી (૧૪), જ્ઞાન આદિ ગુણોનું અપહરણું (નાશ) કરીને આત્માને દરિદ્ર બનાવનારા મનદંડ, વચનદડ અને કાયદંડને ત્યાગ કર (૧૭). શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ संयमस्वरूपम् पूर्व वायुकायसंयमविषये प्रोक्तं यत्-'अनावृतमुखेन संभाषणे मुखनिर्गतोष्णवायुना वायुकायविराधनं जायते' इति, तत्र केचिदेवं वदन्ति-आत्मा हि भाषणकाले चतुः स्पर्शवतो भाषावर्गणापुद्गलान् गृह्णाति तैर्वायुकायस्य विराधना न संभवति तस्यापि चतुः स्पर्शवत्वादिति । तेषामपर्याप्तमेतत्कथनम्, वस्तुतस्तु आत्मा पूर्व चतुःस्पर्शकपुद्गलानेव गृह्णाति किन्तु संभाषणसमये तैजसशरीरं संगृह्येव भाषापुद्गला निस्सरन्तीति तैजसशरीरसम्बन्धेन तेऽष्टस्पर्शवन्तो जायन्ते तस्मादनिवार्या वायुकायविराधना । । मुखवस्त्रिकाविचारः । ननु मुखोष्णवायुनाऽपि यदि वायुकायविराधनं तर्हि मुनिना कथं वायुकायसंयमः ? इति चेत् न, यतो भगवता श्रीतीर्थकरेण मुनीनां वायुकायसंयमार्थ मुखवस्त्रिकाबन्धनं प्रतिपादितम् । ___ पहले वायुकायसंयममें कहा है कि-बोलते समय मुखसे निकलनेवाली वायु गर्म होती है और इसी कारण उससे वायुकायके जीवोंकी विराधना होती है। यहाँ कुछ लोगोंका कहना है कि आत्मा चार स्पशवाले भाषावर्गणाके पुद्गलोंको ग्रहण करती है और चार स्पर्शवाले पुद्गलों से वायुकायकी विराधना नहीं हो सकती, क्यों कि वायुकायके जीवभी चार स्पर्शवाले होते हैं । उनका यह कथन अधूरा है । बात वास्तव में यह है कि आत्मा ग्रहण तो चार स्पर्शवाले पुद्गलो का ही करती हैं किन्तु भाषण करते समय तैजस शरीरको ग्रहण करके ही भाषा-पुद्गल निकलते हैं। तैजस शरीरके सम्बन्धसे भाषा-पुद्गल आठ स्पर्शवाले हो जाते हैं, और आठ स्पर्शवाले होने से उनसे वायुकाय आदि को विराधना अवश्य होती है। ___ मुखवस्त्रिकाविचार. जब मुखसे निकलनेवालो वायुसे वायुकाय को विराधना होती है, तो मुनि वायुकायका પૂર્વે વાયુકાય-સંયમમાં જે કહ્યું છે કે–ખુલ્લે મોઢે બોલવામાં મુખમાંથી નીકળતા ગરમ વાયુ વડે વાયુકાયના જીવોની વિરાધના થાય છે. ત્યાં કેટલાક લોકોનું કહેવું એવું છે કે આત્મા ચાર સ્પર્શવાળા ભાષાવગણના પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે અને ચાર સ્પર્શવાળા પુદ્ગલથી વાયુકાયની વિરાધના થઈ શકતી નથી. કેમકે વાયુકાયના જીવો પણ ચાર સ્પર્શ વાળા હોય છે. એમનું એ કથન અધૂરું છે. વસ્તુતઃ વાત એવી છે કે આત્મા ગ્રહણ તે ચાર સ્પર્શવાળા પુદ્ગલેનું જ કરે છે, કિન્તુ બોલતી વખતે તેજસ શરીરને ગ્રહણ કરીને જ ભાષાપુદ્ગલ નીકળે છે. તેજસ શરીરના સંબંધથી ભાષા-પુદ્ગલ આઠ સ્પર્શવાળા થઈ જાય છે, અને આઠ સ્પર્શવાળા થવાથી, તેનાથી વાયુકાય આદિની વિરાધના અવશ્ય થાય છે. મુખવસ્રિાવિચાર જે મુખમાંથી નિકળનારા વાયુથી વાયુકાયની વિરાધના થાય છે, તે મુનિ વાયુકાયને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रीदशबैकालिकसने तद्विना हि श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तौ षोडशतमशतकस्य द्वितीयोद्देशे भगवता शक्रेन्द्रस्यापि भाषणं सावद्यत्वेन परिकथितं, तथाहि गोयमा ! जाहे णं सक्के देविंदे देवराया मुहुमकायं अणिजूहित्ताणं भासं भासति ताहे णं सक्के देविंदे देवराया सावज्जं भासं भासइ । जाहे णं सक्के देविंदे देवराया सुहुमकायं णिज्जूहित्ताणं भासं भासइ ताहे सक्के देविंदे देवराया असावज्जं भासं भासइ' इत्यादि । _ 'गौतम ! यदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सूक्ष्मकायमपोह्य भाषां भाषते तदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सावद्यां भाषां भाषते । यदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सूक्ष्मकायं दत्त्वा भाषां भाषते तदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः असावधां भाषां भाषते' इति संस्कृतम् । अयमाशयः-मुखवस्त्रिकाधारणं विना भाषणे वायुकायादिविराधनस्य दुर्वारतया भाषा सावद्या भवतीति । एतद्वयाख्याने अभयदेवसरिणाऽपि-"जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति, अन्या तु सावधे" त्युक्तम् । 'सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' इत्यस्य हि वस्त्रमपोह्य मुखोपरि वस्त्रमदत्त्वे (मबद्ध्वे) त्यर्थः । यदन्वयव्यतिरेकाभ्यां भाषाया निरवद्यत्वं सावद्यत्वं च संयम कैसे पाल सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि वायुकायके संयमके लिए ही तीर्थकर गणधर भगवान्ने मुखवस्त्रिका धारण करना बताया है । श्रीभगवतीसूत्र के सोलहवें शतक के दूसरे उद्देशमें भगवानने बिना मुखवस्त्रिकाके इन्द्र महाराजके भाषणको भी सावध बताया है, यथा-"गोयमा !" इत्यादि । तात्पर्य यह है कि मुखवस्त्रिका धारण किये विना भाषण करने से वायुकायकी विराधना अनिवार्य है, अत एव वह भाषा सावध है। इसका व्याख्यान करते हुए अभयदेवसूरि लिखते हैं-"जीव संरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति अन्या तु सावद्या।"-अर्थात् जीवों की रक्षा होनेसे भाषा निरवद्य होती है और इससे भिन्न (जीवों की घात करने वाली) भाषा सावध होती है। मूल पाठके 'मुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' इस पदका अर्थ यह है कि-'मुख पर वस्त्र न धारण સંયમ કેવી રીતે પાળી શકે છે ? એ પ્રશ્નનો ઉત્તર એ છે કે વાયુકાયના સંયમને માટે જ તીથકર ગણધર ભગવાને મુખત્રિકા ધારણ કરવાનું બતાવ્યું છે. શ્રીભગવતી-સૂત્રના સોળમા શતકના બીજા ઉદેશામાં મુખત્રિકા વિનાના ઇદ્ર મહારાજના ભાષણને પણ भगवाने सावध मतान्युं छे :-'गोयमा' त्यादि તાત્પર્ય એ છે કે મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કર્યા વિના ભાષણ કરવાથી વાયુકાયની વિરાધના અનિવાર્ય છે, તેથી કરીને એ ભાષા સાવધ છે. એનું વ્યાખ્યાન કરતાં અભયદેવ સૂરિ લખે छ" जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति अन्या तु सावद्या" अर्थातूलवानी २६॥ થવાથી ભાષા નિરવઘ થાય છે અને એથી ભિન્ન ( જીવોની ઘાત કરવાવાળી ) ભાષા साप आय . भू पाना 'सुदुमकाय अणिहिताण' पहनी थे छ ५२ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा० १ मुखवस्त्रिका विचारः १५ भवति, भाषाभिव्यक्तिश्च मुखाद्भवतीति मुखे ध्रियमाणं वस्त्रं मुखवस्त्रिका' शब्देन शास्त्र व्यवहियते । 'शक्र' इत्येव वक्तव्ये 'देवेन्द्रो देवराजः' इति विशेषणोत्क्त्या दिव्यशक्तिमत्त्वेऽपि तस्य मुखवस्त्रिकाधारणाभावे यदि सवद्या भाषा तर्हि औदारिकशरीरधारिणां का वार्त्त ? ति ध्वनितम् । सा च मुखवस्त्रिका वायुकाया दिप्राणिप्राणसंरक्षणोपयोगि मुखोपरिबन्धनीयमुखपरिमित - सदोरकाऽष्टपुट वस्त्र खण्डविशेषः । अत्रायं सङ्ग्रहः १ ॥ "वाउका या रक्खड, बज्झई जं सया मुहे । सदोरपुडं वत्थं, वृत्ता सा मुहवत्थिया मुहमाणा जईलिंगं, सव्वसंजमकारणं । पसत्थभावणाबुड्ढी - हेऊ य मुहवत्थिया ॥ २ ॥” इति । करके' जहाँ वस्त्र धारण नहीं वहाँ भाषा सावध होती है, और जहां वस्त्र धारण होता है वहां भाषा निरवद्य होती है । भाषा मुखसे निकलती है, इसलिए मुख पर धारण किया जानेवाला वस्त्र मुखवस्त्रिका कहलाता है । मूलमें 'शक' कहने से ही इन्द्रका बोध हो सकता था, किन्तु देवेन्द्र और देवराज विशेषणों का देना यह सिद्ध करता है कि जब दिव्य शक्तिमान् होने पर भी मुखवस्त्रिका न धारण करने से उसकी भाषा सावध होती है तो औदारिक- शरीर धारियों की बात ही क्या है ? उनकी भाषा अवश्य ही सावध होगी । वह मुखवस्त्रिका वायुकाय आदिके प्राणियोंकी रक्षाके लिये उपयोगी, मुख पर बांधने योग्य, मुखके बरावर डोरा सहित आठ पुटवाला, वस्त्रका खण्डविशेष है । यहाँ संग्रहगाथाएँ हैं - वाउ इत्यादि, વસ્ત્ર ન ધારણુ કરીને' જ્યાં વસ્ત્ર ધારણ નથી, ત્યાં ધારણ થાય છે ત્યાં ભાષા નિરવદ્ય છે. ભાષા મુખમાંથી કરવામાં આવનારૂ વસ્ત્ર ‘સુખવસ્ત્રિકા’ કહેવાય છે. ભાષા સાવદ્ય છે અને જ્યાં વસ્ત્ર નીકળે છે તેથી મુખ પર ધારણ મૂળમાં ‘શક્ર' કહેવાથી ઇન્દ્રના મેધ થઈ શકતે હતા, પરંતુ દેવેન્દ્ર અને દેવરાજ વિશેષણા એ સિદ્ધ કરે છે કે જો દિવ્ય શક્તિમાન હાવા છતાં પણ મુખવસ્ત્રિકા ન ધારણ કરવાથી એની ભાષા સાવદ્ય થાય છે. તા ઔદ્યારિક-શરીરધારીએની વાત જ શી ? એની ભાષા પણ જરૂર જ સાવદ્ય જ થાય. એ મુખવસ્ત્રિકા વાયુકાય આદિના પ્રાણીઓની રક્ષાને માટે ઉપયેગી, સુખ પર બાંધવા ચેાગ્ય મુખની બરાબર, દેરાસહિત આઠપુટવાળા વસ્ત્રના ખંડવિશેષ છે. અહીં' સ'ગ્રહ गाथाये। छे - 'वाउ ० छत्याहि શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे पुनरपि - "मुखे बांधी ते मुहपती, हेठे पाटो धारी । अति हेठी दाढी थई, जोतर गले निवारी ॥१॥ "एक काने धजसम कही, खंधे पछेड़ी ठाम । केडे खोसी कोथली, नावे पुण्यने काम ॥२॥" इति । (श्रावक-ऋषभदासकृत हितशिक्षारास पृ० ३८ पं० १६) "सुल्लभ बोधी जीवड़ा, मांडे निज षट्कर्म । साधु जन मुख मोंपती, बांधी है जिन-धर्म ॥१॥" (हरिबलमच्छीरासे) मुनिलब्धिविजयकृते पृ० ७३ दोहा ५) अर्थात्-वायुकाय आदिको रक्षाके लिये जो सदा मुख पर बांधी जाती है, वह डोर।सहित आठ पुटवाला वस्त्र मुखवस्त्रिका कहलाती है ॥१॥ वह मुखवस्त्रिका मुख-प्रमाण होती है। यह मुनिका चिह्न सर्व संयमका कारण तथा प्रशस्त भावना को वृद्धिका कारण है ॥२॥ और भी कहा है-- "मुखे बांधी ते मुहपती, हेठे पाटो धारी । अति हेठे दाढी थई, जोतर गले निवारी ॥१॥ एक काने धज सम कही, खंधे पछेडी ठाम । केडे खोसी कोथली, नावे पुण्यने काम" ॥२॥ (श्रावक-ऋषभदास-कृत हितशिक्षारास पृ० ३८ पं १६) "सुलभ-बोधी जीवडा, मांडे निज षट्-कर्म । साधुजन मुख मोपती बांधी है जिन-धर्म" ॥१॥ (हरिबलमच्छीरास-मुनिलब्धिविजयकृत पृ० ७३ दोहा ५) અર્થાત-વાયુકાય આદિની રક્ષાને માટે જે સદા મુખ પર બાંધવામાં આવે છે, તે દેરાસહિત આઠવુટવાળું વસ્ત્ર “મુખવસ્ત્રિકા' કહેવાય છે. (૧) એ મુખવસ્ત્રિકા મુખ–પ્રમાણ હોય છે. એ મુનિનું ચિન્હા સર્વ સંયમનું કારણ તથા પ્રશસ્ત ભાવનાની વૃદ્ધિનું ४३२१ . (२) વળી કહ્યું છે કે મુખે બાંધી તે મુહપતી હેઠે પાટે ધારી, અતિ હેઠી દાઢી થઈ જતર ગળે નિવારી. એક કાને ધજ સમ કહી, બંધે પછેડી ઠામ, 3 मोसी थमी, नावे पुण्यने म." (२) (१४-*पमहास-कृत हित-शिक्षा-स' १४ ३८ ५. १६) "सुसमाधी 9431, मां नि षटू-भ. સાધુ જન મુખ મેંપતી બાંધી હૈ જિન-ધર્મ” (૧) ___ (रिम-भ-छी-रास-भुनियि त ० ७3, ausi 4) - શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा० १ मुखवस्त्रिकाविचारः ननु भाषणसमये हस्तेनापि वस्त्रमादाय मुखाच्छादने उक्तजीवरक्षा निर्वहति किमन्यदापि मुखवस्त्रिकाबन्धनेन ? इति चेदुच्यते ..... न केवलं भाषणसमय एव जीवविराधनासंभवः, यतो हस्तेन वस्त्रमादाय मुखाच्छादने जीवरक्षा संभवेत्, किन्तु दीर्घश्वासनिःश्वासाभ्यां, जम्भातः, स्वभावादकस्मादपि च, तथा निद्रावस्थायां मुखव्यादानाच्च तत्सम्भव इति न हस्तेन मुखोपरि वस्त्रं धारयन्तः सम्यग् जीवरक्षां सर्वदा कर्त्त प्रभवन्ति, वस्त्रेण मुखमाच्छाद्य प्रसुप्तस्यापि निद्रायां पार्श्वपरिवर्त्तनेन वस्त्रापसरणे सति क उपायस्तदानीं सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमजीवसचित्तरजःप्रवेशवारणार्थ दीर्घोष्णनिःश्वासोच्छ्वासजनितवायुकायविराधनापरिहारार्थ च। तथा चोक्तं योगशास्त्रे तृतीयप्रकाशे सप्ताशीतितमश्लोकस्य स्वोपज्ञविवरणे हेमचन्द्राचार्येण-"मुखवस्त्रमपि सम्पातिमजीवरक्षणादुष्णमुखवातविराध्यमानबाह्यवायुकायजी यहाँ यह आशङ्का की जा सकती है कि जब बोलनेका काम पडे तब हाथमें कपडा लेकर मुँह ढंक लेनेसे वायुकाय आदि जीवोंकी रक्षा हो सकती है, जब बोलते नहीं उस समय भी मुखवस्त्रिका बांध रखनेसे क्या लाभ हैं ? इसका उत्तर यह है कि केवल बोलते समय ही मुखसे हवा नहीं निकलतो जिससे हाथमें वस्त्र लेकर मुँह ढंक लेनेसे जीवोंकी रक्षा हो जाय । किन्तु दीर्घ श्वासोच्छ्वास लेनेसे, जंभाई लेनेसे, स्वभावसे, अकस्मात् , तथा निद्रावस्था में मुख खुला रहनेसे भी हया निकलती है। अतएव मुख पर हाथसे वस्त्र लगानेसे जीवोंकी सम्यक् प्रकार सर्वदा रक्षा नहीं हो सकती । वस्त्रसे मुंह ढाँक कर सोया हुआ व्यक्ति नींद में करवट (पसवाडा) बदलता है तब वस्त्र खिसक जाता है । उस समय सूक्ष्म, व्यापी और संपातिम जीव तथा सचित्त रज आदि मुखमें जानेसे कैसे रुक सकते हैं ?, तथा दीर्घश्वसोच्छ्वाससे होने वाली वायुकायकी वोराधना का क्योंकर परिहार हो सकता है ! इन्हें रोकने का उपाय ही क्या है ! हेमचन्दाचार्य - અહીં એવી આશંકા કરી શકાય છે કે જ્યારે બોલવાનું કામ પડે ત્યારે હાથમાં કપડું હe ડ ઢાકી લેવાથી વાયકાય આદિ જીવોની રક્ષા થઈ શકે છે. જયારે બોલયા ન હોઈએ, ત્યારે પણ મુખત્રિકા બાંધી રાખવાથી શું લાભ છે ? એને ઉત્તર એ છે કે કેવળ બોલતી વખતે જ મુખમાંથી હવા નીકળતી નથી કે જેથી હાથમાં વસ્ત્ર લઈને મહાં ઢાંકી લેવાથી જીવની રક્ષા થઈ જાય. કિન્તુ દીર્ઘ શ્વાસોચ્છવાસ લેવાથી, બગાસું ખાવાથી, સ્વભાવથી અકસ્માત્ તથા નિદ્રાવસ્થામાં માં ખુલ્લુ હવા નીકળે છે. તેથી મહાં પર હાથ વડે વસ્ત્ર લગાડલાથી જીવની સમ્યક પ્રકારે સર્વદા રક્ષા થઈ શકતી નથી. વસ્ત્રથી મોં ઢાંકીને સૂતેલી વ્યક્તિ ઉંઘમાં જ્યારે પાસુ બદલાવે છે ત્યારે વસ્ત્ર ખસી જાય છે. તે સમયે સૂમ, વ્યાપિ અને સંપાતિમાં જીવ તથા સચિત્ત રજ આદિ મુખમાં જવાથી કેવી રીતે રોકાઈ શકે ? તથા દીર્ઘ શ્વાસોચ્છવાસથી થનારી વાયુકાયની વિરાધનાને કેવી રીતે પરિહાર થઈ શકે ? તેને રોકવાને ઉપાય જશે છે. ? - વાથી પણ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशचक्रालिकसूत्रे वरक्षणान्मुखे धूलिप्रवेशरक्षणाच्चोपयोगी"ति । तथा चोत्तराध्ययनसूत्रे तृतीयाध्ययने श्रीलक्ष्मीवल्लभीयायां नवमगाथाव्याख्यायां सप्तमनिह्नवोदाहरणेऽपि "तथा सम्पातिमाः सत्त्वाः, सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवस्त्रिका ॥१॥” इति । ओघनिर्युक्तौ द्वादशाधिकसप्तशततम (७१२)-गाथाऽप्येवमेव बोधयति "संपातिमरयरेणू,-पमज्जणहा वयंति मुहपत्तिं । नासं मुहं च बंधइ, तीए वसहि पमज्जतो ॥७१२॥" "संपातिमरजोरेणुप्रमार्जनार्थ वदन्ति मुखपत्रीम् । नासिकां मुखं च बध्नाति, तया वसतिं प्रमार्जयन् ॥७१२॥ इति संस्कृतम् । वसतिं प्रमार्जयता घ्राणे मुखे चैतद्वयेऽपि मुखवस्त्रिका बन्धनीया, अन्यदा मुख एवेत्याशयः, अन्यथा भगवतीसूत्राधनेकागमविरोधापत्तिारा स्यात् । कहते हैं मुखवस्त्र,० इत्यादि अर्थात् "मुखवस्त्र, संपातिम जीवों की रक्षा करता है, मुख से निकलने वाले उष्ण बायु द्वारा विराधित होनेवाले बाह्य वायुकायके जीवोंकी रक्षा करता है, तथा मुँहमें धूली नहीं घुसने देता, इसलिये वह उपयोगी है ।" । उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे उद्देशकी टीकामें कहा है-'तथा सम्पातिमाः' इत्यादि, अर्थात् “संपातिम, सूक्ष्म और व्यापी जीवोंकी रक्षा के लिए मुखवस्त्रिका समझनी चाहिये" ॥१॥ ओघनियुक्ति ७१२ वीं गाथामें कहा है-"तथा संपातिमाः” इत्यादि । अर्थात् "संपातिम जीव, सचित्त रज तथा रेणुकी रक्षा करनेके लिये मुखवस्त्रिका का कथन करते हैं। और जब बसतिको प्रमार्जना करे तब नाक और मुख दोनों बांधे ।" उभय द्रायाय छ है "मुखवस्त्र "त्या. અર્થ-મુખવત્ર સંપાતિમ ની રક્ષા કરે છે, મુખથી નીકળતા ઉષ્ણ વાયુ દ્વારા વિરાજિત થતા વાયુકાયના જીવની રક્ષા કરે છે તથા મુખમાં ધૂળ પેસવા દેતું નથી, તેથી ते उपयोगी छे. श्रीउत्तराध्ययन सूत्रनील शनी टीम युं छे । 'तथा सम्पातिमाः' ઇત્યાદિ અર્થાત-“સંપાતિમ, સૂક્ષમ અને વ્યાપી જીની રક્ષાને માટે મુખત્રિકા સમજવી न " (१) साधनियुत ७१२ भी थाम -संपातिम. त्याह. अर्थात्-"सपातिम જીવ. સચિત્ત રજ, તથા રેણુની રક્ષા કરવાને માટે મુખવસ્ત્રિકાનું કથન કરે છે, અને જ્યારે વસતિની પ્રમાર્જન કરે ત્યારે નાક અને મુખ બેઉ બાંધ.” શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ... एवमेव प्रवचनसारोद्धारे त्रयोविंशत्यधिकपञ्चशततमगाथायां विद्यते, तथा प्रकरणरत्नाकरस्यापि तृतीय भागे, उत्तराध्ययनसूत्रस्य कमलसंयमोपाध्यायविरचित-सर्वार्थसिद्धिटोकायां तृतीयाध्ययनेऽप्येवमेव । एवं विशेषावश्यकबृहद्वत्तावप्युक्तम् । किश्चाऽऽगमविरोधोऽपि तेषां (अबद्धमुखवस्त्रिकाणां) दुर्वार एव, तथाहि-भगवती सूत्रे द्वितीयशतकस्य प्रथमोदेशके स्कन्दकानगारस्यानशनकाले 'नमोत्थु ण' पाठविधौ "पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी" इत्याधुक्तम्, तत्राञ्जलिबद्धस्य करद्वयस्य शिरसि स्थापने पद्मासनसंस्थः स्कन्दकोऽनगारः कथं तन्मते 'नमोत्थु णं' पाठमनावृतमुखेन व्यधात् । अनावृतमुखेन हि मुनयो न भाषन्ते, अर्थात् अन्य समयमें सिर्फ मुखही बांधे, यह तात्पर्य हुआ, अन्यथा श्रीभगवतीसूत्र आदि अनेक आगमोका विरोध अनिवार्य होगा । इसीप्रकार प्रवचनसारोद्धारकी ५२३ वी गाथामें कहा है । तथा प्रकरणरत्नाकारके तोसरे भागमें, फिर श्रीउत्तराध्ययनसूत्रको कमलसंयमोपाध्यायरचित सर्वार्थसिद्धि नामकी तीसरे अध्ययनकी टीकामें भी इसी प्रकार कहाहै और ऐसेही विशेषावश्यक बृहद्वृत्तिमें भी कहा है। जो मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं बांधते, उनके मतमें आगम-विरोध अनिवार्य है। श्री भगवती-सूत्र २श०, १२० में स्कन्दक अनगारके अनशन समय में नमोत्थुणं के पाठकी विधिमें कहा है- पुरत्था० इत्यादि । इसमें विचारणी विषय यह है कि अञ्जलि बांध कर दोनों हाथ सिर पर धर कर पद्मासन लगाकर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठे हुवे स्कन्दक अनगारने 'नमोत्थुणं' पाठ खुल्ले मुखसे कैसे उच्चारण किया, क्योंकि दोनों हाथ सिर पर रखे हुए थे । और खुले मुखसे અર્થત—અન્ય સમયમાં સિર્ફ મુખ જ બાંધે, એ તાત્પર્યાથ થયો, અગર એ અર્થ નહીં કરવામાં આવે તે શ્રીભગવતીસૂત્ર આદિ અનેક આગને વિરોધ અનિવાર્ય બનશે. એવી જ રીતે પ્રવચનસારોદ્ધારની પ૨૩ મી ગાથામાં કહ્યું છે તથા પ્રકરણરત્નાકરના ત્રીજા ભાગમાં, અને શ્રીઉત્તરાધ્યયન સૂત્રની કમલસંયમપાધ્યાયરચિત સર્વાર્થ_સિદ્ધિ નામની ત્રીજા અધ્યયની ટીકામાં પણ એવું જ કહ્યું છે, એવી જ રીતે વિશેષાવશ્યક બૂડદુવૃત્તિમાં ५ धुं छे. જેઓ મુખ પર મુખવઝિકા બાંધતા નથી, તેમના મતમાં આગમ-વિરોધ અનિવાર્ય छ. सातासूत्र २ श. १ 6. मा ४४४ अना२नअनशन समयमा 'नमोत्थु ण' ना पानी विधिमा छ-"परत्था" इत्याहि. એમાં વિચારણીય વિષય એ છે કે અંજલિ બાંધીને, બેઉ હાથ શિર પર ધારણ प्रशने, परासन, सवीन, पूर्व दिशा त२३ भु५ शन मेटेस२४ मनारे 'नमोत्थु ण' પાઠનું ખુલ્લા મુખે કેવી રીતે ઉચ્ચારણ કર્યું ? કેમકે બેઉ હાથ માથા પર રાખેલા હતા. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूने तथाविधभाषणस्याऽऽगमप्रतिषिद्धत्वात । किञ्च-अन्तकृद्दशाङ्गषष्ठे वर्गेऽतिमुक्ताख्ये पञ्चदशाध्ययने "तए णं अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं एवं वयासी-एह णं भंते ! तुम्भे जाणं अहं तुब्भं भिक्खं दवावेमि त्ति कटु भगवं गोयमं अंगुलीए गेण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए गेहे तेणेव उवागए" इत्यभिहितम् । तत्र भिक्षाचर्या गतस्य गौतमस्वामिनो भिक्षापात्रधारणप्रतिबद्वैकहस्ताङ्गुलित्वं सुतरामेव सिद्धम् । इतरस्य तु करस्याङ्गुलौ अतिमुक्तकुमारेण गृहीतायां सत्यां तस्य भगवतो गौतमस्वामिनो हस्तेन मुखोपरि मुखवस्त्रिकाधारणं नोपपद्यते, सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमजीवसचित्तरजः प्रवेशादिवारणाय तदानीमपि मुखवस्त्रिकाधारणमावश्यकमेव । किश्चावश्यके 'इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं' इत्यादि-क्षमाश्रमणदानसूत्रस्य व्याख्यायां तट्टीकाकारेण हरिभद्रसूरिणाऽभिहितम् "अयं च प्रकृतसूत्रार्थ:-अवग्रहाद्वहिःस्थितो विनेयोऽविनतकायः करद्वयगृहीतो मुनि बोलते नहीं, क्योंकि ऐसा बोलना तो शास्त्रसे निषिद्ध है। श्रीअन्तकृतद्दशाङ्गके ६ वर्गमें 'अतिमुक्त' शोर्षक पन्द्रहवें अध्ययनमें कहा है-"तएणं' इत्यादि । इस कथनसे भिक्षाचरी (गोचरी) के लिए गये हुवे श्रोगौतमस्वामीने हाथमें भिक्षाका पात्र लिया था, यह बात स्वयं सिद्ध है और दूसरे हाथ की अंगुली अतिमुक्त कुमारने पकड़ ली थी। इस प्रकार जब दोनों हाथ श्रोगौतमस्वामाके रुंधे हुए थे तो मुखवस्त्रिका नहीं रही होगा ? किन्तु सूक्ष्म, व्यापा, संपातिम जीव तथा सचित्त रजका प्रवेश रोकनेके लिए मुखयास्त्रकाकी उस समय भी आवश्यकता थी। भावश्यक सूत्रमें “इच्छामि खमासमणो ! वंदिउँ" इत्यादि क्षमा श्रमणदान सूत्रकी व्याख्यामें व्याख्याकार हरिभद्रसूरिने भी कहा है "अयं" इत्यादि, અને ખુલ્લું મુખે તો મુનિ બેલે નહિ, કારણ કે એમ બેલિવું શાસ્ત્રથી નિષિદ્ધ છે. ___ मन्तकृतदशांगना ६ वर्गभा 'अतिमुक्त' शी५४ ५४२मा २५६ययनमा घुछ 'तए ण" छत्याहि. - આ કથન મુજબ ભિક્ષાચરી (ગોચરી) ને માટે ગએલા શ્રી ગૌતમ સ્વામીએ એક હાથમાં ભિક્ષાનું પાત્ર લીધું હતું એ વાત સ્વયંસિદ્ધ છે અને બીજા હાથની આંગળી અતિમુક્ત કુમારે પકડી લીધી હતી. એ પ્રકારે જે શ્રી ગૌતમ સ્વામીના બેઉ હાથ રોકાઈ ગયા હતાં, તે તે વખતે હાથવડે મુખવસ્ત્રિકા મુખ પર કેવી રીતે રાખી હોય ? કિન્તુ સૂમ, વ્યાપી, સંપાતિમ છે તથા સચિત્ત રજને પ્રવેશ રેવાને માટે એ સમયે પણ મુખવસ્ત્રિકાની આવશ્યક્તા હતી. ___ मापश्य-सूत्रमा 'इच्छामि खमासमणो वैदिउँ' त्या क्षमाश्रमहान सूत्रनी व्या. भ्यामी व्याया।२ भिसूरिये ५४ लुछे 3-'अयं' छत्या. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिकाविचारः २१ तरजोहरणो वन्दनायोद्यत एवमाह-इच्छामि-अभिलषामि हे क्षमाश्रमण ! वन्दितुं नमकारं कर्तुं भवन्तमिति गम्यते" इत्यादि । अत्र 'करद्वयगृहीतरजोहरणः' इति विशेषणं कथयता हरिभद्रसूरिणा ‘मुखोपरि मुखवत्रिकाबन्धनं भगवदभिप्रेत' मिति प्रकटीकृतम्, अन्यथा क्षमाश्रमणसूत्रोच्चारणकाले करद्वयस्य रजोहरणग्रहणे प्रतिबद्धतया मुखोपरि मुखवस्त्रिकास्थापनस्योपायान्तरासम्भवात् क्षमाश्रमणदानमेव निर्विषयं स्यात् । अनावृतमुखेन तु मुनीनां भाषणमेवाऽऽगमप्रतिषिद्धमिति नात्र केषाञ्चिद्विवादः। किश्च क्षमाश्रवणदाने सम्बोधनशब्दप्रयोगे गुरोः स्वाभिमुखीकरणाथै सविशेषप्रयत्नपूर्वकोच्चैःस्वरेण सुस्पष्टोच्चारणं विधेयमस्ति न त्वव्यक्तध्वनिनेत्युपायान्तरेण मुखावरणस्य कर्तुमशक्यतयोक्तजीवविराधना परिहर्तुमशक्यैव । अन्यच्च तत्रैव क्षमाश्रमणदाने गुरुनिदेशानन्तरम-"अहोकायं, कायसंफासं" इत्यस्य व्याख्यायां तेनैव हरिभद्रसूरिणा व्याख्यातं, तथाहि यहाँ "दोनों हाथोंमें रजोहरण लेकर" ऐसा कहने वाले हारभद्रसूरिने यह प्रगट किया है कि मुख पर मुखवस्त्रिका बांधनेकी भगवानको आज्ञा है । अन्यथा जब दोनों हाथों में रजोहरण ले लिया तब मुख पर मुखवस्त्रिका धारण करनेके लिए अन्य उपाय असंभव है । और खुले मुख बोलनेसे क्षमाश्रमण देना हो व्यर्थ हो जायगा। साधुओंको खुले मुख से बोलना शास्त्रविरुद्ध है। इस विषयमें किसीको विवाद नहीं है । दूसरी बात यह है कि क्षमाश्रमणदानमें 'हे क्षमाश्रमण ! ' इस सम्बोधनका प्रयोग किया है। इसलिए गुरुको अपनी ओर अभिमुख करने के लिए विशेषप्रयत्नपूर्वक स्पष्ट उच्चारण करनेकी आवश्यकता है।। अव्यक्त भाषासे संबोधन करना संभव नहीं है । इस प्रकार जब दूसरे उपायसे मुख नहीं ढंका जा सका तो उल्लिखित जीवोंकी विराधना अनिवार्य है। इसके सिवाय इसी क्षमाश्रमणदानमें गुरुकी आज्ञाके अनन्तर "अहोकायं कायसंफासं" इसका उच्चारण मुखवस्त्रिका અહીં બેઉ હાથમાં રજોહરણ લઈને એમ કહેતાં હરિભદ્રસૂરિએ એમ પ્રકટ કર્યું છે કે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાની ભગવાનની આજ્ઞા છે. નહિ તે જે બે હાથમાં રજોહરણ લઈ લીધો એટલે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાને માટે અન્ય ઉપાય અસંભવિત છે, અને ખુલ્લું મુખે બોલવાથી ક્ષમાશ્રમણ આપવાનું જ વ્યર્થ બની જાય. સાધુઓએ ખુલ્લે મુખે બોલવું એ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે, એ સંબંધમાં તે કેઈન વાધો નથી. બીજી વાત એ છે કે ક્ષમાશ્રમદાનમાં હે ક્ષમાશ્રમણ” એ સંબોધનને પ્રવેગ કહેલો છે. તેથી કરીને ગુરૂને પિતાની તરફ અભિમુખ કરવાને માટે વિશેષ–પ્રયત્ન-પૂર્વક સ્પષ્ટ ઉચ્ચારણ કરવાની જરૂર છે. અવ્યકત ભાષાથી સંબોધન કરવાનો સંભવ નથી. એ રીતે જે બીજા ઉપાયથી મુખ ન ઢાંકી શકાય તે ઉપર લખ્યા મુજબ જીની વિરાધના થયા વિના રહે नहि. मे ९५२iत क्षमाश्रमदानमा ४३नी आसानी पछी 'अहोकायं कायसंफास' मे શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रीदशवकालिकसूत्रे "ततः शिष्यो नैषेधिक्यां प्रविश्य गुरुपादान्तिकम्, निधाय तत्र रजोहरणम्, तत् (रजोहरणं) ललाटं च कराभ्यां संस्पृशनिदं भणति-अधस्तात्कायः अध:कायः पादलक्षणस्तमधःकायं प्रति कायेन-निजदेहेन संस्पर्श: कायसंस्पर्शस्तं करोमि, एतच्चानुजानीते-"ति । तत्र संमिलितकरद्वयेन रजोहरण-ललाटयोः संस्पर्श सति 'अहोकायं, कायसंफासं इत्यस्योच्चारणं मुखवस्त्रिकाबन्धनं विना नोपपद्यते, हस्तेन मुखोपरि मुखवस्त्रिकास्थापनं तदानीं न संभवति, हस्तद्वयस्यापि रनोहरणललाटसंस्पर्शप्रतिबद्धत्वान् । अपि च-ज्ञाताधमेकथाङ्गसूत्रे चतुर्दशाध्ययने "तएणं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाणोओ दोवि कन्ने ठाइंति, ठाइत्ता पोट्टिलं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ जाव गुत्तभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारं कन्नेहिवि निसामित्तए किमग पुण उवदिसित्तए वा" इत्याधुक्तम् ।। पोट्टिलया भिक्षार्थ स्वगृहमनुप्रविष्टासु साध्वीषु काचित् पति वशीकर्तुं चूर्णयोगमन्त्रयोगादिकानुपायान् पृष्टा सती की पिधाय प्रोवाच-हे देवानुप्रिये ! वयं श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्यो यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यः स्मः, नो खलु कल्पते अस्माकमेतत्प्रकारं कर्णाभ्यामपि निशामयितु किमङ्ग पुनरुपदेष्टुमित्यर्थः । बांधे बिना नहीं हो सकता और हाथसे मुख पर मुखवस्त्रिका धारण करना उस समय संभव नहीं है, क्योंकि दोनों हाथ रजोहरणको ग्रहण करके ललाटमें लगाये जाते हैं । ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रके चौदहवें अध्ययनमें कहा है-"तएणं " इत्यादि । अर्थात- “पोटिलाके घरमें साध्वोयाँ भिक्षाके लिये गई । उसने अपने पतिको वश करनेके लिए एक साध्वीसे चूर्णयोग और मंत्रयोग आदि उपाय पूछे । तब साध्वीने तत्काल दोनों कान मूंद कर कहा-हे देवानुप्रिये ! हम निम्रन्थ आर्यिका हैं यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी हैं । ऐसी बात सुनना भी हमें नहीं कल्पता तो उपदेश देने की बात ही क्या है ?" ઉચ્ચારણ મુખવસ્ત્રિકા બાંધ્યા વિના થઈ શકતું નથી. અને એ સમયે હાથથી મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાનું સંભવિત નથી, કારણ કે બેઉ હાથ રજોહરણને ગ્રહણ કરીને કપાળે અડાડવાના હોય છે. तय था। सूत्रना योहमा अध्ययनमा थुछ है-'तए थे' त्यादि. मात्પિફ્રિલાનાં ઘરમાં સાધ્વીએ ભિક્ષાને માટે ગઈ. તેણે પિતાના પતિને વશ કરવાને માટે એક સાધ્વીને ચૂર્ણ અને મંત્રગ આદિ ઉપાય પૂછ્યા, ત્યારે સાધ્વીએ તત્કાળ બેઉ કાને હાથ મૂકીને કહ્યું–હે દેવાનુપિયે ! અમે નિર્ચે થ આયિકા છીએ. તેમજ યાવતુ ગુપ્તબ્રહ્મચારિણી છીએ. મારી વાત સાંભળવી પણ અમને કપતી નથી તો પછી ઉપદેશ આપવાની તે વાત જ શી ?” શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिका विचारः लोके हि अनुचितवार्ताश्रवणसमये झटिति कर्णपिधानं हस्ताभ्यामेव विधीयमानं दृश्यते तस्मात् साव्या हस्ताभ्यां की पिधाय प्रतिवचनदाने मुखवस्त्रिकाधारणं बन्धनं विना नोपपद्यते, तदभावे वायुकायादिजीवविराधनाऽवश्यम्भाविनी । किञ्च मुखवस्त्रिकाबन्धनमन्तरेण षट्कायबिराधना दुष्परिहार्या, तथाहि-मुखे सूक्ष्मसचित्तरजःप्रवेशेन पृथिवीकायस्य, वृष्टयादिवशात्सचित्तजलकणानामाकस्मिकनिपातेन धूमिकायाः प्रवेशेन वाऽपकायस्य, तथा यत्र कुत्रापि स्फुलिङ्गा उत्पतन्ति तत्राऽऽकस्मिकसूक्ष्मस्फुलिङ्गनिपातेन तेजस्कायस्य, मुखस्योष्णश्वासनिःश्वासाभ्यां बाह्यवायुकायस्य, 'जत्थ जलं तत्थ वणं', इतिप्रामाण्याज्जलनान्तरीयकतया मुखे सचित्तजलबिन्दुनिपातेनैव वनस्पतिकायस्यापि, तथा सम्पातिम-व्यापि-सूक्ष्म-जीवसम्पातेन त्रसकायस्य विराधना भवतीति । अनुचित बात सुनते समय लोकमें भी झटपट हाथोंसे कान मून्द लेने पर बिना मुखवस्त्रिका बाँधे उत्तर देना युक्त नहीं हो सकता । यदि मुखवत्रिका के बाँधे बिना उत्तर दिया तो वायुकाय आदि जीवोंको विराधना अवश्य हुई। मुखवस्त्रिकाके बाँधे बिना षट्कायकी विराधनाका परिहार नहीं हो सकता । मुखमें सूक्ष्म सचित्त रजका प्रवेश होनेसे पृथ्वीकायकी विराधना होती है । बरसा होने पर सचित्त जलकगोंके अकस्मात् हो मुखमें चले जानेसे अथवा मुखमें धूअर के चले जाने से अप्कायको विराधना होती है । इधर-उधर उड़नेवाली अग्निकी चिनगारी कदाचित् मुखमें घुस जाय तो तेजस्कायको हिंसा होती है । मुखसे निकलती हुई गर्म सांससे बाह्य वायुकायको विराधना होती है । 'जहाँ अप्काय है वहाँ वनस्पतिकाय भी होता है" (जत्थ जलं तत्थ वणं ) इस प्रमाणसे मुखमें सचित्त जल गिरनेसे ही वनस्पति कायकी विराधना होती है । तथा संपातिम, व्यापी और सूक्ष्म जीवोंके घुसनेसे त्रसकायकी भी विराधना होती है । અનુચિત વાત સાંભળતી વખતે લેકમાં પણ ઝટપટ હાથથી કાન ઢાંકવામાં આવે એવું જોવામાં આવે છે. એવી હાલતમાં બેઉ હાથથી બેઉ કાન ઢાંકી લેતાં, મુખત્રિકા બાંધ્યાં વિના ઉત્તર આપ યુક્ત નથી હોતે જે મુખત્રિકા બાંધ્યા વિના ઉત્તર આપવામાં આવે તે વાયુકાય આદિ જીવની વિરાધના અવશ્ય થાય. મુખવસ્ત્રિકા બં ધ્યા વિના પકાયની વિરાધનાને પરિહાર થઈ શક્તા નથી. મુખમાં સૂક્ષ્મ સચિત્ત રજને પ્રવેશ થવાથી પૃથ્વીકાયની વિરાધના થાય છે. (૧) વરસાદ પડતાં સચિત્ત જલકણે અકસ્માત્ મુખમાં જવાથી અથવા મોઢામાં ઝાકળ જવાથી અપકાયની વિરાધના થાય છે (૨) અહીં-તહીં ઉડતી અગ્નિની ચિણગારી કદાચ મુખમાં પેસી જાય તો તેજસ્કાયની હિંસા થાય છે (૩) મુખમાંથી નીકળતા ગરમ શ્વાસથી બાહ્ય વાયુકાયની विराधना थाय छे (४) arni माय छे त्यां वनस्पति य५ डाय छे' (जत्थ जल तत्थ वर्ण) એપ્રમાણથી મુખમાં સચિત્ત જલ પડવાથી વનસ્પતિકાયની પણ વિરાધના થાય છે. (૫) તથા સંપાતિમ, વ્યાપી અને સૂક્ષમ છ પેસી જવાથી ત્રસકાયની પણ વિરાધના થાય છે (૬), શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ . श्रीदशबैकालिकस्त्रे किश्च मुखवत्रिकाबन्धने प्रमादवतः षट्कायविराधना दुर्वारा, यतः प्रतिलेखनकालेऽन्यस्मै तत्प्रत्याख्यानदानेऽपि प्रतिलेखनोपयोगाभावेन प्रमाददोषाविष्टः सन् षट्कायविराधको भवतीति भगवतोत्तराध्ययनसूत्रे प्रतिपादितम्, तथाहि “पडिलेहणं कुणंतो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥ १ ॥ पुढबी-आउक्काए, तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हंपि विराहो होइ ॥ १ " इति । तर्हि का वार्ता ये मुखवस्त्रिकावन्धनमन्तरेण तिष्ठन्ति तेषां प्रमाददोषस्तज्जनितषट्कायविराधना नापतेत् ? आगमे हि मुखवत्रिकाबन्धनपरित्यागे दोषबाहुल्यं प्रदर्शितं तच्च प्रागेवप्रतिपादितम् । इत्थं च यथा नौकादौ सूक्ष्मेऽपि सुषिरे सति नद्यादौ तन्निमज्जनान्महती हानिः, अल्पीयस्या अपि हीरककणिकाया भक्षणे प्राणानामेव नाशः वृश्चिकस्येषदंशनेऽपि सक. लशरीरव्यथनम्, कण्टकाग्रमात्रे बाणाग्रमात्रे च कचिदङ्गे निखाते सकलाङ्गपीडा, नेत्रेड मुखवस्त्रिकाके बाँधनेमें जो साधु प्रमादी होता है उसको षट्कायको विराधना अवश्य लगेगी क्योंकि भगवानने उत्तराध्ययनसूत्रमें कहा है कि-"प्रतिलेखन करनेमें जो साधु प्रमादी है तथा प्रतिलेखनके समय साधु परस्पर बातें करे, जनपद आदिकी कथा करे, पचक्खाण देवे, वांचे अथवा वंचावे तो वह षट्कायका विराधक होता है" तो जो मुखवस्त्रिका बांधे विना रहते हैं उनको प्रमाद-दोष तथा प्रमादजन्य षट्कायकी विराधनाका दोष कैसे नहीं लगेगा ? अर्थात् जरूर लगेगा। मुखवस्त्रिकाके नहीं बांधनेमें आगमोंमें जो बहुतसे दोष कहे गये हैं वे तो पहले प्रतिपादित कर ही चुके हैं। इस प्रकार जैसे नावमें छोटासा छेद होनेपर नदी आदिमें डूब जाने से महान् हानि होती है, छोंटीसी हीराकी कनीका भक्षण करनेसे प्राणोंका ही नाश होता है, बिच्छुके थोड़ासा काट खानेसे सारे शरीरमें व्यथा होती है, कांटे या तीरको जरासी नोंक किसी अंगमें धुस | મુખવસ્ત્રિકા બાંધવામાં જે સાધુ પ્રમાદી હોય છે તેને ષટકાયની વિરાધના અવશ્ય થાય છે કેમકે ભગવાને ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રમાં કહ્યું છે કે “પ્રતિલેખન કરતી વખતે જે સાધુ પરસ્પર વાર્તાલાપ કરે, દેશકથા આદિ કથા કરે, પચફખાણ કરાવે, પોતે વાંચે અથવા વંચાવે તે તે ષટકા અને વિરાધક થાય છે જે એમ છે તે જે મુખત્રિકા બાંધ્યા વગર રહે છે તેને પ્રમાદેદેષ અને પ્રમાદજન્ય ષકાયની વિરાધનાને દેષ કેમ નહીં લાગે ? અર્થાત અવશ્ય લાગે. મુખવસ્ત્રિકા નહીં બાંધવામાં આગમમાં દેષ બતાવ્યા છે તે તે પહેલાં કહી ચુકયા છીએ. એ પ્રકારે જેમ નાવમાં નાનું છિદ્ર પડવાથી તે નદી આદિમાં ડૂબી જવાથી ભારે હાની થાય છે, નાની સરખી હીરા કણીનું ભક્ષણ કરવાથી પ્રાણનો નાશ થાય છે, વીંછી જરા કરડવાથી આખા શરીરમાં ભયંકર વ્યથા થાય છે, કાંટા યા તીરની નાની સરખી અણી કે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिका विचारः २५ णुतरस्यापि रजःकणस्य निपाते नेत्रोपघातः, नासिकाग्रमात्रे स्वल्पेऽपि देहभागे छिन्ने समग्रशरीरशोभोपघातः, स्वल्पेनाऽप्याधा कर्मादिसिक्थेन मिश्रितेऽन्नादौ पूतिकर्मदोषदषितमाहारजात' भवति, स्वल्पेऽपि जिनवचनसन्देहे सर्वचारित्रनाशो जायते, तथैव स्वल्पेऽपि are gaaniबन्धनोपेक्षया षट्कायविराधनायां सत्यां चातुर्मासिकप्रायश्चित्ताधिकारितापत्तिः । तथाचोक्तं निशीथसूत्रे द्वादशोदेशकेऽष्टमसूत्रादारभ्य द्वादशसूत्र यावत् " जे भिक्खू० पुढवीकायस्स कलमायमवि समारंभइ, समारंभतं वा साइज्जइ । एवं जाव वणस्स कायस्स आवज्जइ चाउम्मासियं परिहार द्वाणं " पुनरपि निशीथभाष्ये संयमघातद्वारे महिकाद्यष्काययतनार्थं प्रोक्तम्"वास ताणावरिया णिक्कारणे ठंति, कज्जे जतणाए । हत्थऽच्छिगुलिसण्णा, पोतंतरियावभासंति ||१|| इति । ( नि. भाष्य उ. १९ गा. ५७ ) छाया - वर्षांत्राणावृता निष्कारणे तिष्ठन्ति, कार्ये यतनया । हस्ताक्ष्यङ्गुलीसञ्ज्ञा, पोतान्त एव भाषन्ते ॥ १॥' इति । चूर्णिकारेण "पोतंतरियावभासंति" इति पदस्य चूर्णो हस्तभ्रुवादिसङ्केतेन यदि जाय तो सब अंगमें भयंकर पीड़ा होने लगती है, आँखमें छोटीसी किरकिली घुस जानेसे आँख में तकलीफ होती है, जरासी नाक कट जानेसे सब शरोरकी सुन्दरता नष्ट हो जाती है, आधाकर्म आदि आहारका एक भी सीथ मील जानेसे सब आहार पूतिकर्मदोष से दूषित हो जाता है ' जिनवचनोंमें तनिक भी सन्देह करनेसे समस्त चारित्र का नाश हो जाता है, वैसे ही थोड़ी देर भी मुत्रिका बांध की उपेक्षा करनेसे षट्कायकी विराधना होती है, अतः चातुर्मासिक प्रयश्चित्त लगता है । निशीथसूत्रके बारहवें उद्देशके आठवें सूत्रसे बारहवें सूत्रतकमें कहा है- “ जे भिक्खू ० ' इत्यादि, फिरभी निशीथ सूत्रके भष्यमें संयमघात नामक द्वारके अन्दर, घूँअर आदि अकायकी ताके लिए कहा है 'वासत्ताणा ० ' इत्यादि, इस गाथामें आये हुए 'पोत्ततरियावभासंति' इस पदकी चूर्णि करते समय चूर्णिकारने અંગમાં પેસી જવાથી અંગમાં પીડા થવા લાગે છે, આંખમાં નાનું સરખું કહ્યું પેસી જવાથી આંખમાં તક્લીફ થાય છે, નાનું સરખું નાક કપાઈ જવાથી આખા શરીરની સુંદરતા નષ્ટ થઈ જાય છે, આધાકમ આદિ આહારનું એક કણ પણ મળી જવાથી બધા આહાર પૂતિક્રમ દોષથી દૂષિત થઈ જાય છે. જિનવચનમાં લગાર પણ સ ંદેહ કરવાથી સમસ્ત ચારિત્રને નાશ થઈ જાય છે, તેમ થાડો વખત પણ સુખવસ્ત્રિકા બાંધવાની ઉપેક્ષા કરવાથી ષટ્કાયની વિરાધના થાય છે. તેથી ચાતુર્માસિક પ્રાયશ્ચિત લાગે છે, નિશીથસૂત્રના ખારમા ઉદ્દેશાના आईमा सूत्रयी मारमा सूत्र सुधाभां छे! 'जे भिक्खू' त्याहि, ‘સ’યમદ્યાત' નામના દ્વારમાં ઝાકળ આદિ અકાયની यतना उरती वमते उछु' छे ! 'वासत्ताणा०' इत्यादि, વળી નિશીથસૂત્રના ભાષ્યમાં ४ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकस्ने साधवो नावगच्छन्ति तदाऽवश्यवक्तव्ये सति “मुहपोत्तियअंतरिया जयणाए भासंति" इति प्रतिपादितम् । ___अनेन स्पष्टं सिध्यति-यत् मुखवस्त्रिका साधूनां मुखे पूर्व बद्धाऽऽसीदिति तेनैव कारणेन 'मुखपोतान्त एव यतनया मन्द-मन्दं भाषन्ते' इत्युक्तम् । किश्च विधिप्रपाग्रन्थे चारित्रातिचारपायश्चित्ताधिकारे मुखवस्त्रिकामन्तरेण भाषणनिषेधः प्रतिपादितः । किश्च पूर्वोक्तदिशा षटकायविराधकस्य तद्विराधनावर्जनपरकभगवदाज्ञाभगदोषप्रसङ्गः।। तथा च सति अविधिविधानं, ततो मिथ्यात्वं, तस्माच्चारित्रविराधना ततश्च दीर्घसंसारित्वं प्रपद्येत, अत एवाऽऽज्ञाभङ्गकर्तगुरुतरप्रायश्चित्तं प्रदर्शितम् । उक्तं हि बृहत्कल्पभाष्ये "अवराहे लहुगयरो, आणाभंगंमि गुरुतरो फिहणु ? । आणाए चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ? ॥१॥” इति । कहा है-अगर साधु हाथ आंख आदिके इशारेसे नहीं समझ सके और बोलना ही जरूरी समझे तो 'मुखवस्त्रिकाके अंदर ही यतनासे (धीरे-धीरे) बोले ' इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुओंके मुख पर मुखवस्त्रिका पहले बांधी हुई थीं इसी कारण को लेकर ही मुखस्त्रिकाके अंदर ही यतनासे (धीरे धीरे) बोले' ऐसा कहा हैं। फिर 'विधिप्रपा' नामके ग्रन्थमें भी चारित्रके अतिचारोंका प्रायश्चित्त कहते समय मुखवत्रिकाके विना बोलनेका स्पष्ट निषेध किया गया है। तथा-पूर्वोक्त रीतिसे षटूकायकी विराधना करनेवालेको भगवान्की “षट्कायकी विराधनाका त्याग करना" इस आज्ञाके भंग करनेका दोष लगता है, यह दोष लगनेसे अविधिका विधान, अविधिका विधान करनेसे मिथ्यात्व, मिथ्यत्वसे चारित्रकी विराधना और चारित्रकी विराधनासे दीर्घसंसारित्वकी प्राप्ति होती है। इसीसे आज्ञाभंगका गुरुत्तर प्रायश्चित्त लगता है। बृहत्कल्पभाष्यमें कहा है-'अवराहे" इत्यादि, આથી સિદ્ધ થાય છે કે સાધુઓના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી હતી. આ કારણને सीधे 'पोतंतरियावभासंति' मा पहनी यूणि ४२i यूगिरे हुछ-"साधु ઈશારાથી ન સમજે અને બેલવું જ પડે છે તે મુખત્રિકાની અંદર જ યતનાથી બેલે વળી વિધિપ્રપા' નામના ગ્રન્થમાં પણ ચારિત્રનાં અતિચારોની શુદ્ધિના પ્રકરણમાં મુખવસ્ત્રિકા વગર બલવાને નિષેધ કર્યો છે ! તથા–પૂર્વોક્ત રીતથી ષકાયની વિરાધના કરનારને ભગવાનની “ષટકાયની વિરાધનાને ત્યાગ કરવો” આ આજ્ઞાને ભંગ કરવાને દોષ લાગે છે. આ દેષ લાગવાથી અવિધિનું વિધાન, અવિધિ-વિધાનથી મિથ્યાત્વ, મિથ્યાત્વથી ચારિત્રની વિરાધના અને ચારિત્રની વિરાધનાથી દીર્ઘ સંસારિત્વની પ્રાપ્તિ થાય છે. એથી આજ્ઞાભંગનું ગુરૂતર પ્રાયશ્ચિત લાગે છે. Y९४८५साव्यमा धुं छे–'अवराहे' त्यादि. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा० १ मुखवस्त्रिकाविचारः सर्वमेव चारित्रं भगवदाज्ञायामेव व्यवस्थिम्, अतस्तद्भङ्गे मूलोत्तरगुणादिकं वस्तु किन भग्नम् ? अपि तु सर्वमपि भग्नमिति हेतोस्तत्र गुरुतरप्रायश्चित्तं युक्तमेवेति भावः । तस्मात् - मुखोपरि मुखवस्त्रिकाबन्धनं सकलजैनागमप्रतिपाद्यमिति सिद्धम् । एवं च भगवती सूत्रे 'सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' इति वाक्यस्य सूक्ष्मकार्य - मुखवस्त्रिकाम् 'अणिज्जू हित्ता' = अपोध परित्यज्य - अवदध्वेत्यर्थो बोध्यः एवमन्यत्राऽप्यूहनीयम् । २७ यत्तु आचारासूत्रे उच्छ्वासादिकाले मुखपिधानोपदेशेन मुखवस्त्रिका करेणैव धारया न तु दोरकेणेति तत्तत्समये एव मुखवत्रिकया घ्राणमुखादिपिधानं विधेयमिति च प्रतीयते, दोरकावलम्बने मुखवत्रिकायाः सदा धारणीयत्वे तु पुनर्मुखपिधानोपदेशो व्यर्थः स्यादिति वदन्ति तदज्ञानमूलम् । आचाराङ्ग - सूत्रपाठी हि तावदेवं विद्यते " से भिक्खु वा २ उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा समस्त चारित्र भागवान् की आज्ञामें ही है । भगवान्की आज्ञाका भंग होने पर मूलगुण उत्तरगुण आदि सभी नष्ट हो जाते हैं । अतः आज्ञाभंग में गुरुतर प्रायश्चित्त देना युक्त ही है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि मुख पर मुखवस्त्रिका बांधना सव जैनशास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकार भगबती सूत्रके 'सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' वाक्यका अर्थ यह समझना चाहिये कि 'मुखका त्याग करके अर्थात् न बांध करके ' ऐसा सब जगह समझना चाहिए । प्रश्न-आचाराङ्गसूत्रमें उच्छ्वास आदि लेते समय मुख ढकने का उपदेश दिया है। इससे यह प्रतीत होता है कि मुखवस्त्रिका हाथमें ही रखनी चाहिए, डोरेसे नहीं बांधनी चाहिए, अमुक-अमुक समय पर ही जब उच्छ्वास आदि आवे तब ही नाक या मुख ढँक लेना चाहिए । डोरेसे मुखवfत्रका धारण करना उचित हो तो पुनः मुख ढंकनेका उपदेश व्यर्थ हो जायगा । उत्तर - ऐसा प्रश्न करना अज्ञानता हैं । आचाराङ्ग सूत्रका पाठ ऐसा हैं । સમસ્ત ચારિત્ર ભગવાનની આજ્ઞામાં જ રહેલુ છે. ભગવાનની આજ્ઞાના ભંગ થવાથી મૂળગુણ ઉત્તર ગુણ આદિ બધુ નષ્ટ થઇ જાય છે. તેથી આજ્ઞાભ ંગમાં ગુરૂતર પ્રાયશ્ચિત્ત આવે છે. એ રીતે સિદ્ધ થયું કે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એવુ બધાં જૈનશાસ્ત્રામાં પ્રતિપાદન छे. मेटला भाटे लगवती-सूत्रना 'सुहुमकायं अणिज्जू हित्ताणं' से वा४यन। अर्थ એમ સમજવા જોઈએ કે ‘મુખવત્રિકાના ત્યાગ કરીને અર્થાત્ ન બાંધીને.' એજ પ્રમાણે અધી જગ્યાએ સમજવું. પ્રશ્ન-આચારાંગ-સૂત્રમાં ઉચ્છ્વાસ આદિ લેતી વખતે મુખ ઢાંકવાને ઉપદેશ આપ્યા છે. એથી એમ પ્રતીત થાય છે કે મુખસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઈએ, દારાથી આંધવી જોઈ એ નહિ, અમુક અમુક સમયે જ જયારે ઉચ્છ્વાસ આદિ આવે ત્યારે જ નાક ચા સુખ ઢાંકી લેવુ જોઈએ, દોરાથી મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવી ઉચિત હાય તા પછી પુન: સુખ ઢાંકવાના ઉપદેશ બ્ય થઇ જશે. उत्तर-सेवा प्रश्न वो अज्ञानता छे, मायारांग-सूत्र पाठ वा छे શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसर्ग वा करेमाणे पुवामेव आसयं वा पोसयौं वा पाणिणा परिपेहिता तओ संजयामेव ऊससिज्ज वा जाव वायनिसग्गं वा करेज्जा" (सूत्र१०९) इति । छाया-"स भिक्षुर्वा२ उच्छ्वसन् वा, निःश्वसन वा, कासमानः (कासं कुर्वन्) वा क्षुवन् (क्षुतं कुर्वन्) वा, 'जम्भमाणो वा', उद्गिरन् वा, (अधिष्ठानेन) वातनिसर्ग वा कुर्वन् पूर्वमेव आस्यकं वा पोषकं वा पाणिना परिपिधाय ततः संयत एव उच्छ्वसेद् वा यावद् वातनिसर्ग वा कुर्यात्." इति संस्कृतम् । अत्र "आसय” इति लक्षणावृत्त्या घ्राणस्यापि बोधकम्, “उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा छीयमाणे वा” इति पदानि लक्षणायां तात्पर्यग्राहकाणि । 'आसयं' इत्यस्य मुखमात्रपरत्वे तु पाणिना तत्परिविधानेऽपि घ्राणजन्योच्छवासादियतनाया अनुपपत्तेः । ____ अनेन सूत्रेण 'उच्छ्वासादिकाले आस्यकपोषकपरिपिधानं पाणिना विधेय मिति बोधयतो भगवतस्तात्पर्य मुखवस्त्रिकया पिधाने कल्पयन्तः पण्डिताभिमानिन एवमनुयोक्तव्या:-'पाणि' शब्दस्य मुखवस्विकारूपोऽर्थः किं वाच्यो लक्ष्यो व्यङ्गयो वा ? । नाधः, "भिक्षु श्वासोउछ्च्वास लेते समय, खांसते समय, छींकते समय, जंभाते समय, डकारते समय तथा अधोवायुका त्याग करते समय पहले मुख अथवा मलद्वारको हाथसे ढंककर फिर यतनापूर्वक श्वास लेवे यावत् अधोवायुका त्याग करे"। यहाँ 'आसयं (मुख) पद लक्षणाके द्वारा घ्राणकाभी बोध है। 'उस्सासमाणे वा निस्सासमाणे वा छोयमाणे वा' ये पद लक्षणामें तात्पर्यके ग्राही हैं। 'आसयं पदसे केवल मुखका अर्थ लिया जाय तो हाथसे मुख टैंक लेनेपर भी नाकसे निकलनेवाले उच्छ्वास आदिकी यतना नहीं हो सकती इस सूत्रसे उच्छ्वास लेते समय आस्यक और पोषक (मलद्वार) को हाथसे ढंक लेना चाहिये, ऐसा भगवान् बताते हैं, फिर भी नामधारी पंडित 'मुखवत्रिकासे ढंकना चाहिए' ऐसा अर्थ निकालते हैं। उनसे हम पूछते हैं कि तुम हाथका अर्थ मुखवत्रिका करते हो सो वह अर्थ वाच्य है, या लक्ष्य “ભિક્ષુ શ્વાસોચ્છવાસ લેતી વખતે, ઉધરસ ખાતી વખતે છીંકતી વખતે, બગાસું ખાતી વખતે, ઓડકાર ખાતી વખતે તથા અધેવાયુને ત્યાગ કરતી વખતે, પહેલાં મુખ અથવા મળદ્વારને હાથથી ઢાંકીને પછી યતના પૂર્વક શ્વાસ યથાવત્ અધેવાયુને ત્યાગ કરે.” ____ मही' 'आसय' (भुम) शह पक्ष प्रागुन ५ माप छ. 'उस्सासमाणे वा निस्सासमाणे वा छीयमाणे वा' से पह! क्षमा तात्पर्यन पाहा छ. आसयं शहथी કેવળ મુખને અર્થ લેવામાં આવે તો હાથથી મુખ ઢાંકી લેવા છતાં પણ નાકથી નીકળનાર ઉન્ડ્રવાસ આદિની યતના થઈ શકતી નથી. આ સૂત્રથી ઉચ્છવાસ લેતી વખતે આશ્યક અને પોષક (મલદ્વાર) ને હાથથી ઢાંકી લેવું જોઈએ એમ ભગવાન બતાવે છે, છતાં પણ નામધારી પંડિત મુખવસ્ત્રિકાથી ઢાંકવું જોઈએ' એવો અર્થ કાઢે છે. એમને અમે પૂછીએ છીએ કે તમે હાથનો અર્થ મુખવસ્ત્રિકા કરો છે, તે એ અર્થ વાય છે, યા લક્ષ્ય છે કે વ્યંગ્ય છે ? પહેલે પક્ષ તે બરાબર નથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा.१ मुखवस्त्रिका विद्यारः अभिधाशक्तिग्राहकव्याकरणकोशादिभिरुक्तार्थालाभात, 'पञ्चशास्वः शयः पाणि'-रित्यमरकोशव्याख्यायां पञ्च शाखा इवाशुलयोऽस्येति पञ्चशाखः शेतेऽस्मिन् सर्वमिति शयः, ( 'पुंसि' ३।३।१२११) घः । पणायन्त्यनेनेति पाणिः 'पण व्यवहारे स्तुतौ च' इत्यस्मात् 'अशिपणाय्योरुडायलुकौ च' ( उ० ४।१३३) इतीण, 'आयप्रत्ययस्य लुक चे' -ति व्युत्पादनेन तत्र करवाचकत्वस्यैव लाभाच्च । नापि द्वितीयः, मुख्यार्थकरकरणकपिधानतात्पर्यस्य निर्बाधेन तात्पर्यानुपपत्तिरु पलक्षणाबीजस्याभावात् । ___ नापि तृतीयः, मुख्यार्थतात्पर्यकत्वेनैव करेण पायुपिधानस्यापरकरेण मुखघ्राणपिधानस्य चोपपत्त्या व्यङ्गयार्थमुखवस्त्रिकातात्पर्यकत्वकल्पनाया अनावश्यकत्वात्, अनौया व्यङ्गय है ?। पहला पक्ष तो ठोक नहीं हैं, क्योंकि अभिधाशक्तिके ग्राहक व्याकरण कोष आदिकोंमें यह अर्थ नहीं मिलता। अमरकोषमें हाथके तीन नाम दिये हैं-(१) पञ्चशाख (२) शय और (३) पानी। व्याख्यामें बताया है कि शाखा जैसे पाँच अंगुलियाँ होती हैं इसलिए इसे पञ्चशाख कहते हैं उसमें सब वस्तुएँ सोती (रखी जाती) हैं इसलिए शय कहते हैं। उससे सब लेनदेन आदि व्यवहार होते हैं अतः उसे पाणि कहते हैं। "अशिपणाय्यो रुडायलुको च" (उ०४।१३३) इससूत्रसे 'इण्' होता है और 'आय' प्रत्ययका लुक होता है। ऐसी व्युत्पत्ति करनेसे 'कर' का वाचक ही होता है। दूसरा भी पक्ष (लक्ष्य अर्थ वहाँ माना जाता है जहाँ मुख्य (शाब्दिक) अर्थ लेनेमें किसी प्रकारकी बाधा आती हो । यहाँ पर 'हाथसे ढंक कर' ऐसा अर्थ करने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए लक्षणा नहीं हो सकती, अतः यह लक्ष्य अर्थ भी नहीं है। तोसरा (व्यङ्गय अर्थ मानना) भी पक्ष बाधित है। जब प्रधान अर्थ लेनेसे एक हाथसे मल द्वार कना और दूसरे हाथसे नाक-मुखका ढंकना युक्त है तो व्यङ्गय अर्थ (मुखवत्रिकाके तात्पर्यकी કારણ કે અભિધા શક્તિના ગ્રાહક વ્યાકરણ કોષ આદિમાં એ અર્થ નથી મળતો. અમરऔषमा डायना नाम मायां छ. (१) यशाम, (२) शय मन (3) पाणितनी વ્યાખ્યામાં બતાવ્યું છે કે શાખા જેવી પાંચ આંગળીઓ હોય છે તેથી તેને “પંચશાખ” કહે છે. એમાં બધી વસ્તુઓ સૂએ (રાખવામાં આવે છે તેથી તેને “શય કહે છે. તે વડે બધે सय वगैरेनी पवार थाय छ तेथी मेने 'पछि अशिपणाय्यो रुडायलुको च (उ० ४ १३3) मे सूत्रथी इण शाय छ भने आय प्रत्यय लुक थाय छे. मेवी व्युत्पत्ति કરવાથી જ ને વાચક જ બને છે. બીજે પક્ષ પણ (લક્ષ્ય અર્થ માન) બરાબર નથી. લક્ષ્ય અર્થે ત્યાં માનવામાં આવે છે કે જ્યાં મુખ્ય (શાબ્દિક) અર્થ લેવામાં કઈ પ્રકારની બાધા આવે. અહીં હાથથી ઢાંકીને એ અર્થ કરવામાં કઈ બાધા આવતી નથી, તેથી લક્ષણ થઈ શક્તી નથી, એટલે એ લક્ષ્ય અર્થ પણ નથી. - ત્રીજો પક્ષ (વ્યંગ્ય અર્થ માન) પણ બાધિત છે. જ્યારે પ્રધાન અર્થ લેવાથી એક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे चित्याच्च । वायुनिसर्गानन्तरं क्षुते जायमाने पायुनिर्गतवायुसंसृष्टया मुखवत्रिकया मुखघ्राणपिधानस्यानौचित्यमापामरप्रतीतमेव । पाणिशब्देऽजहल्लक्षणावृति स्वीकृत्य पाणिस्थितमुखवस्त्रिकये' त्यर्थकल्पनेऽपि नोक्तानौचित्यदोषनिस्तारः । अपिच-आस्यक पोषकैतदुभयपरिपिधाने पाणिनेत्येकमेव साधनमुक्तं, तत्र पाणिस्थितमुखवस्त्रिकायेाङ्गीकारे दोर्षोच्छ्वासादोनामधोवायुनिसर्ग. स्य च योगपद्ये सति कथमेकयैव पाणिस्थितया मुखवस्त्रिकया युगपदेव घ्राणं मुखं पायुश्चाऽऽवरीतुं शक्यत इति "पाणिणा परिपेहित्ता" इति भगवद्वाक्यस्यानुपपत्तिः । न च 'एकपाणिस्थितया मुखव स्त्रियाऽऽस्यकम्, अपरपाणिस्थितया पायुवस्त्रिकया पोषकं परिपिधाये' त्याङ्गीकारेण समाधाने सुशकमिति वाच्यम्, सकृदुच्चरितन्यायविरोधेन तादृशार्थकल्पनायाः कत्तुमशक्यत्वात् । कल्पना करना) अनावश्यक और अनुचित है। अधोवायु निकलते ही किसीको छींक आने लगे तो उसी अधोवायुवासित मुखवत्रिकासे 'मुख' और नाक मंदना बिलकुल अनुचित है और इस अनौचित्यको हरेक समझ सकता है। यदि 'पाणि' शब्दमें अजहल्लक्षणा वृत्ति मानकर 'पाणि' (हाथ) से पाणिमें स्थित मुखवस्त्रिका अर्थ लोगे तो भी अनौचित्य दोष नहीं हट सकता । दूसरी बात यह है कि मुख और मलद्वार ढंकनेका पाणिरूप एक ही साधन बताया है। यदि इसका अर्थ मुखवस्त्रिका किया जावे तो जब एक ही साथ अधोवायु और दीर्घ उच्छ्वास आवेगा तब एक ही मुखवस्त्रिका मलद्वार पर लगाई जावेगी या मुँहपर ? और यदि साथ ही छींक भी आयगी तो वही नाकमें कैसे लगाई जावेगी ? क्योंकि एक मुखवस्त्रिकासे एकसाथ ही सब द्वार नहीं हँाके जा सकते । अतः 'पाणिणा परिपेहित्ता' यह भगवान्का वचन ठीक नहीं बैठेगा । यदि ऐसा समाधान करना चाहो कि एक हाथહાથથી મળદ્વાર ઢાંકવું અને બીજા હાથે નાક-મુખને ઢાંકવુ ચુકત છે તે વ્યંગ્યાથ (મુખવસ્ત્રિકાના તાત્પર્યાની કલ્પના કરવી) અનાવશ્યક અને અનુચિત છે. અધેવાયુ નીકળતી વખતે જ કોઈને છીંક આવવા લાગે તે એ અધેવાયુથી વાસિત મુખવસ્ત્રિકાથી સુખ અને નાક ઢાંકવાં એ બિલકુલ અનુચિત છે. અને એ અનૌચિત્યને સૌ કોઈ સમજી શકે છે. જે પાણિ' શબ્દમાં અજહુલક્ષણ વૃત્તિ માનીને, “પાણિ (હાથ) થી પાણિમાં સ્થિત મુખવરિત્રકાને અર્થ લેશે તે પણ અનૌચિત્ય દોષ દૂર થઈ શકતું નથી. બીજી વાત એ છે કે મુખ અને મળદ્વાર ઢાંકવાનું પાણિરૂપ એકજ સાધન બતાવ્યું છે. જે એનો અર્થ મુખ. વસ્ત્રિકા કરવામાં આવે તે જ્યારે એકી સાથે અધેવાયુ અને દીર્ઘ ઉચ્છવાસ આવશે ત્યારે એક જ મુખવસ્ત્રિકા મળદ્વાર પર લગાડવામાં આવશે કે મુખ પર ? અને જે સાથે જ છીંક પણ આવશે તે તે નાક પર કેવી રીતે લગાડવામાં આવશે ? કારણ કે એક भुमरिया मेडी साथ मां दार ढist Asidi नथी. तथा 'पाणिणा परिपेहिता' मे ભગવાનનું વચન બરાબર બંધ બેસશે નહિં. જે એવું સમાધાન કરવા ઈચ્છો કે એક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखपस्त्रिकाविधारः किच तेषामयोगपधेऽपि पायुपिधायकवस्त्रखण्डे मुखवस्त्रिकात्वकल्पनं परमभ्रान्तिमूलम्, मुखपावोरैक्याभावात् । अनावृतस्यैव मुखादेवरावरणे तात्पर्यसत्त्वे परिपिधायेत्यत्र परीत्युपसर्गप्रयोगस्याऽऽनर्थक्यापत्तिश्च, अपिपूर्वकादपि ल्यप्प्रत्ययसिद्धः। किश्च-'आवृतस्य पुनरावरण व्यर्थमेवेति हेतोरनावतस्यैवाऽऽवरणार्थमयमुपदेशः' इति वदतस्तव हस्तवत्रिकाधारकस्य मते पोषकस्य परिधानवसनानावरणीयतापत्तिः, अन्यथा परिधानवस्त्रावृतपोषकावरणोपदेशस्य वैयथ्यापत्तिरित्युभयथाऽपि न दोषनिस्तारः। तस्मात्-"आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता" इति भगवद्वाक्यस्य 'मुखवत्रिका करेणैव धारणीया नतु दोरकेणे'-त्यर्थकल्पनं साहसमात्रम् । की मुंहपत्तोसे मुँह और दूसरे हाथके पायुवस्त्रसे मलद्वार ढक लेवेंगे, सो ठीक नहीं है । 'सकृदुच्चरितन्याय' से ऐसी कल्पना करना शक्य नहीं हैं। अधोवायु और छींक आदि एक साथ न भी हों तो भी अधोवायुको यतना करनेवाले वस्त्रको मुखवस्त्रिका कहना भारी भूल है, क्योंकि मुख और मलद्वार एक चीज नहीं हैं-दोनों अलग अलग हैं। यदि खुले मुख बोलनेका तात्पर्य हो तो 'परिपेहित्ता' पदमें 'परि' उपसर्ग व्यर्थ हो जायगा , क्योंकि 'अपि' उपसर्गपूर्वक धातुसे भी ल्यप् प्रत्यय होता है। ढंके हुएको फिर ढाँकना वृथा ही है, वगैर वैंके हुए को ढंकनेके लिए यह उपदेश दिया है।'-यदि हाथमें मुँहपत्ति रखने वाले ऐसा कहेंगे तो यह सिद्ध हो जायगा कि उनका मलद्वार सदा अनावृत (उघड़ा हुआ) रहता हैं। नहीं तो आवृतको फिर आवरण करनेका उपदेश व्यर्थ हो जायगा । अतएव" आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता" इस भगवद्वाक्य का यह अर्थ निकालना कि- मुखवस्त्रिका हाथ ही में रखनी चाहिए डोरेसे मुख पर नहीं बाधना चाहिए ऐसी कल्पना करना साहसमात्र है। હાથની મુહપત્તિથી મુખ અને બીજા હાથના પાયુવસ્ત્રથી મળદ્વાર ઢાંકી લેવાશે, તે તે परामर नथी, ४२६ सकृदुश्चरितन्यायथी मेवी ४६पना ४२वी शय नथी. અધેવાયુ અને છીંક આદિ એકી–સાથે ન હોય તે પણ અધેવાયુની યતના કરનારા વસ્ત્રને મુખત્રિકા કહેવી એ મોટી ભૂલ છે, કારણ કે મુખ અને મળદ્વાર એક ચીજ નથી. બેઉ અલગ અલગ છે. જે ખુલે મુખે બોલવાનું તાત્પર્ય હોય તે િિહરા શબ્દમાં પર ઉપગ વ્યર્થ થઈ જશે કારણ કે અતિ ઉપસર્ગો પૂર્વક ધાતુથી પણ હચ પ્રત્યય થાય છે. ઢાંકેલાને ફરીથી ઢાંકવું એ વૃથા છે, તેથી ઢાંકયા વગરનાને ઢાંકવાને માટે આ ઉપદેશ આપે છે. જે હાથમાં મુહપત્તી રાખનાર એમ કહેશે તે એમ સિદ્ધ થશે કે એનું મળદ્વાર સદા અનાવૃત ( ઉઘાડું) રહે છે. નહિ તે આવૃતને ફરી આવરણ કરવાનો ઉપદેશ व्यर्थ मनी शे. तेथी ४ आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता' को ल. વાક્યનો એ અર્થ કાઢ કે “મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઈએ, દોરાથી મુખ પર બાંધવી ન જોઈએ એવી કલ્પના કરવી એ સાહસમાત્ર છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मम तु सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवविराधनापरिहारार्थ बद्धमुखवस्त्रिकस्योच्छ्वासादिकाले मुखोद्गतवायुवेगेन मुखतो दोरकावलम्बिततदपगमसम्भावनायाः सत्त्वेन तन्निवारणाय मुखवस्त्रिकाऽऽवृतस्यापि मुखस्य पाणिना परिपिधानमावश्यकमेव । एवं परिधानवस्त्राऽऽवृतस्यापि पोषकस्य परिपिधान विधेयमेव, उच्छ्वासादीनां योगपधेऽयोगपद्य वा एकेन करेण घ्राणमुखपिधानम्, अपरेण पायुपिधानं विधेयमिति भावः । पाणिनेत्यत्रैकवचनमपि पाणित्वजातावन्वयविवक्षयेत्युभयपाणिबोधकत्वेऽप्यनुकूलमेव । किश्च पाणिशब्दस्य मुख्यार्थबाधाऽभावेन मुख्यार्थबाधमूलिका लक्षणापि नाङ्गीकरणीया भवति । तथा चोक्तसूक्ष्मव्यापिप्रभृतिविविधजीवहिंसावारणाय सदैव सदोरकमुखवस्त्रिकाधारणं नैतत्सूत्रतो विरुध्यते, किन्तु परिपिधायेत्यत्र परिशब्दप्रयोगेण भगवान् मुखवस्त्रिकापिहितस्यव मुखस्य पिधानमावेदयतीत्यलं पल्लवितेन । हमारे मतसे सूक्ष्म, व्यापी, संपातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी विराधनासे बचनेके लिए मुखवस्त्रिका बँधी हुई होने पर भी उच्छ्वास आदिके समय मुखसे निकलने वाले वायुके वेगसे मुखवस्त्रिकाके खिसक जानेकी संभावना रहती है, इसलिए उस संभावनाको दूर करनेके वास्ते मुखवस्त्रिकासे आवृत मुखको फिर हाथसे आवृत करना आवश्यक है। इसो प्रकार चोलपट्ट होने पर भो अधोवायुके विषयमें समझना चाहिए। उच्छ्वास आदि एक ही साथ होवें तो एक हाथ से मुख और नाक ढंकले और दूसरे हाथसे अधोवायुकी यतना करे। "पाणिणा" यद्यपि एक वचन है, इसलिए हमारे मतके अनुकूल हो है। यहाँ पाणि" शब्दके मुख्य अर्थमें बाधा नहीं है अतः लक्षणा भी मानना योग्य नहीं हैं, क्योंकि लक्षणा वहीं होती है जहाँ मुख्य अर्थ में बाधा आती हो । इसलिए उक्त सुक्ष्म व्यापी वगैरह विविध जीवोंको विराधनासे बचने के वास्ते सदैव डोरा सहित मुखवस्त्रि का मुख पर बांधना - અમારે મતે સૂમ, વ્યાપી, સંપતિમ તથા વાયુકાય આદિ જીવેની વિરાધનાથી બચવાને માટે મુખવસ્ત્રિકા બાંધી હોવા છતાં ઉછુવાસ આદિને સમયે મુખથી નીકળતા વાયુના વેગથી મુખવસ્ત્રિકા ખસી જવાની સંભાવના રહે છે. તેથી એ સંભાવનાને દૂર કરવાને માટે મુખસ્ત્રિકાથી ઢાંકેલા મુખને પણ હાથથી ઢાંકવાની આવશ્યકતા છે. એજ રીતે ચલપટ્ટ હોવા છતાં પણ અધોવાયુના વિષયમાં સમજવું. ઉચ્છવાસ આદિ જે એકી સાથે જ થાય તો એક હાથથી મુખ અને નાક ઢાંકી લેવાં અને બીજા હાથથી અધેવાયુની યતના કરવી. पाणिणा वयन छ ता५५ पावि नतिमा अन्य थवाथी मे लायने। બેધક થાય છે તેથી અમારે મને તે શબ્દ અનુકૂળજ છે. અહીં જ શબ્દના મુખ્ય અર્થમાં બાધા નથી તેથી લક્ષણ પણ માનવા ગ્ય નથી, કારણ કે લક્ષણે ત્યાં થાય છે કે જ્યાં મુખ્ય અર્થમાં બાધા આવતી હોય તેથી કરીને ઉકત સૂફમ, વ્યાપી વગેરે વિવિધ જીવોની વિરાધનાથી બચવાને માટે સદૈવ દેરા साथै भुभवस्ति माधवी से सूत्रथा वि३० नथी, ५२न्तु परिपेहित्ता मही परि. ५सना શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिकाविचारः केचित्तु - 'विपाकसूत्रे मृगापुत्राध्ययने - " तर णं सा मिया देवी तं कट्टसगडियं अणुकड्ढेमाणी२ जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता चउप्पुडेणं वत्थेणं मुह बंधमाणी भगवं गोयमं एवं वयासि - तुम्भेवि णं भंते ! मुहपोत्तियाए मुह बंधेह । तए से भगवं गोयमे मियाए देवीए एवं वृत्ते समाणे मुहपोतियाए मुह बंधइ" इत्युक्तं, तस्यायमाशयः - मृगापुत्रं दर्शयितुं प्रवृत्ता मृगादेवी भूमिगृहद्वारोद्घाटनकाले दुर्गन्धाघ्राणवारणाय चतुष्पुटेन वस्त्रेण स्वमुखं बध्नती भगवन्तं गौतमं जगाद - हे भदन्त ! त्वमपि मुखपोतिकया मुखं बधान, ततः स भगवान् गौतमो मृगादेव्यैवमुक्तः सन् मुखपोतिकया मुखं बध्नाति (स्म) इति । इदमनेन सुस्पष्टं प्रतीयते - गौतमस्वामिनो मुखोपरि मुखवस्त्रिका बद्धा नासीत् किन्तु हस्त एव धृतेति, अत एव मृगादेवी दुर्गन्धाघ्राणप्रतिबन्धाय "तुन्भेवि णं भंते ! मुहपोत्तियाए मुह बंधेह" इति प्रार्थितवतीत्याहुः तन्न सम्यक् - उष्णमुखवायुतः सम्पातिमक्ष्मव्यापिजीवानां रक्षणार्थ बाह्यवायुकायरक्षार्थ च मुखवस्त्रिइस सूत्र से विरुद्ध नहीं है । परन्तु ' परिपेहित्ता 'परि' उपसर्गके प्रयोगसे प्रगट है कि श्रीमहावीर प्रभुने मुहपत्ति से पिहित (ढके हुए) मुखको पुनः विधान करना प्रतिपादित किया है । ३३ कोई कोई ऐसा कहते हैं कि विपाकसूत्रमें मृगापुत्रके अध्ययनमें ऐसा लिखा है- "तए णं सा" इत्यादि इसका आशय यह है कि मृगादेवी जब मृगापुत्रको आहार देनेके लिए भोंयरेके किवाड़ खोलने लगी तब नाक में दुर्गन्ध आनेका निवारण करनेके लिए चार पड़वाला वस्त्र मुख पर बांधकर भगवान् गौतमस्वामी से कहने लगी- 'हे भदन्त । आप भी मुखवस्त्रिका से मुख बांध लीजिये' । मृगादेवीका कथन सुनकर भगवान् श्री गौतम मुखवस्त्रिका से मुख बांधते हैं (वांध लिया ) । ' इससे यह बिलकुल स्पष्ट है कि पहले श्रीगौतमस्वामीके मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं बंधी हुई थी, किन्तु हाथमें थी, इसीसे मृगादेवीने मुखवत्रिका बांघने की प्रार्थना की थी । उनका यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मुखको પ્રત્યેાગથી સ્પષ્ટ થાય છે કે મહાવીર પ્રભુએ મુહપત્તિથી પિતિ (ઢાંકેલા) મુખને પુનઃ ઢાંકુવાનું પ્રતિપાદિત કર્યું છે. अर्थ है। खेभ छेडे विषासूत्रमां गापुत्रना अध्ययनमां सभ्युं छे- 'तपणं सा' ઇત્યાદિ. એના આશય એ છે કે મૃગાદેવી જ્યારે મૃગાપુત્રને આહાર દેવાને માટે ભેાંયરાનાં માડ ખેાલવા લાગી ત્યારે નાકમાં દુર્ગંધ આવતી નિવારવાને માટે ચાર પડવાળું વસ્ત્ર મુખ પર બાંધીને ભગવાન ગૌતમ સ્વામીને કહેવા લાગી કે-હે ભદન્ત ! આપ પણ સુખ-વસ્તિકાથી મુખ બાંધી લ્યેા. મૃગાદેવીનું થન સાંભળીને ભગવાન્ ગૌતમ મુખવસ્ત્રિકાથી મુખ મધે છે ( માંધી લીધું. ) આથી એ તદ્દન સ્પષ્ટ થાય છે કે પહેલાં ગૌતમ સ્વામીના સુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી નહેાતી, કિન્તુ હાથમાં હતી, તેથી મૃગાદેવીએ મુખવસ્ત્રિકા માંધવાની પ્રાથના કરી હતી. એમનુ એ કહેવું ખરાખર નથી; કારણ કે મુખના ઉષ્ણ વાયુથી સ*પાતિમ, સૂક્ષ્મ અને વ્યાપી જીવાની રક્ષા કરવાને માટે તથા માહ્ય વાયુકાયની શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्र काबन्धनस्य सकलजैनागमतात्पर्यविषयतया मुखवस्त्रिका बद्धा नासीदिति कल्पनं तावन्मिथ्यात्वविलसितं सकलागमविरुद्धं च । इदमत्र तत्त्वम्-दुर्गन्धाघ्राणवारणाय 'मुह बंधेह' इति प्रार्थनाऽनुपपन्ना, मुखेन गन्धग्रहणानुपपत्तेः, तस्मादत्र 'मुह' शब्दो न मुखमात्रपरः किन्तु यथा 'गङ्गायां घोषः' इत्यत्र गङ्गाशब्दस्य प्रवाहरूपे शक्यार्थे (मुख्यार्थे) घोषान्वयतात्पर्या नुपपत्त्या तत्समीपवर्तिनि तीरे लक्षणावृत्त्या तात्पर्यमिति मन्यते, तथा मुखे बद्धाया एव तस्याः पुनस्तत्रैव बन्धनार्थप्रार्थना निष्फलतया नोपपद्यते, किश्च दुर्गन्धाघ्राणवारणोदेशेनापि तत्प्रार्थना नोपपद्यते, मुखमात्रबन्धने कृतेऽपि घ्राणेन्द्रियस्याऽनावरणेन तदुद्दे शसिद्धयसंम्भवादिति मुखमात्रे बन्धनान्वयतात्पर्यस्यानुपपत्त्या तत्समीपवर्तिनि घाणेऽपि उष्ण वायुसे संपातिम, सूक्ष्म और व्यापी जीवोंकी रक्षा करनेके लिए तथा बाह्य वायुकायकी रक्षा करनेके लिए मुखवस्त्रिका बांधना सब जैन-आगमोंमें तात्पर्यरूपसे विधान किया गया है । इसलिए उनके मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं बंधी थी' ऐसा कहना मिथ्यात्वका ही प्रलाप है और सब शास्त्रोंसे विरुद्ध है। तात्पर्य यह है कि दुर्गन्धसे बचनेके लिए मुख बांधनेकी प्रार्थना उचित नहीं है क्योंकि मुखसे गन्धका ग्रहण नहीं होता । अतएव यहाँ मुखसे केवल मुखही अर्थ नहीं है। जैसे " गंगामें घोष (अहीरोंकी वसती) है । इस वाक्यसे ऐसा मतलब नहीं निकल सकता कि गंगाकी बीचधारमें अहीरोंका वसती है, क्योंकि ऐसा होना अनुपपन्न है । अतएव जब वाक्यके मुख्य (शाब्दिक) अर्थमें बाधा आती हो तब लक्षणासे दूसरा मतलब लेना पडता है कि गंगाके किनारे अहीरोंकी वसती है। इसीप्रकार मुखवस्त्रिका जब पहलेसे बंधी हुई है तब पुनः बांधनेकी प्रार्थना व्यर्थ पडती है, तथा दुर्गन्ध नाकमें न घुसने देनेके लिए मुख बांधनेकी प्रर्थना युक्त नहीं है, क्योंकि मुख बांध लेनेपर भी दुर्गन्धका आना नहीं रुक सकता, अतः यहाँ मुख बाँधनेका अर्थ अयुक्त होनेसे मुखके समीपवर्ती नासिका बाँधनेका तात्पर्य लक्षणासे विदित होता है । लक्षणाका आश्रय રક્ષા કરવાને માટે મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એવું બધાં જૈન-આગમમાં તાત્પર્યરૂપે વિધાન કરવામાં આવ્યું છે. તેથી એમના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી નહોતી એમ કહેવું એ મિથ્યાત્વને જ પ્રતાપ છે અને બધાં શાસ્ત્રોથી વિરુદ્ધ છે. તાત્પર્ય એ છે કે દુર્ગધથી બચવાને માટે મુખ બાંધવાની પ્રાર્થના ઉચિત નથી, કારણ કે મુખથી ગંધનું ગ્રહણ થતું नथी. मे.टले महीभुमथी भुमन मथ थता नथी. २म " भा घोष (भाही. રની વસતી) છે” એ વાક્યથી એવી મતલબ નથી નીકળી શકતી કે ગંગાની વચ્ચે પાણીના પ્રવાહમાં અહારોની વસતી છે, કેમકે એમ હોવું અનુપપન્ન છે. એટલે કે જ્યારે વાક્યના મુખ્ય (ાબ્દિક) અર્થમાં બાધા આવે છે ત્યારે લક્ષણથી બીજી મતલબ લેવી પડે છે, કે ગંગાને કિનારે અહીરોની વસતી છે. એ રીતે મુખવસ્ત્રિકા જે પહેલેથી બાંધી રાખેલી છે તે પુનઃ બાંધવાની પ્રાર્થને વ્યર્થ બને છે. તથા દુર્ગધ નાકમાં ન પેસવા દેવાને માટે મુખ બાંધવાની પ્રાર્થના કરવી યુક્ત નથી. કારણ કે મુખ બાંધી લેવા છતાં દુર્ગંધ આવવાનું રોકી શકાતું નથી. એટલે અહીં મુખ બાંધવાને અર્થ અયુકત હોવાથી મુખની નિકટ આવેલું શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Www अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिका विचारः ३५ लक्षणावृत्त्या तात्पर्यमिति गम्यते । लक्षणाश्रयणस्याऽऽवश्यकत्वादेवाऽऽचाराङ्गसूत्रेऽपि-"से भिक्खू वार उस्सासमाणे वा नीसासमाणेवा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसग्गं वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता" इत्यादिपाठः संगच्छते, तत्राप्यास्यकशब्दे लक्षणाश्रयणाऽभावे तु पाणिनाऽऽस्यकपरिपिधाने सति तज्जन्योच्छ्वासादियतनाया उपपत्तावपि घ्राणजन्योच्छ्वासनिःश्वासक्षुतयतनाया अनुपपत्त्या तेषामागमविरोधः सुस्पष्ट एव । नन्वेवं मुखवस्त्रिका भवतु बन्धनीया तथापि दोरकस्य बन्धने निर्बन्धनताऽऽगमतो न लभ्यते, तथा च तत्मान्तभागेनापि बन्धनं सुसम्पादम्, अलमेतेन दोरकपरिग्रहेणेति चेन्न, मुखवस्त्रिकाबन्धनस्य शास्त्रप्रतिपाद्यतायां सिद्धायां तत्राल्पमेव दोरकमलेना आवश्यक होनेसे ही आचारागसूत्रका “से भिक्खू वा." इत्यादि पाठ ठीक बैठता है। वहाँ पर भी यदि 'आसयं' (मुख) शब्दमें लक्षणाका आश्रय न लिया जाय तो हाथसे मुख बँक लेने पर मुखजन्य उच्छ्वास निःश्वास आदिकी यतना संभव हो सकती है किन्तु घ्राणजन्य उच्छ्वास-निःश्वास छींकको यतना नहीं हो सकती। अतः उन लोगोंके मतमें आगमसे विरोध होना स्पष्ट है। प्रश्न-उक्त प्रकारसे मुख पर मुखवस्त्रिका बाँधना तो सिद्ध हुआ किन्तु डोरा लगाकर बाँधना आगममें कहीं नहीं पाया जाता । इसलिए मुखवत्रिकाके छोर (पल्ला) से भी उसे बाँध सकते हैं, डोराकी क्या आवश्यकता है ! उत्तर-उनका यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि जब यह सिद्ध हो चुका कि आगममें मुखवस्त्रिकाका बाँधना प्रतिपादित किया गया है तो छोटेसे दोरेसे निर्दोषपूर्वक बन्धनकी सिद्धि होने पर નાક બાંધવાનું તાત્પર્ય લક્ષણથી વિદિત થાય છે લક્ષણાને આશ્રય લે આવશ્યક હોવાથી ४ मायारा॥ सूत्रन। “से भक्खू वा." त्या 48 सरास२ मध मेसे छे. तमा ५५ न्ने आसयं (भुम) शभा क्षयानो माश्रम वाम न मावेत हाथी મુખ ઢાંકી લેતાં મુખજન્ય ઉવાસ નિવાસ આદિની યતના સંભવિત થઈ શકે છે, કિત વ્રાણુજન્ય ઉચલ્ડ્રવાસ- નિવાસ છીંકની યતના થઈ શકતી નથી. એટલે એ લેકેના મતમાં આગમથી વિરોધ થાય છે એ સ્પષ્ટ છે. પ્રશ્ન–એ પ્રકારે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાનું તો સિદ્ધ થયું, પરન્તુ દોરો લગાવીને બાંધવાનું આગમમાં કયાંય મળી આવતું નથી. તેથી કરીને મુખત્રિકાના છેડાથી પણ તેને બાંધી શકાય છે. દેરાની શી આવશ્યકતા છે.? ઉત્તર—એવું કથન બરાબર નથી; કારણે કે એ સિદ્ધ થઈ ચૂકયું છે કે આગમમાં મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાનું પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે તે નાના સરખા દેરાથી નિર્દોષતા પૂર્વક બંધનની સિદ્ધિ થતાં ચરિત્રને મલિન કરનારે બીજો પ્રકાર કામમાં લે એ અનુચિત છે, મુખવસ્ત્રિકાના છેડાથી શિરની પાછળ ન્યૂનતાને કારણે ગાંઠ ન બાંધી શકવાથી મુખ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे पेक्ष्य निरवद्यप्रकारेण तब्दन्धनसिद्धौ सत्यां चारित्रमालिन्यापादकप्रकारान्तराश्रयणस्यानौचित्यात्, मुखवस्त्रिकाप्रान्तभागेन शिरःपश्चाद्भागे न्यूनतावशाद्रन्थिविरहप्राप्तावुचिताधिकतन्मानकल्पनायामुत्सूत्रप्ररूपणापत्तेश्च । किञ्च मुखवस्त्रिकाया बन्धनं दोरकेणैव समुचितं भगवदभिप्रेतं च, लोके हि बन्धनं गुणेनैव प्रसिद्धं तत्रापि यथायोग्यमेव सूत्रदोरकादयस्तदर्थमादीयन्ते, यथा पुष्पपुस्तकवसनादिबन्धनार्थी यथाक्रमं मृदुमेव दोरकमुपादत्ते ।। किश्च-सामाचरीग्रन्थे-"मुखवस्त्रिका प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम्" इत्युक्तं देवचन्द्रसरिणाऽपि । अत्र मुखवस्त्रिकाया बन्धनक्रियाकर्मत्वेन प्रतिपादनात् तदौचित्याच सा दोरकरूपमनुरूपं करणमपेक्षत एव । तत्प्रान्तभागेन ग्रन्थिदाने तु तत्र करणत्वकल्पनं देवचन्द्रसरिविरुद्धमयुक्तं च, कर्मत्व-करणत्वयोर्विरोधात् । चारित्रको मलिन करने वाले दूसरे तरीके काममें लाना अनुचित है । मुखवत्रिकाके छोरसे सिरके पीछे न्यूनताके वशसे गांठ न लगा सकनेसे मुखवत्रिकाके उचित प्रमाणसे अधिककी कल्पना करनी पडेगी, और ऐसी कल्पना करनेसे उत्सूत्रप्ररूपणाका दोष लगेगा। दूसरी बात यह है कि डोरेसे ही मुख पर मुखवस्त्रिका बांधना उचित है और यही बात भगवानको भी इष्ट है । लोकमें किसी वस्तुका बाँधना डोरेसे ही प्रसिद्ध है। उसमें भी यथायोग्य सूत्रका डोरा आदि बाँधनेके काममें लाये जाते हैं, जैसे फूल पुस्तक या कपडा बांधने वाले क्रमशः कोमल डोरेको ही काममे लाते हैं। सामाचारी ग्रन्थ में देवचन्द्रसूरिने लिखा है "मुखवखिकां प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम्, इस वाक्य में मुखवस्त्रिकाको बाँधनेरूप क्रियाका कर्म बताया है और वह उचित भी है। इसलिये वह (क्रम) मुखलस्त्रिकाके अनुरूप करणको अपेक्षा रखती है। तात्पर्य यह है कि जब मुखवस्त्रिका कर्म है तब करण भी कोई होना चाहिये और वह करण अर्थात् जिससे વચિકાને ઉચિત પ્રમાણુથી વધારે (લાંબી) રાખવાની કલ્પના કરવી પડશે, અને એવી કલ્પના કરવાથી ઉસૂત્રપ્રરૂપણનો દોષ લાગશે. બીજી વાત એ છે કે દેરાથી જ મુખ પર મુખત્રિકા બાંધવી ઉચિત છે અને એ જ વાત ભગવાનને પણ ઈષ્ટ છે. લેકેમાં કઈ વસ્તુને બાંધવાનું કાર્ય દોરાથી જ પ્રસિદ્ધ છે. તેમાં પણ યથાયેગ્ય સૂતરને દોરે વગેરે બાંધવાના કામમાં લેવામાં આવે છે, જેમકે ફૂલ, પુસ્તક યા કપડું બાંધનારા ક્રમશઃ કમળ દેરાને જ કામમાં લે છે. साभायारी थमा क्यन्द्रसरिय सभ्युं छ: “ मुखवस्त्रिका प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम् , ये ४यमा भुमस्त्रिाने मांधवा३५ जियानु म मतान्यु છે અને તે ઉચિત પણ છે. તેથી કરીને એ (ક્રિયા) મુખવસ્ત્રિકાને અનુરૂપ દેરારૂપ કરણની અપેક્ષા રાખે છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે મુખવસ્ત્રિકા કર્મ છે તે કરણ પણ હેવું જોઈએ. અને એ કરણ અર્થાત્ જેવડે બાંધવારૂપ ક્રિયા થાય છે તે દરે જ હવે જોઈએ. ગાંઠ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिकाविचारः मुखवस्त्रिकाबन्धनार्थ कर्णयुगले शस्त्रेण छिद्रकरणं तु अतीवाऽज्ञानविजृम्भितम्, छिद्रकरणस्य शास्त्रानुक्ततया शस्त्रप्रयोगसाध्यतया दुष्करतया च तदपेक्षया निरवद्यत्वेन दोरकाश्रयणस्यैवौचित्यात् । नन्वेवं दोरकाश्रयणे सदोरकमुखवत्रिकाधारकाणां भाषणकाले मुखोत्पतितजलकणैराीभूतायां मुखवस्त्रिकायामशुचिस्थानतया संमूच्छिमजीवा उत्पधेरन्, हस्तेन मुखवस्त्रिकाधारणे तु न तथाविधजीवोत्पत्तिसम्भवः तथा च दोरकपरिग्रहो दुराग्रहमात्रमिति चेन्न, मुखोत्पन्नजलकणानां भगवता जीवोत्पत्तिस्थानतयाऽनुक्तत्वात् । न चैतेषां जलणानां खेलांशतयाऽशुचिस्थानतया वा जीवोत्पत्तिस्थानत्वं प्रतीयत इति वाच्यम्, तत्र बाँधनारूप क्रिया होती है डोरा ही होना चाहिए । गांठ लगानेमें करणत्वकी कल्पना करना देवचन्द्रसूरिसे विरुद्ध और अयुक्त है क्योंकि कर्मत्व और करणत्वको विरोध है। मुखवस्त्रिका बाँधनेके लिए कानों में छेद कर लेना तो बड़ी भारी अज्ञानता है, क्योंकि साधुपनेके लिए किसी अवयवको छेदना शास्त्रों में निषिद्ध हैं और शस्त्रसाध्य होनेसे दुष्कर भी है। उसकी अपेक्षा निर्दोषरूपसे डोरेका आश्रय लेना हो उचित है। प्रश्न-डोरेका आश्रय लेनेसे दोरासहित मुखवस्त्रिका मुख पर धारण करनेवालोंकीमुखवस्त्रिका भाषण करते समय मुखसे निकलनेवाले पानी के कणोंसे गीली हो जायगी और गीली होनेसे अशुचिस्थान हो जानेके कारण वहाँसंमूर्छिम जीवोंकी उत्पत्ति होगी । हाथमें मुखवस्त्रिका धारण करनेसे संमूछिम जीवोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए डोराका ग्रहण करना दुराग्रहमात्र हैं। __उत्तर-ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि मुखसे निकलने वाले जलके कणोंको भगवान्ने जीवोत्पत्तिका स्थान नहीं बताया है ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि वे जलकण खेलके अंश हैं, બાંધવામાં કરણત્વની કલ્પના કરવી એ દેવચન્દ્રસૂરિથી વિરૂદ્ધ છે અને અયુકત છે, કારણ કે કર્મવ અને કરણત્વને વિરોધ છે. સુખવસ્ત્રિકા બાંધવાને કાનમાં છિદ્ર પડાવી લેવા એ તે ભારે અજ્ઞાનતા છે, કારણ કે સાધુપણાને માટે કઈ અવયવને છેદવું શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ છે અને શસ્ત્રસાધ્ય હોવાથી દુષ્કર પણ છે. એને બદલે નિર્દોષ રૂપે દેરાને આશ્રય લે જ ઉચિત છે. प्रश्न-हासना आश्रय सेवाथी हरा-सहित भुमपत्रिभु५ ५२ धा२५ ४२नारायानी મુખવસ્ત્રિકા ભાષણ કરતી વખતે મુખમાંથી નીકળતા પાણીના કણોથો ભીની થઈ જશે અને ભીની થવાથી અશુચિસ્થાન થઈ જવાના કારણે ત્યાં સંમૂર્ણિમ જીવની ઉત્પત્તિ થશે, હાથમાં મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાથી સંમછિમ છની ઉત્પત્તિ થતી નથી. તેથી કરીને દેરાનું ગ્રહણ કરવું એ દુરાગ્રહ થાય છે. ઉત્તર–એમ કહેવું ઉચિત નથી, કારણ કે મુખથી નીળતાં જળનાં કણેને ભગવાને છત્પત્તિનું સ્થાન બતાવ્યું નથી એમ પણ ન કહી શકાય કે એ જળકણું ખેલ (કફ) ના અંશરૂપ હોય છે અને તેથી અશુચિ–સ્થાન છે અને અશુચિસ્થાન હવાથી ઉત્પત્તિ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशबैकालिकस्त्रे खेलांशताप्रतीतेन्तिमूलकत्वात् । वैद्यकशास्त्रे हि खेलस्य मुखजलकणानां च भेदः सुस्पष्टः, तथाहि खेलशब्दः श्लेष्मण्यर्थे वर्त्तते, आमाशयो, हृदयं, कण्ठः, शिरः, सन्धयश्चैतानि श्लेष्मणः स्थानानि, नथाचोक्तं भावप्रकाशे “आमाशयेऽथ हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु । स्थानेष्वेषु मनुष्याणां, श्लेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात् ॥” इति, अस्य स्वरूपं धर्माश्चोक्ताः सुश्रुतसंहितायां "श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः, पिच्छलः शीत एव च । मधुरस्त्वविदग्धः स्याद्, विदग्धो लवणः स्मृतः ॥" इति, इसलिए अशुचिस्थान हैं और अशुचिस्थान होनेसे जीवोत्पत्तिके स्थान हैं। क्योंकि उन जल कणोंको खेल (कफ) का अंश समझना भ्रान्तिमूलक है। खेल शब्दका अर्थ श्लेष्म है । आमाशय हृद्य, कंठ, सिर और सन्धियाँ श्लेष्म के स्थान हैं। भावप्रकाश में लिखा है । आमाशयेऽथ हृदये कण्ठे शिरसि सन्धिषु । स्थानेष्वेषु मनुष्याणां, श्लेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात् ॥१॥ अर्थात-आमाशय, हृदय, कण्ठ,शिर और संधिभाग, इन स्थानो में मनुष्यो को अनुक्रम सेकफ रहता है। , सुश्रुतसंहितामें श्लेष्मका स्वरूप और गुण इस प्रकार बताये हैं श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छलः शीत एव च । मधुरस्त्वविदग्धः स्याद्, विदग्धो लवणेः स्मृतः ॥१ अर्थात्-श्लेष्म (कफ) सफेद, गुरु, चिकना, पिच्छल और शीत होता है । नहीं जला નાં સ્થાન છે. એ જળકમાં કફને અંશ સમજ એ બ્રાન્તિલક છે જોઇ શબ્દને અર્થ શ્લેષ્મ છે. આમાશય, હૃદય, કંઠ, શિર અને સંધિ એ શ્લેમનું સ્થાન છે ભાવપ્રકાશમાં લખ્યું છે કે – आमाशयेऽथ हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु । स्थानेश्वेषु मनुष्याणां, प्रलेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात् ॥ અર્થા–“આમાશય હદય કંઠ, શિર અને સંધિભાગ એ સ્થાનમાં મનુષ્યોને અનુક્રમથી કફ રહે છે” સુશ્રુતસંહિતામાં લેમ્પનું સ્વરૂપ અને ગુણ આ પ્રકારે બતાવ્યા છે – प्रलेष्मा प्रवेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छलः शीत एव च । मधुरस्त्वविदग्धः स्यात् विदग्धो लवणः स्मृतः ।। अर्थात- भ (६) सह, शु३, यि, पिस, अने शीत य छे. नाड બળેલ યા કાચો કફ મધુર હોય છે અને પાક યા બળે કફ ખારો હોય છે. ' १ विदग्ध-पका या जला हुआ । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखस्त्रिकाविचारः मुखजलस्य तु रसनामूल तदग्रभागश्चेतिद्वयमुत्पत्तिस्थानम्, इदं च चर्वितस्यानस्य पिण्डीभवने कण्ठनलिकयाऽधोनयने पाचने च निमित्तम् । अत एव योगचिन्तामणौ प्रथमाध्याये "रसाऽमृङमांसमेदोऽस्थि मज्जाशुक्राणि धातवः । इयुक्त्वा कस्य धातोः किं मलम् ? इति प्रदर्शयितु पुनरभितम् "जिह्वानेत्रकपोलानां जलं पित्तं च रजकम्" इत्यादि । जिहानेकपोलानां जलं रसधातोर्मलं, रञ्जकं पित्तं रुधिरस्य मलमिति तदर्थः। इत्थं जिहाकपोलदेशे जायमानं जलं मुखजलं, तदीयकणिका एव भाषणकाले कदाचिदू बहिरुत्पतन्तीति विशदीभवति, श्लेष्मा तु न कस्यचिद् धातोर्मलं, स हि दोषत्रयान्त:पातित्वात्तत्स्वरूपम्, अत एव योगचिन्तामणौ प्रथमाध्याये धातुमलतः पृथक्कृत्य दोषहुआ या कच्चा कफ मधुर होता है और पका या जला हुआ नमकीन होता है । ___मुखजलके केवल दो उत्पत्तिस्थान है-(१) जिहाका मूल और (२) जिह्वाका अग्रभाग । यह मुखजल चबाये हुए अन्नको पिण्ड बनाने तथा कण्ठकी नलीके नीचे लेजाने तथा पचानेका कारण है । इसीसे योगचिन्तामणि ग्रन्थके प्रथम अध्यायमें "रसासूङमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः" ऐसा कह कर किस धातुका क्या मल है, सो बतानेके लिए फिर कहा है-"जिहानेत्रकपोलोनां, जलं पित्तं च रञ्जकम्" । अर्थात् जीभ, नेत्र और गालका जल रसधातुका मल है तथा रंजक पित्त रुधिरका मल है । इसप्रकार जीभ और गालोंमें उत्पन्न होनेवाला जल मुखका जल कहलाता है और उसीकी कणिका भाषण करते समय कभी-कभी बाहर निकल जाती है, यह बात स्पष्ट है । श्लेष्मा किसी धातुका मल नहीं है, वह तीन दोषों से एक दोष है, इसीसे योगचिन्तामणिमें धातुओंके मलोंसे पृथक् करके तीन दोष अलग बताये हैं, देखो शारीरक प्रकरण "कलाः सप्ताशयाः" इत्यादि श्लोक ५ । મુખજળનાં માત્ર બે ઉત્પત્તિ સ્થાન હોય છે : (૧) જીલ્લાનું મૂળ અને (૨) છઠ્ઠા (જીભ)ને અગ્રભાગ એ મુખજળ આવેલા અનને પિંડ બનાવવાનું તથા કંઠની નળીની નીચે લઈ જવાનું તથા પચાવવાનું કારણ છે. તેથી યોગચિન્તામણિ ગ્રંથના પ્રથમ અધ્યાયમાં रसासूक्ष्मांसमेदोऽस्थि मजाशुक्राणि धातवः महीने सात धातुसमतावी छे ते पछी ४६ धातुने यो भा छेते मतावाने भाटे युछ जिह्वानेत्रकपोलानां जलं पित्तं च रजकम्। અર્થાત-જીભ નેત્ર અને ગાલનું જલ-રસ ધાતુને મલ છે તથા રંજક પિત્ત રૂધિરને મલ છે. એ રીતે જીભ અને ગાલમાં ઉત્પન્ન થનારૂં જ મુખનું જલ કહેવાય છે અને તેની કણિકાઓ ભાષણ કરતી વખતે કઈ-કઈ વાર બહાર નીકળી જાય છે તે વાત સ્પષ્ટ છે. કલેષ્મ કોઈ ધાતુને મલ નથી, તે ત્રણ દોષમાંને એક દેષ છે. તેથી ગચિન્તામણિમાં ધાતુઓના भसाथी हो पाने त्रg ष स मतावेदा छे. नुमेशारी२४ ५४२६४ "कला सप्ताशयाः" त्यास ५. એ રીતે સ્પષ્ટ થાય છે કે મુખનું જલ એ શ્લેષ્મથી ભિન્ન છે. - શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे प्रयोपादानं कृतं, यथा शारीरकप्रकरणे "कलाः सप्ताशयाः सप्त, धातवः सप्त तन्मलाः । सप्तोपधातवः सप्त, त्वचः सप्त प्रकीर्तिताः ॥१॥ त्रयो दोषा नवशतं, स्नायूनां सन्धयस्तथा । दशाधिकं च द्विशतमस्थनां च द्विशतं मतम् ॥ २ ॥ सप्तोत्तरं मर्मशतं, शिराः सप्तशतं तथा । चतुर्विशतिराख्याता, धमन्यो रसवाहिकाः ॥ ३ ।। मांसपेश्यः समाख्याता, नृणां पश्चशतं बुधैः ।। स्त्रीणां च विशत्यधिकाः, कण्डराश्चैव षोडश ॥४॥ तृदेहे दश रन्धाणि, नारीदेहे त्रयोदश ।। एतत्समासतः प्रोक्तं, विस्तरेणाधुनोच्यते ॥५॥" इति । एवं च मुखजलस्य खेलतो भेदः स्पष्ट एव । न च खेलशब्दस्य निष्ठीवनार्थकतया निष्ठीवनात्मके मुखजले खेलशब्दप्रवृत्त्या तस्यापि जीवोत्पत्तिस्थानत्वं दुर्वारमेवेति वाच्यम, निष्ठीव्यते-निरस्यते प्रक्षिप्यते यत्तन्निष्ठीवनमिति 'नि' पूर्वकात् 'ष्ठीवु निरसने' इति धातो हुलकात् कर्मणि ल्युटि निष्पन्नस्य निष्ठीवनशब्दस्य योगेन मुखनिर्गतपदार्थमात्रे प्रयोगो भवति, एवं च निष्ठीवनशब्दस्यैव प्रक्षिप्तखेलाद्यर्थकत्वं सिध्यति न तु खेलशब्दस्य निष्ठीवनार्थकत्वम्, तथा च मुखनिर्गतजलकणेषु न जीवो इस प्रकार स्पष्ट है कि मुखका जल श्लेष्मसे भिन्न है । __ प्रश्न— 'खेल' शब्द का अर्थ 'थूक' है, और थूक तथा मुखजल एक ही हैं । अतः मुखजलमें खेल शब्दकी आवृत्ति होनेसे वह जीवोत्पत्तिका स्थान होगा ही। ___ उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकी 'निष्ठीवन' शब्द 'नि'-उपसर्गपूर्वक 'ष्ठीबु निरसने' धातुसे बना है । अतः मुखसे निकलने वाला कोई भी पदार्थ निष्ठीवन कहलाता है । इससे यह सिद्ध होता है कि त्यागा हुआ खेल आदि निष्ठीवन कहला सकता है किन्तु निष्ठीवन 'खेल' नहीं कहला सकता । इसलिए मुखसे निकलने वाले जलकणों में जीवोत्पत्तिको सिद्धि नहीं होती, क्योंकि जीवोत्पत्तिके स्थानोंमें 'निष्ठोवन' शब्द नहीं दिया है । वास्तवमें निष्ठीवन शब्द પ્રશ્ન–ખેલ’ શબ્દનો અર્થ થંક છે, અને ઘૂંક તથા મુખજલ એક જ છે. એટલે મુખજલમાં ખેલ શબ્દની પ્રવૃત્તિ થવાથી તે છત્પત્તિનું સ્થાન થશે જ. उत्तर-सेम डे भराम२ नथी. मिठीयन श६ नि'-उपस-पूर्व ४ ठीबु निरसने ધાતથી બન્યું છે. એટલે મુખથી નીકળતે કે પદાર્થ નિકીવન કહેવાય છે. તેથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે ત્યાગેલો ખેલ આદિ નિષ્ઠીવન કહી શકાય છે, પરંતુ નિકીવન ખેલ” નથી કહી શકાતું તેથી મુખથી નીકળતા જલકણોમાં છત્પત્તિની સિદ્ધિ થતી નથી, કારણ કે ઉત્પત્તિનાં સ્થાનમાં “નિષ્ઠીવન” શબ્દ આપ્યો નથી વસ્તુતઃ નિષ્ઠીવન શબ્દ ભાવઘુડન્ત હોવાથી પ્રક્ષેપણુરૂપ નિરસન કિયાને વાચક છે. એમ માનવું યુદ્ધ છે. અર્થાત્ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिका विचारः । त्पत्तिसिद्धिः, जीवोत्पत्तिस्थानपरिगणने निष्ठीवनशब्दानुपादानात् । वस्तुतस्तु निष्ठीवनशब्दस्य भावल्युडन्ततया प्रक्षेपणात्मकनिरसनक्रियावाचित्वं युक्तम्, अतएव "रक्तनिष्ठीवनं दाहो, मोहश्छदन-विभ्रमौ । प्रलापः पिटिका तृष्णा, रक्तप्राप्ते ज्वरे नृणाम् ॥" इति, रक्तज्वरलक्षणं प्रतिपादयता माधवनिदानकृता निर्गमनेऽप्यर्थे निष्ठीवनशब्दः प्रयुक्तः । कवलीकृतस्य द्रव्यस्य मुखान्निरसनेऽपि निष्ठीवनत्वमुक्त, भावप्रकाशे यथा "वातपित्तकफन्नस्य द्रव्यस्य कवलं मुखे । अर्ध निःक्षिप्य संचय, निष्ठीवेत् कवले विधिः ॥” इति, तिब्बअकबराख्ये वैद्यकग्रन्थे पञ्चमाध्याये प्रथमप्रकरणेऽपि जिह्वामूलतो मुखजलोत्पत्तिः स्पष्टं प्रतिपादिता । शरीरविज्ञाने च मुखजलस्य पाचनशक्तिमत्त्वं प्रकटितम् । अशुचिस्थानतया मुखजलस्य जीवोत्पत्तिस्थानत्वापादनं तु सर्वथा निमूलमेव, तथाहि-यावन्ति जीवोत्पत्तिस्थानानि सन्ति तानि प्रज्ञापनासूत्रे निर्दिष्टानि, यथाभावल्युडन्त होनेसे प्रक्षेपणरूप निरसन क्रियाका वाची है, ऐसा मानना युक्त है । अर्थात् निष्ठीवनका वास्तविक अर्थ है क्षेपण करना, या त्यागना । इसीसे 'माधवनिदान' कर्ताने रक्तज्वर के लक्षण बताते समय निकलनेके अर्थमें निष्ठीवन शब्दका प्रयोग किया है रक्तनिष्ठीवनं दाहो, मोहश्छ ईनविभ्रमौ । प्रलापः पिटिका तृष्णा, रक्तप्राप्ते ज्वरे नृणाम् ॥१॥ भावप्रकाशमें कौर (कवल)के बाहर निकालनेको निष्ठीवन कहा है-“वातपित्त." इत्यादि, "तिब्व अकब्बर" नामक यूनानी वैद्यक ग्रन्थमें भी जीह्वाके मूलसे मुखजलकी उत्पत्ति स्पष्टरूपसे बताई गई है “जीभकी जड़में एक मांसका लोथडा है जिसमेंसे लुआब और मुखका पानी निकलता है और जीभको तर रखता है और खानेकी चीजोंमें मिला करता है।" तथा 'शरीर विज्ञान' नामक ग्रन्थमें मुखजलके विषयमें लिखा है उसमें पचानेको शक्ति होती है। નિષ્ઠીવનને વાસ્તવિક અર્થ છે--ક્ષેપણ કરવું યા ત્યાગવું. તેથી “માધવનિદાન કર્તાએ રક્તજવરનાં લક્ષણે બતાવતી વખતે નીકલવાના અર્થમાં નિષ્ઠીવન શબ્દને પ્રવેગ કર્યો છે, रक्तनिष्ठोवनं दाहो, मोहश्छईनविभ्रमौ ।। प्रलापः पिटिका तृष्णा, रक्तप्राप्ते ज्वरे नृणाम् ॥१॥ भावाशमा अजीयानुमडा नी मेने निहीवन उस छ- वातपित्त त्या. તિષ્ણ અકમ્બર” નામક યૂનાની વૈધક ગ્રંથમાં પણ જીભના મૂલમાંથી મુખજલની ઉત્પતિ સ્પષ્ટરૂપે બતાવી છે, “જીભના મૂળમાં માંસને લાગે છે જેમાંથી લુઆબ અને મુખનું પાણી નીકળે છે અને જીભને તર રાખે છે અને ખાવાની ચીજોમાં મળ્યા કરે છે,” અને “શરીરવિજ્ઞાન” નામના ગ્રંથમાં મુખજલના વિષયમાં લખ્યું છે કે એમાં પચાવવાની શક્તિ હોય છે. U9 શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર श्रीदशकालिकसूत्रे __ "उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूयेसु वा सोणिएसु वा मुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएमु वा णगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु, एत्थ णं समुच्छिममणुस्सा संमुच्छिंति" इति । अत्र “सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु" इत्यस्य "सर्वेषु चैव अशुचिस्थानेषु" इति संस्कृतम्, अशुचिनां स्थानानि अशुचिस्थानानि तेषु अशुचिस्थानेषु, यत्रानेकेषामशुचीनामुच्चारादीनां स्थितिस्तत्रेत्यर्थः । ___ अयमाशयः-यथा पृथिव्यादीनां परकायशस्त्रेण परिणत्वे सति सचित्तत्वमपगच्छति तथोच्चारादीनां प्रस्रवणादिसाङ्कर्ये सति संमृच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानत्वापगमः 'अशुचिस्थान होनेसे मुस्खजल जीवोत्पत्तिका स्थान है। ऐसा कहना बेजड है । जीवोत्पत्तिके जितने स्थान हैं उन सबका निर्देश प्रज्ञापनासूत्रमें किया है "उच्चारेसु वा" इत्यादि । __अर्थात् "उच्चार (विष्ठा) में, प्रस्रवण (मूत्र) में, कफमें, नाकके मैलमें, कैमें, पित्तमें, पीवमें, खूनमें, शुक्रमें, शुक्रपुद्गलपरिशाट ( शुष्क शुक्रपुद्गलोंके फिर भीने होने ) में, प्राणीको लाशमें, स्त्रीपुरुषके संयोगमें, नगरकी गटरमें, इन सब अशुचियोंके स्थानोंमें संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं।" यहाँ सब अशुचियोंके स्थानोंसे तात्पर्य यह है कि जहाँ उच्चार आदि अनेक अशुचियोंकी स्थिति हो वह स्थान । मतलब यह कि-परकाय शस्त्रसे परिणत होने पर पृथिवीकाय आदि अचित्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जब उच्चार आदि प्रस्रवण आदिके साथ मिल जाते हैं, तब उनमें संमूछिम जीवोंको उत्पन्न करनेकी शक्ति रहती है या नहीं ? शिष्यके ऐसे प्रश्नकी संभावना होने पर खुलासा करनेके लिए अलग कहा है कि “सब अशुचिस्थानों में ।" इस वाक्यका “उक्त अशुचियों के स्थानों के सिवाय अन्य स्थानों में" यह अर्थ नहीं है । उपर्युक्त कथन करनेसे यह स्वयं અશુચિસ્થાન હોવાથી મુખજલ જીત્પત્તિનું સ્થાન છે એમ કહેવું બિલકુલ અમૂલક छ. वात्पत्तिन Rai स्थान छे से माना निश प्रज्ञायना-सूत्रमा ४२ छ : उच्चारेसु वा त्याह. "उश्यार ( 41 )मा, प्रसवार ( पिसाप )मां, ४३मा, ननदीमा, यमन ઉલટીમાં પિત્તમાં, પરૂમાં; લેહીમાં, શુક્ર-વીર્યમાં, શુક્રપુદ્ગલ પરિશાટમાં (શુક્રના સુકાયલા પુદ્ગલ ભીના થવામાં), પ્રાણીના મુડદામાં સ્ત્રી પુરૂષના સમાગમમાં, નગરની ખાળો (ગટરો) માં એ બધાં અશુચિનાં સ્થાનમાં સંમૂછિમ મનુષ્ય ઉત્પન્ન થાય છે.” અહીં સર્વ અશુચિએનું તાત્પર્ય એ છે કે જ્યાં ઉચ્ચાર આદિ અનેક અશુચિઓની સ્થિતિ હોય તે સ્થાન. મતલબ એ છે કે-પરકાય શસ્ત્રથી પરિણત થતાં પૃથ્વીકાય આદિ અચિત્ત થઈ જાય છે, એ રીતે જ્યારે ઉચ્ચાર આદિ પ્રસવણ આદિની સાથે મળી જાય છે, ત્યારે તેમાં સંમછિમ જીવને ઉત્પન્ન કરવાની શક્તિ રહે છે કે નહિ ? શિષ્યના એવા પ્રશ્નની સંભાવના હવાથી ખુલાસો કરવાને માટે જુદું કહ્યું છે કે “સર્વ અશુચિઓનાં સ્થાને સિવાય અન્ય સ્થાનમાં” આ વાકયને અર્થ “ ઉકત અશુચિઓનાં સ્થાને સિવાય અન્ય સ્થાનોમાં ” શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिकाविचारः .. स्यादिति शिष्यशङ्कासंभावनायां तन्निरसनार्थमेव पृथककृत्येदमुक्तम्- “सम्वेसु चेव अमुइटाणेमु” इति, न त्वत्रानुक्तानामशुचीनां स्थानेषु, इति तदाशयः। एतेनोच्चारादीनां संमूच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानत्वादेव तत्साकर्येऽपि तादृशजीवोत्पत्तिस्थानत्वं सुतरां सिद्धमिति "सव्वेसु चेव असुइटाणेसु" इति पुनरभिधानमसङ्गतं व्यर्थं च स्यादितिवादिनः परास्ताः, उक्तशङ्कावारणाय तथाऽभिधानस्याऽऽवश्यकत्वात् । ___ अयमर्थश्च भगद्वाक्यादेव स्फुटीभवति, तथाहि-सर्वेषां मुखनिर्गतपदार्थानां जीवोत्पत्तिस्थानत्वे लाघवानुरोधेन "मुहनिग्गए सव्वेसु चेव दवेमु" इत्येव वक्तव्ये पुन: खेलेसु वा वंतेमु वा पित्तेसु वा" इति तत्तन्नामनिर्देशप्रयत्नो भगवत्कृतो व्यर्थः स्यात्, तस्मान्निर्दिष्टेतरपदार्थे जीवोत्पत्तिन भवतीति स्पष्टं प्रतीयते । अथवा अणीयस्सु भाषणकालिकेषु मुखोत्पतितजलकणेषु जीवोत्पत्तौ सत्यां भगवता शिष्याणां स्पष्टप्रतिपत्तये-"खेलेसु वा वंतेसु वा" इत्यादिवत् “मुहजलकणेसु वा" इति वाक्येन तेऽपि पृथक्कृत्य निर्देष्टव्याः स्युः, इति मुखजलकणानां भगवदनुक्तत्वान्न तत्र जीवोत्पतिर्भसिद्ध हो गया कि जब उच्चार आदि संमूर्छिम जीवों की उत्पत्तिके स्थान हैं तब उन स्थानो मेंसे यदि दो या तीन आदि मिल जावे तो भी वे जीवोंकी उत्पत्तिके स्थान रहेंगे । अतएव जो लोग ऐसा कहते हैं कि पूर्वोक्त अर्थ करनेसे 'सव्वेसु चेव असुइदाणेसु" कहना व्यथे और असंगत हो जायगा, वे परास्त हो गये । क्यों कि शिष्यकी पूर्वोक्त शंकाका निवारण करनेके लिए उस कथनकी आवश्यकता है। यह अर्थ भगवान्के वचनसे ही निकलता है, क्योंकि यदि मुखसे निकलने वाले सब पदार्थ जीवोत्पत्तिके स्थान होते तो संक्षेप करनेके लिए केवल इतना कह देते कि 'मुहनिग्गएसु सम्वेसु चेव दव्वेसु' अर्थात् मुखसे निकलने वाले सब पदार्थों में संमूछिम जीव उत्पन्न होते हैं । “खेलेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा" इस प्रकार अलग अलग भगवान् न फरमाते । इसलिए सूत्रमें निर्देश किये हुए पदार्थोके सिवाय अन्य किसी पदार्थमें जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती, यह बात स्पष्ट એ નથી. ઉપર મુજબ કથન કરવાથી એ સ્વયંસિદ્ધ થઈ ગયું કે જો ઉચ્ચાર આદિ સંમછિમ જીવની ઉત્પત્તિનાં સ્થાન છે તે એ સ્થાનમાં જે બે યા ત્રણ આદિ મળી જાય તો પણ તે ની ઉત્પત્તિનાં સ્થાને રહેશે. તેથી કરીને જે લોકો એમ કહે છે કે પૂર્વોક્ત અર્થ કરવાથી રેવ અ ને કહેવું વ્યર્થ અને અસંગત થઈ જશે, તેઓ પરાસ્ત થઈ ગયા. કારણ કે શિષ્યની પૂર્વોકત શંકાનું નિવારણ કરવા માટે એ કથનની આવશ્યકતા છે. આ અર્થ ભગવાનનાં વચનમાંથી જ નીકળે છે. કારણ કે જે મુખથી નીકળનારા બધા પદાર્થો છત્પત્તિનાં સ્થાને હોત તે સંક્ષેપ કરવાને કેવળ એટલું જ કહી દેત કે 'मुहनिग्गएसु सव्वेसु चेव दवेसु अर्थात् भुमथी नाना२ मा पार्थामा भूमि ७0 पन्नथाय छे. 'खेलेसु वा वंतेसु वा पित्तसु वा' के प्रमाणे भगवान् म मता કહત નહિ. તેથી કરીને સૂત્રમાં નિદેશેલા પદાર્થો સિવાય અન્ય કોઈ પદાર્થમાં જીવેની શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे वतीति निश्चीयते । इदमत्र तत्त्वम् शिष्याणां जीवोत्पत्तिस्थानप्रतीतिं विना सम्यक्र संयमपालनं न स्यादिति हेतोः स्पष्टीकृत्य सकलानि संमूर्ति छमजीवोत्पत्तिस्थानानि बोधयितुं भगवता तत्तन्नामनिर्देशप्रयत्नोऽङ्गीकृतः, साकल्येन संमूर्त्ति छम जीवोत्पत्तिस्थानपरिगणनतात्पर्यां भावे तु भगवान् - "सव्वेसु चेव असुइद्वाणेसु" इत्येव ब्रूयात्, उच्चारप्रस्रवणादीनामप्यशुचिस्थानतयैव तादृशजीवोत्पत्तिस्थानत्वप्रतीतिसिद्धेः तथा च तत्तदशुचिस्थाननिर्देशस्य वैयर्थ्यापत्तिः । जीवोत्पत्तिस्थानपरिगणनतात्पर्याङ्गीकारे तु कियत्स्वशुचिस्थानेषु संमूर्त्ति छम " प्रतीत होती है । अथवा यदि भाषण करते समय निकले हुए थोड़ेसे जलकणोंमें जीवोंकी उत्पत्ति होती तो शिष्यों को स्पष्ट बोध करानेके लिए भगवानने जैसे 'खेलेसु वा वंतेसु वा', इत्यादि अलग अलग नाम गिनाये हैं वैसे ही "मुहजलकणेसु वा " ऐसा और एक सूत्रपाठ रख देते । अतः निश्चित है कि मुखसे निकलने वाले जलकणोंमें संमूच्छिम जीव उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि भगवान्ने उसे जीवोत्पत्तिका स्थान नहीं बताया है । तात्पर्य यह है कि - शिष्य जबतक यह न जानलें कि जीवोंके उत्पत्तिस्थान कौन कौन हैं ? तब तक संयमका सम्यक् प्रकार परिपालन नहीं कर सकते । इसीसे भगवान्ने जीवोत्पत्तिके स्थानोंका खुलासा ज्ञान करानेके लिए अलग अलग नाम गिनाये हैं । यदि संमूच्छिम जीवों की उत्पत्तिके सब स्थान गिना - नेका मतलब न होता तो सिर्फ 'सव्वेषु चेव असुइट्ठाणेसु' (अशुचि के सब स्थानों में ) इतना ही कह देते । क्योंकि उच्चार प्रस्रवण आदि सभी अशुचिस्थान होने के कारण संमूच्छिम जीवों की उत्पत्ति स्थान हैं, यह बात प्रतीतिसे सिद्ध है । ऐसी अवस्थामें अलग-अलग नाम गिनाना अकारण हो जायगा । अगर ऐसा मानें कि जीवों की उत्पत्तिके स्थान गिनाने का मतलब है तो ઉત્પત્તિ થતી નથી. એ વાત સ્પષ્ટ પ્રતીત થાય છે અથવા જો ભાષણ કરતી વખતે નીકળતા થાડા જલકણામાં જીવાની ઉત્પત્તિ થતી હાય તા શિષ્યાને સ્પષ્ટ આધ કરાવવાને ભગવાને ঈभ 'खेलेसु वा वंतेसु वा' इत्यादि अलग अलग नाम गाया छे तेभ 'मुहजलकणेसु वा मेवे એક વધારે સૂત્રપાઠ રાખ્યા હૈાત. તેથી કરીને નિશ્ચિત છે કે મુખથી નીકળનારાં જલકણેામાં સમૂ`િમ જીવા ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે ભગવાને એને જીવાત્પત્તિનું સ્થાન મતાવ્યુ` નથી. તાત્પર્ય એ છે કે—જ્યાં સુધી શિષ્ય જાણી ન લે કે જીવાનાં ઉત્પત્તિ સ્થાન કયાં કયાં છે, ત્યાં સુધી તે સંયમનું સમ્યક્ પ્રકારે પરિપાલન કરી શકતે નથી. તેથી ભગવાને જીવા ત્પત્તિનાં સ્થાનાનુ ખુલાસાથી જ્ઞાન કરાવવાને અલગ અલગ નામેા ગણાવ્યા છે. જો भवानी उत्पत्तिनां मघां स्थानों गणाववानी भतक्षम न होय तो भात्र 'सव्वेसु चेव असुइठाणेसु' (अशुयिनां मघां स्थानाभ) खेट ४ उडी हेत. अरण है उभ्या प्रस्वषु महि ખાં અશુચિસ્થાને હાવાને કારણે સમૂર્છિમ જીવાની ઉત્પત્તિનાં સ્થાન છે, એ વાત પ્રતીતિથી સિદ્ધ છે એવી સ્થિતિમાં અલગ અલગ નામેા ગણાવવાં અહેતુક થઇ જાય. અગર એમ માનેા કે જીવાની ઉત્પત્તિનાં સ્થાને ગણાવવાની મતલખ છે તા જિજ્ઞાસુ શિષ્યાના શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा० १ मुखवस्त्रिकाविचारः जीवा उत्पद्यन्ते ? इति जिज्ञासोपशमो न स्यादिति तत्तदशुचिस्थाननिर्देशस्य नानर्थक्यं, प्रत्युताऽऽवश्यकतया सार्थक्यमेव, अतएव “उवस्थिदियनिग्गएसु दव्वेसु वा" (उपस्थे. न्द्रियनिर्गतेषु द्रव्येषु) इत्यनुक्त्वा पुनः पुनः-"पासवणेसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा सोणिएसु वा थीपुरिससंजोएसु वा” इति तत्तन्नाम्ना भगवानुपादिशत्, अन्यथा “स्त्रीपुरुषसंयोगातिरिक्तेषु केवलशुक्रशोणितादिषु संमूछिमजीवा उत्पद्यन्ते न वा ?" इति संशयानपगमे सति मुनीनां संयमपालनं संकटापन्नं स्यादिति ।। वस्तुतस्तु भाषणकाले मुखोत्पतितानां जलकणानामशुचित्वमेव निर्मूलतया दुर्वचम्, शास्त्रे प्रज्ञापनासूत्रोक्क्तेपूच्चारादिष्वेवाशुचिशब्दप्रयोगदर्शनात, मुखोत्पतितजलकणार्थे तत्प्रयोगानुपलब्धेश्च, तथाहि व्यवहारसूत्रभाष्ये तृतीयोद्देशके – जिज्ञासु शिष्यों का सन्देह तब तक दूर नहीं हो सकता जब तक उन्हें साफ न बता दिया जाय कि किन-किन जगहों में संछिम जीवोंका जन्म होता है । इसलिए अलग-अलग गिनाना वृथा नहीं है, किन्तु आवश्यक होनेसे सार्थक है, इसो कारण "उवस्थिदियनिग्गएसु वा" (उपस्थेन्द्रियनिर्गतेषु) ऐसा न कहकर बारंबार 'पासवणेसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा सोणिएसु वा थोपुरिससंजोएसु वा” इस प्रकार हरेकका अलग-अलग नाम गिना कर भगवान्ने कथन किया है । ऐसा कथन न करते तो यह संशय बना रहता कि स्त्रीपुरुषके संभोगके सिवाय केवल शुक्र शोणित आदिमें संमूछिम जीव उत्पन्न होते हैं या नहीं ? इस प्रकारके सन्देहसे मुनियोंको संयम-पालन करना मुश्किल हो जाता । वास्तवमें मुखसे निकलने वाले जलकणोंको अशुचि कहना ही खोटा है, क्योंकि शास्त्रमें प्रज्ञापनासूत्रोक्त उच्चार आदि हो 'अशुचि' शब्दसे कहे गये हैं, और मुखसे निकलने वाले जलकणके अर्थमें 'अशुचि' शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता । व्यवहारसुत्रके भाष्यमें, तीसरे સંદેહ ત્યાં સુધી દૂર નહિ થઈ શકે કે જ્યાં સુધી તેમને સાફ ન બતાવી દેવામાં આવે કે કઈ કઈ જગ્યાઓમાં સંમૂછિમ જીવને જન્મ થાય છે, તેથી કરીને અલગ અલગ आयु वृथा नथी, न्तु मावश्य४ वायी साथ छे. १२0 उवस्थिदियनिरगपतु वा' (उपस्थेन्द्रियनिर्गतेषु) मेम न उतां पारवा२ 'पासवणेसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा सोणिएसु वा थीपुरिससंजोएसु वा' से रीत ६२४i असा अस नाम। ગણાવીને ભગવાને કથન કર્યું છે. એવું કથન ન કરત તો એ સંશય પડત કે સ્ત્રી-પુરૂષના સંજોગ વિના કેવળ શુકશેણિત આદિમાં સંમૂર્ણિમ જી ઉત્પન્ન થાય છે કે નહિ ? એ પ્રકારના સંદેહથી મુનિઓને સંયમ પાલન કરવાનું મુશ્કેલ થઈ પડત. વાસ્તવમાં મુખમાંથી નીકળનારા જળકને અશુચિ કહેવા એ ખોટું છે, કારણ કે શાસ્ત્રમાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રોકત ઉચ્ચાર આદિને જ અશુચિ શબ્દથી ઓળખાવવામાં આવ્યા છે અને મુખમાંથી નીકળનારા જળકણુના અર્થમાં અશુચિ શબ્દનો પ્રયોગ મળી આવતું નથી. व्य१७२ सूत्रना माध्यमां, alon देशमा 'दव्वे भावे असुई' इत्या २८६ भी थानु ०या શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे दव्वे भावे असुई भावे आहारवंदणादीहिं" इत्यादिगाथा-(२८६) व्याख्यानावसरे -- "अशुचिद्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र योऽशुचिना लिप्तगात्रो यो वा पुरीषमुत्सृज्य पुतौ न निर्लेपयति स द्रव्यतोऽशुचिः" इत्युक्तम्, किश्च-"दव्वे भावे असुई दव्वंमि विट्ठमादिलित्तो उ ।" इत्यादिगाथा-(२८७) व्याख्यानावसरे "अशुचिर्द्विधा द्रव्ये भावे च, तत्र द्रव्ये विष्टादिना लिप्तः, आदिशब्दान्मूत्रश्लेष्मादिपरिग्रहः" इत्यभिहितम् । प्रज्ञापनासूत्रोक्ता उच्चारादय एवाशुचिपदस्यार्थ इत्याशयेनैव प्रकृते द्रव्यभावभेदेन द्विधा विभाजितेऽप्यशुचिपदार्थे मुखनिर्गतविग्रुषामनुपादानं कृतम् । आवश्यकसूत्रे वन्दनाख्यतृतीयाध्ययने एकादशाधिकैकशततम-( १११ )-गाथाव्याख्यायां हरिभद्रसूरिणाऽप्यशुचिस्थानशब्दस्य विदप्रधानस्थानार्थकत्वमुक्तम् । एवमेव दर्शनशुद्धिउद्देशमें “दव्वे भावे असुई" इत्यादि २८६ वीं गाथाका व्याख्यान करते समय कहा है- अशुचि दो प्रकारकी है (१) द्रव्य अशुचि और (२) भाव अशुचि । जिस व्यक्तिका शरीर अशुचिसे लिप्त हो अथवा जो विष्टाका त्याग करके (टट्टी जाकर) मलद्वार नहीं धोता उस व्यक्तिको द्रव्यसे अशुचि कहते हैं, इत्यादि । तथा इसी व्यवहार भाष्यके तीसरे उद्देशेको 'दब्वे भावे असुई दव्वंमि विद्वमादिलित्तो उ' इस २८७ वो गाथाकी व्याख्या करते समय टीकाकारने कहा है-विष्ठाआदिसे लिप्तको द्रव्य अशुचि कहते हैं । यहाँ आदि शब्दसे मूत्र और श्लेष्म आदिको ग्रहण करना चाहिए, ऐसा कहा है । प्रज्ञापनासूत्रमें कहे हुए उच्चार आदि हो अशुचि पदका अर्थ है, इसी आशयसे प्रकृतमें द्रव्य भावका भेद कर देने पर भी अशुचि पदार्थोंमें मुखसे निकलने वाले जलकणोंका ग्रहण नहीं किया है । ____ आवश्यकसूत्रके वन्दना नामक तीसरे अध्ययनमें हरिभद्रसूरिने १११वीं गाथाकी व्याख्या करते समय अशुचि शब्दका अर्थ विट्प्रधान स्थान किया है । दर्शनशुद्धि नामक ग्रन्थमें भी ધ્યાન કરતી વખતે કહ્યું છે કે अशुथि मे प्रा२नी छ : (१) द्रव्य अशुथि अर (२) मा अशुथि. २ व्यतिनु શરીર અશચિથી લેપાયેલું હોય અથવા જે વિકાને ત્યાગ કરીને (જાજરૂ જઈને) મળદ્વાર નથી ધોતે એ વ્યકિતને દ્રવ્યથી અશુચિ કહે છે; ઈત્યાદિ. तथा- व्यपारसूत्र मायनी 'दव्वे भावे असुई दव्वंमि विठ्ठमादिलितो उ' थे २८७ મી ગાથાની વ્યાખ્યા કરતી વખતે કહ્યું છે કે વિષ્ઠા આદિથી લિસને દ્રવ્ય અશુચિ કહે છે. અહીં “આદિ શબ્દથી મૂત્ર અને લેમ્ આદિનું ગ્રહણ કરવું જોઈ એમ કહ્યું છે. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં કહેલા ઉચ્ચાર આદિ જ અશુચિ શબ્દનો અર્થ છે, એ આશયથી પ્રકૃતમાં દ્રવ્યભાવને ભેદ બતાવતા છતાં પણ અશુચિ પદાર્થોમાં મુખથી નીકળતા જળકણોને ગ્રહણ કર્યા નથી. આવશ્યક સૂત્રના વંદના નામક ત્રીજા અધ્યયનમાં હરિભદ્ર સૂરિએ ૧૧૧ મી ગાથાની વ્યાખ્યા કરતાં અશુચિ અબ્દને અર્થ વિદ્ધધાન સ્થાન એમ કર્યો છે. દર્શનશુદ્ધિ નામક ગ્રંથમાં શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः नामके ग्रन्थेऽपि प्रतिपादितम् । उत्तराध्ययनसूत्रे एकोनविंशेऽध्ययने द्वादशगाथाव्याख्यायां भावविजयगणिनाऽपि-"अशुचिभ्यां शुक्रशोणिताभ्यां संभवम् उत्पन्नम् अशुचिसम्भवम्" इत्युक्तम् । तत्रैव कमलसंयमोपाध्यायेनापि सर्वार्थसिद्धिटीकायाम्- "अशुचिसम्भवम् अशुचिरूपशुक्रशोणितोत्पन्नम्" इति व्याख्यातम, सूत्रकृताङ्गे द्वितीयश्रतस्कन्धे द्वितीयाध्ययने नरकवर्णने षट्पष्टितम-(६६) सूत्रे-'असुई' इत्यस्य टोकायाम"अशुचयो विष्टामुक्कलेदप्रधानत्वात्" इति शीलाङ्गाचार्येण कथितम् । क्लेदः प्रस्वेदः (पसीना) इति हिन्दीशब्दसागरकोशः । स च मुखजलाद्भिन्न इत्यतिरोहितमेव सर्वेषाम् । प्रस्वेदेऽपि न संमूछिमजीवोत्पत्तिः, तत्परिगणने तस्यानुक्तत्वात् । पिण्डनियुक्तौ च पूतिकर्मदोषभेदस्य द्रव्यपूतेरुदाहरणे अशुचिगन्धशब्दस्य पुरीषगन्धार्थक-त्वं निगदितम् । ऐसा ही प्रतिपादन किया है । उत्तराध्ययनसूत्रमें उन्नोसवें अध्ययनको बारहवीं गाथाकी व्याख्या करते समय भावविजयगणिने कहा है-"अशुचिभ्यां शुक्रशोणिताभ्यां संभवम् उत्पन्नम् अशुचिसंभवम् ।" इसी सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि नामक टीकामें कमलसंयम उपाध्यायने ऐसा व्याख्यान किया है-"अशुचिसंभवम् अशुचिरूप-शुक्रशोणितोत्पन्नम् । सूत्रकृताङ्गसूत्रमें द्वितीय श्रतस्कन्धके द्वितीय अध्ययनमें नरकके वर्णनमें ६६ वें सूत्रमें 'असुई पदकी टोकामें शीलाङ्गाचार्यने कहा है-"अशुचयो विष्टासृक्क्लेदप्रधानत्वात् ।" यहाँ क्लेद पसीनाको कहा है । यह बात सबको विदित ही है कि मुखसे निकलने वाले जलकण और पसीना एक नहीं हैं दोनों अलग-अलग हैं । पसीनेमें भी संमूर्छिम जीव उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि संमूर्छिम जीवोंके उत्पत्तिस्थानों की गिनती करते समय भगवान्ने पसीना नहीं कहा है । पिण्डनियुक्तिमें पूतिकर्मदोषके भेद द्रव्यपूतिके उदाहरणमें 'अशुचिगन्ध' शब्दको विष्टा-गन्ध वाले अर्थमें प्रयोग किया है । પણ એવું જ પ્રતિપાદન કર્યું છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં ૧૯ મા અધ્યયનની બારમી ગાથાની व्याच्या ४२di afaril मे घुछे -अशुचिभ्यां = शुक्रशोणिताभ्यां संभवम् = उत्पन्नम् अशुचिसंभवम् । २। सूत्रनी साथ सिद्धि नाममा भसयम उपाध्याये मे व्यायान यु छ ?-अशुचिसंभवम् अशुचिरूपं शुक्रशोणितोत्पन्नम् । સૂત્રકૃતાંગ સૂત્રના દ્વિતીય શ્રુતસ્કંધના બીજા અધ્યયનમાં નરકના વર્ણનમાં ૬૬ મા सूत्रमा असुई शहनी समi leinयाय सुछ अशुचयो विष्टासृक्लेदप्रधानत्वात्। અહીં કલેદ પરસેવાને કહ્યો છે. એ વાત સૌ જાણે છે કે મુખથી નીકળતા જળકણ અને પરસેવે એક નથી–બેઉ જૂદા-જૂદા છે. પરસેવામાં પણ સંમૂર્ણિમ જીવે ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે સંમૂરિષ્ઠમ નાં ઉત્પત્તિસ્થાનની ગણત્રી કરતી વખતે ભગવાને પરસેવે કહેલું નથી. પિંડનિયુકિતમાં પૂતિકર્મષના ભેદ દ્રવ્યપૂતિના ઉદાહરણમાં રારિ गंध शहना विटा-घाणा अर्थमा प्रयोग या छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशबैकालिकसूत्रे मानवधर्मशास्त्रेऽपि भाषणकालिकमुखोद्गतविप्रुषां मेध्यत्वमेवोक्तं नत्वशुचित्वं, यथा मनुस्मृतौ पञ्चमाध्याये “मक्षिका विष छाया, गोरश्वः सूर्यरश्मयः । रजो भूर्वायुरग्निश्च, स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत् ॥ ५ ॥ १३३॥ इति । किञ्च दोरकाश्रयणमेव हिसानिदानं मत्वा हस्तेन शिरःपञ्चाद्भागे ग्रन्थिदानेन वा मुखवस्त्रिकां धारयताऽपि भाषणकालिकमुखोत्पतितजलकणेषु संमूर्ति छमजीवोत्पत्तिस्थानत्वाभावोपपादनाय प्रकृतोपात्तानि प्रमाणान्यवश्यं शरणीकरणीयानि, अन्यथा तेषामपि धर्मोपदेशकाले द्वित्रहोरापर्यन्तं भाषणे मुखोपरि मुखवस्त्रिकाधारणस्याऽऽवश्यकतया तत्र मुखोत्पतितजलकणैरार्द्रतापत्तिर्वारयितुमशक्यैव, लोके हि अनावृतमुखेन पुस्तकं पठतां परं प्रति ब्रुवता च मुखविप्रुषः पुस्तके परदेहे च पतन्त्यो लक्ष्यन्ते, पुनः समीपतमानवधर्मशास्त्रमें भाषण करते समय निकलने वाले जलकणों को अशुचि नहीं कहा है । मनुस्मृति पाँचवाँ अध्याय "मक्षिका विप्रुषश्छाया, गौरश्वः सूर्यरश्मयः । रजो भूर्वायुरग्निश्च, स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत् ॥ ટ ॥५॥१३३॥ डोरा धारण करने को ही हिंसोका कारण मान कर हाथसे अथवा सिरके पीछे गाँठ लगा कर मुखवस्त्रिका धारण करने वालों को भी इन प्रमाणों की शरण लेनी चाहिए; जो यह Earth लिए यहाँ दिये गये हैं कि भाषण करते समय मुखसे निकलने वाले जलकणो मैं संमूच्छिम जीव उत्पन्न नहीं होते । अन्यथा धर्मोपदेश देते समय वे दो-दो तीन तीन घण्टे बोलते हैं उस समय मुखस्त्रिका धारण करना आवश्यक होनेके कारण मुख से निकलने वाले जलकणों से मुस्ववस्त्रिका गीला हो जायगी और इस आपत्ति का निवारण करना शक्य नहीं है । लोक: खुले मुंह पुस्तक पढनेवालों के तथा दूसरों से वार्तालाप करने वालो के मुखसे માનવધમ શાસ્ત્રમાં ભાષણ કરતી વખતે નીકળતા જળકણાને અશુચિ કહ્યા નથી. મનુસ્મૃતિના પાંચમા અધ્યાયમાં કહ્યું છે— मक्षिका विप्रषछाया, गौरश्वः सूर्यरश्मयः । रजो भूर्वायुरग्निश्व स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत् ॥५- १३३ । ઢોરા ધારણ કરવાને જ હિંસાનુ કારણ માનીને હાથથી અથવા શિરની પાછળ ગાંઠ વાળીને મુખવિકા ધારણ કરનારાઓએ પણ આ પ્રમાણેાનું શરણુ લેવુ જોઈ એ, જે એ મતાવવાને માટે અહીં' આપવામાં આવ્યાં છે કે–ભાષણ કરતી વખતે મુખથી નિકળતા જલકામાં સમૂમિ જીવ ઉત્પન્ન નથી થતા, અન્યથા વ્યાખ્યાન વાંચતી વખતે ખખ્ખુ ત્રણ-ત્રણ કલાક સુધી ખેલે છે, ત્યારે મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવી આવશ્યક હાવાથી મુખથી નીકળતા જલકણાથી મુખવસ્ત્રિકા ભીની થઈ જશે અને એ આપત્તિ નિવારવાનુ શકય નથી. લાકામાં ખુલ્લે મુખે પુસ્તક વાંચનારના તથા બીજાઓ સાથે વાર્તાલાપ કરનારના શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ मुखवस्त्रिका विचारः स्वर्ति मुखवस्त्रिकायां न ताः पतिष्यन्तीति कल्पना किं दुराग्रहं नावेदयेदित्यलम् । नन्वेवं सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवविराधनापरिहारार्थमेव यदि सदा सदोरकमुखवस्त्रिकाबन्धने सावधानता विधीयते तर्हि भोजनकाले तदपसारणावश्यकतया कथं तादृशजीवविराधनापरिहारः १, इति चेच्चित्तमवधेहि । ४९ अत्र चतुर्थाध्ययने - " जयं भुंजतो भासतो पावं कम्मं न बंधई', इति भगव - ताऽभिहितम्, प्रागुक्तरीत्या मुखवस्त्रिकाबन्धनस्याssवश्यकत्वेऽपि तदपसारणमन्तरेण 'तो' इति पदबोध्याया भोजनक्रियाया अनुपपत्त्या भोजनकाले मुनीना मुखवस्त्रिका मोचनीयेति गम्यते, अत एवात्र - " जयं भुंजतो' इत्यस्य यथाकल्पलब्धान्तप्रान्ताद्येवाजलकण निकल कर पुस्तक पर तथा दूसरेकी देह पर गिरते हुए देखे जाते हैं । फिर मुखके पास ही रहनेवाली मुखवस्त्रिका परे कण नहीं गिरेंगे, ऐसी कल्पना करना दुराग्रहको हो प्रगट करता है । प्रश्न- सूक्ष्म, व्यापी संपातिम तथा वायुकाय आदि जीवों की विराधना से बचने के लिए ही यदि सदा डोरा सहित मुखवस्त्रिका वाँधनेमें सावधानी रखी जाती है तो भोजन करते समय उन जीवों की विराधना से कैसे बच सकते हैं ? क्योंकि उस समय मुखवस्त्रिका खोल लेना आवश्यक है । उत्तर - चित्त लगाकर सुनो। इसी (दशवैकालिक) के चौथे अध्ययनमें भगवान् ने कहा है "जयं भुजंतो भासतो पावं कम्मं न बंधइ ।” अर्थात् यतनापूर्वक आहार करने और भाषण करनेसे पापकर्मका बन्ध नहीं होता है। पहले कहे गये प्रमाणोंसे मुखवस्त्रिका बांधना सिद्ध होने पर भी उसके निकाले विना 'भुंजंतो' पदसे बोध्य भोजनक्रिया नहीं हो सकती । इससे ऐसा तात्पर्य निकलता है कि भोजन करते समय मुनिको मुखवस्त्रिका हटा देनी चाहिये । अतः મુખમાંથી જલકણ નીકળીને પુસ્તક પર તથા બીજાના શરીર પર પડતા જોવામાં આવે છે. તેા પછી મુખની પાસે જ રહેનારી મુખવસ્ત્રિકા પર કણ નહિ પડે, એવી કલ્પના કરવી એ દુરાગ્રહને પ્રકટ કરે છે. પ્રશ્ન—સૂમ, વ્યાપી, સ`પાતિમ તથા વાયુકાય આદિ જીવાની વિરાધનાથી બચવાને માટે જ જો સદા દ્વારા સાથે મુખવસ્ત્રકા આંધવામાં સાવધાની રાખવામાં આવે છે. તે ભાજન કરતી વખતે એ જીવાની વિરાધનાથી કેવી રીતે ખચી શકાય ? કારણ કે એ વખતે મૂખવસ્ત્રિકા છેડી નાખવાની જરૂર પડે છે. ઉત્તર-ચિત્ત રાખીને સાંભળેા. આ (દશવૈકાલિકના) જ ચાથા અધ્યયનમાં ભગવાને अछे 'जयं भुजतो भासतो पावं कस्मं न बंधइ' अर्थात् यतनापूर्व' हार खाथी પાપકર્મીના બધ થતા નથી. પૂર્વાંકત પ્રમાણેાથી મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એ સિદ્ધ થયા છતાં પણ એને કાઢી નાંખ્યા વિના મુકતો શબ્દથી ધ્ય ભજનક્રિયા થઈ શકતી નથી. તેથી એવુ તાપ નીકળે છે કે ભાજન કરતી વખતે મુનિએ મુખવસ્ત્રકા હટાવી દેવી જોઈ એ. ७ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे शनं मण्डलदोषवर्जनपूर्वकमभ्यवहरमाणः, इत्येवाशयो न तु मुखरस्त्रिकां बद्ध्वैव भुञ्जान इति, तथा चोक्तयतनापूर्वक भोजनकाले मुखवस्त्रिकापसारणमागमानुकूलमेवेति न तस्य पापकर्मबन्धनहेतुत्वम्, अनेनैवाऽऽशयेन च-"पावं कम्मं न बंधई" इत्युक्तं भगवता। ___एवं च भगवत्तीर्थङ्करगणधरादिवचनपर्यालोचनेन निरवशेषसंशयतिमिरापगमपुरस्सरं प्रकाशमाने मानसे वायुकायादिविराधनापरिहाराय सदोरकमुखवत्रिकाबन्धनं साहाद स्थानमासादयति । रागद्वेषदोषाकलितचेतसां भगवद्वचनामृतरसास्वादवञ्चितानां विविधसंशयपराहते चेतसीममर्थ दुर्लक्ष्यमभिलक्ष्य हस्तदुष्प्राप्यमर्थमाकलयितु सोपानमिवालम्बनं तेभ्यः पुरस्कत्तु सप्रमाणमेतत् सम्यगुपपादितम् । अत्र प्रमाणतयोपन्यस्तग्रन्थनामानि विनेयबुद्धिवैमल्याय निर्दिश्यन्ते(१) श्री-भगवतीसूत्रम् । (१५) निशीथसूत्रम् । (२) हितशिक्षारासः। (श्रावकऋषभदासकृतः) (१६) बृहत्कल्पभाष्यम् । (१७) व्यवहारभाष्यम् । (३) हरिबलमच्छोरासः (मुनिलब्धिविजयकृतः) (१८) आचारागसूत्रम् । (१९) विपाकसूत्रम् । 'जयं भुजतो" पदका “कल्पके अनुसार प्राप्त हुआ अन्त प्रान्त आदि आहार मण्डलदोषों का त्याग करके भोगता हुआ" ऐसा अर्थ समझना चाहिए । ऐसा नहीं कि मुखवस्त्रिका बाँधे-बाँधे आहार करे । अत एव उक्त-यतना-पूर्वक भोजनकालमें मुखवस्त्रिका त्याग देना आगमके अनुकूल है, अतः उससे पापकर्मका बन्ध नहीं होता । इसी आशयसे भगवान्ने 'पावं कम्मं न बन्धई' कहा है। इस प्रकार भगवान् तीर्थङ्कर गणधरादिकोंके वचनोंको पर्यालोचना करनेसे सकलसंशयरूप अन्धकारके दूर हो जानेके कारण प्रकाशमान ऐसे हृदयमें वायुकाय आदिकी विराधनाका दोष टालनेके लिए दोरासहित मुखव स्त्रिकाका बान्धना आल्हादपूर्वक स्थानको धारण करता है । रागद्वेषारूपी दोषोंसे दूषित भगवद्वचनामृत के रसास्वादसे वंचित पुरुषोंके अनेक दुर्विकल्पोंसे पराहत हुए चित्तमें इस अर्थको दुर्लक्ष्य समझकर उनके लिए हाथसे न प्राप्त होनेवाली मेट 'जयं भुजतो पहना म ४८५२ अनुसार प्रात थमेत मत प्रांत : माहार મંડલ-દે ત્યાગ કરીને ભેગવતાં” એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. એમ ન સમજવું જોઈએ કે મુખત્રિકા બાંધી રાખીને આહાર કરે. એટલે ઉક્ત-ચતનાપૂર્વક ભેજનકાળમાં મુખવસ્ત્રિકાને ત્યાગ કર એ આગમને અનુકૂળ છે. તેથી પાપકર્મને બંધ થતો નથી. से भाशयथी लगवाने पावै कम्मं न बंधइ यु छे. એ પ્રકારે ભગવાન તીર્થક ગણુધરાદિનાં વચનની પર્યાલચના કરવાથી સૂકલ સંશયરૂપ અંધકાર દૂર થઈ જવાને લીધે પ્રકાશમાન એવા હૃદયમાં, વાયુકાય આદિની વિરાધૂનાને દોષ ટાળવાને માટે દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકાનું બાંધવું તે આહલાદપૂર્વક સ્થાનને ધારણ કરે છે. રાગદ્વેષ રૂપી દેષથી દુષિત, ભગવદુવચનામૃતના રસાસ્વાદથી વંચિત એવા પુરૂષના અનેક દુર્વિકથી પરાસ્ત એવા ચિત્તમાં આ અર્થને દુર્લક્ષ્ય સમજીને તેમને માટે હાથથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा० १ मुखवस्त्रिकाविचारः (४) योगशास्त्रम् (हेमचन्द्राचार्य) (२०) सामाचारी । (देवचन्द्रसरिकता) (५) ओधनियुक्तिः । (६) प्रवचनसारोद्धारः। (२१) प्रज्ञापनासूत्रम् । (७) प्रकरणरत्नाकरः । (२२) भावप्रकाशः। (१०) उत्तराध्ययनसूत्रटीकाः ३। (२३) सुश्रुतसंहिता। (१) सर्वार्थसिद्धिटीका । (२४) योगचिन्तामणिः। (२) भावविजयकृतवृत्तिः । (२५) माधवनिदानम् । (३) पाईटीका । (२६) तिव्वअकब्बर। (११) विशेषावश्यकबृहद्वृत्तिः (२७) शरीरविज्ञानम् । (१२) अन्तकृद्दशाङ्गम् । (२८) मानवधर्मशास्त्रम् । (१३) आवश्यकसूत्रटीका ( हारिभद्रीया ) (२९) पिण्डनियुक्तिः । (३०) सूत्रकृताङ्गम् । (१४) ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् । (३१) दशवैकालिकसूत्रम् । इति । ॥ इति मुखवस्त्रिकाविचारः॥ तपः-तपति-ज्ञानावरणीयाधष्टविधं कम दहतीति तपः, तत्त बाह्याभ्यन्तरभेदादद्विधा, तत्र बाह्यं तपः षड्विधम्, तथा चोक्तम् "अणसणमणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥१॥', इति । छाया-"अनशनमूनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः। कायक्लेशः संलीनता च, बाह्यं तपो भवति ॥१॥" (१) अनशनं चतुर्थभक्तादिषाण्मासिकान्तं यावज्जीवनं वाऽशेषाहारपरिहारः। (२) वस्तुकी प्राप्तिके लिए सोपान (सीढी) की तरह आलम्बन अगाडी रखकर यह सब सप्रमाण प्रतिपादित किया गया है । यहां विनीत शिष्यको बुद्धिका विकासके लिए प्रमाणरूपसे दिये गये ग्रन्थोंकी कुछ नामावली संस्कृत टोकामें दी गई है, पाठकगण वहां देख लेवें ॥ ॥ इति मुखवस्त्रिकाविचार ॥ तप-जिससे ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म भस्म हो जावें उसे तप कहते हैं। वह दोप्रकारका है-(१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकारका हैન પ્રાપ્ત થનારી વસ્તુની પ્રાપ્તિને માટે સોપાન (સીડી)ના જેવું આલંબન આગળ રાખીને આ બધું સપ્રમાણ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. અહીં વિનીત શિષ્યની બુદ્ધિના વિકાસને માટે પ્રમાણુરૂપે આપેલા ગ્રંથની નામાવલી સંસ્કૃતટીકામાં આપવામાં આવી છે, ત્યાંથી પાઠકેએ જોઈ લેવી. | ઇતિ મુખવસ્ત્રિકાવિચાર સમાપ્ત તપ–જેથી જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મ ભસ્મીભૂત થઈ જાય તેને તપ કહે છે. त५ मे प्रानुछे. (१) मा मन (२) मान्यत२. मा त५७ प्रातु छ-(१) मनशन, (२) नारी, (3) मिक्षायया, (४) २४५रित्याग, (५) यश, (६) सानता. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूने उनोदरिका यावताऽन्नादिनोदरं परिपूर्यते तत्र कवलमात्रमपि न्यूनयित्वाऽभ्यवहरणम् । (३) भिक्षाचर्या स्वाध्यायाविरोधियथाविधिविशुद्धभिक्षाकृते चरणम् (४) रसपरित्यागः =दुग्धादिविकृतित्याग । (५) कायक्लेशः शीतोष्णादिसहिष्णुत्वं केशलुश्चने च । (६) संलीनता-स्त्रीपशुपण्डकरहितवसतौ कूर्मवदङ्गोपाङ्गाद्याकुश्चनपूर्वकावस्थानम् । आभ्यन्तरमपि तपः षड्विधं, तथा चोक्तम् " पायच्छित्तं विणो वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो एसो अभितरो तवो ॥१॥” इति । ___ (१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) भिक्षाचर्या, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश, (६) संलीनता ।। (१) अनशन इहलोक परलोक सम्बन्धी कामनारहित चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभत्ता, आदि छहमासी तप पर्यन्त, अथवा यावज्जीवन संपूर्ण आहारका परित्याग करना अनशन तप कहलाता है । (२) ऊनोदरो=जितने अन्नसे उदरकी पूर्ति हो जाती है उससे एक ग्रास भी कम आहार करनेको ऊनोदरी तप कहते हैं । इससे स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाएं अच्छीतरह निभती हैं । (३) भिक्षाचर्या जिससे स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाओंमें विघ्न न आबे, इसप्रकार शास्त्रानुकूल विधिसे विशुद्ध भिक्षाके लिए पर्यटन करना भिक्षाचर्या तप कहलाता है । (४) रसपरित्याग दूध, दही, घृत, तैल, मीठेका त्याग करनेको रसपरित्याग कहते हैं । (५) कायक्लेश-शीत, उष्ण आदिका सहन करना, अथवा केशलोच करनेको कायक्लेश तप कहते हैं । (६) संलोनता स्त्री-पशु-पण्डकरहित वसतीमें कछुवेकी तरह अङ्गोपाङ्ग संकुचित करके स्थित होना संलीनता तप कहलाता है। (૧) અનશન-ઇલેક પરલેક સંબંધી કામના રહિતપણે, ચતુર્થી ભક્ત, ષષ્ઠ ભક્ત, અષ્ટમ ભક્ત (સળંગ એક ઉપવાસ, બે ઉપવાસ, ત્રણ ઉપવાસ) આદિ છ માસી તપ સુધી અથવા જીવનપર્યત સંપૂર્ણ આહારને પરિત્યાગ કરે છે અનશન-તપ કહેવાય છે. (૨) ઉનેદરી–જેટલા અન્નથી ઉદર ભરાય તેથી એક કેળિયે માત્ર પણ એ છે આહાર કરે તે ઉનેદરી તપ કહેવાય છે. તેથી સ્વાધ્યાય, ધ્યાન, આદિ ક્રિયાઓને સારી રીતે નિભાવ થાય છે. (3) (भक्षायर्या-थी स्वाध्याय, ध्यान माह याममा पिन न भावे, से પ્રકારે શાસ્ત્રાનુકૂલ વિધિથી વિશુદ્ધ ભિક્ષાને માટે પર્યટન કરવું એ ભિક્ષાચર્યા તપ કહેવાય છે. (४) २४५रित्याग-६५, ४ी, घी, तेस, भान त्या ४२३। मेने २५५रित्या . (५) अयश-टा, ता५, माहिने सन ४२५i. Aथया शसाय ४२व। मे आय. કલેશ તપ કહેવાય છે. (6) समानता-श्री-पशु-५४-२डित वस्तीमा (स्थानमi) अयमानी 28 मायांग શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ अध्ययन १ गा. १ तपसः मेदनिरूपणम् छाया-"प्रायश्चित्तं विनयः, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः॥१॥" तत्र (१) प्रायश्चित्तम्-उपचिताऽतीचारशोधनं, यथाऽऽलोचनाप्रतिक्रमणादि । (२) विनयः-गुर्वाधाराधनं, यथाऽभ्युत्थानाऽऽसनप्रदानाभिवादनतन्मनोऽनुकूलप्रवृत्त्यादि । (३) वैयावृत्त्य साधूनामशनपानाधानयनादिना साहाय्य करणम् । (४) स्वाध्यायः श्रुत. धर्माराधनं, स च वाचना-प्रच्छना-परिवर्तनाऽनुप्रेक्षा-धर्मकथाभेदात् पञ्चविधः । (५) आभ्यन्तर तपके भी छह भेद हैं-(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय; (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, (६) व्युत्सर्ग । (१) प्रायश्चित्त लगेहुए अतिचारोंकी विशुद्धि करना प्रायश्चित्त तप है, जैसे आलोचना, प्रतिक्रमण आदि करना । (२)विनय-गुरु आदिकी आराधना करना विनय है। गुरु आदिके आने पर खड़ा होना, आसन देना, वन्दना करना, उनके मनके अनुकूल प्रवृत्ति करना आदि अनेक प्रकारका विनय होता है । (३) वैयावृत्य अशन पान आदि लाकर मुनियोको सहायता पहुंचाना वैयावृत्य (वेयावच्च) तप कहलाता है। (४) स्वाध्याय श्रुतज्ञानको आराधना करना स्वाध्याय है । स्वाध्यायके पांच भेद हैं-(१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा । शिष्योंको आगम पढ़ानेको 'वाचना' कहते हैं । सद्भावसे संशय दूर करनेके लिए, अथवा तत्त्वका निश्चय करनेके लिए पूंछना 'पृच्छना' कहलाता है । शुद्ध उच्चारण करके वार-बार સ કેચીને રહેવું તે સંલીનતા તપ કહેવાય છે. साक्ष्यत तपना पy छ लेहे। छ. (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (3) वैयाकृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, (६) व्युत्सग. (૧ પ્રાયશ્ચિત્ત–લાગેલા અતિચારાની વિશુદ્ધિ કરવી એ પ્રાયશ્ચિત તપ છે, જેમકે આચના, પ્રતિક્રમણ વગેરે કરવાં. (૨) વિનય–ગુરૂ આદિની આરાધના કરવી એ વિનય છે. ગુરૂ આદિ આવે ત્યારે ઊભા થવું, આસન આપવું, વંદના કરવી, એમના મનને અનુકૂળ પ્રવૃત્તિ કરવી વગેરે અનેક પ્રકારે વિનય થાય છે. (3) वैयाकृत्य -मशन पान Ale सावाने भुनियान सहाय मावी l वैयावृत्य (वैयावश्य) त५ उपाय छे. (૪) સ્વાધ્યાય–શ્રુતજ્ઞાનની આરાધના કરવી એ સ્વાધ્યાય છે. સ્વાધ્યાયના પાંચ ही छ: (१) वायना, (२) छन।, (3) परिवत ना, (४) अनुप्रेक्षा, मने (५) . શિષ્યને આગમ ભણાવવા અને પિતે ભણવું એ વાચના. કહેવાય છે. સદુભાવપૂર્વક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे ध्यानम् एकमात्रावलम्बनेन पवनासंपृक्तदीपशिखाया इव चित्तस्य स्थिरीकरणम् । ___ यद्यपि तच्चतुर्विधम् आत-रौद्र-धर्म-शुक्लभेदात्, तथापि धर्म-शुक्ल लक्षणं द्वयमेवोपादेयं पूर्व द्वयस्य कर्मबन्धहेतुत्वात् । (६) व्युत्सर्ग-कायादिसंचालननिवृत्तिपूर्वकसोपयोगावस्थानम् । एवं बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशविधं तपः सिद्धम् । ननु अहिंसा-संयम-तप-स्वरूपस्य धर्मस्योत्कृष्टमङ्गलत्वं प्रतिपाद्यते तत्र तपसोऽनशनादिलक्षणदुःखरूपत्वेन मोक्षहेतुत्वं न प्राप्नोति, तद्धि अशातवेदनीयकर्मोदयात्मकम्, मनन करना 'अनुप्रेक्षा' है । धर्मकी चर्चा या उपदेश करनेको 'धर्मकथा' कहते हैं । (५) ध्यान वायुके स्पर्श नहीं होनेसे जैसे दोपककी ज्योति स्थिर हो जाती है, वैसेही मनको किसी एक विषयमें स्थिर करलेनेको ध्यान कहते हैं ध्यान यद्यपि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल के मेदसे चार प्रकारका है, तथापि यहाँ धर्म और शुक्ल ये दो शुभ ध्यान ही उपादेय हैं, यही दोनों तपमें अन्तर्गत हैं, पहलेके दो अशुभ ध्यान कर्मबन्धनके कारण है। (६) व्युत्सर्ग काय आदिके व्यापारको, तथा कषाय आदिको त्यागकर उपयोगसहित रहनेको 'व्युत्सर्ग' कहते हैं । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तरके भेद मिलकर तपके सब बारह भेद होते हैं । प्रश्न-अहिंसा, संयम और तपरूप धर्मको उत्कृष्ट मंगल बतलाया है, लेकिन अनशन आदि तप भोजन आदिका त्याग करनेसे होते हैं, इसलिए वे दुःख हैं और दुःख मोक्षका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि दुःस्व असातवेदनीय कर्मके उदयसे होता है । भगवान्ने भी સંશય દૂર કરવા માટે, અથવા તત્ત્વને નિશ્ચય કરવા માટે પૃચ્છા કરવી-પૂછવું એ પૃચ્છના કહેવાય છે. શુદ્ધ ઉચ્ચારણ કરીને વારંવાર આવૃત્ત કરવું તે પરિવર્તન કહેવાય છે. ભણેલા અર્થનું વારંવાર મનન કરવું એ અનુપ્રેક્ષા છે. ધર્મની ચર્ચા અથવા ઉપદેશ કરે से यमया ४उवाय छे. (૫) ધ્યાન–વાયુને સ્પર્શ નહિ થવાથી જેમ દીવાની જત સ્થિર રહે છે, તેવી રીતે મનને કોઈ એક અવલંબનમાં સ્થિર કરી લેવું એ ધ્યાન કહેવાય છે. ધ્યાન આd, રૌદ્ર, ધર્મ અને શુકલ એવા ભેદે કરીને ચાર પ્રકારનું છે, તો પણ અહીં. ધર્મ અને શકલ એ બે શુભ ધ્યાન જ ઉપાદેય છે. એ બે ધ્યાન તપમાં અંતર્ગત છે, પહેલાં બે અશુભ ધ્યાન કર્મબંધનાં કારણ છે. (૬) વ્યુત્સ-કાયા આદિના વ્યાપારને તદા કષાય આદિને ત્યજીને ઉપગ સહિત રહેવું એ વ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે. એ પ્રમાણે બાહ્ય અને આત્યંતરના ભેદ મળીને તપના એકંદર બાર ભેદ થાય છે. પ્રશ્ન-અહિંસા, સંયમ અને તપ રૂપ ધર્મને ઉત્કૃષ્ટ મંગલ બતાવેલ છે, પરન્ત અનશન આદિ તપ ભેજનાદિનો ત્યાગ કરવાથી થાય છે, તેથી એ દુઃખ છે અને દુખ મોક્ષનું કારણ થઈ શકતું નથી; કારણ કે દુઃખ અસાતવેદનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा.१ तपसः मेदनिरूपणम् . भगवताऽपि क्षुत्पिपासादयः परीषहा वेदनीयकर्मोदयस्वरूपत्वेनाऽभ्यधायिषत । कर्मक्षयो हि यद्यपि मोक्षाङ्गत्वेन श्रूयतेऽति शास्त्रे, कर्मोदयस्य तु न क्वचिन्मोक्षहेतुत्वं शास्त्रे लोके वा प्रथितम् । एवं सति तस्योत्कृष्टमङ्गलात्मकधर्मरूपत्वकथनमयुक्तम् । दुःखरूपत्वेन तपसो मोक्षसाधनत्वस्वीकारे तु व्याधिनाऽऽतुरस्य, राजदण्डेन तस्करस्य, कशादिघातेनाश्वादेः, दशविधक्षेत्रवेदनया नाराकाणां, श्वासोच्छ्वासमात्रप्रमितकालेऽपि सार्द्धसप्तदशमितजन्ममरणनिमित्तकाऽनन्तघोरवेदनायुक्तानां निगोदजीवानां च मोक्षापत्तिः, तेषामपि भवदभिमतमोक्षहेतुदुःखसद्भावादिति ।। यही प्रतिपादन किया है कि-"क्षुधा पिपासा आदि परीषह वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं।" कर्मका क्षय तो मोक्षका कारण हो सकता है, परन्तु यह कहीं नहीं सुना कि कर्मका उदय भी मोक्षका कारण है । यह बात न किसी शास्त्रमें है और न लोकमेंही प्रसिद्ध है, इसलिए जब कि तप, कर्मोदयजन्य होनेसे मोक्षका कारण नहीं हो सकता तो उसे उत्कृष्ट मंगल क्यों कहा है , यदि दुःखरूप तपको मोक्षका कारण मानलिया जाय तो अनेक दोष आते हैं, वे ये हैं कि जो पुरुष रोगसे अत्यन्त पीड़ा पा रहा है उसे मोक्ष होजाना चाहिये, राजदण्डसे दुःख भोगनेवाले चोर डाकुओंको मोक्ष होना चाहिए, घोड़ोपर कोडोको मार पड़ती है, वे दुःखी होते हैं; अतः उन्हेंभी मोक्ष मिलना चाहिये । इसी प्रकार, क्षेत्रवेदनासे दुःखी नारको जोवोंको तथा एक श्वासोच्छ्वासमें साढे सतरह वार जन्ममरणके अनन्त काल तक दुःख पाने वाले निगोदिया जीवोंको मुक्तिको प्राप्ति होनी चाहिये । अधिक कहां तक कह ? संसारके समस्त प्राणी जन्म, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि भांति-भांतिके दुःखोंसे दुःखी हैं अत एव सबहीको मोक्ष मिलजाना चाहिये, क्योंकि दुःखको यहां मोक्षका कारण माना है। થાય છે. ભગવાને પણ એમ જ પ્રતિપાદન કર્યું છે કે-“ભૂખ તરસ આદિ પરીષહ વેદનીય કર્મના ઉદયથી જ થાય છે.” કર્મને ક્ષય તે મોક્ષનું કારણ હોઈ શકે છે. પરંતુ એવું કયાંય સાંભળ્યું નથી કે કર્મનો ઉદય પણ મોક્ષનું કારણ છે. એ વાત કઈ શાસ્ત્રમાં નથી તેમજ લેકમાં પ્રસિદ્ધ નથી; તેથી જે તપ કર્મોદયજન્ય હાઈને મોક્ષનું કારણ થઈ શકતો નથી તો તેને ઉત્કૃષ્ટ મંગલ કેમ કહ્યો છે ? જે દુઃખરૂપ તપને મોક્ષનું કારણ માનવામાં આવે તે અનેક દોષો આવે છે, જેમકે-જે પુરૂષ રોગથી અત્યંત પીડા પામી રહ્યો હોય તેને મિક્ષ થઈ જ જોઈએ, રાજદંડથી દુઃખ જોગવવા વાળા ચાર ડાકુઓને મોક્ષ થવે જોઈએ, ઘોડા પર ચાબુકને માર પડે છે તેથી તે દુઃખી થાય છે, તેથી તેને પણ મોક્ષ મળવો જોઈએ. એ જ પ્રમાણે ક્ષેત્રવેદનાથી દુખી એવા નારકી જીવોને તથા એક શ્વાસચછવાસમાં સાડી સત્તરવાર જન્મમરણનાંદુઃખે અનંતકાળ સુધી પામનારા નિગોદિયા ઇને પણ મુક્તિની પ્રાપ્તિ થવી જોઈએ. વધારે શું કહીએ ? જગતનાં બધાં પ્રાણીઓ જન્મ, મરણ, ઇષ્ટનો વિગ, અનિષ્ટનો સંગ વગેરે તરેહ તરેહનાં દુઃખેથી દુઃખી છે. એટલે એ બધાંને મોક્ષ મળી જવો જોઈએ, કારણ કે દુઃખને અહીં મોક્ષના કારણ રૂપ માન્યું છે, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिकसूत्रे किञ्चालमेतेन विशेषविचारेण जन्मजरामरणेवियोगाऽनिष्टसंयोगायनेकविधदुःखयुक्ताः सर्व एव संसारिण इत्यविशेषेण सर्वेषां मोक्षापत्तिः स्यात् । __ एतदुक्तं भवति-तपः समाचरतः क्षुत्पिपासादयः समुद्भवन्ति, ततश्च प्रबलदुःखम्, एतच्च चित्तविक्षेपस्य हेतुः, सति च तस्मिन् अप्रशस्तं ध्यानं, तस्माच्चावश्यं कर्मबन्धः, ततश्च चतुर्गतिकसंसारपरिभ्रमणरूपं महदमङ्गलमिति कथंकथमप्यहिंसासंयमविशिष्टस्यापि तपसो मोक्षहेतुत्वरूपमुत्कृष्टमङ्गलत्वं न सम्भवदुक्तिकमिति । अत्रोच्यते-तपो न तावद् दुःखात्मकं, दुःखं हि नामाऽशातवेदनीयकर्मोदयविपाक: पीडालक्षण आत्मपरिणामः, तपश्चर्यागभिताऽनशनादिव्यापारस्य न पीडात्मकाऽऽत्मपरिणामरूपत्वम् । जो अनशन आदि तप करता है उसे क्षुधा पिपासा आदि परोषह होते हैं । परीषह होनेसे तीव्र दुःख होता है । दुःखसे चित्तका विक्षेप होता हैं। चित्तके विक्षेपसे अशुभ ध्यान होता है । अशुभ ध्यानसे कर्मका बन्ध होता है । कर्मबन्धसे चार गतियोंमें भ्रमण करना पड़ता है, इसप्रकार यह बड़ा अमंगल है। जो प्रबल अमंगल है वह अहिंसा और संयमसे युक्त होनेपर भी उत्कृष्ट मंगल नहीं हो सकता । अमृतमें विष मिला देनेसे क्या विष अमृत हो सकता है । कदापि नहीं । इसलिए तपको मोक्षका कारण मानना उचित नहीं है। उत्तर-तपको दुःख कहना युक्त नहीं है, वह दुःखरूप नहीं है । कयोंकि असातावेदनीय कर्मके फलोंको, जो आत्माका ही एक विभाव परिणाम है, और पीड़ारूप है उसे दुःख कहते हैं । अनशन आदि तप पीड़ारूप परिणाम नहीं है, अतः उन्हें दुःख नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है-शंकाकारने कहा है कि तप मोक्षका कारण नहीं है । कयोंकि वह दुःख है। यहाँ “तप मोक्ष का का कारण नहीं" यह प्रतिज्ञा है और कयोंकि वह दुःख है" यह हेतु है। हेतुका सदा ऐसा ही प्रयोग करना चाहिये जो प्रतिवादीको भी सिद्ध होवे । यदि "वह दुःख જે અનશન આદિ તપ કરે છે તેને ભૂખ-તરસ આદિ પરીષહ થાય છે. પરીષહથી તીવ્ર દુખ થાય છે. દુઃખથી ચિત્તને વિક્ષેપ થાય છે. ચિત્તના વિક્ષેપથી અશુભ ધ્યાન થાય છે. અશુભ ધ્યાનથી કર્મને બંધ થાય છે. કર્મબંધનથી ચાર ગતિઓમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે. એ રીતે એ મોટું અમંગળ છે. જે પ્રબળ અમંગળ છે તે અહિંસા અને સંયમથી યુક્ત થવા છતાં પણ ઉત્કૃષ્ટ મંગળ થઈ શકતું નથી. અમૃતમાં વિષ મેળવવાથી શું વિષ અમૃત થઈ શકે છે ? કદાપિ નહિ. તેથી તપને મિક્ષનું કારણ માનવું એ ઉચિત નથી. उत्तर-तपने से युति नथी. ते ४३५ नथी १२ मे सातावह નીય કર્મ કે જે આત્માને જ એક વિભાવ પરિણામ છે અને પીડારૂપ છે, તેને દુઃખ કહે છે. અનશન આદિ તપ પીડારૂપ પરિણામ નથી, તેથી તેને દુખ કહી શકાય નહિ. બીજી વાત આ છે. શંકાકારે કહ્યું કે તપ મોક્ષનું કારણ નથી, કારણ કે તે દુઃખ છે; પરંતુ ही " त५ मोक्ष १२९५ नयी " से प्रतिज्ञा छ भने “ ४१२१ ते ५ छ” मे શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ तपसः मेदनिरूपणम् किश्च तपः पक्षीकृत्य मोक्षसाधनत्वाभावसाध्ये यदुक्तं दुःखरूपत्वसाधनं तदयुक्तं, तस्य दुःखजयरूपत्वेन स्वरूपासिद्धेः। तत्र (तपसि) जायमानाः क्षुत्पिपासादयः आत्मनः प्रवर्द्धमानविशुद्धपरिणामेन विजिता सन्त पीडालक्षणं कार्य न जनयन्ति । एतेन क्षुत्पिपासादीनां कर्मोदयस्वरूपत्वेऽपि स्वकार्यकारणाऽक्षमतया चित्तविक्षेपाजनकत्वं सिद्धम् । अतएव भगवताऽपि क्षुत्पिपासादिपरोषहस्य तपसश्च पृथक्त्वेन प्रतिपादनं विहितम् । है" यह हेतु सिद्ध होता तो शंकाकारका साध्य सिद्ध हो सकता, परन्तु वह सिद्ध नहीं है । क्योंकि पहले बतला चुके हैं कि तप दुःख नहीं है । अत एव यह हेतु स्वरूपसेही असिद्ध है। तप दुःखरूप नहीं बल्कि दुःखको विजय करना तप कहलाता है। अनशन आदि तपसे होनेवाले क्षुधा आदि परीषह आत्माके बढ़ते हुए विशुद्ध परिणामसे जीत लिये जाते हैं । क्षुधा दुःख अवश्य है परन्तु उसे तप नहीं कहते, बल्कि क्षुधा पर विजय पानेको तप कहते हैं । क्षुधाको जीतना दुःख नहीं परन्तु सुख है अत एव तप सुखरूप है । क्योंकि तपश्चर्या करनेवालेको भूखकी परवाह ही नहीं रहती । इसलिए शंकाकारका यह कहना ठीक नहीं है कि तपसे पीड़ा उत्पन्न होती है । इस कथनसे यह बात अच्छीतरह सिद्ध हो गई कि क्षुधा आदि परीषह वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं, परन्तु वे पीड़ा नहीं उत्पन्न कर सकते । और जब उनसे पीड़ा नहीं उत्पन्न हो सकती तो चित्तमें विक्षेप भी नहीं हो सकता । चित्तमें विक्षेप न होनेसे कर्मका बन्ध भी नहीं हो सकता । उल्टा क्षुधा आदिको जीतनेसे कर्मोकी निर्जरा होती है और आते हुए कर्मोका निरोध होनेसे संवर भी होता है । इसलिए भगवान महावीर स्वामीने क्षुधा आदि परीषह और तपको अलग अलग कहा है। હત છે. તેનો પ્રયોગ સદા એ કરવો જોઈએ કે જે પ્રતિવાદીને મને પણ સિદ્ધ હોય. જે તે દખ છે એ હેતુ સિદ્ધ હોત તે શંકાકારનું સાધ્ય સિદ્ધ કરી શકાત, પરંતુ એ સિત નથી; કારણ કે પહેલાં બતાવી ચૂક્યા છીએ કે તપ એ દુઃખ નથી. એટલે એ હેતુ સ્વરૂપથી જ અસિદ્ધ છે. તપ દુઃખરૂપ નથી, બલકે દુઃખ ઉપર વિજય મેળવવો એ તપ કહેવાય છે. અનશન આદિ તપથી થનારા સુધા આદિ પરીષહ આત્માના વધતા જતા વિશદ્ધ પરિણામથી જીતાઈ જાય છે. ક્ષુધા એ દુઃખ અવશ્ય છે. પરંતુ તેને તપ કહી શકાય નહિ, અટકે ક્ષધા પર વિજય પ્રાપ્ત કરે એ તપ કહેવાય છે. ક્ષુધાને જીતવી એ દુ:ખ નથી. પરન્તુ સુખ છે એટલે તપ સુખરૂપ છે, કેમકે તપશ્ચર્યા કરનારાઓને ભૂખની પરવા જ નથી હતી. તેથી શંકાકારનું એ કહેવું બરાબર નથી કે-“તપથી પીડા ઉત્પન્ન થાય છે. આ કથનથી એ વાત સારી રીતે સિદ્ધ થઈ ગઈ કે ક્ષુધા આદિ પરીષહ વેદનીય કર્મના ઉદયથી થાય છે પરંતુ તે પીડા ઉત્પન્ન કરી શકતી નથી. અને જે તેથી પીડા ઉત્પન્ન નથી થતી. તે ચિત્તમાં વિક્ષેપ પણ થઈ નથી શક્તો. ઉલટું ક્ષુધા આદિને જીતવાથી કમરની નિજ રા થાય છે અને આવતાં કર્મોને નિરોધ થવાથી સંવર પણ થાય છે. તેથી ભગવાન મહાવીર શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशचैकालिकसूत्रे यद्यनशनादिकं सर्वत्र दुःखात्मकमेव मन्येत तदा- सिद्धानामपि अशनाद्यग्राहितया - नन्तदुःखसद्भावप्रसङ्गः केन वार्येत । एवं च मोक्षमार्गे प्रवर्तकस्य शास्त्रस्य तदुक्तधर्मानुष्ठानस्य च वैयर्थ्यापत्तिः । ५८ अयं भावः - यथा व्याधितस्य व्याधिपरिजिहीर्ष या स्वयमेव लङ्गनादिप्रवृत्तिः मणिमौक्तिक माणिक्य प्रवाल- हेम- हीरक-रजतादीनां व्यवहर्त्तुः स्वयमेव सिन्धुतरण गहन भयानकवनगमनदुर्ग मपथभ्रमणप्रवृत्तिः पीडालक्षणात्मकपरिणामं न जनयति, अन्यथा हि प्रतिकुलकर्मणि समुत्साहपूर्वक स्वतः प्रवृत्तिर्नोपपद्यते, तथा, मुनयोऽपि वक्ष्यमाणभावनया 1 एक बात और भी है - सिद्ध भगवान् कभी आहार नहीं लेते । यदि अनशनको दुःख मानलिया जाय तो उन्हें भी दुःखी मानना पड़ेगा । जब सिद्ध भी दुःखी होंगे तो मोक्षमार्ग की प्ररूपणा करनेवाले शास्त्र व्यर्थ होजावेंगे, और उन शास्त्रोंके अनुसार की हुई क्रियाएँ भी व्यर्थ हो जायँगी । क्योकि दुःखी बननेके लिए कोई बुद्धिमान तैयार नहीं होगा । मतलब यह है कि - जैसे अपना रोग दूर करनेके लिए रोगीको स्वयं ही लंघनमें प्रवृत्ति होती है । अथवा हीरे मोती, मूंगे, सोने, चांदी आदिकी प्राप्ति के लिए मनुष्य, दुस्तर समुद्र तैरते हैं, अथवा अपनी इच्छासे ही मोती आदिकी प्राप्तिके लिए गहरे समुद्र में गोते लगाते हैं । बड़े बड़े गहन और भयानक जंगलों में गर्मी आदि अनेक कष्ट उठाते हैं, दुर्गम मार्ग में लाभकेलिए घूमते फिरते हैं, फिर भी अपने मनमें उसे दुःख नहीं मानते न पीड़ाका अनुभव करते हैं, यदि लंघन करनेमें और गोते लगाने आदिमें कष्ट मालूम होता तो विना किसीके दबावके अपनी इच्छासे ही उत्साहपूर्वक क्यों प्रवृत्ति करते ? इसी प्रकार मुनिराज भी अपनी आत्माकी विशुद्धिके लिए अपने आपही प्रमुदित સ્વામીએ ક્ષુધા આદિ પરીષદ્ધ અને તપને જુદાં-જુદાં કહેલાં છે. એક બીજી વાત એમ છે કે-સિદ્ધ ભગવાન કાપિ આહાર લેતા નથી. જો અનશનને દુઃખ માની લેવામાં આવે તે તેમને પણ દુઃખી જ માનવા પડે. જો સિદ્ધ પણ દુઃખી હાય તે મેાક્ષમાની પ્રરૂપણા કરનારૂ શાસ્ર બ્ય બની જાય, અને એ શાસ્ત્રાને અનુસરીને કવામાં આવતી ક્રિયાએ પણ વ્યથ થાય, કારણ કે દુ:ખી થવાને કાઈ બુદ્ધિમાન તૈયાર નહિ થાય. મતલખ એ છે કે-જેમ પેાતાના રાગ દૂર કરવાને માટે રાગી પાતાની મેળે જ सांधा अश्वामां प्रवृत्त थाय छे; अथवा हीरा, भोती, भागुड़, सोनु यांही माहिनी आप्ति માટે મનુષ્ય દુસ્તર સમુદ્રને તરે છે; અથવા પેાતાની ઇચ્છાથી જ મેાતી આદિની પ્રાપ્તિ માટે ઊંડા સમુદ્રમાં ડુબકી મારે છે, મોટાં મોટાં ઘીચ અને ભયાનક જંગલામાં ટાઢ તાપનાં અનેક કષ્ટો ઉઠાવે છે, દુ`મ રસ્તાઓમાં લાભને માટે ભટકતા ક્રે છે. તેપણુ પેાતાનાં મનમાં તેને દુઃખ માનતા નથી કે પીડાને અનુભવ કરતે નથી, જો લઘન કરવામાં અને ડુબકી મારવા આદિમાં કષ્ટના અનુભવ થતા હાત તે કેાઈએ દબાવ્યા કે આગ્રહ કર્યા વિના પેાતાની જ ઈચ્છાથી મનુષ્ય ઉત્સાહ પૂર્વક કેમ પ્રવૃત્તિ કરત ? એજ રીતે મુનિરાજ પણ પેાતાના આત્માની વિશુદ્ધિને માટે પેાતાની મેળે જ પ્રમુદિત ભાવથી અનશન આદિ તપશ્ચર્યા કરે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०१ तपसः मेदनिरूपणम् तपसि पीडां नानुभवन्ति, तथाहि इह संसारे (१) स्वकृतदुष्कृतसन्त विवशान्नरकेषु नारका कियन्तो भिद्यन्ते, क्रियन्तस्तैलयन्त्रे तिलसर्पपादिवन्नष्पीडयन्ते, ताम्रादिभाजनवच्च कियन्तः कुटयन्ते, कियन्तो दारुवदार्यन्ते, किन्त शुलशय्यायां स्वाप्यन्ते कियन्त शिलोपरि वस्त्रवत्ताडयन्ते, अनन्तक्षुत्पिपासादिभिः परिभूयन्ते, इत्येवं विविधदुःखसन्ततिमनुभवन्ति । ५९ (२) अथ तिर्यञ्चोsपि केचित् सक्लेशं शीतोष्णे सहमाना, केचिद् गुरुतरं भारं वहमाना, केचिद्वेत्रादिना ताड्यमाना, केचिन्मांसार्थिभिर्विविधैस्तीक्ष्णाग्रशस्त्रैश्छिद्यमाना, केचिच्च शकुनिबद्धा प्रबलैः क्षुत्पिपासादिभिः परिभूयमाना लक्ष्यन्ते । (३) एवं मनुष्यगर्ति प्राप्ता अपि केचिदन्धत्वं, केचिद्वधिरत्वं केचित् पगुन्वं, भावसे अनशन आदि तपस्या करते हैं । ऐसा करनेमें उन्हें तनिकभी दुःख नहीं होता । (१) संसार में अपने किये हुए कर्मों के कारण कईएक नरकमें जाकर परमाधर्मीद्वारा भाले आदिसे भेदे जाते हैं कईएक घानीमें तिल या सरसोंकी तरह पोले जाते हैं । कईएक तांबे पीतल आदि वर्त्तनोंकी तरह कूटे जाते हैं । कईएक काठकी भांति करवतसे चीरे जाते हैं । कई एक तीक्ष्ण कांटों के बिछौने पर सुलाये जाते हैं । कईएक शिलापर कपड़ोंकी तरह पछाड़े जाते हैं, और अनन्त भूख प्यास आदि नाना प्रकारके असह्य क्लेश पाते हैं । इस प्रकार भाँति-भाँति के दुःखों का वे अनुभव करते हैं । (२) तिर्यञ्च गति में भी कोई २ तिर्यश्च दुःखके साथ गर्मी सर्दी सहते हैं, किसी पर भारी बोझ लादा जाता है, कोई-कोई कोड़ोंकी मार खाते हैं, कोई २ पैने ( तीखे ) शस्त्रों से छेदे जाते हैं, कोई-कोई खूंटी से बंधे हुए भूख-प्यास आदि नाना प्रकारके दुःख भोगते हुए देखे जाते हैं । (३) यदि भाग्योदय से मनुष्यगति मिल जाय तो उसमें भी सैकड़ों दुःख भोगने पड़ते છે. એમ કરવામાં તેને જરા પણ દુઃખ થતું નથી. (૧) જગતમાં પેાતાનાં કરેલાં કર્મોને કારણે કેટલાક જીવા નરકમાં જઈ ને પરમાધી - દ્વારા ભાલાં આદિથી છેદાય-ભેદાય છે. કેટલાંક ઘાણીમાં તલ અથવા સરસવની પેઠે પિલાય છે. કેટલાકે। તાંબા પીતળનાં વાસણેાની જેમ કુટાય-પીટાય છે. કેટલાકેા લાકડાની પેઠે કરવતથી વહેરાય છે. કેટલાકને તીક્ષ્ણ કાંટાનાં બિછાનાં પર સુવાડવામાં આવે છે, કેટલાકને કપડાની પેઠે શિલા પર પછાડવામા આવે છે, અને અનત ભૂખ-તરસ આદિ નાના પ્રકારના અસહ્ય કલેશ પમાડવામાં આવે છે. એ પ્રમાણે તરેહ તરેહનાં દુઃખાના અનુભવ એ જીવા કરે છે. (૨) તિય ચ ગતિમાં પણ કઈ કઈ તિય ચ દુઃખ સાથે ટાઢ-તાપ સહન કરે છે, કેટલાક પર ભારે એો લાદવામાં આવે છે, કાઈ કાઈ ચાબુકના માર ખાય છે, કોઈ કાઈને કાતીલ શાસ્ત્રાથી છેદવામાં આવે છે, કાઈ કોઈ પ્યૂટિએ બધાએલા ભૂખ-તરસ આદિ નાના પ્રકારનાં દુઃખા ભાગવતા જોવામાં આવે છે. (૩) જો ભાગ્યેાદયથી મનુષ્યગતિ મળી જાય તે તેમાં પણ સે’કડા દુઃખે, લાગવવાં પડે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे केचित्कासश्वासादिरोगं, केचिदारिद्र्यं च संप्राप्य, हीना दीनास्तत्तपीडापरिहाराक्षमा विविदुर्दशामापन्ना, स्थविरे कलत्रपुत्रादिभिरप्यनादृता क्षुत्पिपासादिभिर्बाध्यमाना म्रियन्ते । (४) देवा अपि परोत्कर्षनिरीक्षणेयद्वेषादिजनिताऽन्तस्तापस्य प्रतिकर्तुमशक्यतया प्रायो दुःखभाज एव दृश्यन्ते । इत्येवमपारपारावारतरलतरङ्ग भङ्गमालायमान जन्मजरामरणाधिव्याधीष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगादिजनितविविधसन्तापकलापमाकलयन्तः 'कथमेतस्मात्क्लेशकदम्बकादुन्मुक्ता भविष्यामः ? इत्युपायं समन्तात् संमार्गयन्तो मुनयोऽपि जिनेन्द्रप्रतिपादितं मोक्षमार्गहैं । कोई मनुष्य अंधा होजाता है, कोई बहिरा होजाता है, कोई लंगड़ा होजाता है । किसीको श्वास या खाँसीका रोग हो जाता है । कोई दरिद्रताके दुःखोंसे दीन हीन होकर अनेक प्रकारकी दुर्दशाका अनुभव करता है । वृद्धावस्था में पत्नी पुत्र आदि तिरस्कार करते हैं । अन्तमें क्षुधा पिपासा आदिके भी दुःख उठाकर मरणकी शरण में जाना पड़ता है । ६० (४) कभी देवगति पाकर देवता होजाय तो वहाँ भी तरह-तरह के दुःख विद्यमान हैं । किसी देवताकी विभूति अधिक होती है, किसीकी कम होती है, कम विभूतिवाला अधिकविभूतिवाले देवताको देखकर ईर्ष्या-द्वेष करता है, ऐसा करने से मनमें अत्यन्त सन्ताप होता है । उस सन्तापको मिटाने में जब अपनेको असमर्थ पाता है तो दुःखी होता है । इसलिये संसार में कहीं भी सुख नहीं दिखलाई पड़ता है । जिसतरह अपार सागर में चश्चल तरंगे उत्पन्न होती हैं उसी तरह संसारमें जन्म, मरण, बुढ़ापा, मानसिक चिन्तायें, शारीरिक व्याधियाँ, इष्टवस्तुओंका वियोग, अनिष्टका संयोग आदि अनेक प्रकारके नये-नये दुःख उत्पन्न होते रहते हैं । इन विविध प्रकारके दुःखोंको भली भाँति सभ्यग्ज्ञानद्वारा जाननेसे यह जिज्ञासा होती है कि इस दुःखसमूहसे हम कैसे छूटेंगे ? છે. કોઈ માણસ આંધળા થઈ જાય છે, કેાઈ બહેારા બની જાય છે, કોઈ લંગડા થાય છે. કોઈને શ્વાસ યા ખાંસીના રાગ થાય છે. કેઈ દરિદ્રતાનાં દુઃખાથી દીન-હીન થઈને અનેક પ્રકારની દુર્દશાને અનુભવ કરે છે. વૃદ્ધાવસ્થામાં પત્ની પુત્ર આદિ તેના તિરસ્કાર કરે છે. છેવટે ભૂખ–તરસ આદિનાં દુઃખા પણ વેઠીને તેને મરણ શરણ થવુ પડે છે. (૪) ક્દાચ દેવગતિ પામીને દેવતા થઇ જાય તે ત્યાં પણ તરેહ તરેહનાં દુઃખા વિદ્યમાન હૈાય છે. કાઈ દેવતાની વિભૂતિ અધિક હેયિ છે, કોઈની આછી હોય છે. ઓછી વિભૂતિવાળા અધિક વિભૂતિવાળા દેવતાને જાઈને ઇર્ષા-દ્વેષ કરે છે. એમ કરવાથી મનમાં અત્યંત સંતાપ થાય છે. એ સંતાપને શમાવવાને જ્યારે તે પેાતાને અસમર્થ જુએ છે ત્યારે તે દુઃખી થાય છે. તેથી સંસારમાં કયાંય પશુ સુખ જોવામાં આવતું નથી. જેવી રીતે અપાર સાગરમાં ચંચલ તર ંગા ઉત્પન્ન થાય છે, તેવી રીતે સંસારમાં જન્મ, મરણુ, બુઢાપા, માનસિક ચિંતાઓ, શારીરિક વ્યાધિ. ઇષ્ટ વસ્તુઓના વિયાગ અનિષ્ટના સચાગ આદિ અનેક પ્રકારનાં નવાં નવાં દુઃખા ઉત્પન્ન થતાં રહે છે. એ વિવિધ પ્રકારનાં શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ मा ०१ तपसः मेदनिरूपणम् मारुह्य, तत्रापि शुक्लध्याना हित केवलज्ञानसमनन्तरजायमानाऽव्याबाधामन्दानन्दसन्दोहलक्षणमोक्षस्याऽपुनरावृत्तिलक्षणं महिमानं विनिश्चित्य, ईषत्क्षुत्पिपासाऽऽपादितदुःखं मनागपि न गणयन्ति, अत एव तदनशनादिलक्षणं तपः परिणामपरमपदसुखजनकतया· मुनीनामात्मपरिणामविकृतिकारणं न भवितुमीष्टे नापि च तत्कर्मोदयस्वरूपमिति प्राक् प्रतिपादितमिति तपसः सर्वथा मोक्षाङ्गत्वेनोत्कृष्टमङ्गलात्मक धर्मरूपत्वं सिद्धम् । अथोत्कृष्टमङ्गलत्वसम्पादकं धर्मस्य महिमानमावेदयति- 'देवा वि' इत्यादि । इसप्रकार छूटने का उपाय ढूँढ़ते - २ मुनि महात्मा जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित मोक्षके मार्ग पर आरूढ़ हो जाते हैं । फिर क्रमशः शुक्लध्यान द्वारा केवलज्ञान पाकर अन्याबाध अनन्त आत्मिक सुख और पुनरागमनरहित मोक्षको प्राप्त करते हैं । ऐसा अपने मनमें विचार कर तपमें लीन होनेवाले तपस्वी जन क्षुधा पिपासा के थोड़े से दुःखको तनिक भी नहीं गिनते । उनके सामने अनन्त सुखका स्थान मोक्षका ध्येय सदा रहता है और उस ध्येयको प्राप्ति में क्षुधा आदि परीषहोंसे होनेवाला दुःख नहीं के बराबर है । वे उन तुच्छ दुःखों को अपने अन्तःकरण में स्मरण भी नहीं करते । तात्पर्य यह है कि अनशन आदि तप, परमपद मोझके अनन्त अविनाशी सुखका प्रबल कारण होनेसे मुनियों की आत्माके परिणामोंमे विकार उत्पन्न नहीं कर सकता है और न औदयिक भावमें ही है, अर्थात् तप क्षायोपशमिक भावोंमें है । इस विषय का विस्तार से प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। अब यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी कि तप मोक्षका कारण है और उत्कृष्ट मंगलरूप धर्म है । ६१ धर्म उत्कृष्ट मंगल है, किन्तु धर्ममें ऐसी कौनसी विचित्र महिमा है जिससे उसे उत्कृष्ट मंगल कहते हैं ?, इस प्रश्नका समाधान करनेके लिए कहते हैं દુઃખાને સારી પેઠે સમ્યજ્ઞાનદ્વારા જાણવાથી એવી જિજ્ઞાસા થાય છે કે આ દુઃખસમૂહથી આપણે કેવી રીતે છૂટીશું ? એ રીતે છૂટવાના ઉપાય શોધતાં મુનિ મહાત્મા જીનેન્દ્ર ભગવાને પ્રતિપાદિત કરેલા મેાક્ષના માર્ગ પર આરૂઢ થઇ જાય છે. પછી ક્રમશઃ શુકલધ્યાનદ્વારા કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને અવ્યાબાધ અનંત આત્મિકસુખ અને પુનરાગમનરહિત માક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. પોતાના મનમાં એવા વિચાર કરીને તપમાં લીન થનાર તપસ્વીજન ભૂખતરસના થાડા દુ:ખને લગારે ગણુતા નથી. તેમની સામે અનત સુખના સ્થાન મેાક્ષનુ ધ્યેય સદા રહે છે અને એ ધ્યેયની પ્રાપ્તિમાં ક્ષુધા આદિ પરીષહેાથી થનારૂ દુઃખ નહિવત્ અને છે. તે પેાતાના અંતઃકરણમાં એ તુચ્છ દુઃખાનું સ્મરણ પણ કરતા નથી. તાત્પય એ છે કે-અનશન આદિ તપ, પરમપદ મેાક્ષના અનંત અવિનાશી સુખનું પ્રબલ કારણ હોવાથી મુનિએના આત્માના પરિણામેામાં વિકાર ઉત્પન્ન કરી શકતું નથી. અને એ ઔદચિક ભાવમાં પણ નથી અર્થાત્ તપ ક્ષાયેાપમિક-ભાવમાં છે. આ વિષયનુ પ્રતિપાદન પહેલા વિસ્તારથી કરવામાં આવ્યુ છે. હવે એ વાત સારી રીતે સિદ્ધ થઈ ચૂકી કે તપ માક્ષનું કારણુ છે અને ઉત્કૃષ્ટ મગલરૂપ ધમ છે. ધર્મ' ઉત્કૃષ્ટ મંગલ છે, પરંતુ ધર્મમાં એવા કયા વિચિત્ર મહિમા છે કે જેથી તેને ઉત્કૃષ્ટ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे धर्म-अहिंसादित्रयस्वरूपे यस्य प्राणिनः मनः चित्तं सदा-निरन्तरं तिष्ठतीति शेषः, तं-धर्मचित्तं प्राणिनं देवा अपि भवनपत्यादिचतुर्निकाया अपि नमस्यन्ति-नमस्कुर्वन्ति सम्मानयन्तीति यावत्, किं पुनश्चक्रवर्त्यादयो मनुष्या इत्यर्थः । एतादृशोऽयं समुत्कृष्टो धर्मः स्वसमाराधनबद्धपरिकराणां वृन्दारकवृन्दवन्दनीयपदारविन्दतां जनयति, यदि पुनस्त्रिविधकरणयोगेन तदाराधनपरायणो भवेत् तदा शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृति सिद्धिगतिनामधेयं मोक्षपदमपि समासादयेदेव, कैव कथा तदपेक्षया तुच्छतरदेवेन्द्रचकवादिपदप्राप्तिजनितसौख्यस्य सस्यानुगतपलालवदिति । ननु सर्वधर्माणामहिंसामूलकत्वादहिंसायामेव संयमतपसोरपि धर्मयोः समावेशे सति किं पुनस्तयोः पृथनिर्देशः ? इति चेन्न,---- जिस प्राणोके मनमें अहिंसा, संयम और तपरूप धर्मका निरन्तर निवास रहता है, उस धर्मात्मा प्राणीको भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषो और वैमानिक इस प्रकार चारों निकायोंके देवता नमस्कार करते हैं अर्थात् संमान करते हैं । गाथामें आये हुए 'अपि' शब्दसे प्रकट है कि जब देवताभी धर्मात्मा प्राणीका संमान करते हैं तो राजा, महाराजा सम्राट और चक्रवर्ती आदिकी बात ही क्या है ? वे भी उसके चरणोमें गिरते हैं। इस प्रकार इस उत्कृष्ट धर्मकी आराधना करनेवाले प्राणी देवों के द्वारा वन्दनीय हो जाते हैं । यदि कोई तीन करण और तीन योगसे उस धर्मकी आराधना भली-भाँति करे तो वह अवश्यही ऐसी सिद्धिगति (मोक्ष) को प्राप्त करेगा जो परम कल्याणरूप है, अचल है, जिसमें किसी प्रकारका रोगदोष नहीं है, जिसका कभी अन्त नहीं होता, जिसमें पहुँच कर क्षय नहीं होता, और न किसी प्रकारकी बाधा शेष रहती है । अहो ! उस मोक्षका क्या कहना है, जिसके आगे नरेन्द्र, इन्द्र, अहमिन्द्र आदिका सुख इतना तुच्छ है जैसे धान्यके आगे भूसा तुच्छ होता है।। મંગલ કહ્યો છે ? આ પ્રશ્નનું સમાધાન કરવાને કહે છે – જે પ્રાણીના મનમાં અહિંસા, સંયમ અને પરૂપ ધર્મને નિરંતર નિવાસ રહે છે. તે ધર્માત્મા પ્રાણીને ભવનવાસી, વ્યક્તર, જ્યોતિષી અને વૈમાનિક એ ચારે નિકાયના દેવતા नभर४२ ४२ छ अर्थात मनु समान ४२ छे. याम मावेला 'अपि' शहथी स्पष्ट થાય છે કે જ્યારે દેવતા પણ ધર્માત્માં પ્રણનું સંમાન કરે છે તે રાજા, મહારાજા, સમ્રાટ અને ચક્રવતી આદિની તે વાત જ કયાં રહી ? તેઓ પણ તેમના ચરણમાં પડે છે. એ રીતે ઉકષ્ટ ધર્મની આરાધના કરનાર પ્રાણું દેવે વડે વંદનીય બને છે. જો કેઈ ત્રણ કરણ અને ત્રણ ભેગથી એ ધર્મની આરાધના ભલી પેઠે કરે છે તે અવશ્ય એવી સિદ્ધિ ગતિ (મેક્ષ) ને પ્રાપ્ત કરે કે જે પરમકલ્યાણરૂપ છે, અચલ છે, તેમાં કોઈ પ્રકારનો રોગદોષ નથી, જેને કદાપિ અંત આવતો નથી જેમાં પહોંચવાથી ક્ષય થતું નથી અને કોઈ પ્રકારની બાધા-પીડા થતી નથી. અહા ! એ મેક્ષની શી વાત કહીએ, જેની આગળ નરેદ્ર ઈદ્ધ અહમિંદ્ર આદિનુ સુખ એવું તુચ્છ છે કે જેમ ધાન્ય આગળ ફતાં તુરછ છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपसः मेदनिरूपणम् तपो विना संयमो यथावत्स्वरूपनैर्मल्यं न लभते, संयममन्तरेणाऽहिंसाऽपि न परिशुद्धिमेति इत्याशयेनाहिंसां प्रतिपाद्य तन्निर्मलीकरणार्थ संयमस्य प्रतिपादनम्, तस्य च प्रभूतशक्तिसम्पादनाय तपसः समाराधनमावश्यकमित्याशयेन, त्रयाणां पृथनिर्देशः कृतः। किश्च संयमतपसोर्विषयेऽपरोऽपि विशेषो दृश्यपे-संयमात्संवरः, तपस्तु मुख्यतो निर्जरामुद्भावयन् संवरमपि निष्पादयति संयमस्तपश्चैते द्वे-राज्ञ आत्मरक्षकाविवाऽहिंसाव्रतस्य संरक्षके । यद्वा एतद्द्वयस्याहिंसापरिपोषकतया पृथनिर्देशः संगच्छते । अन्यच्च अहिंसा प्राणव्यपरोपणनिवृत्तिप्रधाना, संयमस्तु श्रोत्रादीन्द्रियनिग्रहमधान इति महद्वैलक्षण्यमुपलभ्य पृथनिर्देशः । तपसो वैलक्षण्यं तु न कस्यचित् संश प्रश्न--संयम तप आदि सब धर्मों का मूल अहिंसा है, इसलिए संयम और तपका अहिंसामें ही समावेश हो जाता है तो फिर संयम और तपको अलग अलग क्यों कहा है ? सुनो उत्तर-अलग अलग कहनेका कारण यह है कि तपके विना संयम की जैसी चाहिए वैसी निर्मलता नहीं होती और विना संयमके अहिंसाका प्रतिपादन करके उसे निर्मल बनानेके लिए तपका अलग कथन किया गया है। इससे तीनोंका अलग २ कथन उचित है। संयम और तपके अर्थमें और भी विशेषता है और वह यह है कि संयम से संवर होता है, परंतु तपसे संयम और निर्जरा दोनों होते हैं । अथवा यह समझना चाहिये कि संयम और 'तप' ये दोनों राजाके आत्मरक्षकोंकी तरह अहिंसावतके रक्षक हैं, जबतक संयम और तप न हों तबतक अहिंसाका सम्यक् पालन नहीं हो सकता। एक समाधान और भी है-अहिंसामें प्राणों के व्यपरोपणकी निवृत्ति की प्रधानता है, प्रश्न-संयम त५ आस धर्मानुभूत माहिसा छ, तेथी सयम भने तपन। सभाવેશ અહિંસામાં જ થઈ જાય છે. તે સંયમ અને તપને જુદા-જુદા કેમ કહ્યા છે ? સાંભળે– ઉત્તર–જુદા જુદા કહેવાનું કારણ એ છે કે તપ વિના સંયમની જોઈએ તેવી નિર્મળતા થતી નથી અને સંયમ વિના અહિંસાનું બરાબર પાલન થઈ શકતું નથી. એ કારણથી અહિંસાનું પ્રતિપાદન કરીને તેને નિર્મળ બનવવાને માટે તપનું જુદું કથન કરવામાં मायुं छे. मेथी त्रनु - ४थन यित छ. સંયમ અને તપના અર્થમાં બીજી પણ વિશેષતા છે અને તે એ કે-સંયમથી સંવર થાય છે, પણ તપથી સંયમ અને નિર્જરા બેઉ થાય છે. અથવા એમ સમજવું જોઈએ કે સંયમ અને તપ એ બેઉ રાજાના આત્મરક્ષકેની પિઠે અહિંસાવતના રક્ષક બને છે. જ્યાં સુધી સંયમ અને તપ ન થાય ત્યાં સુધી અહિંસાનું સમ્યફ પાલન થઈ શકતું નથી. એક સમાધાન બીજું પણ છે. અહિંસામાં પ્રાણાના વ્યપરોપણની નિવૃત્તિની પ્રધાનતા છે. અને સંયમમાં શ્રોત્ર આદિ ઈન્દ્રિયેના નિગ્રહની પ્રધાનતા છે. એ રીતે એમાં અનેક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे यगोचरः स्वरूपत एव परस्परं भेदातू. तथाहि-अहिंसा नाम स्वतः परतो वा प्राणव्यपरोपनिवृत्तिकरणं, तपस्तु क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिसहिष्णुत्वरूपमिति । कोटिभवसञ्चितानि कर्कशतमान्यपि कर्माणि तपसाऽऽशुतरं विनश्यन्तीति दुस्तसंसारसागरंशीघ्रमुत्तनुमभिलष्यतामहिसासंयमाऽऽराधनतत्पराणां मुमुक्षणामुग्रतपोऽवश्यमाश्रयणीयमित्याशयेनान्ते तपसः पृथनिर्देशः कृत इति भावः । इति प्रथमगाथार्थः॥१॥ ननु धमः शरीरेण रक्ष्यते, शरीर रक्षणं चाहारेण भवति, स च षड्जीवनिकायोपमदनरूपाऽऽरम्भेण निष्पाद्यते, यत्र चारम्भो न तत्र धर्मःसंभवति, यथोक्तं श्रीस्थानाङ्गसूत्रे "दो ठाणाई अपरियाणित्ता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, और संयममें श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके निग्रहको प्रधानता है । इस प्रकार इनमें कितनी ही प्रका रको बड़ी २ विशेषताएँ देखकर सूत्रकारने पृथक् कथन किया है । तपके स्वरूपमें तो इतना मेद है कि किसीको सन्देह हो ही नहीं सकता। अपने या दूसरेके द्वारा प्राणव्यपरोपणकी निवृत्ति करनेको अहिंसा कहते हैं, और क्षुधा पिपासा शोत उष्ण आदिकों सहन करना तप कहलाता है। प्रश्न- भगवान्ने अहिंसा संयम और तप इन तीनोंमें तपको ही अन्तमें क्यों कहा ? उत्तर--करोड़ों भवों में संचित किये हुए अत्यन्त कठोर कर्म, तपके द्वारा शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । इसलिए दुस्तर संसाररूपी सागरको शीघ्र पार करनेको अभिलाषा रखनेवाले, अहिंसा और संयमकी आराधनामें तत्पर रहनेवाले मोक्षाभिलाषियों को अवश्य ही उग्र तपस्या करनी चाहिये, इस उद्देश्यसे भगवान्ने तपको अन्तमें अलग कहा है ॥१॥ धर्मका रक्षण शरीरसे होता है और शरीरका निर्वाह आहारसे होता है। आहार पृथिवीआदिक षड्जोवनिकायके आरंभके विना नहीं बन सकता, और 'जहां आरम्भ है वहां धर्म नहीं' यह श्री सर्वज्ञ भगवान् ने कहा है, क्यो कि ठाणांग (स्थानाङ्ग) सूत्रके પ્રકારની માટી મોટી વિશેષતાઓ જોઈને સૂત્રકારે પૃથફ કથન કર્યું છે. તપના સ્વરૂપમાં તે એટલે ભેદ છે કે કોઈને સંદેહ થઈ શકે નહિ. પિતાની અથવા બીજાની દ્વારા પ્રાણના વપરપણની નિવૃત્તિ કરવી તેને અહિંસા કહે છે, અને ભૂખ તરસ ટાઢ તાપ આદિને સહેવાં તે તપ કહેવાય છે. પ્રશ્ન–ભગવાને અહિંસા સંયમ અને તપ એ ત્રણેમાં તપને છેલ્લું કેમ કહ્યું ? ઉત્તર–કરોડે ભોમાં સંચિત કરેલાં અત્યંત કઠોર કર્મ તપની દ્વારા શીઘ નષ્ટ થઈ જાય છે. એથી દુસ્તર સંસારરૂપી સાગરને શીધ્ર પાર કરવાની અભિલાષા રાખનારા, અહિંસા અને સંયમની આરાધનામાં તત્પર રહેનારા, મોક્ષાભિલાષીઓએ અવશ્ય ઉગ્ર તપસ્યા કરવી જોઈએ. એ ઉટાથી ભગવાને તપને છેલ્લું જુદું કહ્યું છે. ૧ ધમનું રક્ષણ શરીરથી થાય છે. અને શરીરને નિર્વાહ આહારથી થાય છે. આહાર પૃથિવી આદિ છ જવનિકાયના આરંભ વિના નથી બની શકતો, અને જ્યાં આરંભ છે ત્યાં ધર્મ નથી' એમ સર્વજ્ઞ ભગવાને કહ્યું છે. ઠાણાંગ (સ્થાનાંગ) સૂત્રના બીજા કાણામાં એ વાત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधौ भ्रमरद्रष्टान्तः ६५ तंजा - आरंभे चैव परिग्गहे चेव" इति अस्य हि - " द्वे वस्तुनी अपरिज्ञाय आत्मा न केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं श्रोतुं लभेत, तद् यथा - आरम्भश्च परिग्रहश्च" अर्थादारम्भ-परिग्रहौ ज्ञ परिज्ञया जन्ममरणादिदुःखहेतू विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया तयोस्त्यागमकृत्वा जिनोक्तं धर्म श्रोतुमपि न शक्नोति, पालयितुं शक्नोतीति तु दुरापास्तमित्यर्थः, तस्मादुक्तरीत्या त्यागसम्पन्नस्यापि श्रमणस्य शरीरसंरक्षणावश्यकता वर्तते तदर्थं चाहारो ग्रहीतव्यः, तत्र का वृत्तिः समादर्त्तव्ये ? त्याह - 'जहा दुस्स' इत्यादि १ ३ २ ६ ५ मूलम् - जहा दुमस्स पुष्फेसु भमरो आवियइ रसं ९ ८ १० १२ ११ १४ १३ णय पुष्कं किलामेइ सो अ पीणेइ अप्पयं ॥ २ ॥ 2 छाया - यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमर आपिबति रसम् । न च पुष्पं क्लामयति च प्रीणात्यात्मानम् ॥ २ ॥ सान्वयार्थः – जहा- जैसे, भमरो भौंरा, दुमस्स वृक्ष के पुप्फेसु = फूलोंमें (रहेहुए) दूसरे ठाणेसे यह बात स्पष्ट कही गई है । अर्थात् आरंभ और परिग्रह इन दोनों के यथार्थ स्वरूपकों आत्मा ज्ञपरिज्ञासे सम्यक् प्रकार जानकर कि ये ही दोनों जन्म जरा मरणके दाता चतुर्गतिरूप अनन्त संसारमें परिभ्रमण करानेवाले, छेदन - भेदन - आधि-व्याधि - क्लेशरूप दुःखोंके कारण तथा आत्मा विशुद्ध स्वरूपके घातक हैं, परन्तु जबतक प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा तीन करण और तीन योगसे इनको त्याग न देवे तब तक जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित धर्मको सुनने योग्य भी नहीं होता, पालनेकी तो बात ही कहां है ? तात्पर्य यह है कि आरम्भ और परिग्रहका त्याग किये विना धर्मका पूर्ण पालन नहीं हो सकता । इसलिए धर्मके आराधक मुनियोंको निरवद्य आहारकी विधि कहते हैं - 'जहा दुमरस' इत्यादि । जैसे भ्रमर, भ्रमण करके अनेक वृक्ष लता अदिकोंके पुष्पोंका थोडा २ रस मर्यादासे लेता 'है, अधिक नहीं, यानी ऐसा कि किसीको भी पीडा न देते हुए वह अपनी आत्माको तृप्त करलेता है। સ્પષ્ટ છે. અર્થાત્ આરંભ અને પરિગ્રહ એ બેઉના યથાથ સ્વરૂપને આત્મા, જ્ઞપરિજ્ઞાથી સમ્યક્–પ્રકારે જાણે કે એ બેઉ જન્મ જરા મરણુના દાતા, ચતુતિરૂપ અનંત સંસારમાં પૂરિભ્રમણ કરાવનારા, છેદન-ભેદન-આધિ-વ્યાધિ-ક્લેશરૂપ દુઃખાના કારણે તથા આત્માના વિશુદ્ધ સ્વરૂપના ઘાતક છે. પરંતુ જ્યાં સુધી પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞદ્વારા ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચાગથી તેને ત્યજી ન દેવાય ત્યાં સુધી જિનેન્દ્રભગવાને પ્રરૂપેલા ધમ'ને સાંભળવા ચાગ્ય પણ થવાતું નથી, પછી પાળવાની તેા વાત જ કયાં ? તાત્પર્ય એ છે કે આરંભ અને પરિગ્રહના ત્યાગ કર્યા વિના ધર્મનુ પૂર્ણ પાલન થઈ શકતુ નથી તેથી ધર્માંના આરાધક મુનિઓને निश्वद्य महारनी विधि हे छे - "जहा दुमस्स" ४त्याहि. જેમ ભ્રમર ભ્રમણુ કરીને અનેક વૃક્ષ લતા આદિનાં પુષ્પાના થાડા થાડા રસ માર્યાદા પૂર્ણાંક લે છે, વધુ લેવાતાના આત્માને તૃપ્ત કરી લે છે. લેતા નથી, અને એવી રીતે લે છે કે કોઈ પણ પુષ્પને જરાએ પીડા થાય નહિ, એમ ९ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे रसं-रतको आवियइ-मर्यादानुसार पीता है, य=और पुष्पं फूलको 'ण कीलामेइ पीडित नही करता है, अ-तोभी सो-वह भौरा अप्पयं=अपनेको पीणेइ-सन्तुष्ट कर लेता है। अर्थात-जैसे भौरा अनेक वृक्षों के फूलोंसे थोड़ा थोड़ा रस उचित मात्रामें लेता है, ऐसा करने से वह सन्तुष्ट भी हो जाता है और फूलों को भी कष्ट नहीं देता ॥२॥ टीका--यथा भ्रमरः-भ्राम्यति-एकत्र नावतिष्ठत इति भ्रमरः-चतुरिन्द्रियजातिमान् भृङ्गपर्यायवच्यः प्राणिविशेषः । द्रुमस्य, जात्येकत्वादेकवचनम्, 'सौं गच्छति इत्यादिवत् , तेन द्रमाणामित्यर्थः, द्रुमपदेन योगमर्यादया लतादीनामपि ग्रहणं बोद्धव्यम्, पुष्पेषु स्थितमित्यस्याध्याहारः, रसं-मकरन्दम् आपिबति-आ-मर्यादा-पूर्वकम् उचितादधिकं परित्यज्य पिबति-पानविषयं करोति, अल्पं गृह्णातीति भावः । चकारी हेत्वर्थे, तेन-च-अत एव पुप्पं न क्लामयति-न पीडयति-लेशतोऽपि न म्लानयतीति यावत् , च-किश्च सः-भ्रमरः आत्मानं-स्वं प्रीणाति तोषयतीत्यर्थः । पुष्पाणि तु द्रुमलतादीनामेव भवन्ति पुनर्बुमपदोपादानम्-यथा भ्रमरः सर्वेषामेव दमलतादीनां पुष्पेषु रसमापिबति न चोच्चनीचादिभेदभावं रक्षति 'वृक्षोऽयमल्पपुष्पफलोऽयं च बहपुष्पफलसमृद्धः' इति, तथा साधुरप्युच्चनीचादिभेदभावं विहाय सर्वत्र समानभायो गृहस्थकुलानां सकाशाद् यथोचितां भिक्षामाददीतेति सूचनार्थम् । यद्वा 'दमस्स' इत्यत्र सम्बन्धसामान्यषष्ठया मसम्बन्धिष्विति, अर्थादयं दृष्टान्तो द्रमसंसक्तपुष्परसग्राहिणो भ्रमरस्य बोद्धव्यो नेतरस्य, ततश्च यथा भ्रमरो द्रुमसम्बद्धेषु स्थितं प्रश्न-वृक्ष और लताओंमें ही फूल होते हैं फिर द्रुम (वृक्ष) शब्द देनेका क्या अभिप्राय है ? उत्तर-जैसे भौरा सभी वृक्षों और लताओं के फूलों का रस पीता है, ऊंच-नीच भेद-भाव नहीं रखता कि-इस वृक्षमें कम फूल हैं और इसमें अधिक, इसी प्रकार साधुभी द्रव्य-भावसे ऊंचनीच भेद-भाव न रखकर समानदृष्टि से गृहस्थियोंके कुलोंमें भिक्षा-वृत्ति के लिए भ्रमण करते हैं । इस आशयको प्रगट करनेके लिए गाथामें 'द्रुम' शब्द दिया गया है। अथवा यो समझिये कि गाथामें 'द्रुम' शब्दके साथ षष्टीविभक्तिका प्रयोग किया गया है, षष्टी विभक्तिका अर्थ है 'सम्बन्ध' । प्रश्न-वृक्ष भने त ५२ ० स थाय छे, तो जी द्रुम (वृक्ष) श६ वान। त छे. ઉત્તર–જેમ ભમરો બધાં વૃક્ષો અને લતાઓનાં ફૂલેને રસ પીએ છે, ઉંચ-નીચને ભેદભાવ રાખતું નથી કે-આ વૃક્ષ પર ઓછાં ફૂલે છે અને આના પર વધારે છે, એ પ્રમાણે સાધુપણ દ્રવ્ય-ભાવથી ઉંચ-નીચનો ભેદભાવ ન રાખીને સમાન દૃષ્ટિથી ગૃહસ્થનાં કુળમાં ભિક્ષા. वृत्तिन भाटे श्रम ४२ छ. से माशयने ५८ ४२११ माट आयामां दम (वृक्ष) शण्ढ़ मापेसो छ. ' અથવા એમ સમજવું કે ગાથામાં દમ શબ્દની સાથે છઠ્ઠી વિભક્તિને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યો છે. છઠ્ઠી વિભક્તિને અર્થ સંબંધ થાય છે. એથી આ દૃષ્ટાંત કમમાં લાગેલાં શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. २ गोचरिविधौ भ्रमरद्रष्टान्तः रसमापिबति तथा साधुरपि गृहस्थसम्बन्धिनमेव, अर्थात् तत्स्वत्वयुक्तमेवाऽऽहारं गृह्णीयान्न तु स्वामिविरहितमित्यर्थः। __'पुप्फेसु' इति प्रसनकुसुमादिपर्यायान्तरं परिहाय पुष्पपदोपादाने विकसितार्थोऽभिप्रे तस्ततश्च यथा भ्रमरो विकसितेष्वेव पुष्पेषु स्थितं रसं गृह्णाति तथा साधुरपि दातृत्वभावप्रसन्नेभ्यो निजुगुप्सेभ्यश्च कुलेभ्य आहारं गृह्णीयादित्यर्थः।। 'भमरो' इत्यनेन इतस्ततो भ्रमणेन किञ्चित्किञ्चिदाहारग्रहणं सूचितम् । मर्यादार्थकेनोपसर्गेणाऽऽङा ' यावानाहारोऽपेक्षितस्तावानेव ग्रहीतव्यः' इति सूचितम् ।' इसलिए यह दृष्टान्त द्रुममें लगे हुए पुष्पके रसको ग्रहण करनेवाले भौ रेका ही समझना चाहिए, दूसरे भौंरेका नहीं । इससे यह अर्थ निकलता है कि जैसे भ्रमर, द्रुम (वृक्ष) सम्बन्धी पुष्परसको ही ग्रहण करता है, अन्य रसको नहीं, इसीभाँति साधुभी गृहस्थसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थात् जिसपर गृहस्थका अधिकार है उसी आहारको ग्रहण करते हैं, जिस आहारका कोई गृहस्थ स्वामी नहीं होता उसे नहीं ग्रहण करते । 'पुष्प' शब्दके प्रसून कुसुम आदि अनेक पर्याय शब्द होनेपर भी गाथामें प्रसून या कुसुम आदि अन्य शब्द न देकर 'पुष्प' शब्द ही दिया है, इससे सूत्रकारका आशय खिलेहुए फूलोंसे है ऐसा स्पष्ट होता है, क्योंकि खिले हुए फूलका ही नाम पुष्प है इसलिए भ्रमर, जैसे खिले हुए फूलों पर ही ठहरता है और उन्हीका रसपान करता है उसी प्रकार साधुभी उन्हीं गृहस्थोंसे आहार लेते हैं जिनका साधुओंको आहार देनेका भाव हो, तथा जो कुल दुगुंछित न हो। भ्रमरके भी षट्पद द्विरेफ आदि अनेक नाम हैं, उनमेंसे दूसरा कोई शब्द न देकर 'भ्रमर' पद दिया है, 'भ्रमर' शब्दका अर्थ है भ्रमण करनेवाला-एक स्थानपर न ठहरने वाला; इस शब्द પુના રસને ગ્રહણ કરનારા ભમરાનું જ સમજવું જોઈએ. બીજા ભમરાઓનું નહિ. मेटी में अर्थ थाय छ म श्रमर, द्रुम (वृक्ष) समधी ५०५२सने ४ अड। अरे . બીજા રસને નહિ, તેમ સાધુ પણ ગૃહસ્થથી સંબંધ રાખનારા અર્થાત જેની ઉપર ગૃહસ્થને અધિકાર હોય તે આહારનેજ ગ્રહણ કરે છે, જે આહારને કઈ ગૃહસ્થ સ્વામી નથી તેને તેને સાધુ ગ્રહણ કરતા નથી. પુષ્પ શબ્દના પ્રસૂન કુસુમ આદિ અનેક પર્યાય શબ્દો હોવા છતાં ગાથામાં પ્રસન કે કસમ આદિ અન્ય શબ્દ ન આપતાં પુપ શબ્દ જ આપ્યા છે. એમાં સૂત્રકારનો આશય ખીલેલાં ફલેને છે એમ સ્પષ્ટ થાય છે, કારણ કે ખીલેલા ફૂલનું જ નામ પુષ્પ છે. એથી ભ્રમર, જેમ ખીલેલા ફૂલ પર જ બેસે છે અને તેનું રસપાન કરે છે, તેમ સાધુ પણ એવા ગૃહસ્થો પાસેથી આહાર લે છે કે જેમને ભાવ સાધુઓને આહાર આપવાનો હોય અને જે કુળ દુગંછિત ન હોય. ભ્રમરનાં પણ ષટ્પદ દ્વિરેક આદિ અનેક નામે છે, તેમાંથી બીજે કોઈ શબ્દ ન આપતાં “ભ્રમર' શબ્દ આપ્યો છે, ભ્રમર શબ્દનો અર્થ થાય છે ભ્રમણ કરનાર-એક સ્થાન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे 'पुष्फ' इत्येकवचनेन 'यथा भ्रमर एकमपि पुष्पं न क्लामयति तथा साधुरपि कश्चिदेकमपि दातारं न विषादयेदिति सूचितम् । यथा जलधरो न कश्चिदुद्दिश्य जलं मुञ्चति, यथा वा शाखिनः स्वीयनामगोत्रकर्मोंदयेन पुष्प-फलानि स्वभावत एव समुत्पादयन्ति तथा गृहस्था अपि स्वक्षुधावेदनीयोदयेन यथासमयं दिवसे निशायां वा रन्धयन्ति, यथा च यत्र भ्रमरा न गन्तुं शक्नुवन्ति तत्रापि द्रुमाः पुष्प्यन्त्येव तथा साधूनां तपोऽवस्थायां रात्रौ साधुसंस्थितिरहितेषु ग्रामनगरनिगमाषुि च गृहस्थाः पाकं सम्पादयन्त्येवेति नास्ति गृहस्थसम्पादितपाकस्य साधुभिक्षाहेतुत्वम् । को देनेका आशय यह है कि साधुको इधर-उधर भ्रमण करके थोड़ा२ आहार लेना चाहिए, जिससे गृहस्थ फिर आरम्भ न करें। मर्यादा अर्थवाले 'आ' उपसर्गको देनेका तात्पर्य यह हैं कि जितने आहारकी आवश्यकता हो उतनाही लेवे, अधिक नहीं। गाथाके उत्तरार्द्ध में 'पुप्फं' इस एकवचनसे ऐसा सूचित होता है कि जैसे भौंरा एकभी पुष्पको पीड़ा नहीं पहुंचाता है वैसे ही साधु किसी एकभी दाताको कष्ट न पहुंचावें । जैसे मेघ, किसीको उद्देश्य करके पानी नहीं बरसाता अथवा जैसे वृक्ष, अपने नाम गोत्र कर्मके उदयसे ही विना किसीको उद्देश्य करके स्वभावसे ही फल-फूल उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार गृहस्थ अपने क्षुधावेदनीय कर्मके उदयसे जब आवश्यकता होती है भोजन बनाते हैं । अथवा जैसे जहाँ भी रे नहीं जा सकते वहाँ परभी वृक्ष फूलते ही हैं, वैसे ही साधु जब तपस्या करते हैं, या जहाँ साधु नहीं होते उस ग्राम नगर आदिमें भी दिन या रात्रिमें गृहस्थ भोजन बनाते ही हैं, इसलिए 'गृहस्थ जो भोजन बनाते हैं वह साधुओंके निमित्त होता है' ऐसा नहीं समझना चाहिए । પર બેસી ન રહેનાર; એ શબ્દ આપવાનો આશય એ છે કે સાધુએ અહીં-તહીં ભ્રમણ કરીને થોડો થોડો આહાર લેવું જોઈએ, જેથી ગૃહસ્થ ફરી આરંભ ન કરે, મર્યાદા અર્થ વાળ ઉપસર્ગ આપવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જેટલા આહારની આવશ્યકતા હોય એટલે सेवा. पधारे ना. गयाना उत्तरार्थमा 'पुप्फं' से मेवयनथी मेम सूथित थाय छ म समस પણ પુષ્પને પીડા ઉપજાવતા નથી. તેમજ સાધુએ કેઈપણ દાતાને કષ્ટ ન ઉપજાવવું. - જેમ મેઘ, કેઈને ઉદ્દેશ્ય કરીને પાણી વરસાવતા નથી. અથવા જેમ વૃક્ષ, પિતાને નામ-શેત્ર કર્મના ઉદયથી જ કોઈને ઉદ્દેશ્ય કર્યા વિના સ્વભાવથી જ ફલ-ફૂલ ઉત્પન કરે છે, તેમ ગૃહસ્થ પિતાના ક્ષુધા-વેદનીય કર્મના ઉદયથી જ્યારે આવશ્યક્તા લાગે છે ત્યારે ભાજન બનાવે છે. અથવા જેમ જ્યાં ભમરા ન જઈ શકે તે સ્થળે પણ વૃક્ષ ફલે છે, તેમ જ સાધુ જ્યારે તપસ્યા કરે છે ત્યારે, અને જ્યાં સાધુ નથી હોતા તે ગ્રામ નગર આદિમાં પણ દિવસે યા રાત્રિએ ગૃહસ્થ નાનાપ્રકારના ભેજન તે બનાવે જ છે; એથી ગૃહસ્થ” જે ભાજન બનાવે છે તે સાધુઓને નિમિત્ત હોય છે એમ ન સમજવું જોઈએ. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. २ गोचरिविधौ भ्रमरद्रष्टान्तः ननु विषमोऽयं भ्रमरदृष्टान्तः, तथाहि-भ्रमरो द्रुमाज्ञामन्तरेणैव पुष्परसमादत्त भिक्षुः पुनर्याचित्वैव, किश्च तदर्थ कदाचिदेकस्मिन्नपि दिने मुहुर्मुहुरेकं द्रुममुपैति तल्कि साधवोऽपि तथैव गृहस्थेभ्यो भिक्षां गृह्णीयुः ? किञ्च भ्रमरोऽसजी, साधवस्तु सजिनो जिनवचननिपुणाश्व, भ्रमरोऽव्रती साधवस्तु व्रतिनः, भ्रमरोऽप्रत्याख्यानी साधवस्तु प्रत्याख्यानिनः, भ्रमरोऽसंयतः साधवस्तु संयताः इत्यादिविरुद्धधर्मशालित्वादिति चेन्न, सर्वत्र दृष्टान्तस्यैकदेशिरूपत्वात, अनेकपुष्पतः पुष्पाऽक्लान्तिपूर्वककिश्चित्किञ्चिदुपादानमात्रे दृष्टान्ततात्पर्यमिति निष्कर्षः, स्फुटीकरिष्यति चैतत्सूत्रकारः स्वयम्-'महुगारसमा' इति पञ्चमगाथया ॥२॥ एतदेव विशेषणस्फोरयितुं दार्टान्तिकमाह-'एमेए' इत्यादि मूलम्-एमए समणा मुत्ता जे लोए संति साहुणो। १० ८ ११ १२ विहंगमा व पुप्फेसु दाणभत्तेसणे रया ॥३॥ प्रश्न--भ्रमरका उदाहरण विषम है, कारण यह कि उसका साधुओंके साथ ठीक मिलान नहीं होता । क्योंकि, भ्रमर वृक्षको आज्ञा प्राप्त किए विना हो पुष्परस पीता है, साधु याचना करके ही भिक्षा लेते हैं, भ्रमर एक दिनमें एकही वृक्षके पास बारम्बार जाता है और पुष्परसको पीता है साधु एक दिन बारम्बार एक गृहस्थके घरसे भिक्षा नहीं ले सकते, भ्रमर असञी होता है, साधु सञी होते हैं, भ्रमर अप्रत्याख्यानी होता है, साधु प्रत्याख्यानी होते हैं, भ्रमर असंयत होता है, साधु संयत होते हैं इत्यादि अनेक भिन्नताएँ पायी जाती हैं। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्टान्त सब जगहोंमें एकदेशीय ही होता है, 'पीड़ा न पहुंचाते हुए अनेक पुष्पोंसे थोड़ा थोड़ा लेना' इतने अंशोमें यह दृष्टान्त समझना चाहिए इस विषयका स्पष्टीकरण सूत्रकार स्वयं 'महुगारसमा' इस पांचवीं गाथामें करेंगे ॥२॥ પ્રશ્ન-ભ્રમરનું ઉદાહરણ વિષમ છે, કારણ કે તે સાધુઓની સાથે બરાબર બંધ બેસતું નથી. ભ્રમર વૃક્ષની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કર્યા વિના જ પુષ્પનો રસ પીએ છે. સાધુ યાચના કરીને જ ભિક્ષા લે છે. ભ્રમર એક દિવસમાં એક જ વૃક્ષની પાસે વારંવાર જાય છે અને પુષ્પરસને પાએ છે, સાધુ એક દિવસમાં વારંવાર એક ગૃહસ્થના ઘેરથી ભિક્ષા નથી લઈ શકતા. ભ્રમર અસંશી હોય છે; સાધુ સંસી હોય છે, ભ્રમર અવતી હોય છે; સાધુ વતી હોય છે; ભ્રમર અપ્રત્યાખ્યાની હોય છે, સાધુ પ્રત્યાખ્યાની હોય છે. ભ્રમર અસંયત હોય છે, સાધુ સંયત હોય છે. ઈત્યાદિ અનેક ભિન્નતાઓ રહેલી છે. ઉત્તર–એ શંકા બરાબર નથી, કારણકે દષ્ટાન્ત બધી જગ્યાએ એકદેશીય જ હોય છે. પીડા ઉપજાવ્યા વિના અનેક પુષ્પોમાંથી થોડો થોડો રસ લેવ” એટલા અંશમાં જ આ દષ્ટાન્ત સમજવું જોઈએ. આ વિષયનું સ્પષ્ટીકરણ સૂત્રકાર પોતે જ મgricરમા એ पांयमी गाथामा ४२. (२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूने छाया-एवमेते श्रमणा मुक्ता, ये लोके सन्ति साधवः । विहङ्गमा इव पुष्पेषु, दानभक्तैषणे रताः ॥३॥ सान्वयार्थ–एमेए-इसीप्रकार ये लोए-लोकमें 'जे' जो मुत्ता-द्रव्यभावपरिग्रहरहित समणा-तपस्वी साहुणो साधु संति है, (वे) पुप्फेसु-फूलोमें विहंगमा व-पक्षियों-भमरोंकी तरह दाणभत्तेसणे-दाता द्वारा दियेजाने वाले आहारकी गवेषणामें रया लीन रहते हैं। अर्थात-जेसे पूर्वोक्त प्रकारसे भौरा पुष्परसका पान करता है उसी प्रकार साधु गृहस्थियों को असुविधा न पहुंचाते हुए अनेक घरों से थोडा-थोड़ा आहार ग्रहण करते हैं ॥३॥ टीका-एवम्-उक्तप्रकारेण ये लोके समयक्षेत्रे सन्ति-वर्तन्ते एते ते सर्वे श्रमणाः श्रमणाः, शमनाः समनसः, समणाः इत्येतेषाां प्राकृते 'समणा' इति रूपं भवति,तत्र श्राम्यन्ति-तपस्यन्त्याहारादिनिरासेन शरीरं क्लेशयन्तीति, भवभ्रमणहेतुभूतविषयेषु खिद्यन्तीति, यद्वा अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् श्राम्यन्ति-दमनेन श्रमयन्तीन्द्रियनोइन्द्रियाणीति श्रमणाः, शमयन्ति-शान्ति नयन्ति कषायनोकपायरूपाऽनलमिति, शाम्यन्ति-विशङ्कटभवाटवीपर्यटद्भोगानलोज्ज्वलज्वालामालाजनितसन्तापकलापतो निवृत्ता भवन्तीति वा शमनाः। समानानि-स्वपरेषु तुल्यानि मनांसि येषामिति, कुशलमयैर्मनोभिः सह वर्तन्त इति वा समनसः, सम्-सम्यक् अणन्ति-प्रवचनं ब्रुवत इति, सम्यक अण्यन्ते कषायचतुष्टयं जित्वा अब विशेष खुलासा करनेके लिए दार्टान्तिक कहते हैं इस प्रकार अढ़ाई द्वीपमें जितने श्रमण, मुक्त, साधु हैं वे सब दाता द्वारा दिये जाते हुए आहारकी एषणामें इस प्रकार प्रयत्न करें जैसे भ्रमर पुष्पोंके रसके अन्वेषणमें लीन होता है। श्रमण, शमन, समनस्, समण, इन सब शब्दोंका प्राकृत भाषामें 'समण' रूप होता है । इनमें 'श्रमण' का अर्थ यह है कि जो अनशन आदि तप करते हैं-परीषह सहते है, संसारमें परिभ्रमण करानेवाले इन्द्रियोंके विषयोंसे उदास रहते हैं, अथवा जो पाँच इन्द्रियों का तथा मनका दमन करते हैं। 'समन' का अर्थ यह होता है कि कषाय क्रोध मान माया और लोभ तथा नोकपाय--हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद-रूपो अग्निको शान्त करदेते हैं હવે વિશેષ ખુલાસે કરવાને કાષ્ઠતિક કહે છે – આ પ્રમાણે અઢી દ્વીપમાં જેટલા શ્રમણ મુક્ત, સાધુઓ છે તેઓ બધા દાતા દ્વારા આપવામાં આવતા આહારની એષણામાં એવા પ્રયતન કરે કે જેમ ભ્રમર પુના રસના શોધનમાં લીન થાય છે. શ્રમણ, શમન, સમનસુ, સમણ, એ બધા શબ્દોને પ્રાકૃત ભાષામાં સમણું રૂપ અર્થ થાય छ. 'श्रम' नाम मेवा छे ३-२ मनशन माहित५ ४२ छ.-परीष सह छ, संसाરમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા ઈન્દ્રિયેના વિષયેથી ઉદાસ રહે છે, અથવા જે પાંચ ઈન્દ્રને તથા મનનું દમન કરે છે, “શમન'ને અર્થ એ થાય છે, કે–કષાય-કોધ માન માયા અને લેભ, તથા નેકષાય-હાસ્ય રતિ અરતિ શેક ભય જુગુપ્સા સીવેદ પુરૂષદ અને નપુંસ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ३ गोचरीविधौ भ्रमरद्रष्टान्तः ७१ जीवन्तीति वा समणाः । मुक्ताः परिग्रहबन्धनरहिताः धर्मोंपकरणं विहाय सूचीकुशाग्रमाप्रेणापि परिग्रहेण रिक्ता इति यावत् , तत्र परिग्रहो बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्विविधः, तयोराधो धनधान्यादिरूपो नवविधः। द्वितीयस्तु "मिच्छत्तं वेयतिगं, हासाइयछक्कगं च नायव्वं । कोहाईण चउक्कं, चउदस अभितरा गंठी ॥" इत्युक्तरूपः। साधवः साध्नुवन्ति-निष्पादयन्ति स्वपरशिवसुखं ये ते, पुष्पेषु व्याख्यातपूर्वेषु विहगमा इव, विहायसा-गगनेन गच्छन्तीति तथोक्ताः, प्रकरणादत्र भ्रमरा इत्यर्थः त इय, भ्रमरतुल्या इति यावत् । विशाल भवाटवीमें पयटन करते हुए भोगरूपी अग्निको धधकती हुई ज्वालाओं से उत्पन्न हुए संताप के समूहको शुद्ध भावनासे शान्त करदेते हैं । 'समनस् शब्द का यह अर्थ है कि जिनका मन स्व और पर में समान है, अथवा जिनके मनोयोग सदा शुद्ध रहते हैं । 'समण' शब्दका अर्थ यह है कि-जो सम्यक् प्रकारसे प्रवचनका प्रतिपादन करते हैं अथवा चारों कषायों को जोत लेते हैं। परिग्रहके बन्धनसे रहित अर्थात् धर्मके उपकरणों के सिवाय सुई या कुशकी नोकके बराबर भी परिग्रह न रखनेवालों को मुक्त कहते है । परिग्रहके दो भेद हैं-(१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । पहला बाह्य परिग्रह धन धान्य द्विपद चौपद आदि नौ प्रकारका है । दूसरा आभ्यन्तर परिग्रह- (१) मिथ्यात्व, (२) स्त्रीवेद, (३) पुरुषवेद, (४) नपुंसकवेद, (५) हास्य, (६) रति, (७) अरति, (८) शोक, (९) भय, (१०) जुगुप्सा, (११) क्रोध, (१२) मान, (१३) माया और (१४) लोभके भेदसे चौदह प्रकारका है। स्व और परके मोक्ष सम्बन्धी सुखको साधनेवाले साधु कहलाते हैं । ऐसे साधु, दि जानेवाले अशन आदिकी एषणामें प्रवृत्त होवें-आहार-पानी की विशुद्धिमें लीन रहे। વેદ રૂપી અગ્નિને શાન્ત કરી નાખે છે. ભયંકર વિશાળ ભવાટવીમાં પર્યટન કરતાં ભેગરૂપી અગ્નિની ભભકતી જ્વાલાઓમાંથી ઉત્પન્ન થતાં સંતાપના સમૂહને શુદ્ધ ભાવનાથી શાન્ત કરી નાંખે છે. “સમનસૂ શબ્દને અર્થ એ છે કે-જેનું મન સ્વ અને પરમાં સમાન હોય, અથવા જેનાં મને હમેશ શુદ્ધ રહે. “સમણુ” શબ્દનો અર્થ એ થાય છે કે-જે સમ્યક પ્રકારે પ્રવચનનું પ્રતિપાદન કરે છે અથવા ચારે કષાયોને જીતી લે છે. પરિગ્રહના બંધનથી રહિત અર્થાત્ ધર્મનાં ઉપકરણે શિવાય એક સોય કે તણખલા જેટલો પણ પરિગ્રહ ન રાચનારાઓને મુક્ત કહે છે. पश्यिना मे लेह छ. (१) मा भने (२) मान्यत२. ५ मा परि धनपान्या न4 प्रारना छे. मात्र यत२ ५२५3-(१) मिथ्यात्व, (२)ीव, (3) ४३५वह. (४) नपुंसवे, (५) २५, (६) २ति, (७) अति, (८) ४ (6) भय, (१०) शुसा (११)ोध, (१२) भान, (13) माया, अने (१४) न, ये नाहीये ४श १४ रन छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. श्रीशदवैकालिकसने एवं दृष्टान्तदान्तिकयोमिथः सादृश्यं प्रदर्य सम्प्रति यः कश्चिद् भेदस्तमाह यद्वा विहङ्गमाः पुष्पेषु तथा साधवः कुत्र रताः ? इत्याह-दानभक्तैषणे रताः इति, दीयत इति, अदायीति वा दानं दीयमानमथवा दत्तं, तच्च तद्भक्तम्-अनादिकं च दानभक्तं तस्य एषणम् अन्वेषणं तस्मिन्, अथवा दान-दत्तं, भक्तं प्रासु कम् एषणा अन्वेषणम् एतेषां समाहारद्वन्द्वे दानभक्तैषणं तस्मिन् रताः आसक्ता इत्यर्थः। बोटिक-शाक्य तापस-गैरिका-ऽऽजीवा अपि लोके श्रमणपदेनोच्यन्ते तेषां निरासार्थमुक्तं मुक्ता, इति । निहवादिष्वपि व्यवहारतो मुक्तत्वमस्त्यतस्तद्वयावृत्त्यर्थमाह-'साहुणो' इति । मधुकरा अदत्ताऽऽदानवृत्या कुसुमरसं पिबन्ति श्रमणास्तु दातृभिरदत्तस्यान्नादेजिघृक्षामपि न कुर्वते ग्रहणस्य तु कथैव केति भ्रमरापेक्षया साधूनां व्यतिरेकं दर्शयितुमाह 'दाण' इति । 'भत्त' पदेन सचित्त मपि व्यवच्छिद्यते । आधाकर्मादिदोषव्यावृत्तये 'एसणा' पदमुपानम् । यहाँ तक दृष्टान्त और दार्टान्तिककी परस्परमें समानता बतलाई है । अब उनमें जो अन्तर है उसेभी बतलाते हैं । वह अन्तर यह है कि जैसे भ्रमर पुष्पों में अनुरक्त होता है वैसे साधु गृहस्थद्वारा दिये जानेवाले अशन पान आदिके अन्वेषणमें प्रवृत्त होवें । बोटिक, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीविक आदिभी लोकमें श्रमण कहलाते हैं उनका निराकरण करनेके लिए गाथामें 'मुत्ता' (मुक्ताः) कहा है। निह्नव आदिभी व्यवहारसे मुक्त कहलाते हैं अतः उनका निराकरण करने के लिए 'साहुणो' (साधवः) पद दिया है । भ्रमर विना दिए पुष्पके रसका पान करते हैं किन्तु श्रगण विना दिये हुएको ग्रहण करनेकी इच्छाभी नहीं करते, ग्रहण करनेको तो बात ही दूर है इस भेदको प्रगट करने के लिए 'दान' शब्द, सचित्त आहारका निराकरण करने के लिए 'भत्त' शब्द और आधाकर्मी आदि दोषवाले आहारका व्यवच्छेद करने के लिए 'एषणा' शब्द गाथामें दिया गया है। સ્વ અને પરના મોક્ષ સંબંધી સુખને સાધનારા સાધુ કહેવાય છે. એવા સાધુ, આપવામાં આવતા અશન આદિની એષણામાં પ્રવૃત્ત થાય છે, આહાર પાણુની વિશુદ્ધિમાં લીન રહે. અહીં સુધી દુષ્ટાન્ન અને દાબ્દન્તિકની પરસ્પર સમાનતા બતાવી છે. હવે તેમાં જે અંતર રહેલું છે તે બતાવે છે. તે અંતર એ છે કે-જેમ ભ્રમર પુષ્પમાં અનુરક્ત થાય છે તેમ ગૃહસ્થ આપેલા અશન પાન આદિના શોધનમાં સાધુ પ્રવૃત્ત થાય બોટિક, શાકય, તાપસ, ઐરિક અને આજીવિક આદિ પણ જનતામાં શ્રમણ કહેવાય છે, તેનું नि२२४२६५ ४२१। भाट थाम मुत्ता (मुक्ताः) बुछ निडून ५ व्यवहारे शन भुत उपाय छ, तेथी तनु निरा२१ ४२वाने साहुणो (साधवः) ५४ मा छे. ભ્રમર અણઆપેલા પુષ્પના રસનું પાન કરે છે, કિન્તુ શ્રમણ અણઆપેલાં ભજનનું ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા પણ કરતા નથી, પછી ગ્રહણ કરવાની વાત જ કયાં રહી ? આ ભેદને પ્રકટ કરવાને માટે જ શબ્દ, સચિત્ત આહારનું નિરાકરણ કરવાને માટે અત્ત શબ્દ, અને આધાકર્મ આદિ દષવાળા આહારને વ્યવચ્છેદ કરવાને માટે ઘણા શબ્દ ગાથામાં આપવામાં આવેલ છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा०३ गोचरिविधौ भ्रमरदृष्टान्तः एवमुक्तगाथाभ्यां दृष्टान्त-दार्टान्तिकप्रदर्शनपुरस्सरं साधुभिः कथं भिक्षा ग्रहीतव्येत्युक्तं, तत्र भिक्षा द्विविधा-लौकिकी लोकोत्तरा च । तयोराधा दीनवृत्ति-पौरु पन्नी- भेदाद् द्विविधा, तत्र स्वोदरभरणासमर्थानां हीना-ऽनाथ-पशुप्रभृतीनामाधा, पश्चास्रवभाजामिन्द्रियपञ्चकविषयासक्तचित्तानां प्रमादपञ्चकप्रवृत्तानां भोगामिषगृध्नूनां सन्ततिसमुत्पादकानां निरुद्यमानां द्वितीया । लोकोत्तराऽपि द्विविधा-अप्रशस्ता प्रशस्ता च, तत्राऽबसन-पावस्थादीनामप्रशस्ता भिक्षा, प्रशस्ता पुनः पञ्चमहाव्रतधारिणां षट्कायरक्षकाणां समितिपञ्चक-गुप्तित्रयवतां मुनीनां प्रतिमाधारिश्रावकाणां च, यत एवंभूताः श्रावका अपि श्रमणकल्पा एव इयमेव 'सर्वसम्पत्करी' त्युच्यते, इन दो गाथाओंमें दृष्टान्त और दार्टान्तिक बतलाकर यह प्रगट किया है कि साधुओंको किस प्रकार भिक्षा लेनी चाहिए ?, अतः भिक्षाके भेद कहते हैं भिक्षा दो प्रकारकी है-लौकिक भिक्षा और लोकोत्तर भिक्षा। लौकिक भिक्षाके भी दो भेद हैं- (१) दोनवृत्ति, (२) पौरुषघ्नी । अपना पेट भरनेमें असमर्थ, दीन, हीन, अनाथ, लूलों, लंगडोंकी भिक्षा दीनवृत्ति कहलाती है। पांच आस्रवोंका सेवन करनेवाले, पांचों इन्द्रियोंके विषयोंमें चित्तको सदा आसक्त रखनेवाले, पाँचों प्रकारके प्रमादोंमें प्रवृत्ति करनेवाले, भोगरूपी आमिषमें अभिलाषा रखनेवाले, बाल-बच्चोंको उत्पन्न करनेवाले निकम्मे मनुष्योंकी दी जानेवाली भिक्षा पौरुषघ्नी कहलाती है, क्योंकि इससे उनका पौरुष नष्ट हो जाता है। लोकोत्तरभिक्षा भी दो प्रकारकी है-(१) अप्रशस्त और (२) प्रशस्त । अवसन्न और पार्श्वस्थ आदिकी भिक्षा अप्रशस्त और पंचमहाव्रतधारी, षट्कायरक्षक, पांचसमिति तीनगुप्तिका पालन करनेवाले मुनिकी तथा प्रतिमा-(पडिमा)-धारी श्रावकोंकी भिक्षा प्रशस्त कहलाती है। प्रतिमा-(पडिमा)-धारी श्रावकोंकी भिक्षा प्रशस्त इस कारण है कि वे श्रावक होते हुए આ બે ગાથાઓમાં દૃષ્ટાંત અને રાષ્ટ્રતિક બતાવીને એમ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુઓએ કેવા પ્રકારની ભિક્ષા લેવી જોઈએ. માટે ભિક્ષાના ભેદ કહે છે – ભિક્ષા બે પ્રકારની છે લૌકિક ભિક્ષા અને કેત્તર ભિક્ષા. લૌકિક ભિક્ષાના પણ બે होछ (१) हनवृत्ति, (२) पौषनी. पातानु पेट मरवा मसमय दान, डीन, अनाथ લલા, લંગડાની ભિક્ષા દીનવૃત્તિ કહેવાય છે. પાંચ આસાનું સેવન કરનારા, પાંચ ઇન્દ્રિ. એના વિષયમાં ચિત્તને સદા આસકત રાખનારા પાંચ પ્રકારના પ્રમાદોમાં પ્રવૃત્તિ કરનારા. ભાગરૂપી આમિષમાં અભિલાષા રાખનાર, બાળ–અોને ઉત્પન્ન કરનારા, એવા નકામા મનુષ્યને આપવામાં આવતી ભિક્ષા પૌરૂષદની કહેવાય છે, કારણ કે તેથી એમનું પૌષિ નષ્ટ થઈ જાય છે. લેકોત્તર ભિક્ષા બે પ્રકારની છે. (૧) અપ્રશસ્ત, (૨) પ્રશસ્ત. અનસન અને પાશ્વસ્થ આદિની ભિક્ષા અપ્રશસ્ત અને પંચ મહાવ્રતધારી, ષટ્કાયરક્ષક, પાંચ સમિતિ ત્રણ ગુપ્તિનું પાલન કરનારા મુનિની તથા પ્રતિમા-(પડિમા)-ધારી શ્રાવકેની ભિક્ષા પ્રશસ્ત કહેવાય છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवैकालिकसूत्रे अस्या अन्यान्यपि षड् नामानि यथा - ( १ ) मधुकरी, (२) गोचरी, (३) गुडुलेपा, (४) अक्षाञ्जना, (५) गर्तापूरणी, (६) दाहोपशमनी चेति । तासु माधुकरी - समनन्तरसूत्रोक्तस्वरूपा (१) । द्वितीया - यथा गौर्यत्र लघुतृणादिकं पश्यति तत्राऽल्पं यत्र चाधिकं तत्र पूर्वापेक्षयाऽधिकं कवलं गृह्णाति न तु तृणादिकमुन्मूलयति तथा मुनिरपि गृहस्थगृहे यथावसरं यथासामग्रि च यां भिक्षां गृह्णाति सा । अथवा विविधवसनरत्नालङ्करणविभूषिता सुन्दरी युवतिर्गवे घासादिकं समर्प यति तदा तदीयरूपलावण्यादिकमपश्यन्ती गौर्दीयमानं घासादिकमुपादत्ते, तद्वद् भिक्षु ७४ भी साधुसरीखी उत्कृष्ट क्रियाका पालन करते हैं । इस भिक्षाको 'सर्वसम्पत्करी' भी कहते हैं, क्योंकि इससे आत्माकी समस्त सम्पत्ति ज्ञान दर्शन सुख आदिकी प्राप्ति होती है । इस भिक्षा छह नाम और भी कहते हैं- (१) माधुकरी (भ्रामरी), (२) गोचरी, (३), गडुलेपा, (४) अक्षाञ्जना, (५) गर्तापूart और (६) दाहोपशमनी । (१) माधुकरी (भ्रामरी) का स्वरूप इससे पहलेकी गाथामें कहा जाचुका है । (२) गोचरी - जैसे गाय जहां कम घास देखती है वहां कम कवल ग्रहण करती है, जहां अधिक देखती है वहां पहलेसे कुछ अधिक ग्रहण करती हैं, घासको जड़से नहीं उखाड़ती, उसी प्रकार' भिक्षु एक स्थानसे ही पूर्ण अशन पान आदि न ग्रहण करे किन्तु गृहस्थको फिर आरम्भ न करना पड़े इस प्रकार विचार कर अशनादि ले उसे गोचरी कहते हैं । अथवा जैसे विविध बहुमूल्य वस्त्र आभूषणोंसे आभूषित सुन्दरी युवती स्त्री गायको घास डालने आती है तो गाय उसकी सुन्दरता नहीं देखती वरन् घासपर ही दृष्टि रखती है, उसी प्रकार भिक्षु आहारादि देती પ્રતિમા–(પઢિમા) ધારી શ્રાવકેાની ભિક્ષા પ્રશસ્ત એ કારણથી છે કે એ શ્રાવક હોવા છતાં સાધુના જેવી ઉત્કૃષ્ટ ક્રિયાનું પાલન કરે છે. આ ભિક્ષાને ‘સર્વાંસમ્પકરી' પણ કહે છે, કારણ કે તેથી આત્માની સમસ્ત સમ્પત્તિ જ્ઞાન દર્શન સુખ આદિની પ્રાપ્તિ થાય છે. मे लिक्षानां मी छ नाम युवां छे. (१) माधुरी (ब्राभरी), (२) गोथरी, (3) गडुलेया, (४) अक्षांना, (५) गर्तापूरण, भने (१) हाड। पशमना. (१) भाधुरी (भ्रामरी)नु स्व३५ पडेसांनी गाथामा उधुं छे. (૨) ગાચરો-જેમ ગાય જ્યાં આછું ઘાસ જુએ છે ત્યાં એછે કેળિયા લે છે, અને જ્યાં વધુ ઘાસ જુએ છે ત્યાં પહેલાથી વધુ મોટા ગ્રાસ ( કાળીયે ) લે છે, ઘાસને મૂળમાંથી ઉખાડતી નથી. એ રીતે ભિક્ષુ એક સ્થાનેથી જ પૂરાં અશન પાન આદ્ઘિ ગ્રહણ ન કરે, કિંતુ ગૃહસ્થને ફરીથી આરંભ-સમારંભ ન કરવા પડે એવા વિચાર કરીને અશનદિ લે, તેને ગાચરી કહે છે, અથવા જેમ વિવિધ બહુમૂલ્ય વસ્ત્રાભૂષણેાથી સજ્જ થએલી સુન્દર યુવતી સ્ત્રી ગાયને ઘાસ નીરવા આવે છે, તેા ગાય તેની સુંદરતા જોતી નથી. પરન્તુ ઘાસ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ३ गोचरिविधौ भ्रमरद्रष्टान्तः णाऽपि दातृवसनसुवेषरूपलावण्यादेः सानुरागावलोकनं बिहाय केवलमशनापानदिशुद्धौ दृष्टिः स्थापनीयेति गोचरीभिक्षासमाचारः (२) । तृतीया गडुलेपा यथा गडूपरि समधिकलेपप्रदानेन प्रसृतलेपतो नीरुजोऽपि गडसन्निहितदेशो विहन्यते, तदेकदेशमात्रे यात्किञ्चिल्लेपप्रदाने गडुप्रदेशसाकल्येन लेपाभावाद्रोगो नोपशाम्यति, तद्वत्साधुरपि, निर्दोषपरिमिताहारेण क्षुधां निवर्तयति तद्रपा (३)। चतुर्थ चास्या अक्षाजनेति नाम-यथा शकटेन दूरं गन्तुकामस्तत्र यदि तैलदानं न कुर्यात्, तदा चलितुमेवाक्षमं तन्न पारयति शकटारोहिणं प्रापयितुमभीष्ट स्थानम् तत्राधिकतरतैलनिक्षेपस्तु न केवलं निष्फल: प्रत्युत हानि जनयतीति, तद्वन्निरवधाशनपानप्रदानं विना मोक्षप्रापकसंयमपथे चलितुमक्षम शरीरमपि नालं मुनीन् मोक्षं हुई स्त्रीके सौन्दर्य, सुवेष, आभूषण आदि का निरीक्षण न करे किन्तु अशनादिको शुद्धि पर हो दृष्टि रखे उसे गोचरी कहते हैं । (३) गडुलेपा-जैसे फोडेके ऊपर आवश्यकतासे अधिक छेप करनेसे लेप इधर-उधर फैल जाता है और आस-पासका नीरोग प्रदेश भी खराब हो जाता है, और यदि फोड़े पर बिलकुल ही लेप न किया जाय तो भी रोग शान्त नहीं होता, वैसेही साधु यदि प्रमाणसे अधिक आहार करे तो प्रमाद आदि दोष उत्पन्न होनेसे स्वाध्याय आदि क्रियाओका पूर्ण पालन नहीं कर सकता, और बिलकुल ही थोड़ा आहार करे तो क्षुधावेदनीयकी शान्ति न होनेसे वैयावृत्त्य आदि साधुकी क्रियाएँ नहीं हो सकतीं, इसलिए निदोष और परिमित आहार लेना 'गडुलेपा' भिक्षा कहलाती है। (४) अक्षाञ्जना-जैसे कोई गाडीद्वारा इच्छित स्थान पर जाना चाहता है परन्तु गाडीको बिलकुल तेल नहीं देवे तो वह गाडी चल नहीं सकती और यदि अधिक तेल दे दिया जाय तो वह वृथा ही नहीं वरन् हानिकारक भी है, इसी प्रकार मोक्षपुरी तक पहुंचनेके लिए शरीर-रूप પર જ દષ્ટિ રાખે છે, તે પ્રમાણે ભિક્ષુ આહારદિ આપતી સ્ત્રીનું સૌદર્ય, સુવેશ, આભૂષણ આદિનું નીરીક્ષણ ન કરે, કિંતુ અશનાદિની શુદ્ધિ પર જ દષ્ટિ રાખે તેને ગોચરી કહે છે. (૩) ગડુલેપા-જેમ ગુમડા ઉપર જરૂરી કરતાં વધારે લેપ કરવાથી લેપ આમ-તેમ ફેલાઈ જાય છે અને આસપાસનો નીરગ પ્રદેશ પણ ખરાબ થઈ જાય છે. અને જે ગૂમડા ઉપર બિલકુલ લેપ ન કરવામાં આવે તે રેગ શાન્ત થાય નહિ, એવી જ રીતે સાધુ જે પ્રમાણથી અધિક આહાર કરે તે પ્રમાદ આદિ દેષ ઉત્પન્ન થવાથી સ્વાધ્યાય આદિ ક્રિયાઓનું પૂરું પાલન કરી શકતો નથી, અને બિલકુલ શેડો આહાર કરે તે ક્ષુધાવેદનીયની શાન્તિ નહિ થવાથી વૈયાવૃત્ય આદિ સાધુની ક્રિયાઓ થઈ શકતી નથી તેથી નિર્દોષ અને પરિમિત આહાર લે એ “ગડુલેપા” ભિક્ષા કહેવાય છે. (૪) જેમ કે માણસ ગાડામાં બેસીને ઈચ્છિત સ્થાન પર જવા ઈચછે છે. પરંતુ ગાડાને બિલકુલ તેલ ન ઉંજે તે એ ગાડું ચાલી શકતું નથી અને જે વધારે પડતું તેલ Gજે તે તે વૃથા જાય છે. એટલું જ નહિ પણ હાનિકારક પણ નીવડે છે. એ રીતે મોક્ષ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशवेकालिकसूत्रे प्रापयितुम्, अधिकतराहारपूरितं तु निद्राप्रमादादिदोषजातं जनयन्नूनमेव विनयश्रुतादिसमाधिं विध्वंसयति, अतः परिमितं विशुद्धं चाशनपानमुपादेयं भिक्षणेति सेयं भिक्षा 'अक्षाञ्जना नाम' (४) ७६ पञ्चमी गर्तापूरणी, सा यथा - कस्यापि श्रेष्ठिनो भवनसम्बन्धिनि गमनागमनमार्गे यदि केनापि कारणेन गतः संजायते तदा तमवलोक्य स तदानीं यदेव सद्यो लोष्टपाषाणखण्डादिकमुपलभते तदेवादाय तं गर्ते परिपूरयति नतूत्तमेनैवेष्टकप्रभृतिना गर्तौऽयं पूरयितव्य इति विचारयति, तथा सति महाऽनर्थोत्पत्ति संभवः, एवमेव मुनि - रपि क्षुधावेदनीयोदयवशाद्रिक्तमुदर मैषणिकैरन्तप्रान्तादिभिराहारैर्विभर्त्तीिति । (५) शकट (गाडी) को आहारादिरूप तेल बिलकुल न दिया जाय तो संयमयात्राका सम्यक् निर्वाह नहीं हो सकता और अधिक आहार देनेसे रोगादि हो जानेके कारण विनय श्रत आदि समाधि नहीं हो सकती, इसलिए परिमित आहार लेना अक्षाञ्जना भिक्षा कहलाती है | (५) गर्तापूरणी - जैसे यदि किसी रइसके घर जाने-आनेके मार्ग में किसी कारण से गड्ढा होजाय तो उसे देखते ही वह रईस शीघ्रता से मिट्टी- पत्थर के टुकडे आदि जो कुछ पाता है उन्हीं को लेकर खड्डेको भर देता है । परन्तु ऐसा नहीं विचारता हैं कि अच्छे २ ईट-पत्थरों से हो इसे भरना चाहिये । यदेि न पूरे तो बड़ी आपत्ति आने की संभावना रहती है । इसीप्रकार मुनि क्षुधावेदनीयके वशसे अन्त-प्रान्त आदि निरवद्य आहार लेकर खाली उदर भर लेते हैं । इसलिए इसे पूरी कहते हैं । (६) दाहोपशमनी - जिस समय घर में अग्नि धधक जाय उस समय घरका स्वामी जल्दी२ में जल कीचड़ धूल मिट्टी आदि जो कुछ मिलजाय उसको डालकर आग बुझाता है । उस समय न थुरी सुधी पडवाने भाटे शरीर - शट ( गाडी ) ने भाडाराहि ३५ तेल मिस વામાં આવે તે સંયમ-યાત્રાના સમ્યક્ નિર્વાહ થઇ શકતા નથી, અને અધિક આહાર આપવામાં આવે તે રાગાદિ થવાથી વિનય શ્રુત આદિ સમાધિ થઈ શકતી નથી. તેથી પરિમિત આહાર લેવા એ ‘અક્ષાંજના ' ભિક્ષા કહેવાય છે. " (૫) ગŕપૂરણી-જેમ કોઇ ગૃહસ્થને ઘેર જવા-આવવાના માર્ગ પર કાઇ કારણથી ખાડા પડી જાય છે તે તેને દેખતાં જ તે ગૃહસ્થ શીઘ્ર માટી, પત્થરના ટુકડા, વગેરે જે કાંઈ મળે તે લઇને ખાડાને પૂરી નાંખે છે. પણ એમ નથી વિચારતા કે સારી `ઈ ટા અને પથરાએથી જ પૂરીએ. જો ને પૂરે તા ભારે આપત્તિ આવી પડવાની સંભાવના રહે છે. એ રીતે મુનિ ક્ષુધા-વેદનીયને લીધે અંત-પ્રાંત આદિ નિરવદ્ય આહાર લઇને ખાલી ઉત્તર ભરી લે छे. तेने गर्तापूरी उडे छे. (૬) દાùાપશમની—જે સમયે ધરમાં અગ્નિ ભભૂકી ઉઠે તે સમયે ઘરના ધણી જલ્દી જલ્દી પાણી, કાઢવ, ધૂળ, માટી વગેરે જે કાંઇ મળી જાય તે નાંખીને આગ બુઝાવે છે. તે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ४ भिक्षायां शिष्यप्रतिशा ७७ षष्ठी दाहोपशमनी यथा-भवने ज्वलनज्वालामालादन्दह्यमाने गृही यदेव सद्यो जलकर्दमधूलिलोष्टप्रभृतिक मुपलभते तदेव प्रक्षिप्य पावकं प्रशमयति न तु गङ्गादिसलिलं प्रतीक्षते, तथा संयमरक्षार्थ निर्दोषेण रूक्षादिनाऽप्याहारेण शमयति क्षुधां मुमुक्षुभिक्षुरिति (६) ॥३॥ प्रशस्तैव भिक्षा साधु भिग्रहीतव्या नेतरेति निशम्य शिष्यो गुरु प्रत्याह- 'वयं च, इत्यादि । मूलम्—वयं च वित्तिलब्भामो न य कोइ उवहम्मइ . १३ १२ ११ अहागडेसु रोयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ॥४॥ छाया-वयं वृत्तिं लप्स्यामहे, न च कोऽपि उपहन्यते । यथाकृतेषु रीयन्ते, पुष्पेषु भ्रमरा यथा ॥४॥ ___ गुरु महाराज प्रति शिष्यकी प्रतिज्ञा सान्वयार्थः-(हे गुरुमहाराज !) वयं-हम च-ऐसो वित्ति-वृत्ति-भिक्षावृत्तिको लब्भामो=स्वीकार करेंगे (जिससे) कोइय-कोईभो न उवहम्मइ-उपमर्दित न हो, (साधु) अहागडेसु-सदाकी भांति गृहस्थद्वारा अपने लिए बनाये हुए भोजनमेंही रीयंते संयम यात्राका निर्वाह करते हैं, जहा=जिस प्रकार भमरो-भौंरा पुप्फेसु-फूलोंमें निर्वाह करता है। अर्थात् श्रमण महाराज गृहस्थद्वारा खुदके लिये बनाये हुए आहारसे ही अपनी जीवन यात्राका निर्वाह कर लेते हैं ॥४॥ टीका-एतद्गाथायाः पूर्वाः समुपात्तं चकारद्वयं क्रमेण यथा-तथा-शब्दार्थवाचकं ततश्चायमर्थ:-वयं च-तथा-तेने रूपेण, वृत्ति-जिनोक्तस्वरूपां प्रशस्तां भिक्षां,लप्स्यावह यह नहीं सोचता कि जब गंगासिन्धुंका निर्मल नीर मिलेगा तभी आग बुझाऊंगा, उसोप्रकार संयमकी रक्षाके लिए मुमुक्षु भिक्षु तुच्छ आदि निर्दोष भिक्षासे क्षुधाको शान्त कर लेता है । इसलिए इसको दाहोपशमनी कहते हैं (६) ॥३॥ 'प्रशस्त भिक्षा ही साधुको ग्रहण करनी चाहिये अन्य नहीं' यह सुनकर शिष्य गुरुसे निवेदन करता है-'वयं च वित्ति' इत्यादि । इस गाथाके पूर्वार्द्ध में दो 'च' आये हैं, एकका अर्थ है 'जैसे' और दूसरेका अर्थ है 'वैसे' इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि-हे भगवन् ! हम वैसेही प्रशस्त भिक्षा ग्रहण करेंगे जैसे (जिस વખતે તે એમ નથી વિચારતે કે જ્યારે ગંગા-સિંધુનું નિર્મળ નીર મળશે ત્યારે આગને બુઝાવીશ. એ રીતે સંયમની રક્ષાને માટે મુમુક્ષુ ભિક્ષુ લુખી, તુચ્છ, આદિ નિર્દોષ ભિક્ષાથી સુંધાને શાન્ત કરી લે છે. તેથી તેને “દાહોપશમની કહે છે. (૬) iડા જ “પ્રશસ્ત ભિક્ષાજ સાધુએ ગ્રહણ કરવી જોઈએ. બીજી નહિ,” એમ સાંભળીને શિષ્ય ४३ सभी निवहन ४रे छ:-वयं च वित्ति छत्यादि આ ગાથાના પૂર્વાધમાં બે જ આવ્યા છે. એક અર્થ છે “જેમ” અને બીજાને અર્થ છે એમ એ રીતે તેનો અર્થ એમ થયો કે-હે ભગવાન્ ! અમે એમ જ (એજ પ્રકારે ) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशदवैकालिकसूत्रे महे-प्राप्स्यामः स्वीकरिष्याम इति यावत्, यथा न कोऽपि त्रस-स्थावरप्राणिमात्रमित्यर्थः उपहन्यते-उपहतः (उपमर्दितः) भवेत् । एवंविधवृत्तिग्रहणे सदृष्टान्त हेतुमुपन्यस्यति 'अहा.' इति, अत्र 'यत्' इत्यध्याहार्यम् , तथा च यतः यथाकृतेषु-गृहस्थैरात्मार्थमात्मीयार्थं च सम्पादितेष्वाहारादिषु रीयन्ते-गच्छन्ति संयमयात्रां निर्वहन्तीति यावत् 'साधवः' इति शेषः । अत्र गतमपि भ्रमरदृष्टान्तं विस्पष्ट प्रतिपत्तये पुनरुपन्यस्यति 'पुप्फेसु' यथा पुप्पेषु भ्रमराः ते हि पुष्पेभ्यो रसमाहरन्तोऽपि तानि (पुष्पाणि) लेशतोऽपि न पीडयन्ति । अत्र 'लब्भामो' इत्यस्य 'लप्स्याम' इति व्याख्यानं तु सर्वथा व्याकरणविरुद्धमेव 'लभ' धातोरनुदात्तेत्सु पठितत्वेन नित्यात्मनेपदित्वात्, न च चक्षिङो डित्करणज्ञापितया 'अनुदात्तेत्त्वलक्षणमात्मनेपदमनित्यम्' इतिपरिभाषया परस्मैपदमपि युक्तमेवेति वाच्यम्, तस्या अगतिकगतिकतयेष्टप्रयोगविषयत्वात् ,वस्तुतस्तु भाष्यानुक्तज्ञापितार्थस्य साधुताया नियामकत्वे प्रमाणाभावादेवमादिकाः परिभाषाश्चिन्त्या एवेति स्पष्ट परिभाषेन्दुशेखरे' इत्यतिरोहितं वैयाकरणानाम् । अत्र गाथायां 'लब्भामो' इति, 'उवहम्मइ' इति भविष्यद्वर्तमानौ कालावविवक्षितौ, तेन कालत्रयग्रहणं बोध्यम् ॥४॥ एवं मधुकरदृष्टान्तेन यत्फलितं तत्प्रतिपादयन्नुपसंहरति-'महुगारसमा०' इत्यादि। मूलम्-महुगारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया नाणापिंडग्या दंता तण वुच्चंति साहुणो |त्तिबेमि॥५॥ छाया-मधुका (क) रसमा बुद्धा यतो भवन्त्यनिश्रिताः। ___ नानापिण्डरता दान्ताः, तेन उच्यन्ते साधवः ॥५॥ सान्वयार्थः-(क्योंकि) जे-जो महुगारसमा भौरेकीभांति बुद्धा-विवेकी अणिस्सिया-मोहबन्धनरहित नाणापिंडरया अनेक घरोंका निरवद्य पिण्ड लेकर संयममें लीन प्रकार) त्रस या स्थावर जीवको किसीभी प्रकारकी बाँधा न पहुंचे, क्योंकि गृहस्थोंद्वारा अपने लिए या अपने कुटुम्बके लिये बनाये हुए आहारको लेकर ही साधु अपनो संयमयात्राका निर्वाह कर लेते हैं। इसी बातको अधिक स्पष्ट करनेके लिए कहे हुए भ्रमर दृष्टान्तको फिर दुहराते हैं कि-जैसे भ्रमर पुष्पोंसे रस ग्रहण करकेभी किसी पुष्पको पीड़ा नहीं पहुँचाता ॥गा०४॥ मधुकरका उदाहरण देनेसे जो निष्कर्ष निकला उसे सूत्रकार कहते हैं-'महुगारसमा' इत्यादि । પ્રશસ્ત ભિક્ષા ગ્રહણ કરીશું કે જેમ (જે પ્રકારે) ત્રણ યા સ્થાવર જીવને કઈ પણ પ્રકારનો બાધા ન પહોંચે કારણ કે ગૃહસ્થાએ પોતાને માટે યા પોતાના કુટુંબને માટે બનાવેલ આહા૨ લઈને જ સાધુ પિતાની સંયમ-યાત્રાને નિર્વાહ કરી લે છે. એ વાતને વધુ સ્પષ્ટ કરવાને માટે ભ્રમરના દૃષ્ટાંતને ફરીથી બેવડાવે છે કે-જેમ ભ્રમર પુષ્પોમાંથી રસ ગ્રહણ કરીને પણ કંઈ પુષ્પને પીડા ઉપજાવતા નથી. (ગા૦ ૪) मधुन SIS२ मांथा रे नि०४५°ilsvil तन सूत्र४२ ४ छ-महुगारसमा, ४त्या. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ अध्ययन १ गा०५ साधुस्वरूपम् दंता - दारिद्रयविजयी भवंति होते हैं, तेण - इसीसे वे साहुगो - साधु वुच्चति - कहलाते हैं । तिमि - ३ - इस प्रकार श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं - " जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर से मैंने जैसा सुना हैं वैसा ही तेरे लिए कहता हूं ॥५॥ ॥ इति प्रथमाध्ययनस्य सान्वयार्थः ॥ १ ॥ टीका- अत्र गाथायां 'जे' इत्यस्यादौ 'यतः' 'इति' 'तेण' इत्यस्यान्ते 'ते' इति च पदद्वयमध्याहायम् तथा च-यतः ये मधुका (क) रसमा : - भृङ्गवदनियत वृत्तयः : बुद्धा:= इदं कर्त्तव्यमिदमकर्त्तव्यमित्येवं विवेकवन्तः, अनिश्रिताः निश्रायरहिताः - निवासकुलादिषु प्रणयनिगडबन्धशून्या इत्यर्थः, नानापिण्डरताः - नाना अभिग्रहविशेषेण प्रतिगृहाल्पाल्पग्रहविशेषेण युक्ततया अन्तप्रान्तादिभेदेन च विविधप्रकारा ये पिण्डाः = आहाराद्यास्तेषु रताः - संसक्ताः, दान्ताः - इन्द्रियनोइन्द्रियविकार भावाऽनुपहतचित्ताः भवन्ति, तेन - उक्तप्रकारेण निरवद्यवृत्तिसमाराधनेन हेतुना ते योगत्रये - न्द्रियपञ्चक-नवविध विशुद्धब्रह्मचर्याsहिंसाः साधयन्तीति साधवः व्युच्यन्ते कथ्यन्ते इति गाथार्थः इत्यन्ये वस्तुतस्तु अत्र 'यतः ' इत्यस्य, 'ते' इत्यस्य चाध्याहरणं 'जे' इत्यस्य प्रथमान्तत्वेन व्याख्यानं च न युक्तं, तथा सति 'ये' - ' ते ' - शब्दयोर्वैयर्थ्यापत्तेः तस्मात् 'जे' इत्यव्ययपदं 'यतः ' इत्यस्यार्थे, अव्ययानामनेकार्थत्वात्, ततश्चायमभिसम्बन्धः - यतः मधुकारसमाः बुद्धाः अनिश्रिताः नानापिण्डरताः दान्ता भवन्ति तेन साधवः उच्यन्त इति, साधुविशेषणानां मधुकारसमादीनां व्याख्यातु यथापूर्वमेवेति वयमिति विभावयन्तु विद्वांसः । जो भौंरे के समान अनियत (कुलकी सराय रहित) भिक्षा लेते हैं, कर्तव्य और अकर्तव्यके विवेकी हैं, निवासस्थान तथा कुटुम्ब परिवार आदि में ममताके बन्धन से बन्धे हुए नही हैं, भाँति २ के अभिग्रह धारण करके अनेक घरोंसे लिये जाने वाले अन्त-प्रान्त आदि- आहार में अनुरक्त रहते हैं, इन्द्रियों और मनके विकारको दमन करते हैं वे निर्दोष भिक्षा लेकर तीन योग, पाँच इन्द्रियाँ, नव प्रकारके विशुद्ध ब्रह्मचर्य और अहिंसाकी साधना करनेवाले साधु कहलाते हैं । भौं' रेके समान असंज्ञी भी होते हैं अतः बुद्ध (कर्तव्याकर्तव्य विवेकसे युक्त) पद दिया है । प्रतिमा (पडिमा ) धारी श्रावक ( संयतासंयत ) भी भौरेके समान और बुद्ध होते हैं इसलिए જે ભ્રમરાની પેઠે અનિયત ( કુળની નેસરાય રહિત ) ભિક્ષા લે છે, કભ્ય અને અકતવ્યના વિવેકી છે, નિવાસસ્થાન તથા કુટુમ્બ પરિવાર આદિમાં મમતાના બંધનથી મૃદ્ધ થયા નથી, તરેહ-તરેહના અભિગ્રહેા ધારણ કરીને અનેક ઘરોથી લીધેલા અંત-પ્રાંત દિ આહારમાં અનુરક્ત રહે છે, ઇન્દ્રિયે અને મનના વિકારોનુ દમન કરે છે, તે નિષિ ભિક્ષા લઈને ત્રણ યાગ, પાંચ ઇન્દ્રિયા, નવ પ્રકારનું વિશુદ્ધ બ્રહ્મચય અને અહિંસાની સાધના કરનારા સાધુ કહેવાય છે. ભ્રમરાની પેઠે અસ'ની પણ હાય છે, તેથી બુદ્ધ (કન્યા-કવ્ય-વિવેકથી યુક્ત ) પદ્મ आपे छे. प्रतिभा ( पडिभो ) धारी श्राव ( संयतासंयत ) पशु श्रमरानी समान भने શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मधुकरसमा असंज्ञिनोऽपि भवन्ति अतस्तद्वयवच्छेदार्थमाह 'बुद्धा' इति, मधुकरसमा बुद्धाश्च प्रतिमाधारिप्रभृतयः संयताऽसंयता अपि भवन्ति तद्वयावृत्तये 'अणिस्सिया' इति । मधुकरसाम्यं च साधूनां न सार्वदेशिकं किन्तु चन्द्रमुखा-दिवदैकदेशिकमेवेत्यतो यदंशे मधुकरसादृश्याभावस्तद्धोधनार्थमाह-'नाणापिंडरया दंता' इति, भ्रमरा हि सुगन्धिभ्य एव कुसुमेभ्यः स्वाद्यमेव च रसमादत्ते न च दान्ता भवन्ति । 'त्तिबेमि' इति-उक्तरूपं तत्वं यथा तीर्थङ्करस्य भगवतो महावीरस्य सकाशान्मया श्रुतं न स्वबुद्धया कल्पितं यतः स्वबुदया 'अणिस्सिया' पद दिया है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है भौ रेका उदाहरण एकदेशीय है, कोई कहता है कि 'इसका मुख, चन्द्रमाके समान है' तो मुखमें चन्द्रमाके सब गुण नहीं पाये जाते, अर्थात् कुछ गुण सदृश होते हैं कुछ विसदृश होते हैं, भौरेका उदाहरण भी कुछ अंशोमें मिलता कुछ अंशोमें नहीं मिलता है । जिस अंशमें नहीं मिलता है वह सूत्रकारने 'नाणापिंडरया' और 'दंता' विशेषणों से प्रगट किया है । भ्रमर, केवल कुसुमोंके स्वादिष्ट रसको ही पीता है इसलिए यह दान्त (इन्द्रियोंको जीतनेवाला) नहीं है, इस दृष्टान्तसे दार्टान्तिककी विसदृशता है । सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! ऊपर जो प्रथम अध्ययनका भाव कहा गया है वह अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् श्रीमहावीरसे जैसा मैने सुना वैसाही कहा है; अपनी बुद्धिसे कल्पना किया हुआ नहीं कहा है; अपनी बुद्धिसे कल्पना करके कहनेसे श्रुतज्ञानकी आशातना होती है, मुद्ध डाय छे, तेथी अणिस्सिया ५६ मायुं छे. પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે કે ભ્રમરાનું ઉટાહરણ એક-દેશીય છે. કેઈ કહે છે કેએનું મુખ ચંદ્રમા જેવું છે.” પણ મુખમાં ચંદ્રમાના બધા ગુણ હોતા નથી. અર્થાત કેઈ ગુણ સમાન હોય છે, કેઈ અસમાન હોય છે. ભ્રમરનું ઉદાહરણ પણ કાંઈ અંશમાં भगतु छ, अशमा अमातु छ. रे भाशमा ममतु ते सूरे नाणापिंडरया અને ચિંતા વિશેષણથી પ્રકટ કર્યું છે. ભ્રમર માત્ર કુસુમના સ્વાદિષ્ટ રસને જ પીએ છે, તેથી એ દાન્ત (ઇન્દ્રિયોને જીતનાર ) નથી. આ દષ્ટાંતથી દાર્ટાન્તિકની અસમાનતા છે. સુધર્મા-સ્વામી જંબૂ-સ્વામીને કહે છે-હે જંબૂ! ઉપર જે પ્રથમ અધ્યયનને ભાવ કહે છે તે અંતિમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસેથી જે મેં સાંભળે તે જ કહો છે. મેં પિતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરેલ નથી કહ્યો. પિતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરી કહેવાથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ अध्ययन १गा. ५ साधुस्वरूपम् कथने श्रुतज्ञानस्याविनयो भवति, किञ्च छद्मस्थानां दृष्टयोऽप्यपूर्णा भवन्ति, तस्माद् यथाभवत्प्रतिपादितमेव त्वां ब्रवीमि - उपदिशामीत्यर्थः । इहार्थे चेयं सङ्ग्रहगाथा - "अणाणस्स अविणओ परिहरणिज्जो सुहाहिलासीहि । छउमत्थाणं दिट्ठी, पुण्णा णत्थित्ति सूइयं इइणा ||१||" इति, इति पञ्चमगाथार्थः ॥५॥ इति श्री विश्वविख्यात -जगद्वल्लभ-प्रसिद्धावाचक- पञ्चदशभाषा-कलित-ललितकलापाssलापक- प्रविशुद्ध गद्य-पद्य नैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दकश्री शाहू छत्रपति - कोल्हापुरराज- प्रदत्त जैनशास्त्रचार्य-पद भूषितकोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकरपूज्य - श्रीघासीलालवतिविरचितायां श्रीदशवैकालिकसूत्रस्याssचारमणिमञ्जूषाख्यायां व्याख्यायां प्रथमं द्रुमपुष्पकाव्यमध्ययनं समाप्तम् ॥१॥ होती है, और छद्मस्थों का ज्ञान भी अधूरा होता है, इसलिए भगवान्द्वारा प्रतिपादित प्रवचन ही तुझे सुनाया है । कहा भी है 1 *-- “सुखके अभिलाषी पुरुषोंको श्रुतज्ञानकी आशातनाका त्याग करना चाहिये । क्योंकि छद्मस्थों की दृष्टि पूर्ण नहीं होती । इसी अर्थको 'त्तिबेमि' शब्दसे प्रगट किया है" ॥५॥ इसप्रकार दशवैकालिक सूत्रके ' दुमपुष्पक नामक पहले अध्ययनकी आचारमणिमञ्जूषा नामक व्याख्याका हिन्दी-भाषानुवाद " समाप्त हुआ ॥ १ ॥ -* શ્રુતજ્ઞાનની આશાતના થાય છે. અને છદ્મસ્થાનું જ્ઞાન પણ અધૂરૂ હૈાય છે, તેથી ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત પ્રવચન જ મેં તને સંભળાગ્યુ છે. કહ્યું પણ છે કે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ " સુખના અભિલાષી પુરૂષો શ્રુતજ્ઞાનની આશાતનાના ત્યાગ કરવા જોઇએ, કારણ કે છદ્મસ્થાની દૃષ્ટિ પૂર્ણ હાતી નથી. આ અને ત્તત્રેમિ શબ્દથી પ્રકટ કર્યાં છે.” (૫) ઇતિ ‘કુમપુષ્પક ’ નામના પહેલા અધ્યયનને गुभराती भाषानुवाद सभास (१). Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशयकालिकतने ॥ द्वितीयाध्ययनम् ॥ गतं प्रथममध्ययनमथ द्वितीयमारभ्यते, तत्रायमभिसम्बन्धः-पूर्वाध्ययने 'धम्मो मंगलं' इत्यादिना धर्मः प्रशंसितो यः केवलं जिनशासन एवोपलभ्यते, ततश्चोक्तरूपधर्मपरिपालनार्थस्वीकृतजिनशासनो नवदीक्षितः कदाचिद्धैर्याभावाच्चारित्रच्युतो न भवेदिन्याशयेनास्मिन्नध्ययने 'साधुना धैर्य धार्य' मिति वक्तव्यं, धैर्यधारणं च कामनिवारणमन्तरेण न संभवतीति प्रथमं तदेवाह-'कहं नु' इत्यादि । ११ ९ १२ १० मूलम्-कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीअंतो, संकप्पस्स वसंगओ ॥ १ ॥ छाया-कथं नु कुर्याच्छ्रामण्यं, यः कामान निवारयेत् । पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः ॥१॥ सान्वयार्थः-जो-जो कामे विषयोंको न निवारए-नहीं छोडता है, वह संकप्पस्स-इच्छाओंके वसंगओवशमें होकर पए पए-पद-पद पर विसीअंतो-खेदित होता हुआ नु-आश्चर्य है कि वह सामण्णं श्रमणधर्म को कहं कैसे कुज्जा-कर-पाल सकता है अर्थात्-जो इन्द्रियोंके विषयोंका परित्यागनहीं करता उसकी इच्छाएँ सदैव बढ़ती रहती हैं, उसे कभी सन्तोष नहीं होता, सन्तोष न होनेसे निरन्तर मानसिक कष्ट होता है, विषयोंकी इच्छासे उत्पन्न हुआ मानसिक कष्ट होते रहनेसे चारित्रधर्मकी आराधना नहीं हो सकती, अत: सवे-प्रथम इन्द्रियोंको वशमें करना चाहिये ॥१॥ दूसरा अध्ययन । पहले अध्ययनमें धर्मका स्वरूप और माहात्म्य कहा है वह केवल जैनशासनमें ही पाया जाता है । इसलिए पहले कहे हुए धर्मका पालन करनेके लिए जिसने जैनशासन अर्थात् चारित्रधर्म स्वीकार कर लिया हो परन्तु नवीन दीक्षित होनेसे कभी धैर्य छूट जानेके कारण वह कदाचित् चारित्रसे स्खलित न हो जाय, इस अभिप्रायसे इस अध्ययनमें 'साधुको धैर्य धारण करना चाहिए' यह कहा जायगा । लेकिन धैर्य तब ही रह सकता है जब कि कामके विकार को जीत लिया जाय । अतएव शास्त्रकार सबसे पहले इसी विषयका प्रतिपादन करते हैं-'कहं नु-' इत्यादि । અધ્યયન બીજું પહેલા અધ્યયનમાં ધર્મનું સ્વરૂપ અને મહાભ્ય કહ્યું છે. તે કેવળ જૈન શાસનમાં મળી આવે છે. તેથી, પહેલાં કહેલા ધર્મનું પાલન કરવાને માટે જેણે જૈન શાસન અર્થાત ચારિત્ર ધર્મ સ્વીકાર્યો હોય પરંતુ નવદીક્ષિત હેવાથી કેવાર ધૈર્ય છૂટી જવાથી એ કદાચ ચારિત્રથી સ્મલિત ન થઈ જાય, તેટલા માટે આ અધ્યયનમાં “સાધુએ હૈયે ધારણ કરવું જોઇએ.” એ કહેવામાં આવશે. પરંતુ ધર્યું ત્યારે જ રહી શકે છે કે જ્યારે કામવિકારને જીતી सेवामा सावे. या शा२ सौधा ५७ विषय प्रति पान ४२ छ-'कहं नु०॥ त्याहि. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा० १ श्रामण्याधिकारिलक्षणानि टीका-यः, काम्यन्ते अभिलष्यन्ते प्राणिभिरिति कामाः शब्दादयस्तान् न निवारयेत् नापनयेत्, अत्र 'सः' इत्यध्याहार्य यत्तदोर्नित्यसम्बन्धादिति केचित्, वस्तुतस्तु नात्र तच्छब्दाध्याहारावश्यकता, न चाऽनध्याहारे साकाङ्क्षत्वदोष इत्याक्षेप्यम्, उत्तरवाक्यगतत्वेन यच्छब्दोपादाने तस्य दोषस्याऽनवकाशात् 'आत्मा जानाति यत्पाप' मित्यादिवत् । संकल्पस्य-अप्राप्तविषयप्राप्तिरूपस्याऽप्रशस्तस्याऽध्यवसायस्य, वशम् अदीनतां गतस्तदधीनवर्ती भूत्वेति भावः, पदे पदे प्रतिस्थानं विषीदन् खेदमनुभवन् कथं= केन प्रकारेण 'नु' क्षेपे वितर्के पृच्छायांवा, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणः-सचित्ताचित्त-मनोज्ञा-मनोज्ञद्रव्याधिकरणकसाम्यभाव-हास्यादिषदकविप्रमुक्ति-पंचसमितिसमितत्वगुप्तित्रयगुप्तत्व--गुप्तब्रह्मचर्यत्वयोगत्रयसाधकत्व--सदोरकमुखवस्त्रिकोपशोभितमुखत्वयतनाधर्मधरत्व--भोगामिषरिक्तत्व---करणसप्तति--चरणसप्ततिपारगत्व-निर्दोषभिक्षणशीलत्व-तीर्थङ्कराज्ञाराधकत्व स्वात्मज्ञत्व-निष्परिग्रहत्व-यात्रामात्राज्ञत्व-कूर्मवदात्मगोप जीव, जिन इन्द्रियों के विषयोंकी कामना (अभिलाषा) करता है उनको 'काम' कहते हैं। जो साधु, इन कामोंका त्याग नहीं करते, वे अप्राप्त विषयकी प्राप्तिरूप अशुभ अध्यवसायके अधीन होकर पद- पद पर खेदका अनुभव करते हुए क्या कभी श्रमणताको प्राप्त कर सकते हैं ? कदापि नहीं । इष्ट, अनिष्ट, सचित्त, अचित्त आदि समस्त वस्तुओं पर समताभाव रखना, हास्य आदि छह नोकषायका त्याग करना, पांच समिति और तीन गुप्तिका पालन करना, गुप्त ब्रह्मचारी होना, तीन योगोंको साधना, श्रुतज्ञानरूपी जलसे अन्तःकरणको शुद्ध रखना, सम्यक्त्वसे युक्त रहना, संयमरूपी कवच (बख्नर) से सदा सन्नद्ध रहना, डोरासहित मुखवत्रिकाको मुखपर बांधे हुए रहना, यतना धर्म को धारण करना भोगरूपी आमिष से विरक्त रहना करणसत्तरी और चरणसत्तरीके पारगामी होना, निर्दोषभिक्षासे ही संयमयात्राका निर्वाह करना, तीर्थङ्कर જીવ જે ઈન્દ્રિયેના વિષયની કામના (અભિલાષા) કરે છે તેને 'કામ' કહે છે. જે સાદ, એ કામને ત્યાગ નથી કરતા, તેઓ અપ્રાપ્ત વિષયની પ્રાપ્તિરૂપ અશુભ અધ્યવસાયને અધીન થઈને ડગલે ડગલે ખેદને અનુભવ કરતાં શુ કદાપિ શ્રમણતાને પ્રાપ્ત કરી શકે છે ? કદાપિ નહિ. ट, अनिष्ट सथित्त, मयित्त माहिमची स्तु। ५२ समता- मामी , हास्य આદિ છએ નોકષાયને ત્યાગ કરે. પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિનું પાલન કરવું ગમ બ્રહ્મચારી થવું, ત્રણ ભેગોને સાધવા, શ્રુતજ્ઞાનરૂપી જળથી અંત:કરણને શુદ્ધ રાખવું સમ્યકત્વથી યુકત રહેવું, સંયમરૂપી કવચ (બખ્તર) થી સજજ રહેવું દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકાને મુખ પર બાંધીને રહેવું, યતના-ધર્મને ધારણ કરવું, ભેગરૂપી અમિષથી વિરકત રહેવું, કરણ સિત્તેરી અને ચરણસિત્તેરીના પારગામી થવું, નિર્દોષ ભિક્ષાથી જ સંયમયાત્રાને નિર્વ કર, તીર્થકર ભગવાનની આજ્ઞાનું આરાધન કરવું, આત્મજ્ઞાની થવું, પરિગ્રહને ત્યાગ કર, યાત્રામાત્રાને જાણવી, કાચબાની પેઠે ઈન્દ્રિયનું ગોપન કરવું, અ૯૫ અશન પાનને ગ્રહણ કરવાં. અ૫ ઉપદ્ધિ રાખવી, કષાયને ત્યજવા, આસવરહિત થવું, સંસારરૂપી સાગરથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्रीदशवकालिकसूत्रे कत्वा -ऽल्पपिण्डाऽल्पपानाशित्वाऽल्पोपधिकत्वाऽल्पकषायत्व-निराश्रवत्व-तीर्णत्वा-- ऽपापत्व-निर्ग्रन्थ-प्रवचनप्रवीणत्व-शल्यकर्तकत्व-सन्निधिरहितत्वो-रगाद्युपमितत्व--पापश्रुतप्रतिषेधित्व-सुमनस्कत्व-निरतिचारचारित्रत्वादिगुणसम्पन्नः, तस्य भावः कर्म वा श्रामण्यं श्रमणधर्म कुर्यात्,प्रतिपालयेत् न हि संकल्पाधीनचित्तवृत्तितया व्याक्षिप्तस्य भावक्रियाशून्य-द्रव्य-क्रियामात्रपालनेन श्रामण्यं भवतीति गाथार्थः ॥॥१॥ अत्रायं संग्रहः- "सचित्ताचित्तदव्वेसु मणुन्ने अमणुन्नए । रक्खए समभावं जो, समणो सो पवुच्चई ॥१॥ हासं रई भयं सोगो, दुगुंछा य कसायया । एएहिं विप्पमुक्को जो, समणो सो पवुच्चई ॥ २ ॥ पंचसमिइहिं समिओ, तिगुत्तिगुत्तो य बंभयारी जो । परिसाहेइ सुजोगं सो समणो बुच्चई निच्चं ॥३॥ भगवानकी आज्ञाका आराधन करना, आत्मज्ञानी होना, परिग्रहका त्याग करना, यात्रा-मात्राको जानना, कछुएकी भाँति इन्द्रियोंका गोपन करना, अल्प अशन अल्प पानका ग्रहण करना, अल्प उपधि रखना, कषायको त्यागना, आस्रवरहित होना, संसाररूपी सागरसे पार उतरना, पापरहित होना, निग्रेथ प्रवचनमें प्रवीण होना, माया, मिथ्यात्व और निदान सूप शल्योंको काटना, सन्निधिका न रखना, उरगादिकी उपमासे युक्त होना, पापकी प्ररूपणा करनेवाले शास्त्रोंका उपदेश नहीं करना, मनको स्वच्छ रखना और अतिचाररहित चारित्रको पालना, तथा मृग जैसे सिंहसे सर्वथा दूर भागते हैं उसीप्रकार पापकर्म जिसके पास न ठहरें वह 'श्रामण्य' (साधुपन) कहलाता है। ऐसा श्रामण्य जबतक प्राप्त नहीं होता तब तक वह काम-भोगका त्याग न कर देवें; जिसका चित्त कामके संकल्प-विकल्पोंसे व्याकुल रहता हो उसकी क्रियाएँ भावशून्य द्रव्यक्रियाएँ हैं, केवल द्रव्यक्रियाओंका पालन करनेसे कोई श्रमण नहीं हो सकता, इस विषयमें संग्रहगाथाएँ हैं उनका अर्थ पहले आ चुका है ॥१॥ પાર ઊતરવું, પાપરહિત થવું, નિગ્રંથ પ્રવચનમાં પ્રવીણ થવું, માયા મિથ્યાત્વ અને નિદાનરૂપ શલ્યાને કાપવાં, સન્નિધિને ન શખ, ઉરગાદિની ઉપમાથી યુક્ત થવું પાપની પ્રરૂપણું કરનારાં શાસ્ત્રોનો ઉપદેશ ન કર, મનને સ્વચ્છ રાખવું અને અતિચારરહિત ચારિત્રને પાળવું તથા મૃગ જેમ સિંહથી સદા દૂર ભાગે છે તેમ પાપકર્મ જેની પાસે ન ઉભાં રહે તે “શ્રામણ્ય” (સાધુતા) કહેવાય છે. એવું શ્રામ ત્યાં સુધી પ્રાપ્ત નથી થતું કે જ્યાં સુધી તે કામભેગને ત્યાગ કરે નહિ, જેનું ચિત્ત કામના સંક૯પવિકલ્પથી વ્યાકુળ રહેતા હોય છે તેની ક્રિયાઓ ભાવશૂન્ય દ્રવ્ય-ક્રિયાઓ હોય છે, કેવળ દ્રવ્ય-ક્રિયાઓનું પાલન કરવાથી કે શ્રમણ થઈ શકતો નથી. આ વિષયમાં સંગ્રહ ગાથાઓ છે, જેને અર્થ पडयां मापी गये। छे. (१) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. १ श्रामण्याधिकारिलक्षणानि सुयनाणसुनीरेण, सुद्धो संमत्तरंजिओ । संजमवम्मसंनद्धो, समणो सो पबुच्चई ॥४॥ सदोरं मुहपत्तिं जो, बंधई सययं मुहे । जयणाधम्मेण जुओ, समणो सो पवुच्चई ॥५॥ भोगामिसपरिहीणो, करणे चरणे य वट्टए सुद्ध । अदोसभिक्खणसीलो, समणो सो वुच्चई निच्चं ॥ ६ ॥ जिणाणाए समारोहो, आयन्नो निप्परिग्गहो । जायामायन्नो य मुणी, समणत्ति पवुच्चई ॥ ७ ॥ कुम्मो जहा नियं गाई, सए देहम्मि गोवई । तहा गोवइ अप्पाणं, समणत्ति पवुच्चई ॥ ८ ॥ अप्पपिंडे अप्पपाणे, अप्पोवहिकसायओ । निरासवो य तिन्नो य, निप्पावो समणो भवे ॥९॥ निग्गंथपवयणन्नो, अनियाणो सल्लकत्तओ । भेसज्जाइण वत्थूणं, सन्निहिं वज्जए मुणी ॥ १० ॥ उरगाइऽवमो पाव, सुयाणं पडिसेहओ । सुमणो सुहचारित्तो, समणत्ति पवुच्चई ॥११॥ मिया जहेव सीहाओ, दूरं चरंति सव्वहा । तहा जओ य पावाई, समणत्ति पवुच्चई ॥ १२॥ इति । छाया- "सचित्ताचित्तद्रव्येषु, मनोज्ञे अमनोज्ञके । रक्षति समभावं यः, श्रमणः स प्रोच्यते ॥१॥ हास्यं रतिर्भयं शोको, जुगुप्सा च कषायता । एतेविप्रमुक्तो यः, श्रमणः स प्रोच्यते ॥२॥ पञ्चसमितिभिः समितः, त्रिगुप्तिगुप्तश्च ब्रह्मचारी यः। परीसाधयति सुयोगं, स श्रमण उच्यते नित्यम् ॥ ३ ॥ "श्रुतज्ञानसुनीरेण, शुद्धः सम्यक्त्वरञ्जितः । संयमवर्मसंनद्धः, श्रमणः स प्रोच्यते ।। ४ ॥ सदोरां मुखवस्त्रीं यो, बध्नाति सततं मुखे । यतनाधर्मेण युतः, श्रमणः स प्रोच्यते ॥ ५ ॥ भोगामिषपरिहीणः, करणे चरणे च वर्तते शुद्धम् । अदोषभिक्षणशीलः, श्रमणः स उच्यते नित्यम् ॥ ६ ॥ जिनाज्ञायां समारोहः, आत्मज्ञो निष्परिग्रहः ।। यात्रामात्राज्ञश्च मुनिः, श्रमण इति प्रोच्यते ॥ ७ ॥ Nhililin શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ कूर्मों यथा निजाङ्गानि स्वके देहे गोपयति । तथा गोपयत्यात्मानं, श्रमण इति प्रोच्यते ॥ ८ ॥ अल्पपिण्डोऽल्पपानः, अल्पोषधिकषायकः । निraar तीर्णच, निष्पापः श्रमणो भवेत् ॥ ९ ॥ निर्ग्रन्थप्रवचनज्ञः, अनिदानः शल्यकर्त्तकः । भैषज्यादीनां वस्तूनां संनधिं वर्जयति मुनिः ॥ १० ॥” " उरगाद्युपमः पापश्रुतानां प्रतिषेधकः । सुमनाः शुभचारित्रः, श्रमण इति प्रोच्यते ॥ ११ ॥ मृगा यथैव सिंहाद्, दूरं चरन्ति सर्वथा । तथा यतश्च पापानि, श्रमण इति प्रोच्यते ॥ १२ ॥ पूर्व शब्दादिविषयप्रवृत्तः श्रामण्यं पालयितुं न शक्नोतीत्युक्तं, सम्प्रति द्रव्यक्रियां कुर्वाणोऽपि कलुषितचितत्वादश्रमण एवे' ति दर्शयितुमाह यद्वा पूर्व गाथया भङ्गयन्तेरण शब्दादिविषयविनिवृत एव श्रामण्यमर्हतीति सूचितम् शब्दादिविषयानिवृत्तिश्व रोगादिना करणेनापि संभवतीत्यतस्तद्वयववच्छेदार्थ गाथान्तर - माह - ७ वत्थगंध' मित्यादि ३ ४ मूलम् - वत्थगंधमलंकारं २ " श्रीदशवैकालिकसूत्रे ५ ६ इत्थीओ सयणाणि य । १ ८ ९ १२ १० ११ १३ अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइति वच्चई ॥२॥ छाया -- वस्त्रगन्धमलङ्कारं, स्त्रियः शयनानि च अच्छन्दो यो न भुङ्क्ते, न स त्यागीत्युच्यते ॥२॥ ऊपर कह चुके हैं कि शब्दादि इन्द्रियविषयों में प्रवृत्त साधु श्रामण्य ( चारित्र) का पालन नहीं कर सकता । अब द्रव्यक्रियाएँ करते हुए भो यदि साधुके चित्तमें कलुषता हो तो वह वास्तव में त्यागी नहीं है, यह कहते हैं अथवा पहली गाथामें एक विशेष प्रणालीसे यह प्रतिपादन किया है कि-शब्दादिविषयोंका त्यागी ही श्रामण्य ( साधुपना ) पाल सकता है, किन्तु रोग आदि कारणोंसे भी शब्दादि विषयों को नहीं भोग सकता तो क्या उस समय वह भो त्यागी कहला सकता ઉપર કહેવાઈ ગયું છે કે શબ્દ આદિ ઈન્દ્રિયવિષયામાં પ્રવૃત્ત એવા સાધુ શ્રામણ્ય (ચારિત્ર)નું પાલન કરી શકતા નથી. હવે દ્રવ્યક્રિયાએ કરતાં પણ જો સાધુના ચિત્તમાં કલુષતા હૈાય તે તે વાસ્તવમાં ત્યાગી નથી, એ કહે છે— અથવા પહેલી ગાથામાં એક વિશેષ પ્રણાલીથી એમ્ પ્રતિપાદન કર્યું છે કે—શબ્દાદિ વિષયાના ત્યાગી જ શ્રામણ્ય (સાધુતા) પાળી શકે છે, કિંતુ રાગાદિ કારણેાથી પણ શખ્વાદિ વિષયાને નથી ભેગવી શકતા તે શું તે સમયે એ પણ ત્યાગી કહેવાઈ શકે છે ? નથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. २ त्यगिस्वरूपम् सान्वयार्थः--जे-जो अच्छंदा-पराधीन होने से वत्थगंध-वस्त्र गन्ध अलंकारं आभूषण इत्थीओ स्त्रियाँ य और सयणाणि="शय्याप लंग महलबिगेरे को न भुजंति-नहीं भोगता है से वह चाइति-त्यागी" ऐसा न वुच्चइ=नहीं कहा जाता है। अर्थात् अपनी इच्छासे विषयोंको न भोगनेवाला त्यागी कहलाता है । जो रोग आदि किसी कारण से पराधीन होकर विषयोंका सेवन नहीं कर सकता वह त्यागी नहीं कहलाता ॥२॥ और-- __टीका--अत्र 'अच्छंदा' 'जे' ' जति' इत्येतेषु पदेषु बहुवचनप्रयोगः सौत्रत्वात् । तथा चायमर्थः-यः अच्छन्दः रोगाद्यभिभूततया पराधीनो वस्त्रं च गन्धश्चानयोः समाहारः वस्त्रगन्धं, तत्र वस्त्रं प्रसिद्ध, गन्धः चन्दनकर्पूगदि-सुगन्धिद्रव्यं तत्, अलङ्कारः कुण्डलवलयादिस्तम्, स्त्यायतः शुक्रशोणिते यासु ताः स्त्रियः कामिन्यस्ताः, शैय्यते येथै तानि शयनानि-पल्यङ्ग-खष्ट्वा तुष्कि-कादीनि, तानि, चकारात् यानाऽऽसनादीनि, ने भुङ्क्तेन सेवते, सः, त्यागीति-त्यजति परिमुञ्चति संसारसम्बन्धं तच्छील इति, न उच्यते न कथ्यते, इति गाथार्थः ॥२॥ है ? कभी नहीं कहला सकता, इसो विषयको कहते हैं-'वत्थ गंध' इत्यादि । जो मनुष्य रोग आदिसे आक्रान्त होनेके कारण पराधीन है और पराधीनता (असमर्थता) के कारण वस्त्र, कस्तूरी, केशर, चन्दन, आदि गन्ध, कुण्डल, कटक आदि आभूषण, स्त्री, शय्या और 'च' शब्दसे सवारी आसन आदिका सेवन नहीं करते हैं वे त्यागी अर्थात् संसारके सम्बन्धोंका त्याग करने वाले नहीं कहला सकते हैं, क्योंकि असार समझकर ममता छोड़मा-रुचि न रखना-त्याग कहलाता है । रोग आदिसे ग्रसित ऊपर कहे-हुए विषयोंकी ममता नहीं छोड़ता (रुचि रखता) है इसलिए वह त्यागो नहीं कहला सकता ॥२॥ वातो मे विषय हव छ :-वत्थगंध-छत्याह જે મનુષ્ય રોગાદિથી આક્રાન્ત હોવાને કારણે પરાધીન છે અને પરાધીનતા (અસમથતા) ને કારણે વસ્ત્ર, કસ્તૂરી, કેશર, ચંદન આદિ ગંધ, કુંડલ, કડાં આદિ આભૂષણ, સ્ત્રી, શય્યા. અને ૪ શબ્દથી સવારી, આસન આદિનું સેવન કરતા નથી તેઓ ત્યાગી અર્થાત્ સંસારના સંબંધને ત્યાગ કરવાવાળા નથી કહેવાઈ શકતા કારણ કે અસાર સમજીને મમતા છોડવી-રૂચિ ન રાખવી એ જ ત્યાગ કહેવાય છે. . રેગાદિથી ગ્રસિત મનુષ્ય ઉપર કહેલા વિષયોની મમતા છોડતા નથી, તેથી તેઓ ત્યાગી કહેવાતા નથી. (૨) १ यत्त 'बहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशो विचित्रत्वात्सूत्रगतेः' इति, यच्च 'अत्र सूत्रगतेर्विचित्रत्वादहुवचनेऽप्येकवचननिर्देशः' इति, यदपि च किं बहुवचनोर्देशेऽप्येकवचननिर्देशः ? विचित्रत्वात्सूत्रगतेविपर्ययश्च भवत्येवेति कृत्वाऽऽह-'नासो त्यागीत्युच्यते' इति, तदिदं त्रितयमपि व्याख्यान सूत्रपूर्वापराऽननुसन्धानमूलकत्वादनुपादेयमेव, यतो द्वितीय-तृतीयगाथयोस्तात्पर्यपर्यालोचनाया मेकवचनान्तप्रयोग एव सूत्रकृतोऽभिप्रेत इति सूचीकटाहन्यायेनापि बहवचननान्तेष्वेवैकवचनान्तत्वकल्पन युक्तियुक्तमिति ।। २ अधिकरणेल्युट । ३ प्रथमान्तमिदम् । ४ द्वितोयानामिदम् । ५ भुजोऽनवने इत्यात्मने पदं सूत्रे तु प्राकृतत्वात् परस्मैपदम् । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कस्तर्हि त्यागी ? इति चेत्तत्राह-'जे य कंते' इत्यादि । मूलम्-जे य कंते पिए भोए लद्धेवि पिट्ठिकुवइ । ९ . ८ १० ११ १२ १३ साहीणे चयई भोए स ह चाइत्ति वुच्चई ॥३॥ छाया-यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान, लब्धानपि पृष्ठोकरोति । __ स्वाधीनस्त्यजति भोगान्, स एव त्यागी इत्युच्यते ॥३॥ सान्ययार्थ:-जे य-जो लद्धेवि-प्राप्त हुए भी कंते मनोहर पिए अभीष्ट-मन-गमते' भोए भोगोंको पिट्ठिकुव्वइ-त्याग देता है (और) साहोणे स्वतन्त्र-स्वाधीन होते हुए मोह % विषयोंको चयई = त्यागता है से = वह ह =निश्चय करके चाइत्ति = "त्यागी" ऐसा बुच्चइ = कहलाता है। अर्थात् भोगोंकी प्राप्ति होने पर भी और भोगनेकी स्वतन्त्रता रहते हुए भी जो भोगों को नहीं भोगता वह सच्चा त्यागी है । गाथामें "वि" शब्द आया है: उससे यह प्रगट होता है कि यदि किसीको अमुक समयमें मनोहर और प्रिय भोग न भी उपलब्ध हों तथापि उसकी इच्छा कदापि भोगनेकी न हो तो भी वह त्यागी है।३॥ टीका-'च' शब्दः पूर्वगाथोक्तार्थनिवारकत्वेन 'तु'-शब्दार्थेऽवधारणर्थे वा, 'खलु'शब्दोऽवधारणार्थे, तथा चायमर्थः-यस्तु लब्धान् = प्राप्तानपि कान्तान् = कमनीयान् (मनोहरान्)प्रियान = अभिलषितान्, भोगान् = शब्दादीन् पृष्ठीकरोति = पृष्ठशब्दस्य तत्स्ये लक्षणया अपृष्ठस्थान पृष्ठत्थान् करोति = दूरतः परिहरतीत्यर्थः, ततो चिमुखीभवतीति यावत् । एवं तु रोगाद्यवस्थायामपि संभवतीत्यतः स्पष्टयति स्वाधीनः=रोगाधनभिभूतचित्तः सन् भोगान्-पूर्वोक्तलक्षणान् शब्दादीन् , पुनर्भोगग्रहणं 'द्विर्बद्ध सुबद्धं भवती'-ति न्यायात्साकल्येन भोगत्वावच्छिन्नपरिग्रहार्थम् , त्यजति-मुश्चति, स खलु स एव त्यागीति उच्यते कथ्यते, न तु पराधीन इति गाथार्थः ॥३॥ त्यागी किसे कहते हैं ? इस पर सूत्रकार कहते हैं-- 'जे य' इत्यादि जो महापुरुष पूर्वपुण्यके उदयसे प्राप्त हुए मनोहर और इष्ट शब्दादि विषयोंको विविधवैराग्य-भावना भाकर त्याग देते हैं-उनसे विमुख हो जाते हैं और रोग आदिसे पीडित न होनेके कारण स्वाधीन (समर्थ) होते हुए भी विविध-वैराग्य-भावना भाकर समस्त भोगोंको त्याग देते हैं वे ही त्यागी कहलाते हैं ॥३॥ त्यागी अन ४ छ ? ये विष सूत्र४२ ४ छ-'जे य०' त्याहि. જે મહાપુરૂષ પૂર્વપુણ્યના ઉદયથી પ્રાપ્ત થએલા મનહર અને ઈષ્ટ શબ્દાદિ વિષયને વિવિધ-વૈરાગ્ય-ભાવના ભાવીને ત્યજી દે છે તેનાથી વિમુખ બની જાય છે, અને રોગાદિથી પીડિત ન હોવાને કારણે સ્વાધીન (સમર્થ હોવા છતાં પણ વિવિધ-વૈરાગ્ય-ભાવના ભાવીને બધા ભેગેને ત્યજી દે છે, તેઓ જ ત્યાગી કહેવાય છે. (૩) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोषानुचिन्तनम् उक्तविधस्यापि साधोः संयममार्गे विहरतः कदाचिद् विषयस्मरणेन प्रस्खलितचित्तता मा प्रसाङ्गीदिति तदुपायं दर्शयति-“समाए." इति । मूलम् समाए पेहाए परिव्वयंता, सिया मणो निस्सई बहिद्धा। १० ८ ९ १३ . ११ १२ १४ १५...१७ १६.. न सा महं नोवि अ वि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज्ज रागो।। छाया-समया प्रेक्षया परिव्रजतः, स्यान्मनो निःसरति बहिः । न सा मम नो अपि अहमपि तस्याः, इत्येवं तस्या विनयेत रागम् ॥४॥ सान्वयार्थ:-समाए-सम पेहाए-भावनासे परिव्ययंतो संयममार्गमें विचरते हुए साधुका मणो मन सिया-कदाचित्-कभी बहिद्धा-संयमगृहसे बाहर निस्सरई-निकल जाय तो "सा-वह स्त्री महं-मेरी न-नहीं है अवि और अहंवि-मैं भी तोसे-उस स्त्रीका नो-नहीं हूं" इच्चेव इस प्रकार ताओ उस स्त्रीसे राग-रागको विणइज्ज-दूर करे ॥४॥ संयम मार्गमें विहार करते हुए त्यागी मुनि का मन, स्त्री आदिको देखनेसे कदाचित् विचलित (डांवाडोल) हो जाय तो उसको रोकने के लिए उपाय बतलाते हैं-'समाए.' इत्यादि । रागद्वेषरहित-समतापूर्वक बिचरते हुए श्रामण्यमें स्थित मुनिका मन स्त्री आदिको देखने पर मोहनीय कर्मके उदयसे कदाचित् पहले भोगे हुए भोगोंका स्मरण होजानेसे, अथवा विषयसेवनकी इच्छा होनेसे संयमरूपी घरसे बाहर निकल जाय तो उस समय साधुको विचारना चाहिए कि मैं जिसकी अभिलाषा करता हूं, वह स्त्री न मेरी है और न मैं उसका हूँ। ऐसा विचार करके उस स्त्रीके विषय का रागभाव दूरकरना चाहिये तात्पर्य यह है कि स्त्रो के विषयमें मनकी प्रवृत्ति होनेसे चारित्रकी मलिनता आदि बहुतेरे दोष उत्पन्न होते हैं। उन दोषोंका विचार करके मुनि अपने मन को उस तरफसे हटाता हुआ समप्रेक्षाका अवलम्बन करके उसीप्रकार रागरहित होजावे जिस प्रकार स्त्रीको देखनेके पहले था। સંયમ–માર્ગમાં વિહાર કરતા ત્યાગી મુનિનું મન, સ્ત્રી આદિને જોવાથી જે વિચલિત (माडी) थ य तो तन रावाने भाटे पाय मताव छ–'समाए.' त्याह, રાગદ્વેષ રહિત સમતાપૂર્વક વિચારતાં શ્રમણ્યમાં સ્થિત મુનિનું મન સ્ત્રી આદિને દેખતાં મેહનીય કર્મના ઉદયથી કદાચિત પહેલાં ભગવેલા ભેગનું મરણ થઈ જવાથી અથવા વિષય સેવનની ઈચ્છા થવાથી સંયમરૂપી ઘરની બહાર નીકળી જાય છે તે સમયે સાધુએ વિચારવું જોઈએ કે હું જેની અભિલાષા કરું છું તે રત્રી નથી મારી કે નથી હે તેનેૉ. એવા વિચાર કરીને એ સ્ત્રી પ્રત્યેના વિષયને રાગભાવ દૂર કરે જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે સ્ત્રીના વિષયમાં મનની પ્રવૃત્તિ થવાથી ચારિત્રની મલિનતા આદિ અનેક દોષ ઉત્પન્ન થાય છે. એ દેને વિચાર કરીને મુનિ પિતાના મનને તે તરફથી પાછું હટાવતાં સમપ્રેક્ષાનું અવલંબન કરીને એ રાગરહિત થઈ જાય કે જે તે સ્ત્રીને દેખતાં પહેલાં હતો. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका-समया-रागद्वेषपरिणतिरिक्तया स्वतुल्यया, प्रेक्षया प्रेक्षतेऽनयेति करणव्युत्पत्तिबलाद् दृष्टया, परिव्रजतः विहरतः प्रोक्तरूपश्रामण्ये स्थितस्येत्यर्थः मनः-हृदयं, स्यात्-कदाचित् मोहनीयकमेप्रकृत्युदयवशाद् भुक्तभोगतया पूर्वकृतरत्यादिस्मरणेन तदन्यथात्वे विषयसेवनवाञ्छया वा, बहिः संयमयोगा -द्वाद्य विषयादौ निः सरति-निगच्छति, अथ किं कर्तव्यं १ तदाह 'न सा' इति, सा-परिचिन्त्यमाना स्त्री न मम, अपि-च अहमपि तस्याः परिचिन्त्यमानायाः स्त्रियाः न, इत्येवम् अनया रीत्या, तस्याः =अभिलष्यमाणायाः स्त्रियास्तत्सम्बन्धिनमित्यर्थः, रागम् दुरभिलाषं, विनयेत-दुरीकुर्यात् । ___ वनिताविषये प्रसृतं मनस्तदीयरागसंबन्धिबहुतरदोषानुचिन्तनेन ततो निवर्तयन् मुनिः समां प्रेक्षामवलम्ब्य वनितादर्शनात् प्रागिव रागशून्यो भवेदिति भावः । दोषानुचिन्तनं यथा-"रे चित्त ! चारित्रस्य प्राणभृतं ब्रह्मचर्यं यावज्जीवनमनुपालयितुं कृतप्रतिज्ञस्य तव स्वकृतप्रतिज्ञापरित्यागोद्यमे कुतो न लज्जासमुद्भवः ? यदा संसारदाव दहनपरितप्तस्य तव कोऽपि लोके शरणं नाभूत् तदा यानेव विषयान् परित्यज्य जिनेन्द्रप्रतिपादितं चारित्रधर्म शिरसाऽङ्गीकृत्य त्वया निरस्तः सकलः सन्तापः, किमिदानीं पुनर्वान्तावलेहीश्वेव भवेत्ताननुस्मरद् विरमरस्यात्मानम् ? । दोषों का विचार इसप्रकार करे-रे मन ! चारित्रके प्राणोंके समान ब्रह्मचर्यको यावत्जीवन पालन करनेकी तूने प्रतिज्ञा की है। पहले की हुई प्रतिज्ञा अब परित्याग करते तुझे लज्जा नहीं आती ? जिस समय त् संसाररूपी तीव्र दावाग्निसे संतप्त हुआ और लोकमें कोईभी तुझे न बचा सका उस समय जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित चारित्र धर्मको तूने स्वीकार किया और जिन हेय-विषयोंसे मुख मोड़कर सकल जंजाल छोड़ दिये उन्हीं विषयोंको वमनचाटनेवाले श्वानके समान फिर स्वीकार करना चाहता है ! ऐ अधम मन ! अपने स्वरूप का विचार कर । अरे मन ! देख; ब्रह्मचर्यकी महिमासे ही लोकमें पूजे जानेवाले सुरेन्द्र असुरेन्द्र और नरेन्द्रोंके द्वारा तू पूज्य संमाननीय हुआ है, ऐसे अमितमहिमावाले ब्रह्मचर्यको भी तू क्यों भूल गया है ? कहा भी है દેને વિચાર આ પ્રમાણે કરે-હે મન ! ચારિત્રના પ્રાણ સમાન બ્રહ્મચર્યને જીવનપયત પાળવાની તેં પ્રતિજ્ઞા કરી છે. પહેલાં કરેલી પ્રતિજ્ઞાને હવે પરિત્યાગ કરતાં તને શરમ નથી આવતી ? જે સમયે તું સંસારરૂપી તીવ્ર દાવાનળથી સંતપ્ત થશે અને લોકમાં કઈ પણ તને બચાવી ન શકયું, તે સમયે શ્રીજીનેન્દ્ર ભગવાને પ્રરૂપેલા ચારિત્ર ધમને તે સ્વીકાર કર્યો અને જે હેય વિષયેથી વિમુખ થઈને બધી જંજાળને છેડી દીધી, તેજ વિષયને વમનચાટનારા શ્વાનની પેઠે ફરીથી તે સ્વીકાર કરવા ચાહે છે ? અધમ મન ! તારા પિતાના સ્વરૂપને તું વિચાર કર. અરે મન ! જે; બ્રહ્મચર્યના મહિમાથી જ, લેકમાં પુજાતા સુરેન્દ્ર અસુરેન્દ્ર અને નરેન્દ્રોની દ્વારા તું પૂજ્ય સંમાનનીય થયા છે. એવા અપારમહિમાવાળા બ્રહ્મચર્યને પણ તું भ भूटी गये। छे १ ४ ५४ छ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोषानुचिन्तनम् अरे ! विस्मृतः किं ब्रह्मचर्यमहिमा ? यत्प्रभावेणाऽल्पीयसैव कालेन लोकपूजितैरपि सुरासुरमनुजेन्द्रैः पूज्यमानमसि पुनः किं तदेव विस्मरसि ? । इदमप्यनुचिन्तय" चिरायुषः सुसंस्थाना, दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः || १||" इति । अपिच अनवाप्तपरमार्थतत्त्वास्वादनसुखानां संसाराभिनन्दिनां विषयामिषोपभोगसुखकामुकानामविवेकिनामेव कामिनी कमनीया भवतु नाम, परन्तु एतदीयानुरागपरिणामदारुणतां विस्मरतस्तवापि किं संयताग्रगणनीयताऽभिलाषो नोपहासाय जायेत ? | अरे मूढ़ ! अस्याः खलु विलासकलाकलापवैदुष्यं विलोक्य लुब्धकप्रसारितजाले कुरङ्ग इव, मार्गवर्तिनि गर्ते तुरङ्ग इव, ज्वलति प्रदीपे पतङ्ग इव किमात्मानं निरये निपातयसि १ । अहो ! अयोमयशृङ्खलामप्यधरयति रागपाशः, यत् खलु मधुपः कठिनतरकाष्ठकृन्तनदक्षोऽपि न क्षमो भवति संकुचितकमलपुष्पानुरागनिबद्धमात्मानं परित्रातुम् । ९१ " ब्रह्मचर्य से दीर्घ आयु, सुन्दर आकार, और दृढ संहनन प्राप्त होते हैं, ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य, तेजस्वी और महाशक्तिशाली होते हैं" ॥१॥ हे जीव ! किंपाकफल सरीखे विषयभोग सुगन्ध, सुरूप, सुशब्द, और सुस्पर्श अविवेकी जीवों को भलेही मनोहर लगे, पर तूंतो संयमियो में श्रेष्ठ बनना चाहता है फिर इनमें अनुराग करने से जो भयंकर फल उत्पन्न होते हैं उन्हें क्यों भूल जाता है ? इससे तेरी वह उच्च अभिलाषा क्या हास्यास्पद नहीं होगी ? अवश्य होगी । अरे मूढ ! जैसे व्याध (शिकारी) के फैलाए हुए जालमें कुरंग (हरिन) फंस जाता है; रास्ते के गड्ढे में तुरंग गिर जाता है; जलते हुए दीपककी ज्वालामें पतंग गिर पड़ता है वैसेही ath हास विलास और हाव-भाव की चतुराई देखकर क्यों अपनी आत्माको नरक में गिराता है । अहो ! इस राग के बन्धनके आगे लोहकी बेड़ीभी तुच्छ है; देखो, भौंरा कठिन से कठिन “हाय थी दीर्घ आयुष्य सुंदर भाऊर, भने दृढ संहनन प्राप्त थाय छे, ब्रह्मચ`થી જ મનુષ્ય દિવ્ય તેજસ્વી અને મહાશકિતશાલી થાય છે.’' (૧) હું જીવ ! કિપાકફળ જેવા વિષયલેગ, સુંદર, સુરૂપ, સુશબ્દ અને સુર્પ અવિવેકી જીવાને ભલે મનેાહર લાગે, પરન્તુ તુ તે સયમીએ'માં શ્રેષ્ઠ બનવા ઈચ્છે છે, તે પછી એમાં અનુરાગ કરવાથી જે ભયંકર ફળ ઉત્પન્ન થાય છે તેને કેમ ભૂલી જાય છે ? તેથી તારી એ ઉચ્ચ અભિલાષા શુ· હાસ્યાસ્પદ નહિ થાય ? અવશ્ય થશે. अरे भूढ ! प्रेम व्याघे ( शिमरीथे) ऐसावेसी लगभांडुरंग ( २ ) इसाई लय छे. રસ્તામાંના ખાડામાં તુરંગ (ઘેાડા) પડી જાય છે, ખળતા દીવાની જવાળામાં પત’ગ હોમાઈ જાય છે, તેમ સ્ત્રીના હાસ્યવિલાસ અને હાવભાવની ચતુરાઈ જોઇને કેમ તારા આત્માને નરકમાં પાડે છે ? અહા ! આ રાગના ખંધનની આગળ લેાઢાની ખેડી પણ તુચ્છ છે. જીએ ! ભમરા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे ___ इह बाह्यरमणीयतास्पदे, नितान्ताशुचिपदे, चपलावत्प्रतिपलचपलरूपलावण्ये, योषिदपधने किमिव नाम शोभनं विद्यते, यद् बालविधुलेखेव, अमृतावयवनिर्मितेव, चन्द्रमण्डलादुद्भतेव, इयं नीलकमलदेलायताक्षी १सहावनयनाभ्यां जीवलोकमाश्वासयन्तीव कमनीया निरीक्ष्यते । अनालोच्य प्रवर्तमानः खलु पराभूयते, तस्मादियदपि तावद् विभावय विलासिनीविलसनं कुतः स्थानादिदमुद्भवति ? किं चास्य कारणम् ? कथमिदं तिष्ठति ? किमेतस्मान्निःसरत् सततं दरीदृश्यते ? इति, विरम विरमात्रानुरागकरणात् अस्य हि शरीरस्य मूत्राद्युपहतमुद्भवस्थानम् , शुक्रकाष्ठको काट डालनेमें कुशल होता हैं परन्तु सूर्यके अस्त होजाने पर संकुचित कमल पुष्पके अनुरागके बन्धनमें बंधी हुई अपनी आत्माकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं होता । इसलिए हे मन ! ऐसे रागमें फंसने की इच्छा क्यों कर रहा हैं ? ऐ जीव ऊपर-ऊपर से मनोहर मालूम होनेवाले, अत्यन्त अपवित्रताके स्थान, चपला (बिजली) की नाई पल-पलमें चपलरूप-लावण्यवाले, स्त्रोके शरीर में तुझे क्या अच्छापन दिखाई देता है ? जिससे तु उसे यह समझ रहा है कि-मानो वह द्वितीयाके चंद्रमाकी कला हैं, अमृतके अवयवोंसे बनी हुई है, चन्द्रमाको फाड़कर निकल पड़ी है, नीलकमलके दल (पत्ता) के समान विशाल नेत्रवाली, तथा लीलायुक्त लोचनोंसे लोकको अवलम्बन देनेवाली मनोहर दीख पड़ती है। हे आत्मन् ! स्मरण रख, जो बिना बिचारे किसी विषयमें प्रवृत्ति करता है उसकी बड़ी કઠિનમાં કઠિન કાષ્ઠને કાપી નાંખવામાં કુશળ હોય છે પરંતુ સૂર્યને અસ્ત થતાંની સાથે જ બીડાયેલા કમળ-પુષ્પના અનુરાગના બંધનમાં બંધાયેલે પિતાના આત્માની રક્ષા કરવામાં સમર્થ નથી બનતો. તે હે મન ! એવા રાગમાં ફસાવાની ઈચ્છા કેમ કરી રહ્યો છે? હે જીવ ! ઉપર ઉપરથી મને હર માલુમ પડતા, અત્યંત અપવિત્રતાનું સ્થાન વિજળીની પેઠે પલ-પલમાં ચપળ રૂપ-લાવણયવાળા સ્ત્રીના શરીરમાં તને કઈ સુંદરતા દેખાય છે? કે જેથી હું તેને માની રહ્યો છે કે-આ બીજના ચંદ્રમાની કલા છે. અમૃતના અવયવોથી બનેલી છે, ચંદ્રમાને ફાડીને નીકળી પડી છે, નીલ કમળનાં દળ (પાંદડીઓ)ની સમાન વિશાળ નેત્રવાળી તથા લીલાયુકત લોચનથી લેકને અવલંબન આપનારી મનહર દેખાય છે. १ स्त्रीचेष्टाविशेषो हावस्तेन सहिते-सहावे ते च ते नयने च-सहावनयने ताभ्यामित्यर्थः। १ सूर्य डूबनेके बाद, कमलके भीतर पड़ा हुआ भौंरा, तकलीफ सहकर सारी रात बिताता है किन्तु अनुराग (प्रीति) केकारण, कमलके कोमल (मोलायम) पत्तोंको भी काटकर उस तकलीफको रफा करनेका साहस नहीं कर सकता ॥ ૧ સૂર્ય અસ્ત પામ્યા પછી કમળની અંદર ગોંધાઈ ગએલો ભમરો તકલીફ સહન કરીને આખી રાત વિતાવે છે, પરંતુ અનુરાગ (પ્રીતિ) ને કારણે કમળની કોમળ (મુલાયમ) પાંદડીઓને કાપી નાખીને એ તકલીફ દૂર કરવાનું સાહસ નથી કરી શકતો. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा० ४ काम रागदोषानुचिन्तनम् ९३ शोणिते एव कारणम्, अशितपीतादिना च स्थितिः, एतस्मान्निःसरीसतिं च मलसूत्रादिकमेव, किंबहुना मृदुतममनोरमवसन त्रिनिर्मितया मलमूत्रास्थिकफादिपोलिकया न पामरोऽपि, रज्यते, का कथा पुनर्भावनाकुशलानां मुनीनाम् । उक्तञ्च - "अम्भः कुम्भशतैर्व पुर्ननु बहिर्मुग्धाः शुचित्वं कियत् ; कालं लम्भयथोत्तमं परिमलं कस्तूरिकाद्यैस्तथा । विष्ठाकोष्ठकमेतदङ्गकमहो ! मध्ये तु शौचं कथ, - ! ङ्कारं नेष्यथ सूचयिष्यथ कथङ्कारं च तत्सौरभम् " ॥१॥ अन्यच्च - "विरम विरम संगान्मुञ्च मुञ्च प्रपञ्च, विसृज विसृज मोहं विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम् । दुर्गति होती है । तू अपना कल्याण चाहता है तो विलासिनियों के विलासका अच्छी तरह विचार करले | यह सोच देख कि यह शरीर कहांसे उत्पन्न होता है ? इसका क्या कारण है ? कैसे ठहरता है ? और इससे क्या २ घिनौने ( घृणाजनक ) पदार्थ निकलते हुए दिखाई देते हैं ? बस कर, रहनेदे; इस शरीर में अनुराग मत कर, मलमूत्र से भरे हुए स्थान से यह शरीर उत्पन्न हुआ है, रज-त्री इसके कारण हैं । खाया पीया भोजन इसकी स्थितिका निमित्त है, और इसके नौ द्वारोंसे मल-मूत्र आदि घृणित पदार्थ निकला करते है, अधिक क्या कहें ? कोमल और मनोहर कपडेसे बंधी हुई मल-मूत्रको गठरी में पामर प्राणोभो अनुराग नहीं करता, फिर अशुचि आदि भावनाओं का समीचीन चिन्तन करनेमें चतुर मुनियों का कहना ही क्या है ? वे तो उस ओर आंख नहीं उठाते। कहा भी है । " शरीरको सैंकड़ों घड़ों से चाहे जितना नहलाओ धुलाओ, और केशरी कस्तूरी गुलाब आदि की सुगन्धसे सुगन्धित करो, परन्तु यह शरीर तो मल-मूत्रका भाजन है । हे भयो ! इसे હું આત્મન્ ! યાદ કર કે, જે વિના વિચારે કોઈ વિષયમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે તેની ભારે. ફુગતિ થાય છે. તુ પેાતાના કલ્યાણુને ચાહે છે તે વિલાસિનીએના વિલાસના સારી પેઠે વિચાર કરી લે. એટલું વિચારી જો કે આ શરીર કયાંથી ઉત્પન્ન થયું છે ? એનું શું કારણ છે ? તે કેવી રીતે ટકે છે ? અને એમાંથી કેવા કેવા ગંધાતા (ઘૃણાજનક) પદાર્થો નીકળતાજોવાનાં આવે છે ? બસ કર, રહેવા દે; આ શરીરમાં અનુરાગ ન કર, મળમૂત્રથી ભરેલા સ્થાનમાંથી મ शरीर उत्पन्न थयुं छे, २०४ - वीर्य मेनु र छे, मासु - पाधे लोभन, योनी स्थितिनु નિમિત્ત છે, અને તેનાં નવા દ્વારા વાટે મળ-મૂત્ર આદિ ધૃણિત પદાર્થોં નીકળ્યા કરે છે. વધારે શુ કહીએ ? કામળ અને મનેાહર કપડાંથી બાંધેલી મળમૂત્રની ગાંસડીમાં પામર પ્રાણી પણ અનુરાગ નથી કરતા, તે પછી અશુચિ આદિ ભાવનાઓનું સમીચીન ચિંતન કરવામાં ચતુર મુનિઓની તે શી વાત ? તેએ તે તેની તરફ ઉંચી આંખે જોતા પણ નથી. उछु छे - એ, અને કેશર કસ્તૂરી “શરીરને સેંકડો ઘડા પાણીથી ચાહે તેટલુ ન્હેવરાવા, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिकसूत्रे कलय कलय वृत्तं पश्य पश्य स्वरूपं, ___कुरु कुरु पुरुषार्थ निर्वृतानन्दहेतोः ॥२॥ इति," अपरश्च-"अमेध्यपूर्णे कृमिजालसङकुले, स्वभावदुर्गन्धविनिन्दितान्तरे । __ कलेवरे मूत्रपुरीषभाविते, रमन्ति मूढा विरमन्ति धीराः ॥३॥" इति । यद्यपि संसारभीरुभिः परिहेयोऽन्यसङ्गो दुस्त्यजः, तथापि ब्रह्मचर्यमहिमानमनुस्मरतां मुनीनां केवलं स्त्रीसङ्गपरिहारेण द्रव्यादिसङ्गः स्वयमेव निवर्तते । यथा स्वयम्भूरमणमहासागरमुत्तीर्णस्य पुरतः क्षुद्राकृतिर्गङ्गासमानाऽपि नदी मुखसमुत्तरणीया भवति । उक्तश्च भगवता उत्तराध्ययनसूत्रस्य द्वाविशेऽध्ययने “एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव हवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा । १॥” इति, कैसे पवित्र बनाओगे १ और कैसे इसकी सुगन्धि फैलाओगे', ॥१॥ "हे आत्मन् ! तू स्त्री आदिकी ममतासे विरक्त हो विरक्त हो, मोहका त्यागकर त्यागकर, आत्माके स्वरूपको पहचान पहचान, और मोक्षसुखके लिए पुरुषार्थ कर पुरुषार्थ कर" ॥२॥ "अशुचि पदार्थों से भरा हुआ, जूं आदि कीड़ोसे व्याप्त, स्वाभाविक दुर्गन्धके कारण भीतर भी घृणित और मल-मूत्रसे वेष्टित (स्त्रियोंके) शरीरमें रमण वे करते हैं जो मूढ हैं, और बुद्धिमान् पुरुष महान् निकृष्ट समझ कर उससे अलग रहते हैं ॥३॥" यद्यपि विषयोंके संग संसारभीरु पुरुषोंके लिए त्याज्य हैं और उनका त्याग होना कठीन है, तथापि ब्रह्मचर्यकी महिमाका स्मरण करनेवाले मुनियोंको एक मात्र स्त्रीसंगके त्याग देनेसे अन्य विषयोंके संग दुस्त्यज होनेपर भी स्वयमेव निवृत्त हो जाते हैं। अर्थात् ब्रह्मગુલાબ આદિની સુગંધથી સુગંધિત કરે, પરંતુ આ શરીર તે મળ-મૂત્રનું ભાજન છે. હે ભવ્ય ! તેને કેવી રીતે પવિત્ર બનાવશે ! અને કેવી રીતે તેના પરાગ (ફેરમ) ને इसापा " (१) “હે આત્મન ! તું સ્ત્રીઆદિની મમતાથી વિરક્ત થા વિરક્ત થા, મેહનો ત્યાગ કર ત્યાગ કર, આત્માના સ્વરૂપને જાણ, ચારિત્રને અભ્યાસ કર અભ્યાસ કર પિતાને પિછાણ, અને મેક્ષ સુખને માટે પુરૂષાર્થ કર પુરૂષાર્થ કર ” (૨) અશુદ્ધ પદાર્થોથી ભરેલાં, જુ-આદિ કીડાઓથી વ્યાસ, સ્વાભાવિક દુર્ગધિને કારણે અંદર પણ ધૃણિત અને મળ-મૂત્રથી વેષ્ટિત (સ્ત્રીઓના) શરીરમાં તેઓ રમણ કરે છે કે જેઓ મૂઢ છે, અને બુદ્ધિમાન પુરૂષ તે તેને અત્યંત નિકૃષ્ટ સમજીને તેનાથી અલગ रहे छ." (3) - જે કે વિષનો સંગ સંસારમીર પુરૂષોને માટે ત્યાજ્ય છે અને તેને ત્યાગ થે કઠિન છે, તે પણ બ્રહ્મચર્યના મહિમાનું સ્મરણ કરનારા મુનિઓને એક માત્ર સ્ત્રીસંગને १ यहां प्रत्येक कर्त्तव्यको दुहरानेसे अत्यन्त तीव्र प्रेरणा प्रगट होती है । ૧. અહીં પ્રત્યેક કર્તવ્યને બેવડાવવાથી અત્યંત તીવ્ર પ્રેરણા પ્રકટ થાય છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा० ३ कामरागदोषानुचिन्तनम् ९५ इयं दृष्टिविषा नागीव सन्दर्शनादेव संयमिनां शमलक्षणं जीवनं विनिहन्ति । अथवा किमियं प्रगाढ़ान्धकारा रजनी ? यदत्रोलूका इव चत्वारः कषाया विचरन्ति, अज्ञानपिशाचश्चात्र चारित्रलक्षण गुणशरीरग्रसनाय जागरुको लक्ष्यते । हे चित्त - सहर ! ज्ञानप्रकाशेन रागान्धकारमपनीय रात्रिकृतोपसर्गं निवारयता भवता मदीयसाहाय्यं क्रियताम् । अपि चेदं भावनीयम् - मुनीनां कृते ब्रह्मचर्यपरित्यागो महानर्थकरः, तथा ब्रह्मचर्य परित्यागेच्छायामपि सत्यां बहवो दोषा विविधशस्त्रास्त्रधारिणः प्रबलशव इव समुत्तिष्ठन्ति । तत्रादावार्त्तरौद्रध्यानं हृदये पदमारोपयति, तस्मिंश्व विद्यचर्यमें दृढ़ रहनेवालों पर कोई भी विषय, अपना प्रभाव नहीं डाल सकता । जो पुरुष स्वयम्भूरमण महासमुद्रको पार कर चुका है उसके लिए गंगा जैसी छोटी २ नदियां पार करना क्या बड़ी बात है ? भगवान्ने उत्तराध्ययन सूत्रके ३२ वें अध्ययनमें 'एए य संगे' इस गाथासे यही प्रतिपादन किया है || जैसे जिस नागिन की दृष्टिमें विष होता है उसके देखनेसे ही जीवनका अन्त होजाता है, इसी प्रकार स्त्रीके भी सानुराग देखनेसे चारित्ररूपी जीवन नष्ट होजाता है । अथवा यह कैसी प्रगाढ़ अन्धकारमय रजनी है, जिसमें चारों कषायरूपी उल्लुओं का राज्य है, और चारित्र रूपी शरीरको निगलनेके लिए अज्ञानरूपो पिशाच सदा ताकता रहता है है मित्र मन ! ज्ञानके प्रकाशसे रागरूपी अन्धकारको निवारण कर, स्त्रीरूपी रात्रि द्वारा किये गए उपसर्गको हटाने में मेरी सहायता कर । ब्रह्मचर्या परित्याग करना मुनियों के लिए महान् अनर्थ करनेवाला है । यहाँ तक कि ब्रह्मचर्य परित्याग करनेकी इच्छा होते हो बहुत से दोष इस प्रकार आ खड़े होते हैं। ત્યાગ કરવાથી, અન્ય વિષયાંના સંગ હૃત્યજ હાવા છતાં પણ અપેઆપ નિવૃત્ત થઈ જાય છે. અર્થાત્ બ્રહ્મચર્યંમાં દૃઢ રહેનારાએ પર કોઇ પણ વિષય પેાતાને પ્રભાવ પાડી શકતા નથી. જે પુરૂષ સ્વયમ્મૂરમણ મહાસમુદ્રને પાર કરી ચૂકયા છે તેને માટે ગંગા જેવી નાની નાની નદી પાર કરવામાં શી માટી વાત છે ? ભગવાને પણ ઉત્તરાધ્યયન–સૂત્રના ૩૨ મા અધ્યયનમાં પ ય બંને એ ગાથાથી એજ પ્રતિપાદન કર્યું' છે. જેવી રીતે જે નાગણીની દૃષ્ટિમાં વિષ હાય છે તેને જોવાથી જ જીવનને અંત આવી જાય છે, તેવી રીતે સ્ત્રીને અનુરાગપૂર્વક જોવાથી ચારિત્રરૂપ જીયન નષ્ટ થઈ જાય છે. અથવા એ કેવી ગાઢ અધકારમય રાત્રિ છે કે જેમાં ચાંરે કષાયારૂપી ઘુવડાનુ* રાજ્ય છે, અરે ચારિત્રરૂપી શરીરને ગળી જવાને માટે અજ્ઞાનરૂપી પિશાચ સદા તાકી રહેલા છે. હૈ મિત્ર મન ! જ્ઞાનના પ્રકાશથી રાગરૂપી અંધકારનું નિવારણ કર, અને સ્ત્રીરૂપી રાત્રિથી ઉત્પન્ન થતા ઉપસને હઠાવવામાં મને સહાય કર. બ્રહ્મચય ને! ત્યાગ કરવા એ મુનિઓને માટે મહાન્ અનથકારક છે; એટલે સુધી કે પ્રાચય ત્યજવાની ઇચ્છા થતાં જ અનેક દોષા એવી રીતે આવીને ખડા થાય છે, જાણે કે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसने माने प्रमादः साहस-मज्ञान मधर्मो-ऽसिद्धिस्तथाऽन्येऽपि दोषाः समायान्ति । अब्रह्मचर्यस्य सकलप्रमादस्थानत्वेन प्रमादः, अविचारित कार्यकरणबुद्धिसमुत्पादकत्वेन साहसं, बोधिबीजविनाशकत्वेन अज्ञानम् , अधोगतिकारकत्वेन अधर्मः, अष्टविधकर्मजनकत्वेन असिद्धिश्च. एते दोषाश्चेतोगृहे संयमरत्नापहाराय यथेच्छमाशु प्रविशन्ति । किश्च --विषयरागः, सकलपापानां निदानम् ; कुठार इव चारित्रतरं छिनत्ति, कज्जल इव मलिनयति स्वच्छमम्बरमिवात्मानम् , भवति चार्गला मोक्षमार्गद्वारस्य नरकनिगोदाधनन्तदुःखानाञ्च निधानमिति सर्वथा तमपहाय पराञ्चयति चश्चत्तपःसंयमाचरणचतुरास्तपस्विनः । ननु बहवो मन्त्रास्तथाविधाः सन्ति ये देवानां दानवानामुपरि प्रभावमाविमानो अनेक अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रबल शत्रु आ डटे हों । पहले पहल तो आर्तध्यान और रौद्रध्यान हृदयमें स्थान पा लेते हैं । इनके स्थान पाते ही प्रमाद, साहस, अज्ञान, अधर्म, असिद्धि आदि अनेक दोष उपस्थित होते हैं । अब्रह्मचारीको प्रमादके सब कारण मौजूद रहते हैं इसलिए प्रमाद, बिना विचारे कार्य करनेसे साहस, बोधिरूपी बीजका विनाशक होनेसे अज्ञान, अधोगतिमें लेजानेके कारण अधर्म, और आठों कौका जनक होनेसे असिद्धि, और इस प्रकारके अनेक दोष शत्रुकी तरह चित्तरूपी घरमें संयमरूपी रत्नको लूटनेके लिए इच्छानुसार प्रवेश कर जाते हैं। विषयराग सकल पापों का मूल कारण है; चारित्र-वृक्षको, काटने के लिए कुठार है; जिस प्रकार कज्जल, सफेद वस्त्रको मलिन कर देता है उसी प्रकार आत्माको मलिन करने वाला है; मुक्ति के मार्गकी अर्गला है, नरक निगोदके दुःखों का निधान है और विविध व्याधियों का उत्पत्तिस्थान है, अतएव तप और संयमके पालनेमें चतुर तपस्वी लोग इस (विषयराग) को बिलकुल छोड़कर अलग होते हैं । અનેક અસ્ત્ર-શસ્ત્ર લઈને પ્રબળ શત્રુઓ આવી પહોંચ્યા હોય. પહેલાં તે આર્તા–ધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન હૃદયમાં સ્થાન જમાવી લે છે. તેને સ્થાન મળતાં જ પ્રમાદ, સાહસ, અજ્ઞાન, અધમ અસિદ્ધિ આદિ અનેક દેશે આવી ઊભા રહે છે. અબ્રહ્મચારીની સમીપે પ્રમાદનાં બધાં કારણે હાજર રહે છે. એથી પ્રમાદ, વગર વિચારે કાર્ય કરવાથી સાહસ, બધિરૂપી બીજનું વિનાશક હોવાથી અજ્ઞાન, અધોગતિમાં લઈ જવાને કારણે અધમ, અને આઠે કર્મોનું જનક હોવાથી અસિદ્ધિ અને એવા જ બીજા અનેક દે શત્રુની પેડે ચિત્તરૂપી ઘરમાં સંયમરૂપી રત્નને લૂંટી લેવાને ઈચ્છાનુસાર प्रवेश रैछे. વિષયરાગ બધાં પાપનું મૂળ કારણ છે; ચારિત્ર વૃક્ષને કાપનારો કુહાડો છે. જેમ કાગળ સફેદ વસ્ત્રને મલિન કરી નાખે છે તેમ આત્માને મલિન કરનાર છે; મુક્તિના માર્ગની અર્ગલા છે, નરક નિદનાં દુઃખનું નિશાન છે, અને વિવિધ વ્યાધિઓનું ઊંત્પત્તિસ્થાન છે. તેથી કરીને તપ અને સંયમને પાળવામાં ચતુર એવા તપસ્વી લકે આ (વિષયરાગ)ને બિલકુલ છોડીને તેથી દૂર જતા રહે છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोषानुचिन्तनम् र्भावयन्ति, परन्तु किमेतदाश्चर्यम् ? यत् स्त्रीणां चरित्रे तेऽपि मन्त्रा हतप्रायाः किमपि कर्तुं न प्रभवन्ति । अथासां चरित्रस्यैतादृशप्रभावशालिता, यत्पुरतो मन्त्रा अपि पराभूय निवर्त्तन्ते तर्हि क उपायस्तदुद्भावितरागरज्जुकर्तनाय संयताना -१ -मिति चेत्, हन्त ! हृदय-सहचर 1 योषित्सविधसंस्थितिपरित्याग एव तदीय-चरित्राऽऽपादितरागभङ्गोपाय इति धारणामुपैहि । उक्तञ्च - " शृणु हृदय ! रहस्यं यत्प्रशस्तं मुनिनां न खलु न खलु योषित्संनिधिः संविधेयः । हरति हि हरिणाक्षी क्षिप्रमक्षिक्षुरप्रैः, पिहितमतनुत्रं चित्तमप्युत्तमानाम् ॥१॥ शास्त्रज्ञोsपि प्रकटविनयोऽप्यात्मबोधेऽपि गाढः, संसारेऽस्मिन् भवति विरलो भाजनं सद्गतीनाम् । येनैतस्मिन् निरयनगरद्वारमुद्घाटयन्ती, वामाक्षीणां भवति कुटिला भ्रूलता कुश्चिकेव" ॥२॥ जो मन्त्र, देवों और दानवों पर भी अपना प्रभाव शीघ्रहो दिखालाते हैं वे भी attनित राग पर प्रभाव नहीं डाल सकते । यह बड़ें आश्चर्यकी बात है । स्त्रियों का चरित्र इतना प्रभावशाली होता है कि उसके सामने मन्त्र भी प्रभावहीन हो जाते हैं तब उनके विषयमें उत्पन्न होनेवाले राग-रज्जुको काटनेके लिए मुनियों को क्या उपाय करना चाहिये ? हे हृदय - सुहृद् ! स्त्रियोंके समीप रहनेका त्याग करदेना ही उनके विषयमें होनेवाले प्रेम-पाशके काटने का उपाय है । कहा भी है "ऐ मन ! मुनियोंकी आत्माका कल्याण करनेवाले रहस्यको सुन, वह यह है कि - स्त्रियोंका सम्पर्क (संसर्ग) सर्वथा नहीं करना चाहिये, क्योंकि शम-रूप कवच पहने हुए उत्तम पुरुषोंके अन्तःकरणको भी स्त्रियां अपनी आंखेरूपी छुरी की धारसे छिन्न-भिन्न कर डालती हैं" ॥१॥ જે મંત્ર, દેવા અને દાનવા પર પણ પોતાના પ્રભાવ તુરત મતાવી આપે છે, તે મંત્ર પણ સ્ત્રીજનિત રાગ પર પ્રભાવ પાડી શકતા નથી, એ માટા આશ્ચયની વાત છે. સ્ત્રીઓનુ’ ચરિત્ર એટલુ· પ્રભાવશાળી હોય છે કે તેની સામે મત્ર પશુ પ્રભાવહીન બની જાય છે. તા તેના વિષયમાં ઉત્પન્ન થનારા રાગરજ્જુને કાપવા માટે મુનિએએ કર્યેા ઉપાય કરવા જોઈએ ? હું હૃદય-સુહૃદુ ! સ્ત્રીઓની સમીપે રહેવાનુ' છેડી દેવું એજ એના વિષયમાં ઉત્પન્ન થતા પ્રેમપાશને કાપવાના ઉપાય છે. કહ્યુ છે કે—હૈ મન ! મુનિઓના આત્માનું કલ્યાણ કરનારા રહસ્યને શ્રવણુ કર. તે આ પ્રમાણે છે— “स्त्रीयोनो सौंप (संसर्ग) सर्वथा न वो ये भरा है शमइया उवय पढेરેલા ઉત્તમ પુરૂષાના અંતઃકરણને પણ સ્ત્રીએ પેાતાની આંખારૂપી છુરીની ધારથી છિન્નलिन्न श्री नाचे छे." ॥१॥ १३ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे वस्तुतस्तु इहाऽनादिसंसारे स्वस्मिन्नपि शरीरे जीवस्य किं नाम स्वातन्त्र्यम् ? दृश्यते हि लोकेऽपकृष्टमनुजपशुपक्षिसरीसृपादिशरीरोपभोगमवाञ्छतोऽपि प्राणिनस्ततदङ्गयोगेन अनावृतदेशावस्थानाऽभिमताऽन्नपानाऽनवाप्तिशीतवातातपोपलवृष्टिदंशमशकादिजनिताऽनेकविधदुर्निवारदुःखोपभोगः सोढव्यो भवतीति, स्वातन्त्र्ये तु न कोऽपि तत्तदङ्गमङ्गीकुर्यात् । अङ्गसंयोग इवाङ्गवियोगेऽपि नास्ति जीवस्य स्वातन्त्र्यम् , तनुवियोगमनिच्छतामपि सुखसमन्वितानां मरणदर्शनात् , तमिच्छतां दुःखदग्धानां विषादिभक्षणेऽप्यैकान्तिकमरणादर्शनाच । "प्रवचनमें प्रवीण, विनयवान् और गंभीर आत्मज्ञानवान् होते हुए भी कोई विरला ही व्यक्ति सद्गतिकी प्राप्ति कर पाता है। क्योंकि संसारमें एक ऐसी कुंजी मौजूद है जो जल्दी नरकका द्वार खोल देती है, वह कुंजी क्या है । स्त्रियोकी टेढ़ी भौंह" ॥२॥ सच है-अनादि-कालीन संसारमें, जीवोंको अपने शरीरमें भी स्वाधीनता नहीं हैं । अपकृष्टमनुष्य पशु पक्षी साँप आदिके हीन शरीरको जो प्राणी चाहते ही नहीं, उन्हें भी वह शरीर धारण करना पड़ता है, और उसके संयोगसे अनिष्ट स्थानका निवास, अन्न-पानकी अप्राप्ति, गर्मी सर्दी ओलोंको वर्षा, हवा, डांस-मच्छर आदिसे होनेवाले अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं। यदि ऐसे शरीरको धारण करना अपनो इच्छा पर निर्भर होता तो कोई भी प्राणो ऐसा दुःखदायी शरीरको धारण न करता। जिस प्रकार शरीर धारणमें जीव स्वाधीन नहीं है उसी प्रकार उसके त्यागनेमें भी स्वाधीन नहीं है । संसारमें जो प्राणो सुखसम्पन्न हैं वे वर्तमान शरीरका त्याग नहीं करना चाहते, फिर भी उनकी मृत्यु हो जाती है । और मृत्युको कामना करनेवाले दुःखी जीव विष आदि भक्षण कर लेते हैं तो भी कभी-कभी बच जाते हैं, अतः सिद्ध हुआ कि अपना शरीरभी अपने अधीन नहीं है। પ્રવચનમાં પ્રવીણ, વિનયવાન અને ગંભીર આત્મજ્ઞાનવાનું હોવા છતાં પણ વિરલ વ્યક્તિ જ સદ્ગતિને પ્રાપ્ત કરી શકે છે. કારણ કે સંસારમાં એક એવી કુંચી મેજુદ છે કે જે જલ્દી નરકનું દ્વાર ખેલી નાંખે છે. એ કુંચી કઈ છે ? સ્ત્રીની વાંકી ભમ્મર. મારા ખરૂં છે. અનાદિકાલીન સંસારમાં, જીવો પાસે પોતાના શરીરની પણ સ્વાધીનતા નથી. અપકૃષ્ટ-મનુષ્ય પશુ પક્ષી સાપ આદિનાં હીન શરીરને જે પ્રાણી ચાહતા જ નથી, તેમને પણ એ શરીર ધારણ કરવાં પડે છે. અને તેના સાગથી અનિષ્ટ સ્થાનને નિવાસ, અન્ન. પાનની અપ્રાપ્તિ, તાપ ટાઢ, કરાનો વરસાદ, હવા ડાંસ-મચ્છર આદિથી ઉત્પન્ન થતાં અનેક પ્રકારના દુઃખ ભોગવવા પડે છે. જે એવા શરીરને ધારણ કરવાનું પિતાની ઈચ્છા પર જ નિર્મર હોત તે કઈ પણ પ્રાણી એવા દુઃખદાયી શરીરને ધારણ ન કરત. જેવી રીતે શરીર ધારણ કરવામાં જીવ સ્વાધીન નથી. તેવી રીતે તેને ત્યજવામાં પણ સ્વાધીન નથી. સંસારમાં જે પ્રાણીઓ સુખસંપન્ન છે તેઓ વર્તમાન શરીરને ત્યાગ કરવા ઈચ્છતા નથી, તે પણ એમનું મૃત્યુ થઈ જાય છે. અને મૃત્યુની કામના કરનારા દુઃખી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा० ४ कामरागदोषानुचिन्तनम् जीवस्य स्वातन्त्र्येण शरीरस्वामित्वे सति अनेकेषां कुसुमसुकुमाराणां सुन्दरावयवानां कतिपयानामतीतदेवादिशरीराणां विनाशः कथं न वारितः तस्माद देहेगेहादि किमपि वस्तु कस्यापि नास्ति, किन्तु अज्ञानवशाज्जीवाः इदं मम, इयं ममे' त्यादिस्वरूपं ममत्वं कुर्वन्तीति निश्चीयते ।। इत्थं च स्वकीयदेहगेहादौ ममत्वकरणमज्ञानमूलं, कर्मबन्धहेतुश्चेति विवेकिनः स्वदेहेऽपि ममत्वं न कुर्वन्ति, किं पुनरन्यदीयदेहगेहादौ-इत्यनुचिन्तनेन समुत्पन्नया "न सा मम, नाहं तस्याः " इत्याकारया विवेकबुद्धया मनसि प्रसृतं रागं प्रशमयेदिति भावः॥ अत्र गाथायां 'परिव्वयंतो' इत्यत्र सौत्रत्वात्षष्ठयर्थे प्रथमा, 'बहिद्धा' इति प्राकृतत्वातू, यद्वा बहिर्धावतीति विग्रहे पृषोदरादित्वाद्वकारादिलोपः। इति गाथार्थः ॥४॥ पूर्वगाथया 'रागव्यपनयः कर्त्तव्यः' इत्युक्तं, स च बाह्यक्रियामन्तरेण न सम्भवतीत्यतस्तत्प्रतिपादनार्थमाह-'आयावयाही' इत्यादि । मूलम्-आयावयाही चय सोगमलं, कामे कमाही कमियं खुदुक्खं । ११, १३, १५ १६ १४ छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए।५। यदि शरीर पर प्राणीका अधिकार हो तो फूल से कोमल तथा सुन्दर अवयववाले अतीतकालीन देव आदिके शरीरके वियोगको क्यों न रोक लेता ? सत्य वात तो यह है कि-देह गेह आदि कोई भी वस्तु किसीकी नहीं है । जीव अज्ञानके कारण 'यह मेरा है' 'यह मेरी है' इस प्रकारकी ममता करते हैं, अत एव शरीरमें ममता करना ही अज्ञान-मूलक और परिग्रह होने से कर्म-बन्धका कारण है, ऐसासमझ कर विवेकी जन अपने शरीर में भी स्नेह नहीं करते तो दूसरेकी देहमें कैसे स्नेह करेंगे ? ऐसा सोच कर, मनमें उत्पन्न हुए भी रागादिको "न वह मेरी है" और " न मैं उसका हूँ" इस प्रकार की भावनासे दूर कर मुनि, उस निकले हुए मनको फिर से संयम-घरमें लावे ॥४॥ એવો વિષ આદિ ભક્ષણ કરી લે છે તો પણ કઈ કઈ વાર બચી જાય છે. એ ઉપરથી સિદ્ધ થયું કે આપણું શરીર પણ આપણને આધીન નથી. જે શરીર પર પ્રાણીને અધિકાર હોત તે ફૂલથીય કેમળ તથા સુંદર અવયવાળા અતીતકાલીન દેવાદિના શરીરના વિયોગને કેમ રેકી રાખત નહિ ? સાચી વાત એ છે કે દેહ ગેહ આદિ કઈ પણ વસ્તુ કેઈની નથી. જીવ અજ્ઞાનને કારણે “આ મારો છે એ “એ મારી છે એ પ્રકારની મમતા રાખે છે. એટલે શરીર પર મમતા રાખવી એજ અજ્ઞાનમલક અને પરિગ્રહરૂપ હોવાને કારણે કર્મબંધનું કારણ છે. એવું સમજીને વિવેકીજન પિતાના શરીર પર પણ સનેહ રાખતા નથી, તે પછી બીજાના દેહ પર કેમ સનેહ કરે ? એમ વિચારીને મનમાં ઉત્પન્ન થયેલા રાગાદિને, “એ મારી નથી” કે “હું તેને નથી” એવી, ભાવનાથી દૂર કરીને, મુનિ સંયમઘરથી બહાર નીકળેલા મનને પાછું સંયમઘરમાં લાવે. (૪) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ___ श्रीदशवकालिकसूत्रे छाया-आतापय त्यज सौकुमार्य, कामान् काम क्रान्तमेव दुःखम् ॥ छिन्धि द्वेषं व्यपनय रागम् , एवं सुखी भविष्यसि सम्पराये ।५। स्त्रीपरसे मोह हटानेका उपाय कहते हैंसान्वयार्थः-आयावयाही-शरीरको तपस्यासे सूखा डालो, सोगमल्लं =सुकुमारता-अमी रीको चय-त्यागो, कामे-विषयकी इच्छाओंको कमाही काबूमें करो-रोको, (ऐसा करनेसे) खु-निश्चय करके दुक्ख-दुःख कमिय-दूर होगा, दोसं-द्वेषको छिंदाहि छेदो नष्ट करो, राग-रागको विणएज्ज-हटाओ-दूर करो; एवं इस प्रकार करने से (तुम) संपराए-संसारमें मुही-सुखी होहिसि-होवोगे ॥५॥ टीका-हे शिष्य ! त्वं श्रामण्ययोगाद्वहिनिर्गतं चित्तं प्रतिरोद्धम् आतापय-शीतोष्णादिसहनो-त्कुटुकासनाधवलम्बना-ऽनशनादिदुष्करतपोविधानैस्तनुं तापय, सौकुमार्य = शरीरसुकुमारतां त्यज परिहर, यद्वा, आतापयेतिपदेन बोधितमेवार्थ विशदयति-सौकुमार्य त्यजेति शरीरसुखसाधने दत्तचित्तो मा भव, शीतवातादिपरीषहसहनयोग्यता सम्पादयेति भावार्थः । कम्यन्त इति कामा: शब्दादिविषयास्तान् काम अतिक्राम-सन्त्यजेत्यर्थः। कामातिक्रमणे सति तु दुःख क्रान्तमेव गतमेव नष्टमेवेत्यर्थः । कामा एव हि दुःखसमुदायनिदानम् । पूर्व गाथामें, उत्पन्न हुए रागका परित्याग करना कहा किन्तु रागका त्याग तप आदि बाह्य क्रियाओंके विना नहीं हो सकता। इसलिए अब उनकी प्ररूपणा करते हैं -'आयावयाहो' इत्यादि, हे शिष्य ! तपस्या कर-आतापना ले, सुकुमारताका त्याग कर, इन्द्रियों के विषयोंमें रागन कर, रागके त्यागसे दुःखोंका नाश होही जाता है। तूं द्वेषका लेश न रहने दे, और रागको छोड़ दे, तो तु संसारमें सुखी अथवा परीषह उपसर्गोंके युद्धमें विजयी होगा। तात्पर्य-हे शिष्य ! श्रामण्ययोग (संयमरूप घर) से बाहर मन निकल जाय तो शीत उष्ण आदि सह कर और उत्कुटकासन आदिका आश्रय लेकर, तथा अनशन आदि तप करके शरीरको सुखा डाल, शरीरकी कोमलताका त्याग कर, अर्थात् अपने शरीरको शीत-आतप प्रभृति परीषह सहने योग्य बना ले, પૂર્વ ગાથામાં, ઉત્પન્ન થએલા રાગને પરિત્યાગ કરવાનું કહ્યું, કિન્તુ રાગને ત્યાગ તપ આદિ બાહ્ય ક્રિયાઓ વિના થઈ શક્તા નથી. તેટલા માટે એની પ્રરૂપણ કરે છે. आयावयाही ईत्याहि. હે શિષ્ય ! તપસ્યા કર–આતાપના લે, સુકુમારતાને ત્યાગ કર ઈદ્રિયોના વિષયમાં રાગ ન કર, રાગના ત્યાગથી દુખોને નાશ થઈ જ જાય છે. તે દ્વેષને અંશ પણ રહેવા ન દે. અને રાગને છોડી દે, તેથી તું સંસારમાં સુખી અથવા પરિગ્રહ ઉપસર્ગો સાથેના યુદ્ધમાં વિજયી થઈશ. તાત્પર્ય એ છે કે-હે શિષ્ય ! શ્રમણ્યાગ (સંયમરૂપી ઘર) થી બહાર ન નીકળી જાય તે ટાઢ-તાપ આદિ પરીષહ અને ઉકુટુક આસન આદિને આશ્રય લઈને, તથા અનશન આદિ તપ કરીને શરીરને સુકાવી નાખ, શરીરની કોમળતાને ત્યાગ કર, અર્થાત પિતાના શરીરને ટાઢ-તાપ આદિ પરીષહ સહેવાને યોગ્ય બનાવી લે. શારીરિક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा० ५ कामरागनिवारणोपायः ननु 'यथा बुभुक्षापिपासादीनामशनपानादिभिरेव निवृत्तिस्तद्वत्कामानामुपभोगेन भविष्यति ? १०१ म्, हे शिष्य ! विषयवासनैव तावत्सकलाऽनर्थमूलम्, विशेषतश्चारित्रमुच्छेदयन्ती रागद्वेषौ दृढीकुरुते । यथा विदेशं गतस्य कस्यचित् प्रेयसो जीवितस्यापि श्रुतायां मरणवार्त्तायां जना रुदन्ति न तथा तस्मिन्मृतेऽप्यश्रुतायां तदीयमरणप्रवृत्तौ तस्माच्चेतोविकृतिरेव मुख्यतः सुखदुःखबन्धहेतुः, विषयवासनायाः समुच्छेदमन्तरेण पुनः पुनरष्टविधानां कर्मणामङ्कुरणं न शक्यते प्रतिरोद्धुं तेषां विषयवासना मूलकत्वात् । उक्तश्च - शारीरिक सुखोंकी सामग्रीमें मन न लगा । जिनकी कामना की जाती है, उन्हें काम कहते हैं, उन कामों (शब्द, रूप, गंध, रस, सरी आदि इन्द्रयविषयों) की अपेक्षा न रख । ऐसा करने से दुःखों का अस्तित्व रह नहीं सकता, उनका नाश ही समझ क्योंकि काम हां दुःखों का कारण है। शंका- हे गुरुमहाराज ! जैसे भोजन करनेसे भूख शान्त हो जाती है, और पानी पीने से प्यास बुझती है, वैसेही विषयों का सेवन करनेसे विषयसेवनको इच्छा भो शान्त हो जायगी तो फिर आतापना आदि बाह्य तप क्यों करना चाहिए ? उत्तर - हे शिष्य ! ऐसी शंका करना उचित नहीं है क्योंकि विषयोंकी वासना ( इच्छा ) ही सब अनर्थोंकी जड़ है, और चरित्ररूपी वृक्षकी जड़ को उखाड़नेवाली है । यह रागद्वेषको दृढ़ करती है । परदेश गया हुआ कोई इष्टमित्र जीवित हो परन्तु उसकी मृत्युका समाचार मिले तो सम्बन्धी लोग रोने लगते हैं, और यदि वह मर जाय किन्तु मरनेका समाचार न मिले तो कोई भी नहीं रोता | इससे ज्ञात होता है कि चित्तका विकार ही सुख दुःखका मुख्य कारण है । इसलिए जब तक मनमें विषयवासना का समूल त्याग नहीं होता तब तक आठ कर्मों की સુખાની સામગ્રીમાં મન ન લગાડ. જેની કામના કરવામાં આવે છે તેને કામ કહે છે. એ अभी (शब्द, ३५, गंध, रस, स्पर्श आदि इन्द्रिय-विषयो) नी अपेक्षा न राज्य, प्रेम ४रवाथी દુઃખાનું અસ્તિત્વ રહી શકશે નહિ, એનેા નાશ જ સમજ, કેમકે કામ જ દુ:ખતુ' કારણ છે. શંકા-હે ગુરૂ મહારાજ ! જેમ ભેાજન કરવાથી ભૂખ શાન્ત થઈ જાય છે. અને પાણી પીવાથી તરસ છીપે છે, તેમજ વિષયાનુ સેવન કરવાથી વિષય સેવનની ઇચ્છા શાન્ત થઇ જાય, તેા પછી આતાપના આદિ બાહ્ય તપ કરવાની શી જરૂર ? उत्तर–डे शिष्य ! सेवी शी ४२वी अयित नथो, अस्तु विषयोनी वासना (छ) જ બધા અનર્થાતું મૂળ છે. અને ચારિત્રરૂપી વૃક્ષના મૂળને ઉખાડનારી છે, તે રાગદ્વેષને દૃઢ કરે છે. પરદેશ ગયેલે કોઈ ઇમિત્ર જીવતા હોય પરંતુ તેના મૃત્યુના સમાચાર મળે તા સગાં-સંબ ́ધીએ રાવા લાગે છે. અને જો તે મરી જાય પણ મરવાના સમાચાર ન મળે તા કાઈ પણુ રાતું નથી; એથી સમજાય છે કે ચિત્તના વિકારજ સુખદુઃખનું મુખ્ય કારણ છે. એ કારણથી જ્યાંસુધી મનમાંથી વિષયવાસનાને સમૂળે ત્યાગ નથી થતા ત્યાંસુધી આઠે કર્મોની ઉત્પત્તિને રોકી શકાતી નથી કારણ કે તેનુ મૂળ વિષયવાસના છે. કહ્યું પણુ છેકે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे "विचारितमलं शास्त्र, चिरमुग्द्राहितं मिथः। सन्त्यक्तवासनान्मौना, ऋते नास्त्युत्तमं पदम् ॥” इति । यथा पवनपथे पतत्रिणः स्वच्छन्दं विहरन्ति तथाऽनुपमाऽलौकिकाऽऽनन्दमयमोक्षमार्गसंचारिणः संयमिनः प्रतिबन्धरहितं विहरन्ति, परन्तु जालबद्धा विहङ्गमा उत्पतनयत्नवन्तोऽपि यथा निर्बन्धविहाराय न प्रभवन्ति, तद्वद् विषयसेवनाऽऽशालक्षणविषयवासनाकलितचेतसो मुनयोऽनुपलभ्य मोक्षमार्गमप्रतिबन्धविचरणवश्चिता भवन्तीति शिष्य ! जानीहि तावद् विषयाशां दुस्तरमहानदीसमानाम् । उक्तञ्च आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला, रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी । मोहाऽऽवर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी, तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः ॥ १॥" इति उत्पत्ति नहीं रुक सकती, क्योंकि उनका मूल, विषय-वासना है। कहा भी है "भले ही कोई कितनेही शास्त्रोंका मनन करले, या दूसरोंको सिखलादे, पर जब तक वासनाका परित्याग करके समिति-गुप्ति-आदिरूप संयमकी आराधना नहीं कर लेता तब तक क्षोम प्राप्त नहीं कर सकता" ॥१॥ जैसे-पक्षी आकाशमें स्वच्छन्द विहार करते हैं, उसीप्रकार अनुपम अलौकिक आनन्दमय मोक्षमार्गमें विहार करनेवाले संयमी भी अप्रतिबन्धविहारी होते हैं । किन्तु जिस प्रकार जालमें फंसे हुए पक्षी उड़नेका यत्न करते हैं पर उड़ नहीं सकते, उसी प्रकार विषयसेवनेकी आशारूप वासनासे मुनि मोक्षमार्गको न पाकर अप्रतिबन्ध विहारसे वंचित रहते है । हे शिष्य ! इस विषय-वासनाको ऐसी विशाल नदी समझ कि जिसका पार पाना अत्यन्त कठिन है । कहा भी हैं। "आशा' नदीके समान है, इसमें मनोरथरूपी जल भरा हुआ है; तृष्णाकी तरंगे छलांगे मार रही है, रागरूपी ग्राह इसमें निवास करते हैं, नाना प्रकारके सोच-विचार ही इसमें पक्षी “ભલે કોઈ ગમે તેટલાં શાસ્ત્રોનું મનન કરી લે, અથવા બીજાઓને શીખવે. પરંતુ ત્યાં સુધી વાસનાને ત્યાગ કરીને સમિતિ ગુપ્તિ આદિરૂપ સંયમની આરાધના કરી લેતે नथी, त्यांसुधी भाक्ष प्राप्त री शzत नथी,” (१) જેમ પક્ષી આકાશમાં સ્વચ્છન્દ વિહાર કરે છે, તેમ અનુપમ અલૌકિક આનંદમય મોક્ષમાર્ગમાં વિહાર કરનારા સંયમી પણ અપ્રતિબંધ વિહારી હોય છે. પરંતુ જેવી રીતે જાળમાં ફસાયેલા પક્ષીઓ ઉડવાને યત્ન કરે છે. પણ ઉડી શકતાં નથી, તેવી રીતે વિષયના સેવાનની આશા૫ વાસનાથી વાસિત અંતઃકરણવાળા મુનિએ મોક્ષમાર્ગને ન પામતાં અ. પ્રતિબંધ વિહારથી વંચિત રહે છે, હે શિષ્ય ! આ વિષયવાસનાને એવી વિશાળ નદી મજ કે જેને પાર પામ અત્યંત કઠણ છે. કહ્યું છે કે – આશા નદીના જેવી છે, તેમાં મનેરથરૂપી જળ ભરેલું છે. તૃષ્ણારૂપી તરંગે ઉછળી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अध्ययन २ गा. ५ कामरागनिवारणोपायः अपरं चाऽऽकर्णय "विषयाशामहापाशाद् , यो विमुक्तः सुदुस्त्यजात् । स एव कल्पते मुक्त्यै नान्य. षट्शास्त्रवेद्यपि ॥ १॥” इति. हे शिष्य ! एवं विषयभोगस्पृहाऽपि महतेऽनर्थाय कल्पते, किं पुनस्तदुपसेवनं, तदेवमाकलय तावत्-सुखाशया दीपकोपगमन पतङ्गानाम् , दारुधिया ग्राह-ग्रहण पुरस्सरं नदीतरणं मनुष्याणाम् । किञ्च बुभुक्षापिपासादिदृष्टान्तस्यात्र वैषम्यं विद्यते, नहि कामा उपभोगेन शाम्यन्ति प्रत्युताभ्यासवशादतितरां वृद्धिमेवोपगच्छन्ति, यदुक्तमन्यत्रापि " न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव, भूय एवाभिवर्धते ॥ १॥" इति, हैं, यह नदी धीरता-रूपी वृक्षको विध्वंस करनेवाली है, चिन्तारूपी इसका तट है, इसका पार करना बहुत कठिन है, जो मुनीश्वर इस नदीको पार कर लेते हैं वे ही सुखी होते हैं ॥१॥ और सुनों "विषयोंका आशापाश दुस्त्याज्य हैं । जो इस पाश से मुक्त हो जाते हैं वे ही मोक्ष-मार्गके अधिकारी होते हैं, अन्य नहीं; चाहे वह सभी शास्त्रोंके पारंगत क्यों न हो ! ॥१॥" हे शिष्य ? इसप्रकार विषय भोगनेकी इच्छा भी महान् अनर्थको उत्पन्न करती है, तो विषयोंके सेवनके विषयमें तो कहना ही क्या है ! बस तू यही समझ ले जैसे सुख पानेकी इच्छासे पतंगोंका दीपकमें गिरना है, अथवा कोई भोला मनुष्य लकडो समझकर ग्राहको पकड़ लेवे और उसीका सहारा लेकर नदी पार करना चाहे तो वह कभी सफलमनोरथ नहीं होगा वरन् उसे प्राण त्यगने पड़ेंगे, इसी प्रकार विषय भोगनेसे विषयोंकी वासना मिट जायगी, यह विचारना ठीक नहीं है। भूख-प्यासका दृष्टान्त भी यहाँ मेल नहीं खाता, क्योंकि विषय-सेवनसे काम शान्त नहीं રહ્યા છે, રાગરૂપી શાહ એમાં નિવાસ કરે છે, નાના પ્રકારના વિચારો તેમાં પક્ષીરૂપ છે. એ ધીરતારૂપી વૃક્ષને દવંસ કરવાવાળી છે. ચિન્તા એના તટ છે. એ નદીને પાર કરવી અત્યંત કઠણ છે. જે મુનીશ્વર એ નદીને પાર કરે છે તે જ સુખી થાય છે,” (૧) અને વળી શ્રવણ કરે– વિષયોને આશાપાશ દુત્યાજ્ય છે જેઓ એ પાશથી મુક્ત થઈ જાય છે તે જ મોક્ષમાર્ગના અધિકારી બને છે-બીજા નહિ, પછી ભલે તેઓ બધાં શાના પારંગત કેમ ન डाय?" (1) હે શિષ્ય ! એ રીતે વિષય ભોગવવાની ઈચ્છા જ મહાન અનર્થને ઉત્પન્ન કરે છે. તો વિષયોના સેવનની બાબતમાં તે કહેવું શું ? બસ, તું સમજી લે કે-જેમ સુખ પામ વાની ઈચ્છાથી પતંગે દીપકમાં હેમાય છે, અથવા કઈ ભેળે માણસ લાકડું સમજીને ગ્રાહ (મગર ) ને પકડી લે અને તેને આધારે નદી પાર કરવા ઈછે તે કદાપિ તેને મનેરથ સફળ ન થાય પરંતુ તેને પ્રાણ ત્યજવાને જ વખત આવે, તેમ “ વિષય ભોગવવાથી વિષયોની વાસના મટી જશે.” એમ વિચારવું એ બરાબર નથી. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशचैकालिकसूत्रे लोकेऽपि च दृश्यते यथा यथा वह्नाविन्धनानि प्रक्षिप्यन्ते तथा तथाऽसौ प्राबल्यमधिगच्छति । अन्यच्च ददुरोगप्रशमनाभिलाषिणा यथा यथा तदीयकण्डूयनाऽऽदरः क्रियते, तथा तथा ददुरोगो वर्धमान एवाऽनुभूयते न तु जातु तदुपशमो लक्ष्यते कुत्राऽपि, तद्वद् विषयसेवन्तो न विषयतृष्णोपशमः । अपरं चात्र वैषम्यं, तथाहि - विषय सेवनेच्छोपशमं प्रति विषय सेवनस्य, बुभुक्षाधुपशमं प्रति भोजनादेखि कारणत्वमङ्गीकृत्य यत् तदुपादेयता त्वयोपपाद्यते तन्न मनोरमम्, अन्वयव्यतिरेकौ हि सर्वसंमतौ कार्यकारणभावनियामकों, तत्राऽन्वयः - 'तत्सरखे तत्सत्तारूपः' व्यतिरेकस्तु - ' तदभावे तदभावरूप:' । यथा सर्व - विरतिसत्त्वे साधुत्वसत्ता, होते, बल्कि अधिक-अधिक बढ़ते हैं । कहा भी है- "कामोंका सेवन करनेसे काम कदापि शान्त नहीं होते, जैसे घीके डालने से अग्नि शान्त नहीं होती वरन् बढ़ती ही जाती है ॥१॥" तथा लोक में भी देखा जाता है कि-अग्निमें ज्यों-ज्यों इन्धन डाला जाता है, त्यों-त्यों वह अधिक प्रबल होती जाती है, बुझती नहीं है । अथवा दादको खुजलानेसे दाद रोग मिटता नही किन्तु बढ़ता ही जाता है ॥ उक्त दृष्टान्तमें और भी विषमता है सो कहते हैं- जैसे बुभुक्षा ( भूख ) आदिको शान्त करने में भोजन आदि कारण हैं, इसी प्रकार विषय - सेवनकी इच्छाको शान्त करनेमें विषयोंका सेवन कारण है, ऐसा मानकर तुम विषय सेवनको उपादेय कहते हो सो ठीक नहीं है। यह सब मानते हैं कि अन्वयव्यतिरेकसे कार्य-कारणभावका निश्चय होता है, कारणके होने पर ही कार्यका होना अन्वय कहलाता है, और कारणके अभाव में कार्यका न होना व्यतिरेक कहलाता है । जैसे सर्वविरतिरूप चारित्र के होने पर ही साधुता होती है और सर्वविरतिरूप चारित्रके अभाव में साधुता नहीं रहती । इस अन्वयव्यतिरेक से ज्ञात होता है कि विरति साधुत्वका कारण है । १०४ ." ભૂખ-તરસનું દૃષ્ટાંત પણ્ અહી ખંધ બેસતું નથી, કારણ કે વિષય-સેવનથી કામ શાન્ત થતા નથી, પરન્તુ વધારે ને વધારે વધે છે, કહ્યુ છે કે- “ કામાનુ સેવન કરવાથી કામ કદાપિ શાન્ત થતા નથી, જેમ ધી નાખવાથી અગ્નિ શાન્ત થતા નથી. પરતુ વધતા જાય છે. '” (૧) તેમજ-જગતમાં પણ જોવામાં આવે છે કે-અગ્નિમાં જેમ-જેમ 'ઇધન નાંખવામાં આવે છે, તેમ-તેમ તે વધારે પ્રબળ થતા જાય છે, એલવાતા નથી. અથવા દાદરને ખજવાળવાથી દાદર મટતી નથી પણ વધતી જાય છે. ઉકત દૃષ્ટાંતમાં બીજી પણ વિષમતા છે તે કહે છે-જેમ ભૂખ આદિને શાન્ત કરવામાં સેાજન આદિ કારણ છે, તેમ વિષય-સેવનનો ઈચ્છાને શાન્ત કરવામાં વિષયેનું સેવન કારણ છે, એમ માનીને તમે વિષય-સેવનને ઉપાદેય કહેા છે. તે બરાબર નથી, સૌ એમ તે માને છે કે-અન્વય-વ્યતિરેકથી કાય કારણભાવને નિશ્ચય થાય છે. કારણુ હાવાથી જ કાય નું ન અનવું અન્વય કહેવાય છે અને કારણના અભાવમાં કાર્ય'નુ' ન બનવુ એ વ્યતિરેક કહેવાય છે, જેમ સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્ર હાવાથી જ સાધુતા હોય છે, અને સર્વ વિરતિરૂપ ચારિત્રના અભાવમાં સાધુતા રહેતી નથી. આ અન્વય વ્યતિરેકથી સમજાય છે કે વિરતિ સાધુત્વનું કારણ છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा० ५ कामरागनिवारणोपायः तभावे च साधुसत्ताया अभाव इत्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां साधुत्वकारणं सर्वविरतिचारित्रमिति गम्यते। ____ अथ च-तात्कालिकमेव बुभुक्षाधुपशमं प्रति भोजनादेरन्वयव्यतिरेकतः कारणता विद्यते, अतस्तादृशबुभुक्षाधुपशमनकामनयेव भोजनाधुपादीयते, अत्र तु यावज्जीवन विषयसेवनेच्छाप्रशमः साधुजनाऽभिलाषविषय इति तादृशप्रशममुद्दिश्य प्रवर्त्तमानानां मुनीनां विषयसेवन कदापि नोपादेयम् , विषयसेवनसमये हि तदीयवासना रागमनुवर्द्धयन्तीन्द्रियाणि च सबलयन्ती विविधाशुभभावनामुद्भावयति-'अयमुपभोगो न जातु नश्यतु, उत्तरोत्तरं चानुबद्धताम् , न चैन प्रतिबन्नन्तु केऽपि विघ्नाः ' इत्यादि । एवं च विषयसेवनेन नैव तदभिलाषोपशमः प्रत्युत तद्विपरीतं प्रतिक्षणं वर्द्धमान एव तदभिलाषः पाशबद्धमिव पुरुषं पुरुषार्थसाधनाक्षम कुरुते, तस्मात् कार्यकारणभावनियामकाऽन्वयव्यतिरेकाभावेन यावज्जीवनं विषयसेवनतृष्णाप्रशमं प्रति विषयसेवनस्य कारणताऽनुपपस्या ताहशोपशमाऽभिलाषवतां संयतानामनुपादेयत्वं सिद्धम् । जब भोजन किया जाता है तो क्षुधाकी तात्कालिक शान्ति हो जाती है, विना भोजन किये नहीं होती, इसलिए अन्वय-व्यतिरेकद्वारा भोजन तात्कालिक क्षुधा निवृत्तिके प्रति कारण होता है। इसी कारणसे क्षुधाआदि शान्त करनेके लिए भोजन आदि किया जाता है। साधु जीवनपर्यन्त विषय-सेवनकी अभिलाषाकी शान्तिको इच्छा रखते हैं । इस शान्तिके लिए प्रवृत्ति करनेवाले मुनियोंको कदापि विषयसेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि विषयवासना, विषयसेवनके समय राग-भावकी वृद्धि करती है और इन्द्रियोंको सबल बनाकर नाना प्रकारकी दुर्भावनाएँ उत्पन्न करती है कि-'यह भोग कभी नष्ट न हो जाय, उत्तरोत्तर बढ़ता जाय, इसके भोगनेमें कोई विघ्न न आजावे' इत्यादि । अत एव विषयसेवन करनेसे विषयकी अभिलाषा शान्त नहीं होती, बल्कि प्रतिक्षण अधिक-अधिक बढ़ती जाती है । यहां तक कि यह विषयलालसा पुरुषको इतना निकम्मा बना देती है कि वह पुरुषार्थ-साधनमें सर्वथा असमर्थ हो जाता है, जैसे फन्देमें फँसा हुआ पुरुष कुछभो पुरुषार्थ नहीं कर सकता । इसलिए यहाँ कार्य-कारणभावका निश्चय જ્યારે ભોજન કરવામાં આવે છે ત્યારે યુવાની તાત્કાલિક શાંતિ થઈ જાય છે, ભજન કર્યા વિના શાન્તિ થતી નથી, તેથી અવય-વ્યતિરેક દ્વારા ભેજન તાત્કાલિક સુધાનિવૃત્તિને પ્રતિ કારણ બને છે. આ કારણથી ક્ષુધા પિપાસા આદિ શાન્ત કરવાને માટે ભેજન આદિ કરવામાં આવે છે. સાધુ જીવનપર્યન્ત વિષય-સેવનની અભિલાષાની શાન્તિની ઈચ્છા રાખે છે. આ શાન્તિને માટે પ્રવૃત્તિ કરનારા મુનિઓએ કદાપિ વિષયસેવન કરવું જોઈએ કારણ કે વિષયવાસના વિષયસેવનને સમયે રાગ-ભાવની વૃદ્ધિ કરે છે, અને ઇન્દ્રિયોને સબળ બનાવીને એવી નાના પ્રકારની દુર્ભાવનાઓ ઉત્પન્ન કરે છે કે “આ ભેગ કદાપિ નષ્ટ ન થાય. ઉત્તરોત્તર વઘતે જાય, એને ભેગવવમાં કાંઈ વિદત ન આવે, ઈત્યાદિ એટલે કે વિષયસેવનથી વિષયની અભિલાષા શાન્ત થતી નથી, બલકે પ્રતિક્ષણ અધિક-અધિક વધતી જાય છે, તે એટલે સુધી કે એ વિષયલાલસા પુરૂષને કેવળ નકામે બનાવી દે છે. અને તે પુરૂષાર્થ–સાધનમાં સર્વથા અસમર્થ બની જાય છે, કે જેવી રીતે ફેંદામાં (હેડમાં) ફલાયેલે પુરૂષ કાંઈ પણ પુરૂષાર્થ કરી શકતો નથી. તેથી કરીને અહીં કાર્ય–કારણભાવને નિશ્ચય કરાવનારાં અન્વય શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे इत्थं पूर्वार्द्धन बाह्यकामपरित्यागमुक्त्वा पश्चार्द्धनाऽऽभ्यन्तरकामपरित्यागमाह'छिंदाहि०' इति, शब्दादिविषयेषु द्वेषं छिन्धि-मुञ्च, तथा रागं-कामरागं व्यपनय-दूरीकुरु, एवम् एवं कृते सति, सम्पराये-जन्ममरणरूपत्वेन नाशमये संसारेऽपीति भावः । यद्वा परीषहोपसर्गरूपे संग्रामे, त्वमितिशेषः; सुखी-स्वाल्मिकानन्दभाग भविष्यसीति गाथार्थः ॥ ५॥ उक्तमर्थ दृष्टान्तेन स्फुटीकरोति-' पक्खंदे० ' इत्यादि, मूलम् पक्खंदे जलियं जोई, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥६॥ छाया-प्रस्कन्दन्ति ज्वलितं ज्योतिष, धूमकेतुं दुरासदम् । नेच्छन्ति वान्तं भोक्तुं, कुले जातो अगन्धने ॥६॥ सान्वयार्थः अगंधणे अगन्धननामक कुले कुलमें जाया उत्पन्न हुए (सर्प) जलिय जलती हुई धूमकेउं-धुंआंनिकालती हुई (और) दुरासयं-असह्य-नहीं सहने योग्य (ऐसी) जोई-अनि में पक्खंदे प्रवेश कर जाते हैं, (किन्तु) बंतयं-उगले हुए विषको भोत्तुं भोगनेकी नेच्छंति =इच्छा नहीं करते । अर्थात् अगन्धन सर्प भी त्यागे हुएको फिर ग्रहणनहीं करना चाह ते ॥६॥ करानेवाले अन्वयव्यतिरेकका अभाव होनेसे यावज्जीवन विषय-लालसाकी शान्तिके प्रति विषयसेवन कारण नहीं हो सकता। अतः या वज्जीवन विषयाभिलाषाकी शान्ति चाहनेवाले मुनियों को यह उपादेय नहीं है। इस प्रकार पूर्वार्द्धमें सूत्रकार बाह्य-विषयों का त्याग बताकर उत्तरार्द्धमें अन्तरङ्ग-विषयोंके त्यागका उपदेश देते हैं कि-हे शिष्य ! शब्दादि-विषयोंमें द्वेष तथा रागको दूर कर । ऐसा करनेसे तू जन्म-मरण स्वरूपवाले विनश्वर संसारमें सुखी, अथवा अनुक्ल प्रतिकूल परीषह और उपसर्ग रूप संग्राममें विजयी होगा ॥५॥ ___ इसी विषयको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं- 'पक्खंदे० इत्यादि । सॉप दो प्रकारके होते हैं-(१) गन्धन और (२) अगन्धन, गन्धन सर्प उन्हें कहते વ્યક્તિ રેકને અભાવ હોવાથી જીવનપર્યત વિષયલાલસાની શક્તિની પ્રતિ વિષયસેવન કારણ થઈ શકતું નથી, એટલે જીવનપર્યન્ત વિષયાભિલાષાની શાન્તિને ચાહનારા મુનિઓને માટે એ ઉપાદેય નથી. A , એ પ્રકારે પૂર્વાર્ધમાં સૂત્રકાર બાા વિષયેનો ત્યાગૂ બતાવીને ઉતરાર્ધમાં અંતરંગ વિષયાના ત્યાગને ઉપદેશ આપે છે કે-હે શિષ્ય ! શબ્દાદિ-વિષયમાં ષિ તથા રાગને દૂર કર. એમ કરવાથી જન્મ-મરણસ્વરૂપવાળાં વિનશ્વર સંસારમાં સુખી, અથવા અનુકૂલપ્રતિકૂલ પરીષહ તથા ઉપસર્ગના સંગ્રામમાં વિજયી થઈશ. (૫) मा विषयने हटांत द्वारा स्पष्ट ४२ छे-पक्खदे० पत्याहि. સાપ બે પ્રકારના થાય છે. (૧) ગંધન અને (૨) અગંધન, ગંધન સર્ષ એ કહેવાય છે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ६ त्यक्तभोगाङ्गीकरणे सर्पदृष्टान्तः टीका- गन्धना - गन्धनभेदेन भुजगा द्विविधास्तत्र गन्धनास्ते ये मन्त्रप्रयोगादिवशादप्रदेशे वान्तं विषं पुनश्च षन्ति तद्भिन्ना अगन्धनास्तत्कुलमगन्धनं तस्मिन् कुले जाताः= समुत्पन्नाः सर्पा इति शेषः, ज्वलितं प्रदीप्तं धूमकेतुं धूमः केतु - श्रिहं यस्य तं धूमध्वजमित्यर्थः, अत एव दुरासदम् = दुःखेन आसद्यते = धातूनामनेकार्थत्वात् सह्यते संवेद्यते इति वाऽर्थस्तं दुष्प्रवेशमिति यावत्, ज्योतिषम् = अग्निम् प्रस्कन्दन्ति = प्रविशन्ति, किन्त्वितिशेषः, वान्तम् - उद्गीर्ण सन्त्यक्तमितियावत् विषमितिशेषः भोक्तुं नेच्छन्ति = नाभिलषन्ति तिर्यञ्चः सर्पा अपि वह्निप्रवेशापेक्षया दुःसहमनुचितं च वान्ताशनमेव मन्यन्ते । तस्मात् शिष्य ! प्रवचनतत्वाभिज्ञेन त्वया निःसारतया परित्यक्तस्य विषयस्य पुनः स्वीकरणं न विधेयमिति भावः । मुर्मुरादिशान्तज्वलाग्निव्यवच्छेदार्थमाह- 'जलियं' इति, अङ्गारोल्कादिव्यावृत्त्यर्थम् अग्नेर्वर्द्धिष्यमाणत्वद्योतनार्थं चाह - 'धूमकेउ' इति, । तीव्रतमत्वबोधनार्थं 'दुरासयं इति । अग्निपर्यायो ज्योतिः शब्दः पुंल्लिङ्ग: । 'जलिय ' मित्यादिविशेषणत्रयेण ' यत्राग्नौ प्रवेशे सद्यो भस्मसाद् भवति तादृशेऽप्यगन्धनजाः सर्पाः प्रविशन्ति किन्तु परित्यक्तविषमापातुं नैव वाञ्छन्ति, एवं सत्पुरुषा अपि परित्यक्तान् विषयान् मरणान्तेऽपि न पुनः सेवितुमिच्छन्तीति बोध्यते इति गाथार्थः || ६ || " १०७ हैं जो मन्त्रादिके बलसे विवश होकर भी काटे हुए स्थानसे उगले विषको फिरसे चूस लेते हैं । अगन्धन इनसे विपरीत होते हैं । उस अगन्धन कुलमें उत्पन्न हुए साँप अगन्धन सर्प कहलाते हैं। वे सर्प असह्य और जलती अग्निमें प्रवेश कर जाते हैं, किन्तु त्यागे हुए विषको फिर कभी नहीं चूसते । हे शिष्य ! जब तिर्यश्च सर्प भी उगले हुएको निगलना नहीं चाहते तब तू तो प्रवचनमें प्रवीण है अत एव निःसार समझ कर त्यागे हुए विषयों का सेवन तुझे तो भूलकर भी नहीं करना चाहिए । अग्नि 'ज्वलित' आदि तीन विशेषण दिये हैं, उनका अभिप्राय यह है कि - जिस अि प्रवेश करतेही तत्काल भस्म हो जावे उस प्रकारकी अग्निमें भी अगन्धन कुलके सर्प प्रवेश करजाते हैं पर त्यागे हुए विषको कभी ग्रहण नहीं करते । इसी प्रकार कुलीन पुरुषभी त्यागे हुए કે જે મંત્રાદિના બળથી વિવશ થઈને ડ ંખેલા સ્થાનમાં નાંખેલુ ઝેર તેમાંથી પાછું ચૂસી લે છે. પણ અગ ધન સૂપ તેથી વિપરીત પ્રકારના હેાય છે. એ અગ’ધન કુળમાં ઉત્પન્ન થએલા સાપ અગધન સપ` કહેવાય છે. એ સર્પ અસહુચ અને મળતી આગમાં પ્રવેશ કરે છે પરન્તુ એકવાર વમનકરલા ઝેરને પાછું ચૂસી લેતેા નથી, હું શિષ્ય ! જ્યારે તિ"ચ સૂપ પણ મૂકલા ઝેરને પાછું ગળી જવા ઈચ્છતા નથી તા તુતા વચનમાં પ્રવીણુ છે. એટલે નિઃસાર સમજીને ત્યજેલા વિષયાનુ' સેવન તારે તા ભૂલે ચૂકી પણ ન કરવુ જોઈએ. अग्निना 'ज्वलित' माहि त्रयु विशेषण यापेक्षां छे, तेनेो हेतु थे छे - गाग्निमां પ્રવેશ કરતાં જ તત્કાળ ભસ્મ થઇ જવાય એ પ્રકારના અગ્નિમાં પણ અગ ધન કુળના સ પ્રવેશ કરે છે, પરન્તુ ત્યજેલા વિષને ગ્રહણ કરતા નથી. એ પ્રમાણે કુલીન પુરૂષો પણ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे अरिष्टनेमौ भगवति प्रव्रजिते तत्कनिष्ठभ्राता रथनेमी राजीमती चकमे सा तु कामवासनाविरक्ता कदाचन सुवासितसरसपायस भुक्त्वा कस्मिंश्चित्कटोरके समुद्वम्य ' भुज्यता' -मित्युक्त्वा रथनेमये दत्तवती, रथनेमिना च 'कथमिदं वान्तं क्षत्रियवंशावतंसेन मया मोक्ष्यते' इत्युक्ता सा पोवाच-'तर्हि कथमरिष्ठनेमिना त्वद्भ्राता समुज्झिततया वान्ततुल्यां मामभिलष्यसि ? न च त्रपसे इति, ततश्च तद्वचनश्रवणसञ्जातवैराग्योऽसौ प्रात्राजीत् अथैकदा गृहीतप्रव्रज्या सा राजीमती साध्वीभिः परिवृता रैवतकपर्वतसमवसृतं भगवन्तविषयोंको प्राणसंकटमेंभी कभी ग्रहण नहीं करते । अर्थात् वे दुष्कर्म करके क्षणभर भी जीना नहीं चाहते ॥६॥ ___ जब बाइसवें तीर्थंकर भगवान् श्रीअरिष्टनेमि प्रभुने दीक्षा ग्रहण कर ली तब उनके छोटे भाई रथनेमिने राजीमतीको इच्छा की, किन्तु सतीशिरोमणि राजीमती, कामकी वासनासे विरक्त हो चुकी थी। उसने एक रोज सुगन्धित तथा स्वादिष्ट खीर खाई और एक कटोरेमें वमन करके वह रथनेमिको देने लगी और बोली-लीजिये खीर खाइए । रथनेमि यह सुनकर आगबबूले (क्रद्ध) हो गये और बोले-'मैं क्षत्रियोंके वंशका भूषण होकर वमन की हुई खीर कैसे खाउंगा ! राजीमतीजी कहने लगी-'अहों श्रेष्ठक्षत्रिय ! तुम वमन की हुई खीर नहीं खाते तो, अपने बड़ेभाई श्रीअरिष्टनेमिद्वारा वमन की हुई यानी त्यागी हुई मुझकों क्यों चाहते हो ? मेरी इच्छा करते तुम्हें लज्जा नहीं आती ? सतो राजीमतीकी हृदयमें चुभनेवाली बात सुनतेही रथनेमिको संसारसे विरक्ति होगई । उन्होंने दीक्षा लेलि । कुछ दिनोंके बाद राजीमतीने भी दीक्षा लेलो। कोई एक समय महासतीश्रीराजीमती, बहुतसी साध्वियोंके परिवारसे परिवृत होकर रैवतक पर्वतपर पधारे हुए भगवान् श्रीअरिष्टनेमिप्रभुको वन्दना करने गई तब मार्गमें अचानक ही पानीकी मूसलधार ત્યજેલા વિષયને પ્રાણસંકટમાં પણ ગ્રહણ કરતા નથી અર્થાત્ તેઓ દુષ્કર્મ કરીને ક્ષણ स२ ५९ २ नथी. (6) જ્યારે બાવીસમા તીર્થંકર ભગવાન શ્રીઅરિષ્ટનેમિપ્રભુએ દીક્ષા ગ્રહણ કરી, ત્યારે તેમના નાના ભાઈ રથનેમિએ રાજી મતીની ઈચ્છા કરી, પરંતુ સતીશિરોમણિ રેજીમતી કામની વાસનાથી વિરક્ત થઈ ચૂકી હતી. તેણે એક દિવસ સુગંધિત અને સ્વાદિષ્ટ ખીર ખાધી અને એક વાડકામાં તેનું વમન કરીને તે રથનેમિને આપવા લાગી અને બોલી: “ત્યે ખીર ખાઓ !” રથનેમિ એ સાંભળીને ક્રોધાવિષ્ટ થઈ ગયે અને બેલે “હું ક્ષત્રિયેના વંશનું ભૂષણુ થઈને વમેલી ખીર કેમ ખાઈશ ?' રાજીમતી કહેવા લાગી “અહો શ્રેષ્ઠ-ક્ષત્રિય ! તમે વમેલી ખીર નથી ખાતા, તે તમારા મોટાભાઈ શ્રી અરિષ્ટનેમિએ વમેલી એટલે ત્યજેલી એવી મને કેમ ચાહે છે ? મારા માટેની ઈચ્છા કરતાં તમને શરમ નથી આવતી ?” હૃદયને ડંખે એવી સતી રામતીની વાત સાંભળતાં જ રથનેમિને સંસારથી વિરક્તિ આવી ગઈ એમણે દીક્ષા લીધી. કેટલાક દિવસ પછી રામતીએ પણ દીક્ષા લીધી. કે એક સમયે સહાસતિશ્રી રામતી અનેક સાધવીઓના પરિવારથી વિંટાઈને રેવતક પર્વત પર પધારેલા ભગવાન શ્રી અરિષ્ટનેમિપ્રભુને વંદના કરવા ગઈ ત્યારે માર્ગમાં અચાનક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा०७ रथनेमि प्रति राजीमत्युपदेशः मरिष्टनेमि वन्दितुं व्रजन्ती मध्येमार्ग जलधरवृष्टबहलजलमुशलधारयाऽऽगात्रैकाकिनी काकतालीयन्यायेन तदेव गिरिकन्दरमाससाद, यत्रासौ पत्रजितो रथनेमिरपि ततः पूर्व गत्वा स्थित आसीत, तमनवलोक्यैव 'विविकोऽयं प्रदेशः' इति विचार्याऽऽर्द्रवस्त्राणि प्रसारयामास । तदानीं तां यथाजातां ( नग्नां ) विलोक्य भग्नाऽभ्यन्तरङ्गोऽनङ्गोपहतचित्तवृत्तिनिवृत्तिपथविच्युतो रथ नेमिः पुना रथ ने मिवद्धान्तभावः समपद्यत । तं भूयो जातकाममालोक्य प्रकामकमनीयाकृतिरसौ राजीमती पुनर्यदुक्तवती तदेवं तिसृभिर्गाथाभिः सूत्रकारोब्रते-'घिरत्थु०' इत्यादि । मूलम्-धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जोवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥७॥ छाया-धिगस्तु त्वां (ते ) यशः कामिन् , यस्त्वं जीवितकारणात् । वान्तमिच्छस्यापातुं, श्रेयस्ते मरणं भवेत् ॥७॥ रथनेमिके प्रति राजीमती कहती है सान्वयार्थ:-जसोकामी हे यशके अभिलाषी ते तुझे धिरत्थु धिक्कार हो, जो-जो तं = जीवियकारणा=असंयमजीवन सुखके लिए बंत-वमन किये-त्यागे हुएको आवेउं= पीना इच्छसि-चाहता है , (इससे तो) ते तेरा मरणं मरजाना सेयं अच्छा भवे=है । अर्थात्-संयम धारण करके फिर असंयममें आना अत्यन्त निन्दनीय है, और उस असंयम वर्षा होने लगो, सारा शरीर और वस्त्र, पानीसे भिगगया । संयोगसे राजीमतीने भी उसी गुफामें प्रवेश किया जिसमें रथनेमि पहलेसे ही ठहरे हुए थे । जिस स्थानपर रथनेमि बैठे थे उधर दृष्टि न पड़नेके कारण वे दृष्टिगोचर न हुए । राजोमतीने एकान्त स्थान समझ कर भोगे कपडे फैला दिये । राजीमतीको कपड़ेरहित देख कर रथनेमिका चित्त चलित होगया । उनके मन पर काम-विकारने आक्रमण कर लिया । वे संयम मार्गसे च्युत होगये । रथकी नेमि (पहिये) की भाँति उनका चित्त घूमने लगा । रथनेमिको इस प्रकार कामातुर देखकर रतिसी रमणीय राजीमतीने जो कुछ कहा उसे सूत्रकार तीन गाथाओंसे कहते हैं- 'धिरत्थु० इत्यादि । મૂસળધાર વરસાદ વરસવા લાગ્યો. તેનું આખું શરીર અને વચ્ચે પાણીથી પલળી ગયાં. સગવશ રામતીએ એજ ગુફામાં પ્રવેશ કર્યો કે જે ગુફામાં રથનેમિ પહેલેથી આવીને રહ્યા હતા. જે સ્થાન પર રથનેમ બેઠા હતા તે સ્થળ પર દષ્ટિ ન પડવાને લીધે તે રાજીમતીને દૃષ્ટિગેચર ન થયા. તેથી તે એકાન્ત પ્રદેશ જાણુને પોતાના ભીજાયેલા લુગડાં ફેલાવી દીધાં. ત્યારે તે રાજમતીને વસ્યરહિત જઈને રથનેમિનું ચિત્ત ચલિત થઈ ગયું. એમના મન પર કામવિકારે આક્રમણ કર્યું. તે સંયમમાર્ગથી ભ્રષ્ટ થઈ ગયા. રથની નૈમિ (પૈડું) ની પેઠે તેમનું ચિત્ત ભમવા લાગ્યું. રથનેમિને એ પ્રમાણે કામાતુર જોઈને રતિ જેવી રમણીય રાજીभती ४i Bधुं ते पात सूत्रा तय थीमा ४ छ :-धिरत्थु० ४त्या. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे की अपेक्षा संयमी अवस्थामें मृत्यु होजाना अच्छा है ॥७॥देख टीका-कामयते वाञ्छति तच्छीलः कामी, यशसः संयमस्य कीर्तेर्वा कामी यशःकामी, तत्सम्बुद्धौ हे यश:कामिन् !, यद्वा अकारच्छेदाद् हे अयशःकामिन् हे असंयमापयशोऽर्थिन् ! त्वां धिगस्तु, निन्द्योऽसि त्वमित्यर्थः 'ते' इति द्वितीयार्थे षष्ठी, यद्वा 'ते' इति षष्ठयन्तमेव, तत्र 'पौरुष' मित्यस्य शेषः, धिगित्यनेन सम्बन्धः, ते तव पौरुषं धिगित्यर्थः । यद्वा हे कामिन् ! ते-तव यशः=' अहो धन्योऽयं तीव्रतपःसंयमव्रतपरिपालको महान्मे'-त्येवं लोकप्रतीतां कीर्तिम् , अथवा अयशः मां दृष्ट्वं दुष्टचेष्टनरूपं पापं धिगस्त्वित्यर्थः , इति वयम् , यस्त्वं जीवितकारणात् असंयमजीवितसुखार्थमिति भावः , वान्तं भगवता परित्यक्तत्वाद्धान्तसदृशीं माम् , यद्वा संयमसेवित्वेन परित्यक्तस्य विषयस्यैवमभिलाषोदयाद्वान्ततुल्यं विषयम् आपातुम् उपसर्गवशेन धात्वर्थभेदादुपभोक्तुम् इच्छसि-कामयसे, ते तव मरणं-मृत्युः श्रेयः प्रशस्यं श्रेष्ठं भवेत्, न पुनरित्थमनाचरणीयाऽऽचरणमिति गाथार्थः ।। मूलम्--अहं च भोगरायस्स तं च सि अंधावण्हिणो । ९ ७ ८ १० १२ ११ १३ मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥८॥ हे यशके अभिलाषी ? तुझे धिक्कार है, जो असंयम जीवनके सुखके लिए वमन किए हुएको खाना चहता है, इसप्रकारके जीवनसे मर जाना ही अच्छा है। हे यश अर्थात् संयम अथवा कीर्तिकी इच्छा करनेवाले ! अथवा हे असंयम और अपयशके कामी तुझे धिक्कार है, तु अत्यन्त निन्दाका पात्र है । अथवा हे कामी ! जगतमें तुम्हारी इस प्रकारकी जो कीर्ति फैली हुई है कि “यह रथनेमि मुनि, अत्यन्त उत्कृष्ट संयमका पालन करनेवाला महात्मा है" इसकीर्तिको धिक्कार है, क्योंकि तुम असंयम रूप जीवितके लिए, भगवान् श्रीअरिष्टनेमि के द्वारा त्यागी हुई मुझको, अथवा संयम पालनके लिए त्यागे हुए विषयोंको फिर चाहते हो, तुम्हें मर जाना अच्छा है किन्तु असंयमकी वांछा करना अच्छा नहीं है ॥७॥ હે યશના અભિલાષી ! તને ધિક્કાર છે, જે અસંયમ જીવનના સુખને માટે વમેલાને ખાવા ઇરછે છે, એ પ્રકાહના જીવનથી તે મરવું જ વધારે સારું છે. યશ અર્થાત્ સંયમ અથવા કીર્તિની ઈચ્છા કરનારા !, અથવા હે અસંયમ અને અપયશના કામી ! તને ધિક્કાર છે, તે અત્યંત નિંદાને પાત્ર છે. અથવા હે કામી ! જગતમાં તારી એ પ્રકારની જે કીતિ ફેલાઈ છે કે “આ રથનેમિ મુનિ અત્યંત ઉત્કૃષ્ટ સંયમનું પાલન કરનારા મહાત્મા છે, એ કીતિને ધિક્કાર છે, કેમ કે તમે અસંયમરૂપ જીવિતને માટે, ભગવાન અરિષ્ટનેમિએ ત્યજેલી એવી મને, અથવા સંયમપાલનને માટે ત્યજેલા વિષયને પાછા ચાહે છે. તમારે મરી જવું જ साइ छ, ५२न्तु म यमनी iछन४२वी सारी नथी. (७) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा०८ रथनेमि प्रति राजीमत्युपदेशः छाया-अहं च भोगराजस्य, त्वं चासि अन्धककृष्णेः। मा कुले गन्धनौ भूव, संयमं निभृतश्चर ॥ ८ ॥ सान्वयार्थ:-अहंच-मैं (राजीमती) भोगरायस्स-भोगकुलकी हूँ , च और तं-तुम अधगवण्हिणो-अंधकवृष्णिकुलके सि-हो, कुले-ऐसे उच्च कुलमें गंधणा=(दोनों) गन्धन मा नहीं होमो-होवें। (अतः) निहुओ-निश्चल होकर संजमं संयमको चर=पालो । भावार्थ-राजीमती रथनेमिसे कहती है कि हम दोनों उच्च कुलोंमें उत्पन्न हुए हैं, अतः उगले हुए विषको वापिस पोजानेवाले गन्धन सापोंके समान हमको नीच न होना चाहिए । टीका-'अहं च' इत्यादि । चद्वयं समुच्चयार्थम्, हे रथनेमे ! अहं-राजीमती भोगराजस्य तन्नाम्ना प्रसिद्धस्य अस्मीतिशेषः, अहं भोगराजस्य पौत्रीति भावः । त्वं च अ. न्धकवृष्णेः तन्नाम्ना प्रसिद्धस्य असि, अन्धकवृष्णिपौत्रोऽसीत्यर्थः। ततः किं ? तदाहकुले वंशेऽर्थान्निष्कलङ्के गन्धनौ-गन्धनकुलसम्भूतसर्पसदृशौ, 'आवा' मिति गम्यतेमाभूवनभवेव, तस्मात् निभृतः निश्चलो विषयादिभिरक्षोभ्यः सन् संयमम् अनश्वरसुखसाधनभूतं निरवद्यक्रियाऽनुष्ठानं चर-पालय । इति गाथार्थः ॥८॥ १२ मूलम्--जइ तं काहिसि भावं. जा जा दिच्छसि नारिओ । बायाविद्ध व्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥९॥ छाया- यदि त्वं करिष्यसि भावं, या या द्रक्ष्यसि नारीः । वाताविद्ध एवं हडो,-ऽस्थितात्मा भविष्यसि ॥९॥ सान्वयार्थ:-जइ-यदि तं-तुम जा जा-जो-जो नारिओ स्त्रोको दिच्छसि देखोगे (उन-उनपर) भावं-बुरे विचार काहिसि करोगे तो वायाविद्धव्य-इवासे उडाये हुए हडोहडवनस्पतिकी भांति अद्विअप्पा-अस्थिर आत्मावाले-चंचलचित्त भविस्ससि-हो जाओगे "अहं च' इत्यादि । हे रथनेमि ! मैं ( राजोमती ) भोगराजको पोती और उग्रसेनकी बेटी हूँ , और तुम अन्धकवृष्णिके पौत्र तथा समुद्रविजयके पुत्र हो, इसलिए दोनोंही निर्मल कुलोंमें उत्पन्न हुए हैं। हमें गन्धन कुलमें उत्पन्न होने वाले सौके समान नहीं होना चाहिये । अतः विषय आदिको त्याग करके अनन्त सुखके कारणभूत निरतिचार संयमका पालन करो ॥८॥ 'जइ तं' इत्यादि । यदि तुम जिस जिस स्त्रीको देखोगे उन सब पर विकारदृष्टि डालोगे ___ अहं च त्यादि. ९ २थनाम । हु (भती) मोरनी पौत्री अन उसननी पुत्री છું, અને તમે અંધકવૃષિણના પૌત્ર તથા સમુદ્રવિજયના પુત્ર છો, એ રીતે આપણે બેઉ નિર્મળ કુલેમાં ઉત્પન્ન થયાં છીએ. આપણે ગંધન કુળમાં ઉત્પન્ન થએલા સર્પોનાં જેવાં ન થવું જોઈએ. માટે વિષય આદિને ત્યજીને અનંત સુખના કારણભૂત નિરતિચાર સંયમનું પાલન કરે. (૮) કરાર &૦ ઈત્યાદિ, જે તમે જે જે સ્ત્રીઓને જશે તે બધી પર વિતરદષ્ટિ નાખશે તે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका-'जइ तं .' इत्यादि । त्वं या या नारी स्त्रीः द्रक्ष्यसि-अवलोकिष्यसे यत्तदोनित्यसम्बन्धात् 'तासु तासु' यदि भावं-कलुषिताध्यवसायतया दुष्टां दृष्टिं करिष्यसि तदा वाताचिद्धा बातेन वायुना आविद्धः-प्रेरितःहड:-निर्मूलो वनस्पतिविशेष इव, शैवालमिव वा अस्थितात्मा अस्थितः अस्थिरः आत्मा यस्य स तथोक्तो भविष्यसि, जन्म-जरा-म. रणजन्य-जगदटवीपर्यटनदुःखपरम्परा-निराकरणकारणेभ्यः संयमगुणेभ्यः प्रस्खल्याऽपारसंसारपारावारे विषयवासनावातविकम्पितचेताः शान्ति न गमिष्यसीति भावः, इति गाथार्थः॥९॥ एवं राजीमत्या प्रतिबोधितो रथनेमिधर्मनिष्ठोऽभवदित्याह-'तोसे सो०' इत्यादि। मूलम्-तीसे सो वयणं सोच्चा. संजयाइ सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो. धम्मे संपडिवाइओ ॥१०॥ छाया-तस्याः स वचनं श्रुत्बा, संयतायाः सुभाषितम् । अंकुशेन तथा नागो, धर्म सम्प्रतिपातितः॥१०॥ सान्वयार्थः-सो-वह ( रथनेमि ) तीसे-उस संजयाइ-संयमवती ( राजीमती) के सुभासियं-सुभाषित वयणं-वचनको सोच्चा-सुनकर धम्मे-धर्ममें संपडिवाइओ=आगया-प्राप्त होगया, जहा-जैसे अंकुसेण=अंकुशसे नागो-हाथी मार्गमें आ जाता है ॥१०॥ टीका-सा-रथनेमिः, संयतायाः संयमवत्याः तस्याः-राजीमत्याः, सुभाषितमिति वैराग्यसारगर्भितत्वात् वचनं सदुपदेशं, श्रत्वा-समाकर्ण्य 'स्थितः' इति शेषः अन्यथा तो आंधीसे उड़ाये हुए हड नामको वनस्पति अथवा सेवालकी तरह अस्थिर हो जाओगे; अर्थात् जन्म मरणसे होनेवाले जगरूपी अटवीमें भ्रमण करनेके कष्टोंको दूर करनेवाले संयमगुणोंसे च्युत होनेके कारण संसाररूप अपार समुद्र में विषयवासनारूपीहवासे चंचलचित्त होकर भटकते फिरोगे ॥९॥ राजीमतीजीके द्वारा प्रतिबोध पाकर रथनेमि संयममें स्थिर होगया । इसी विषयको सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं-'तीसे०' इत्यादि । जैसे अंकुशसे हाथी ठीक मार्ग पर आजाता है वैसे ही रथनेमि संयमवती राजीमतीके वैराग्य-परिपूर्ण वचन ( सदुपदेश ) सुनकर जिनेन्द्र भगवानके प्रवचन-रूप धर्म-मार्गमें स्थित આંધીથી ઉડેલી હડ નામની વનસ્પતિ અથવા શેવાલની પેઠે અસ્થિર થઈ જશે. અર્થાત જન્મમરણથી ઉત્પન્ન થતા જગતરૂપી અટવીમાં ભ્રમણ કરવાનાં કષ્ટોને દૂર કરનારા સંયમ ગુણેથી ભ્રષ્ટ થવાને લીધે સંસારરૂપ અપાર સમુદ્રમાં વિષયવાસનારૂપી હવાથી ચંચળ ચિત્તવાળા થઈને ભ્રમણ કરતા ફરશે. (૯) રાજીમતીથી એ પ્રતિબંધ પામીને રથનેમિ સંયમમાં સ્થિર થઈ ગયા. એ વિષયનું प्रतिपाहन सूत्रा२ ४२ छ-तोसे०७त्या. જેમ અંકુશથી હાથી બરાબર માર્ગ પર આવી જાય છે, તેમજ રથનેમિ સંયમવતી રાજુમતીન વૈરાગ્યપૂર્ણ વચન (સદુપદેશ) સાંભળીને જિનેન્દ્ર ભગવાનના પ્રવચનરૂપ ધર્મ માર્ગમાં સ્થિર બની ગયા. અર્થાત્ જેમ મહાવતના અંકુશથી મમત્ત હાથીને મદ ચૂર્ણ થઈ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ११ रथनेमेः पुरुषोत्तमत्वसिद्धिः ११३ 'सम्प्रतिपातितः' इत्यनेन समानकर्तकत्वाऽभावात्क्त्वाप्रत्ययोत्पत्तिरसङ्गता स्यात् , यद्वा 'सम्प्रतिपातित' इत्यस्य णिजाऽविवक्षया 'सम्प्रतिपन्नः' इत्यर्थः कर्त्तव्यः । अकुशेन =हस्तिचालनार्थ-लौहमयवक्राग्रास्त्रेण नागो यथा हस्तीव,धर्मे जिनोक्तप्रवचनरूपे, सम्प्रतिपातितः संस्थापितः संस्थित इति वा, यथाऽङ्कुशेन प्रशमितमदो मतङ्गजोऽनुकूलं मार्गमवलम्बते तथा राजीमतीवचनेन दूरीकृतमदनमदो रथनेमिरपि जिनोक्तधर्ममार्गमवलम्बितवानिति भावः ॥१०॥ सम्प्रत्युपसंहरन्नाह-‘एवं करंति०' इत्यादि । मूलम्-एवं कति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा ॥ विणिय;ति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ॥११॥ तिबेमि।। छाया-एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः, पण्डिताः प्रविचक्षणाः ॥ विनिवर्तन्ते भोगेभ्यो, यथा स पुरुषोत्तमः ॥ ११ ॥ इति ब्रवीमि ॥ सान्वयार्थः-संबुद्धा=सत् असत् के विवेकी पंडिया-विषयदोषोंके ज्ञाता पवियक्खणा-आगमके मर्मज्ञ पुरुष एवं-ऐसा ही करंति-करते हैं, (वे) भोगेसु-भोगोंसे विणियर्टति-निवृत्त होजाते हैं। जहा जैसे से वह पुरिसुत्तमो-पुरुषोमें श्रेष्ठ (रथने मि विषयोंसे निवृत्त हो गया ) तिबेमि=( पूर्ववत् ) भावार्थ -जो विवेकी होते हैं वे विषयोंके दोषोंको जानकर उनका परित्याग कर देते हैं, जैसे रथनेमिने परित्याग कर दिया था॥११॥ ॥ इति द्वितीयाध्ययनस्य सान्वयार्थः ॥ २॥ टीका-सम्-सम्यग बुद्धाःबोधं प्राप्ताः हेयोपादेयज्ञानसम्पन्ना इत्यर्थः, सम्बुद्धत्वमेव विशेषयति-पण्डिताः प्रविचक्षणाः' इति विशेषणाभ्याम् । तत्र पण्डिताः विषयप्रवृहो गये, अर्थात् जैसे महावतके अंकुशसे मदोन्मत्त हाथीका मद चकनाचूर हो जाता है और वह सन्मार्ग पर आजाता है, उसी प्रकार राजीमतो-रूपी महावतके वचन-रूपी अंकुशसे रथनेमिरूपो हाथोका विषयवासना-रूपी मद दूर होगया और वे जिनोक्त धर्ममार्गमें प्रवृत्त होगये ॥१०॥ उपसंहार-एवं 'करंति०' इत्यादि । हेय और उपादेय वस्तुओंको सम्यक् प्रकार समझनेवाले संबुद्ध, विषयोंमें प्रवृत्तिके दोषोंके ज्ञाता, आगमके रहस्यको जाननेवाले अथवा चारित्रके फलको प्राप्त करनेवाले प्रविचक्षण જાય છે, અને તે રાહ પર આવી જાય છે, તેમ રાજીમતીરૂપી મહાવતનાં વચનરૂપી અંકુશ. થી રથનેમિરૂપી હાથીનો વિષયવાસનારૂપી મદ દૂર થઈ ગયા અને તે જિનેક્ત ધર્મમાર્ગમાં प्रवृत्त थ६ गया. (१०) 5सार-एवं करति एत्याहि. હેય અને ઉપાદેય વસ્તુઓને સમ્યક્ પ્રકારે સમજનારા સંબુદ્ધ, વિષયોમાં પ્રવૃત્તિના દોષના જ્ઞાતા, આગમના રહસ્યને જાણનારા અથવા ચારિત્રના ફળને પ્રાપ્ત કરનારા પ્રવિ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे त्तिदोषज्ञाः, प्रविचक्षणाः विचक्षणश्रेष्ठाः आगममर्मवेदिनः प्राप्तचरणपरिणामा वेत्यर्थः,एवं = तथा कुर्वन्ति समाचरन्ति । किं समाचरन्तीत्याह-विणियटृति भोगेसु' इति, भोगेभ्यः =विषयेभ्यः विनिवर्तन्ते-उपरता भवन्ति, यथा सः = रथनेमिः, पुरुषोत्तमः पुरुषेषु श्रेष्ठः । ननु कथमसौ पुरुषोत्तमो यो गृहीतसंयमो भ्रातृजायामचीकमत ? उच्यते-विचित्रा खलु कर्मणां गतिः, गृहीतसंयमस्यापि रथनेमेश्चेतसि विषयवासना मोहनीयकर्मोदयवशाददबुद्धा, परन्तु वैराग्यवारिधाराधरेण राजीमतीबचनेन यदा विषयवलयदावानलजनिततापकवलितो म्लानतामापन्नो रथनेमिचेतस्तरुः सेचितस्तदैव पुनरसौ संयमामृतरसास्वादनपरो विषवद्विषयविविधदोषाकलनेन शान्तिमुपगतः परमश्चरतपः सेवनपरायणो झटिति विपयोपरतत्वेन च पुरुषोत्तमत्वं तस्य निर्बाधमेवेत्यलं पल्लवितेन । मुनिजन ऐसे ही करते हैं, अर्थात् भोगोंसे निवृत्त होते है जैसे कि-पुरुषोंमें उत्तम रथनेमिने भोगोंकी निवृत्ति की। प्रश्न-जिन्होंने संयम लेकर भी विषयवासनामें लीन होकर परम अनुचित जो कि गृहस्थभी नहीं करता ऐसी साक्षात् अपने-भाईकी भार्यापर जो कुदृष्टि करके भोगोंकी प्रार्थना की, विषयभोगोंकी इच्छामात्र भी करना चारित्रको मलिन करनेवाला और आत्माको दुर्गतिदाता है तो फिर भगवानने विषयानुरागी रथनेमिको पुरुषोंमें उत्तम कैसे कहा ? उत्तर-कर्मोंकी गति विचित्र होती है, मोहकर्मके उदयसे यद्यपि विषयभोगको अभिलाषा हुई तो भी विषयरूपी दावानलसे उत्पन्न संतापसे संतप्त हो मुरझाया हुआ रथनेमिका चित्त-रूपी वृक्ष वैराग्यरसकी बरसा करनेवाले राजोमतीजीके वचनरूपी मेघसे सींचे जाने पर शीघही संयमरूप अमृतरसके आस्वादनमें तत्पर होगया । 'विषय परम कटुक फल देनेवाले और आत्माको चतुर्गतिमें परिभ्रमण करानेवाला हैं। इस प्रकारको परम वैराग्यभावना द्वारा, શક્ષણ મુનિજનો એમ જ કરે છે, અર્થાત ભેગથી નિવૃત્ત થાય છે, કે જેવી રીતે પુરૂષોમાં ઉત્તમ રથનેમિએ ભેગોની નિવૃત્તિ કરી. પ્રશ્ન –જેમણે સંયમ લઈને પણ વિષયવાસનામાં લીન થઈને પરમ અનુચિત-કઈ ગૃહસ્થ પણ ન કરે એવી, સાક્ષાત પિતાના ભાઈની ભાર્યા પર કુદષ્ટિ કરીને ભેગની પ્રાર્થના કરી, વિષયોની ઈચ્છા-માત્ર પણ ચારિત્રને મલિન કરનારી અને આત્માને દુર્ગતિ દેનારી છે, તો પછી ભગવાને તેવા વિષયાનુરાગી રથનેમિને પુરૂષોમાં ઉત્તમ કેવી રીતે કહો ? ઉત્તર–કમેની ગતિ વિચિત્ર હોય છે. મેહકમના ઉદયથી જે કે વિષયભોગની અભિલાષા ઉત્પન્ન થઈ, તેપણ વિષયરૂપી દાવાનળથી ઉત્પન્ન થએલા સંતાપથી સંતપ્ત થઈને બેભાન બનેલા રથનેમિનું ચિત્તરૂપી વૃક્ષ, વૈરાગ્ય રસની વૃષ્ટિ કરનારા રાજમતીનાં વચનરૂપી મેઘથી સિંચિત થયા પછી, તુરતજ સંયમરૂપી અમૃતરસનું આસ્વાદન કરવામાં તત્પર બની ગયું. વિષયે અત્યંત કડવાં ફળ દેનારા અને આત્માને ચતુર્ગતિમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા છે એ પ્રકારની પરમ વૈરાગ્યભાવના દ્વારા એકાન્ત સ્થાનમાં વિષયનું સાનિધ્ય હોવા છતાં પણ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ११ अध्ययनसमाप्तिः ११५ न चाधुनिकरथने मेरुदाहणोपलम्भादिदं दशवैकालिकसूत्रमनित्यं स्यादिति वाच्यम्, पर्यायार्थिकनयमपेक्ष्याऽनित्यत्वेऽपि द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्यत्वात् । ' इति ब्रवीम' इति पूर्ववत् ।। इति गाथार्थः ॥ ११ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलित-ललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्ध-गद्य-पद्य नैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दकश्रीशाहूछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य-श्रीघासीलालव्रतिविरचितायां श्रीदशवैकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूषाख्यायां व्याख्यायां द्वितीयं श्रामण्यपूर्वकाख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥ २ ॥ एकान्त स्थानमें• विषयका सान्निध्य रहनेपर भी इन्द्रिय निग्रह करके विषयोको विषतुल्य समझ कर तत्काल त्याग दिया और उग्र तप-संयमेको पालन किया, इसलिये भगवानने उन्हें पुरुषोंमें उत्तम कहा है ॥ प्रश्न-हे गुरो ! प्रवचन अनादि और नित्य है, क्योंकि आचारांग आदि बत्तीसों शास्त्र अनादिकालसे चले आते हैं, और यह दशवैकालिक सूत्र भी उन्हीं बत्तीसोंमें हैं तो आधुनिक रथनेमि और राजोममतीका उदाहरण आनेसे तो यह सादि और अनित्य सिद्ध होता है। उत्तर-हे शिष्य ! पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे प्रत्येक पदार्थ अनित्य है इसी नयकी अपेक्षा दशकालिक भी अनित्य है, किन्तु द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे वह नित्य है । अर्थात् दशवैकालिकमें प्ररूपित मुनिका आचार सर्वज्ञोक्त है। सब सर्वज्ञों का कथन एकहीसा होता है। जिस आचारका प्ररूपण चरम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामीने किया है उसीकी प्ररूपणा ઇન્દ્રિયનિગ્રહ કરીને વિષયને વિષતુલ્ય સમજીને તત્કાળ ત્યજી દીધા અને ઉગ્ર તપ સંયમનું પાલન કર્યું, તેથી ભગવાને તેમને પુરૂષોમાં ઉત્તમ કહ્યા છે. પ્રશ્ન–હે ગુરે ! પ્રવચન અનાદિ અને નિત્ય છે. કારણ કે આચારાંગ આદિ બત્રીસે શાસ્ત્ર અનાદિકાળથી ચાલ્યા આવે છે, અને આ દશવૈકાલિક સૂત્ર પણ એ બત્રીસમાનું જ છે, તે આધુનિકરથનેમિ અને રામતીનું ઉદાહરણ આવવાથી તે એ સૂત્ર સાદિ અને અનિ. ત્ય સિદ્ધ થાય છે. ઉત્તર– હે શિષ્ય પર્યાયાર્થિક નયની અપેક્ષાથી પ્રત્યેક પદાર્થ અનિત્ય છે. એ નયની અપેક્ષાએ દશવૈકાલિક પણ અનિત્ય છે. પરંતુ દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાથી તે નિત્ય છે. અર્થાત દશવૈકાલિકમાં પ્રરૂપેલે મુનિને આચાર સર્વોક્ત છે. બધા સવાનું કથન એકસરખું જ હોય છે. જે આચારનું પ્રરૂપણ ચરમ તીર્થંકર શ્રી મહાવીર સ્વામીએ કર્યું છે તેની જ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे अनादिकालसे सब सर्वज्ञ करते आये हैं अत एव द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे यह दशवैकालिक अनादि और नित्य है ।११। इति हिन्दिभाषानुवादमें श्रामण्यपूर्वकाख्य द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ ॥२॥ --* પ્રરૂપણા અનાદિ કાળથી બધા સર્વ કરતા આવ્યા છે. એટલે દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાથી शनि मनाहि मन नित्य छे. (११) ઇતિ “શ્રામણ્યપૂર્વક નામના બીજા અધ્યયનને शुकराती-सानुबाह समास (२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ तृतीयमध्ययनम् ॥ द्वितीयेऽध्ययने 'साधुना धृतिः सन्धारणीया' इत्युक्तं, सा चाऽऽचारे न त्वनाचारे इति, तस्मादस्मिन् क्षुल्लकाचारकथा' ऽऽख्ये तृतीयेऽध्ययनेऽनाचारस्वरूपनिरूपण पुरस्सरं साधूनामाचारः प्रदर्श्यते, तत्रेदमादिमं सूत्रम् - - 'संजमे० ' इत्यादि । २ ३ १ ४ मूलम् - संजमे सुट्ठिअप्पाणं विप्पमुक्काण ताइणं । ५ ९ ६ तेसि-मेयमणाइन्नं निगंधाण महेसणं ॥१॥ छाया - संयमे सुस्थितात्मनां विप्रमुक्तानां त्रायिणाम् । तेषामेतदनाचीर्ण निर्ग्रन्थानां महर्षीणाम् ॥ १ ॥ सान्वयार्थ:-संजमे = संयममें सुद्विअप्पाणं = भलीभांति स्थिर आत्मावाले विप्पमुक्काण= शरीर आदिकी ममता से रहित ताइणं = षट्कायजीवोंके रक्षक तेसिं= उन निग्गंथाण= परिग्रहरहित महेसिणं = महर्षियोंके एयं = यह आगे कहे जानेवाले बावन अणाइन्नं - अनाचीर्ण हैं । अर्थात् महर्षियों ने इनका आचरण नहीं किया है अतः ये अनाचीर्ण-आचरण करने योग्य नहीं हैं ॥ १ ॥ टीका—संयमे = पञ्चास्रवविरमणेन्द्रियपञ्चकनिग्रह - कषायचतुष्टयजय - दण्डत्रय विरतिलक्षणे, सुस्थितात्मनाम् = निश्चलात्मनाम् तेषां = सुप्रसिद्धानां प्रसिद्धार्थकोऽत्र तच्छन्दः, तीसरा अध्ययन " दूसरे अध्ययनमें यह निरूपण किया गया है कि साधुको धीरता (दृढ़ता ) धारण करना चाहिये, वह धीरता आचारमें होनी चाहिये अनाचार में नहीं, इसलिए 'क्षुल्लका चारकथा' नामक इस तीसरे अध्ययनमें अनाचार के निरूपणपूर्वक मुनिओंके आचारका निरूपण किया जाता है - 'संजमे सुट्ठि ० ' इत्यादि । संयममें भलीभाँति स्थित, संसारसे मुक्त, स्व-पर- उभयका त्राण ( रक्षण) करनेवाले अर्थात् प्रत्येकबुद्ध - स्व-अपनी आत्मा के त्राता; तीर्थंकर - परके त्राता और स्थविर - उभय અધ્યયન ત્રીજી બીજા અધ્યયનમાં એ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યુ' હતું કે-સાધુએ શ્રીશ્તા (દૃઢતા) ધારણ કરવી જોઈએ, એ ધીરતા આાચારમાં હોવી જોઈએ. અનાચારમાં નહિ; તેથી ‘ક્ષુલ્લકાચારકથા' નામક આ ત્રીજા અધ્યયનમાં અનાચારના નિરૂપણપૂર્વક મુનિએના આચારનું નિરૂપણ वामां आवे छे -संजमे सुट्ठि इत्यादि. ८ સયમમાં સારી રીતે સ્થિત, સ’સારથી મુક્ત, સ્વ પર ઉભયનું ત્રાણુ (રક્ષણ) કરનાર अर्थात् प्रत्येभ्युद्ध-स्व.पोताना आत्माना त्राती, तीर्थ ४२ - परना त्राता, मने स्थविर શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवैकालिकसूत्रे विप्रमुक्तानां विशिष्टरूपया परमार्थभावनया प्रकर्षेण शरीरादिममत्वतो मुक्ताः, यद्वा 'इमे विषयकषाया अनन्तभवभ्रमणदुःखसंभारपादपसेचकाः, एतेषां जननीजनकबान्धवादीनां ममत्वं भवबन्धननिबन्धनम्, एतं पृथिव्यादिषड्जीवनिकायमनन्तवारान् ममात्मा सम्प्रविष्य नानादुःखमन्वभूत् वस्तुतो नास्ति मम कोऽप्यात्मीय इति, रागादयश्च जीवमृगवागुरायमाणत्वान्महाशत्रव इत्यहो ! शत्रुहस्तगतोऽहं स्वकीयाऽभ्युदयनिःश्रेयससाधनाक्षमः संजातोऽस्मि, धिङ् माम् । उक्तश्च " इह हि मधुरगीतं नृत्यमेतद्रसोऽयं, स्फुरति परिमलोऽयं स्पर्श एषोऽङ्गनानाम् । इति हतपरमार्थे - रिन्द्रियैर्भ्राम्यमाणः, ११८ " स्वहित करणधूर्तेः पञ्चभिर्वञ्चितोऽस्मि ॥१॥” इति ' ( स्व - पर) के त्राता होते हैं इसलिए ये सब त्रायी कहलाते हैं, इन निर्ग्रन्थ महर्षियों को ये (आगे बताये जानेवाले ५२ अनाचार ) आचरण करने योग्य नहीं हैं । पांच आस्रवोंसे विरमण, पाँचों इन्द्रियोंका निग्रह, क्रोधादि चार कषायोंको जीतने, तीन दण्डों का त्याग करनेरूप संयममें दृढ़ आत्मा वाले, प्रसिद्ध, विशेष प्रकारकी परमार्थ भावना भाकर शरीर आदिकी ममता से मुक्त, अथवा ये विषय - कषाय भवभ्रमणके दुःखरूपी वृक्षको सींचने वाले हैं, माता-पिता भाई-बन्द कुटुम्ब परिवार, इन सबकी ममता संसार-बंधका कारण है, पृथ्वीकाय आदि छह जीवनिकायोंमें मेरो आत्मा अनन्तवार उत्पन्न होकर नाना प्रकारकी पीडाओंका अनुभव कर चुकी है, वास्तवमें संसार में कोई भी मेरा नहीं है । यह रागादि दोष, जीवरूपी हरिणके लिए व्याधके समान होनेके कारण महान् शत्रु हैं । खेद है कि मैं उन वैरियोंके वशमें पड़कर अपने परम अभ्युदय - स्वरूप मोक्षके साधनमें भी असमर्थ हो गया हूँ मुझे धिक्कार है । कहा भी है "कैसा कर्णमधुर गीत है, कैसा नेत्रोंको लुभानेवाला नृत्य है, कैसा जिह्वाका प्रिय स्वाद उलय-(स्व-५२) ना त्राता होय छे, तेथी थे सर्व त्रायी अडवाय छे. ये निर्थन्थ भहर्षियोને એ (આગળ બતાવવામાં આવનારા આવન અનાચાર) આચરવા ચેગ્ય નથી. પાંચ આસ્રવાથી વિરમણુ, પાંચે ઇન્દ્રિયાના નિગ્રહ, ક્રાદિ ચાર કષાયાને જીતવા, ત્રણ ઇંડાના ત્યાગ કરવારૂપ સંયમમાં દૃઢ આત્માવાળા, પ્રસિદ્ધ,વિશેષ પ્રકારની પરમાર્થ ભાવના ભાવીને શરીર આદિની મમતાથી મુક્ત, અથવા એ વિષય-કષાય ભવ-ભ્રમણના દુઃખરૂપી વૃક્ષને સીંચનારા છે, માતા-પિતા ભાઈ-બંધ કુટુમ્બ પરિવાર એ સની મમતા સંસારમ’ધનનું કારણ છે, પૃથ્વીકાય આદિ છ જીગનિકાયમાં મારો આત્મા અન તવાર ઉત્પન્ન થઈને નાના પ્રકારની પીડા એના અનુભવ કરી ચૂકયા છે. વાસ્તવમાં કેઈપણુ મારૂં નથી, મા રાગાદિ દોષ જીવરૂપી હરણને માટે વ્યાધ ( પારધી ) ની સમાન હાવાને કારણે મહાન શત્રુ છે, ખેદની વાત છે કે હું એ વેરીઓને વશ પડીને પેાતાના પરમ અભ્યુદય સ્વરૂપ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा० १ महर्षिस्वरूपम् ११९ " एवंविधविविधभावनाभिः सर्वथा रागादितो मुक्ताः पिप्रमुक्तास्तेषाम्, त्रायिणाम् = त्राणं = स्वस्य परस्योभयस्य च रक्षणं त्रायः, सोऽस्त्येषामिति त्रायिण;,' प्रत्येकबुद्धाः स्वस्य, तीर्थङ्कराः परस्य, स्थविरा उभयस्येतीमे सर्वे त्रायिण उच्यन्ते । निर्ग्रन्थानां बाह्याऽऽभ्यन्तरपरिग्रहरूपाद् ग्रन्थान्निर्गताः निर्ग्रन्थास्तेषाम् । महर्षीणाम् - महान्तश्च ऋषय इति महर्षयस्तेषाम् यद्वा 'महर्षिणाम्' इतिच्छाया, महः = जन्मजरामरणदुःखरहितत्वेनैकान्तोत्वरूपो मोक्षस्तम् ऋपन्ति गत्यर्थधातूनां प्राप्त्यर्थत्वात् प्राप्नुवन्तीत्येवंशीला महर्षिणस्तीर्थङ्करगणधरादयस्तेषाम् एतत् द्वापञ्चाशता भेदैर्वेक्ष्यमाणम्, अनाचीर्णम् - अनासेवितम्, अस्तीति शेषः । अत्र महर्षिणामित्यन्तेषु कर्तुः शेषत्वविषया षष्ठी । यतः संयमे सुस्थितात्मानोत एव विमुक्ताः, यतो विप्रमुक्ता अतत्रायिणः, यतस्त्रायिणोऽतो निर्ग्रन्थाः, है, कैसा नासिकाको आकर्षित करनेवाला सुगन्ध है और स्त्री आदिका स्पर्श कैसा सुखकारी है । इस प्रकार अनुभव कराकर परमार्थका सत्यानाश करनेवाली अपना स्वार्थ साधने में धूर्त इन दगाबाज पांचों इन्द्रियोंने हाय ! मेरी आत्मिक-सम्पत्ति से मुझे वंचित कर दिया- मुझको लूट लिया ॥ १ ॥ " इस प्रकारकी भावनाओं द्वारा राग आदि शत्रुओंसे सर्वथा मुक्त होनेवाले, संसारभ्रमणसे भयभीत भव्य जीवों की तथा आत्माकी रक्षा करनेवाले, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्ररूपी ग्रन्थिसे रहित, महान् ऋषि-तीर्थंकर आदि या जन्म- जरा - मरणके दुःखोंसे रहित होने के कारण एकान्त आनन्दस्वरूप मोक्षको प्राप्त करनेवाले मुनियोंके, आगे कहेजाने वाले बावन अनाचार (अनाचोर्ण) हैं । अर्थात् ये बावन अनाचार मुनियोंके सेवने योग्य नहीं हैं । यहाँ षष्ठी विभक्तिवाले अनेक विशेषण दिये गये हैं, उन सबमें पहले२ के विशेष कारण हैं और आगे आगे के कार्य हैं जैसेसंयममें भली भाँति स्थित होनेके कारण विप्रमुक्त हैं, विप्रमुक्त होनेसे स्व-पर के त्राता (रक्षक) हैं, માક્ષના સાધનમાં પણ અસમર્થ બની ગયા છું, મને ધિક્કાર છે. કહ્યું છે કે— કેવું કણ મધુર ગીત છે, કેવુ' નેત્રને લાભાવનારૂં નૃત્ય છે, કેવા જવાને પ્રિય સ્વાદ છે, કેવી નાકને આકષિ ત કરનાર સુગંધ છે, અને શ્રી આદિને સ્પર્શ કેવો સુખકારી છે, એ પ્રમાણે અનુભવ કરાવીને પરમાર્થ નુ સત્યાનાશ વાળનારી પેાતાના સ્વાર્થ સાધવામાં ધૂત એ દગાબાજ પાંચે ઇ'દ્વિરેએ, હાય ! મને મારી આત્મિક-સંપત્તિથી વ`ચિત કરી નાંખ્યા -भने सुंटी बीघे." (१) એ પ્રકારની ભાવનાઓ દ્વારા રાગાદિ શત્રુએથી સર્વથા મુક્ત થનારા, સંસાર ભ્રમડુથી ભયભીત ભન્ય જીવાની તથા આત્માની રક્ષા કરનારા, બાહ્ય અને આભ્યંતર પરિગ્નહરૂપી ગ્રંથિથી રહિત, મહાન્ ઋષિ તીર્થંકર આદિ, યા જન્મ જરા-મરણનાં દુઃખાથી તિ હાવાને કારણે એકાંત આન દસ્વરૂપ માક્ષને પ્રાપ્ત કરનારા મુનિઓને માટે, આગળ કહેવામાં આવનારા ખાવને અનાચાર (મનાચીણ) છે. અર્થાત્ એ બાવન અનાચાર મુનિઓને સેવવા યેાગ્ય નથી. અહી છઠ્ઠી વિભક્તિવાળાં અનેક વિશેષણા આપવામાં આવ્યાં છે, એ ખધામાં પહેલાં-પહેલાંના વિશેષળુ કારણ છે અને પછી-પછીનાં કાય છે. જેમકે-સંયમમાં સારી રીતે १ अत्र 'अत इनिठना, विति मत्वर्थीय इनिः ताच्छील्य णिनिस्तु न तस्य सुबन्त पूर्वकत्व एव प्रवृतेरिति यवम् શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P20 commm श्रीदशवैकालिकसूत्रे यतो निर्ग्रन्था अतो महर्षयः, इति यथोत्तरं पूर्व-पूर्वस्य हेतुत्वेन भवति विशेषणसंगतिरिति बोद्धव्यम् । नन्वेतावता 'यद्यन्महापुरुषैरनाचीणं तत्तदनाचरणीयं, यद्यत्त्वाचीर्ण तत्तदाचरणीयमेवेत्यायातं ततश्च तीर्थङ्करार्थ सुरसम्पादितैरष्टविधमहाप्रातिहास्तीर्थङ्करा युक्ता इति वयमप्यस्मदर्थ सम्पादितः कथं न युक्ता भवेमेति चेद् ? भ्रान्तोऽसि, ते हि वीतरागत्वात् कल्पातीताः, वयं तु कल्पस्थिता इति, कल्पातीतानां तेषां जिनेश्वराणामष्टमहाप्रातिहार्यागि तीर्थङ्करगोत्रनामप्रकृत्युदयमहिम्ना प्रतिभासितानि भवन्ति, न तु तानि सुरैः संपाद्यन्ते, अत एव औषपातिकसूत्रे-- " आगासगएणं चक्केणं आगासगएणं छत्तेणं आगासियाहिं चामराहिं " इत्यस्य व्याख्यायाम्--- "आगासगएणं चक्केणं "-ति आकाशवर्तिना चक्रेण-धर्मचक्रेण, 'आगासगएणं छत्तेणं '-ति छत्रत्रयेण 'आगासियाहि '-ति, आकाशम् अम्बरम् इताभ्यां प्राप्ताभ्याम् आत्राता होनेसे निम्रन्थ हैं, निम्रन्थ होनेसे महर्षि हैं। शङ्का-इस गाथासे यह तात्पर्य निकला कि महापुरुषोंने जिस जिस का आचरण नहीं किया वह वह अनाचरणीय है, उन्होने जिस जिसका आचरण किया वे सब आचरण करने योग्य हैं, यदि ऐसा ही हैं तो श्रीतीर्थङ्कर भगवान् देवनिर्मित आठ महाप्रातिहार्योंसे युक्त होते है इसलिए हम भी हमारे लिए बनाये हुए पदार्थोसे युक्त क्यों न होवें ? समाधान हे वत्स ! ऐसा नहीं है, क्यों कि वे वीतराग होनेसे कल्पातीत हैं, और हम कल्पस्थित हैं, इसलिए उन कल्पातीत जिनेश्वरों के तीर्थङ्करगोत्र-नाम-प्रकृतिके उदयको महिमासे अष्ट महाप्रातिहार्य केवल भासित होते हैं किन्तु देवताओंसे समर्पित नहीं किये जाते, अत एव औपपातिक सूत्रके "मागासगएणं चक्केणं" इत्यादि पदोंकी व्याख्यामें कहा है-"आकाशस्थित સ્થિત હોવાને કારણે વિપ્રમુક્ત હોવાથી સ્વ-પરના ત્રાતા (રક્ષક) છે, ત્રાતા હોવાને કારણે नि छ, नि पाने वाधे महब छे. શંકા-આ ગાથામાંથી એ તાત્પર્ય નીકળ્યું કે- મહાપુરૂષોએ જેનું જેનું આચરણ નથી થ” છે તે અનાચરણીય છે, અને તેમણે જેનું જેનું આચરણ કર્યું તે બધું આચરણ કરવા ગ્ય છે. જે એમ છે તે તીર્થકર ભગવાન દેવનિર્મિત આઠ મહાપ્રાતિહાર્યોથી યુક્ત હોય છે, તેમ આપણે પણ આપણા માટે બનાવેલા પદાર્થોથી યુક્ત કેમ ન થવું ? સમાધાન હે વત્સ ! એમ નથી, કારણ કે તે વીતરાગ હોવાથી કલ્પાતીત છે, અને આપણે ક૫સ્થિત છીએ. એ કપાતીત જિનેશ્વરનાં તીર્થ કર–ગેત્ર-નામપ્રકૃતિના ઉદયના મહિમાથી આઠ મહાપ્રાતિહાર્ય કેવળ ભાસિત થાય છે; પરન્તુ દેવતાઓ તરફથી સમર્પિત થતાં નથી, એટલે ઔપપાતિક સૂત્રના ચાર પળ જળ ઇત્યાદિ વ્યાખ્યાનમાં કહ્યું છે -"ARIशस्थित य, छत्र सने यामाथी भगवान् क्षित थाय छे.” महीक्षित' શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा०२ (५२) अनाचोर्णानि १२१ कर्पिताभ्यां वा आकृष्टाभ्यामुत्पाटिताभ्यामित्यर्थः, 'चामराहिं '-ति चामराभ्यां प्रकीर्णकाभ्यां प्राकृतत्वाच्च लिङ्गव्यत्ययः, ' लक्षितः इति सर्वत्र गम्यम्" इत्युक्तम् । अत्र 'लक्षितः' इत्युक्त्याऽन्यकृत इति स्पष्टं निराक्रियते, यथा-अर्द्धमागधभाषया प्रवृत्ताऽपि तीर्थङ्करवागू समवसरणगतानां देवानां मनुष्याणां तिरश्चां च स्व-स्व भाषानुरूपा प्रतिभाति किन्तु न सा तादृशी, तस्मादस्मादृशां तदसदृशां तदुक्तकल्प एव स्थातव्यं, न तु तथाऽनुकरणीयमिति दिक् इति गाथार्थः ॥ १॥ अनाचीर्णान्याह-'उद्देसियं०' इत्यादि, मूलम्-उद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य । राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीयणे ॥२॥ छाया---औदेशिक क्रीतकृतं, नियागमभ्याहृतानि च । रात्रिभक्तं स्नानं च, गन्ध-माल्ये च वीजनम् ॥ २॥ सान्वयार्थ:-(१) उद्देसियं-औद्देशिक-किसी एक साधुके लिए बनाया हुआ आहार (२) कीयगडं साधुके लिए खरीदा हुआ आहार (३) नियागं=निमंत्रणसे ग्रहण किया हुआ आहार (४) अभिहडाणि-सामने लाकर दिया हुआ आहार (५) राइभत्ते-रात्रिभोजन (६) सिणाणे-स्नान य और (७) गंध-चन्दनादिलेप (८) मल्ले-पुष्पादिमाला (९) वीयणे-पंखा ॥२॥ टीका-औदेशिकम् = उद्देशनमुदेशस्तत्र भवं तत्प्रयोजनमस्येति वा औदेशिकं साध्वादिकमुद्दिश्य निष्पादितमित्यर्थः (१), चक्र, छत्र और चामरोंसे भगवान् लक्षित होते हैं। यहां पर 'लक्षित' ऐसा कहनेसे साफर यह दिखलाया गया है कि-औरोंको छत्र चमरादिसे युक्त भगवान् लक्षित होते हैं किन्तु वे चक्र-छत्रादि अन्य-(देव)-कृत नहीं हैं । जैसे अर्द्धमागधीभाषारूपा भी तीर्थङ्कर की वाणी, समवसरणमें आये हए देव मनुष्य तियेचोंकी अपनी अपनी• भाषाके स्वरूपमें ही प्रतीत होती है किन्तु वस्तुतः वह वैसी नहीं है, अत एव उन कल्पातीतोंकी तुलनामें नहीं पहुंचे हुए हम छद्मस्थोंको तो उनके कहे हुए कल्पमें ही रहना चाहिए, न कि उनका अनुकरण करना चाहिए ॥१॥ अब (५२)- अनाची को दिखलाते हैं-'उद्देसियं०' इत्यादि । કહેવાથી એમ સાફ સાફ બતાવ્યું છે કે-બીજાઓને છત્ર-ચામરાદિ-ન્યુક્ત ભગવાન લક્ષિત થાય છે, પરંતુ તે ચક-છત્રાદિ અન્ય (દેવ) કૃત નથી હોતાં. જેમ અર્ધમાગધીભાષારૂપ પણ તીર્થકરની વાણી સમવસરણમાં આવેલા દેવ-મનુષ્ય-તિયાને પોતપોતાની ભાષાના સ્વરૂપમાં જ પ્રતીત થાય છે, કિન્તુ વસ્તુતઃ તે તેવી નથી હોતી. એટલે એ કપાતીતાની તલનામાં નહિ પહોંચેલા આપણે છદ્મસ્થાએ તે એમણે કહેલા કપમાં જ રહેવું જોઈએ. नहितमनु मनु४२ २ . (१) - - શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीदशवैकालिकल्ने क्रीतकृतं = क्रीतेन = क्रयणेन कृतं = सम्पादितं साधुकृते मूल्येन गृहीतमिति यावत् (२), नियागं-नि-निरतिशयो योगो निमन्त्रणादिरूपः संस्कारो यस्मिस्तत्-आमन्त्रित पिण्डस्य कदाचिदपि ग्रहणम्, अनामन्त्रितस्य नित्यग्रहणमिति भावः (३), अभ्याहृतानि स्व-पर-ग्राम-गृहादिभेदभिन्नानि साधुनिमित्तं सम्मुखमानीय दत्तानि, बहुवचनं सर्वेषामेवाऽभ्याहृतानामनाचीर्णत्वख्यापनार्थम् (४), रात्रिभक्तं रात्रिभोजनं रात्र्यादिगृहीतं भक्तं वा (५), स्नान-प्रसिद्धम् (६), (१) औदेशिक' (२) क्रीतकृत, (३) नियाग, (४) अभ्याहृत, (५) रात्रिभोजन, (६) स्नान, (७) गन्ध, (८) माल्य, (९) पंखा चलाना । (१) साधु आदिके लिए जो आहार बनाया जाता है उसे औदेशिक कहते हैं। (२) साधुके लिए मूल्य देकर जो आहारादि खरीद किया गया हो उसे क्रीतकृत कहते हैं। (३) गृहस्थका निमन्त्रण पाकर कभी भी आहार लेना अथवा प्रतिदिन एक ही घरसे आहार लेना नियागपिण्ड है। (४) अपने गांव परगांवसे अथवा घरसे साधुके सामने लाया हुआ आहार अभ्याहृत पिण्ड है। ____ अभ्याइतके लिए गाथामें बहुवचन आया है यह उसका अभिप्राय है कि जितने भी अभ्याहृत (सामने लाये हुये) हैं वे सभी अनाचार हैं। (५) रात्रिमें आहार लेना, दिनमें लेकर रात्रिमें खाना आदि रात्रिभक्त है (६) देशतः सर्वतः स्नान करने को स्नान-अनाचार कहते हैं। लव (५२)-मनाया शव छ-उद्देसियं० छत्याहि. (१) मौA४, (२) तत, (3) (नयाग, (४) सल्याहत(५) विमान, (6) स्नान, (७) अध, (८) माध्य, () ५। यतावा (૧) સાધુ આદિને માટે જે આહાર બનાવવામાં આવ્યો હોય તેને ઓશિક કહે છે. (૨) સાધુને માટે મૂલ્ય ખચીને જે આહારાદિ ખરીદ કરવામાં આવેલ હોય તેને કીતકૃત કહે છે. (૩) ગૃહસ્થનું નિમંત્રણ મેળવીને કોઈવાર પણ આહાર લે અથવા પ્રતિદિન એકજ ઘેરથી આહાર લે એ નિયાગપિંડ કહેવાય છે. (૪) પિતાના ગામથી, પરગામથી અથવા ઘેરથી સાધુની સામે લાવવામાં આવેલ આહાર અભ્યાહુત-પિંડ કહેવાય છે. અભ્યાહતને માટે માથામાં બહુવચન આવ્યું છે તેને એ હેતુ છે કે-જેટલા અભ્યાહત (સામે લાવેલા) હોય તે બધા અનાચાર છે. (५) रात्रे माडा देवी, हम साधने रात्रे मावा, त्या निमित ४ाय छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अध्ययन ३ गा० ३ (५२) अनाचोर्णानि गन्धमाल्ये-गन्धः चन्दन-केतकादिसौरभम् (७) माल्यं-पुष्पादिमाला, तयोरितरेतरयोग इति गन्ध-माल्ये (८), तथा वीजनं ग्रीष्मादिऋतौ तालवृन्तादिना वातादिसञ्चालनम् (९), अत्राऽऽरम्भादयो दोषा जायन्त इति स्वयमवगन्तव्यम् । औदेशिकक्रीतकृतयोः स्वरूपं सप्रपञ्चं पञ्चमाध्ययने वक्ष्यते ॥२॥ मूलम्-संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणा य॥३॥ (छाया)--संनिधि गृह्यमत्रं च, राजपिण्डः किमिच्छकः । संवाहनं दन्तप्रधावनं च, संप्रच्छनं देहप्रलोकनं च ॥३॥ सान्वयार्थः- - (१०) संनिही-रात्रिमें आहार आदिका संचय (११) गिहिमत्ते-गृहस्थके पात्रमें भोजन करना य और (१२) रायपिंडे-राजाके लिए बनाया हुआ आहार (१३) किमिच्छए-दानशाला या अन्नक्षेत्र आदीका आहार (१४) संवाहणा-शरीरकी मालिश करना (१५) दंतपहोयणा-दांत मांजना य और (१६) संपुच्छणा-गृहस्थसे कुशलप्रश्न पूछना य-और (१७) देहपलोयणा-दण या जलमें मुख आदी देखना ॥३॥ टीका--संनिधीयते सम्यक्तया नितरां स्थाप्यते नरकादिष्वात्माऽनेनेति संनिधिः संभवादत्र घृतादिसञ्चयकरणम् (१०), (७-८) चन्दन केतक अतर आदिकी सुगन्ध तथा फूलमाला आदिका सेवन करना गन्धमाल्य-अनाचार है। (९) ग्रीष्मादि कालमें पंखा चलाना यह व्यजन-अनाचार हैं ? इनसे आरम्भ आदि दोष होते हैं सो स्वयं समझना चाहिये। औद्देशिक और क्रीतकृतका विस्तारपूर्वक विवेचन पांचवें अध्ययनमें किया जायगा ॥१॥ (१०) संनिधि-जिस अनाचारका सेवन करनेसे आत्मा नरकादि कुगतियोंमें गिरती है अर्थात् घृत औषध आदिका रात्रिमें बासी रखना संनिधि-अनाचार है। (6) शिथी (था लागे ) साथी (२माणे शरीरे ) स्नान ४२ से स्नान-बनाया हैपाय छे. (७-८) यन, 31, मत्त२ महिनी सुध तथा ८ भासा माहितु सेवन २७ सध-मादय-मनाया ४वाय छे. (૯) ગ્રીષ્માદિ કાળમાં પંખે ચલાવ એ વ્યજન-અનાચાર છે. એથી આરંભ આદિ દોષ લાગે છે તે પિતેજ સમજવું જોઈએ. ઔદેશિક અને કીતકૃતનું વિસ્તારપૂર્વક વિવેચન પાંચમાં અધ્યયનમાં કરવામાં આવશે. (૨) (૧૦) સંનિધિ-જે અનાચારનું સેવન કરવાથી આત્મા નરકાદિ દુર્ગતિમાં પડે છે, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ १८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे गृह्यमत्रं गृहिणां गृहस्थानाम् अमत्रं पात्रं प्रसंगादत्र तस्मिन्नभ्यवहरणादि (११), राजपिण्डः - राजार्थ निष्पन्नाऽऽहारः (१२), किमिच्छकं = 'कः किमिच्छत्याहारादिक'-मित्येवं पृच्छयते यस्मिन् कर्मणि तत्, अन्नसत्र-(सदाव्रत)-शालादित आहारादिग्रहणमित्यर्थः (१३), संवाहनम् = अस्थ्यादिसुखविशेषजनकं तैलादिना शरीरसंमर्दनम् (१४) दन्तप्रधावनं = दन्तमार्जनम् (१५), संप्रच्छनं = गृहस्थं प्रति कुशलादिरूपसावधप्रश्नकरणम् (१६), देहप्रलोकनं = जलदर्पणादिषु मुखादिनिरीक्षणम् (१७), चकाराः समुच्चयार्थाः । संनिध्यादिषु परिग्रहादयो दोषाः प्रतीताः ॥३॥ १९ मूलम्-अट्ठावए य नालीए; छत्तस्स य धारणट्ठाए । २० २१ २२ तेगिच्छं पाहणा पाए समारंभं च जोइणो ॥४॥ (११) गृह्यमत्र-गृहस्थके पात्रमें आहार आदि करना गृह्यमत्र हैं। (१२) राजपिण्ड-राजाके लिए बनाया हुआ आहार लेना राजपिंड है। (१३) किमिच्छक-जिसमें यह पछा जाता है कि कौन क्या चाहता है ? अर्थात् दानशाला ( सदाव्रत ) आदिसे आहार लेना किमिच्छक है। (१४) संवाहन-अस्थि, मांस, त्वचा, रोमको आनन्ददायक चार प्रकारका मर्दन करना संवाहन है । (१५) दन्त प्रधावन-दांत धोना ।। (१६) संप्रच्छन-गृहस्थसे कुशल आदि रूप सावध प्रश्न पूछना । (१७) देहप्रलोकन-जलमें अथवा दर्पण आदिमें अपना मुख आदि देखना । सन्निधि आदिमें परिग्रहादि दोष प्रसिद्ध हैं !।३।। અર્થાત ધી ઓસડ આદિ રાત્રે વાસી રાખવાં તે સંનિધિ-અનાચાર છે. (૧૧) Jધમત્ર-ગૃહસ્થના પાત્રમાં આહાર આદિ કરો તે ગૃહ્યમત્ર કહેવાય છે. (૧ર) રાજપિંડ-રાજાને માટે બનાવેલો આહાર લે તે રાજપિંડ છે. (૧૩) કિમિચ્છક-જેમાં એ પૂછવામાં આવે છે કે કેને શું જોઈએ છે? અર્થાત દાનશાલા ( સદાવ્રત) આદિ પાસેથી આહાર લે તે કિમિચ્છક કહેવાય છે. (१४) वाहन-मस्थि, मांस, त्वया, शेभने मानहाय या२ ४२नु भहन ४२७ से सपाहुन छे. (१५) प्रधान-हात धोका (१६) संछन-गृहस्थने शत भाई ३५ सावध प्रश्नो ५७वा. (૧) દેહપ્રલોકન-જલમાં અથવા દર્પણ આદિમાં પિતાનું મુખ આદિ જેવાં, સનિધિ हिमा परिहा होष प्रसिद्ध छे. (3) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यवन ३ गा० ४ (५२) अनाचीर्णानि छाया--अष्टापदं नालिकया, छत्रस्य धारणार्थाय (धारणाऽष्टया)। चैकित्स्यमुपानहौ पादयोः, समारम्भश्च ज्योतिषः॥४॥ __ सान्वयार्थ:--(१८) नालीए = एके उपकरण-साधनसे अट्ठावए = चौपड़ शतरञ्ज आदि खेलना. (१९) अट्ठावए - मुट्टीसे छत्तस्स - छातेका धारणं धारण करना (२०) तेगिच्छं = रोगको चिकित्सा करना (२१) पाए पाहणा-पैरों में जूते चंपल मोजे आदि पहिनना च = और (२२) जोइणो = अग्निका समारंभ = आरंभ करना ॥४॥ टोका--च = तथा, नालिका = यथाऽभिमतपतनाथे यया पाशः पात्यन्ते सा= पाशपातनद्रव्यम् तया, उपलक्षणमेतत्-धतोपकरणमात्रस्य, अष्टापदम्-अष्टो अष्टौ पदानि = स्थानानि (गृहाणि) सर्वभागेषु यस्मिंस्तथा वस्त्राऽऽधारस्थानम्, इह च लक्षणया धूतसामान्यम् (१८), च-किञ्च छत्रस्य = आतपत्रस्य धारणार्थाय ग्रहणमिति शेषः ॥ यद्वा- धारणा अट्ठाए' इतिच्छेदः, 'अट्ठा' इत्यस्य 'मुष्टि'-रित्यर्थः,''चउहिं अट्ठाहिं लोयं करेइ' चतसृभिरष्टा भिलौंचं करोति जम्बूद्वीप प्रज्ञप्त्यादौ तथा दर्शनात्. ततश्च 'अट्ठाए = अष्टया = मुष्टया छत्रस्य धारणा = ग्रहणमित्यर्थः । न च छत्रादिधारणं मुष्टयादिनैव संभवतीति 'अट्ठाए' (१८) अष्टापद-'नालीए' अर्थात् फेंककर चौपड़, शतरंज आदि खेलना, अथवा अन्य प्रकार से जुआ खेलना। (१९) छत्रधारण करना । गाथामें 'धारणढाए' ऐसा पद है उसे अलग अलग करनेसे 'धारणा अट्टाए' होता है । यहाँ अट्ठा शब्दका अर्थ 'मुट्ठी' है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें कहा है कि चउहि अद्राहिं लोयं करेइ' अर्थात्-ऋषभदेव भगवान्ने चार मुट्ठी लोच किया । अतः 'धारणदाए' का अर्थ 'मुट्ठीसे छत्रको ग्रहण करना' हुआ। प्रश्न-छत्र तो मुट्ठीसे ही पकड़ा जाता है फिर 'अट्टाए' की क्या आवश्यकता है ? जैसे "मुखसे बोलता है" इस वाक्यमें ' मुखसे' इतना अंश व्यर्थ है, क्योंकि सिवाय मुखके और किसी अंगसे नहीं बोला जाता, इसी प्रकार यहां 'मुट्ठीसे' कहना भी वृथा है ? (१७) मष्टा५४-नालीए अर्थात्-पासा अन यापाट. शत२४. माहितयां, अथवा અન્ય પ્રકારે જુગાર ખેલો. (१९) छत्र धा२९] ४२. गाथामा धारणहाए मेयु ५६ छ, मेने छुट पाउपाथी धारणा +अढाए थाय छे. मी २५८१ शहने। मथ 'मुही' छ । दीपप्रज्ञातमा धुंछे-चहि अशाहि लोयं करेइ मात-पम भगवाने, यार भुडी. वाय यो मेरो धारणद्वाएन। અર્થ “મુઠીથી છત્રને ગ્રહણ કરવું એ થયો. પ્રશ્ન-છત્ર તે મુઠીથી જ પકડવામાં આવે છે, પછી બાપ એ પદની શી જરૂર રહે છે? જેમકે સુખથી બેલે છે” એ વાકયમાં “મુખથી એટલે અંશ વ્યર્થ છે, કારણ કે મુખ વિના બીજા કેઈ અંગથી બોલી શકાતું નથી. તેજ રીતે ત્યાં “મુઠીથી એમ કહેવું એ પણ वृथा छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे इत्यस्य 'मुखेन पठती' इत्यादिषु मुखादिवद्वैयर्थ्य मिति शङ्कनीयम्, चक्षुभ्यां पश्यति, कर्णाभ्यां शृणोति, जिह्वया लेढो' इत्यादि-लोकोक्तिषु चक्षुरादोनामिव यथास्थितवस्तु प्रतिपादनमात्रतात्पर्येणाऽपौनरुक्त्यान, अत्रैव गाथायामुत्तरार्द्ध 'पाहणा पाए' इत्यत्र ‘पाए' इतिवदिति, उपलक्षणमेतच्छिरसि छायाकरणमात्रस्य (१९), 'चैकित्स्य-चिकित्सा व्याधिप्रतीकारः, कफपित्तादिवैगुण्य, ग्रहादिवैगुण्यं च व्याधेर्निदानं तत्प्रशमनं तदुपायोपदेशादिनेत्यर्थः (२०), पादयोः-चरणयोः, उपानहौ-चर्मपादुके, उपलक्षणमिदं काष्ठपादुकादीनामपि (२१) १-'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च (५।२।१२४) इत्यत्रत्य ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वात्स्वाथे व्यञ् तत आदिवृद्धिराल्लोपश्च, यत्तु 'चिकित्साया भावश्चकित्स्य' मिति टीकान्तरकृतस्तद् व्याकरणाऽनवबोधमूलकमेव, भावप्रत्ययान्ताद्भावप्रत्ययस्याऽनुत्पत्तेः, चिकित्सायाः कमें' त्यर्थकल्पनमपि केषांचित्प्रामादिकमेव चिकित्साया रोगापनयनक्रियारूपायाः स्वत एव कर्मभूतत्वेन कर्मपर्यायत्वात्, ध्यविधायकसूत्रे हि कर्म-क्रिये' ति वैयाकरणाः ॥ उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं, क्योंकि लोकमें "आंखोंसे देखता है, कानोंसे सुनता है, जिह्वासे चखता है" इत्यादि वाक्योंमें 'आंखोंसे' 'कानोंसे' 'जिह्वासे' इन पदोंके बोलनेका अभिप्राय यथास्थित वस्तुका प्रतिपादन करना है, इस गाथाके उत्तरार्द्ध में 'पाहणा पाए' पद आया है इसका अर्थ है कि-पैरोंमें उपानह (जूता), उपानह यद्यपि पैरों में पहने जाते हैं हाथ या सिरमें नहीं पहने जाते फिर भी पाए' कहनेसे पुनरुक्ति नहीं है, क्योंकि इस पदसे यथावस्थित वस्तुका प्रतिपादनमात्र किया गया है, इसलिए 'मुट्ठीसे छत्र धरना, ऐसा कहना अयुक्त नहीं है। (२०) चैकित्स्य-चिकित्सा करना, अर्थात् वैद्यक करना, या ग्रह आदिको मन्त्र वगैरहसे शांत करना, या इस विषयका उपदेश देना । (२१) उपानह (जूता) या मोजा आदि पहनना । ઉત્તર–એ પ્રશ્ન બરાબર નથી, કારણ કે લેકમાં “આંખોથી જોવે છે, “કાનથી સાંભળે छ, थी या छ,' त्या वायोमा 'मामाथी,' नथी, मथी' सेशन्हा मा५વાનો હેત યથાસ્થિત વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરવાનું છે. આ ગાથાના ઉત્તરાર્ધમાં પાળા પાપ પદ આપ્યું છે તેનો અર્થ છે-“પગમાં ઉપાડ (જેડા), જે કે જેડા પગમાં જ પહેરવામાં આવે છે, હાથે કે માથે નહિ, તે પણ પાપ કહેવાથી પુનરૂક્તિ થતી નથી, કારણ કે એ શબ્દથી યથાવસ્થિત વસ્તુનું પ્રતિપાદન માત્ર કરવામાં આવ્યું છે. તેથી “મુકીથી છત્ર ધરવું” એમ કહેવું એ અયુક્ત નથી. (૨૦) ચૂકિસ્ય-ચિકિત્સા કરવી અર્થાતુ વૈદું કરવું, અથવા પ્રહાદિ ને મંત્ર વગેરેથી શાન્ત કરવા અથવા એ વિષયને ઉપદેશ આપવો. (२१) SING (.) अथ। मामा परवां શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा०५ (५२) अनाचीर्णानि a amam.m. १२७ च% किञ्च ज्योतिषः = वः समारम्भः आरम्भकरणम् (२२), दोषास्त्वत्राऽलीकत्वादयः स्वबुद्धयाऽवगन्तव्याः, चकाराइहापि समुच्चयार्थाः।४। २५ मुलम्-सिज्जायरपिंडं च आसंदी पलियंकए । गिहतरनिसिज्जा य गायस्सुव्वदृणाणि य ॥५॥ ___ छाया-शय्यातरपिण्डश्च, आसन्दी पर्य(ल्य)ककः । गृहान्तरनिषद्या च, गात्रस्योद्वर्त्तनानि च ॥५॥ __ सान्वयार्थ:--च= और (२३) सिज्जायरपिंडं = शय्यातरका आहार (२४) आसंदी = कुर्सी या खाट (२५) पलियंकए = पलंग पालखी डोला आदि, (२६) गिहतरनिसिज्जा = गृहस्थके घरमें बैठना, य = और (२७) गायस्स = शरीरका उव्वट्टणाणि = उवटन करना ॥५॥ टीका-शय्यतेऽस्यामिति शय्या = वसतिः, शय्याऽर्थात्तदानेन तरति संसारसागरमिति शय्यातरः, यद्वा शय्या = प्रोक्तरीत्या वासस्थानम्, 'आतरः = संसारपारावारोत्तरणशुल्कं यस्य स शय्यातरः । अत्र पक्षे यथा कश्चिनदी-पारं जिगमिषु विकाय नदीतरण (२२) अग्निका आरम्भ करना, इनसे भी असत्य आदि दोष समझना चाहिए, अर्थात् जूआ खेलनेसे असत्य, क्लेश, आतेध्यान, परिग्रह आदि; छत्र धारण करनेसे सुकुमारता परीषहके सहनेमें असामर्थ्य आदि दोष; चिकित्सा करनेसे आरम्भ असत्य आदि दोष; उपानह पहननेसे द्वोन्द्रिय आदि जीवोंका उपमर्दन आदि, तथा अग्निकायका आरम्भ करनेसे छह कायका उपमर्दन आदि दोष होते हैं ॥४॥ (२३) शय्यातरका पिण्ड लेना। जिसमें शयन किया जाता उसे शय्या या वसति कहते हैं । उस शय्याके दानसे संसारसमुद्रको तैरनेवाला शय्यातर कहलाता है। अथवा शय्या है संसाररूपी सागरसे पार होनेका आतर (शुल्क) जिसका उसे शय्यातर कहते हैं । जैसे कोई नदी पार करनेकी इच्छावाला बटोही (૨૨) અગ્નિને આરંભ કરે. એથી પણ અસત્ય આદિ દોષ સમજવા જોઈએ. અર્થાત–જુગાર ખેલવાથી અસત્ય, કલેશ, આતધ્યાન, પરિગ્રહ આદિ; છત્ર ધારણ કરવાથી સુકુમારતા; પરીષહને સહન કરવામાં અસામર્થ્ય આદિ અનેક દોષ, ચિકિત્સા કરવા થી આરંભ, અસત્ય આદિ દોષ; જોડા પહેરવાથી દ્વીન્દ્રિય આદિ જેનુ ઉપમન આદિ, તથા અગ્નિકાયને આરંભૂ કરવાથી છ કાયનું ઉપમર્દન આદિ દેષ લાગે છે. (૪) (२३) शय्यातरन। पिंडदेवा. જેમાં શયન કરવામાં આવે છે તેને શય્યા યા વસતિ કહે છે. એ શયાના દાનથી સંસાર રૂપી સાગરથી પાર થવાનું આતર (શુલ્ક) જેનું, તેને શય્યાતર કહે છે, જેમ કે નદી પાર १ आतरस्तरपण्यं स्यादित्यमरः 'उत्तराई' इतिलोक प्रसिद्धम् શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे शुल्कं दत्त्वा तत्पारं गच्छति तथा संसारसमुद्रपारं जिगमिषुर्गृहस्थवन्नाविकस्वरूपाय महापुरुपाय मुनये शय्या-(वसतिस्थान)-रूपमातरं (तरणशुल्कं) दत्त्वा तत्पारं व्रजतीति भावार्थोऽनुसन्धेयः। पक्षद्वयेऽपि साधुवासार्थमाज्ञादायक इति फलितम्, पिण्डः = आहारौषध्यादिः शय्यातरपिण्ड इति । शय्यातरविचारः । यद्यपि निवासार्थ साधवे स्वानुमतिप्रकाशको वसतिस्वामी शय्यातरशब्दस्यार्थः, तथापि तस्य तदैव शय्यातरत्वं भवति यदा तत्र वसतौ साधुर्भाण्डोपकरणानि स्थापयेत्, प्रतिक्रमणमाचरेत, रात्रौ शयीत च । अत्रायं विवेकः-भाण्डोपकरणस्थापन-प्रतिक्रमणाचरण शयनानां त्रयाणां प्रत्येकं शय्यातरत्वे हेतुत्वम्, तेन प्रतिक्रमणाचरण-शयनाभ्यां प्रागपि (मा) नाविकको नदी पार उतरनेका मूल्य देकर पार उतरता है उसी प्रकार संसाररूपी समुद्रके पार उतरने को इच्छावाला गृहस्थ नाविकके समान साधु महापुरुषोंको शय्या-(वसति-स्थान) रूपी उतराई (पार उतारने का मूल्य) देकर संसारसागरसे पार उतरता है, यह अभिप्राय समझना चाहिए । दोनों पक्षोंका अर्थ एक ही है कि शय्यातर उसे कहते हैं, जो साधुको ठहरनेके लिए मकानकी आज्ञा देता है । उसके आहार औषध आदि पिण्डको शय्यातर-पिण्ड कहते हैं। शय्यातर-विचार साधुको ठहरनेके लिए अपनी अनुमति प्रगट करनेवाला उपाश्रयका स्वामी शय्यातर कहलाता है, है, तथापि वह इन अवस्थाओंमें शय्यातर होता है (१) साधु वसतिमें भाण्डोपकरण रख देवे । (२) प्रतिक्रमण करे, और (३) रात्रिमें शयन करे । (१) इन तीनोंमेंसे प्रत्येक क्रिया शय्यातर होने में कारण है । इसलिए प्रतिक्रमण और કરવાની ઈચ્છા-વાળો ઊતારૂ નાવિકને નદી ઊતરવાનું ભાડું આપીને પાર ઊતરે છે, તેમ સંસારરૂપી સમુદ્રને પાર ઊતરવાની ઈચ્છા-વળા ગૃહસ્થ, નાવિક–સમાન સાદ-મહાપુરૂષને શમ્યા-(વસતિ-સ્થાન) રૂપી ભાડું (પાર ઊતરવા માટેનું મૂલ્ય) આપીને સંસાર-સાગરથી પાર ઊતરે છે, એ અર્થ સમજ જોઈએ. બેઉ પક્ષોને અર્થ એક જ છે કે શય્યાતર એિને કહે છે કે જે સાધુને રહેવાને માટે મકાનની આજ્ઞા આપે છે, એના આહાર ઔષધ આદિ પિંડને શય્યાતર–પિંડ કહે છે. - શય્યાતર–વિચાર સાધુને રહેવાને માટે પિતાની અનુમતિ આપનાર ઉપાશ્રયનો સવામી શય્યાતર કહેવાય છે તથાપિ તે આ અવસ્થામાં શય્યાતર થાય છે – (१) साधु सतिभा मां3.५४२९५ (पात्र कोरे) राणे. (२) प्रतिभा ४३. अने (3) રાત્રે શયન કરે. (૧) આ ત્રણેમાંની પ્રત્યેક ક્રિયા શય્યાતર થવામાં કારણ છે, તેથી પ્રતિકમણ અને શયન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरविचारः । भाण्डोपकरणस्थापनानन्तरं बसतिस्वामिनः शय्यातरत्वम्, पूर्वगृहीतवसतौ स्थानसंकीर्णतायां सत्यां कियान् समीपतरवर्त्तिन्युपाश्रये तत्स्वामिनिदेशमादाय प्रतिक्रमणं कुर्वीतत दा तत्र भाण्डोपकरणस्थापनाभावेऽपि तदीयस्वामिनः शय्यातरत्वम् । अन्यत्र प्रतिक्रमणं कृत्वा स्थानसंकीर्णतायां सत्यां शयनमात्रं यत्राचरितं तत्स्वामिनो ऽपि शय्यातरत्वम् । परन्त्वयं विशेषो बोद्धव्यः अन्यसाधुसविधे स्वकीयभाण्डोपकरणानि संस्थाप्याऽन्यत्र शयनप्रतिक्रमणाचरणे मूलोपाश्रयस्वामिनो न शय्यातरत्वम्, भाण्डादिस्थापने साधुसांनिध्यस्यैव निमित्तता न तु 'तत्स्वामिनः, साधोरभावे भाण्डादिस्थापनस्य शास्त्राविहितत्वात् । शय्यातरत्वनिवृत्तिकरणाय तु पुनः पुनः शय्यातरपरिवर्तनं नाचरणीयम् । पुनः पुनः शय्यातरपरिवर्तनं हि साशयन करनेसे पहले भी भाण्डोपकरण रख देनेपर वसतिका स्वामी शय्यातर हो जाता है। (२) पहले जिस वसतिको ग्रहण कर लिया हो उसमें स्थानकी संकीर्णता होनेपर कुछ साधु अपने भाण्डोपकरण अन्य साधुओंके समीप रखकर, पासके दूसरे उपाश्रयमें उसके स्वामीकी आज्ञा लेकर प्रतिक्रमण करें तो वहां भाण्डोपकरण न रखने पर भी जहां प्रतिक्रमण किया हों उस वसतिका स्वामी शय्यातर कहलाता है, इस वसतिका नहीं। (३) दूसरे स्थानमें प्रतिक्रमण करके, स्थानकी संकीर्णता होने पर जहां सिर्फ शयन किया हो उस स्थानके स्वामीको भी शय्यातर कहते हैं अर्थात् उस अवस्थामें दोनों शय्यातर हैं । विशेष यह है कि-दूसरे साधुओंके पास भाण्डोपकरण रखकर अन्य ही किसी स्थानपर प्रतिक्रमण और शयन करे तो जहां भाण्डोपकरण रक्खें हैं, उस स्थानका स्वामी शय्यातर नहीं कहलाता । क्योंकि भाण्डोपकरण साधुके नेसराय (अधीनता) में ही रखे जाते हैं, गृहस्थके नेसरायमें रखना शास्त्रबिरुद्ध है। પૂવેર પણ ભાંડોપકરણ રાખી દે તે વસતિને સ્વામી શય્યાતર થઇ જાય છે. (૨) પહેલાં જે વસતિનું ગ્રહણ કરી લીધું હોય, તેમાં સ્થાનની સંકીર્ણતા (સંકડાશ) હોવાથી કેઈ સાધુ પિતાનાં ભાંડપકરણ બીજા સાધુઓની સમીપે રાખીને, પાસેના બીજા ઉપાશ્રયમાં તેના સ્વામીની આજ્ઞા લઈને પ્રતિક્રમણ કરે તે ત્યાં ભાંડેપકરણ ન રાખવા છતાં પણ જ્યાં પ્રતિક્રમણ કર્યું હોય તે વસતિને સ્વામી શય્યાતર કહેવાય છે. આ વસતિને નહિ. (૩) બીજા સ્થાનમાં પ્રતિક્રમણ કરીને સ્થાનની સંકડાશને કારણે જ્યાં માત્ર શયન કર્યું* હોય તે સ્થાનનો સ્વામીને પણ શય્યાતર કહે છે. અર્થાત્ એ સ્થિતિમાં બેઉ શય્યાતર છે. વિશેષ વાત એ છે કે બીજા સાધુઓ પાસે ભાંડેપકરણ રાખીને બીજા જ કોઈ સ્થાન પર પ્રતિક્રમણ અને શયન કરે તે જ્યાં ભાંડેપકરણ રાખેલાં હોય, તે સ્થાનને સ્વામી શય્યાતર નથી કહેવાતે, કેમકે ભાંડેપકરણ સાધુની નેસશય (અધીનતા) માં જ રાખવામાં આવે છે, ગૃહસ્થની નસરાયમાં રાખવાં એ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે. १ वसतिस्वामिनः । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ haanaamananewwwsaccomm a m १३० श्रीदशवकालिकसूत्रे धोभिक्षालोभं प्रकाशयति, तत्र बहवो दोषा अपि चापतन्ति, तथाहि-शय्यातरपरिवर्तने पूवंशय्यातरो विभावयति -अद्य मम गृहे त्यक्तोपाश्रयः साधुरसौ निश्चितमागमिष्यतीति तदर्थं सुरसमन्नादिकं साधनीयमिति कृत्वा निष्पादितस्यान्नपानादेराधाकर्मिकत्वापत्तिः। यदितु स्वार्थ साधुनिमित्तं च निष्पादितं तदा मिश्रजातदोषापत्तिर्दुनिवारैव । पूर्वं शय्यातरेण त्यक्तोपाश्रयाय साधवे कस्यचिद वस्तुनः स्थापने स्थापनादोषः कथं साधुना वारणोयः। अन्ये दोषाः स्वयमूहनीयाः। तस्माद् झटिति शय्यातरपरिवर्तनं न साधुना विधेयम् । वसतियाचनाविधिः। अथोपाश्रयस्वामिनस्तदनुपस्थितौ तत्संरक्षकाद्वा वसतियाचनाविधिरभिधीयते शय्यातरत्वकी निवृत्ति करनेके लिए बारंबार शय्यातरका परिवर्तन नहीं करना चाहिए। ऐसा करनेसे यह प्रगट होता है कि साधु भिक्षाका लोभी है। इसमें बहुत से दोष भी उत्पन्न होते हैं। जैसे-शय्यातरका परिवर्तन करनेसे पहला शय्यातर इस प्रकार सोचता है-आज मेरे उपाश्रयकी आज्ञा संतोंने छोड़ दी है, अतः मेरे यहाँ आवश्य आवेंगे, इसलिए उनके वास्ते स्वादिष्ट अन्न आदिक बनाना चाहिए, ऐसा विचार कर बनाया हुआ अन्नादिक आधाकर्मिक होगा। यदि पहला शय्यातर अपने और साधुके लिए इकट्ठा बनावेगा तो मिश्रजात दोष लगेगा । साधुके आनेकी संभावनासे वह किसी वस्तुको स्थापना करेगा तो स्थापना(ठवणा) दोष होगा । -इत्यादि अनेक दोष स्वयं समझ लेने चाहिये । इसलिए साधुको बारम्बार शय्यातर बदलना नहीं कल्पता है। उपाश्रय-याचनाकी विधि । वसति-स्वामीसे अथवा उसकीगैर-मौजूदगीमें उसके संरक्षकसे वसति-याचनाकी विधि कहते हैं શય્યાતરત્વની નિવૃત્તિ કરવાને માટે વારંવાર શય્યાતરને પરિત્યાગ કરવો ન જોઈએ. એમ કરવાથી એવું પ્રકટ થાય છે કે સાધુ ભિક્ષાને લેભી છે; એનાથી અનેક દેશે પણ ઉત્પન્ન થાય છે. જેમ-શય્યાતરનું પરિવર્તન કરવાથી પહેલે શય્યાતર આ પ્રમાણે વિચારે છે–આજ મારા ઉપાશ્રયની આજ્ઞા સંતોએ છોડી દીધી છે, એટલે મારે ત્યાં જરૂર આવશે; તેથી એમને માટે સ્વાદિષ્ટ અનાદિ બનાવવાં જોઈએ. એ વિચાર કરીને બનાવેલું અન્નાદિ આધાકમી બનશે, જે પહેલે શય્યાતર પોતાના માટે અને સાધુને માટે એકઠું બનાવશે તે મિશ્રજાત દેષ લાગશે. સાધુ આવવાની સંભાવનાથી તે કઈ વસ્તુને સ્થાપન કરશે તે સ્થાપના-(ઠવણા)દોષ લાગશે.-ઇત્યાદિ અનેક દોષ પિતાની મેળે સમજી લેવા. એ કારણથી સાધુને વારંવાર શય્યાતર બદલવા ક૯પતા નથી. (3ाश्रय-यायनानी-विधि) વસતિના સ્વામી પાસે અથવા તેની ગેરહાજરીમાં એના સંરક્ષકની પાસે વસતિયાચના કરવાની વિધિ કહે છે – શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ वसतियाचनाविधिः १३१ मुनिर्वदेत्-हे आयुष्मन् ! अस्यां वसतौ स्थातुमिच्छामि, यावति समये स्थातुमादेशो भवदीयो भवेत् तावानेव कालो यापनीयः, तत्रापि यावान् वसतिभूमिभागो ममावस्थानाय भवते रोचेत तावानेव ममापेक्षणीय इति । ततो गृहस्थः प्रतिब्रूयात्-भगवन् ! मुनीश्वर ! कियतः कालानवस्थास्यते ? तदा ऋतुबद्धशेषकाले सति साधुः “एकमासावधिकाले कल्प्ये यावदवसरं स्थास्यामि" इति। वर्षाकाले तु "चतुरो मासानत्र यापयिष्यामी" ति वदेत् । सागारिकेण साधुकल्प्यकालमुपलक्ष्य-"एतावतः कालानत्राहं न स्थास्यामि ग्रामान्तरं गमिष्यामी" ति कथने तु साधुरेवं कथयेत्-'अत्र भवदुपस्थितिसमयावधिरेव कालो मया क्षपणीयः, तदनन्तरमिमां वसतिं परिहास्यामीति । पुनः सागारिकेण-'कियन्तः साधवो भवन्तः ? ' इति पृष्टः साधुरभिदधीत-समुद्रतरङ्गवत् साधूनामियत्तावधारणं कः कुर्यात्, यतः कियन्तो गच्छन्ति, कियन्तश्चागच्छन्ति, ये चागमिष्यन्ति तेऽप्यत्रावस्थानं मुनि--हे आयुष्मन् ! हम इस वसतिमें ठहरना चाहते हैं। तुम जितने समय तक ठहरनेकी आज्ञा दोगे, उतने समयसे अधिक नहीं ठहरेंगे। उसमें भी तुम भूमि का जितना भाग हमें ठहरनेके लिए देना चाहो, उतनाही हमारे लिए पर्याप्त है। गृहस्थ पूछे कि हे मुनिराज ! आप कितने समय तक ठहरना चाहते हैं ? । तब मुनि-ऋतुबद्ध शेषकाल हो तो 'एक मासके कल्पमें जब तक अवसर होगा तब तक रहेंगे' ऐसा, यदि चातुर्मास हो तो 'चार मास ठहरनेका हमारा कल्प है। ऐसा कहे । यदि साधुका कल्प-काल सुनकर गृहस्थ कहे कि-मैं तो थोड़ेही दिन यहाँ रहूँगा फिर प्रामान्तर जाऊँगा, तो साधुको कहना चाहिए कि-"जब तक तुम यहाँ रहोगे तब तक ही हम ठहरेंगे, तुम्हारे जाने पर इस वसतिको छोड़ देंगे।" यदि गृहस्थ पूछे कि-'आप कितने साधु हैं ? ' तो साधु उत्तर देवें कि-'समुद्रके तरङ्गोंकी મુનિ–હે આયુમન ! અમે આ વસતિ. (મકાન-સ્થાન) માં રહેવા ઈચ્છીએ છીએ, તમે જેટલા સમય સુધી રહેવાની આજ્ઞા આપશે, તેટલા સમયથી વધારે સમય રહીશું નહિ. તેમાં પણ તમે ભૂમિને જેટલે ભાગ અમને રહેવાને માટે આપવા ઈચ્છે તેટલે જ અમારે માટે पति (पूरता) छे. ગૃહસ્થ-હે મુનિરાજ ! આપ કેટલા સમય સુધી રહેવા ઇચ્છે છે? ત્યારે મુનિ-તુબદ્ધ રોષકાળ હોય તે-“એક માસના ક૯૫માં જ્યાં સુધી અવસર હો ત્યાં સુધી રહીશું” એમ કહે, અથવા જે ચાતુર્માસ હોય તે-ચાર માસ રહેવાને અમારે કલ્પ છે એમ કહે જે સાધુને કલ્પકાળ સાંભળીને ગૃહસ્થ કહે કે હું તે થોડા જ દિવસ અહીં રહીશ” તે સાધુએ કહેવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી તમે અહીં રહેશે ત્યાં સુધી જ અમે રહીશું: તમે જશે ત્યારે આ સ્થાનને અમે છેડી દઈશું. જે ગૃહસ્થ પૂછે કે “આપ કેટલા સાધુઓ છો ?? તે સાધુ ઉત્તર આપે કે-“સમુદ્રના શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीशकालिक सूत्रे करिष्यन्ति। इत्थं सागारिकाज्ञामादाय तदीयनामगोत्रे विज्ञायोपाश्रये साधुस्तिष्ठेत् । गोचरीं गन्तुमुद्यतो भिक्षुः शय्यातरनामगोत्रे अविज्ञाय भिक्षार्थ न पर्यटेत् । कल्पयाकल्प्यविधिः । शय्यातर साधरकल्प्यानि कथ्यन्ते, यथा (१) अशनम्, (२) पानम्, (३) खाद्यम्, (४) स्वाद्यम्, (५) वस्त्रम्, (६) पात्रम्, (७) कम्बल:, (८) रजोहरणम्, (९) दोरकम्, (१०) सूची, (११) कर्त्तरी, (१२) छुरिका, (१३) नखहरणी, (१४) कर्णशोधनी (कानखुचरनी), (१५) दन्तशोधनी (दांतखुचरनी) ichaणी (niraी चीपिया) (१७) कण्टकः कण्टकोद्धारणीपात्रश्च (कण्टककुत्थलिका), (१८) औषधम्, (१९) भैषज्यम्, (२०) शतपाकसहस्रपाकादितैलम्, (२१) पात्ररञ्जनद्रव्यम् (रोगान सफेदा आदि), (२२) पात्रादौ रन्ध्रकरणाद्युपयोगी शस्त्रविशेषः तर साधुओंकी मर्यादा नहीं है । क्योंकि कितने हो साधु आते हैं और कितनेही चले जाते हैं, जो आवेंगे वे भी यहीं ठहरेंगे । इस प्रकार गृहस्थकी आज्ञा लेकर, उसका नाम और गोत्र जानकर साधुको ठहरना चाहिए । जबतक साधुको शय्यातरेका नाम और गोत्र न मालूम हो जावे तब तक भिक्षा के लिए न जावे | कल्पयाकल्प्य - विधि | निम्नलिखित वस्तुएँ शय्यातरके धरकी कल्पनीय नहीं हैं - ( १ ) अशन, (२) पान, (३) स्वाद्य, (४) स्वाद्य, (५) वस्त्र, (६) पात्र, (७) कम्बल, (८) रजोहरण, (९) डोरा, (१०) सुई, (११) कैची, (१२) चाकू, (१३) नखहरणी (नहरनी), (१४) कर्णशोधनी (कानकुचरनी), (१५) दन्तशोधनी (दांतकुचरनी), (१६) चींपिया, (१७) कांटे और कांटों की कोथली, (१८) औषध, (१९) भेषज, (२०) शतपाक - सहस्रपाक आदि तेल (२१) पात्र रंगनेके लिए रोगान, सुपेता તરગાની પેઠે સાધુઓની મર્યાદા નથી, કેમકે કેટલાય સાધુએ આવે છે અને કેટલાય ચાલ્યા જાય છે, જેઓ આવશે તેએ પણ અહીં જ રહેશે.” એ પ્રમાણે ગૃહસ્થની આજ્ઞા લઇને, એનું નામ અને ગેાત્ર જાણીને સાધુએ રહેવુ જોઈએ. જ્યાં સુધી શય્યાતરનુ નામ અને ગેાત્ર સાધુના જાણવામાં ન આવે ત્યાં સુધી શિક્ષાને માટે જાય નહિ. વ્યાકપ્સ-વિધિ નીચે લખેલી વસ્તુએ શય્યાતરના ઘરની સાધુને કલ્પે નહિ (१) अशन, (२) पान, (3) मा. (४) स्वाद्य, (५) वस्त्र, (६) पात्र, (७) अंगणी (८) २२], (९) छोरो, (१०) सोय, (११) अंतर, (१२) अच्यु, (१३) नम उतारवानी नेरली, (१४) अन-पोत२७, (१५) हांत - मोतरी, (१६) यीपायी, (१७) घंटो अथवा अंटानी अथणी, (१८) भोसड, (१८ ( लेषण, (२०) शतया - सहसा माहितेस; (२१) यात्र રંગવા માટેના રાગાન સફેતા વગેરે, (૨૨) પાત્રમાં છિદ્ર આદિ કરવાના કામમાં આવનાર શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा०५ शय्यातरगृहे कल्प्याकल्प्यविधिः १३३ (सियार, रेती,इत्यादि), (२३) करगलम् (२४) लेखनी, (२५) मसी, (२६) मसीपात्रम्, (२७) हिङ्गुलम्, (२८) खटिका, (खड़ी), इत्यादीनि । तथा शय्यातरगृहे साधोरुपादेयानि (कल्प्यानि) निर्दिश्यन्ते(१) तृणम् (२) लोष्टम्, (३) शिलापट्टकः (पेपणी), (४) शिलापुत्रकः, (५) भस्म, (६)पाषाणखण्डम्, (७) इष्टका, (८) धूलिः, (९) पीठम्, (१०) फलकम्, (आसनविशेषः), (११) शय्या (शरीरप्रमाणा), (१२) संस्तारकम् (सार्द्धद्वयहस्तप्रमाण आसनविशेषः), (१३)गोमयम्, (१४) सोपधिकशिष्यः, (१५) स्वाध्यायार्थ प्रातिहारिकं (पडिहारी) पुस्तकम्, इत्यादीनि । इदमप्यनुसन्धेयम्-यस्योपाश्रयस्य स्वामिने निवासशुल्कं दत्त्वा गृहस्थो निवासार्थ साधुं निमन्त्रयेत् स उपाश्रयः साधोरकल्प्य इति । उपाश्रयस्यानेकस्वामिनि सति कश्चिदेक एव शय्यातरत्वेन स्थापनीयः, न तु सर्वेऽपि । एतादृशशय्यातरस्य पिण्डे चत्वारो भङ्गा भवन्ति, यथा-- आदि, (२२) पात्रमें छेद आदि करनेके काममें आनेवाले स्यार, रेती आदि ओजार, (२३) कागज़, (२४) लेखनी, (२५) स्याही, (२६) हिंगल, (२७) खड़ी इत्यादि । निम्नलिखित वस्तुएँ शय्यातरके घरसे साधुको कल्पनीय हैं- तिनका, (२) पत्थर, (३) शिला, (४) लोढ़ी, (५) राख, (६) पत्थरका-टुकड़ा, (७) ईंट, (८) धूल, (९) छोटा बाजौट, (१०) फलक (आसन), (११) शय्या (शरीरप्रमाण), (१२) संस्तारक (ढाइ हाथका आसन), (१३) गोबर, (१४) उपधि-सहित शिष्य, (१५) स्वाध्याय आदिके लिए पडिहारी (वापस दी जानेवाली) पुस्तक आदि । यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जिस उपाश्रयको भाड़ेपर साधुके लिए खरीदा हो वह उपाश्रय साधुको कल्पनीय नहीं है । उपाश्रयके अनेक स्वामी हों तो उनमेंसे एक शय्यातर होता है। ऐसे शय्यातरके पिण्ड में साडी, रेती वगैरे 2211२, (२३) ४१, (२४) खेम, (२५) शाडी, (२६) गणा, (२७) मी, त्याहि. નીચે લખેલી વસ્તુઓ શય્યાતરનાં ઘરની સાધુને ક૯પે (१) तम, (२) ५.२२,(3) शिEI, (४) बाढी (4) राम, (६) पत्थरना टु1(७) , (८) धूण, (6) नाना मा08, (१०) ५९४ (मासन), (११) शय्या (शरीरमानी), (१२) सस्ता२४ (मढी हनुमासन), (१३) छाए, (१४) ५५ साल1 शिष्य, (१५) स्वाध्याय આદિને માટે પડિહારી (પાછી આપી દેવાય તેવી) પુસ્તક આદિ. એ પણ યાદ રાખવું જોઈએ કે જે ઉપાશ્રય સાધુને માટે ભાડે રાખ્યું હોય તે ઉપશ્રય સાધુને કપે નહિ. ઉપાશ્રયના અનેક સ્વામીઓ હોય છે તેમાંથી એક શય્યાતર થાય છે. એવા શમ્યાતરના પિંડમાં ચાર ભાંગી હોય છે, તે આ પ્રમાણે–(૧) એજ ઘરમાં ભોજન બનાવવા અને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीदशवैकालिकस्त्रे (१) एकत्र रन्धनम्, एकत्र भोजनम्, (२) एकत्र रन्धनम् , अन्यत्र गेहादौ भोजनम् । (३) पृथक्-पृथग् रन्धनम् , एकत्र भोजनम् । (४) पृथक पृथग रन्धनम् , पृथक्-पृथग् भोजनम् । तत्र द्वितीयचतुर्थभङ्गो साधोः कल्प्यौ । द्वितीयभङ्गे एकत्र रन्धनेऽपि पश्चात् शय्यातरेतरांशस्य पृथक्कारे शय्यातरमात्रांशं विहायाऽन्येषां पिण्ड उपादेयः, तत्र तदानीं शय्यातरस्वत्वापगमात् चतुर्थकल्पे तु पिण्डे शय्यातरांशलेशसंसर्गशङ्कापि नास्ति । शय्यातरस्वत्वापगम एवोपादेयताहेतुरिति निष्कर्षः। __ एवं प्रोषितभर्तृकासु अनेकासु सपत्नीष्वेकैव काचित् शय्यातरा कर्तव्या । चत्वारो भङ्गा अत्रऽपि पूर्ववदेव । चार भंग होते हैं। वे इस प्रकार-- (१) उसी घरमें बनाना उसी घरमें जीमना । (२) उसी घरमें बनाना दूसरे-दूसरे घरमें जीमना । (३) दूसरे-दूसरे घरमें बनाना उसी घरमें जीमना । (४) दूसरे-दूसरे घरमें बनाना और दूसरे-दूसरे घरमें जीमना । इन चार भंगोंमेंसे दूसरा और चोथा भंग साधूको कल्पनीय है । दूसरे भंगमें एकत्र रन्धन होने पर भी शय्यातरसे भिन्न मनुष्यके अंशके अलग होजाने पर शय्यातरका भाग छोड़कर अन्यका पिण्ड कल्पनीय है, क्योंकि वहाँ शय्यातरका स्वामित्व नहीं रहता। चौथे भंगमें तो शय्यातरका स्वत्वके संसर्गकी तनिक भी आशंका नहीं है । तात्पर्य यह है कि जहां शय्यातरका स्वत्व (हक) नहीं रहता वही वस्तु साधुको ग्राह्य होती है । इसी प्रकार यदि एक शय्यातरकी अनेक पत्नियाँ हों और वह (शय्यातर) परदेश चला गया हो तो उनमें किसी एकको ही शय्यातर बनाना चाहिए । पहले की नाई यहां भी चार એજ ઘરમાં જમવુ. (૨) એ ઘરમાં ભેજન બનાવવું અને બીજા ઘરમાં જમવું. (૩) બીજાબીજા ઘરમાં બનાવવું અને એ ઘરમાં જમવું. (૪) બીજા-બીજા ઘરમાં બનાવવું અને બીજા બીજા ઘરમાં જમવું. આ ચાર ભાગાઓમાંથી બીજો અને ચેાથે ભાગે સાધુને કપે છે, બીજા ભાગમાં એકત્ર રસોઈ થતી હોય તે પણ શરમાતરથી ભિન્ન મનુષ્યને ભાગ જુદે થઈ જતાં શય્યાતરને ભાગ છેડીને અન્યને પિંડ કપે છે; કારણ કે ત્યાં શય્યાતરનું સ્વામિત્વ રહેતું નથી. ચોથા ભાંગામાં તે શય્યાતરના સ્વત્વના સંસર્ગની જરા પણ આશંકા નથી. તાત્પય એ છે કે જેમાં શય્યાતરનું સ્વત્વ રહેતું નથી; તે વસ્તુ સાધુને માટે ગ્રાહ્ય બને છે. એજ રીતે જે શય્યાતરની અનેક પત્નીઓ હોય અને એ (શય્યાતર) પરદેશ ચાલ્યા ગ હોય તો તે પત્નીએામાંથી કેઈ એકને જ શય્યાતર બનાવવી જોઈએ. પહેલાંની પેઠે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरगृहे कल्प्याकल्प्यविधिः अपोषितभर्तीकासु तु यया निष्पादितमन्नादिकं नियतं शय्यातरो भुङ्क्ते सैव शय्यातरा, यधनियतं तदा सर्वा अपि शय्यातरा मन्तव्याः, पूर्वोक्ततृतीयभङ्गेऽयं विशेषो बोद्धव्य:-यदा पृथक् पृथग रन्धनं कृतम्, एकत्र कृत्वा भुक्तं च तदाऽवशिष्टमन्नादिकं विभज्य यदि स्वस्वगृहं नयेत् तादृशं शय्यातरस्वत्वविरहितमन्नादिकं साधोः कल्प्यमेवेति । एकत्रीकृतमविभक्तं चेन्न कल्प्यमिति तदाशयः । कोऽपि शय्यातरो देशान्तरं प्रस्थितः स्वगृहाबहिर्गत्या कुत्रचित् तिष्ठेत्, तत्र यदि गृहादन्यस्थानाद्वाऽशनपानादिकं तदर्थमानीतम्,अथवा बहिःप्रदेश एव निष्पादितं चेत् तदा तदशनादिकं साधोरकल्प्यम्, रात्रिवासार्थं बहिर्गतस्य साधोस्तु पुनः कल्प्यमेव । भंग समझना चाहिए । उनका पति परदेश न गया हो तो वह जिस पत्नीके यहां नियमित रूपसे जीमता हो वही शय्यातर होती है यदि नियमित रूपसे न जीमता हो-कभी कहीं कभी कहीं जीमता हो तो सभीको शय्यातर मानना चाहिए। पहलेके चार भंगोंमेंसे तीसरे भंगमें इतना विशेष समझना चाहिए यदि अलग अलग भोजन बनाया गया हो और एकत्र करके जीमा हो तो बचे हुए अन्न आदिको बाँट लेने पर साधु शय्या-तरसे अन्यका आहार आदि ले सकते हैं, क्योंकि उसमेंसे शय्यातरका हिस्सा अलग निकल चुका हैं। हां इकट्ठा कर लिया हो और बांटा न हो तो साधुको कल्पनीय नहीं है । कोई शय्यातर परदेश जा रहा हो, और घरसे निकलकर कहीं बाहर ठहर गया हो, तो भी उसका अन्न-पान ग्राह्य नहीं है, भलेही वह अन्न-पान घरसे उसके लिए लाया गया हो या अन्य स्थानसे लाया गया हो अथवा वहीं पर तैयार किया हो। यदि रात्रिमें निवास करनेके लिए साधु बाहर चला गया हो तो कल्पनीय है। એમાં પણ ચાર ભાંગા સમજવા જોઈએ. એને પતિ પરદેશ ન ગયે હોય તે તે જે પતનીને ત્યાં નિયમિત રીતે જમતે હોય તે શય્યાતર બને છે. જે નિયમિત રીતે ન જમતે હોય અને કેઈવાર એકને ત્યાં અને કેઈવાર બીજીને ત્યાં જમતા હોય તે બધી પત્નીઓને શય્યાતર માનવી જોઈએ. પહેલાંના ચાર ભાંગામાંના ત્રીજા ભાંગામાં એટલું વિશેષ સમજવું કે જે જ જાદુ ભોજન બનાવ્યું હોય અને એકત્ર કરીને જમતા હોય તે વધેલા અનાદિને વહેંચી લીધા પછી સાધુ શય્યાતરથી જુદા આહાર આદિ લઈ શકે છે, કારણ કે એમાંથી શય્યાતરને ભાગ જુદે કાઢવામાં આવી ચૂક્યું હોય છે. હા, એકઠું કરેલું હોય અને વહેંચ્યું ન હોય તે સાધુને કહપે નહિ. કોઈ શય્યાતર પરદેશ જઈ રહ્યો હોય અને ઘરમાંથી નીકળીને કયાંક બહાર રહ્યો છેય તે પણ એનું અન્ન-પાન ગ્રાહ્ય બનતું નથી, પછી ભલે એ અન્નપાન ઘેરથી એને માટે લાવવામાં આવ્યું હોય અથવા અન્ય સ્થાનથી લાવવામાં આવ્યું હોય, યા ત્યાંજ તૈયાર બનાવવામાં આવ્યું હોય. જે રાત્રે નિવાસ કરવાને માટે સાધુ બહાર શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३६ man श्रीदशवैकालिकसूत्रे यदि शय्यातरोऽन्यदीयगृहेऽन्यमन्नादिकं परिवेषयेत् , तत्रपि शय्यातरेण दीयमानमन्यदीयमप्यशन-पानादिकं साधोरकल्प्यम् । साधोभिक्षादाने शय्यातरस्या सहगमनरूपनितित्तत्वे सति तत्र भिक्षाग्रहणमकल्प्यम् । प्रामादबहिरपि शय्यातरीयगोशालादिसत्त्वे तदीयदुग्धादिकं साधोरकल्प्यम् । शय्यातरगृहे भोक्ता भृत्यादिरपि शय्यातरः। शय्यातरस्य स्वसा दुहिता च तस्मिन दिवसे पुनरागमनमनिश्चित्य भर्तकुलादागच्छेत्, तदा साऽपि शय्यातरा । यदि तस्मिन्नहनि भर्तृकुलं पुनर्गन्तुकामा शय्यातरगृहमागता चेत् सा शय्यातरगृहे एव शय्यातरत्वमुपयाति अन्यगृहे तु न तस्याः शय्यातरत्वमिति बोध्यम् । उपाश्रयस्वामिनि देशान्तरस्थे सति उपाश्रयसंरक्षकादाज्ञामादाय तत्र साधुस्तिष्ठेत् शय्यातर, दूसरे गृहस्थके यहां उसी दूसरे गृहस्थका अन्नादि परोस रहा हो तो भी उसके हाथसे दिया-हुआ आहार कल्पनीय नहीं है । यदि किसी भिक्षाकी प्राप्तिमें शय्यातर निमित्त हो अर्थात् दलाली करे तो वह भिक्षा भी साधुको ग्राह्य नहीं है । गांवसे बाहर शय्यातरकी गोशाला आदि हो तो वहांका दूध आदि भी साधुको ग्राह्य नहीं है। शय्यातरके घर जीमनेवाले नोकर-चाकर भी शय्यातर हैं। शय्यातरकी बहिन या बेटी उस दिन वापस लौटनेका निश्चय न करके अपनी ससुरालसे आई हो तो वह भी शय्यातर है, यदि वापस लौटने की विचार करके आई हो तो वह शय्यातरके घरमें ही शय्यातर है, दूसरे के घरमें नहीं, अर्थात् दूसरेके घरमें दूसरेका आहारादि यदि वह परोसे तो साधु ले सकते हैं । जब उपाश्रयका स्वामी परदेशमें रहता हो और उपाश्रय- रखतोले से आज्ञा लेकर साधु ચાલ્યા ગયા હોય તે ક૯પે છે. - શય્યાતર, બીજા ગૃહસ્થને ત્યાં એ બીજા ગૃહસ્થનાં અન્નાદિ પીરસે તેપણ એના હાથથી અપાતે આહાર ક૯પે નહિ જે કઈ ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમાં શય્યાતર નિમિત્ત હોય અર્થાત દલાલી કરે તે એ ભિક્ષા પણ સાધુને શ્રાહા થતી નથી. ગામની બહાર શય્યાતરની ગૌશાળા આદિ હોય તો ત્યાંનું દૂધ વગેરે પણ સાધુને ગ્રાહ્ય બને નહિ. શય્યાતરના ઘેર જમનારા નોકર-ચાકર પણ શય્યાતર છે, શય્યાતરની બહેન યા પુત્રી એ દિવસે પાછાં જવાને નિશ્ચય કર્યા વિના પિતાને સાસરેથી આવી હોય તો તે પણ શમ્યાતર છે. જે પાછાં જવાનો વિચાર કરીને આવી હોય તે શય્યાતરના ઘરમાં જ તે શય્યાતર છે, બીજાના ઘરમાં નહિ, અર્થાત બીજાના ઘરમાં બીજાના આહારાદિ જે તે પીરસે તે સાધુ લઈ શકે છે. જે ઉપાશ્રયને સ્વામી પરદેશમાં રહેતું હોય અને ઉપાશ્રયના રખેવાળની આજ્ઞા લઈને સાધુ તેમાં રહે તો જયારે ઉપાશ્રયને સ્વામી આવી જાય ત્યારે તે શય્યાતર બને છે, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातराहारविवेकः १३७ तत्रोपाश्रयस्वामिनि समागते साधुना शय्यातरत्वं स्वामिन्येव कल्पनीयम्, न संरक्षके । शय्यातरप्रदत्तमन्येन स्वीकृतमप्यशनादिकं शय्यातरगृहे साधोरकल्प्यम्, व्यवहाशुद्धयादिदोषात् । तथा शय्यातरेण दत्तमन्येनास्वीकृतमन्नादिकं शय्यातरगृहाद् बहिरपि साधोरकल्प्यम्, तत्र शय्यातर स्वत्वापगमाभावात् । , शय्यातरगृहाद् बहिरन्येन स्वीकृतं चेत् तदा साधोः कल्प्यमेव तत्र शय्यातर स्वत्वापगमादिति बोध्यम् । शय्यातरगृहाद्वहिस्तेन ( शय्यातरेण) दत्तमन्येनाऽस्वीकृतं चेत् तत्राऽस्वीकृताशनपानादे: स्वीकारार्थं 'गृह्यतामिद' - मित्यादिपररूपा प्रवर्त्तनाऽपि साधोरकल्प्या । शय्यातरपि - उसमें ठहरें तो जब उपाश्रयका स्वामी आजावे तब वही शय्यातर होता है, रखवाला नहीं । शय्यारने अशन आदिक दूसरे को दे दिया और दूसरेने चाहे उसे स्वीकार भी कर लिया हो तो भी शय्यातर के घर पर साधु को वह लेना नहीं चाहिए, क्योंकि स्वीकार कर लेने से शय्यातरका स्वामित्व तो नहीं रहा पर यहाँ व्यवहारसे अशुद्धि है । यदि शय्यारद्वारा दिये हुए अन्नादिको अन्य गृहस्थ न स्वीकार करे तो शय्यातर के घर में या घर से बाहर कहीं भी साधुको नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उस आहारादिमें शय्या - तरका स्वत्व रहता है । शय्यातरके घर से बाहर दूसरेने स्वीकार कर लिया हो तो साधुको कल्पनीय है, क्योंकि उसपर शय्यातरका स्वत्व नहीं रहा । शय्यातर के घर से बाहर शय्यातरने किसी दूसरे को दिया हो और दूसरेने स्वीकार न किया हो तो उस अशनादिके स्वीकार करानेके लिए 'तुम ले लो' इत्यादिरूपसे गृहस्थको प्रेरणा करना भी साधुका कल्प नहीं है, क्योंकि उसमें शय्यातरका पिण्ड लेने आदि अनेक दोषों की शंका होती है । शय्यातरका पिण्ड ग्रहण करनेमें दोष बतलाते हैं રખેવાળ નહિ. શય્યાતરે અશનાદિ ખીજાને આપી દીધું હોય અને ખીજાએ ભલે એને સ્વીકારી પણ લીધું હાય, તા પણ શય્યાતરને ઘેર સાધુએ તે લેવું જોઈએ નહિ, કારણ કે સ્વીકારી લેવાથી શય્યાતરનું સ્વામિત્વ તો રહ્યું નહિ. પણ તેમાં વ્યવહારથી અશુદ્ધિ રહેલી છે. જો શય્યાતરે આપેલુ અન્નાદિ અન્ય ગૃહસ્થ ન સ્વીકારે તે શય્યાતરના ઘરમાં ચા ઘરબહાર કયાંય પણ તે સાધુએ ગ્રહણ કરવું જોઈએ નહિ, કારણ કે તે આહારાદિમાં શય્યાતરતુ. સ્વત્વ રહેલું. હાય છે. શય્યાતરના ઘરની બહાર ખીજાએ સ્વીકારી લીધુ' હેાય તે તે સાધુને કલ્પે, કેમકે તે ઉપર શય્યાતરનું સ્વત્વ રહેતું નથી. શય્યાતરના ઘરની બહાર શય્યાતરે કાઈ બીજાને આપ્યું હોય અને ખીજાએ સ્વીકાર્યુ. ન હૈાય તે તે અશનાદિના સ્વીકાર કરાવાને માટે ‘તમે લઈ લ્યે! ' ઇત્યાદ્વિરૂપે ગ્રસ્થને પ્રેરણા કરવી એ પણ સાધુને કલ્પે નહિ, કારણ કે તેમાં શય્યાતરને પિડ લેવા વગેરે १८ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ - श्रीदशवकालिकसूत्रे ण्डग्रहणादिदोषशङ्कासंभवात् । अथ शय्यातरपिण्डग्रहणे दोषाः प्रदर्श्यन्ते-- (१) वसतिदौलभ्यम्, वसतिस्वामिनो गृहेऽशनपानादिग्रहण नियमे स्वकीयान्नादिव्ययमालोच्य स्वोपाश्रयनिवासार्थमाज्ञां साधवे न कोऽपि दद्यात् . इत्याशयः । (२) प्रवचनलाघवम; (३) स्वावासस्थान एव भिक्षालाभसंभावनया परिभ्रमणालस्ये संजाते कदाचित शय्यातरगृहे आहाराधलाभेऽकालभिक्षाचर्याप्रसङ्गः, वेलातिक्रमे सति आर्त्तरौद्रध्यानप्रसङ्गः, स्वाध्यायान्तरायः, आत्मक्लान्तिश्च, (४) तीर्थङ्कराज्ञाभङ्गोऽपीत्यादयो दोषाः प्रसज्जन्ते,(२३) इति शय्यातरविचारः। (१) शय्यातरका पिण्ड ग्रहण किया जाय तो वसति मिलना दुर्लभ (मुश्किल) हो जायगा। गृहस्थ यह विचारेंगे कि इन्हें स्थान देनेसे अन्नपान आदि भी देना पड़ेगा । ऐसा सोचकर गृहस्थ अपने स्थानमें रहनेके लिए साधुओं को स्थान नहीं देगा । (२) प्रवचनका लाघव होगा। (३) अपने निवासस्थान पर ही भिक्षा मिल जानेकी संभावनासे साधु भ्रमण करनेमें आलस्य करेंगे, और जब शय्यातरके घर पर आहार नहीं मिलेगा तो अकाल-(असमय) में गोचरी करनेका प्रसंग होगा, और असमयमें भिक्षा न मिलनेसे आर्त-रौद्र ध्यान होंगे, स्वाध्याय आदि में अन्तराय पडेगा, और आत्माको खेद होगा। (४) इसके सिवाय तीर्थंकर भगवानने शय्यातर-पिण्डको अकल्पनीय बताया है, इसलिए उनकी आज्ञाका भंग होगा, इत्यादि अनेक दोष आते हैं। इति शय्यातर विचार समाप्त । અનેક દેની શંકા રહે છે. શાતરનો પિંડ ગ્રહણ કરવામાં રહેલા દેશે બતાવે છે – (૧) શય્યાતરને પિંડ ગ્રહણ કરવામાં આવે તે વસતિ (રહેવાનું સ્થાન ) મળવું દુર્લભ (મુશ્કેલ) બની જાય. ગૃહસ્થ એમ વિચારશે કે એમને સ્થાન આપવાથી અન્ન-પાન આદિ પણ દેવા પડશે. એમ વિચારીને ગૃહસ્થ પિતાના સ્થાનમાં રહેવાને માટે સાધુઓને સ્થાન આપશે નહિ. (२) प्रक्यननु वा थशे. (૩) પિતાના નિવાસસ્થાન પર જ ભિક્ષા મળી જવાની સંભાવનાથી સાધુ ભ્રમણ કરવામાં આળસ કરશે. અને જે શય્યાતરના ઘેરથી આહાર નહિ મળે તો અકાલે (અસમ) ગોચરી કરવાનો પ્રસંગ આવશે, અને અકાલે ભિક્ષા ન મળવાથી આત-રૌદ્ર ધ્યાન થશે સ્વાધ્યાયાદિમાં અંતરાય પડશે અને આત્માને ખેદ થશે. (૪) એ ઉપરાંત તીર્થંકર ભગવાને શય્યાતર પિડને અકલ્પનીય બતાવ્યું છે, તે માટે એમની આજ્ઞાને ભંગ થશે, ઈત્યાદિ અનેક દેશે ઉત્પન્ન થાય છે. ઈતિ શય્યાતર-વિચાર સમાપ્ત, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ अध्ययन ३ गा०६ (५२) अनाचोर्णानि आसन्दी वेत्रासनं,खदविका च (२४), पर्यङ्कः-मञ्चविशेषः, स एव पर्यङ्ककः; स्वार्थे कः । चकाराच्छिविका-दोलाताम्र यानादिग्रहणम् (२५), गृहान्तरनिषद्या गृहं गृहिनिकेतनं तस्याऽन्तरम् अभ्यन्तरं मध्यमिति यावत् , तस्मिन् निषधा-निषदनम् उपवेशनमित्यर्थः, यद्यपि व्याकरणादौ निषीदन्त्यस्या'-मिति विगृह्य 'निषद्या = आपणः, इत्युक्तं तथाप्यत्र शास्त्रसकेतितत्वाद्भाववयवन्तोऽर्थ निषधाशब्दः (२६), गात्रस्य = शरीरस्य उद्वर्तनानि = मलापनयनद्रव्येण समालेपनानि 'उबटन' इतिलोकप्रसिद्धानि, चकारादन्येषामपि शरीरसम्बन्धिनां संस्काराणां ग्रहणं बोद्धव्यम् (२७), एषु चारित्रघातादयो दोषाः सुस्पष्टा एव ॥५॥५॥ मूलम्-गिहिणो वेयावडियं. जाइयाजीववत्तिया । तत्तानिव्वुडभोइत्तं. आउरस्सरणाणि य ॥६॥ छाया-गृहिणो वैयावृत्यं, जात्याजीववृत्तिता (आजीववर्तिता) तप्तानिवृतभोजित्व,-माहरस्मरणानि च ॥६॥ सान्वयार्थ:-(२८) गिहिणो = गृहस्थकी वेयावडियं = वैयावच्च करना, (२९) जाइया = जातीसे-अपनी उंची जाती बताकर आजीववत्तिया = जीविकानिर्वाह करना, (३०) तत्तानिव्वुडभोइत्तं = अग्निमें सिर्फ तपाया हुआ किन्तु शस्त्रसे अपरिणत-मिश्र भोजन करना, य =और (३१) आउरस्सरणाणि = बीमार होनेपर पूर्वमुक्त वस्तुका स्मरण करना ॥६॥ टीका-गृहिण:% गृहस्थस्य, वैयावृत्त्यं = गृहस्थायान्नाऽऽनयनप्रदानादि-लक्षणशुश्रूषाकरणम् (२८) जात्या = 'अहमेतादृशजातिविशिष्टः' इत्याघाघोषणेन, उपलक्षणमिदं कुलादीनाम(२४) आसन्दी-बेतकी बनी हुइ छिदवाली कुर्सीपर बैठना । (२५) पर्यङ्क- एक प्रकारका पलंग, पाली, डोला, तामजाम आदिका ग्रहण करना । (२६) गृहान्तरनिषद्या-गृहस्थके घरमें बैठना । (२७) गात्रोद्वर्तन -शरीर पर उबटन आदि करना ॥५॥ (२४) मासही-नेतना मनावकी छिद्राणी मु२शी ५२ मे. (२५) ५य ४-४ रन ५ , पसभी डिंपी, भ्यानी. (२१) तनिषधा-डथना घरमा मेस. (२७) भात्रीद्वतन-शरी२ ५२ सुगधी पार्था यावा. (५) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रीदशवैकालिकसूत्रे पि, आजीववृत्तिता-आजीवे - जीविकायां वृत्तिः = स्थितिर्यस्य तद्भावः, यद्वा आजीववतिता, इतिच्छाया आजोवे जीविकायां वर्तितुं शीलं यस्यासौ अजीववर्ती तस्य भाव इति तदर्थः (२९), तप्तानिवृतभोजित्वं = तप्तं = वह्निनोष्णीकृतं च तत् अनिवृतं = शस्त्रापरिणतं तप्तानिवृतम् अर्द्धपकमिति भावस्तद्भोक्तुं शीलमस्य तत्त्वम्, मिश्रान्नादिसेवनमित्यर्थः (३०) आतुरस्मरणम् = आतुराः = रोगादिग्रस्तास्तेषां स्मरणं = तत्कर्तृकपूर्वोपभुक्तबस्तुस्मरणमिति फलितम्, यद्वा आतुरशब्दोऽत्र भावप्रधाननिर्देशस्तथाचाऽऽतुरत्वे स्मरणमिति समासः, रोगाद्यवस्थायां पूर्वाऽनुभूतवस्तुस्मरणमित्यर्थः (३१) । चकार इहापि समुच्चयार्थकः । अत्रासंयमादयो दोषा जायन्ते ॥६॥ मूलम्-मूलए सिंगबेरे य, उच्छुखंडे अनिव्वुडे । कंदे मूले य सच्चित्ते. फले बीए य आमए॥७॥ छाया-मूलकं शृङ्गाबेरं च इक्षुखण्डमनिर्वृतम् । कन्दो मूलं च सचित्तं, फलं बीजं चामकम् ॥७॥ सान्वयार्थः-य और (३२) मूलए-मूला (३३) सिंगबेरे अदरख (३४) उच्छुखंडे सगन्ना (सेलडी) अनिव्वुडे शस्त्रसे अपरिणत (३५) कंदे-कन्द य और (३६) मूले= शिफा (तथा) सच्चित्ते-सचित्त (३७) फले-फल य और आमए सचित्त (३८) बीए= बीज । भावार्थ-इनके सेवन से अनन्तकाय आदि वनस्पतिकायकी विराधना होती है ॥७॥ टीका-मूलकं प्रसिद्धम् ३२ गबेरं-शृङ्गवद्वेरं-शरोरं यस्य तत् आर्द्रकमित्यर्थः (३३), च-तथा इक्षुखण्डम् इक्षुशकलम् एतत्रयम् अनिवृतं-शस्त्रपरिणतम् (३४) कन्दः= (२८) गृहस्थकी वैयावृत्य (सेवा-शुश्रूषा) करना । (२९) अपनी जाति या कुल आदि बताकर भिक्षा लेना । (३०) आधा पक्का आधा कच्चा अर्थात् मिश्र अन्न-पानी आदि लेना। (३१) रोग आदिकी अवस्थामें पहले सेवन किये हुए विषयोंका स्मरण करना अर्थात् बीमारीमें हाय ! हाय ! करना ॥६॥ (२८) गृहस्थनी वैयाकृत्य (सेवा-शुश्रूषा) ३२पी. (૨૯) પિતાની જાતિ યા કુળ બનાવીને ભિક્ષા લેવી. (૩૦) અધપાકાં–અધકાચાં અર્થાત્ મિશ્ર અનપાણી આદિ લેવા. (૩૧) રેગાદિની અવસ્થામાં પહેલાં સેવેલાં વિષયનું સ્મરણ કરવું અર્થાત્ બિમારીમાં 'हाय ! हाय !' ४२वी. (६) (३२) सयित्त भूजार्नु सेवन ४२७. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ८ (५२) अनाचीर्णानि शुरणादिः (३५), मूल शिफा (३६), च-पुनः, सचित्तं सजीवम्,फल =कर्कटी-त्रपुषादिकम् (३७), च-तथा बीज-तिलादि, आमकम्-सचित्तम् (३८),। अत्रानन्तकायादिविराधनादिदोषा जायन्ते ॥७॥ मूलम्-सोवच्चले सिंधवे लोणे रुमालोणे य आमए सामुद्दे पंसुखारे य कालालोणे य आमए ॥८॥ छायाः-सौवर्चलं लवणो, रुमालवणश्चामकः । सामुद्रः पांशुक्षारश्च, काललवणश्चामकः ॥८॥ सान्वयार्थः-आमए सचित्त (३९) सोवच्चले सौवर्चलं-संचरनमक (४०) सिंघवे लोणे-सैन्धव-सींधानमक (४१ रुमालोणे रुमानदीसे निकला हुआ नमक (४२) सामुद्दे समुद्री नमक य=और (४३) पंसुखारे-ऊपर नमक य और आमए-सचित्त (४४) कालालोणे-काला नमक । भावार्थ-उल्लिखित नमकोंका सेवन करने से पृथ्वीकाय आदिकी विराधना होती है ॥८॥ टीका-सुवर्चले देशविशेषे भवः सैवर्चल: रुचकलवणः (३९), सिन्धुनधुपलक्षितदेशीयपर्वते भवः सैन्धवालवणः=लुनाति-छिनत्ति दूरयति कफादिकमिति लवणः, इदं सौवर्चलादेविशेषणपदम् (४०), (३२) सचित्त मूलका सेवन करना । (३३) सचित्त अदरख (आदा) का सेवन करना । (३४) सचित्त इक्षुखण्डका सेवन करना । (३५) सचित्त सूरण आदि कन्दोंका सेवन करना । (३६) सचित्त मूलका सेवन करना । (३७) सचित्त ककड़ी खीरा आदि फलोंका सेवन करन । (३८) सचित्त बीजका=तिल आदिका सेवन करना ॥७॥ (३९) सचित्त रुचक (सौवचेल सोंचर) नमकका सेवन करना । (४०) सचित्त सैन्धव (सेंधा) नमकका सेवन करना । (33) सचित्त माहुनु सेवन ७२यु: (३४) सयित्त शेडन पतीsi-४४i-नु सेवन ४२ (૩૫) સચિત્ત સૂરણ આદિ ક દેનું સેવન કરવું. (३६) सायत्त भूगनु सेवन ४२. (३७) सथित्त । भी। माह सानु सेवन ४२९. (३८) सथित्त मी तर साहिन सेवन ४२ (७) (36) सयित्त ३५४ सूर (सोव -सय) नु सेवन २९. (४०) सथित्त सिंघासूनु सेवन ४२j. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे च-तथा, रुमालवणः-रुमा विशिष्टलवणाकरभूता काचिन्नदी तस्या लवणः आमकः =सचित्तः, अस्य पूर्वार्दै सर्वत्र सम्बन्धः (४१), सामुद्रः समुद्रोत्थलवणः (४२), पांशुक्षार-ऊपरलवणः (४३), च-तथा काललवणः कृष्णलवणः विड्लवण, इतिप्रसिद्धः (४४), आमकः-सचित्तः, 'आमक' इत्यस्योत्तरार्द्ध सर्वत्र सम्बन्धः । अत्र पृथ्वीकाविराधनादयो दोषा भवन्ति ॥८॥ मूलम्-धुवणत्ति वमणे, य वत्थीकम्म-विरेयणे । ५१ ५२ अजणे दंतवण्णे य, गायब्भंगविभूसणे ॥९॥ छायाः-धूपनमिति वूमनं च, बस्तिकर्म विरेचनम् । अञ्जनं दन्तवर्णश्च, गात्राभ्यङ्ग-विभूषणे ॥९॥ सान्वयार्थ:-(४५) धुवणेत्ति-रोग मिटाने आदिके लिए किसी स्थानमें धूप देना, (४६) वमणे प्रयत्नपूर्वक वमन करना, (४७) वत्थीकम्म बस्तीकर्म करना, य=और (४८) विरेयणे-विरेचन-जुलाब लेना, (४९) अंजणे अजन-सुरमा आदि आंजना, (५०) दंतवण्णे =दातून मसी आदिसे दाँत साफ करना, (५१-५२) गायब्भंगविभूसणे-शरीरको तैल आदिसे मालिश करना (५१) तथा वस्त्र आदिसे भूषित करना (५२)॥९॥ टीका-धूपनं-शेगाद्युपशान्तिनिमित्तं स्थान कादिषु धूपदानम्, सौगन्धयोत्पत्तिनिमित्तमंशुकादीनां धृपादिना वासनश्च (४५), वमनंबमिजनकभेषजादिप्रयोगेण वान्तिकरणम् (४६), (४१) सचित्त रुमा (नदीविशेषके) नमकका सेवन करना । (४२) सचित्त समुद्री नमकका सेवन करना । (४३) सचित्त ऊपर नमकका सेवन करना । (४४) सचित्त काले नमकका सेवन करना ॥८॥ (४५) रोग आदिकी शान्ति अथवा सुगंधिके लिए स्थानक या वस्त्र आदिमें धूप देना । (४६) दवाई लेकर वमन करना । (૪૧) સચિત્ત રૂમ (નદીવિશેષમાંથી નીકળેલા) મીઠાનું સેવન કરવું. (४२) सथित्त समुद्रना सून सेवन ४२ (४३) सथित अपर सुप (भा) सेवन २ (८) (४४) सायत्त । भीडनु सेवन २७, (૪૫) રાગાદિની શાન્તિ અથવા સુગંધિને માટે સ્થાનક યા વસ્ત્રાદિને ધૂપ કરે. (४६) 8. सन १भन ४२. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा० ९ (५२) अनाचार्णानि ww वस्तिकर्म = वसतः तिष्ठतः, मूत्रपुरीषाव े ति, वस्ते= आच्छादयति मूत्राशयपुटमिति वा वस्तिः- नाभेरधोभागः, तस्याः, कर्म = तच्छोधनव्यापारो वस्तिकर्म - मलादिशोधनार्थमपानादिमार्गे वर्त्तिकादिप्रवेशनम्, अपानमार्गेण जलकर्षणं वेत्यर्थः (४७), विरेचनम् - कोष्ठशुद्धयथै स्वर्णमुख्यादिविरेचनसेवनम् (४८), अञ्जनं शोभावशीकरणाद्यर्थ नयनयोः कज्जल- सौवीरादिदानम् (४९), दन्तवर्ण:-' वर्णनं -वर्णः, दन्तानां वर्ण:- उज्ज्वलीकरणं दन्तवर्ण:- अङ्गुली-दन्तशाण (मसी) काष्ठादिभिर्दन्तघर्षणम् (५०) । ८ मूलम् - सव्वमेयमणाइन्नं गात्राभ्यङ्ग-विभूषणे= अभ्यङ्गश्च विभूषणं चेत्यनयोरितरेतरयोगद्वन्द्व इत्यभ्यङ्ग-विभूषणे, गात्रस्य अभ्यङ्ग-विभूषणे गात्राभ्यङ्गविभूषणे, 'द्वन्द्वान्ते द्वन्द्वादौ वा श्रयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इतिन्यायाद् गात्रशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धस्तत्र गात्राभ्यङ्गः =गात्रस्य = शरीरस्य अभ्यङ्गः शतपाक सहस्रपाकादितैलादिनाऽभ्यञ्जनं मर्दनमति यावत् (५१), गात्रविभूषणं वस्त्रालङ्करणादिना शरीरपरिष्करणम् (५२), धूपनादिनाऽनिकायप्रभृति विराधनादिदोषा जायन्ते ९ । सम्प्रत्युपसंहरन्नाह - 'सव्वमेय' - इत्यादि । निग्गंथाण महेसिणं । ३ ५ ४ संजमंमि अ जुत्ताणं लहुभ्यविहारिणं ॥ १० ॥ १४३ * (४७) मल आदि शोधन के लिए बस्तिकर्म करना | (४८) कोठेकी शुद्धिके लिए सनाय आदिका जुलाब लेना । (४९) नेत्रों में कज्जल आदि लगाना । (५०) मस्सी आदि लगाकर दांत रंगना । (५१) शतपाक, सहस्रपाक आदि तेलसे शरीरकी मालिश करना । (५२) शरीरका वस्त्र आभूषणोंसे मण्डन करना । धूप आदि अनिकाय आदि जीवोंकी विराधना आदि दोष होते हैं ॥९॥ (૪૭) મલાદિના શેષન માટે બસ્તિક્રમ કરવું. (૪૮) ઉત્તરની શુદ્ધિને માટે સેાનામુખી આદિના જુલાબ લેવા, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ (४८) मामां ( मेरा ) . (૫૦) મસ્સી વગે રે લગાડીને દાંત ર`ગવા. (५१) शतपाड, सहस्रपा हि तेसथी शरीरने भहन . (५२) शरीरनुं मंडन वु (शोभाववु ) એ ધૂપ આદિથી અગ્નિકાય આદિ જીવાની વિરાધના આદિ દ્વેષ લાગે છે (૯), १ चौरादिकाद्वर्णयतेर्भावे घञ् । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे छायाः-सर्वमेतदनाचीर्ण, निर्ग्रन्थानां महर्णिाम् । संयमे च युक्तानां लघुभूतविहारिणाम् ॥१०॥ सान्वयार्थ:-निग्गंथाण-परिग्रहरहित महेसिणं-महर्षियोंके संजमंमि-संयममें जुत्ताणं-लगेहुए य और लहुभूयविहारिण = वायुके समान अप्रतिबन्धविहार करनेवालोंके एयं = ये पूर्वोक्त बावन सव्वं-सब अणाइन्न अनाचीर्ण हैं । भावार्थ-निर्ग्रन्थ महार्षियोंने पूऑक्त इन बावन विषयोंका आचरण नहीं किया, अतः ये अनाचीर्ण कहलाते हैं । साधुओंको इनका आचरण नहीं करना चाहिये ॥१०॥ टीका--ग्रन्थान्निर्गता निर्ग्रन्थाः कनक-रजतादिद्रव्यग्रन्थि मिथ्यात्वादिभावग्रन्थिरहितास्तेषाम्, महर्षीणाम् महान्तश्च ते ऋषयः महर्षयस्तेषाम्, यद्वा 'महैषिणा' मिति च्छाया, महो= निजहितं तम् एषयन्ति-गवेषयन्तीति महैषिणस्तेषाम् । संयमे सकलसावधव्यापारोपरमलक्षणे युक्तानां = व्यापूतानां दत्तचित्तानामित्यर्थः, च-पुनः लघुभूतविहारिणाम् = लघुभूतो वायुस्तद्वदप्रतिबद्धं विहरन्ति तच्छीलास्तेषां वायुवदप्रतिबन्धविहारिणामित्यर्थः । एतत्-पूर्वोक्तं सर्व द्विपञ्चाशत्प्रकारकम् अनाचीर्णम्-अनासेवितम् 'अस्ती'-ति शेषः ॥१०॥१०॥ अनाचीर्णत्यागिनो मुनयः कीदृशा भवन्ति ? इत्याहमूलम्-पंचासवपरिनाया. तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥११॥ छाया:-पश्चास्रवपरिज्ञाता, -स्त्रिगुप्ताः षट्स संयताः। पञ्चनिग्रहणा धीरा, निग्रन्था ऋजुदर्शिनः ॥११॥ सान्वयार्थः-पंचासवपरिन्नाया-पांच आस्रवोंकेत्यागी, तिगुत्ता-मनोगुप्ति में वचगुप्ति २ कायगुप्ति ३ से युक्त, छम-छह कायमे संजया संयमवान्, पंचनिग्गहणा-पांच इन्द्रियोंके निग्रह करनेवाले धीरा-परीषह उपसर्ग सहनेमें धीर निग्गंथा-मुनि उज्जुदंसिणो-मोक्षमार्गके आराधक होते हैं। भावार्थ-जो अनाचीौँका त्याग करते हैं वे गाथोक्तविशेषणोंसे विशिष्ट होते हैं ॥११॥ अब उपसंहार करते हैं-'सव्वमेय.' इत्यादि । बाह्याभ्यन्तर पग्रिहकी प्रन्थिसे रहित, अपने हितका अन्वेषण करनेवाले महर्षि तीन करण तोन योगसे सावध व्यापारके त्यागरूप सकल संयमसे युक्त और वायुकी तरह अप्रतिबन्ध विहार करनेवाले मुनिराजोंके ये पूर्वोक्त बावन अनाचीर्ण है ॥१०॥ डवे 6५ २ ४२ छ:-सव्वमेय. त्याह, બાહ્યાભંતર પરિગ્રહની ગ્રંથિથી રહિત, પિતાના હિતનું અન્વેષણ કરનારા મહર્ષિઓએ ત્રણ કરણુ ત્રણગથી સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યજવા રૂપ સકળ સંયમથી યુક્ત અને વાયુની પેઠે અપ્રતિબંધ વિહાર કરનારા મુનિરાજોના એ પૂર્વોક્ત બાવન અનાચીણું કહેલ છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ M अध्ययन ३ गा० ११ अनाचीर्णात्यागिमुनिस्वरूपम् टीका-पञ्चानवपरिज्ञाताः-आस्रवति-आक्षरति-मिथ्यात्वादिनालिकाभ्यः कर्मसलि. लमात्मतडागे यैस्ते आस्रवाः हिंसादयः, पञ्च च ते आस्रवाश्चेति पञ्चानवाः परि = सर्वतोभावेन ज्ञाताः-ज्ञपरिज्ञातोऽनर्थमूलमनुभाविताः प्रत्याख्यापरिज्ञातो हेयत्वेन परित्यक्ता यैस्ते तथोक्ताः,' त्रिगुप्ताः = तिमृभिर्मनोवाक्कायगुप्तिभिर्गुप्ताः षट्षु % पृथिव्यादि कायषट्केषु संयताः सम्यग् यतनावन्त:-पड्कायोपमर्दनविरता इत्यर्थः, पञ्चनिग्रहणाः पञ्च = प्रसंगात पञ्चेन्द्रियाणि निगृहन्ति = वशयन्तीति तथोक्ताः, धीराः= परीषहोपसर्गादिषु धृतिमन्तः, निर्ग्रन्थाः मुनयः ऋजुदर्शिनः ऋजु = अवक्रम् अकुटिलस्वभावं यथा स्यात्तथा द्रष्टुं शीलं येषां ते तथोक्ता:-सरलहृदया इत्यर्थः, यद्धा अर्जते-उपार्जयति = सम्पादयत्यविचलसुखमिति ऋजुः = सम्यग्रत्नत्रयलक्षणो मोक्षमार्गस्तं पश्यन्ति तच्छीला इति ऋजु दर्शिनः मोक्षमार्गसाधका इत्यर्थः ॥११॥११॥ मूलम्-आयावयंति गिम्हेसुः हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसलीणाः संजया सुसमाहिया ॥१२॥ अनाचीोका त्याग करनेवाले मुनि कैसे होते हैं ? सो कहते हैं- 'पंचीसव०' इत्यादि । जिनके द्वारा आत्मारूपी तालाबमें मिथ्यात्वादि रूप नालाओंसे कर्मरूपी जल आता है उन्हें आस्रव कहते हैं। वे आस्रव मिथ्यात्व अविरति आदिके भेदसे पांच प्रकारके हैं । उन आस्रवोंको ज्ञ-परिज्ञासे अनर्थोका कारण जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञासे त्यागते हैं । अर्थात् अनाची)का त्याग करनेवाले पांच आनवोंसे विरत हो जाते हैं, मन वचन कायरूप तीन गुप्तियोंसे युक्त होते हैं, पृथ्वी आदि षटू कायकी यतनामें सावधान रहते हैं, अर्थात् षड्जीवनिकायकी विराधनासे रहित होते हैं, पांच इन्द्रियों का दमन करते हैं, परीषह और उपसर्ग सहने में दृढ़ ऐसे मुनि, सरल हृदय वाले होते हैं, अथवा अविनाशी सुखको प्राप्त करनेवाले या मोक्षमार्गके साधक होते हैं ॥ ११॥ અનાચીને ત્યાગ કરનારા મુનિઓ કેવા હોય છે ? તે કહે છે – पंचासव० ४त्यादि. જેની દ્વારા આત્મારૂપી તળાવમાં મિથ્યાત્વાદિ-રૂપ નાળાઓથી કર્મ-રૂપી જળ આવે છે તેને આસ્ત્ર કહે છે. એ આએવો મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિ ભેદે કરીને પાંચ પ્રકારના છે. એ આસોને જ્ઞપરિજ્ઞાથી અનર્થોના કારણરૂપ જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી ત્યજે છે; અર્થાત્ અનાચીર્ણોનો ત્યાગ કરનારાઓ પાંચ આ થી વિરત થઈ જાય છે; મન વચન કાયા-રૂપ ત્રણ ગુપ્તિઓથી યુક્ત થાય છે, પૃથિવી આદિ છ કાયની યતનામાં સાવધાન રહે છે, અર્થાત્ છ જવનિકાયની વિરાધનાથી રહિત થાય છે, પાંચ ઈક્રિયાનું દમન કરે છે, પરીષહ અને ઉપસર્ગ સહેવામાં દઢ એવા મુનિએ સરલાહુદય બને છે, અથવા અવિનાશી સુખને પ્રાપ્ત કરનારા યા મોક્ષમાર્ગના સાધક બને છે. (૧૧). १ 'पञ्चास्रवपरिज्ञाताः' अत्र आहिताग्न्यादित्वान्निष्ठान्तस्य परनिपातः । २ ‘पञ्वनिग्रहणाः, अत्र नन्द्यादित्वात्कतरि ल्युः ॥ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोदशवैकालिकसूत्रे छाया-आतापयन्ति ग्रीष्मेषु, हेमन्तेष्वप्रावृताः। वर्षासु प्रतिसंलीना, संयताः सुसमा (हिताः) धिकाः ॥१२॥ सान्वयार्थ:-सुसमाहिय-प्रशस्त समाधिवाले संजया = संयमी मुनि गिम्हेसु-ग्रीमऋतु पडिसलीणा= कछुएकी भांति इन्द्रियों का गोपन कहते हैं, अर्थात् जिस ऋतुमें जिस प्रकारकी तपस्यासे अधिक कायक्लेश होता हो उस ऋतुमें वही तपस्या करते हैं ॥१२॥ टीका-मुसमाधिका-समाधोयतेऽस्मिन् मनो विवेकिभिरिति समाधिः-प्रशस्तभावाऽवस्थानम्, सुशोभन: समाधिर्येषांते तथोक्ताः = विनय-श्रुतादिसपाधिसम्पन्नाः। यद्वा 'सुसमाहिताः' इति च्छाया, 'निरवद्यव्यापारविधानदत्तावधानाः' इति तदर्थः । संयताप्रवचनमननयतनावन्तः, मुनयः ग्रीष्मेषु = धर्मर्तुषु आतापयन्ति-ऊर्ध्वाभिमुखावस्थानादिना परितापयन्ति स्वतनुमिति शेषः, आतापनां विदधतीति यावत् । प्रन्ति = नाशयन्ति शैत्याधिक्येन चित्तसमाधिमिति हेमन्ताः' हिमोऽन्तोऽवयवोऽस्त्येषामिति वा पृषोदरादित्वाद् हेमन्तास्तेषु हिमत्तेषु अमाता:- 'अनुदरा कन्ये'-त्यत्रेव नबोऽल्पार्थकत्वेन अल्पप्रावरणाः, यद्वा प्रावरणरहिताः, वर्षासु = प्राट्कालेषु, प्रतिसंलीनाः = कूर्मवदिन्द्रियगोपनतत्परा भवन्तीत्यर्थः । ग्रीष्मादिषु बहुवचनप्रयोगः प्रतिवत्सरमेवंकरणसंसूचनाय।।१२॥१२॥ जिस अवस्थामें आत्मज्ञानी जन प्रशस्त भावोंसे रमण करते हैं उसे समाधि कहते हैं। अनाचीोका त्याग करनेवाले साधु उस विनय श्रुत आदि चार प्रकारको समाधिको प्राप्त करते हैं । अथवा निरवद्य व्यापार करने में सदा सावधान रहते हैं। तथा प्रवचनके मनन करनेमें यत्नवान् रहते हैं । ग्रीष्म ऋतुमें सूर्यके सन्मुख मुख करके भुजाएँ फैलाकर आतापना लेते हैं । शीत ऋतुमें थोडे कपडे रखते हैं, या कपड़ोंको दूर कर शीतकी आतापना लेते हैं, वर्षा ऋतुमें कछुवेकी तरह इन्द्रियोंका गोपन करनेमें तत्पर होते हैं । __ ग्रीष्म, हेमन्त, और वर्षा-शब्द गाथामें बहुवचनान्त है, इससे यह आशय निकलता है कि प्रत्येक वर्षकी ऋतुओंमें ऐसा करते हैं ॥१२॥ 'परीसह ०' इत्यादि । જે અવસ્થામાં આત્મજ્ઞાની જન પ્રશસ્ત-ભાવથી રમણ કરે છે તેને સમાધિ કહે છે. અનાચીને ત્યાગ કરનારા સાધુઓએ વિનય મૃત આદિ ચાર પ્રકારની સમાધિને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા નિરવા વ્યાપાર કરવામાં સદા સાવધાન રહે છે. તથા પ્રવચનનું મનન કરવામાં યત્નવાનું રહે છે. ગ્રીષ્મ ઋતુમાં સૂર્યની સન્મુખ મુખ રાખીને ભુજાઓને પહેલી કરીને આતાપના લે છે શી 1 ઋતુમાં ચેડાં કપડાં ૨ ખીને યા કપડાં દૂર કરીને ઠંડીની આતાપના લે છે. વર્ષાઋતુમાં કાચબાની પેઠે ઈન્દ્રિયનું ગોપન કરવામાં તત્પર રહે છે. ગ્રીષ્મ. હેમન્ત અને વર્ષો શબ્દ ગાથામાં બહુ-વચાનાન્ત છે, તેથી એવો આશય નીકળે છે કે પ્રત્યેક વર્ષની ઋતુમાં એમ કરે છે (૧૨). परीसह. त्यादि १ ('हन्तेर्मु हिच' उणादिसूत्र ३।१२९) इति झच् हन्ते हिरादेशो मुद्रागमो गुणश्च । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा० १३-१४ उपसहारः १४७ मूलम्-परीसहरिउदंता, धूयमोहा जिइंदिया। सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ॥१३॥ छाया-परीषहरिपुदान्ता, धृतमोहा जितेन्द्रियाः । सर्वदुःखग्रहीणार्थ, प्रक्रामन्ति महर्षिणः ॥१३॥ सान्वयार्थ:-परीसहरिउदंता = परीषहरूपी शत्रुओंको जीतने वाले धूयमोहा = मोहममताके त्यागी जिइंदिया = इन्द्रियों के दमन करनेवाले महेसिणो = महर्षि-मुनिराज सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा = समस्त दुःखोंके नाशके लिए पक्कमंति = शक्ति फोडते हैं उद्योग करते हैं ।१३। टीका-'परीसह०' इत्यादि। परीषहरिपुदान्ताः = परीषहा = क्षुधा-पिपासादय एव रिपवः = शत्रवः पराभव कारित्वात् परोपहरिपवः, दान्ताः = अन्तर्भावितण्यर्थतया दमिताः = निगृहीता उपशमं प्रापिताः परीषहरिपवो यैस्ते तथोक्ताः,'धृतमोहाः% मुह्यति = सदसद्विवेकरहितोभ वत्यात्माऽनेनेति मोहोऽज्ञानं धूतः = समुज्झितो मोहो यैस्ते तथोक्ताः, नितेन्द्रियाः = जितानि= रागद्वेषवशात्स्वविषयप्रवृत्त्युपरोधपूर्वकं वशीकृतानि इन्द्रियाणि = चक्षुरादीनि यैस्ते एवंविधा महर्षयः = मुनयः सर्वदुःखमहीणार्थ = 'प्रहीण' मिति सौत्रत्वाद् भावक्तातं गृह्यते, तथा च-सर्वाणि च तानि दुःखानि च सर्व दुःखानि सर्वदुखानां प्रहीणं = परित्यागः सर्वदुःखप्रहीणं, सर्वदुःखप्रहीणाय इदं सर्वदुःखप्रहीणार्थम् 'अर्थेन नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्य'-मिति समासः । यद्वा 'प्रक्षीणार्थ-मिति तदर्थः, सर्वदुःखप्रक्षीणार्य = शारीरिक-मानसिक निखिलदुःखविनाशार्थ प्रक्रामन्ति = समुधुजते स्वीगं शक्ति स्फोरयन्तीत्यर्थः ॥१३॥ क्षुधा-पिपासा प्रभृति परीषहरूपी शत्रुओंको पराजित करते हैं । सत्-असत्के बोधसे वंचित करनेवाले मोहको नष्ट कर देते हैं । इन्द्रियोंकी अपने-अपने विषयमें जो प्रवृत्ति होती है, उस प्रवृत्तिको रोक कर इन्द्रियोंको वशमें करके जितेन्द्रिय होते हैं, ऐसे महर्षि शारीरिक और मानसिक समस्त प्रकारके समस्त दुःखोंका विनाश करनेके लिए पमाक्रम फोड़ते हैं ॥१३॥ उपसंहार करते हुए कहते हैं-'दुक्कराइ ' इत्यादि । ભૂખ, તરસ, ઈત્યાદિ પરીષહ-રૂપી શત્રુઓને પરાજિત કરે છે. સતુ અસતના બેધથી વંચિત કરનારા મોહને નષ્ટ કરી નાંખે છે. ઈદ્રિયાની પિત પિતાના વિષયમાં જે પ્રવૃત્તિ થાય છે. તે પ્રવૃત્તિને રોકીને 'ઈદ્રિયોને વશ રાખીને જિતેન્દ્રિય બને છે, એવા મહર્ષિઓ શારીરિક અને માનસિક બધા પ્રકારનાં બધાં દુઃખેને વિનાશ કરવાને માટે પરાક્રમ કરે છે. (૧૩) वे ५ २ ४२ता ४ छः-दुक्कराई. इत्यादि. १-निष्ठान्तस्य न पूर्वनिपातः, 'लक्षणहेत्वोः क्रियायाः' इति सूत्रनिर्देशेन पूर्वनिपातप्रकरणस्याऽनित्यत्वात् । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे सम्प्रत्यध्ययनमुपसंहरन्नाह-'दुक्कराई' इत्यादिमूलम्-दुक्कराई करिताणं, दुस्सहाई सहेत्त य । केइत्थ देवलोएसु.केइ सिझति नीरया ॥१४॥ छायाः-दुष्कराणि कृत्वा, दुस्सहानि सोढ्वा च । केचिदत्र देवलोकेषु, केचित् सिध्यन्ति नीरजस्काः ॥१४॥ सान्वयार्थ-दुक्कराई = दुष्कर आतापना आदि करित्ताणं = करके य = और दुस्सहाई = कायर पुरुषों के असह्य (परीषह आदि) सहेत्तु = सह करके केई = कोई-कोई देवलोएसु-स्वर्गों में (उत्पन्न होते हैं), केई-कोई नीरा-कर्मरजसे रहित-मुक्त होकर अत्थ-इसी भवमें सिमंति-सिद्ध होजाता हैं-मोक्ष चले जाते हैं ॥१४॥ ___टीका-दुःखेन कर्तुं योग्यानि दुष्कराणि आचरितुमशक्यानि कष्टसाध्या,यातापनादीनि कृत्वा विधाय, च-तथा दुःसहानि-कातचित्तैः सोदुमशक्यानि परीषहोपसर्गादीनि सोढ्वा संसह्य केचित्-मुनयः अवशिष्टकर्माणः देवलोकेषु सौधर्मादिसुरलोकेषु' या'तो' -ति शेषः, केचित् = कतिपये नीरजस्काः = कर्मरजोविनिर्मुक्ताः अत्र = अत्रैव भवे सिध्यन्ति = सिद्धा भवन्ति, शिवपदमासादयतीत्यर्थः। अत्र टोकान्तरेषु-'अत्रे'-त्यस्य 'देवलोकेषु' इत्यनेन सहान्वयकरणं सर्वथा प्रमाद विजृम्भितम् ॥१४॥१४॥१४॥ कर्मावशेषेण ये मुनयो देवलोकं गच्छन्ति ते तत्र देवायुष्कमुपभुज्य ततश्च्युता आर्यक्षेत्रे मनुष्यजातौ सुकुले च समुत्पद्य तद्भवमोक्षगामिनो भवन्तीति दर्शयितुमाह'खवित्ता' इत्यादि पूर्वोक्त गुणोंसे विशिष्ट मुनि दुष्कर आतापना आदि क्रियाओंका आचरण करके, तथा कायर पुरुष जिन्हें सहन नहीं कर सकते ऐसे परोषह और उपसर्गों को सह कर अवशिष्ट-कर्मवाले कोई मुनि सौधर्म आदि देवलोकमें जाते हैं । जो कर्मरजसे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं वे इसी मनुष्य भवमें सिद्धिपदको प्राप्त करते हैं । दूपरे टोकाकारों ने 'अत्र' शब्दको देवलोकके साथ जोड़ा है वह ठीक नहीं है, 'अत्र' शब्दका अर्थ-यहाँ-"इसी भवनमें" ऐसा है ॥१४॥ जो मुनि कर्म बाकी रहनेसे देवलोकमें जाते हैं, वे भी देवलोकसम्बन्धी आयुष्यको भोग પૂર્વોક્ત ગુણેથી વિશિષ્ટ મુનિ દુષ્કર આતાપના આદિ ક્રિયાઓનું આચરણ કરીને તથા કાયર પુરૂષ જે સૂહન કરી શકતા નથી એવા પરીષહ અને ઉપસર્ગો સહીને અવશિષ્ટ કર્મવાળા કે ઈ મુનિ સીધમ આદિ દેવલોકમાં જાય છે. જેઓ કમજથી સર્વથા મુક્ત થઈ જાય છે તેઓ આ મનુષ્યભવમાં સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત કરે છે. બીજા ટીકાકારોએ રાત્ર सपने वो साथे ये 2 ते सरासर नथी. अत्र हुने अथ मी 'मासमा' येवा छे. (१४). જે મુનિ, કમ બાકી રહેવાને લીધે દેવલોકમાં જાય છે, તેઓ પણ દેવકસંબંધી maramaRPTERISTITaramana શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. १५ अध्ययनसमाप्तिः १४९ ६ ३ । । मूलम्-खवित्ता पुव्वाकम्माइं. संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, तायिणो परिनिब्वुडे ॥१५॥ तिबेमि ॥ छाया-क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि, संयमेन तपसा च । सिद्धिमार्गमनुप्राप्ताः-स्त्रायिणः परिनिवृताः ॥१५॥ इति ब्रवीमि । सान्वयार्थ:-सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता-मोक्षमार्ग में प्राप्त हुए ताइणो=षदकायके रक्षक (मुनि) संजमे ग-संयमके द्वारा य और तवेण-तपके द्वारा पुव्वकम्माई-पहले बंधे हुए कर्मों को खवित्ता-खपाकरके परिनिव्वुडे-मुक्त होते हैं । त्ति बेमि-पूर्ववत् ॥१५॥ इति तृतीयाध्ययनस्य सान्वयार्थः।। टीका-सिद्धिः अविचलसुखनिष्पत्तिस्तस्या मार्गः-उपायो ज्ञानादिः सिद्धिमार्गस्तम् अनुप्राप्ताः अनुगताः, त्रायिणः षड्जीवनिकायत्राणपरायणान्तःकरणाः संयमेन-सावद्यव्यापारविरतिलक्षणेन सप्तदशविधेन, च-तथा तपसा-ऊनोदरतादिरूपेण द्वादशविधेन तपश्चरणेन पूर्वकर्माणि = प्रग्भवोपार्जितज्ञानावरणीयाद्यष्ट विधकर्माणि क्षपयित्वा% कर, वहांसे चव कर आर्य क्षेत्रमें मनुष्यजाति, और सुकुलमें जन्म लेकर उसी भवमें सिद्धि प्राप्त करते हैं । इसी विषयको सूत्रकार आगे की गाथामें कहते हैं- "खवित्ता०" इत्यादि । वे मुनि, मोक्षमार्गमें प्राप्त होकर सर्वसावधव्यापारके त्यागरूप सत्रह प्रकारके संयमसे, तथा अनशन ऊनोदर आदि बारह प्रकारके तपसे, पहले भवोंमें बांधे हुए ज्ञानावरण आदि आठ प्रकारके समस्त कर्मोको नाश करके सर्वथा मुक्त हो जाते हैं-कर्मजन्य संतापसे रहित होकर परमशीतलीभूत होते हैं अर्थात् सिद्ध हो जाते हैं । આયુષ્યને ભેળવીને, ત્યાંથી આવીને આર્યક્ષેત્રમાં મનુષ્ય જાતિ અને સુકુળમાં જન્મ લઈને से सभ सिद्धि प्रात रे छ, २॥ विषयने सूत्र१२ सानी थामा ४ छ–खवित्ता छत्यादि. જે મુનિ, મોક્ષમાર્ગમાં પ્રવેશ કરીને સર્વસાવધ-વ્યાપારના ત્યાગરૂપ સત્તર પ્રકારના સંયમથી, તથા અનશન ઊનેદરી આદિ બાર પ્રકારના તપથી પહેલાંના ભામાં બાંધેલા જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના બધાં કર્મોનો નાશ કરીને સર્વથા મુક્ત થઈ જાય છે-કમ જન્ય સંતાપથી રહિત થઈને પરમશીતલીભૂત થાય છે, અર્થાત્ સિદ્ધ થઈ જાય છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रीवैकालिकसूत्रे क्षयं नीत्वा परिनिर्वृताः = परि सर्वतोभावेन निर्वृताः = कर्मजनित- सन्तापराहित्येन शीतलीभूताः 'भवन्ती'-ति शेषः, सिध्यन्तीत्यर्थः । इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १५॥ इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभप्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषा - कलित- ललितकलापाऽऽलापक- प्रविशुद्ध गद्य-पद्य - नैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दककोल्हापुरराजगुरु - बालब्रह्मचारि- जैनाचार्य- जैनधर्म दिवाकरपूज्य श्रीघासीलालव्रतिविरचितायां श्रीदशवैकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूषाख्यायां व्याख्यायां तृतीयं 'क्षुल्लकाचारकथा' ssख्यमध्ययनं समाप्तम् ||३|| * श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं - हे जम्बू ! तीसरे अध्ययनका जैसा भाव भगवानने फरमाया है, वैसा ही तुमसे कहता हूँ ||१५|| इति " क्षुल्लका चारकथा" नामक तीसरे अध्ययनका हिन्दीभाषानुवाद समाप्त || ३ || -* αγ સુધર્મા સ્વામી જમ્મૂ સ્વામીને કહે છે-હે જ બૂ ! ત્રીજા અઘ્યયનને જેવા ભાવ ભગવાને ફરમાવ્યા છે તેવા હું તને કહું છું. (૧૫) ઇતિ ‘ક્ષુલ્લકાચારસ્થા, નામક ત્રીજા અધ્યયનનુ गुभराती भाषानुवाद सभाप्त. (3) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ 10:1 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ ० १ प्रवचनष्यातोपदिष्टत्वम् १५१ अथ चतुर्थाध्ययनम् गतं तृतीयाध्ययनं सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते - पूर्वाध्ययने 'अनाचीर्णानि विहायाssचारे धृतिः संधार्या संयमिने ' आचारश्च षड्विधजीवानां यथावस्थितस्वरूपमवबुध्य तसंरक्षण पुरस्सरं भवत्यतोऽत्र षड्जीवनिकायानामाऽध्ययने तत्स्वरूपं तत्संरक्षणोपायं च प्रतिपादयिष्यन् प्रवचनस्याऽऽसोपदिष्टत्वं प्रदर्शयति- 'सुयं मे' इत्यादि, मलम् - सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु छज्जीवणियानामज्झयणं, समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सपन्नत्ता सेयं मे अहिज्जिर अज्जयणं धम्मपन्नत्ती ॥१॥ छाया - श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् - इह खलु षड्जीव निकायानामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महवीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्त्राख्याता सुप्रज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः || १ || चौथा अध्ययन | अब चौथा अध्ययन कहते हैं- तीसरे अध्ययन में यह प्रतिपादन किया है कि महापुरुषों को अनाचीणों का त्याग करके, आचार - ( संयम ) - में दृढता रखनी चाहिए । आचार में दृढता तब ही होती है जब षट्काय के जीवोंका वास्तविक स्वरूप जानकर उनकी रक्षा की जाय, इसलिए इस 'षड्जीवनिकाय' नामक अध्ययनमें षड्जीवनिकायका स्वरूप और उसकी रक्षाका उपाय बताते हुए 'यह प्रवचन आप्त(भगवान्) द्वारा उपदिष्ट है' इस बातको कहते हैं - 'सुयं मे ०, इत्यादि हे आयुष्मन् ! अर्थात् संयमरूपी - जीवनवाले ! नीरोग - जीवनवाले ! या दीर्घजीवी !, इस सम्बोधनसे धर्मके आचारणमें आयुष्यकी प्रधानता सूचित की है ( २ ), अथवा 'आउसंतेणं' यह अध्ययन ४. थु. હવે ચાથું અધ્યયન કહે છેઃ—— ત્રીજા અધ્યયનમાં એમ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે—મદ્ગાપુરૂષાએ અનાચીનિા ત્યાગ કરીને આચાર ( સયમ ) માં દૃઢતા રાખવી જોઇએ. આચારમાં દૃઢતા ત્યારે જ આવે છે કે જ્યારે ષટ્કાયના જીવાનુ વાતવિક સ્વરૂપ જાણીને તેમની રક્ષા કરવામાં આવે, તેટલા માટે આ ષડૂજીવનિકાય' નામના અધ્યયનમાં છ−કાયનું સ્વરૂપ અને તેની રક્ષાના ઉપાય બતાવતાં આ પ્રવચન આપ્ત ( ભગવાન્ ) દ્વારા ઉપષ્ટિ છે, એ વાતને કહે छे- सुयं मे० इत्याह आयुष्मन ! अर्थात् संयम - ३यी - भुवन - वाजा ! नीरोगी - लवन-वाजा ! या दीर्घ જીવી !, આ સ ંમેાધનથી ધર્માંના આચરણમાં આયુષ્યની પ્રધાનતા સૂચિત કરી છે (૧), अथवा आउसंतेणं थे ये पढछे, खेनी छाया आजुषमाणेन मे प्रमाणे थाय छे, अर्थात् શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकस्ने ____ सान्वयार्थः-आउसं हे अयुष्मन् शिष्य ! तेणं = उस भगवा = भगवान ने एवं = ऐसा अक्खायं = कहा है, मे = मैंने सुयं = सुना है इह = यहां इस प्रवचन मे खलु निश्चय करके छज्जीवणियानामज्झयणं-षड्जोव निकाय नामक अध्ययन हैं, (वह) समणेणं - श्रमण भगवया = भगवान् कासवेणं = कश्यपगोत्रीय महावीरेणं = महावीरने पवेइया = प्रवेदितकी है, सुअक्खाया= सम्यक् प्रकारसे कही है, सुपन्नता = सम्यक्तया बताई है धम्मपन्नत्ती = धर्मप्रज्ञप्ति (नामक) यह) अज्झयणं = अध्ययन मे = मुझे अहिज्जिउं पढ़ने को सेयं = कल्याणकारी हैं अर्थात् भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित इस अध्ययनका अध्ययन करना मुझे कल्याणकारी है ॥ १ ॥ टोका-एति = गच्छतीत्यायुः = संयमलक्षणं नीरूज दीर्घ वा जीवितस्यास्तीत्यायुष्मान् तत्सम्वुद्धौ हे आयुष्मन् ! गुणवच्छिष्यामन्त्रणमेतत् । अनेन धर्माचरणे प्राधान्येनायुषोऽपेक्षा विद्यते इति सूचितम् । तेन = लोकत्रयप्रसिद्धन, यद्वा 'आउसंतेणं' इत्येकपदस्य 'आजुपमाणेन' इति संस्कृतं तस्य मयेत्यनेन सम्बधः तथा च आङति मर्यादायाम् आ = शस्त्रश्रवणमर्यादया जुषमाणेन = गुरून् सेवमानेन मयेत्यर्थः ।विधिमन्तरेण हि श्रवणे शास्त्ररहस्यं श्रोतुरधोमुखकुम्भस्येव न किञ्चदप्यन्तः प्रविशति । 'आजुषमाणेने -ति विशेणेन गुरुमाराध्य शिक्षां लब्धवतः शिष्यस्य शास्त्राध्ययनं सफलीभवतीति धोतितम् । अथवा 'आउसंतेणं 'इत्यस्य' आवसता 'इति संस्कृतम् ,तस्यापि ' मये ' त्यनेनैव सम्बन्धः,आङ् प्राग्वन्मर्यादार्थकस्तथाच = आ = शिष्योचितमर्यादया वसता भगवदन्ति के निवासं कुर्वता मयेत्यर्थः । अनेन शिष्यस्य गुरुकुलनिवासः सूचितः। _भगवता = भगः = ज्ञानं सकलपदार्थविषयकम् (१), माहात्म्यम् अनुपममहनीयमहिमसम्पन्नत्वम् (२), यशः = विविधानुकूलप्रतिकूलपरीषहोपसर्गसहनसमुद्भूता जगएक पद है, इसकी छाया 'आजुषमाणेन' होतो है, अर्थात् गुरुकी सेवा करनेवाले मैंने, इस पदसे गुरुकी सेवा करके सीखनेसे ही शास्त्रका अध्ययन सफल होता है, यह सूचित होता है (२), 'आवसता' ऐसी भी छाया होती है, अर्थात् शिष्यके योग्य मर्यादा-पूर्वक भगवानके समीप रहनेवाले मैंने (सुना), इस पदसे गुरुकुलमें निवास करना सूचित किया गया है। यहां 'भग' शब्दके दश अर्थ हैं-(१) समस्त पदार्थीको विषय करनेवाला ज्ञान, (२) अनुपम-महिमा, (३) विविध प्रकारके अनुकूल और प्रतिकूल परीषहोंको सहन करनेसे उत्पन्न होनेઅર્થાત ગુરૂની સેવા કરનાર એ મેં, ઓ પદથી ગુરૂની સેવા કરીને શીખવાથી જ શાસ્ત્રનું अध्ययन स थाय छ' से सूयित थाय छे (२), आवसता मेवी ५५ छाया थाय छे. અર્થાત શિષ્યને યોગ્ય મર્યાદાપૂર્વક ભગવાનનની સમીપે રહેનારી એવા મેં (સાંભળ્યું) એ પદથી ગુરૂકુળમાં નિવાસ કરવાનું સૂચન કરેલું છે. मी भग' मन। इस अर्थ छ (१) मा पहा विषय ४२वावा ज्ञान, (२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ स्०१ भगवच्छदार्थः द्रक्षणप्रज्ञासमुत्था वा कोतिः (३) वैराग्यम् = क्रोधादिकषायनिग्रहलक्षणम् (४) मुक्तिः = सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः (५), रूपम् = सुरासुरनरहृदयहारि सौन्दर्यम् (६) वीर्यम् = अन्तरायान्तजन्यमनन्तसामर्थ्यम् (७) श्रीः = घातिककर्मपटलविघटनज नितानन्तचतुष्टयलक्ष्मीः (८), धर्मः = अपवर्गद्वारकपाटोद्घाटनसाधनम्, श्रुतादिरूपो यथाख्यातचारित्ररूपो वा (९), ऐश्वर्य-त्रैलोक्याधिपत्यं (१०) चाऽस्यास्तीति भगवान् तेन तथोक्तेन, एवम् ='धम्मो मंगलमुक्कि' मित्याचारभ्य 'तायिणो परिनिव्वुडे' इत्यन्तं यावत् पूर्वोपदिष्टरूपेण, आख्यातम् परस्परासङ्कीर्णतया कथितम्, प्रवचने, मेमया श्रुतम् = श्र -वणगोचरीकृतम्। खलु शब्दो वाक्यालङ्कारे । इह = अस्मिन् प्रवचने, षड्जीवनिकायाना -माध्ययनम् = षद च ते पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसलक्षणा जीवाश्चेति षड्जीवास्तेषां निकायः = समूहः प्रतिपाद्यत्वेनाऽस्ति यस्यामागमपद्धतौ सा 'षड्जीबनिकाया तमाम यस्य तच्च तदध्ययनं चेति' षड्जीवनिकायानामाध्ययनम् 'अस्ती' -तिशेषः । वाली या संसारकी रक्षा करनेवाले अलौकिक ज्ञान से उत्पन्न होनेवाली कोत्ति, (४) क्रोध आदि कषायोंका सर्वथा निग्रहरूप वैराग्य, (५) समस्त कर्मोका क्षयस्वरूप मोक्ष, (६) सुर-असुर और नरोंके अन्तःकरणको हर लेनेवाला सौन्दर्य, (७) अन्तराय कर्मके नाशसे उत्पन्न होनेवाला अनन्त बल, (८) घातिया कर्मरूपी पटलके हट जानेसे प्रादुर्भूत होनेवाली अनन्त-चतुष्टय लक्ष्मी, (९) मोक्षके द्वारको खोलनेका साधन श्रुत--चारित्र-यथाख्यातचरित्ररूप धर्म, (१०) तीन लोकका आधिपत्य रूप ऐश्वर्य । ये सब भगशब्दके अर्थ जिनमें पाये जाते हैं उन्हें भगवान् कहते हैं । हे आयुष्मन् ! 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ' से लेकर 'तायिणो परिनिव्वुडे' तक सब भगवानने ही कहा है और मैंने અનુપમ-મહિમા, (૩) વિવિધ પ્રકારના અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ પરીષાને સહન કરવાથી ઉત્પન્ન થનારી અથવા જગતની રક્ષા કરનારા અલૌકિક જ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થનારી કી, (૪) ક્રોધ આદિ કષાયેના સર્વથા નિગ્રહરૂપ વૈરાગ્ય, (૫) બધાં કર્મોના ક્ષય-સ્વરૂપ મોક્ષ, (૬) સુર અસુર અને નરેના અંતઃકરણને હરનારૂં સૌદર્ય, (૭) અંતરાય કર્મના નાશથી ઉત્પन्न थना मनात म. (८) पाती-भ-३पी ५३ ही पाथी पन्न थनारी अनत ચતુષ્ટય લકમી, (મોક્ષના દ્વાર ખોલવાના સાધન શ્રત–ચારિત્ર-વધાખ્યાત-ચારિત્ર-રૂપ ધર્મ (૧૦) ત્રણ લોકના આધિપત્ય-રૂપ એશ્વર્ય આ બધા ભગ શબ્દના અર્થો જેનામાં મળી આવે છે તેને ભગવાન કહે છે. હે आयुभन् ! धम्मो मंगलमुक्किट्ठ थी बने तायिणो परिनिम्बुड़े सुधी मधु भगवान १ सूत्रे 'छज्जोवणिया' इति पदं 'स्वराद्यस्य' (४४॥६२ इति निकायाघटकयकारस्य लोपे, 'काग-च-ज-त-द-पय-वां प्रायो लुक' इति ककारलोपे कृते 'नि+आ+आ+' इति स्थिते 'सवर्णे दीर्घः' (१।२।७) इति 'द्वयोराकारयोः स्थाने दीर्धेकादेशे 'अवर्णी यश्रुतिः, इति यकार श्रुत्या णत्वेन च सिद्धम् । २० શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे णेन : = = = 'साच षड्जीवनिकाया' इत्यध्याहियते उत्तरवाक्याऽऽकाङ्क्षोत्थानाय, श्रम : श्राम्यति = तपस्यतीति श्रमणस्तेन सा 'द्वादशर्षाणि घोरतपश्चरणाच्छ्रमण इतिप्रसिद्धिं लब्धवता, भगवता काश्यपेन = कश्यपगात्रोत्पन्नेन महावीरेण = वीरयति = परा क्रमते मोक्षानुष्ठाने इति वीरः, यद्वा वि = विशेषेण ईरयति गमयति प्रापयति मोक्षं प्रति भव्य जनानिति, वि = विशेषेण ईत्त = गच्छति क्षपिताखिलकर्मा मोक्षमिति, वि= विशेषेण ईरयति = कम्पयति कषायादिपरिपन्थिन इति, वि - विशेषेण इरयति प्रक्षिपति घनघातिकर्मपटलमवकरनिकरमिवेति, वि = विशेषेण इरयति = प्रेरयति प्रवर्त्तयति संयमाद्यनुष्ठाने प्राणिन इति वा वीरः, महांश्चासौ वीरश्च महावीरस्तेन श्रीवर्द्धमानस्वामिनेत्यर्थः । प्रवेदिता = प्रकर्षेण सकलप्राणिगणस्य स्वस्वभाषापरिणमनरूपेण यथा वस्थितार्थद्वारेण च वेदिता = केवलाऽऽलोकेन विलोक्य प्रतिपादिता, स्वाख्याता = सुष्ठु - पूर्वापराविरोधियुक्तयुक्तिभिरुपपन्न - तयाऽऽख्याता = उक्ता, सुप्रज्ञप्ता सुष्टु-सदेव - सुना है । इस अध्ययनका नाम 'षड्जीवनिकाया' है । वह इसलिए कि इसमें पृथिवो आदि षड्जीव - निकायका वर्णन है । १५४ = साडे बारह बर्ष तक घोर तपश्चरण करने के कारण श्रमण नाम से प्रसिद्ध काश्यप गोत्र में उत्पन्न होने वाले भगवान् महावीरने, वीर शब्द के छह अर्थ हैं, अर्थात् - (१) मोक्ष के अनुष्ठान में पराक्रम करनेवाले, अथवा (२) भव्य जीवोकों मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले, या (३) समस्त कर्मों को दूर करके मोक्षको प्राप्त होनेवाले, (४) कषाय आदि शत्रुओं को सर्वथा हरानेवाले, (५) चार घन-घातिया कर्मोंको कचरे की तरह दूर करनेवाले ( ६ ) प्राणियों को विशेष रूप से संयम अनुष्ठान में प्रवृत्ति करानेवाले श्रीवर्द्धमान स्वामीने, प्रत्येक प्राणीको अपनी २ भाषामें परिणत होनेवाले इस प्रवचनकों केवल - ज्ञानसे जानकर प्रतिपादित किया है । पूर्वापर विरोध - रहित और युक्तियों अछे अने में सलज्यु छे. બધ્યયનનું નામ ષડ્ જીનિકાયા છે તેએટલા માટે કે એમાં પૃથિવી-માદિ છ જીવનિકાયનુ વર્ણન છે. સાડા બાર વર્ષ સુધી ઘેર તપશ્ચર્યા કરવાને કારણે શ્રમણ નામથી પ્રસિદ્ધ, કશ્યપ ગાત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા ભગવાન્ મહાવીરે ( વીર શબ્દના छ अर्थ छे ), अर्थात् ( १ ) માક્ષના અનુષ્ઠાનમાં પરાક્રમ કરનારા, અથવા (ર) જીવાને મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનારા યા (૩) સર્વ કનિ દૂર કરીને મેાક્ષને પ્રાપ્ત થયેલા, [૪) કષાય આદિ શત્રુઓને સવ થા હુઠાવનારા, (૫) ચાર ઘનઘાતી કર્માંને કચરાની પેઠે દૂરકરી દેનારા, (૬) પ્રાણીએના વિશેષરૂપથી સંયમના અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્તિકરાવનારા, એવા શ્રી વધમાન સ્વામીએ, પ્રત્યેક પ્રાણીની પાત-પાતાની ભાષામાં પરિણત થવાવાળું આ પ્રવચન કેવળ જ્ઞાનથી જાણીને પ્રતિપાદન ४यु छे. पूर्वा ५२ विरोध-रहित भने युक्तियो सहित धुं छे, वु देव मनुष्य भने असु १ 'वोर विक्रान्तौ अस्मात्पचाद्यच् । २ 'ईर गतौ कम्पने च' इत्यादादिकात् 'ईर क्षेपे' इति चौरादिकाच्च धातोः पचाद्यच् । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. २ पइजिवनिकायस्वरूपम् १५५ मनुजासुरसभायां दिव्यध्वनिना प्रज्ञप्ता= प्ररूपिता, यद्वा धातूनामनेकार्थत्वादुपसर्गसमभिव्याहार बलाच्चेह ज्ञापिरासेवनार्थः तथा च-येनैव रूपेणाऽऽख्याता तेनैव रूपेण = प्रकर्षेण ज्ञप्ता: आसेविता, अणुमात्रतोऽपि हिसां परिहरता भगवता यथाकथितमा चरितेत्यर्थः । तदेतदध्ययन पड्जीवनिकायाख्यं धर्मप्रज्ञप्तिः धर्मप्ररूपकम्, यद्वा धर्मप्रज्ञप्तिः = एतदपरसज्ञकं मे = मम अध्येतुम् = अभ्यसितुं श्रेयः- प्रशस्यं निःश्रेयसकरमित्यर्थः ॥ १॥ ___एतन्निशम्य जम्बूस्वामी परिपृच्छति-कयरा०, इत्यादि । मूलम-कयरी खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भ -गवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता. सेयं मे अहिज्जिङ अज्जयणं धम्मपन्नत्ती ? ॥२॥ छाया-कतरा खलु सा षड्जीवनिकायानाममध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्यता सुप्रज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुम् अध्ययन धर्मप्रज्ञप्तिः १ ॥२॥ सान्वयार्थः-सा खलु = वह छज्जीवणिया = षड्जीवनिकाया कयरा = कौनसी है ? जो अज्झयणं नाम = अध्यायन नाम से प्रसिद्ध है, जो हासवेणं = कश्यपगोत्रीय समणेणं = श्रमण भगवया = भगवान महावीरेणं = महावीरने पवेइया-प्रवेदित की है, मुअक्खाया सम्यक्प्रकार कही है, सुपन्नत्ता-सम्यक्तया बताई है। वह धम्मपन्नत्ती अज्झयण-धर्मप्रज्ञप्ति अपरनामक अध्ययन अहिज्जिउं पढना मे-मुझे सेयं श्रेय है ॥२॥ टीका-सा-पूर्वोक्ता षड्जीवनिकाया खलु कतरा-किंभूता या अध्ययनं नाम-अध्ययनत्वेन प्रसिद्धेत्यर्थः, या च काश्यपेनेत्यादि व्याख्यातपूर्वम् । 'कयरा' इत्यनेन मोक्षाभिलाषिणा शिष्येण सकलक्रियाकलापे स्वाभिमानपरित्यागपूर्वकं गुरुः प्रष्टव्य इति सूचितम् ॥ सहित कहा है, देव मनुष्य और असुरों की सभा-समवसरण-में दिव्य ध्वनि से प्ररूपित किया है । अथवा भगवानने जैसा कहा है वैसा ही उन्होंने आचरण किया है। इसलिए यह षड्जीवनिकाया नामक, धर्मकी प्ररूपणा करनेवाला अध्ययन मेरे अध्ययन करनेके लिए श्रेय हैं-कल्याणकारी है ॥१॥ यह सुनकर जम्बूस्वामी प्रश्न करते हैं- 'कयरा खलु०' इत्यादि । हे भगवन् ! पहले बताई हुई षङ्जोवनिकायाका स्वरूप क्या है जो इस अध्ययनरूप से कही गई है अर्थात् जिसका इस રની સભા-સમવસરણમાં દિવ્ય વનિથી પ્રરૂપિત કર્યું છે. અથવા ભગવાને જેવું કહ્યું છે એવું તેમણે આચરણ કર્યું છે. તેથી કરીને આ વજીવનિકયા નામક ધર્મની પ્રરૂપણ કરનારું અધ્યયન મારે અધ્યयन ४२वान श्रेय छ-प्यारी छ, (१) AAL Ainीन भूस्वामी प्रश्न रे छ-कयरा खलु० त्याह. હે ભગવાન ! પહેલાં બતાવેલી ષજીવનિકાયાનું સ્વરૂપ કેવું છે કે જે આ અધ્યય શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे सम्प्रति सुधर्मस्वामिन उत्तरयन्ति–'इमा खलु०' इत्यादि। मूलम्-इमा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता, सेयं मे अहिज्जिउं अज्झयणं धम्मन्नत्ती ॥३॥ छाया-इयं खलु सा षड्जीवनिकाया नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः ॥३॥ सान्वयार्थ:-सा-वह छज्जीवनिकाया खलु-निश्चय करके इमा-यह है जो अज्झयणं नाम-अध्ययन नाम से प्रसिद्ध है, और जो कासवेणं कश्यपगोत्रीय समणेणं श्रमण भगवया भगवान् महावीरेणं-महावीरने पवेइया-अवेदित की है, सुअक्खाया-सम्यकप्रकार कहो है, सुपन्नत्ता-सम्यक्तया बताई है । वह धम्मपन्नत्ती अज्झयणं - धर्मप्रज्ञप्ति अपरनामक अध्ययन अहिन्जिङ = पढना मे = मुझे सेयं = श्रेयस्कारी है ॥३॥ टीका-'इमा' इत्यनेन 'विनीतविनेयाय करुणासञ्चारचारुहृदयेन गुरुणा शास्त्रोपदेशः कर्त्तव्यः' इति सूचितम् । अन्यत्प्राग्वत् ॥३॥ तामेव षड्जीवनिकायां सूत्रकारः प्रदर्शयति = 'तं जहा' इत्यादि । मूलम्-तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया. तेउकाइया, वाउका इया, वणस्सइकाइया, तसकाइया । पुढवी चित्तमंतमक्खायो अणेगसमस्त अध्ययनमें वर्णन किया गया हैं, और भगवान महावीर स्वामीने यावत् प्ररूपित किया है? और धर्मप्रज्ञप्ति अपरनाम से प्रसिद्ध उस अध्ययन का पढ़ना मेरे लिये कल्याणकर हैं। इस प्रश्न से यह आशय निकलता है कि-मुमुक्षु शिष्य को अहंकार त्यागकर समस्त क्रिपाएँ गुरुसे पूछनी चाहिए ॥२॥ श्री सुधर्मा स्वामी उत्तर देते हैं-'इमा खल.' इत्यादि । इस पाठका व्याख्यान पहले किया जा चुका हैं । 'इमा पदसे यह सूचित होता है कि करुणासागर गुरु महाराज विनीत शिष्यको शास्त्र का उपदेश अवश्य देवें ॥३॥ નરૂપથી કહેવામાં આવે છે ? અર્થાત્ જેનું આ આખા અધ્યયનમાં વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, અને ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ જેનું પ્રરૂપણ કર્યું છે ? અને ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ એમ બીજા નામથી જે પ્રસિદ્ધ છે તે અધ્યયનનું અધ્યયન કરવું મારે માટે કલ્યાણકારક છે ? આ પ્રશ્નથી એ આશય નીકળે છે કે-મુમુક્ષુ શિષ્ય અહંકારનો ત્યાગ કરીને બધી ક્રિયાઓ ગુરૂને नये. (२) श्री सुधरवामी उत्त२ ॥ छ है-इमा खलु० छत्या. मा ५ व्यायान पा ४२वामा मायुछे. इमा शपथी ओम सूचित थाय छ કે કરૂણાસાગર ગુરૂ મહારાજ વિનીત શિષ્યને શાસ્ત્રને ઉપદેશ જરૂર આપે. (૩) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ४ षड्जीवनिकायस्वरूपम् १५७ जीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । तेऊ चित्त मंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्य सत्थपरिरएणं, वाऊ चित्तमंतमक्खा या अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं | वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजोवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं ॥४॥ छाया तद्यथा-पृथिवीकायिकाः (१), अप्कायिकाः (२), तेजस्कायिकाः (३) वायुकायिकाः (४), वनस्पतिकायिकाः (५), त्रसकायिकाः (६)। पृथिवी चित्तवत्याख्याता, अनेकजीवा, पृथक्सत्त्वा, अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः। आपश्चित्तवत्य आख्याताः, अनेकजीवाः, पृथक्सवाः, अन्यत्र शस्त्रपरिणताभ्यः। तेजश्चित्तवदाख्यातम्, अनेकजीवं, पृथक्सत्त्वमन्यत्र शस्त्रपरिणतात् । वायुश्चित्तवानाख्यातो.ऽनेकजीवः पृथकसत्वोऽन्यत्र शस्त्रपरिणतात, वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातोऽनेकजीवः पृथक्सत्त्वोऽन्यत्र शस्त्रपरिणतात् ॥४॥ सान्वयार्थः-तं जहा-वह इस प्रकार है-(१) पुढविकाइया पृथ्वीकायिक, (२) आउकाइया अपकायिक, (३) तेउकाइया तेजस्कायिक, (४) वाउकाइया-वायुकायिक, (५) वणस्सइकाइया वनस्पतिकायिक, (६) तसकाइया-त्रसकायिक ।। अब आचार्य महाराज एक-एककी सचित्तता बतलाते हैंउस षड्जोवनिकायको सूत्रकार दिखाते हैं-'तं जहा' इत्यादि । कठिनता- स्वभाववाली पृथ्वी ही जिनका शरीर हैं उन्हें पृथ्वीकायिक कहते हैं । द्रवत्व -स्वभाववाला जल ही जिनका शरीर हैं उन्हें अप्कायिक कहते हैं । उष्णतास्वभाववाला तेज ही जिनका शरीर हैं उन्हें तेजस्कायिक कहते है । चलन स्वभाववाला वायु ही जिसका शरीर है उन्हें वायुकायिक कहते हैं । लता वृक्ष-गुल्म आदि वनस्पति हो निनका शरीर हैं उन्हें वनस्पतिकायिक कहते हैं। जिन्हें शीत-आतप(गर्मि) आदिद्वारा उत्पन्न हुई पीडासे त्रास होता है ऐसा चलने-फिरने वाला काय जिनका होता हैं उन्हे त्रसकायिक कहते हैं। से प३० पानायने सूत्रा२ वि छ-तं जहा- त्याहि. ૧-કઠિનતા-સ્વભાવવાળી પૃથ્વી જ જેનું શરીર છે તેને પૃથ્વીકાયિક કહે છે. ર-દ્રવ -સ્વભાવવાળું જળ જ જેનું શરીર છે તેને અપૂકાયિક કહે છે. ૩-ઉષ્ણતા-સ્વભાવવાળું તેજ જ જેનું શરીર છે તેને તેજસ્કાયિક કહે છે, ૪ ચલન સ્વભાવવાળો વાયુ જ જેનું શરીર છે તેને વાયુકાયિક કહે છે. પ-લતા વૃક્ષ ગુમ (ગુરુ) આદિ વનસ્પતિ જ જેનું શરીર છે તેને વનસ્પતિકાયિક કહે છે. ૬-જેને ઠંડી ગરમી આદિ દ્વારા ઉત્પન્ન થયેલી પીડાથી ત્રાસ થાય છે એવી હરવાફરવાવાળી કાયા જેની હોય છે તેને ત્રસકાયિક કહે છે. હવે અકેકની સચિત્તતા દેખાડે છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीदशवैकालिकस्त्रे (१) पृथ्वीकाय. सान्वयार्थः-(भगवानने) पुढवी-पृथ्वीको चित्तमंतं सचित्त अक्खाया-कही है, वह अणेगजीवा-अनेकजीववाली है-अनेकजीवोंका पिण्डभूत है, पुढोसत्ता-उसमें अनेकजीव भिन्न-भिन्न रहे हुए है, अन्नत्थ-सिवाय सत्थपरिणएणं-शस्त्रपरिणतके, अर्थात् जहां शस्त्र नहीं लगा है वहांका पृथ्वीकाय सब सचित्त है । इसी प्रकार छहों कायो में समझ लेना चाहिये (२) अपकाय. सान्वयार्थः-आऊ = जल चित्तमंतं = सचित्त अक्खाया = कहा है, वह अणेगजीवा = अनेक जीवोंका आश्रयभूत है, पुढोसत्ता = वे अनेक जीव भिन्न२ रहे हुए हैं, अन्नत्थ = सिवाय सत्थपरिणएणं = शस्त्रपरिणतके ॥२॥ (३) तेजस्काय. तेऊ = तेजस्काय चित्तमंतं = सचित्त अक्खाया = कहा गया है, वह अणेगजीवा = अनेक जीवोंका आश्रयभूत है, पुढोसत्ता= वे अनेक जीव भिन्न-भिन्न रहे हुए हैं, अन्नत्थ = सिवाय सत्थपरिणएणं = शस्त्रपरिणतके ॥३॥ (४) वायुकाय. वाऊ = वायु चित्तमंतं = सचित्त अक्खाया = कहा गया है, वह अणेगजीवा = अनेक जीवोंका आश्रय है, पुढोसत्ता = भिन्न-भिन्न जीवोंवाला है, अन्नत्थ = सिवाय सत्थपरिणएणं = शस्त्रपरिणतके ॥४॥ (५) वनस्पतिकाय. वणस्सई = वनस्पति चित्तमंतं = सचित्त अक्खाया = कही गई है, वह अणेगजीवा = अनेक जीवोंका आधार है, पुढोसत्ता = भिन्न-भिन्न जीववाली है, अन्नत्थ = सिवाय सत्थपरिणएणं = शस्त्रपरिणतके ।। भावार्थ-पांचों स्थावरकाय सचित्त है, वे अनेक जीवरूप हैं, उन जीवोंका अस्तित्व पृथक्-पृथक है, । इन कायोंके जो जो शस्त्र हैं उनसे यदि ये परिणत हो जायँ तो अचित्त हो जाते हैं ॥५॥ टीका-तद्यथा = तदेव प्रदीते-पृथवी = कठिनस्वभावा सैव कायः = शरीरं येषां ते पृथिवोकायास्त एव पृथिवीकायिकाः ('विनयादित्वात्स्वार्थे ठक्, तस्येकादेशः' एवमग्रेऽपीयं प्रक्रिया ज्ञेया)। आपः= द्रवलक्षणास्ता एव कायो येषां तेऽपकायास्त एवाएकायिकाः। तेजः = उष्णलक्षणं तदेव कायो येषां ते तेजस्कायिकाः। वायुः = चलनस्वभावः स एव कायो येषांते वायुकायिकाः । वनस्पतिकायिकाः - वनस्पतिः = लतातरुगुल्मादिलक्षणः कायो येषां ते तथोक्ताः । त्रस्यति शोतातपादिजनितपोडया उद्भिजते इति सः, सनस्वभावः कायो येषां तथोक्ताः। अथ प्रत्येकं सचित्ततां दर्शयन्नाह- -- શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्वरूपम् १५९ अध्ययन ४ सू० ४ षड्जीवनिकायस्वरूपम् पृथिवीकायः । पृथिवी, चित्तं-चेतनाऽस्त्यस्था इति चित्तवती-सात्मिका आख्याता केवलज्ञानाऽऽलोकावलोकिताखिललोकालोकलक्षणेन भगवता कथिता। ननु पृथिव्याः कथं सचेतनत्वमिति चेदाकर्णय-(१) पृथिवी सचेतना खानितखनिभूम्यादिषु तत्सजातीयावयवान्तरद्वारा परिपूर्तिदर्शनात् मनुष्यादिशरीरवत्, तद्यथा-मनुष्यशरीरस्थं व्रणादिकं स्वयं भ्रियते, एवमेव खानित खनिभूम्यादिकं स्वसमानजातीयावयवैप्रिंयमाणं प्राकसमानरूपतां भजते तस्माद् गम्यते पृथिव्याः सचेतनत्वम् । (२) यद्वा-पृथिवो सजीवा दैनिकघर्षणोपचयसंदर्शनात् चरणतलवत्, तद्यथा चरणतलं घृष्यते पुष्यति च तद्वत् पृथिव्यपि प्रत्यहं घृष्यते उपचीयते च तस्मात्तस्याः सजीवत्वम् । अथवाअब एक-एकको सचित्तता दिखलाते हैं पृथ्वीकाय केवल-ज्ञानरूपी आलोकसे समस्त लोक और अलोकको प्रत्यक्ष जाननेवाले भगवानने पृथिवीको सचेतन कहा हैं। प्रश्न-पृथिवी सचेतन कैसे हैं ? उत्तर--(१) पृथिवी सचेतन है, क्यों कि उसमें खोदी हुई खान आदिकी भूमि सजातीय अवयवोंसे स्वयमेव भर जाती है, । जो सजातीय अवयवांसे स्वयं भर जाता है वह सचेतन होता है, जैसा मनुष्यका शरीर । अर्थात् मनुष्यके शरीरमें घाव हो जाता हैं वह उसो तरहके अवयवों से स्वय' भर जाता है, उसी प्रकार खोदो हुई खान आदिका भूमि उसी प्रकारके एवयवों से भर जातो हैं और पहलेके समान हो जाता हैं इसलिए पृथिवी सचेतन है। [२] यहा-प्रथिवो सचेतक हैं ,क्योकि उसमें प्रतिदिन घर्षण और उपचय देखा जाता हैं जैसे पैरका तलुवा । अर्थात् जैसे तलुवा घिसकर फिर भर जाता हैं वैसे ही प्रथिवी भी घिस कर भर जाती हैं इसलिए वह सजीव हैं । अथवा--- पृथिवीय' કેવળ-જ્ઞાન-રૂપી પ્રકાશથી બધા લેક અને અલકને પ્રત્યક્ષ જાણવાવાળા ભગવાને પૃથિવીને સચેતન કહી છે. प्रश्न-पृथिवी सयेतन वी शत छ? ઉત્તર-(૧) પૃથિવી સચેતન છે, કારણ કે તેમાં બેઠેલી ખાણ આદિની ભૂમિ સજાતીય અવયથી પિતાની મેળે ભરાઈ જાય છે, જે સજાતીય અવયવોથી સ્વયમેવ ભરાઈ જાય છે તે સચેતન હોય છે, કેમકે મનુષ્યનું શરીર અર્થાત મનુષ્યના શરીરમાં ઘા પડે છે તે એવી રીતના અવયવોથી પિતાની મેળે ભરાઈ જાય છે એ જ રીતે ખોદેલી ખાણ આદિની ભૂમિ એ પ્રકારનાં અવયથી ભરાઈ જાય છે અને પહેલાંની જેવી બની જાય છે, તેથી પૃથિવી સચેતન છે. (૨) પૃથિવી સચેતન છે, કારણ કે તેમાં પ્રતિદિન ઘર્ષણ અને ઉપચય જોવામાં આવે છે, જેમકે પગનું તળીઉં અર્થાત્ જેમ પગનું તળીઉં ઘસાઈને પાછું ભરાઈ જાય છે, તેમ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे (३) विद्रुमपाषाणादिरूपा पृथिवी सचेतना काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिदर्शनात् शरीरस्थिताऽस्थ्यादिवत्, तद्यथा-शरीरस्थितमस्थ्यादिकं कमठपृष्ठकठिनं सदपि चित्तवदनुभूयमानमुपचयं च गच्छत् संदृश्यते । एवं विद्रुमशिलाद्यात्मिकायाः पृथिव्याः काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिकं प्रत्यक्षं दृश्यते तस्मात्तस्याः सचेतनत्वम् । अथ च-- (४) विद्रुमाद्यात्मिकापृथिवी सचित्ता, छेदादौ तत्सजातीयधातूत्पत्तिदर्शनात् अर्शीऽङ्करवत्, तद्यथा-अर्शसोऽङ्कुरे छिन्नेऽपि पुनस्तत्समान एवाकुरः प्रादुर्भवति, एवं विद्रुमशिलाघात्मिकायाः पृथिव्याः खन्यादौ छेदेऽपि तत्सजातीयधातुभिस्तद्रिक्तभागः परिपूर्यते, तस्मात्सिद्धं पृथिव्याः सचित्तत्वम् । ___ अनेकजीवा अनेके = बहवो जीवाः = एकेन्द्रिया यस्यां सा तथोक्ता । पृथक्सत्त्वा = पृथक्-पृथग्भूताः = अङ्गुलासंख्येयभागमात्रावगाहनामाश्रित्याऽनेके विभिन्नरूपेण [३] विद्रुम [मूंगा] पाषाण आदि-रूप प्रथिवी सचेतन हैं क्योंकि कठिन होने पर भी उसमें वृद्धि देखी जाती हैं जैसे शरीर की हड्डी आदि । अर्थात् जैसे शरीर की हड्डी आदि कछुएकी पीठ की भाँति कठोर होने पर भी सचेतन हैं और बढती है उसी प्रकार विद्वंग शिला आदि-रूप पृथिवीमें कठिनता होनेपर भी वृद्धि आदि गुण प्रत्यक्षसे हैं इससे सिद्ध हैं कि प्रथिवी सचेतन हैं। अथवा-- [४] विद्रुम आदि रूप प्रथिबी सचित्त है क्योंकि उसे काट देने पर भी सजातीय धातुकी उत्पत्ति देखी जाती है, जसे शरीर में मसा । अर्थात् जैसे मसाको उपरसे काट डालने पर भी फिर उसी के समान अवयव ऊग आते हैं, वैसेही -विद्रुम और शिला आदिकों खानमें काट देने पर मो सजातीय स्कन्धोंसे कटा हुआ भाग फिर भर जाता, अतः प्रथिवीकी सचेतनता सिद्ध है। वह प्रथिवी अनेक जीववालो है ओर वे स्पर्शनेन्द्रियवाले प्रथिवीकायके जीव अंगुलके પૃથિવી પણ ઘસાઈ ને ભરાઈ જાય છે, તેથી પૃથિવી સજીવ છે અથવા– (૩) વિકુમ (પ્રવાળ) પત્થર આદિ-રૂપ પૃથિવી સચેતન છે, કારણ કે કઠિન હોવા છતાં તેમાં વૃદ્ધિ જોવામાં આવે છે, જેમકે શરીરના હાડકાં વગેરે, અર્થાત્ જેમ શરીરનાં હાડકાં વગેરે કાચબાની પીઠની જેમ કઠોર હોવા છતાં સચેતન છે અને વધે છે, તેવી રીતે વિક્રમ, શિલા આદિ-૩૫ પૃથિવીમાં કઠિનતા હોવા છતાં તેમાં વૃદ્ધિ આદિ ગુણ પ્રત્યક્ષ છે. એથી સિદ્ધ થાય છે કે પૃથિવી સચેતન છે. અથવા– (૪) વિક્મ આદિ રૂપ પૃથિવી સચિત્ત છે. કારણ કે તેને કાપી નાંખવા છતાં પણ સજાતીય ધાતુની ઉત્પત્તિ જોવામાં આવે છે, જેમકે શરીરમાં મસા, અર્થાત્ જેમકે મસાને ઉપરથી કાપી નાંખ્યા છતાં પણ તેના સમાન અવયવો ઊગી આવે છે, તેમ જ વિક્રમ અને શિલા આદિને ખાણમાં કાપી નાખ્યા છતાં સજાતીય સ્કન્ધાથી કાપેલો ભાગ પાછે ભરાઈ જાય છે. તેથી પૃથિવીની સચેતનતા સિદ્ધ થાય છે. એ પૃથિવી અનેક–જીવ-વાળી છે, અને એ સ્પશનેન્દ્રિય-વાળા પૃથિવીકાયના જીવે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० ४ पृथिवीकायस्य सचित्ततासिद्धिः स्थितः सत्त्वाः = स्पर्शनेन्द्रियवन्तो जीवा यस्यां सा तथोक्ता 'आख्याता' इति पूर्वोक्तेनान्वयः, भगवता प्ररूपितेति तदर्थः। ननु तर्युक्तस्वरूपायां जीवपिण्डभूतायां पृथिव्यां गमनागमनादिक्रियां कुर्वतां संयमिनामहिंसाव्रतस्य संरक्षणं कथं भवति ? प्रत्युताऽवश्यकरणीयोच्चारप्रस्रवणादिक्रियया हिंसैव भवत्यतोऽहिंसाव्रतपालनं वन्ध्यासुतपालनवदसम्भवमित्यत आह-'अन्यत्रे' ति, शस्त्रपरिणताया अन्यत्र-शस्त्रपरिणतां पृथिवीं वर्जयित्वाऽन्या पृथिवी सजीवेत्यर्थः, शस्यते = हिंस्यते प्राणिगणोऽनेनेति शस्त्रं, तद् द्विविधं-द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यशस्व-स्वपरोभयकायलक्षणम्, भावशस्त्रं पृथिवीं प्रति दुष्प्रणिहितमनोवाकायात्मकम्, एवमेवान्येषां तत्तत्कायानामपि भावशस्त्रं बोद्धव्यम् । स्वकायशस्त्रं पृथिव्याः स्वेतरवर्णगन्धादिमती असंख्यातवे-भाग-प्रमाण अवगाहनाको आश्रय करके भिन्न-भिन्न स्वरूप से स्थित है, ऐसा भगवानने कहा है। शिष्य गुरसे पूछता है-हे गुर महाराज ! जबकि पृथिवी जीवो के पिण्डरूप है तो उस पर अह सात की रक्षा कैसे होगी? उच्चार-प्रस्रवण आदि क्रियाएं अनिवार्य हैं और इन इन क्रियाओं के करने से हिंसा अनिवार्य हैं, इसलिए अहिंसाव्रत का पालन ऐसा ही असंभव है जैसा वन्ध्या के पुत्र का पालन करना । उत्तर- हे शिष्य ! शस्त्रपरिणत पृथिवी के सिवाय अन्य समस्त पृथिवी सचित्त है जिससे प्राणियों की हिंसा होती है उसे शस्त्र कहते है। शस्त्र दो प्रकार का है-(१)द्रव्य-शस्त्र और भाव शस्त्र । उनमें से ख-काय, परकाय ओर उभय-काय को द्रव्य-शस्त्र कहते हैं । पृथिवी के विषय में मन-वचन-काय की दुष्परिणति करना भाव-शस्त्र है । इसी प्रकार अन्य सब काय के जीवों के भाव-शस्त्र समझ लेने चाहिये । अपने से भिन्न वर्णगन्धवाली पृथिवी ही पृथिवी का स्वकाय-शस्त्र है, जैसे पोली मिट्टी का शस्त्र આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણની અવગાહનાને આશ્રય કરીને ભિન્ન-ભિન્ન સ્વરૂપે स्थित छ, मे गवान बुं छे. શિષ્ય ગુરૂને પૂછે છે–હે ગુરૂ મહારાજ ! જે પૃથિવી, જીનાં પિંડ-રૂપ છે તે તેની ઉપર ગમનાગમન આદિ ક્રિયાઓ કરનારા સંયમીઓના અહિંસાવ્રતની રક્ષા કેમ થશે ? ઉચ્ચાર, પ્રસવણું આદિ ક્રિયાઓ અનિવાર્ય છે, તેથી અહિંસા-વ્રતનું પાલન એવું અસં. ભવિત છે કે જેવું વધ્યાના પુત્રનું પાલન કરવું અસંભવિત છે. - ઉત્તર-હે શિષ્ય ! શસ્ત્રપરિણત પૃથિવી સિવાયની બધી પૃથિવી સચિત્ત છે. જે વડે પ્રાણીઓની હિંસા થાય છે, તેને શસ્ત્ર કહે છે. शस्त्र में न छे. (१) द्रव्य-शस्त्र (२) मा-शस्त्र. समां वाय, ५२४ाय अन ઉભયકાયને દ્રવ્ય-શસ્ત્ર કહે છે, પૃથિવીના વિષયમાં મન વચન કાયાથી દુષ્પરિણતિ કરવી એ ભાવશાસ્ત્ર છે. એ જ રીતે બીજી બધી કાયાના છાનાં ભાવશસ્ત્ર સમજી લેવાં પિતાથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे पृथिव्येव यथा पीतमृत्तिकायाः कृष्णमृत्तिका शस्त्रमित्यादि, परकायशस्त्रं - जलाग्निगोमयचरणसंमर्दनादि । उभयकाय शस्त्रं - जलादिमिश्रमृत्तिका । एवं च शस्त्रपरिणतायाः पृथिव्या अचित्ततया न तत्रोच्चार - प्रस्रवणादिक्रियासम्पादने काऽपि क्षतिर्मुनीनां संयमपालने इति सिद्धम् । अष्कायः । आपः = - भौमाऽऽन्तरिक्षोभयलक्षणाः, चित्तवत्यः = सचेतनाः, आख्याताः = भगवताऽभिहिताः, तथाहि - भूमिगता आपः सचेतनाः खातभूमिसजातीयस्वभावसम्भवात् मण्डूकवत् । आन्तरिक्ष्योऽप्यापः सचेतनः मेघादिविकृतौ स्वाभाविकसम्भूयसंपतनशीलत्वान्मीनवत् । यद्वा-आपः सचेतनाः, ग्रीष्महेमन्तः स्वाभाविकशैत्यौष्ण्यवाष्पाद्युपलम्भाकाली मिट्टीं है । जल, अग्नि गोबर तथा पैरो से रौंदना आदि परकाय शस्त्र है । जल आदि से मिली हुई मिट्टी ऊभयकाय शस्त्र हैं । इस प्रकार शस्त्र परिणत पृथिवी अचित है, अतः उस पर आहार-विहार आदि क्रियाएं करने से मुनियों के अहिंसाव्रत पालने में कुछ भी क्षति नहीं होती । अप्काय पार्थिव और आकाशीय दोनों प्रकार के जलों को भो भगवान ने सचित कहा है । (१)भूमि में रहा हुआ जल सचेतन है, क्योंकि खोदी हुई भूमिमें सजातीय-स्वभाववाला जल उत्पन्न होता हैं, जैसे मेंढक । भूमि को खोदने से जैसे मेंढक निकलता है और वह सचेतन होता है, उसी प्रकार पानीं निकलता हैं अतएव वह भी सचेतन है आकाश का भी जल सचेतन हैं । क्योकि मेघादि - विकार होने पर स्वयं हीं गिरने लगता है - जैसे मछली । अथवा (२) जल सजीव हैं क्योंकि उसमें ग्रीष्म और हेमन्त ऋतु में स्वाभाविक शीतता उष्णता ભિન્ન વધુ−ગ ધ–વાળી પૃથિવીજ પૃથિવીનું સ્વકાય-શસ્ત્ર છે, જેમ પીળી માટીનું શસ્ત્ર કાળી માટી છે. જળ, અગ્નિ, છાણુ તથા પગ વડે ખુ ંદવુ વગેરે પરકાય-શસ્ત્ર છે. જળ આદિથી મળેલી માટી એ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે. એ રીતે શસ્ત્રપરિણત પૃથિવી અચિંત્ત છે, તેથી એની ઉપર આહાર વિહાર આદિ ક્રિયાઆ કરવાથી મુનિઓના અહિંસા વ્રતના પાલનમાં કઈ પણ ક્ષતિ આવતી નથી. અસૂકાય પાર્થિવ અને આકાશીય બેઉ પ્રકારના જળને પણ ભગવાને સચિત્ત કહ્યું છે. (૧) ભૂમિમાં રહેલું જળ સચેતન છે, કારણકે ખેાદેલી જમીનમાં સજાતીય સ્વાભાવવાળુ જળ ઉત્પન્ન થાય છે. જેમકે દેડકે ભૂમિને ખાદ્યવાથી જેમ દેડકો નીકળે છે અને તે સચેતન હોય છે, તેમ પાણી પણ નીકળે છે તેથી તે પણ સચેતન છે. આકાશનુ જળ પણ સચેતન છે, કારણ મેઘાદિ-વિકાર થવાથી સ્વયં પડવા લાગે છે, જેમકે માછલી अथवा શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० ४ अप्कास्य सवित्ततासिद्धिः १६३ न्मनुष्यशरीरवत, तद्यथा-भूमिगृहस्थितनरस्य शरीरं ग्रीष्मे शीतलं हेमन्ते चोष्णं भवति, मुखाच्च बाष्पमुद्गच्छति, एवमेव गभीरतरतडागकूपादिस्थसलिलं हेमन्ते सबाष्पोद्गमानष्णतां, ग्रीष्मे च शीतलतां धत्ते । अनेकजीवाः पृथक्सत्त्वाः आख्याता इत्यनेनान्वयः, व्याख्या चैषां पदानां प्रग्वबोध्या ।। नन्वेवमपां जीवपिण्ड भूततयाऽद्धिविना संयमिनां संयमयात्रा असंभवन्निर्वाहा स्यादित्यत आह-शस्त्रेत्यादि, शस्त्रपरिणताभ्योऽन्यत्र-शस्त्रपरिणता अपो विहायान्या आपः सचित्ता इत्यर्थः । शस्त्र-द्रव्यभावभेदाद्विविधं, द्रव्यशस्त्रं-स्वकायपरकायो मयकायस्वरूपं, भावशस्त्रम्-अपः प्रति मनोवाकायानां दुष्प्रणिहितखम् । तत्र स्वकायशस्त्रं-तडागायुदकस्य कूपाधुदकम् एवंविधशस्त्रपरिणतं जलं व्यवहारतोऽशुद्धखाद्भगवदनादिष्टत्वाच्च सर्वथै और भाफ आदि देखे जाते हैं जिसमें ग्रीष्मादि ऋतुओंमें शीतता आदि पाये जातेहैं वह सजीव होते है, जैसे मनुष्य का शरीर । जैसे भोयरे में स्थित मनुष्य का शरीर ग्रीष्म ऋतुमें शीत और हेमन्त-ऋतु में उष्ण होता है, तथा हेमन्त ऋतु में मुह से भाफ निकलती है, बैसेही खूब गहरे तालाव या एंका जल भी हेमन्त में भाफ वाला और उष्ण होता है तथा ग्रीष्म में शीतल होता है । अनेक जीव और पृथक्सत्त्व आदि पदोंका व्याख्यान पहले कहे हुए पृथिवीकाय के आलापक के समान समझना चाहिए। हे गुरो ! जल के बिना संयमियों का निर्वाह नहीं हो सकता और वह जीवों का पिण्ड है, इसलिए उसको पीने आदिके काम में लानेसे संयम की रक्षा नहीं हो सकती। ऐसी आशङ्का होने पर गुरु करते हैं- हे शिष्य ! शस्त्रपरिणत जल के सिवाय अन्य जल सजीव है । यहाँ पर भी शस्त्र, द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है । उसका कथन पहले किया जा चुका है। यह विशेष समझना चाहिये कि तालाब आदि के जल का कूप आदि का जल स्वकायशस्त्र है। (૨) જળ સજીવ છે. કારણ કે તેમાં ગ્રીષ્મ અને હેમન્ત ઋતુમાં સ્વાભાવિક શીતતા ઉષ્ણુતા અને બાફ આદિ જોવામાં આવે છે. જેમાં ગ્રીષ્માદિ ઋતુઓમાં શીતળતા આદિ જણાઈ આવે છે તે સજીવ હોય છે, જેમકે માણસનું શરીર. જેમ ભેાંયરામાં રહેલા માણસનું શરીર ગ્રીષ્મ-ઋતુમાં શીતલ અને હેમંત–ઋતુમાં ગરમ હોય છે, તથા હેમંત-તમાં હોમાંથી બાફ (વરાળ) નીકળે છે, એજ રીતે ખૂબ ઉંડા તાળાવ કુવાનું જળ પણ હેમંત ઋતુમાં બાફવાળું અને ઉષ્ણ હોય છે તથા ગ્રીષ્મમાં શીતળ હોય છે, અનેક જીવ તથા પૃથફસર્વે આદિ શબ્દનું વ્યાખ્યાન પહેલાં કહેલા પૃથિવીકાયના આલપકની જેમ સમજવું. હે ગુરુ ! જળ વિના સંયમીઓને નિર્વાહ થઈ શક્તો નથી અને એ છે તેથી તેને પીવા આદિના કામમાં લેવાથી સંયમની રક્ષા નહિ થઈ શકે. એવી આશંકા થતાં ગુરૂ કહે છે. હે શિષ્ય ! શસ્ત્ર-પરિણુત જળ સિવાયનું અન્ય જળ સજીવ છે. એમાં પણ શસ્ત્ર, દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદે કરીને બે પ્રકારનાં છે. એનું કથન પહેલાં કરવામાં આવ્યું શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीदशवेकालिकसूत्रे वाग्राह्यम् । परकायशस्त्रं- द्राक्षा-शाक-तण्डुल- पिष्ट-दाली-चण कादि । अपां शस्त्रपरिणतत्वं च वर्णादीना पूर्वावस्थावैलक्षण्यरूपम् । तत्र वर्णतो धूसरत्वादिरूपम्, गन्धतस्तत्तद्वस्तुसम्बविचम् रसवस्तिक कटुकपायत्वादिरूपम्, स्पर्शतः स्निग्धरूक्षत्वादिरूपम् इत्थमुक्तप्रकारं द्राक्षादिधावनजलं प्राकत्वान्मुनिग्राद्यम् । उपलक्षणमेतदग्निशस्त्र परिणतस्योदकस्यापि । भस्म मिश्र जलमग्राह्यं तत्र मिश्रशङ्कायाः सद्भावात्, शास्त्रे कचिदप्यप्रतिपादितत्वाच्च । उभयकायशस्त्रमृत्तिकामिश्रजलम् । भावशस्त्रमुक्तस्वरूपमेवेति । तेजस्कायः । तेजश्चित्तवत् = सचेतनम् आख्यातम् - उक्तम्, तथाहि तेजश्चेतनावत् इन्धनाद्याहारोपादानहानाभ्याम् तद्वृद्धिमान्योपलम्भात् मनुष्या " इस प्रकार का शस्त्रपरिणत जल व्यवहार से अशुद्ध होने के कारण ग्राह्य नहीं है तथा ऐसे जल के लेने में भगवान की आज्ञा भी नहीं है । दाख, शाक, चावल, आटा, आदि परकायशस्त्र हैं। जल में पहले जैसा वर्ण गन्ध आदि था उसका बदल जाना शस्त्रपरिणत होना कहलाता है । 1 जैसे - धूसर वर्ण हो जाना, वस्तु उसमें डाली गईहो उसकी गन्ध आने लगना, तीखा, कडुवा, कषायला आदि रस हो जाना, स्निग्ध या रूक्ष आदि स्पर्श हो जाना । इस प्रकार यह दाख, शाक, चावल, आटा, दाल, बेसम आदि का धोवन प्रासुक होने से मुनि के लिए ग्राह्य है यह तो उपलक्षण है, इससे यह भी समझना चाहिये कि अग्निशस्त्रपरिणत अर्थात् उष्ण जल भी मुनि को ग्राह्य है । राख का पानी ग्राह्य नहीं है क्योंकि उसमें मिश्र की शङ्का रहती है । मृत्तिका आदि से मिला हुआ ज़ल उभयकाय शस्त्र है । भावशस्त्र पहले कह चुके है | ( तेजस्काय ) तेज़स्काय को भी भगवान ने सचेतन कहा है, यही कहते हैं तेजस्काय सजीव है, क्योंकि छे. विशेष मेट' समवु તળાવ આદિના જળનું રૂપાદિનું જળ એ સ્વકાય શસ્ત્ર છે. એ પ્રકારનું શસ્ત્ર-પરિણત જળ વ્યવહારથી અશુદ્ધ હેાવાના કારણે ગ્રાહ્ય નથી. તથા અવું જળ લેવાની ભગવાનની આજ્ઞા પણ નથી. દ્રાક્ષ, શાક, ચાખા, આટા ઈત્યાદિ પરકાય શસ્ત્ર છે, જળમાં પહેલાં જેવા વધુ ગધ આદિ હતા તેનું બદલાઇ જવુ એ શસ્ત્રરિણત થવું કહેવાય છે. જેમકે- ધળા વણુનું થઈ જવુ, વસ્તુ તેમાં નાંખવામાં આવી હોય તેની ગંધ આવવા લાગવી. તીખા કડવે કસાયલા આદિ રસ થઈ જવા; સ્નિગ્ધ યા રૂક્ષ આદિ સ્પશ થઈ જવા थे प्रारे मे द्राक्ष, शाहु, योषा, आटो, हाज, वेस माहिनु घोवष्णु प्रासु होवाथी भुनिने માટે ગ્રાહ્ય છે. આતેા ઉપલક્ષણ છે, એથી એમ પણ સમજવુ જોઇએ કે અગ્નિશસ્ત્ર-પરિણત અર્થાત્ ઉષ્ણુ જળ પણ મુનિને ગ્રાહ્ય છે. રાખનુ પાણી ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે એમાં મિશ્રની શકા રહે છે, માટી આદિથી મળેલું જળ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે (૨). ભાવશસ્ત્ર પહેલાં કહી દીધુ છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ४ तेजस्कायस्य सचित्ततासिद्धिः दिशरीरवत् । अङ्गारादीनां प्रकाशनशक्तिर्यावदात्मसंयोगभाविनी देहस्थत्वात् खद्योतशरीरपरिणामवत् अङ्गागदीनां तापोऽपि आत्मसंयोगसद्भावहेतुकः , शरीरस्थत्वात् ज्वरतापवत् , न हि कचिदपि विरहितात्मानो ज्वरतापोष्णगात्राः संश्रूयन्ते न वोपलभ्यन्ते, एवमेव निस्तेजस्काङ्गारादितोऽणुमात्रोऽपि तापो न जन्यते, तस्माद् यावदात्मसंयोगभाव्येवाङ्गारादीइन्धन आदि आहार देने से उसको वृद्धि और न देनेसे हानि (मन्दता) होती है, जैसे मनुष्य का शरीर । अर्थात् मनुष्य का शरीर आहार देने से बढता और न देने से घटता है , अतः वह सचेतन है । इस प्रकार तेजस्काय भी ईंधन देने से बढती और न देने से घटती है, अतः वह भी सचेतन है। अंगार आदि की प्रकाशन शक्ति जीव के संयोग से ही उत्पन्न होती हैं क्योंकि वह देहस्थ है जो जो देहस्थ प्रकाश होता हैं वह वह आत्मा के संयोग के ही निमित्त से होता है, जैसेजुगुन के शरीरका प्रकाश । जुगुनू के शरीर में प्रकाश तब तक ही रहता है जब तक उसके साथ आत्माका संयोग रहता हैं। __ इसी प्रकार अंगार आदि का प्रकाश भी तब तक ही रहता है जबतक उसमें आत्मा रहती है। अंगार आदिका ताप भी आत्मा के संयोगके हो कारण है क्योंकि बह शरीरस्थ है, जितने शरीरस्थ ताप होते हैं वे सब आत्मा के निमित्तसे ही होते हैं, जैसे ज्वरके ताप । आत्मा रहित शरीर ( शव-मुर्दा ) में कभी ज्वरका ताप नहीं सुना जाता न उपलब्ध होता है । इसी प्रकार निस्तेजस अंगारमें अणुमात्र भी ताप नहीं होता, अतएव सिद्ध है कि अंगार आदिमें ( तेय) તેજસ્કાયને પણ ભગવાને સચેતન કહેલ છે, એ હવે કહે છે તેજસ્કાય સજીવ છે. કારણ કે લાકડાં (ઈધણાં) આદિ આહાર આપવાથી તેની વૃદ્ધિ અને ન આપવાથી હાનિ (મંદતા) થાય છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર અર્થાતુ-મનુષ્યનું શરીર આહાર આપવાથી વધે છે અને ન આપવાથી ઘટે છે, તેથી તે સચેતન છે, એજ રીતે તેજ. રાય પણ ઈધણ આપવાથી વધે છે અને ન આપવાથી ઘટે છે. તેથી તે સચેતન છે, - અંગારા આદિની પ્રકાશન-શક્તિ જીવના સંગથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. કારણ કે એ દેહસ્થ છે, જે જે દેહસ્થ પ્રકાશ હાય છે તે તે આત્માના સગના જ નિમિત્તથી હોય છે, જેમકે આગીયાના શરીરને પ્રકાશ આગીયાના શરીરમાં પ્રકાશ ત્યાંસુધી જ રહે છે કે જ્યાં સુધી તેની સાથે આત્માને સંગ રહે છે. એ રીતે અંગારા આદિને પ્રકાશ પણ ત્યાં સુધી જ રહે છે કે કયાં સુધી તેમાં ચેતન રહે છે. અંગારા આદિને તાપ પણ આત્માના સંગના જ કારણે છે, કેમકે તે શરીરસ્થ છે જેટલા–શરોરસ્થ તાપ હોય છે તે બધા આત્માના નિમિત્તથી જ હોય છે, જેમકે જવરને તા૫ આત્મા રહિત શરીર (મડદું) માં કાદિ જવરને તાપ સાંભળવામાં આવતું નથી કે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकस् नां तापजनकत्वमतः सिद्धं तेजसः सचेतनत्वम् अनेकजीवं, पृथक्सत्वम् ' इति प्राग्वत् , 'आख्यात' मित्यनेनान्वयः, 'शस्त्रपरिणतादन्यत्र' इति च पूर्ववत् । शस्त्रस्वरूपमाह,-तत्र सकायशस्त्रं-करीषाग्नेस्तृणाग्निः, एवंविधशस्त्रपरिणतोऽप्यग्निः सर्वथैवाग्राह्यो व्यवहारतोऽशुद्धत्वात् । परकायशस्त्रं जलमृत्तिकादि । उभयकायशस्त्रमुष्णोदकादि । भावशस्त्रमग्निकार्य प्रति मनसोदुष्प्रणिधानम् । शस्त्रपरिणताचित्ताग्निकायमाह-उष्णमन्नं-कृशरौदनादि, उष्णपानकं शाकौदनादोनामवस्रावणादि (ओसामण इति भाषा) , तप्तेष्टका सिकतादि च, एतेष्वग्निसंयोगनिष्पाद्यत्वादचित्ताग्निकायशब्दो व्यपदिश्यते , क्षुधाद्युपशमनार्थ ग्राह्योऽसौ । वायुकायः ।। वायुश्चित्तवानाख्यातः । कथमस्य सचेतनत्वमिति चेत्तत्प्रमाणाद् गृहाण, तथाहिवायुश्चेतनावान् अनन्यप्रेरिताऽनियततियग्गमनत्त्वात् , हरिणगवयादिवत् , स च ' अनेकतापजनन शक्ति जब-तक आत्मा रहता है तब तक होतो हैं, इसलिए तेजस्काय सचेतन है । अनेकजीव और पृथक्सत्व' आदि पदोंको व्याख्या पहलेकी भाँति है। यह भी समझ लेना चाहिये कि वही तेज़स्काय सचित्त है जो शस्त्र-परिणत न हो। तेजस्कायके शस्त्र ये हैं-जैसे छाणाकी अग्निका शस्त्र तृणकी अग्नि हैं । इस प्रकार की शस्त्रपरिणत अग्नि ग्राह्य नहीं हैं, क्योंकि वह व्यवहार से अशुद्ध हैं । तथा इसके ग्रहण करने में भगवान की आज्ञा भी नही है । जल मृत्तिका आदि परकाय शस्त्र है । उष्णजल उभयकाय शस्त्र है। खिचडी, भात आदि उष्ण अन्न, शाकका ओसामण और चावलों का मण्ड आदि उष्ण पान, तपी हुई ईंट, बालू आदि शस्त्र-परिणत अचित्त अग्निकाय कहलाते हैं । ये सब अग्नि के संयोग से निष्पन्न होते हैं इसलिए इनमें अचित अग्निकाय शब्द की प्रवृत्ति होती है। નથી જોવામાં આવતે, એ રીતે નિસ્તેજસ અંગાશમાં અણુમાત્ર પણ તાપ હોતો નથી. તેથી સિદ્ધ થાય છે કે અંગારા આદિમાં જ્યાં સુધી આતમા હોય છે ત્યાં સુધી જ તાપ-જનન શક્તિ રહે છે. તેથી તેજસ્કાય સચેતન છે. “અનેક–જીવ અને પૃથક-સવ” આદિ શબ્દની વ્યાખ્યા પહેલાંની જેમ છે. એ પણ સમજી લેવું જોઈએ કે એજ તેજસ્કાય સચિત્ત છે કે જે શસ્ત્રપરિત ન હોય. તેજ સ્કાયનાં શસ્ત્ર આ છે –જેમ છાણના અગ્નિનું શસ્ત્ર તરણાનો અગ્નિ છે. એ પ્રકારને શસ્ત્રપરિણત અગ્નિ ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે તે વ્યવહારથી અશુદ્ધ છે. વળી તેને ગ્રહણ કરવાની ભગવાનની આજ્ઞા પણ નથી. જળ, માટી વગેરે પરકાય–શસ્ત્ર છે. ઉન પાણી ઉભયકાય-શસ્ત્ર છે. * ખિચડી, ભાત આદિ ઊનું અન્ન. શાકનું ઓસામણ અને ચેખાનું ઓસામણ, આદિ ઊન પાન, તપેલી ઈટ ગરમ રેતી આદિ શસ્ત્રપરિણત અચિત્ત અગ્નિકાય કહેવાય છે. એ બધાં અગ્નિના સંગથી નિષ્પન થાય છે. તેથી એમાં અચિત્ત અગ્નિકાય શબ્દની પ્રવૃત્તિ थाय छे. (3) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सु० ४ तेजस्कायस्य सचित्ततासिद्धिः १६७ जीवः , पृथक्सत्त्वः आख्यातः, शस्त्रपरिणतादन्यत्र' इत्यादिकानां प्राग्वद्वयाख्या बोव्या । शस्त्रं चास्य द्रव्य-भावभेदाद्विविधं तत्र द्रव्यशस्त्रं स्त्र-पर-तदुभय-कायभेदात्त्रिविधम् स्वकायशस्त्रं-पौरस्त्यादिवायोः पाश्चात्यादिवायुः । परकायशस्त्रमनलादि । उभकायशस्त्रमनलादिसंतप्तो वायुरेव । भावशस्त्रं तु वायु प्रति मनसो दुष्प्रवृत्तिः। वायुः सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिधा, तत्र सचित्तो घनवातादिः , अचित्तो दृतिप्रभृतिषु पूरिपः, सोऽप्यन्तर्मुहूर्ताचं यावदेकं याममचेतनः, तदनु पूर्णद्वितीययाम यावन्मि (वायुकाय) वायुकाय को भी भगवानने सचित्त कहा है । बायु कैसे सचित्त है सो कहते हैं वायु सचेतन है । क्योंकि दूसरे की प्रेरणा के विना अनियत रूप से तिर्यक्गमन करने वाला है जैसे हिरन या रोझ (गवय)। अनेक जीव और पृथक्सत्त्व आदि व्याख्या पहले के समान समझनी चाहिए। वायुकाय का शस्त्र द्रव्य-भाव-भेद से दो प्रकार का है, द्रव्यशस्त्र --स्वपर-उभयकाय के भेद से तीन प्रकार का है। वहां स्वकाय-शस्त्र पूर्व आदि दिशा के वायुका पश्चिम आदि दिशाका वायु, परकाय-शस्त्र अग्नि आदि है, उभयकाय-शस्त्र अग्नि आदि से तपा हुआ वायु ही है। वायु तीन प्रकार का है (१) सचित्त, (२) अचित्त, (३) मिश्र । घनवात आदि सचित्त है, दृति या रबर को थैली आदि में भरी हुई हवा अचित्त होती हैं, किन्तु अन्तर्मुहूर्त के बाद एक प्रहर तक अचित्त (वायुय) વાયુકાયને પણ ભગવાને સચિત્ત કહી છે. વાયુ કેવી રીતે સચિત્ત છે તે કહે છે - વાયુ સચેતન છે કારણ કે બીજાની પ્રેરણા વિના અનિયતરૂપે તિર્યકુ ગમન કરનારો छ, । २६५ अथवा । (नीय) અનેક જીવ અને પૃથસત્ત્વ આદિની વ્યાખ્યા પહેલાંની પેઠે સમજવી. વાયુકાયના શસ્ત્ર દ્રવ્ય-ભાવભેદે બે પ્રકારના છે. દ્રવ્યશાસ્ત્ર સ્વ-પર-ઉભયકાયના ભેદ કરી ત્રણ પ્રકારના છે, ત્યાં કાયશસ્ત્ર-પૂર્વઆદિ દિશાના વાયુનો પશ્ચિમ-આદિ દિશાનો વાય. પરકાયશસ્ત્ર અગ્નિ આદિ છે, ઉભયકાયશસ્ત્ર અગ્નિ આદિથી તપેલે વાયુ જ છે. ભાવ. શસ્ત્ર પહેલાની જેમ સમજી લેવું વાયુ ત્રણ પ્રકાર છે. (१) सथित्त, (२) मथित्त, (3) मिश्र. धन-पात माहि वायु सचित्त छ. मस या ૨મ્બરની થેલી આદિમાં ભરેલી હવા અચિત્ત છે; પરંતુ અંતર્મુહૂર્તની પછી એક પ્રહર १ भगवतोसूत्रस्य द्वितीयशतके प्रथमोद्देशे वाय्वधिकारे" से भंते ! किं पुढे उद्दाइ अपुढे उद्दाइ ? गो० ? पुढे उद्दाइ नो अपुढे उहाइ'' छाया-'स (वायुः) भगवन् ? कि स्पृष्टः अपद्रवति (म्रियते) अस्पृष्टः अपद्रवति? गौतम १ स्पृष्टः अपद्रवति नो अस्पृष्टः अपद्रवतिः । अस्य टीका-'स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण परकायशस्त्रण वा अपद्रवति म्रियते'। શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीदशवैकालिकसूत्र श्रः , तत्पश्चात्सचित्त एव, रोगाद्यवस्थायां वायोरावश्यकत्वे दृत्यदिपूरितोऽपि मिश्रत्वादग्राह्य एव सचित्तवत् । (४) वनस्पतिकायः।। वनस्पतिश्चित्तवान् आख्यातः, व्याख्या तु पूर्ववत् । चैतन्यवचसिद्धिश्चेत्थम् वनस्पतिः सचेतनः, बाल्याद्यवस्थासन्दर्शनात, छेदन-भेदनादिभिर्लानतादिदर्शनाच्च मनुष्यशरीरवत् । शेष पूर्ववत् । शस्त्रं द्रव्यभावभेदाद्विविधं तत्र द्रव्यशस्त्रं स्वपरोभयकायात्मकम् ।स्वकायशस्त्रं-यष्टयादि । परकायशस्त्रं पाषाणाऽसिकर्तर्यादि, उभयकायशस्त्रं -परशुदात्रादि । भावशस्त्रं तु तं प्रति मनोमालिन्यम् ॥ ४ ॥ रहती है, उसके बाद दूसरे पहर तक मिश्र अवस्था में रहती है बाद में सचित्त हो जाती है । रोग आदि अवस्था में वायु की आवश्यकता होने पर दृति आदि में भरा हुआ अचित्त वायु साधुआंको ग्राह्य है, किन्तु दूसरे प्रहर का मिश्र वायु, सचित्त वायु की तरह अग्राह्य है । (४) ( वनस्पतिकाय ) वनस्पतिकायको भी भगवान ने सचित्त कहा है । बनस्पति सचित्त है, क्योंकि उस में बाल्यावस्था आदि, तथा छेदन भेदन आदि करने से म्लानता आदि सचेतनके गुण देखे जाते है , जैसे मनुष्य का शरीर । अर्थात् बाल्य-तरुण आदि अवस्थाएं और छेदन-भेदन आदि करने से म्लानता होने के कारण जैसे मनुष्य-शरीर सचेतन है वैसे ही वनस्पतिकाय भी सचेतन है । 'अनेकजीव' आदि पदोंका व्यख्यान पहले की भाँति जानना चाहिये। वनस्पति-काय के शस्त्र दो प्रकारके हैं-(१) द्रव्यशस्त्र और (२)भावशस्त्र । द्रव्य-शस्त्र स्वकाय, परकाय और उभयकाय हैं, लकड़ी आदि स्वकाय शस्त्र हैं । लोह पत्थर आदि परकाय સુધી અચિત્ત રહે છે, ત્યારપછી બીજા પ્રહર સુધી મિશ્ર અવસ્થામાં રહે છે. અને ત્યાર સચિત્ત બની જાય છે. રેગાદિ અવસ્થામાં વાયુની આવશ્યકતા પડતાં મસક આદિની અંદર ભરેલ અચિત્ત વાયુ સાધુઓને ગ્રાહ્ય છે, કિન્તુ બીજા પ્રહરને મિશ્રવાયુ સચિત્તવાયની પેઠે અગ્રાહ્ય છે (૪) (वनस्पतिय) વનસ્પતિકાયને પણ ભગવાને સચિત્ત કહી છે. વનસ્પતિ સચિત્ત છે, કારણ કે તેમાં બાલ્યાવસ્થા આદિ તથા છેદન ભેદન કરવાથી જ્હાનતા આદિ સચેતનના ગુણ જોવામાં આવે છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર, અર્થાત્ બાહ્ય તરૂણ આદિ અવસ્થાઓ અને છેદન-ભેદન આદિ કરવાથી પ્લાનતા થવાને કારણે જેમ મનખ્ય શરીર સચેતન છે તેમ વનસ્પતિકાય પણ સચેતન છે. “અનેક-જીવ' આદિ શબ્દન વ્યાખ્યાન પહેલાંની પેઠે જાણવું. वनस्पतियन शख मे. नां छे. (१) द्रव्य मान (२) मावशस्त्र. द्र०५शत्र, સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાય છે લાકડી આદિ સ્વકાયશસ્ત્ર છે. હું પત્થર આદિ પરકા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ स० ५ वनस्पतिकायमेदाः . १६९ सम्प्रति वनस्पतिमेव सविशेषं वर्णयति-तं जहा' इत्यादि। मूलम् ---तं जहा-अग्गबीया मूलबीया पोखीया, खंधबीया बीयरुहा संमुच्छिमा तणलया वणस्सइकाइया सबीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं ॥५॥ छाया-तद्यथा-अग्रवीजा मूलबीजाः पर्वबीजाः स्कन्धबीजाः बीजरुहाः सम्मृच्छिमास्तृणलतावनस्पतिकायिकाः सबीजश्चित्तवन्त आख्याता अनेकजीवाः पृथकसत्त्वाअन्यत्र शस्त्रपरिणतेभ्य ॥५॥ यहां बनस्पतिकायका विशेष वर्णन करते हैं--- सान्वयार्थ:--तं जहा-वह इस प्रकारसे है अग्गबीया=जिनका बीज अग्रभागमें होता है, मूलबीया-जिनका बीज मूलभाग में होता है, पोरबीया-जिनका बीज पोर (सन्धि ) में होता है, खधबीया-जिनका बीज स्कन्ध ( डाले ) में होता है, बीयरुहाबीजसे उगनेवाले, संमुच्छिमा विना बीजके उत्पन्न होनेवाले, तलणया तृण और लताएँ; ये सभी वणस्सइकाइया वनस्पतिकायिक हैं सबीका-पूर्वोक्त अपने-अपने नामप्रकृतिके उदयसे उत्पन्न हुए बीजसहित सब वनस्पतिकाय चित्तमंतं-सचित्त अक्खाया कहे गये हैं, अन्नत्थ-सिवाय सत्थपरिणएण-शस्त्रपरिणतके ये वनस्पतिकाय अणेगजीवा अनेक जीववाले और पुढोसत्ता-भिन्न-भिन्न सत्तावाले हैं ॥५॥ टीका-तथाहि अग्रजीवाः अग्रेअग्रभागे बीजं येषां ते तथा कोरण्टकादयः । मूलबीजा:-मूलमेव बीजं येषां ते कमलकन्दप्रभृतयः । पर्वबीजाः पर्वणि-ग्रन्थौ पर्वैव बीजयेषां ते तथा इक्षुप्रमुखाः स्कन्धबीजाः स्कन्धः-स्थुडं स एव बीजं येषां ते तथा शल्लशस्त्र है, परशु ( फरसा) दात्रा आदि उभयकाय शस्त्र हैं । भावशस्त्र उसके प्रति मनके परिणाम दुष्ट करना ॥ ४ ॥ अब बनस्पतिकाय का विशेष वर्णन करते हैं-'तं जहा' इत्यादि । अग्रबीज-जिनके बीज अग्र-भाग में होते हैं ऐसे कोरंटक आदि अग्रबीज कहलाते हैं। मूलबीज-मूलही जिन का बीज हो वह, कमल का कन्द आदि मूलबीज हैं। पर्वबीज-पोर (गांठ )में या पर्व ही जिनका बीज है ऐसे, गन्ना (सांठा ) आदि पर्वबाज कहलाते हैं। યશસ્ત્ર છે. કેહાડ, દાતરડું આદિ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે. ભાવશસ્ત્ર એની પ્રતિ મનના પરિ. शाम इष्ट ४२१। ते. (४) डवे वनस्पतियन विशेष पणन ४२ छ-तं जहा त्याह. અઝબીજ –જેનાં બીજ અગ્રભાગમાં હોય છે એવા કેરંટક (હજારી ગુલ ) આદિ અગ્રબીજ કહેવાય છે. મૂલબીજ–મૂળજ જેનું બીજ છે તે કમળને કંદ આદિ મૂલબીજ છે, ૨૨ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N १७० श्रीदशवकालिकसूत्रे की भृतयः । बीजरुहाः बीजाद् रोहन्ति = प्रादुर्भवन्तीति ते तथा शालिगोधूमादयः । सम्मूच्छिमाः संम्मूर्च्छन्ति-बीजं विनापि दग्धभूमावपि समुद्भवन्तीति ते तथोक्ताः पृथिवीजलसंयोगमात्रजनितास्तृणविशेषा इत्यर्थः । आर्षत्वात्सिद्धिः तथा तृणलता:-तृणानिलताश्चेत्यर्थः । वनस्पतिकायिकाः' = अवशिष्टाः समस्तवनस्पतय इत्यर्थ । यद्वा तृणलतावनस्पतिकायिकाः' इत्येकं पदम् , तत्र तृणानि-दर्भादीनि, लताः चम्पकाऽशोकवासन्त्या दयः, वनस्पतिकायिकाः बनस्पतिकाय भेदाः, -अग्रबीजादयः सर्वेऽपि वनस्पतिकायिका एव, पुनर्वनस्पतिकायिकग्रहणं म्वगतसूक्ष्मादिसकलभेदख्यापनार्थम् । स्वबीजाः पूर्वविहितस्वस्वनामगोत्रप्रकृत्युदयात्मककारणवन्तः , अर्थात् पूर्वोक्ता अग्रवोजादयः सर्वेऽपि चित्तवन्तः, इत्यादीनां व्याख्या पूर्ववत् । इति पञ्चस्थावरकायनिरूपणम् ॥५॥ स्कन्धबीज-स्कन्ध (थुड़ ) ही जिसका बीज है । उस शल्लकी आदिको स्कन्धबोज कहते है । बीजरुह-चांवल गेहुँ आदि बीजसे उगनेवालो वनस्पति को बीजरुह कहते हैं। संमूछिम-विना बीज के जली हुई भूमि में भी जो पृथिवी और जल के संयोग से उग जावे ऐसी घास आदि को संमूछिम कहते है। " तृणलता-तिनका (घास ) और लताएं सब वनस्पतिकायिक हैं अथवा "तृणलतावनस्पतिकायिकाः" यह एक ही पद है । दर्भ (दूब आदि, तृण, चम्पक, अशोक और वासन्ती आदि लताएं और वनस्पतिकायके भेद अग्रबीज आदि सब वनस्पतिकायिक हैं। सूत्र में दूसरी बार 'वनस्पतिकायिक' पद का ग्रहण इसलिए किया है कि-ऊपर बताये हुए भेदोंके सिवाय शूक्ष्म बादर आदि और भी समस्त भेदों का ग्रहण हो जावे । ये सब पहले दिखलाये हुए પર્વબીજ–ગાંઠ યા પર્વમાં જેનું બીજ છે એવી શેરડી આદિ પર્વબીજ કહેવાય છે. સ્કંધબીજ–અંધ-થડજ જેનું બીજ છે એવા શલકી આદિ ને સ્કધબીજ કહે છે. બીજરૂહ–ચોખા ઘઉં આદિ બીજથી ઉગનારી વનસ્પતિને બીજરૂહ કહે છે. સંમછિમ–બીજ વિના બળી ગએલી ભૂમિમાં પણ જે પૃથ્વી અને જળના સંગથી ઉગે એવાં ઘાસ આદિને સંમર્ણિમ–કહે છે. તૃણલતા-તરણાં (ઘાસ) અને લતા એ બધાં વનસ્પતિકા યિક છે. अथवा तृणलतावनस्पतिकायिका : ये ४ ४ ५४ छे. हुर्म (1631) तृण, ५४, અશોક, અને વાસંતી આદિ લતાઓ અને વનસ્પતિકાયના ભેદ અગ્ર બીજ આદિ બધાં વનસ્પતિકાયિક છે. સૂત્રમાં બીજી વાર “વનસ્પતિકાયિક” શબ્દનું ગ્રહણ એટલા માટે કરવામાં આવ્યું છે કે–ઉપર બતાવેલા ભેદે ઉપરાંત સૂક્ષ્મ બાદર આદિ બીજા પણ બધા ભેદનું ગ્રહણ થઈ જવા પામે એ બધા પહેલાં બતાવેલા પિતા-પિતાના નામ-શેત્રરૂપ પ્રકૃતિનાં શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम् wwww अध्ययन ४ सू. ६ त्रसकायवर्णनम् साम्प्रतं क्रमप्राप्तं त्रसकायस्वरूपमाह-'से जे० ' इत्यादि । मूलम्-से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तं जहा अंडया पौयया जरायुया रसया संसेइमा संमुच्छिमा उब्भिया उववाइया । जेसिं केसिचि पाणाणं अभिक्कत पडिक्कतं संकुचियं पसारियं रुयं भंत तसियं पलाइयं, आगइगइविन्नाया जे य कीडपयंगा । जा य कुंथुपिवीलिया । सवे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सव्वे चरिं दिया, सवे पंचिंदिया. सब्वे तिरिक्खजोणिया. सब्वे नेरइया. सव्वे मणुया. सब्वे देवा.सब्वे पाणा परमाहम्मिया एसा खलु छट्ठो जीवनिकाआ तसकाउ-त्ति पवुच्चइ ॥ ६ ॥ छाया--अथ ये पुनरिमेऽनेके बहवस्त्रसाः प्राणिनस्तद्यथा-अण्डजाः पोतजा जरायुजा रसजाः संस्वेदजाः संम्मूच्छिमा उद्भिज्जा औपपातिकाः येषां केषाश्चित्प्राणिनामभिक्रान्तं प्रतिक्रान्तं संकुचितं प्रसारितं रुतं भ्रान्तं त्रस्तं पलायितम् , आगतिगतिविज्ञातारः । ये च कीटपतङ्गाः । याश्च कुन्थुपिपीलिकाः । सर्वे द्वीन्द्रियाः, सर्वे त्रोद्रिन्याः, स वे चतुरिन्द्रियाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियाः, सर्वे तिर्यग्योनिकाः, सर्वे नैरयिकाः, सर्वे मनुजा सर्व देवाः, सर्वे प्राणाः परमधर्माणः । एष खलु षष्ठो जीवनिकायस्त्रसकाय इति प्रोच्यत॥६॥ (६)सकायवर्णन. सान्वयार्थः--से-अथ पुण-और जे-जो इमे-ये ( आगे कहे जाने वाले ) अणेगे अनेक प्रकारके बहवे बहुतसे तसा त्रस पाणा प्राणी हैं, तं जहा=वे इस प्रकार हैं-- (२) अंडया-अण्डे से उत्पन्न होनेवाले , (२) पोयया विना जेर ( जरायु-आंवल-जड ) के अर्थात् विना ही कुछ मलभागके वस्त्रसे पूंछे हुएके समान उत्पन्न होनेवाले , (३) जराउया-जेरसे लिपट हुए उत्पन्न होनेवाले , (४) रसया-रसमें उत्पन्न होनेवाले , (५) संसेइमा पसीने से उत्पन्न होनेवाले , (६) समुच्छिमा-संमृच्छिम, (७) उब्भिया पृथ्वीको भेदकर उत्पन्न होनेवाले (शलभादि), (८) उबवाइया-उपपात जन्मवाले-देव और नारकी, जेसिं-केसिंचि-इनमें से जिन किन्हीं पाणाणं प्राणियोंका अभिक्कंत=अभिअपने अपने नाम-गोत्र रूप प्रकृति के उदयरूप कारण वाले हैं। अर्थात् पूर्वोक्त वीज आदि सब सचित्त होते हैं और पृथक्-पृथक् स्पर्शरूप एक इन्द्रियवाले हैं ॥ ५ ॥ यह पांच स्थावरकायका निरूपण समाप्त हुआ ઉદયરૂપ કારણવાળા છે. અર્થાત્ પૂર્વોક્ત બીજ આદિ બધા સચિત્ત હોય છે અને પૃથકપૃથક સ્પર્શરૂપે એક ઈન્દ્રિયવાળાં છે. (૫) ઈતિ પંચ-સ્થાવર – કાયનું નિરૂપણ સમાપ્ત. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मुख गमन होता है, पडिक्कंतं-अतिकूल गमन होता है, 'संकुचियं – शरीरमें संकोचसिकुडन होता है पसारियं=शरीरमें फैलाव होता है, रुय-शब्द का प्रयोग होता है, भंतं =इधर-उधर भ्रमण होता है, तसियं-उद्योग होता है, पलाइयं-डरसे भागना देखा जाता है, ( वे त्रस )आगइगइविन्नाया-आगमन और गमन को जाननेवाले, य-और जे-जो कीडपयंगा-कीड-कोडे और पयंगा-पतंगिये हैं, य और जा-जो कुंथुपिवीलिया कुंथवा और चींटियाँ हैं, वे सव्वे बेइंदिया= सब द्वोन्द्रिय सव्वे तेइंदिया सब त्रीन्द्रिय सव्वे च. उरिदिया= सब चार इन्द्रियवाले सव्वे पंचिंदिया सब पञ्चेन्द्रिय सव्वे तिरक्खजोणिया सब तिर्यश्चगतिवाले सव्वे नेरइया सब नारकी सव्वे मणुया सब मनुष्य सुव्वे देवा-सब देव सव्वे-पूर्वोक्त सब पाणा-प्राणीमात्र परमाहम्मिया सुखके अभिलाषी हैं । एसो-यह खलु= निश्चय करके छट्ठो-छठा जीवनिकाओ-जीवनिकाय तसकाउत्ति-"त्रसकाय" ऐसा पउच्चइ कहा जाता ह ॥६॥ टीका-'से' स्थावरपञ्चकनिरूपणान्तरं पुनः इमे वक्ष्यमाणभेदाः अनेके द्वीन्द्रियादिभेदेनाऽनेकप्रकाराः बहवः-एककस्था जातो प्रचुरा भिन्नयोनयो वा त्रसाःसनामकर्मोंदयात् , त्रस्पन्ति आतपाद्यभिपीडिता उद्विजन्ते प्रच्छायशीतलं स्थलं प्रयान्ति वेति तथोक्ताः'प्राणन्ति-जोवन्त्येभिरिति, प्राण्यन्ते जीव्यन्ते प्राणिन एभिरिति वा (प्रोपसृष्टादनितेः, अण्यतेर्वा करणे घञ् ) प्राणा: उच्छ्वासादयस्ते सन्त्येषामिति प्राणः प्राणिन इत्यर्थः, तद्यथा अण्डे = पक्ष्यादिप्रादुर्भावककोषे जायन्ते-उत्पद्यन्ते इत्यण्डजाः = पक्षि-सदः । पोता एव जाता पोतनाः न जरायबादिना वेष्टिताः पूर्णावयवयोनिनिर्गतमात्रा अब क्रमप्राप्त त्रसकायका स्वरूप कहते हैं-'से जे' इत्यादि । जो ये आबालप्रसिद्ध द्वीन्द्रिय आदिभेद से अनेक, एक एक जाति में बहुत से अथवा भिन्न-भिन्न योनि वाले आतप(गर्मी) आदि से पोडित होने पर त्रास (उद्वेग) पाने वाले, अथवा छायादार शीतल और निर्भय स्थल में चले जाने वाले, व्यक चेतनावान्, उच्छ्वास आदि प्राणवाले त्रास कहलाते हैं, उनके भेद इस प्रकार है पक्षो सर्प आदि अण्डज हैं (') जरायु से वेष्टित न होना योनि से निकलते ही गमन-आग मन आदि क्रियाएँ करनेकी सामर्थ्य से युक्त पूर्ण अवयववाले, या वस्त्रसे पोंछे हुएके समान साफ व उभप्रात सायनु स्१३५ ४ छे. 'से जे छत्याह. જે એ અબાલ-પ્રસિદ્ધ કન્દ્રિયાદિના ભેદે કરીને અનેક, એક એક જાતિમાં ઘણા અથવા ભિન્ન-ભિ નિવાળા, ગરમી આદિથી પીડિત થતાં ત્રાસ (ઉદ્વેગ) પામનારા, અથવા છાયાવાળા શીતળ અને નિર્ભય સ્થળમાં ચાલ્યા જનારા, વ્યક્ત ચેતનાવાન્ ઉચ્છવાસ આદિ પ્રાણવાળા ત્રસ કહેવાય છે, તેના ભેદ આ પ્રકારે છે પક્ષી સર્ષ આદિ અંડજ છે (૧). જરાયુથી વેષ્ટિત ન હઈને નિમાંથી નીકળતાં જ ગમનાગમન આદિ ક્રિયા કરવાના સામર્થ્યથી યુક્ત પૂર્ણ અવયવવાળા. યા વસ્ત્ર દ્વારા १. प्रसेः पचाद्यच' २ 'अर्शआदित्वादच्' શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० ६ सकायवर्णनम् १७३ एवं परिस्पन्द्रादिसामर्थ्योपेताः पोतजाः । यद्वा पोतो वस्त्रम् (इति शब्दकल्पद्रुमः), तेन तत्संमाजिता लक्ष्यन्ते तथा च पोता इव - वस्त्रसंमार्जिता इव गर्भवेष्टनचर्माऽनावृतत्वात्, जायन्ते - उत्पद्यन्ते इति, पोतात् = गर्भवेष्टनचर्मरहितगर्भात् जायन्त इति वा पोतजाः कु जर-शल्लक-शश-नकुल- मूषिक- चर्मचटिका- वल्गुलिकादयः । जरायुजाः - जरामेति - गच्छ तीति जरायु: - गर्भवेष्टनचर्म तस्माज्जायन्त इति ते नर- महिष- गवादयः । रसजाः = रसे = मद्यलक्षणे 'रसजी मद्यकीटः' इति हैमात् जायन्त इति, रसे = विकृतमधुरादौ जायन्त इति वा रजसाः । संस्वेदजा' - संस्वेदात् = घर्माज्जायन्त इति ते यूका-लिक्षा- मत्कुणप्रमुखाः । सम्पूर्किङमाः = सम्मूर्च्छन सम्मूच्छे :- गर्भाधानमन्तरेणैव स्वयं समुत्पत्तिः, ('मूच्छा मोह समुच्छ्राययोः अस्माद्भावे घञ्, व्युत्पत्तिप्रदर्शनमेतत्, शब्दोऽयं मनोविकले रूढः, 1 ) यद्वा समन्ततो देहस्य मूर्च्छनम् अवयवसंयोगस्तेन निवृत्ताः सम्मूर्किछमा:- मातापितृसंयोगं विनैव स्वयंसमुत्पन्नः पिपीलिका-मक्षिका मत्कोटकादयः (आर्षत्वात्सिद्धिः) । उद्भिज्जाः = [:- उद्भिद्य - पृथिवों भित्वा जायन्त इति ते शलभादयः । औपपातिकाः = उपपतउत्पन्न होनेवाले हाथी, शल्लकी, खरगोश, नौला, चूहा आदि पोतज कहलाते हैं (२)' जरायु (आँवल-जड) सहित उत्पन्न होनेवाले मनुष्य महिषादि जरायुज कहलाते हैं (३), मदिरा आदि रसोंमें उत्पन्न होनेवाले तथा स्वाद से चलित अर्थात् सड़े हुए मधुरादि रसोंमें उत्पन्न होनेवाले रसज कहलाते हैं (४) पसीने से पैदा होनेवाले जु, लीख, खटमल आदि संस्वेदज कहलाते हैं (५) गर्भाधान के विना शरीरनाम - कर्मके उदयसे शरीरके अवयवोंका संग्रह हो जानेसे स्वयं ही उत्पन्न होनेवाले जीव संमूच्छिम कहलाते हैं (६), पृथ्वीको भेदकर उत्पन्न होनेवाले शलभ (टिड्डी) आदि उद्भिज्ज हैं (७), गर्भ और संमूर्च्छन जन्मोंसे भिन्न देव और नारकोंके जन्मको उपपात कहते हैं, उससे उत्पन्न होनेवाले देव और नारकी औपपातिक कहलाते हैं (८), देव शय्या पर और नारकी कुम्भीमें स्वयं उत्पन्न होते हैं । લુછેલાની પેઠે સાફ ઉત્પન્ન થનારા હાથી, શેળા, સસલાં. નાળિયા, ઉદર આઢિ પાતજ કહેવાય (२ (. भरायु (नाज वगेरे भग लाग) सहित उत्पन्न थनारा मनुष्य. भडिષાદિ( ભેંશ વગેરે) જરાયુજ કહેવાય છે (૩). મદિરા આદિ રસામાં ઉત્પન્ન થનારા તથા સ્વાદથી ચલિત અર્થાત્ સડેલા મધુરાદિ રસેસ્ડમાં ઉત્પન્ન થનારા રસજ કહેવાય છે. (૪) પ્રસ્વેઢથી પેદા થનારા જૂ, લીખ, માંકડ, આદિ સ ંસ્વેદજ કહેવાય છે. (૫). ગર્ભાધાન વિના શરીરનામ-કર્મના ઉદયથી શરીરના અવયવાનાં સંગ્રહ થઇ જવાથી સ્વય' ઉત્પન્ન થનારા જીવા સ’મૂચ્છિ ન કહેવાય છે. (૬) પૃથ્વીને ભેદીને ઉત્પન્ન થનારા શલભ ( ટીડ ) આદિ ઉદ્ભભિન્નજ કહેવાય છે. (૭) ગભ અને સમૂન જન્મથી ભિન્ન દેવ અને નારકાના જન્મને ઉપપાત કહે છે, તેથી ઉત્પન્ન થનારા દેવ અને નારકી ઔપપાતિક કહેવાય છે (૮) દેવ શય્યા પર અને નારકી કુલીમાં સ્વય' ઉત્પન્ન થાય છે. १. अन्येष्वेपि दृश्यते' इति डः શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकस " नमुपपातः (पतधातोर्भावे घञ ) देवनारकाणां प्रसिद्धगर्भसम्मूर्च्छन रूपजन्म प्रकारद्वयविलक्षण उद्भवस्तेन निर्वृत्ताः औपपातिकाः = देवनारकाः, देवा हि पुष्पशय्यायां नारकाश्च कुम्भ्यादिषु स्वयं समुत्पद्यन्ते । तानेव विशिनष्टि - 'येवा' - मित्यदीना, येषां केषाञ्चित्पूर्वोक्तानां प्राणानां श्वासोच्छा-सादिप्राणवताम्, अभिक्रान्तम् = अभिमुख्येन अभिमुखं वा प्रज्ञापकस्य क्रमणं = गमनमभिक्रान्तं 'भवती' तिशेषः । प्रतिक्रान्तं=प्रति = प्रातिकूल्येन प्रतिकूलं वा प्रज्ञापकस्य क्रमणम्, यद्वा प्रतिक्रान्तं = परावृत्य गमनम् संकुचितं = सं कोचः गात्रावकुश्चनम्, प्रसारितं = करचरणादिप्रसारणं रुतं = शब्दकरणम्, भ्रान्तम् = इतस्ततो भ्रमणम्, त्रस्तं = त्रासः = उद्वेगः, पलायितं = पलायनं भयादिना स्थानान्तरगमनं 'भवतो' त्यध्याहृतेन प्रत्येकं सम्बन्धः । सर्व एवैतेऽभिक्रान्तादयः शब्दाः भावकान्ताः । त्रसाः आगतिगतिविज्ञातारः = आगतिः = आगमनम् गतिः = गमनं तयोर्विज्ञातारः = वेदितारः = ओघसंज्ञया प्रवृत्तिमन्तः स्वस्वाभिक्रान्त प्रतिक्रान्तादिविषयकाSवबोधसम्पन्ना भवन्तीत्यर्थः । " १७४ " इन्द्रियादिविभागप्रदर्शनेन तानेव परिचाययति- 'ये वे' त्यादि ये च कीटपतङ्गा = कीटाः = कृमयो गण्डोलकप्रभृतयः, तज्जातीया अन्ये द्वीन्द्रियाश्च पतङ्गाः = शलभाचतुरिन्द्रियास्तज्जातीया भ्रमरादयश्च । याश्च कुन्थु-पीपिलिकाः, कुन्थवश्च पिपीलिकाचेत्यनयोरितरेतरयोगे 'परवल्लिङ्गं द्वन्द्व तत्पुरुषयो' - रिति परवल्लिङ्गता । कुन्थवः = चलन्त एव परिज्ञेया न स्थिताः सूक्ष्मत्वात् लघुकायजीवाः, पिपीलिकाः = कीटिकास्तज्जाती ये सब पूर्वोक्त जीवोंके प्रज्ञापककी अपेक्षा सामने आना, लौटके पीछे जाना, इसी प्रकार अंगको सिकोड़ना, हाथ-पैर फैलाना, बोलना, भ्रमण करना, उद्विग्न होना, भय आदि कारणों से भागना आदि क्रियाएँ होता हैं । वे गमन आगमन आदिके जाननेवाले अर्थात् ओघसंज्ञासे प्रवृत्ति करनेवाले होते हैं । अनुकूलता आर प्रतिकूलताको सामान्यतया ओधसंज्ञासे जानते हैं । इन्द्रियों का विभाग करके फिर उनका कथन करते हैं कृमि, लट, गण्डोल आदि उनकी जातिवाले दोन्द्रिय हैं । शलभ और उनकी जातिके भ्रमर आदि चार इन्द्रियवाले होते हैं । कुन्थु और पिपीलिका (चिउंटो) तथा उनकी जातिके अन्य जीव એ બધા પૂર્વક્ત જીવાતુ પ્રજ્ઞાપકની અપેક્ષાએ સામે આવવું, ફરીને પાછા જવું એ જ રીતે અંગ સ’કોચવાં, હાથ-પગ ફેલાવવા. એલવુ ભમવુ, ઉદ્વિગ્ન થવુ, ભયાદિ કારણે ભાગી જવુ, વગેરે ક્રિયાઓ હોય છે. તેઓ ગમનાગમન માઇને જાણનારા અર્થાત્ એધસંજ્ઞાથી પ્રવૃત્તિ કરનારા હોય છે. મનુકૂળતા અને પ્રતિકૂળતાને સામાન્ય રીતે એધ-સ જ્ઞાએ કરી જાણે છે. *ઇદ્રિચાના વિભાગ કરીને હવે એવુ કથન કરવામાં આવે છે : કૃમિ (કરમિયાં), લટ, અળસીયાં ગેરે એની જાતિવાળા દ્વીન્દ્રિય છે. તીડ અને એની જાતિવાળા ભ્રમર આદિ ચાર 'ઈન્દ્રિયવાળા છે. કુંથવા અને કીડી તથા તેની જાતિવાળા મીજા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ७ षड्जीवनिकायानां दण्डपरित्यागः यात्रीन्द्रियाथ, द्वि-त्रिचतुरिन्द्रियक्रममुल्लङ्घय द्विचतुस्त्रीन्द्रियेति व्युत्क्रमेणोपादानमाcarcard वैचित्र्याच्च । ततः सर्वे द्वीन्द्रियाः, सर्वेत्रीन्द्रियाः सर्वे चतुरिन्द्रयाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियाः सर्वे तिर्यग्योनिकाः, सर्वे नैरयिकाः, सर्वे मनुष्याः सर्वे देवाः, सर्वे प्राणाः - - पूर्वोक्ताः सकलप्राणिनः परमधर्माण: = परमं सुखमेव धर्मो येषां ते सुखाभिलाषुका इत्यर्थः' परमा' इत्यत्र दीर्घ आर्षत्वात् । एषः - अनन्तरोदीरितस्वरूपो अण्डजादिलक्षणः खलु = निश्चयेन षष्ठः = स्थावरपञ्चकापेक्षया षष्टत्वमापन्नः जीवनिकायः - प्राणिसमूहः 'सकाय' इति प्रोच्यते = कथ्यते त्रसकायनाम्ना ख्यात इत्यर्थः || ६ || = १७५ सर्वे प्राणिनः मुखाभिलाषिणो भवन्ति, सुखं च तेषामनारम्भेणैव सम्पद्यतेऽत इदानीमनारम्भोपदेश: - ' इच्वेसिं' इत्यादि । - मूलम् — इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभिज्जा. नेवन्नेहि दंडंसमारंभाविज्जा, दंडं समारंभंतवि अन्ने समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेण वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामिः अप्पाणं वोसिरामि || छाया -- इत्येषां षण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेत, नैवान्यैर्दण्डं सामारम्भयेत, दण्डं समारभमाणानप्यन्यान् न समनुजानीयात् यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मनं व्युत्सृजामि || ७ | " - षट्कायका आरम्भ न करनेका उपदेश देते हैं = सान्वयार्थः इच्चेसि = इन पूर्वोक्त छण्डं = छह जीवनिकायाणं = जीवनिकायके दंड = दण्ड- हिंसा आदि को सयं = स्वयं नेव न समारंभिज्जा = आरम्भ करे, नेव = न अन्नेहिं = दूसरोंसे दंड = दण्डको समारंभाविज्जा = आरंभ करावे, दंडं = दण्डका तीन इन्द्रियवाले होते हैं । यहाँ द्वीन्द्रिय बतानेके बाद पहले चार इन्द्रिय फिर तीन इन्द्रियवाले जीव बताये हैं, यह कथन आर्ष होनेसे किया गया है, इसलिए सत्र द्वोन्द्रिय, सब त्रोन्द्रिय, सब चतुरिन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, सब तिर्यञ्च, सब नारकी, सब मनुष्य, सब देव, इस प्रकार पूर्वोक्त सब प्राणो सुखकी अभिलाषावाले हैं । इस छठे जीवनिकायको भगवानने त्रसकाय कहा है ||६|| જીવા ત્રણ ઈદ્રિયવાળા હોય છે. અહીં દ્વીન્દ્રિય બતાવ્યા પછી પહેલાં ચાર 'ઇન્દ્રિયવાળા અને પછી ત્રણ ઇદ્રિયવાળા બતાવ્યા છે, એ કથન આષ હાવાથી કરેલું છે. એ રીતે બંધા દ્વીન્દ્રિય ખધા ત્રીન્દ્રિય, બધા ચતુરિન્દ્રિય, બધા પચેન્દ્રિય, બધા તિય ઇંચ, ખધાં નારકી, બધા મનુષ્ય, બધા દેવ, એ પ્રકારે પૂક્ત બધાં પ્રાણી સુખની અભિલાષાવાળાં છે. એ છઠા જીવનિકાયને ભગવાને ત્રસ-કાય કહેલ છે. (૬) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्रीदशवकालिकसूत्रे समारंभंतेवि = आरम्भ करते हुओंको भी अन्ने = दूसरोंको न = नहीं सपणुजाणेज्जा = भलाजाने, जावज्जीवाए = यावज्जीवन-जीवनपर्यन्त तिविहं = कृतकारित-अनुमोदनारूप तीन-करण-पूर्वक ( इस प्रकार ) तिविहेणं = तीन प्रकारके मणेणं = मनसे वायाए = वचनसे कारणं = कायासे न करेमि = नहीं करूँगा, न कारवेमि = नहीं कराऊँगा, अन्ने = दूसरे करंतंपि = करनेवालेकोभी न समणुजाणामि = भला नहीं समझूगा । भंते! = भदन्त ! तस्स= पूर्वोक्त उस दण्डसे पडिक्कमामि = पृथक् होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे जुगुप्सा करता हूँ, गरिहामि = गुरुसाक्षोसे गर्दा काता हूँ ( और ) अप्पाणं = दंडसेवन करनेवाले आत्माका वोसिरामि = त्याग करता हूँ ॥७॥ टीका---इत्येषां पूर्वोक्तस्वरूपाणां षण्णां जीवनिकायानांत्रसस्थावरलक्षणजीवसमुदायानाम् , दण्डयते = सारहीनः क्रियते आत्माऽनेनेति दण्डः = प्राणव्यपरोपणादिस्तम् , स्वयं = आत्मना नैव = न कदापि समारभेत = विदधीत, = नैव अन्यैः = स्वव्यतिरिक्तैः कैरपि जनैस्तद्वारेति भावः, दण्डम् = उक्तलक्षणव्यापारं सामारम्भयेत् = कारयेत्, दण्ड समारभमाणान् = कुर्वाणान् अपि अन्यान् न समनुजानीयात् = अनुमन्येत् । कियत्समयपर्यन्त ? मित्याह-'जावज्जीवाए' इति, अत्र यावच्छब्दः परिमाणार्थको मर्यादार्थकोऽवधारणार्थकोश्चाव्ययः, जीवनं जीवा ('जीव प्राणधारणे) अस्मात् 'गुरोश्च हल:' (३।३।१०३) समस्त प्राणी सुखके अभिलाषी हैं, किन्तु सुखको प्राप्ति तब ही हो सकती है जब आरंभका परित्याग कर दिया जाय, इसलिए आरंभके त्यागका उपदेश देते हैं-'इच्चेसिं' इत्यादि । जिससे आत्मा ज्ञान दर्शन चारित्रसे रहित होजाय उस हिंसा आदि व्यापारको दण्ड कहते हैं । मुनि पूर्वोक्त छह कायोंके दण्डका यावजीव न स्वयं समारंभ करे न दूसरोंसे करावे और न समारंभ करनेवाले दूसरों को अनुमोदना करे । दण्ड तोन प्रकारका है-(१) कृत, (२) कारित, (३) अनुमोदित । कृत-अपनी इच्छासे स्वयं करना । कारित-दूसरे व्यक्तिसे कराना । બધાં પ્રાણી સુખના અભિલાષી છે, પરન્ત સુખની પ્રાપ્તિ ત્યારે થાય છે કે જ્યારે मामा परित्याग ४२वामा भाव; तथी भार बना त्यागने। 6 पहेश मापे छे-इच्चेसिं त्यादि જેથી આત્મા જ્ઞાન દર્શન ચારિત્રથી રહિત થઈ જાય, એ હિંસા આદિ વ્યાપારને દંડ કહે છે. મુનિ પૂર્વોક્ત છ કાના દંડને યાવજ જીવન પિતે ન સમારંભ કરે, ન બીજાએ પાસે કરાવે અને સમારંભ કરનારા બીજાઓની ન અનુમોદના કરે. દંડ ત્રણ પ્રકારને છે ? (१) त, (२) रित, (3) अनुमाहित. कृत-पातानी ४२छाथी पाते ४२७ કારિત-બીજી વ્યક્તિ પાસે કરાવવું. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ स्, ७ षइजीवनिकायानां दण्डपरित्यागः । इतिपाणिनिवचनेन स्त्रियामकारप्रत्यये स्त्रीत्वाट्टाए 'ईहा, ऊहे'-त्यादिवत ,) तया जीवया जीवामित्यर्थः ('ततोऽन्यत्रापि दृश्यते' ) इति वचनबलाद् यावच्छब्दयोगे द्वितीयायाः प्राप्तावपि सौत्रत्वात्ततीया, तेन यावन्मम जीवनं तावदिति, जीवनं मर्यादीकृत्यार्थान केवलं मरणकाल एवाऽपितु ततः प्रागपीति, जीवन एव न तदुत्तरं परलोकेऽपीत्यर्थः । दण्डं किंविध ? मित्याह-त्रिविधं तिस्रो विधाः प्रकारा यस्य स तम्-कृत-कारिताऽनुमतरूपम् , तत्र कृतं स्वतन्त्रणाऽऽत्मना सम्पादितम् , कारितम् =अन्य-( व्यक्त्यन्तर)-द्वारा निष्पादितम् , अनुमतं सावधव्यापारमारभमाणस्य 'त्वं साधु करोषि, एवमेव कुर्वन्नास्व' इत्यादिना प्रोत्साहितम् , त्रिविधेन-प्रकारत्रयविशिष्टेन करणभूतेन, केने ? त्याह मनसा वाचा कायेने ' ति। ननु त्रिविधेने त्यनेन यत्प्रकारत्रयं ग्रह्यते तत् 'मनसे' त्यादिना प्रतिपदमेवोक्तम् एवं सति त्रिविधेनेत्युपादनं पौनरुक्त्यदोषग्रस्तं भवति । यद्वा 'त्रिविधेने' ति विशेषणं मनसे'-त्यादेरेव संभवति, ततश्च 'त्रिविधेन मनसा, त्रिविधया वाचा, त्रिविधेन कायेने' -त्यन्वये मनोवाक्कायानां प्रत्येकं त्रैविध्यं प्राप्नोति तच्चाऽनिष्टं, नात्र मनआदीनि प्रत्येक त्रैविध्यमर्हन्ति किं तर्हि ? तद्व्यापारा एवेति चेन्न, अनुमोदित-जो सावध व्यापार कर रहा हो उसे अच्छा समझना । यह सब सावध व्यापार तीन करण तीन योगसे न करे । वे तीन योग ये हैं-(१) मन, (२) वचन, (३) काय । प्रश्न-सूत्रमें 'त्रिविधेन' (तीन प्रकारसे) कहा ही है फिर 'मनसा' (मनसे) 'वाचा' (वचनसे) 'कायेन' (कायसे) कहनेसे पुनरुक्ति (कहे हुए को पुनः कहना) होती है । या 'तीन प्रकारसे' यह विशेषण 'मन' वचन, काय' का ही हो सकता है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो इसका अर्थ होगा कि 'तीन प्रकारके वचनसे' और तीन प्रकारके कायसे' आरम्भ न करे । अर्थात् मन वचन कायके तीन तीन भेद होंगे । ऐसा अर्थ शास्त्रविरुद्ध है-शास्त्रोंमें भगवानने मन आदिके तीन तीन भेद नहीं बताये हैं, किन्तु मन आदिके व्यापारोंको तीन प्रकारका बताया है। અનુદિત-જે સાવદ્ય વ્યાપાર કરી રહી હોય તેને સારું જાણવું. એ બધા સાવધ વ્યાપાર ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી ન કરે. તે ત્રણ ત્યાગ, આ છે–(૧) भन, (२) क्यन, (3) या.. प्रश्न-सूत्रमा त्रिविधेन ( मारे) ४ छ, पछी मनसा (भनथी), वाचा (वयनथी) कायेन (याथी) पाया धुन३ति (साने ३ ४) थाय छे. मात्र પ્રકારે છે એ વિશેષણ “મનવચન, કાયા” નું જ હોઈ શકે છે. જે એમ માનવામાં આવે તે એને અર્થ એ થશે કે ત્રણ પ્રકારના મનથી, ત્રણ પ્રકારના વચનથી, અને ત્રણ પ્રકારની કાયાથી” આરંભ ન કરે. અર્થાત્ મન વચન કાયાના પણ ત્રણ ભેદ બનશે. એવો અર્થ શાસ્ત્ર વિરૂદ્ધ છે. શાસ્ત્રમાં ભગવાને મન આદિના ત્રણ ભેદ બતાવ્યા નથી, પરંતુ મન આદિના વ્યાપારને ત્રણ પ્રકારના બતાવ્યા છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे तदभावे हि 'मनसा वाचा कायेन' इत्येतावन्मात्रोक्तौ ' न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामी' - त्यनेन सह 'यथासंख्यमनुदेशः समानाम्, ( १ । ३ ।१०) इति वचनानुरोधेन' शत्रु मित्रं विपत्तिं च जय रजय भञ्जये' त्यादिवत्, एचोsयवायावः' ( ६ । १ । ७८ ) इत्यादिवद्वा क्रमिकान्वये 'मनसा न करोमि, वाचा न कारयामि कायेन कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामी' - त्यनभीष्टोऽर्य आपद्येत तद्वारणाय त्रिविधेनेत्यु क्तम् तेन मनसा न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि; वाचा न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि एवं कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीत्यर्थो भवति, यद्वा पूर्व सामान्यतस्त्रिविधेनेत्युक्त्वा केन त्रिविधेने १ ति जिज्ञासायां तत्प्रकारान् दर्शयितुं विशेषणाऽऽह - 'मनसे' -त्यादीति नास्ति पौनरुक्त्त्य दो १७८ उत्तर - यह शंका ठीक नहीं है । यदि 'त्रिविधेन' न कहकर केवल 'मनसा वाचा कायेन ' कह देते तो अर्थ ठीक न बैठता, क्योंकि जैसे कोई कहे कि "हेय और उपादेयको त्यागो और ग्रहण करो ।" तो इस वाक्यमें क्रमसे 'हेय' के साथ 'त्यागो' का सम्बन्ध होजाता है और 'उपादेय' के साथ ग्रहण करो' का । इसी प्रकार 'चोलपट्टा चादर पहनो, ओढो' कहने से यह अर्थ होता है कि " चोलपट्टा पहनो और चादर ओढो ।" इसीप्रकार 'त्रिविधेन' (तीन प्रकारसे) पद न रखते तो ऐसा अनिष्ट अर्थ होजाता कि - मनसे न करे, वचनसे न करावे और कायसे अनुमोदना न करे । इस अनिष्ट अर्थका परिहार करनेके लिए 'त्रिविधेन' पद रखने से यह अर्थ हुआ कि - (१) मनसे न करूँ, (२) न कराऊँ, (३) न करते हुए को भला जानूँ । (४) वचनसे न करूँ, (५) न कराऊँ, (६) न करते हुएको भला जानूँ । (७) कायसे न करूँ, (८) न कराऊँ (९) न करनेवालेको भला जानूँ । अथवा पहले सामान्य रूपसे कहा है कि तीन प्रकारसे न करूँ, परन्तु तीन प्रकार कौन - कौनसे हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर विशेष बता दिया कि “मनसा वाचा कायेन" ये तीन उत्तर—भी शही मरामर नथी. ले त्रिविधेन न उढीने देवण मनसा वाचा कायेन કહ્યું હાત તા અથ ખરાબર મધ એસત નહિ. કારણ કે જેમ કેાઈ કહે કે હૈય અને ઉપાદેયને ત્યાગા અને ગ્રહણ કરા. ’” તેા એ વાકયમાં ક્રમાનુસાર 'डेय'नी साथै 'त्याग'नी સંબધ થઈ જાય છે. અને ‘ ઉપાદેય 'ની સાથે ગ્રહણ કરેા 'ના. એજ રીતે ચાલપટ્ટો ચાદર પહેરા આઢા' કહેવાથી એ અથ થાય છે કે ચાલપટ્ટો પહેરા અને ચાદર ઓઢ ये रीते त्रिविधेन (त्रयु प्रारे ) शब्द न राज्य होत तो थेवे। अनिष्ट अर्थ अर्ध मत કે મનથી ન કરેા, વચનથી ન કરાવે! અને કાયાથી ન અનુમૈદ્યના કરી. આ અનિષ્ટ અના परिवार ४२वाने भाटे त्रिविधेन शब्द आयो छे, खेम त्रिविधेन शब्द आपवाथी थेवे। स्मर्थ थये। है-(१) भनथी न ४३ (२) न ४रावु, (3) अश्नारने लान लाएं, (४) वयनथी न १३. (५) न ४२रावु', (६) न १२नारने लबे। भगु, (७) प्रयाथी न ४३, (८) न?ig', (E) ने पुरनारने लदी लागू. અથવા પહેલાં સામાન્યરૂપે કહ્યુ છે કે ‘ ત્રણે પ્રકારે ન કરૂં ' પરન્તુ ત્રણ પ્રકાર કયા મ્યા છે ? એવી જિજ્ઞાસા થતા વિશેષ ખતાવી આપ્યું છે કે મનસા વાચા જાયેન એ ત્રણ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० ७ षड्जोवनिकायानां दण्डपरित्यागः षाऽऽपातः । केचित् 'मनसा वा वाचावा कायेन वेति विकल्पसंग्रहार्थ 'त्रिविधेने'-त्युक्तमित्यूचिरे । 'न कारयामी त्यत्राऽन्येनेतिशेषः पूरणीयः । न समनुजानामि = नानु मन्ये । तस्येति तस्मात् पूर्वोक्तरूपादण्डादित्यर्थः, अत्रापादानस्य शेषत्वविवक्षया षष्ठी। भंते' भदन्त !' भदन्ते कल्याणं सुखं वा प्रापयतीति भदन्तः, ( अन्तर्भावितण्याद् 'भदि कल्याणे सुखे चे' त्यस्माद्धातोः ‘भन्देनेलोपश्चे' त्योणादिकसूत्रेण झन्धातुनकारलोपयोः 'झोऽन्त' इति झस्यान्तादेशः ।) यद्वा भवं-संसारमन्तयति-दरीकरोतीति, ('कर्मण्यण (३।१।) इत्यण शकन्ध्वादेराकृतिगणत्वात्पररूपे पृषोदरादित्वाद्वस्य दः । ( अथवा भवस्य-संसारस्यान्तो= ऽवसानं येनेति व्यधिकरणपदो बहुव्रीहिः पररूपादेशौ प्राग्वत् । भयस्य = जन्म-जरा-मरण-निमित्तकस्वाऽन्तो= नाशो येनेति भयान्तः, स एव भदन्त इति वा, पृषोदरादित्वादेकस्याकारस्य लोपो यस्य च दः । अपिप्रकार हैं इसलिए पुनरुक्ति आदि कोई दोष नहीं है । अथवा मन वचन और कायके निमित्तसे होनेवाले तीन भेदोंका संग्रह करनेके लिए 'त्रिविधेन' पद रखा है। व्याकरणमें 'भंते' शब्द अनेक प्रकारसे सिद्ध होता है, इसलिए उसके अर्थ बहुतसे हैं । जैसे (१) कल्याण और सुखको देनेवाले, (२) संसारका अन्त करनेवाले, (३) जिनकी सेवा-भक्ति करनेसे संसारका अन्त हो जाता है, (४) जन्म-जरा-मरणके भयका नाश करनेवाले, (५) भोगोंको त्याग देनेवाले, (६) भयको दमन करनेवाले निर्भय, (७) इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, (८) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रसे दीपनेवाले । इन सबको 'भंते' कहते हैं । इसी प्रकार और अर्थ भी समझने चाहिए । 'भदन्त!, इस सम्बोधनसे यह प्रगट होता है कि समस्त क्रियाएँ गुरु महाराजकी साक्षी से ही करनी चाहिए। __ हे भगवन् ! मैं दण्डसे निवृत्त होता हूँ, निन्दा करता हूँ, और गर्दा करता हैं । कोशोंमें निन्दा और गर्दा शब्दका एक ही अर्थ है इसलिए पुनरुक्ति होती है, ऐसा नहीं समझना चाहिए, પ્રકાર છે. એથી કરીને પુનરૂક્તિ આદિ કે દેષ થતું નથી. અથવા મન વન અને કાયાના નિમિત્ત થનારા ત્રણ ભેદનો સંગ્રહ કરવાને માટે त्रिविधेन श६ ॥ध्य छे. વ્યાકરણમાં મરે શબ્દ અનેક પ્રકારે સિદ્ધ થાય છે, તેથી એના અર્થ ઘણા છે. જેવા 3 (१) ४८या भने सुमने सामना२, (२) सारनी मत ४२ना२, )3) नी सेवामात કરવાથી સંસારનો અંત આવી જાય છે, (૪) જન્મ જામરણના ભયને નાશ કરનાર, (૫) ભાગોનો ત્યાગ કરનાર, (૬) ભયનું દમન કરનાર-નિર્ભય, (૭) સમ્યજ્ઞાન, સમ્યગ્દર્શન અને સમ્યકુ-ચારિત્રથી દીપ્તિમાન, એ બધાને મને કહે છે. એ જ રીતે બીજા અર્થો પણ સમજી देवा. 'भदन्त ' से समाधनथी मेम ५४८ थाय छ मधी प्रिया शु३ महारानी સાક્ષીએ જે કરવી જોઈએ. હે ભગવન ! હું દંડથી નિવૃત્ત થઉ છું, નિન્દા કરૂં છું અને ગહ કરું છું, શબ્દ કેશોમાં “ નિજા” અને “ગ” શબ્દને એકજ અર્થ છે, તેથી પુનરૂક્તિ થાય છે, એમ ન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्रीदशवैकालिकसूत्रे वा भयं ददतीति भयदाः = भोगास्तानन्तयतीति कर्मण्यणिति सूत्रविहिताऽणन्त-भयदाः न्त शब्दस्य पृषोदरादित्वाद भदन्त इति । यद्वा दान्तं भयं येन स भ पदान्तः निष्ठान्तस्य परनिपात अहिताग्न्यादिपाठात् , स एव तदन्तः 'यलोप-इस्त्रौ पृषोदरादिपाठकृतौ ।। ___अथच भान्ति दोप्यन्ते (समुल्लसन्तीत्यर्थात) स्वस्व विषयेष्विति भानि-इन्द्रियाणि, तानि दान्तानि येन स भदान्तः, सएव भदन्तः, (निष्ठान्तपनिपातःप्रखत्, पृषोदरादित्वादाकारस्य इस्वः)। यद्वा भाति-सम्यगज्ञान-दर्शन-चारित्रदीप्यते इति भान्तः ('भा दीप्तो' अस्मादौणादिकोऽन्तप्रत्ययः ) स एव भदन्तः, ('सिद्धिः पृषोदरादित्वादेव')। (एवं यथामति व्युत्पत्त्यन्तरेष्वपि निरुक्तोक्तशाकटायनादिप्रतिपादितरीत्या साधनप्रक्रिया बोद्धव्या। ) तत्सम्बोधने हे भदन्त ! हे भगवन् ! अनेन सम्बोधननिदें शेन व्रतमत्याख्यानादिकः सर्वोऽपि क्रियाकलापो गुरुसाक्षिक एव विधातव्य इति बोधितम् । प्रतिक्रामामि-प्रतिनिवर्ते भूतदण्डात्पृथग्भवामीत्यर्थः । यत्तु टीकान्तरेषु 'पडिक्कमामी'त्यस्य 'प्रतिक्रमामी' ति छायोपलभ्यते सा प्रमाद विजृम्भितैव, ('क्रमः परस्मैपदेषु' (७। ३७६) इति पाणिनिवचनबलेन क्रमेरुपधादीर्घस्य दुर्वारत्वात् ।) निन्दामि-जुगुप्से । गर्दै क्योंकि निन्दा आत्मसाक्षीसे होती है और गर्दा गुरुसाक्षीसे होती है । अथवा निन्दा साधारण कुत्साको कहते हैं और गर्दा अत्यन्त निन्दाको कहते हैं । इसका अर्थ यह होता हैं कि-हे भगवन् ! अतोत कालमें दण्ड (सावध व्यापार) करनेवाले आत्मा (आत्मपरिणति) को अनित्य आदि भावना भाकर त्यागता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ । जैसे घरको देहलीपर दोपक रखनेसे भीतर भी प्रकाश होता है और बाहर भी प्रकाश होता है इसको 'देहली-दीपक' न्याय कहते हैं। कहा भी है-'परै एक पद बीचमें, दुहु दिस लागै सोय । सों है 'दीपक देहरी', जानत है सब कोय ॥१॥" बीचमें मणि जड़ देनेसे दोनों ओर मणिका प्रकाश होता है, यह 'मध्यमणि' न्योय कहलाता है, इसी प्रकार 'अप्पाण' का दोनों के साथ सम्बन्ध होता है । अर्थात् सावध व्यापारवाली आत्माको त्यागता हूँ और उसकी સમજવું. કારણ કે નિંદા આમ સાક્ષીએ થાય છે અને ગહ ગુરૂ સાક્ષીએ થાય છે. અથવા નિંદા સાધારણ કુત્સાને કહે છે અને ગર્લા અત્યંત નિંદાને કહે છે. એનો અર્થ એ થાય છે કે હે ભગવન્! અતીત કાળમાં દંડ (સાવધ વ્યાપાર ) કરનારા આત્મા (આત્મપરિણતિ)ને અનિત્ય આદિ ભાવના ભાવીને ત્યાગું છું, નિંદું છું, ગહું છું, જેમ ઘરની ડહેલી ( બારણું) પર દી રાખવાથી અંદર પણ પ્રકાશ થાય છે અને मडार ५५ प्राश थाय छ तेन सी-ही५४' न्याय छे. ४घुछ- "पर एक पद बोचमें दुहु दिस लागे सोय, सो है 'दोपक-देहरो' जानत है सब कोय (1)" क्यમાં મણિ જડી દેવાથી બેઉ બાજુ મણિનો પ્રકાશ થાય છે તેને મધ્ય-મણિ ન્યાય' કહે છે, એ રીતે ને બેઉની સાથે સંબંધ થાય છે. અર્થાત સાવધ-વ્યાપારવાળા આત્માને ત્યાગું છું અને તેની નિંદા કરૂં છું, તથા ગહ કરૂં . (૭) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० ७ षड्रजीवनिकायानां दण्डपरित्यागः = प्रजुगुप्से इत्येवार्थः । ननु तर्हि निन्दा गर्हयोः 'कुत्सा निन्दा च गर्हणे' -ति कोशरीत्या पर्यायत्वेन पौनरुक्तयं वज्रलेपायितमेवेति चेन्न, यतः स्वसाक्षिकी निन्दा, गुरुसाक्षिकी च गर्हेति परस्परं भवति भेद: । यद्वा निन्दा - साधारणो कुत्सा, गर्हा = सैवाति भूयसी'- ति परस्परमर्थभेदानास्ति पर्यायता, यथा प्रवृद्ध एव कोपः क्रोधो न साधारण इति कोप- क्रोधयोः पर्यायत्वाभावेन कुक्रुध्यत्वाभावात् कुपधातुयोगे चतुर्थी 'नेष्यते, 'निन्दामि गर्हे' इत्यनयोस्तस्येत्यनेन प्रागुक्तेन सम्बन्धस्तेन - अतीतदण्ड सम्बन्धिनीं स्वसाक्षिक गुरुसाक्षिकीं च निन्दां करोमीति निर्गलितोऽर्थः, तस्येत्यत्र सम्बन्ध - सामान्ये षष्ठयाः प्रागुक्तत्वात् । यद्वा 'आत्मान' - मित्यस्यैव मध्यमणिन्यायाद् देहलीदीपन्यायाद्वा व्युत्सृजामीत्यनेन 'निन्दामि, गर्हे' इत्याभ्यां च सम्बन्धस्तेन भूतकालिकदण्डविधायिनमप्रशस्तमात्मानं जुगुप्से व्युत्सृजामि = विविधाऽनित्यादिभावनया विशिष्य वा परित्यजामीत्यर्थः ||७|| १८१ दण्ड परित्यागो द्विविधः सामान्यविशेषभेदात्, सामान्यतो दण्डपरित्यागोऽहिंसासामान्यम्, विशेषतो दण्डपरित्यागश्च पञ्च महाव्रतानि । ननु पञ्च महाव्रतेषु सत्यादिवतानामहिंसातो भेदः सुस्पष्ट प्रतीयत इति कथमहिंसया पञ्चानां महाव्रतानां सामान्य-विशेषभाव उपपद्येत ? सामान्यविशेषभावो हि विशेषत्वेन विवक्षितपदार्थस्य सामान्यधर्माक्रान्तत्वादेव संपद्यते, अत एव व्याप्यव्यापकभावापन्नयोः सामान्यविशेषभाः' इत्युद्वशेषवः, यथा द्रोणो व्रीहि' रित्यत्र प्रथमा विभक्त्यर्थस्य निन्दा करता हूँ, तथा गर्दा करता हूं ॥ ७॥ tus परित्याग दो प्रकारका है - ( १ ) सामान्य - दण्डपरित्याग और (१) विशेष - दण्डपरित्याग । अहिंसा - सामान्य को सामान्य दण्डपरित्याग कहते हैं और पंच महावतों को विशेष - दण्डपरित्याग कहते हैं । " प्रश्न- पांच महाव्रतों में सत्य आदि महाव्रतों का अहिंसासे स्पष्ट भेद प्रतीत होता है। फिर अहिंसाके साथ सत्य आदि महाव्रतों का सामान्यविशेषभाव कैसे हो सकता है ? सामान्यविशेषभाव वहीं होता है जिसको विशेष बनावें उसमें सामान्य धर्म भी पाया जाय । इसलिए इंउपरित्याग मे प्रारने। छे. (१) सामान्य-उपरित्याग मने (२) (विशेष - ४ उपरित्याग અહિંસાસામાન્યને સામાન્ય દડ-પરિત્યાગ કહે છે, અને પાંચ મહાવ્રતાને વિશેષ-૬ડ પરિ ત્યાગ કહે છે. પ્રશ્ન-પાંચ મહાવ્રતામાં સત્ય આદિ મહાવ્રતાને અહિંસાથી સ્પષ્ટ લેક પ્રતીત થાય છે. તે પછી અહિંસાની સાથે સત્ય આદિ મહાવ્રતાના સામાન્યવિશેષ-સાવ કેવી રીતે હાઈ શકે છે ? સામાન્ય-વિશેષ-ભાવ તેમાં ડાઈ શકે છે કે જેને વિશેષ ખતાવે તેમાં સામાન્ય १ क्रुधदुहेsयार्थानां यं प्रति कोपः " (१।४।६४ ) इत्यत्र शब्देन्दुशेखरे 'न- ाकुपितः क्रुध्यती' - ति भाष्येण प्ररूढकोप एव क्रोध इति कुपेस्तदर्थत्वाभावेन न तद्योग इदम् 'कुप्यति कस्मैचि' दित्याद्यसाध्वेवेति । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨i श्रीदशवैकालिकसूत्रे परिमाणसामान्यस्य द्रोणशब्दार्थे चतुराढकात्मक परिमाणविशेषे तादाम्यसम्बन्धेन (अभेदसम्बन्धेन) अन्वये सति द्रोणाभिन्न परिमाणमिति बोधः, ततश्च प्रत्ययार्थपरिमाणस्य प. रिच्छेद्य-परिच्छेदकभावेन ब्रीहिपदार्थेऽन्वये द्रोणाभिन्नं यत्परिमाणं तत्परिच्छिन्नो (तत्परिमितो) व्रीहिरिति बोधः, अत्र प्रत्ययार्थस्य ब्रोहावन्वयप्रदर्शनं प्रकृतानुपयोग्यपि प्रसअतः कृतम् । यद्वा-यथा 'उपाध्यायो मुनि'-रित्यत्रोपाध्यायशब्दार्थे उपाध्यायपदधारिणि मुनिविशेषे मुनिशब्दार्थस्य मुनिसामान्यस्य तादात्म्यसम्बन्धेन (अभेदसम्बन्धेन) अन्वयः, तथा च-उपाध्यायभिन्नो मुनिरितिबोधः, तत्र विशेषत्वेन विवक्षितपदार्थ उपाध्यायपदधारिणि मुनिविशेषे मुनिशब्दार्थस्य मुनित्वस्य सत्त्वादुभयोः पदार्थयोः सामान्ययह कहा गया है कि 'व्याप्य-व्यापक भाव जिनमें होता है उन्हींमें सामान्यविशेषभाव पाया जाता है जैसे "द्रोणो व्रीहिः,' इस वाक्यमें प्रथमा विभक्ति का अर्थ परिमाण-सामान्य है इस-परिमाणसामान्यका द्रोण शब्दके अर्थ चार आढकरूप परिमाण-विशेषमें अभेद सम्बन्धके द्वारा अन्वय होता है। इस अन्वयसे "चार आढकरूप परिमाण" (एक प्रकार का तौल) ऐसा बोध होता है। उस प्रत्ययार्थ परिमाण-सामान्यको परिच्छेद्य-परिच्छेदक-भाव सम्बन्धसे व्रीहि पदार्थमें अन्वय होनेसे "उस परिमाणसे परिमित (मापा हुआ) बोहि" ऐसा बोध होता है । यहां व्रीहिमें अन्वय प्रसंगवश दिखलाया गया है । अथवा "उपाध्यायो मुनिः" यहाँ उपाध्याय शब्द का अर्थ है उपाध्यायपदधारी मुनिविशेष (१), तथा मुनि शब्दका अर्थ मुनिसामान्य (२), अतः जो उपाध्याय हैं वही मुनि है, अर्थात् मुनिसे अन्य उपाध्याय नहीं है इसलिए उपाध्याय शब्दार्थको मुनि शब्दार्थके साथ अभेद सम्बन्धसे अन्वय होता है तो 'उपाध्यायसे अभिन्न मुनि' ऐसा बोध होता है । यहां विशेष याने उपाध्यायपदधारी ધર્મ પણ મળી આવે. તેથી કરીને એમ કહેવામાં આવ્યું છે કે જેમાં વ્યાપ્ય-વ્યાપકભાવ डाय छ तमा सामान्य विशेष-भाव भजी आवे छे.' २म द्रोणो व्रीहिः ये पायम પ્રથમ વિભક્તિને અર્થ પરિમાણુ-સામાન્ય છે. એ પરિમાણ-સામાન્યને, દ્રોણ શબ્દના અર્થ ચાર આઢક રૂપ પરિમાણ-વિશેષમાં અભેદ સંબંધના દ્વારા અન્વય થાય છે. એ અન્વયથી " या२ मा ३५ परिमाण " (मे प्रारने त) मे मो थाय छे. ये प्रत्ययाथપરિમાણુ–સામાન્ય પરિબેઘ-પરિચ્છેદ-ભાવ સંબંધથી ગ્રહિ પદાર્થમાં અન્વય થવાથી એ પરિમાણથી પરિમિત (માપેલા) વ્રીહિ ” એ બંધ થાય છે. અહીં વ્રીહિમાં અન્વય પ્રસંગવશ બનાવવામાં આવ્યો છે. અથવા– ___ उपाध्यायो मुनिः सभी उपाध्याय शहने। २५ छ-उपाध्याय पधारी भुनि-विशेष (૧), તથા મુનિ શબ્દને અર્થ છે મુનિ-સામાન્ય (૨), એટલે તે ઉપાધ્યાય છે તેજ મુનિ છે, અર્થાત્ મુનિથી જૂદે ઉપાધ્યાય નથી. એથી કરીને ઉપાધ્યાય શબ્દાર્થને મુનિ શબ્દા ઈની સાથે અભેદ સંબંધથી અવય થાય છે, અને તેથી “ઉપાધ્યાયથી અભિન્ન મુનિએ બંધ થાય છે. એમાં વિશેષ કરીને ઉપાધ્યાય-પદધારી ( વ્યક્તિ)માં મુનિના સામાન્ય ધર્મ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० ७ दण्डपरित्यागस्य सामान्यविशेषभावः १८३ विशेषभावोऽभेदान्वयश्च भवति, तथा प्रकृतेऽन्वयो न संभवति, सत्यादिमहावतानाम हिंसातः सुस्पष्टभेदप्रतीतिबलादभेदान्वयस्य बाधादिति चेन्न पञ्चानामपि महाव्रतानां वस्तुतोऽहिंसात्मकत्वात् सामान्य-विशेषभावः सुबोध एव । अहिंसासामान्यस्वरूपावदातकरणाय शिष्याणां सुस्पष्टप्रतिपत्तये च दण्ड-परित्यागस्य द्वैविध्यं कृतम्, एकैवाऽहिंसा पञ्चधा विभाजिता । ननु यथा 'द्रोणो व्रीहि ' रित्यादौ द्रोणादिशब्दार्थचतुराढकात्मकपरिमाणे चतुराढकत्वादिधर्मेण परिमाणत्वादिसामान्यधर्माक्रान्तात् प्रत्ययार्थपरिमाणादितो विशेषत्वं प्रतीयते, यथा च नीलघटो घट इत्यादौ नीलगुणविशिष्टत्वेन नीलघटे घटसामान्यापेक्षया (व्यक्ति) में मुनिके सामान्यधर्म मुनित्वका अस्तित्व पाया जाता है, अत एव दोनों पदार्थोंका सामान्य-विशेषभावमें अभेदान्वय होता है । अर्थात् जैसे इन दो उदाहरणों से अभेदमें सामान्य-विशेषभेद पाया जाता है, वैसा अहिंसाके साथ सत्यादि व्रतोंका अभेद नहीं है, अतएव सामान्य-विशेषभाव नहीं हो सकता, क्योंकि उनका स्पष्ट भेद प्रतीत होता है । उत्तर-पाँचो महाव्रत वास्तवमें अहिंसास्वरूप हैं, इसलिये अहिंसासे भिन्न नहीं हैं । अहिंसा के स्वरूपको स्पष्ट करने के लिये और शिष्यों को स्पष्ट बोध करने के लिये दण्ड परित्याग के दो भेद कर दिये हैं, अर्थात् एक ही अहिंसा को पांच महाव्रतोमें विभक्त कर दिया है । प्रश्न-जैसे "द्रोणो वोहिः' इत्यादि वाक्योमें परिमाणत्व आदि सामान्यधर्मसे युक्त प्रत्ययार्थ परिमाण-सामान्यसे द्रोण शब्दार्थ चार आढकरूप परिमाणमें चार अढकत्व आदि धर्मसे विशेषता प्रतीत होती है । अथवा “जो नीला धड़ा है वह घड़ा हो है" इत्यादि वाक्यो में अन्य घडोंकी રૂપ મુનિત્વનું અસ્તિત્વ મળી આવે છે. તેથી કરીને બેઉ શબ્દના અને સામાન્ય-વિશેષ ભાવમાં અભેદાન્વય થાય છે. ' અર્થાત-જેમ એ બેઉ ઉદાહરણથી અભેદમાં સામાન્ય-વિશેષ ભાવ મળી આવે છે, તેમ અહિંસાની સાથે સત્યાદિ તેને અભેદ નથી. તેથી સામાન્ય વિશેષ-ભાવ થઈ શક્તા નથી, કારણ કે એને સ્પષ્ટ ભેદ પ્રતીત થાય છે. ઉત્તર–પાંચ મહાવ્રત વસ્તુતાએ અહિંસાસ્વરૂપ છે, તેથી કરી અહિંસાથી ભિન્ન નથી. અહિંસાના સ્વરૂપને સ્પષ્ટ કરવાને માટે અને શિખ્યને સ્પષ્ટ બંધ કરાવવાને માટે દંડ પરિત્યાગના બે ભેદ કરવામાં આવ્યા છે, અર્થાત્ એક જ અહિંસાને પાંચ મહાવ્રતોમાં વિભક્ત કરી નાંખવામાં આવી છે. प्रश्न-२भ द्रोणो ब्रीहिः छत्याहि वाध्यामा परिमाणत्व माहि सामान्य यथा युत પ્રત્યયાર્થી પરિમાણુ–સામાન્યથી દ્રોણ શબ્દાર્થ ચાર આઢકરૂપ પરિમાણમાં ચાર અઠકત્વ આદિ ધર્મથી વિશેષતા પ્રતીત થાય છે, અથવા “જે નો ઘડે છે તે ઘડો જ છે ઈત્યાદિ વાક્યમાં અન્ય ઘડાની અપેક્ષાએ નીલા ઘડામાં નીલાપણુથી વિશેષતા મળી આવે છે અને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे विशेषत्वं विधते, विशेषत्वं चात्र व्याप्यत्वमेव, तथा प्रकृते पञ्चमहावतलक्षणेऽहिंसाविशेषे कथं विशेषत्वमिति चेच्छृणु प्राणातिपातविरमणत्वादिना व्याप्यधर्मेण पञ्चसु महाव्रतेषु विशेषत्वे सुवचमेवेति । ननु तर्हि अहिंसासामान्यस्य किं लक्षणं यत् पञ्चसु महाव्रतेषु व्यापकं भवे ? दिति चेद् उच्यते-षड्जीवनिकायेषु दण्डसमारम्मवर्जनत्वमेवाऽहिंसा-सामान्यस्य लक्षणम्, तच्च पञ्चसु महाव्रतेषु प्रत्येकं भवतीति लक्षणसमन्वयो बोध्यः, तथा च महाव्रतान्यत्र व्याप्यानि सामान्यत्तो दण्डपरित्यागो व्यापकस्तस्य पञ्चमहाव्रतरू-पाशेषविशेषनिष्ठत्वादतो व्यापकस्वरूपसामान्यदण्डपरित्यागं व्याख्याय विशेषदण्डपरित्यागलक्षणमहाव्रतान्यभिधत्ते, तेषु प्राणातिपातविरमणात्मिकाया अहिंसायाः प्रधानत्वम्, इतरेषां सस्यक्षेत्रअपेक्षा नीले धड़ेमें नीलेपनसे विशेषता पाई जाती है और वह विशेषता व्याप्यतारूप है, वैसे पंच महाव्रतरूप अहिंसाविशेषमें विशेषता किस धर्मके कारण है ?।। उत्तर-प्राणातिपातविरमणत्व आदि व्याप्यधर्मोंसे पांच महाव्रतों में विशेषता पाई हो जाती है । अर्थात् जहाँ प्राणातिपातविरमणत्व आदि व्याप्य धर्म पाये जाते हैं वहाँ अहिंसा-सामान्यका अस्तित्व रहता ही है। प्रश्न-अहिंसासामान्यका लक्षण क्या है ? जिससे वह पांच महाव्रतोमें व्यापक होजावे ? । उत्तर-षड्जीवनिकायोमें दण्डका परित्याग करना अहिंसा-सामान्यका लक्षण है । यह लक्षण पाँचोही महावतोमें पाया जाता है, अतः महावत व्याप्य हैं और सामान्य-दण्डपरित्याग व्यापक है। __ व्यापकरूप सामान्य-दण्डपरित्यागका पूर्व सूत्र में व्याख्यान किया हैं। अब विशेष-दण्डपरित्यागरूप पांच महाव्रतोंका व्याख्यान आरंभ करते हैं, उनमें प्राणातिपातविरमणरूप अहिंसा તે વિશેષતા વ્યાખ્યાતારૂપ છે. તેમ પંચમહાવ્રતરૂપ અહિંસા-વિશેષમાં વિશેષતા કયા ધર્મને કારણે છે? ઉત્તર–પ્રાણાતિપાતવિર મણત્વ આદિ વ્યાખ્ય-ધર્મોથી પાંચ મહાવતેમાં વિશેષતા મળી આવે છે. અર્થાત જ્યાં પ્રાણાતિપાત વિરમણત્વ આદિ વ્યાપ્ય ધર્મ મળી આવે છે ત્યાં અહિંસા સામાન્યનું અસ્તિત્વ રહેલું જ હોય છે. પ્રશ્ન–અહિંસા-સામાન્યનું લક્ષણ કર્યું છે કે જેથી તે પાંચ મહાવ્રતમાં વ્યાપક થઈ नय छ ? ઉત્તર–ષજવનિકાયમાં દંડને પરિત્યાગ કર એ અહિંસા-મામાન્યનું લક્ષણ છે, એ લક્ષણ પાંચ મહાવ્રતોમાં મળી આવે છે, તેથી મહાવ્રત થાય છે. અને સામાન્ય દંડપરિત્યાગ વ્યાપક છે. વ્યાપકરૂપ-સામાન્ય–દંડ પરિત્યાગનું વ્યાખ્યાન આગળના–સૂત્રમાં કહેલું છે હવે વિશેષદંપરિત યાગરૂપ પાંચ મહાવતેનું વ્યાખ્યાન શરૂ કરવામાં આવે છે, તેમાં પ્રાણાતિપાતવિ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ HavennaAmarAAMTAARArnm ~ अध्ययन ४ सू. ७ दण्डपरित्यागस्य सामान्यविशेषभावः वर्ति-वृति (वाड़) वत्तत्परिपालनार्थता तदङ्गत्वात्, तथाचोक्तम् "अहिंसैका मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । अस्याः संरक्षणार्थ च, न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥१॥" अन्यच्च''आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवल , मुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥२॥" किञ्च --- "एग चिय इत्थ वयं, निदिदं जिणवरेहि । पाणाइवायविरमण,-मवसेसा तस्स रक्खट्टा ॥३॥ सू० ७॥ अतश्चादौ प्राणातिपातविरमणाख्यं प्रथमं महाव्रतमाह-'पढमे० ' इत्यादि। मूलम्-पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवायाआ वेरमणं, सव्वं भंते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि, से सहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेव प्रधान है, जैसे धान्यको रक्षा के लिए खेत के चारों ओर वाड़ होती है, उसी प्रकार अन्य महाव्रत अहिंसाके रक्षक होनेसे अंग हैं । कहा भी है - "स्वर्ग और मोक्षको सिद्ध करनेवाली एक अहिंसा ही मुख्य है इसीको रक्षाके लिए सत्यादि महाव्रतोंका पालन करना उचित है।" ॥१॥ और भी कहा है-- "असत्य-वचन बोलने आदिसे भी आत्माके परिणामों की हिंसा होती है, अतः असत्य आदि सभी हिंसारूप है। असत्य आदिका अलग कथन शिष्यों को स्पष्ट समझाने के लिये किया गया है ॥२॥" तथा-- 'भगवानने एक प्राणातिपातविरमणको हो मुख्य कहा है अन्य बत उसीकी रक्षाके लिए हैं ॥३॥" રમણરૂપ અહિંસા પ્રધાન છે. જેમ ધાન્યની રક્ષાને માટે ખેતરની ચારે બાજુએ વાડ હોય છે, તેમ અન્ય મહાવતે અહિં સાત રક્ષક હોવાને લીધે અંગરૂપ છે કહ્યું છે કે – “સ્વર્ગ અને મોક્ષને સિદ્ધ કરવાવાળો એક અહિંસા જ મુખ્ય છે. તેની રક્ષાને માટે सत्या मानतानु । ४२ यित छे.” (१.) वजी छ - અસત્ય વચન બેલવા વગેરેથી પણ આત્માના પરિણામેની હિંસા થાય છે, તેથી અસત્ય આદિ બધાં હિંસારૂપ છે. અસત્ય આદિનું જૂહું કથન શિષ્યોને સપષ્ટ સરજાવવાને भारे ४२पामा साव्यु छे.” (२) तथा ભગવાને એક પ્રાણાતિપાત વિરમણને જ મુખ્ય કહ્યું છે. અન્ય વ્ર તેની રક્ષાને भाट छ.” (3) २४ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ श्रीदशवैकालिकसूत्रे सयं पाणे अइवाइज्जा नेवन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा पाणे अइवायंअन्नेन समजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणा मि, तस्स भंते! पक्कि मामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पढमे भंते ! महत्वए उवडिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं ॥ ८ ॥ छाया - प्रथमे भदन्त ! महात्रते प्राणातिपाता द्विरभगं, सर्व मदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि, अथ सूक्ष्मं वा बादरं वा स्थावरं वा नैव स्वयं प्राणानतिपातयामि, नैवान्यैः प्राणानतिपातयामि, प्राणानतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवया त्रिविधं - त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, तस्माद भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि, प्रथमे मथन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणम् ॥ शिष्य षट्का की विराधना का त्याग करके अब पाँच महाव्रत और छठे रात्रि भोजविरामणव्रतको ग्रहण करता है (१) प्राणातिपात विरमण. = सान्वयार्थ:- भंते ! हे भदन्त ! - हे भगवन् ! पढमे = प्रथम महव्वर = महाव्रतमें पाणाइवायाओ = प्राणातिपात से वेरमणं = विरमण होता है, (अतः मैं) भंते ! - हे भगवन् ! सव्वं = = सब प्रकारके पाणाइवायं = प्राणातिपात ( हिंसा) का पच्चक्खामि = त्याग करता हूँ । से अथ अब से लेकर (मैं) मुहुमं = सूक्ष्म वा = अथवा बायरं = बादर वा = अथवा तसं = त्रस वा = अथवा थावरं = स्थावर पाणे = प्राणियोंका सयं = स्वयं-खुद नेव नहीं अइवाइज्जा = अतिपात - हनन करूँगा, नेव = न अन्नेहि = दूसरोंसे पाणे = प्रणियोंको अइवायाविज्जा - हनन कराऊंगा, (और) पाणे = प्राणियोंको अइवायंतेवि = हनन करते हुए भी अन्ने = दूसरोंको न नहीं समणुजाणिज्जा = भला जानूँगा, जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको ) ति विहं कृतकारितअनुमोदनारूप तीन करण से (तथा) तिबिहेणं = तीन प्रकार के मणेणं - मनसे वायाए - वचनसे कारणं कायसे न करेमि न करूँगा, न कारवेमि = न कराऊँगा, करंतंपि = करते हुए भी अन्नं-दूसरे को न समणुजाणामि-भला नहीं समझुंगा | मंते ! = हे भगवन् ! तस्स = उसदण्ड से पडिक्कमामि पृथक् होता हूँ, निंदामि - आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ, गरिहामि = गुरुसाक्षी से गर्दा करता हूँ, अप्पाणं = दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूँ । भंते = हे भगवन् ! पढमे प्रथम महन्त्रए - महाव्रत में मैं उवद्विओम उपस्थित हुआ हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ - सब प्रकारके पाणाइवायाओ = प्राणातिपातका वेरमणं त्याग है ॥८॥ (१) = = શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू, ८ (१)प्राणातिपातविरमणस्वरूपम् (१) प्राणातिपात-विरमणवतम् । टीका- भदन्त ! हे भगवन्!प्रथमे आद्य महाव्रते-महत्-विशालं व्रतं शास्त्रीयमर्यादानुसरणम् , महच्च तद् व्रतं च महाव्रतम् , महत्त्वं चास्य श्रावकाणुव्रतापेक्षया, द्रव्यक्षेत्र-काल-भावतः सर्वव्यापकत्वेन, महद्भिस्तीर्थकरगणधरादिभिराचरितत्वेन' महापुरुषाचर्यमाणत्वेन चास्ति, तस्मिन् , प्राणातिपातात् प्राणः स्पर्शनेन्द्रियादयः सन्त्येषामिति प्राणा:-एकेन्द्रियादयो जीवाः (अर्श आदित्वादच्) तेषामतिपातो-वियोजनं हिंसनमित्यर्थः, तस्माद् विरमण निवर्तनम् 'अस्ती 'ति शेषः, अतोऽहं भदन्त ! हे भगवन् ! सर्व-स्थूलसूक्ष्मादियावद्धदविशिष्टं कृतकारिताऽनुमोदितस्वरूपं वा प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि-प्रति-पातिकूल्येन आख्यामिकथयामि सर्वथा परित्यजामोति भावः, तदेव विशेषयति-"से० ' इति, से=अथ अनन्तरम् अद्यारभ्य सूक्ष्म-सूक्ष्मनामकर्मप्रकृत्युदयसंपन्नम् । यद्यप्यस्य कायिकी हिंसा न भवति तथाऽपि तद्ग्रहणं 'न केवलं कायिक्येव हिंसा किन्तु वाङ्मनसयोदुष्प्रणिधानेनापि हिंसा संभवत्येवेति ज्ञापनार्थम् । यद्वा सूक्ष्म लघुकायिक इसलिये पहले-पहल प्राणातिपात-विरमण महाव्रतका कथन करते हैं- “पढमे भंते० " इत्यादि । (१) प्राणातिपातविरमण । ये श्रावकके व्रतोंकी अपेक्षा विशाल होनेसे महाव्रत कहलाते हैं (१), अथवा सर्व-द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावकी अपेक्षा प्राणातिपात आदिका सर्वथा त्याग होता है इस कारण महाव्रत कहलाते हैं (२) या तीर्थंकर गणधर आदि महापुरुषोंने इनको अंगीकार किया है और वर्तमानमें भी महापुरुष इनको अंगीकार करते हैं इससे ये महाव्रत कहलाते हैं (३)। हे भगवन् ! प्रथम महाव्रतमें प्राणातिपातसे विरमण होता है इसलिए हे भगवन् ! मैं कृत कारित-अनुमोदनासे सूक्ष्म-स्थूल सब प्रकारके प्राणातिपातका परित्याग करता हूं । अर्थात् सूक्ष्म तथा ४शन सीधी ५i प्रातिपात-वि२भए मानतनुं ४थन ४२ छे-पढ़मे भते त्यादि. (१) प्रातिपातविरमण એ શ્રાવકનાં વતની અપેક્ષાએ વિશાળ હેવાને લીધે મહાવત કહેવાય છે. (૧) અથવા સર્વ દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવની અપેક્ષાએ પ્રાણાતિપાત આદિને સર્વથા ત્યાગ થાય છે એ કારણે તે મહાવ્રત કહેવાય છે. (૨). અથવા તીથર્ષકર ગણધર આદિ મહાપુરૂષો એને અંગી१२ ४२ छ तेथी से महाव्रत ४वाय छे. (3). હે ભગવન ! પ્રથમ મહાવ્રતમાં પ્રાણાતિપાતથી વિરમણ હોય છે, તેથી, હે ભગવન! હું કૃત-કારિત-અનુ મેદનાથી સૂક્ષ્મ સ્થલ સર્વ પ્રકારના પ્રાણાતિપાતને પરિત્યાગ કરું છું, અર્થાત સૂફમ-નામકર્મની પ્રકૃતિથી ઉત્પન્ન સૂરમ અથવા સૂકમ કાયવાળા કુંથવા આદિ १ देशीशब्दोऽयम् । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ___ श्रीदशवकालिकसूत्रे कुन्थ्वादिकम् , बादरं स्थूलकायिकं गोगजादिकम् , अनयोरपि त्रस-स्थावरभेदाद्वैवि ध्यं,तदाह-त्रसं स्थावरं च, तत्र सूक्ष्मत्रसं-कुन्थ्वादिकम् , सूक्ष्मस्थावरं पनकादिवनस्पतिम् , बादरत्रसमअज-गज-गवयादिकम् , बादरस्थावरं भूम्यादिकम् , इतोमान् प्राणान्= जोवान् नैवस्वयम् आत्मना अतिपातयामि-हन्मि'नैवान्यैः प्राणानतिपातयामि घातयामि, प्राणानतिपातयतोऽन्यान् न समनुजानामि,इत्यादि प्राग्वत् ।। सम्प्रति शिष्यः स्वस्य महाबतित्वं ख्यापयन्नुपसंहरति-हे भगवन् ! प्रथमे महाव्रते उपस्थितोऽस्मि अभ्युद्यतोऽस्मि कृतोद्यमोऽस्मोत्यर्थः । अतोऽद्यप्रभृति मम सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणं सकलप्राणातिपातालम्बनसावधव्यापारप्रत्याख्यानम् 'अस्ती' -ति शेषः ॥ ८॥ (१) सलिलेन तरुगुल्मलतादीनामिव प्राणातिपातविरमणस्य परिपुष्टिमषावादपरित्यागेन नामकर्मकी प्रकृतिसे उत्पन्न सूक्ष्म अथवा सूक्ष्म कायवाले कुंथवा आदि और बादर (स्थूल) कायवाले गो-हस्ती आदि जीवोंके प्राणों का कभी अतिपात नहीं करूँगा । यद्यपि सूक्ष्म नामकर्मकी प्रकृतिवाले सूक्ष्म प्राणियोंकी कायिक हिंसा नहीं होती परन्तु वचन और मनसे हो सकती है, जैसे-'यह मर जाय तो अच्छा है। ऐसा कहना वचनसे हिंसा है, और घातकी भावना करना मनसे हिंसा है, इसलिए सूक्ष्मका भी यहाँ ग्रहण किया है । सूक्ष्म और बादरके भी दो दो भेद हैं-(१) त्रस ओर (२) स्थावर । सूक्ष्म-त्रस कुंथवा आदि हैं, सूक्ष्म स्थावर पनक आदि वनस्पति ( नीलण-फूलण ) हैं । बादर-त्रस मेंढा घोड़ा रोझ आदि । और बादर-स्थावर भूमि आदि हैं। इन सब प्राणियोंको कभी प्राणोंसे वियुक्त नहीं करूंगा, न दूसरेसे कराऊंगा न करनेवालेको भला जानूंगा । हे भगवन् ! मैं प्रथम महाव्रतको पालनेके लिये उद्यत हुआ हूँ, इसलिए आजसे मुझे समस्त प्रकारके प्राणातिपातका प्रत्याख्यान है (१) ॥८॥ जैसे वृक्ष-लता आदि पानोसे पुष्ट होते हैं वैसेहो मृषावादका त्याग करनेसे प्राणातिपातविઅને બાદર (સ્કૂલ) કાયવાળા ગાય હાથી આદિ અને પ્રાણેને કદાપિ અતિપાત નહિ કરૂં, જે કે સૂમિ-નામકર્મની પ્રકૃતિવાળા સૂમ પ્રાણીઓની કાયિક હિંસા થતી નથી. તેપણ વચન અને મનથી થઈ શકે છે; જેમકે-“એ મરી જાય તો સારૂં” એમ કહેવું તે વચનથી હિંસા છે, અને ઘાતની ભાવના કરવી એ મનથી હિંસા છે, તેથી કરીને સૂક્રમને पण मी अड ४२ छ. सूक्ष्म अने माना ५६५ मे -2 से छे. (१) स, सर (२) સ્થાવર, સૂમ ત્રસ કુંથુરા આદિ છે. સૂક્ષ્મ સ્થાવર લીલન-ફૂલન આદિ વનસ્પતિ છે, બાદર ત્રસ–મેંઢાં ઘાડા રોઝ વગેરે છે અને બાદર સ્થાવર -ભૂમિ આદિ છે. એ સર્વ પ્રાણીઓને કદાપિ પ્રાણુથી વિમુક્ત કરીશ નહીં', બીજા વડે કરાવીશ નહીં અને કરનારને ભલે જાણશ નહીં. હે ભગવન ! હું પ્રથમ મહાવ્રત પાળવા માટે ઉઘત થ છું, તેથી આજથી મારે सया प्रारना प्रायतियातन प्रत्याभ्यान छे. (१) (८) જેમ વૃક્ષ-લતા આદિ પાણીથી પુષ્ટ થાય છે તેમ મૃષાવાદને ત્યાગ કરવાથી પ્રાણ. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० ९ (२) मृषावादविरमणस्वरूपम् भवतीत्यतस्तदनन्तरं मृषावादपरित्यागलक्षणं द्वितीयं महाव्रतमाह- 'अहावरे दोच्चे' इत्यादि। मूलम्-अहावरे दोच्चे भंते ! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं. सव्वं भंते ! मुसावायं पच्चक्खामि से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं वइज्जा नेवन्नेहिं मुसं वायाविज्जा मुसं वयंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा! जावज्जीवाए तिविहं तिविहणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समुणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । दोच्चे भंते । महब्बए उढिओमि सबाओ मुसावायाओ वेरमण ॥९॥ छाया-अथापरे द्वितीये भदन्त ! महावते मृषावादाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! मृषावाद प्रत्याख्यामि, अथ क्रोधाद्वा लोभाद्वा भयाद्वा हासाद्वा नैव स्वयं मृपा वदामि नैवान्यमषा वादयामि, मृषा वदतोऽप्यन्यान् न समनु नानामि । यावज्जोवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि । द्वितीये भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि (अतः) सर्वस्मात् मृषावादाद्विरमणम् ॥ ९॥ (२) मृषावादविरमण. सान्वयार्थः-भंते ! हे भगवन् ! अहावरे-इसके बाद दोच्चे-दूसरे महव्वए-महाव्रतमें मुसावायाओ-मृषावादसे वेरमणं-विरमण होता है (अतः में ) भंते ! हे भगवन् ! सव्वं सब प्रकारके मुसावायं-मृषावादका पञ्चक्खामि-त्याग करता हूं। से=अथ-अब से लेकर मैं कोहा वा क्रोध से लोहावा लोभ से भयावा भय से हासावा हास्यसे सयं= खुद मुसावायं-असत्य नेव-नहों वइज्जा=बोलूंगा, नेवन अन्नेहि दूसरों से मुसं=अस. त्य वायाविज्जा=बोलाऊंगा, मुसं असत्य वयंतेवि-बोलते हुए भी अन्ने-दूसरों को न समणुजाणिज्जा भला नहीं जानूंगा । जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहंकृत कारित-अनुमोदनारूप तोन कारणसे (तथा) तिविहेणं तीन प्रकारके मणेणं मनसे वायाएवचन से काएणं-कायसे न करेमि=न करूंगा, न कारवेमि-न कराऊंगा, करंतंपि =करते हुए भी अन्न-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा, । भंते ! हे भगवन तस्स-उस दण्ड से पडिक्कमामि-पृथक् होता हूं, निंदामि-आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूं, गरिहामिगुरु साक्षी से गर्दा करता हूं, अप्पाणंदण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूं, भंते ! हे भगवन् ! दोच्चे दुसरे महव्वए=महाव्रतमें उवडिओमिउपस्थित हुवा हूं, इसलिये मुझे सव्वाओ=सब प्रकारके मुसावायाभो असत्य से वेरमणं-त्याग है ॥९॥ (२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे (२) मृषावादविरमणव्रतम् ।। टीका-अथ प्रथममहाव्रतानन्तरं हे भदन्त ! हे भगवन् ! अपरे-समनन्तरोदीरितमहात्रतापेक्षया भिन्ने द्वितीये महाव्रते मृषावादात-मिथ्याभाषणात् 'विरमण'मित्यनेन सम्बन्धो वक्ष्यते । मृषावादो हि सद्भावप्रतिषेधा-ऽभूतोद्भावना-ऽर्थान्तराभिधान-गतिभेदैश्चतुर्विधः, तत्र सद्भावप्रतिषेधः-जीवाजोवादिपदार्थसत्तानिराकरणम्, यथा-'नास्त्यात्मा परलोकः, पुण्यपापादिकं, चेति (१)। अभूतोद्भावनम् -जीवाजीवादितत्त्वानामतद्रूपत्वेन प्रतिपादनम्, यथा-"आत्माऽयमङ्गुष्ठमात्रो, निष्क्रियः, सर्वगतो वेत्यादि (२) । अर्थान्तराभिधानम्-प्रसिद्धपदार्थस्य पदार्थान्तरत्वेन कथनम्, यथा-गोगर्दभत्वेन, गर्दभस्य गोत्वेनाभिधानम् (३) । गर्दा-गर्हितं-हीनतापदर्शनम्, यद्वा हिंसापारुष्यादियुक्तं सत्यमपि वचः, यथा='अयं हन्तव्यः' इत्यादि, 'एहि अन्ध !, आयाहि बधिर !, आगच्छ पङ्गो !, इत्यादि च (४) इमेऽपि (चत्वारो भेदाः) प्रत्येकं चतुर्धा-द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव-भेदात् । रमण महाव्रत की पुष्टि होती है, अतः प्राणातिपातविरमणके बाद दूसरे मृषावादविरमण महाव्रतका व्याख्यान करते हैं-'अहावरे दोच्चे.' इत्यादि । (२) मृषावादविरमणव्रत । हे भगवन् ! प्रथम महाव्रतके अनन्तर दूसरे महाव्रतमें मृषावादसे विरमण होता है । मृषावाद चार प्रकारका है-(१) सद्भावप्रतिषेध, (२) अभूतोद्भावन, (३) अर्थान्तराभिधान, (४) गर्दा । जीव अजीव आदि पदार्थोंके अस्तित्वका निराकरण करना सदभावप्रतिषेध मृषावाद है, जैसे-'आत्मा नहीं, परलोक नहीं, पुण्य नहीं, पाप नहीं' इत्यादि (१) । जीव अजीव आदि तत्त्वोंका अयथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करना अभूतोदभावन मृषावाद है, जैसे-आत्मा अंगूठेके बराबर है, निष्क्रिय है या सर्वगत है' (२) एक पदार्थ को दूसरा पदार्थ कह देना अर्थान्तराभिधान मृषावाद है जैसे-'गायको गधा बताना, या गधेको गाय कहना' (३)। दूसरेकी हीनता प्रकट करना તિપાત વિરમણ મહાવ્રતની પુષ્ટિ થાય છે. એટલે પ્રાણાતિપાતવિરમણની પછી બીજા મૃષાવાविरम मात्र तनु व्यायान ४२ छ-अहावरे दोच्चे० त्याहि. (२) मृषावाहविरभद्रत. હે ભગવન પ્રથમ મહાવ્રતની પછી બીજા મહાવ્રતમાં મૃષાવાદથી વિરમણ હોય છે. भृषावाह यार मरने छे. ते माप्रमाणे-(१) समाप्रतिषेध, (२) भभूतालावन (3) અર્થાતરાભિધાન, (૪) ગહ..જીઅજીર આદિ પદાર્થોના અસ્તિત્વનું નિરાકરણ કરવું એ સદૂભાવ પ્રતિષેધ મૃષાવાદ છે, જેમકે-આત્મા નથી, પરક નથી, પુય નથી. પાપ નથી, ઈત્યાદિ. (૧) જીવ અજીવ આદિ તત્વોનું યથાર્થ સ્વરૂપ પ્રતિપાદન કરવું એ અભૂતદૂભાવન भषापा, रेम-मात्मा भी 2432, निलय छ या सात छे.' (२) महान બીજે પદાર્થ કહી દે એ અર્થાન્તરાભિધાન મૃષાવાદ છે, જેમકે “ગાયને ગધેડો કહે યા ગધેડાને ગાય કહેવી.” (૩) બીજાની હીનતા પ્રકટ કરવી, અથવા હિંસા તથા કઠોરતા-યુક્ત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० १ (२) मृषावादबिरमणस्वरूपम् 1 1 तत्र द्रव्यविषयक सद्भावप्रतिषेधः- धर्माधर्मादिषद्रव्याणामन्यथा प्ररूपणम् । क्षेत्रविषयसद्भावप्रतिषेधः-लोकालोकयोरन्यथा निरूपणम् । कालविषयक सद्भाव प्रतिषेधः क्षणमुहूर्त - दिवसादि स्वरूपाणामन्यथानिरूपणम् । भावविषयक सद्भावप्रतिषेधः - रागद्वेषादीनामन्यथा प्रतिपादनम् । एवमेवाऽभूतोद्भावना दित्रयेऽपि द्रव्यादिचर्तुभङ्गी योजनीया । तस्माद्विरमणमिति । हे भगवन् ! सर्वे- समस्तं मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववद्बोद्धव्यम् । तदेव विशदयति- 'से' - इति, अथ - अनन्तरम् - अधारभ्य-क्रोधात् - क्रोधः- आत्मनः ataमोहनप्रत्युदयेन स्वपरचित्तविकृतिजनको निरनुकम्पक्रौर्यवैभाविकपरिणामविशेषस्तस्मात् । लोभात्-लोभः - लोभप्रकृत्युदयवशाद्द्रव्याद्यभिलाषलक्षणो जीवस्य वैभाविकअथवा हिंसा और कठोरतायुक्त सत्य वचन कहना गर्हारूप असत्य है, जैसे - यह मार डालने योग्य है, ओ अंधे ! इधर आ, ओ बहिरे ! या लंगडे ! यहाँ आ' इत्यादि (४) १९१ इन चार प्रकारके मृषावादोंके भी द्रव्य क्षेत्र काल भावके भेदसे चार चार भेद होते हैं । धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्याँके स्वरूपको अन्यथा प्ररूपणा करना द्रव्य - सद्भवप्रतिषेध है । लोक और अलोकका अयथार्थ निरूपण करना क्षेत्र - सद्भावप्रतिषेध है | क्षण मूहूर्त दिन आदिके स्वरूपका मिथ्या कथन करना काल - सद्भावप्रतिषेध है । रागद्वेष आदि भावों का विपरीत स्वरूप बताना भावसद्भावप्रतिषेध है । इसी प्रकार अन्य तीन भेदों की चतुर्भगी समझ लेनी चाहिये, जैसे- द्रव्य अभूतोद्भावन, क्षेत्र अभूतोद्भावन, इत्यादि । हे भगवन् ! मैं सब प्रकारके मृषावादका प्रत्याख्यान करता हूँ । मृषावाद किस किस कारणसे होता है ? सो कहते हैं- जीवके क्रोध - मोहनीय प्रकृति के उदयसे स्व-परके चित्तमें विकार करनेवाला अनुकम्पा - रहित क्रूरतारूप वैभाविक परिणाम क्रोध है ! સત્યવચન કહેવાં એ ગહારૂપ અસત્ય છે, જેમકે- એ મારી નાંખવા ચેાગ્ય છે; આ આષળા ! अहीं भाव. थे। मडेरा ! थे। सांगडा ! यहीं भाव' त्याहि (४) એ ચાર પ્રકારના મૃષાવાદના પણ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ ભાવના ભેદે કરીને ચાર ચાર ભેદ થાય છે. ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય આદિ છ દ્રબ્યાના સ્વરૂપની અન્યથા પ્રરૂપણા કરવી એ દ્ર-સદ્ભાવપ્રતિષેધ છે લેાક અને લેાકનું અયથા નિરૂપણ કરવું એ ક્ષેત્ર-સદ્ભાવ પ્રતિષેધ છે, ક્ષણુ મુહૂત દિન આદિના સ્વરૂપનું મિથ્યા કથન કરવુ એ કાળ-સદ્ભાવપ્રતિષેધ છે. રાગ દ્વેષ આદિ ભાવાનું વિપરીત સ્વરૂપ બતાવવુ એ ભાવ-સદૂભાવપ્રતિષેધ છે. એ પ્રકારે અન્ય ત્રણ ભેદેોની ચતુભ`ગી સમજી લેવી; જેમકે-દ્રવ્ય-અભૂમાવન. ક્ષેત્રઅમ્રુતદ્ लावन त्यिाहि. ભગવન્ હું સર્વ પ્રકારના મૃષાવાદના પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું... મૃષાવાદ કયા ક્યા કારણથી થાય છે ! તે હવે કહે છે— જીવના ક્રોધ-માહનીય પ્રકૃતિના ઉદ્ભયથી સ્વ-પરના ચિત્તમાં વિકાર કરવાવાળા અનુક પારહિત ક્રૂરતારૂપ જીવના વૈભાવિક-પરિણામ એ ક્રોધ છે, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे परिणामस्तस्मात् । भयात्-भयं-भयमोहनीयप्रक्रत्युदयेनोद्वेगाऽऽवेदको विकारविशेषस्तस्मात् हासात्-हास:-हास्यमोहनोयप्रकृत्युदयेन वागादिविकृत्या कपोलयुगलोल्लासनलोचनसंकोचन-दशनप्रकाशन-सहकृतसशब्दप्राय-वदनव्यादानादिलक्षणश्चेतो विकाशस्तस्मात् । नैव स्वयं मृषा-मिथ्या वदामि, नैवान्म॒षा वादयामि, मृपा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्यादि पूर्ववत् ॥ ९ ॥ (२) सत्यपरिपालनं चाऽदत्तादान-(चौर्य)-परित्यागपूर्वकं कत्तु सुशकमिति तदनन्तरमदत्तादानविरमणसञकं तृतीयं महाव्रतमाह-'अहावरे तच्चे ' इत्यादि। मूलम्-अहावरे तच्चे भंते ! महब्बए अदिन्नादाणाओ वेरमण, सव्वं भंते ? आदिन्नादाणं पच्चक्खामि से गामे वा नगरे वा रन्ने वा अप्पं वा बहु वा अणुं वा थूल वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिहिज्जा नेवन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविज्जा अदि नं गिण्हंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं ति विहेणं मणेणं वायाए कारण न करेमि, न कारवेमि,करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ? पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वासिरामि । तच्चे भंत !महव्वए उवढिओभि सयाओ अ दिन्नादाणाओ वेरमणं ॥१०॥ लोभ प्रकृतिके उदयसे द्रव्य आदिको अभिलाषारूप जीवके वैभाविक भावको लोभ कहते हैं, भय-मोहनीयके उदयसे उद्वेगको उत्पन्न करनेवाला विकार भय कहलाता है। हास्य-मोहनीयके उदयसे वचनों की विकृतिके साथ गाल फुलाकर आँखे कुछ २ मूंदकर दाँत निकालकर 'ही-ही' शब्द करके मुखको प्रफुल्लित करना हास्य कहलाता है । इन सब कारणोंसे मृषावाद होता है । मैं इन कारणोंके वश होकर न स्वयं मृषा बोलूंगा, न दूसरोंसे बोलाऊँगा, न किसी मृषा बोलते हुएका भला जानूँगा (२) ॥९॥ લભ-પ્રકૃતિના ઉદયે કરીને દ્રવ્ય આદિની અભિલાષારૂપ જીવના વૈભાવિકભાવને લેભ કહે છે. ભય-મોહનીયના ઉદયથી ઉદ્વેગને ઉત્પન્ન કરવાવાળો વિકાર ભય કહેવાય છે. હાસ્ય – મેહનીયન ઉદયથી વચનની વિકૃતિની સાથે ગાલ ફુલાવીને આંખે કાંઈક મીંચીને દાંત કાઢીને “હી–હી’ શબ્દ કરીને મુખને પ્રકુલિત કરવું એ હાસ્ય કહેવાય છે. એ સર્વ કારણથી મૃષાવાદ ઉત્પન્ન થાય છે. હું એ કારણેને વશ થઈને નહીં સ્વયં भूषा (पू) मा, नही भी पासे घायु, ३ नही भृषा शासनाने मा . (२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० १० (२) अदत्तादानविरमणव्रतम् छाया-अथापरे तृतीये भदन्त ! महाव्रतेऽदत्तादानाद्विरमण, सर्व भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, अथ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा बहु वा अणु वा स्थूलं वा चित्तवद्वा अचित्तवद्वा नैव स्वयमदत्तं गृहामि नेवान्यैरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्मात् भदन्त ! प्रतिक्रामामि गहें आत्मानं व्युसृजामि । तृतीये भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माददत्तादानाद्विरमणम् ॥१८॥ (३) अदत्तादानविरमण.. ___ सान्वयार्थः-भंते ! हे भगवन् ! अहावरे इसके बाद तच्चे-तीसरे महव्वए= महाव्रतमें अदिन्नादाणाओ-अदत्तादानसे वेरमण-विरमण होता है (अतः मैं) भंते ! हे भगवन् ! सव्वं-सब प्रकार के अदिन्नादाणं-अदत्तादान (चोरी) का पच्चक्खामि-प्रत्याख्यान करता हूँ से-अथ-अब से लेकर मैं-गामे वा-ग्राममें नयरे वा नगरमें रणे वा= अरण्यमें अप्पं वा अल्प-थोड़ा बहुं वा बहुत-घणा अणुंवा-सूक्ष्म-छोटा थूलं वा स्थूल-मोटा चित्तमंत वा-सचेतन अचित्तमंतं वा अचेतन (आदि किसी भी) अदिन्नं विना दिये हुए पदार्थको सयं-स्वयं नेव-नहीं गिण्हिज्जा-ग्रहण करूंगा, नेवन्नेहि न दूसरोंसे अदिन्नंविना दिया हुआ गिण्हाविज्जा ग्रहण कराऊँगा, अदिन्नं विना दिये हुए पदाथ को गिण्हं तेविग्रहण करते हुए भा अन्ने-दूसरे को न समणुजाणामि-भला नहीं जानूंगा, जावज्जीवाए-जीवनपयन्त (इसको) तिविहं-कृत-कारित-अनुमोदनारूप तीन कारणसे (तथा) तिविहेणं = तीन प्रकारसे मणेणं मनसे वायाए = वचनसे कारणं = कायसे न करेमि = न करूंगा, न कारवेमि = न कराऊँगा, कर प= करते हुए भी अन्नं = दूसरे को न समणुजाणामि = भला नहीं समझूगा । भंते ! हे भगवन् ! तस्स = उस दण्डसे पडि कमामि = प्रथक होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि = गुरुसाक्षी से गर्दा करता हूँ, अप्पाणं = दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि = त्यागता हूँ। भंते != हे भगवन् ? तच्चे = तीसरे = महव्वए = महाव्रतमें उवडिओमि = उपस्थित हुआ हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ=सव अदिनादाणाओ= अदत्तादानसे वेरमणं = विरमणं-त्याग है ॥१०॥ (३) अदत्तादानविरामणव्रतम् टीका-हे भगवन् ! अथ = मृषावाद विरमणानन्तरम् अपरे = तृतीये महाव्रते अदत्तादानात् = न दत्तमदत्त = देवगुरु भूपगाथापतिसाधर्मिकैरननुज्ञातं तस्याऽऽदानं = ग्रहणमदत्तादानं तस्मा द्विरमणम्, सर्व भगवान् ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, एतत्तु व्याख्यातपूर्वम् । तदेव विशदयति-'से'-इति, अथ = अनन्तरम्-अधारभ्य-ग्रामे = ग्रस्यन्ते = अद्यन्ते = विनाश्यन्ते बुद्धिविद्याविवेकादयो गुणा यत्र स इति, गम्यो गोमहिषादीनां करैरिति वा ग्रामः (सिद्धिः पृषोदरादित्वात् ) कृषिप्रचुरभूभागो, हट्टादिशून्यवसतिः, कण्टकमय શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्रीदशवैकालिकसूत्रे वृत्तिपरिवेष्टितगृहसमूहसम्पन्नो वा तस्मिन् । नगरे = न गच्छन्तीति नगाः = वृक्षाः पर्वताश्च त इव समुन्नताः प्रासादादयो यस्मिंस्तन्नगरम्, ('नग- पांसु पाण्डुभ्यश्चे' - ति वार्तिकेन नगशब्दाद्रः ) नकरमितिच्छायापक्षे तु न विद्यते गोमहिषादीनामष्टादशविधः करः = १९४ सत्य महाव्रतका पालन अदत्तादानका त्याग करनेसे ही हो सकता है, इस कारण सत्य महाव्रतके पश्चात् अदत्तादानविरमण नामक तीसरे महाव्रतका कथन करते हैं-' अहावरे तच्चे' इत्यादि । (३) अदत्तादानविरमण । मृषावादविरमणके बाद तीसरे महाव्रतमें देव गुरु राजा गाथापति और साधर्मिक के द्वारा न दिये हुए पदार्थके ग्रहणका त्याग किया जाता है, इसलिए हे भगवन् ! मै सर्व अदत्तादानका परित्याग करता हूँ । वह इस प्रकार -- 9 जहाँ रहने से बुद्धि, विद्या, विवेक आदि गुण नष्ट हो जाते हैं उसे ग्राम कहते हैं । अथवा पृथ्वीके अधिक भागमें कृषि होती हो, बाजार या दुकानें हों, काँटोंकी बाइसे घिरे हुए घर हों उस वस्तीको ग्राम (गाँव) कहते हैं । जहाँ वृक्ष तथा पर्वतकी तरह अत्यन्त उन्नत महल- हवेलियाँ हों अथवा गो महिष आदि पर कर ( जकात ) न लगता हो, अथवा जिस वस्तीमें पुण्य-पाप क्रियाओंके ज्ञाता, दया दानके प्रवर्तक, कलाओं में कुशल चारों वर्ण हों, और जहाँ नाना देशकी भाषा बोलनेवाले मनुष्य रहते हों उसे नगर कहते हैं । સત્ય મહાવ્રતનું પાલન અદત્તાદાનના ત્યાગ કરવાથી જ થઈ શકે છે, તે કારણથી સત્ય મહાવ્રતની પછી અદત્તાદાનनि-विरभणु नामना भील महाव्रतनुं स्थन ४२ छे - अहावरे तच्चे छत्यादि. (3) अहत्ताहानविरभा મૃષાવાવિરમણની પછી ત્રીજા મહાવ્રતમાં દેવ ગુરૂ, રાજા, ગાથાપતિ અને સાધર્મિકે ન આપેલા એવા પદાર્થ નું ગ્રહણ કરવાના ત્યાગ કરવામાં આવે છે, તેથી હું ભગવન્ ! હું સવ અદત્તાદાનના પરિત્યાગ કરૂ છું. તે આ પ્રકારે— જ્યાં રહેવાથી બુદ્ધિ, વિદ્યા, વિવેકાદિ ગુણ્ણા નષ્ટ થઈ જાય છે તેને ગ્રામ કહે છે. અથવા જ્યાં ગાય ભેČશ આદિના કર (ટેકસ) લેવામાં આવે છે, અથવા પૃથ્વીના વધારે ભાગમાં ખેતી થાય છે, બજાર અથવા દુકાને હેાય નહીં, કાંટાની વાડથી ઘેરાયેલાં ઘર હાય. थे वस्तीने ग्राम (शाम) उडे छे. જ્યાં વૃક્ષ કે પર્યંત જેવી અત્યંત ઉંચી મહેલ-હવેલીએ હાય, અથવા ગાય-ભેશ આદિ પર કર (જકાતા ન લાગતા હાય, અથવા જે વસ્તીમાં પુણ્ય-પાપ ક્રિયાઓના જ્ઞાતા, દયા—દાનના પ્રવર્તક, કળાયેામાં કુશળ ચારે વાં હોય, અને જ્યાં જૂદા જૂદા દેશેાની ભાષાએ ખેલનારા મનુષ્ય રહેતા હોય, તેને નગર કહે છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४. सू० १० (३) अदत्तादानविरमणव्रतम् १९५ रापग्राह्यभागः (जकात) यत्र तत् । यद्वा "पुण्यपापक्रियाविझै,-र्दयादानप्रवर्त्तकैः। __ कलाकलापकुशलैः, सर्ववर्णैः समाकुलम् ॥ भाषाभिर्विविधाभिश्च, युक्तं 'नगर'-मुच्यते ॥" इत्युक्तलक्षणं तस्मिन् ।अरण्ये = अर्यते-गम्यते एकान्तविविक्तदेशप्रियैर्ध्यानार्थिभिः, काष्ठ। द्याहत्तु काष्ठहारकैःत्यरण्यं तस्मिन् , उपलक्षणात्खेट कादौ । एतेषां मध्ये कस्मिंश्चिदपि स्थले अल्पं = मूल्यतो न्यूनं दन्तादिपरिशोधनार्थं तृणादिकम् , बहु = अधिकमूल्यकं सुवर्णादिकम् , अणु = प्रमाणतो लघु माणिक्यादिकम्, स्थूलम् = प्रमाणतो विशालमेरण्डकाष्ठादिकम् , चित्तवत् = सचेत्तनम् , अचित्तवत् = अचेतनं वा, एतत्सर्वम् एतदन्यतमं वा अदत्तं = तत्स्वामिना ग्रहणायाऽननुमतं नैव स्वयं गृह्णामि, नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्यादिकं सर्व व्याख्यातपूर्वम् । ननु सामान्येनाऽदत्ताऽदानस्य स्तेयत्वे प्रतिक्षणमनन्यदेवकर्माण्याददानस्य समितिगुप्तिप्रभृतिभिर्धर्म वा समुपार्जयतः साधोरदत्तादानापत्तिप्रसक्तिरिति चेन्न, एकान्त और पवित्र स्थानके अभिलाषी ध्यानार्थी योगी अथवा लकड़ी लाने के लिए लकड़हारे जहाँ जाते हैं वह अरण्य कहलाता है। इन ग्राम, नगर, अरण्य और उपलक्षसे खेटक (खेड़ा) आदि किसी स्थानमें कम मूल्यवाला-दाँत खुजानेका तिनका आदि, अधिक कीमतवाला--सुवर्ण अदि, प्रमाणको अपेक्षा अणुमाणिक्य आदि, प्रमाणकी अपेक्षा बड़ा-एरण्डकाष्ठ आदि, सचेतन अथवा अचेतन कोई पदार्थ या सब पदार्थ विना स्वामीकी अनुमतिके न स्वयं ग्रहण करूँगा, न दूसरोंसे ग्रहण कराऊँगा और न ग्रहण करनेवाले को भला जानूंगा। प्रश्न-हे गुरु महाराज ! विना दी हुई सब वस्तुओं को ग्रहण करना यदि अदत्तादान है तो मुनियों को भी अदत्तादानका प्रसंग आवेगा, क्योंकि मुनि विना दिये हुए कर्मीको प्रतिक्षण એકાન્ત અને પવિત્ર સ્થાનના અભિલાષી ધ્યાનાથી યોગી અથવા લાકડાં લેવાને માટે કઠિયારા જ્યાં જાય છે તે અરણ્ય (જંગલ) કહેવાય છે. એ ગામ નગર અરણ્ય અને ઉપલક્ષણે કરીને ખેટક (ગામડું) આદિ કોઈ સ્થાનમાં ઓછા મૂલ્યવાળું દાંત ખેતરવાનું તણખલું વગેરે વધારે મૂલ્યવાળું સેનું વગેરે પ્રમાણુની અપેક્ષાએ નાનું માણિજ્યાદિ પ્રમાણુની અપેક્ષાએ મેટું એરંડાનું લાકડું આદિ સચેતન અથવા અચેતન કેઈ પદાર્થ યા સર્વ પદાર્થ તેના સ્વામીની અનુમતિ વિના નહિ સ્વયં હું ગ્રહણ કરૂં નહિ બીજા પાસે ગ્રહણ કરાવું અને નહિ ગ્રવણ કરનારને ભલે જાણુ. જે પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ ! આપવામાં આવ્યા વિનાની બધી વસ્તુઓને ગ્રહણ કરવી એ જે અદત્તાદાન છે તે મુનિઓને પણ અદત્તાદાનનપ્રસંગ આવશે કારણ કે મુનિ વિના અપાયેલાં કર્મોને પ્રતિક્ષણ ગ્રહણ કરે છે અને સમિતિ ગુપ્તિનું પાલન કરીને ધર્મનું પણ उपान ४रे छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवैकालिकसूत्रे " लोकप्रसिद्धस्तादिकरणकदानाऽऽदानादिव्यवहारस्य कर्मादिष्वभावात् तथाहि लोके वस्त्रपात्रादिकमन्यस्मै हस्तेन दीयतेऽन्यस्माद्वाऽऽदीयते, इत्येवं दानाऽऽदानादिव्यवहारो दृश्यते तस्य न कर्मविषयकत्वं संभवति, तेषां सूक्ष्मत्वात् नहि सूक्ष्मं कर्मादिकं हस्तादिकरणग्रहण वितरणयोग्यतां भजते इति । १९६ धर्ममुपार्जयतश्चाऽप्रमत्तत्वात्तीर्थकराणां धर्मार्जनोपदेशाच्च न स्तेयप्रसङ्गः, अत एवाऽल्प- बहु-स्थूलाऽणुग्रहणं सूत्रे कृतमिति ॥ १० ॥ (३) ग्रहण करते हैं और समिति - गुप्तिका पालन करके धर्मका भी उपार्जन करते हैं । उत्तर - हे शिष्य ! ऐसा नहीं है हाथों से लेने-देनेका जैसा व्यवहार लोकमें प्रसिद्ध है वैसा कर्मोंमें नहीं हो सकता, आर्थात् लोकमें ऐसा व्यवहार होता है कि - वस्त्र पात्र दूसरों को हाथ से दिया जाता है, दूसरेसे लिया जाता है।' इस प्रकारका व्यवहार कमौके विषय में नहीं होता, क्योंकि कर्म अत्यन्त सूक्ष्म हैं, वे इन्द्रियके विषय भी नहीं होते तो उनका लेन देन कैसे हो सकता है ? दूसरी कात यह है कि प्रमादके योगसे अदत्त पदार्थका आदान ( ग्रहण) करना अदत्तादान कहलाता है, मुनिराजको तद्विषयक प्रमाद नहीं है इसलिए उन्हें अदत्तादानका दोष नहीं लगता । मुनिराज तो कभी नहीं चाहते कि हम कर्मोंको ग्रहण करें, किन्तु संसारी आत्मा और कर्मोंका स्वभाव ही ऐसा है कि जिससे कर्म बंध जाते हैं । रहा धर्मोपार्जन, सो तीर्थकर भगवान धर्मोपार्जन करने का आदेश तथा उपदेश दिया है इसलिए अदत्तादानका प्रसंग नही आता । अत सूत्रमें अल्प, बहु, स्थूल, और अणु, इन शब्दों का ग्रहण भी इसी आशयसे किया गया है, एव कर्मोंके बन्धन तथा समिति - गुप्ति द्वारा धर्मोपार्जनमें अदत्तादान नहीं लगता है ॥ ३ ॥१०॥ ઉત્તર—હે શિષ્ય ? એમ નથી. હાચેયી લેવા-દેવાને જેવા વહેવાર લેકમાં પ્રસિદ્ધ છે તેવા વહેવાર કર્મામાં નથી હાઇ શકતા; અર્થાત્ લોકોમાં એવા વહેવાર થાય છે કે—વસ્ર પાત્ર ખીજાઓને હાથથી આપવામાં આવે છે ખીજા પાંસેથી લેવામાં આવે છે.’ એ પ્રકારના વહેવાર કર્માંની ખાખતમાં થતા નથી. કેમકે-કમ અત્યન્ત સૂક્ષ્મ છે તે ઇંદ્રિયના વિષય જ નથી હાતા તા એની લેણ-દેણુ કેવી રીતે થઇ શકે ? બીજી વાત એ છે કે પ્રમાદના ચેગથી અદત્ત પદાર્થ નુ આદાન (ગ્રહેણુ ) કરવુ' એ: અદત્તાદાન કહેવાય છે. મુનિરાજને તદ્વિષયક પ્રમાઃ હેાતા નથી તેથી તેમને અનુત્તાદાનને દોષ લાગતે નથી. મુનિરાજ તે કદાયિ એમ નથી ઇચ્છતાં કે હુ કાંને ગ્રહણ કરૂ, કિન્તુ સ ંસારી આત્મા અને કર્મના સ્વભાવ જ એવા છે કે જેથી કમ` બંધાઈ જાય છે. ખાકી રહ્યુ. ધર્માપાન. તે તીર્થંકર ભગવાને ધર્મપાજન કરવાના આદેશ તથા ઉપદેશ આપે છે. તેથી તેમાં અનુત્તાદાનનેા પ્રસંગ જ આવતા નથી. સૂત્રમાં અપ, ખડું, સ્થૂલ, અને અણુ, એ શબ્દોનું ગ્રણ પણ એ જ આશયથી કરવામાં આવ્યું છે. એટલે કર્મોનાં અ ́ધન તથા સમિતિ-ગુપ્ત દ્વારા ઘાંપાન, એમાં महत्ताहान लागतु नथी (3) (१०) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू०११ (४) मैथुनविरमणव्रतम् मैथुनविरमणमन्तरेण ह्यहिंसादिमहाव्रतानां संरक्षणं न भवितुं शक्नोति, यतो मैथुनपरायणः प्राणी त्रस-स्थावर जीवन हिनस्ति, मिथ्या वदति, अदत्तं चाऽऽदत्तेऽतस्तेषां निरपायपरिपालनाय 'मैथुनविरमण' नामधेयं चतुर्थं महाव्रतमाह-'हावरे चउत्थे ' इत्यादि __ मूलम्-अहावरे चउत्थे भंते ? महब्बए मेहुणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ? मेहुणं पच्चक्खामि. से दिव्यं वा माणसं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सयं मेहुणं से विज्जा, नेवन्नेहि मेहुणं सेवाविज्जा, मे. हुणं सेवतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं-तिवि हणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । चउत्थे भंते ! महब्बए उवढिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं ॥११॥ (४) छाया-अथापरे चतुर्थे भदन्त ? महाव्रते मैथुनाद्विरमणं, सर्वं भदन्त! मैथुन प्रत्याख्यामि, अथ दैवं वा मानु वा तैर्यग्योन वा नैव स्वयं मैथुन सेवे, नैवान्यमैथुन सेवयामि, मैथुन सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जोवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त !प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि । चतुर्थे भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मान्मैथुनाद्विरमणम् ॥११॥ (४) मैथुनबिरमण. सान्वयार्थ:-भंते! हे भगवन् ! अहावरे-इसके बाद चउत्थे चौथे महब्बए-महाव्रतमें मेहुणाओ=मैथुनसे वेरमण-विरमण होता है, (अतः मैं )मंते ! हे भगवन् ! सव्वं = सब प्रकारके मेहुणं-मैथुनका पच्चक्खामि-प्रत्याख्यान करता हूँ, से अब से लेकर मैं दिव्वं वा-देवसम्बन्धी माणुसं वा=मनुष्यसम्बन्धी तिरिक्खजोणियं वा तिर्यञ्चसम्बन्धी मेहुणं-मैथुनको सयं स्वयं नेव-न सेविज्जा-सेवन करूंगा, मेहुणं-मैथुन सेवंतेवि-सेवन करते हुएभी अन्ने दूसरोको न समणुजाणिज्जा-भला नहीं समझंगा, जावज्जीवाए जीवनपर्यन्न (इसको) तिबिह-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं= तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए बचनसे कारणं कायसे न करेमि न करूंगा न कारवेमि न कराऊँगा करंतंपि-करते हुएभी अन्न दूसरे को न समणुजाणामि भला नहीं समझंगा। भाते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिक्कमामिपृथक होताह, निंदामि= आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं = दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि-त्यागता हूं। भंते ! हे भगवन् ! चउत्थे= चौथे महव्यए-महानतमें उवडिओमि-उपस्थित होता हूं, इसलिये मुझे सबाबो सब प्रकारके मेहुणाओ-मैथुनसे वेरमणं-त्याग है ॥११॥(४) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे (४) मैथुनविरमणव्रतम् टीका--हे भगवन् ! अथ अपरे चतुर्थे महाव्रते मैथुनात्-मिथुनेन-स्त्रीपुंसाभ्यां निर्वृत्तं कर्म मैथुनं प्रत्याख्यामीति प्राग्वत्, तदेव विशदयति-से' इति । अय-अनन्तरम्अद्यारभ्य दैवं देवानामिदं मानुषं-स्त्री-पुंससम्बन्धीत्यर्थः, तैर्यग्योनं-तियग्योनं-पश्वादिसम्बन्धीत्यर्थः, मैथुनं नैव स्वयं सेवे, इत्यादि सर्व पूर्ववत् । द्रव्यादिचतुर्भङ्गयपि प्रारबद्योजनीया ।।११।। (४) (५) परिग्रहविरमण. मैथुनविरमणं च परिग्रह विरमणमन्तरेग न भवितुं सुशकमिति मैथुनविरमणानन्तरं परिग्रहविरमणनामकं पञ्चमं महाव्रतमाह -'अहावरे पंचमे' इत्यादि । मूलम्-अहावरे पंचमे भंते ! महाब्बए परिग्गहाओ वेरमणं सव्वं भंते ! परिग्गहं पच्चक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंत वा नेव सयं परिग्गहं परिगिण्हिज्जा, नेवन्नेहिं परिग्गहं परिगिहाविज्जा, परिग्गहं परिगिण्हतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा जावज्जोवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए मैथुनविरमणक विना अहिंसा आदि महाव्रतों को रक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि मैथुन सेवन करनेवाला त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसा करता है, असत्य बोलता है, और अदत्तका आदान करता है । अत एव अहिंसादि महाव्रतों का निरतिचार पालन करनेके लिए मैथुन-विरमण नामक चतुर्थ महाव्रतका प्रतिपादन किया जाता है-अहावरे चउत्थे, इत्यादि । (४) मैथुनविरमण । हे भगवन् ! चौथे महाव्रतमें समस्त प्रकारके मैथुनसे विरमण किया जाता है, इसलिए हे भगवन ! मैं सब तरह के मैथुनका प्रत्याख्यान करता हूँ। अप्सराओं सम्बन्धी देवी स्त्री पुरुष संबंधी मानुषी पशु आदि संबंधी तैयेग्योनिक मैथुनको मैं न स्वयं सेवन करूँगा न दूसरों से सेवन कराऊंगा न सेवन करते हुए को भला जानूंगा ।। द्रव्य क्षेत्र काल भावकी चौभंगी यहाँ पर भी लगानी चाहिए, अर्थात् द्रव्यसे स्त्री आदिके साथ, क्षेत्रसे किसी क्षेत्रमें, कालसे-किसी कालमें और भावसे-किसी भी भावसे, तीन करण तीन योगसे मैथुन सेवन नहीं करूँगा ।।११॥ (४) મૈથુનવિરમણ વિના અહિંસા આદિ મહાવ્રતાની રક્ષા થઈ શકતી નથી, કારણ કે મૈથુન સેવન કરવાવાળા ત્ર-સ્થાવર જેની હિંસા કરે છે, અસત્ય બોલે છે. અને અદત્તનું આદાન કરે છે. તેથી કરીને અહિંસાદિ મહાવ્રતનું નિરતિચાર પાલન કરવાને માટે મિથુનविरम नामनु येथा भावानु प्रतिपाहन ४२वामां भाव छे-अहावरे चउत्थे त्याह. ... (४) भैथुनविरमा .. હે ભગવન ! ચોથા મહાવ્રતમાં સર્વ પ્રકારના મિથુનનું વિરમણ કરવામાં આવે છે, તેથી હે ભગવન ! હું સર્વ પ્રકારના મૈથુનનું પ્રત્યાખ્યાન કરું છું. અસરાએ સંબંધી દેવી સ્ત્રી-પુરૂષ-સંબંધી માનુષિક પશુ-આદિ-સંબંધી તેય ખ્યાનિક મર્થન નહી હું સ્વય સેવું, નહીં બીજા ઓ પાસે સેવન કરવું અને નહીં સેવન કરનારને ભલે ન જાણું. દ્રવ્ય-ક્ષેત્રકાળ-ભાવની ચૌભંગી એમાં પણ લગાડવી, અર્થાતુ દ્રવ્યથી સ્ત્રી બાદિની સાથે, ક્ષેત્રથી કઈ પણ ક્ષેત્રમાં; કાળથી કોઈ કાળમાં અને ભાવથી કઈ પણ ભાવે કરીને ત્રણ કરણ ત્રણ योगथी भैथुन सेवीश नडी. (४) (११) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० १२ (५) परिग्रहविरमणव्रतम् __ १९९ काएणं न करेमि न कारवेमि, करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पंचमे भंते ! महव्वए उवढिओमि सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं ॥१२॥ (५) छाया-अथापरे पञ्चमे भदन्त ! महाव्रते परिग्रहाद्विरमण, सर्व भदन्त ! परिग्रह प्रत्याख्यामि, अथ अल्पं वा बहुं वा अणुं वा स्थूलं वा चित्तवन्तं वा अचित्तवन्तं वा नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि, नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि, परिग्रहं परिगृह्नतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जोवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुनामि भदन्त ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि । पञ्चमे भदन्त ! महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात्परिग्रहाद्विरमणम् ॥१२॥ (५) सान्वयार्थः-भंते ! हे भगवन् ! अहावरे-इसके बाद पंचमे-पांचवें महव्वए-महाव्रतमें परिग्गहाओ=परिग्रहसे वेरमणं-विरमण होता है, अतः मैं भंते =हे भगवन् सव्वं = सब प्रकारके परिग्गरं = परिग्रहको पच्चक्खामि-त्यागता हूँ, से–अब से लेकर मैं अप्पंवा-अल्प बहुवा-बहुत अणुंवा अणु-छोटा थूलंवा-स्थूल मोटा चित्तमंतवासचेतन अचित्तमंतवा अचेतन परिग्गह-परिग्रहको सयं=स्वयं नेव=नहीं परिगिण्हाविज्जा-ग्रहण कराऊँगा, परिग्ग-परिग्रहको परिगिण्हं तेविग्रहण करनेवालेभी अन्ने दूसरोंको न समणुजाणिज्जा-भला नहीं जानूंगा। जावज्जोवाए-जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं = तीन प्रकारके मणेणं = मनसे वायाए = वचनसे कारणं = कायसे न करेमि न करूँगा, न कारवेमि = न कराऊँगा, करतंपि% करते हुए भी अन्नं = दुसरेको न समणुजाणामि = भला न समझूगा । भते= हे भगवन् ! तस्स-उसदंडसे पडिक्कमामि पृथक् होता हूं, निंदामि = आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूं, अप्पाणं - दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि = त्यागता हूँ। = हे भगवन् ! पंचमे = पांचवें महव्वए = महाव्रतमें उवडिओमि= उपस्थित होता हूँ. इसलिये मुझे सन्याओ= सब परिग्गहाओ= परिग्रहसे वेरमणं-विरमण त्याग है ॥१२॥ (५) । (५) परिग्रहविरमणव्रतम् टीका- हे भगवन् ! अथापरे पञ्चमे महाव्रते परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति वचनात्, धर्मोंपकरण भिन्नं सर्वमित्यर्थस्तस्माद्विरमणम् । हे भगवन् ! सर्व परिग्रह प्रत्याख्यामि, अथ ग्रामे वा नगरे वेत्यादि प्राग्वद्वोद्धव्यम् ॥१२॥ (५) ___ मैथुनविग्मण, परिग्रहके त्यागे विना नहीं हो सकता, इसलिए मैथुनविरमणके अनन्तर परिग्रह विरमणनामक पांचवां महाव्रत कहते हैं-'अहावरे पंचमे' इत्यादि । મથુન-વિરમણ, પરિગ્રહના ત્યાગ વિના થઈ શકતું નથી, તેથી મિથુન-વિરમણની પછી परिविरम नामनु पायभु महाबत छे-अहावरे पंचमे छत्याहि. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे द्वाविंशतितीर्थकरशासने ऋजुप्रज्ञापुरुषापेक्षयाऽस्योत्तरगुणत्वेऽपि आद्यान्तिमतीर्थकरसाधूनामृजुजड-वक्र जडत्वादनर्थप्रतिरोधार्थं स्फुटप्रतिबोधाथ च महाव्रतानन्तरं मूलगुणत्वेनोपादातुं षष्ठं रात्रिभोजनविरमणत्रतमाह - ' अहावरे छट्ठे इत्यादि । मूलम् - अहावरे छट्ठे भंते! वए राइमायणाओ वेरमणं सव्वं भंते! राइभोयणं पच्चक्खाभि से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव सयं राई भुंजिज्जा, नेवन्नेहिं राई भुजाविज्जा, राई भुंजवि अन्ने न समजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । छट्ठे भंते ! वए उवडिओमि सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं ||१३|| ( ६ ) २०० छाया - अथापरे षष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणं, सर्वे भदन्त ! रात्रिभो - जनं प्रत्याख्यामि, अथ अशन वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा नैव स्वयं रात्रौ भुन्जे, नैवान्यान् रात्रौ भोजयामि, रात्रौ भुञ्जानानप्यन्यान्न समनुजानामि यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि । तस्मादू भदन्त ! व्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद्रात्रिभोजनाद्विरमणम् ॥ १३॥ (६) (५) परिग्रहविरमण. 1 हे भगवन् ! चतुर्थ महाव्रतके पश्चात् पाँचवें महाव्रतमें परिग्रहका पूर्ण प्रत्याख्यान किया जाता है | जिससे आत्मा जन्म- जरा, मरण- आदि-जनित नाना दुःखोंसे गृहीत होता है, अथवा जो मूर्च्छा-पूर्वक स्वीकार किया जाता है वह परिग्रह कहलाता है, क्योंकि भगवानने मूर्च्छा को ही परिग्रह बतलाया है । अतएव तीन करण तीन योगसे ग्राम नगर आदिमें न स्वयं परिग्रह धारण करूँगा, न दूसरे से धारण कराऊँगा, न धारण करते हुएको भला जानूँगा ॥ १२ ॥ (५) (4) परिग्रहविरमाणु. હે ભગવન્ ! ચતુર્થાં મડુવ્રતની પછી પાંચમા મહાવ્રતમાં પરિગ્રહનાં પૂર્ણ પ્રત્યાખ્યાન કારવામા આવે છે. જેથી આત્મા જન્મ જરા મરણાદ્વિજનિત નાના પ્રકારનાં દુ:ખોથી ગ્રસ્ત થાય છે. અથવા જે મૂર્છાપૂર્વક સ્વીકારવામાં આવે છે તે પરિગ્રહ કહેવાય છે, કારણ કે ભગવાને મૂર્વાંનેજ પરિગ્રહરૂપ મતાવી છે. તેથી કરીને ત્રણ કરણ ત્રણ ચેાગે ગ્રામ નગર આદિમાં ન સ્વયં પરિગ્રહ ધારણ હું કરીશ, ન બીજામે દ્વારા ધારણ કરાવીશ, ન ધારણ २नारने लो। भली. ( 4 ) (१२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ स्० १३ (६) रात्रिभोजनविरमणब्रतम् २०१ (६) रात्रिभोजनविरमण ___ सान्वयार्थ :-भंते != हे भगवन् ! अहावरे इसके अनन्तर छटे = छठे व व्रतमें राइभोयपाओ = रात्रिभोजनसे वेरमण = विरमण होता है, (अतः मैं) भंते ! =हे भगवन् सव्यं = सब प्रकारके राइभोयणं =रात्रिभोजनको पच्चक्खामि =त्यागता है. से =अब से लेकर मैं-असणं वा= लड्डू पूरी घी सत्तू आदि अशन, पाणं वा= दूध शर्वत आदि पान-पीने योग्य, खाइमं वा= दाख खजूर आदि खाद्य, साइमं वा लोंग इलायची आदि स्वाध, नेव = न सयं = स्वयं राई = रात्रिमें जिज्जा खाऊंगा, नेवन्नेहि न दूसरों को राई -रात्रि में भुंजाविज्जा=खिलाऊंगा, राई= भुंज तेवि अन्ने = रात्रिमें भोजन करनेवाले दूसरोंको भी न समणुजाणिज्जा = भला नहीं जानुंगा, जावज्जीवाए = जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं = कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करण से (तथा) तिविहेणं = तीन प्रकारके मणेणं = मनसे वायाए = वचन से कारण = कायसे न करेमि = न करूँगा न कारवेमि = न कराऊँगा, करतंपि = करते हुए भी अन्न = दूसरे को न समणुजाणामि = भला नहीं समझंगा। भंते != हे भगवन् तस्स = उस दण्डसे पडिकमामि = पृथक् होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षी से निन्दाकरता हूं, गरिहामि = गुरु साक्षी से गर्दा करता हूं अप्पाणं = दण्ड सेवन करनेवाले आत्मा को वोसिरामि = त्यागता हूँ, भंते ! = हे भगवन् ! छटे-छठे वए = व्रतमें उवडिओमि = उपस्थित होता हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ= सब प्रकारके राइभोयणाओ = रात्रिभोजनसे वेरमण = विरमण-त्याग है ॥१३॥ (६) (६) रात्रिभोजनविरमणव्रतम् टीका-हे भगवन् ! अथापरे षष्ठे व्रते रात्रिभोजनात् = रात्रौ = निशि भोजनं रात्रिभोजन तस्माद् विरमणम् । रात्रिभोजनेन हि सकलमहावतेषु दोषो जन्यते, तयाहि मीजितनाथ भगवान्से लेकर श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र पर्यन्त बाईस तीर्थंकरोंके शिष्य ऋजु (सरल स्वभावके) और प्राज्ञ (समझानेसे समझनेवाले) होते हैं। उन शिष्योंकी अपेक्षासे रात्रिभोजन उत्तरगुण है । किन्तु ऋषभदेवके शिष्य ऋजु-जड़ तथा वर्द्धमान-स्वामीके शिष्य वक्र और जड़ होते हैं, अत एव अनर्थको रोकनेके लिए और स्पष्ट बोध करानेके लिए पंच महाव्रतोंके बाद मूलगुणोंमें गिनानेके लिए छटे रात्रिभोजन विरमण व्रतको कहते हैं-'अहावरे छट्टे' इत्यादि । અજિતનાથ ભગવાનથી લઈને પાર્શ્વનાથ જિનેન્દ્ર સુધીના બાવીસ તીર્થકરોના શિષ્યો કાજુ (સરલ સ્વભાવવાળા) અને પ્રાજ્ઞ (સમજાવવાથી સમજનારા) હતા, તે શિષ્યોની અપે ક્ષાઓ રાત્રિભોજન ઉત્તરગુણ છે, પરંતુ ઋષભદેવના શિષ્ય જુ-જડ તથા વર્ધમાન સ્વામીના શિષ્ય વક્ર અને જડ હતા તેથી અમને રોકવાને માટે અને સ્પષ્ટ બંધ કરાવવાને માટે પાંચ મહાવ્રતની પછી મૂલગુણેમાં ગણાવવાને માટે છઠું રાત્રિભજનવિરમણ વ્રત ક छे-अहावरे छठे त्या २६ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रीदशचैकालिकसूत्रे रात्रौ दिनकरकिरणाभावान्नानाविधसूक्ष्मतनुधारि जन्तुजातसमुत्पातावपातसञ्चार बाहुल्यात् हिंसावश्यम्भाविनी, दीक्षाग्रहणसमये प्रतिज्ञा कृता यदद्यप्रभृति न कस्यापि प्राणिनः प्राणान् पोडयिष्यामीति, रात्रिभोजनेन तु प्राणिवधस्याऽ-निवार्यत्वात्कृतप्रतिज्ञाभङ्गो भवितुमईतीति मृषवादः, यद्वा तीर्थकरैर्लोकालोकाऽव' - लोकिकेवलालोकेनै'- तत्संयमविरा कमालोक्याssदित्यालोके आलोकितान्नपानाद्यदनमप्राणातिपातायोक्तम् । अपिच रात्रिभोजनव्यवस्थापने रात्रौ मुक्त्वाऽऽत्मनः साधुत्वकथने च मृषावादः । रात्राभ्यवहरणे हन्यमान प्राणि निदेशमन्तरेण तत्प्राणापहरणाद्रजन्यधिकरण क भोजननिषेधलक्षण जिनाज्ञा(६) रात्रिभोजनविरमण । हे भगवन् ! पांच महाव्रतोंके पश्चात् छट्ठे व्रतमें रात्रिभोजनसे विरमण किया जाता हैं । रात्रिभोजनसे समस्त महाव्रतों में दोष लगता है । रात्रिके समय सूर्यकी किरणोंके अभाव से सूक्ष्म- शरीरवाले भाँति-भाँति के जन्तु इधर-उधर उड़ते हैं, नवीन उत्पन्न होते हैं, नीचे ऊपर आतेआते हैं, इसलिए हिंसा अवश्य ही होती है । दीक्षा लेते समय ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि - 'आजसे किसी प्राणी प्राणोंको पीड़ा नहीं पहुँचाऊँगा' जब रात्रिभोजन किया तो हिंसा अवश्य हुई, इसलिए मृषावादका भी दोष लगा । अथवा लोक और अलोकको अवलोकन करनेवाले अलौकिक केवल-आलोकसे अवलोकन करके केवली भगवान् ने कहा है कि सूर्यके आलोक में अवलोकन किया हुआ अशन आदिक सेवन करनेसे ही हिंसाका परिहार हो सकता है । रात्रिभोजनका कर्त्तव्यरूपसे निरूपण करना और रात्रिभोजन करके अपनेको साधु कहना मृषावाद है । रात्रिभोजन से विराधित होनेवाले प्राणियों की आज्ञाके विना ही उनके प्राणोंका अपहरण करनेसे, तथा रात्रिभोजन न करनेकी जिन भगवानकी आज्ञाका लोप करनेसे, अदत्तादानका दोष (१) रात्रिलोकनविरभाणु હે ભગવન્ ! પાંચ મહાવ્રતાની પછી છઠ્ઠા વ્રતમાં રાત્રિÀાજનથી વિરમણુ કરવામાં આવે છે. રાત્રિભાજનથી સ` મહાત્રને!માં દોષ લાગે છે. રાત્રિને સમયે સૂર્યનાં કિરાના અભાવથી સૂક્ષ્મ-શરીરવાળા ભાત-માતના જન્તુએ મીંતહીં ઊડે છે, નવીન ઉત્પન્ન थाय छे, नीथे-उपर भाव- उरे छे, तेथी हिंसा ४३२ थाय छे. દીક્ષા લેતી વખતે એવી પ્રતિજ્ઞા કરી હતી કે ‘આજથી કાઈ પ્રાણીના પ્રાણાને પીડા નહીં ઉપજાવુ. જો રાત્રિભાજન કર્યું" તે હિંસા અવશ્ય થઈ, તેથી મૃષાવાદને દોષ લાગ્યા. અથવા કૈક અને અલેકનું અવલેાકન કરનારા અલૌકિક કેત્રળ જ્ઞાનથી અવલેાકન કરીને કેવલી ભગવાને કહ્યુ` છે કે સૂર્યના પ્રકાશમાં અવલેકિન કરેલુ અશન આદિ સેવવાથી જ હિંસાને પરિહાર થઈ શકે છે. રાત્રિભાજનતુ કબ્યરૂપે નિરૂપણ કરવુ અને રાત્રિèાજન કરીને પેાતાને સાધુ કહેવડાવવા એ મૃષાવાદ છે. રાત્રિભાજનથી વિરાધિત થનારા પ્રાણીઓની આજ્ઞા વિના જ એમના પ્રાણનુ' અપ१ केवल लोकस्य करणस्य कर्तृत्वविवक्षया णिनिः । २ एतत् = रात्रिभोजनम् । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwvvvv vvvvvvvm अध्ययन ४ सू० १३ (६) रात्रिभोजनविरमणव्रतम् भङ्गाच्च स्तेयम् । रात्रि भोजनशीलस्यावश्यमेव भिक्षार्थ रात्रावितस्ततः परिभ्रमतः स्यादिसंसर्गादब्रह्म-दोषप्रसङ्गः । रात्रिभोजने संग्रहोऽनिवार्यस्तेन च मूर्छाऽवश्यम्भाविनी, सैव परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति भगवता स्वयमेवाऽभिधानादतो निशाशनमशेषदोषराशिभूतम्, न तत्त्यागादृते व्रतपरिपोषस्तस्मात्सर्वं भगवन् ! रात्रि भोजन प्रत्याख्यामि, तदेव विशदयति-'से'इति, अथ अनन्तरम्-अधारभ्य अशनम् अश्यते-भुज्यते क्षुधोपशमनार्थ यत् तत् ओदन-रूप-सक्तु-मुग्दमोदक-घृतपूर-लपन-श्रीप्रभृतिकम्, पान पीयते यत्तत्पानं दुग्धादिकं तिलतण्डुलादिधावनोदकं च । खाद्य खादितुं योग्यं खाधम् अचित्तद्राक्षाखर्जूरादि । स्वाध स्वादितुं योग्यं स्वाध लवङ्गचूर्णपूगीफलादि । रात्रिभोजनमपि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव भेदाच्चतुर्दा, तत्र द्रव्यतोऽशनपानादिकम्, क्षेत्रतोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रलक्षितं, तद्वहिः प्रसिद्धदिनराव्यभावात्, कालतो रात्रौ, भावतो निशाशनाभिलाषः । रात्रिभोजनस्य स्वरूपतश्चतुर्भङ्गी यथा-(१) रात्री गृहीत्वा रात्रौ भुङ्क्ते, लगता है । रात्रिमें भोजन करनेवाला भिक्षाके लिए रात्रीमें भ्रमण भी करेगा, भ्रमण करते समय स्त्री आदिका संसर्ग होनेसे अब्रह्मचर्यका भी दोष लगेगा। रात्रिभोजन करनेसे अन्न आदि सामानका भी संग्रह करना पड़ेगा इससे संनिधि-दोष लगेगा । संग्रह करनेसे मूर्छा भी होगी, मूर्छाको भगवानने स्वयं परिग्रह कहा है, इसलिए रात्रिभोजन सब दोषोंका कोष है, उसका त्याग किये विना व्रतोंका पालन नहीं हो सकता। इसलिए हे भगवन् ! मैं समस्त-रात्रिभोजनका प्रत्याख्यान करता हूँ। अर्थात् भात, दाल, सत्तू, मूंगके लड्डू, घेवर, लप्सी आदि अशन, दूध, तिल और चावलका धोवन आदि पान, प्रासुक दाख, खजूर आदि वाद्य, लोंगका चूर्ण, सुपारी आदि स्वाध, इन चार प्रकारके आहारों से किसी एक प्रकारका भी आहार रात्रिमें नहीं करूँगा। रात्रिभोजन भी द्रव्य क्षेत्र काल भावसे चार प्रकारका है । अशन पान आदि द्रव्यसे रात्रिહરણ કરવાથી તથા રાત્રિભેજન ન કરવાની જિનભગવાનની આજ્ઞાને લેપ કરવાથી અદત્તાદાનનો દેષ લાગે છે. રાત્રે ભેજન કરનારાઓ ભિક્ષાને માટે રાત્રે ભ્રમણ પણ કરશે. ભ્રમણ કરતી વખતે સ્ત્રીઆદિને સંસગ થવાથી અબ્રહ્મચર્યનો પણ દોષ લાગશે. - રાત્રિભોજન કરવાથી અન્ન આદિ સામાનને પણ સંગ્રહ કરવું પડશે. તેથી સંનિધિ દોષ લાગશે સંગ્રહ કરવાથી મૂચ્છ પણ ઉત્પન્ન થશે. મૂચ્છને ભગવાને પોતે પરિગ્રહરૂપ કહી છે, તેથી રાત્રિભોજન સવે દેને કેષ છે. એનો ત્યાગ કર્યા વિના વ્રતનું પાલન થઈ શકતું નથી. તેથી હે ભગવન્! હું સર્વ રાત્રિભોજનનાં પ્રત્યાખ્યાન કરું છું. અર્થાત-ભાત, દાળ, મગજ મગના લાડુ, ઘેબર, લાપસી આદિ અશન દૂધ તલ અને ચોખાનું ધાવણ આદિ પાન, પ્રાસુક દ્રાક્ષ ખજુર આદિ ખાદ્ય, લવંગનું ચૂર્ણ, સોપારી આદિ સ્વાદ્ય એ ચારે પ્રકારના આહારમાંથી કોઈ પણ એક પ્રકારને આહાર રાત્રે હું કરીશ નહીં, રાત્રિભેજન પણ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવથી ચાર પ્રકારનું છે. અશન-પાન આદિ દ્રવ્યથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे (२) रात्रौ गृहीत्वा दिवा भुङ्क्ते, (३) दिवा गृहीत्वा रात्रौ भुङ्क्ते, (४) दिवा गृहीत्वा रात्रिव्यवधानेन दिवा भुङ्क्ते । उक्तम् भगवता निशीथसूत्रस्यैकादशोद्देशे "जे भिक्खू दिया आसणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता दिया भुज भुजं वा साइज्जइ ॥ ७३ ॥ जे भिक्खू दिया असणं वा ४ पडिगा हित्ता रत्ति भुंजइ झुंजतं वा साइज्जइ ॥ ७४ ॥ जे भिक्खू रतिं असणं वा ४ पडिगाहित्ता दिया भुं अइ भुंजतं वा साइज्जइ ||सू. ७५|| जे भिक्खू रतिं असणं वा ४ पडिगाहित्ता रति भुभोजन करना क्षेत्र - रात्रिभोजन है, क्योंकि अढाई द्वीपके बाहर दिन रात्रिका व्यवहार नहीं है । रात्रि भोजन करना कालकी अपेक्षा रात्रिभोजन है । रात्रिमें भोजन करने की इच्छा करना भावI - रात्रिभोजन है । रात्रिभोजनकी चतुर्भगी इस प्रकार है (१) रात्रिमें ग्रहण करके रात्रिमें ही भोजन करना । (२) रात्रिमें ग्रहण करके दिनमें भोजन करना । (३) दिनमें ग्रहण करके रात्रिमें भोजन करना । (४) दिनमें ग्रहण करके ( रात्रिभर रखकर दूसरे ) दिनमें भोजन करना । भगवान् ने निशीथ सूत्रके ग्यारहवें उद्देशमें कहा है ➖➖➖➖ " जो भिक्षु दिनमें अशन पान खाद्य स्वाद्य ग्रहण करके (दूसरे ) दिन भोगे, दूसरे को भोगवावे और अन्य भोगनेवालेको भला जाने ॥७३॥ जो साधु दिनमें अशनादिक लेकर रात्रिमें स्वयं भोगे दूसरेको भोगवावे और अन्य भोगनेवालेको भला जाने ॥ सू. ७४ ॥ जो साधु रात्र अशनादिक लेकर दिनमें भोगे भोगवावे या भोगनेवाले अन्यको भला जाने ।। सू. ७५ ।। રાત્રિભાજન છે. અઢી-દ્વીપમાં રાત્રિજનકરવું એ ક્ષેત્ર-રાત્રિાજન છે, કેમકે-અઢી દ્વીપની ખહાર દિવસ–રાત્રિના વ્યવહાર નથી. રાત્રે લેાજન કરવું એ કાળની અપેક્ષાએ રાત્રિભાજન છે, રાત્રે લેાજન કરવાની ઇચ્છા કરવી એ ભાવરાત્રિèાજન છે. રાત્રિèાજનની ચતુભ ́ગી આ પ્રમાણે છેઃ— (૧) રાત્રે ગ્રહણ કરીને રાત્રે જ ભાજન કરવું. (૨) રાત્રે ગ્રહણ કરીને દિવસે લેાજન કરવુ (3) हिवसे अणु उरीने रात्रे लोन ४२. (४) हिवसे श्रद्धालु उरीने (रातभर राणीने जीने) हिवसे लोन वु ભગવાને નિશીથ સૂત્રના અગીઆરમા ઉદ્દેશમાં કહ્યુ છે— " लक्षु द्वित्रसमां अशन-पान-माद्य-स्वाद्य ग्रहण उरीने (जीने ) हिवसे लोगवे, जीलने लोगनायें, अन्य लोगवनारने लसो लागे. (सू, ७३) જે માધુ દિવસે અશનાદિ લઈને રાત્રે પાતે ભેગવે, ખીજાને ભેગવાવે અને અન્ય लोगवनारने लडो लागे (सु ७९) જે સાધુ રાત્રે અનાદિ લઇને દિવસે ભેગવે, ભગવાવે યા ભેાગવનારને ભલે लगे (सू. ७५) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४. सू० १४ शिष्यस्य महाव्रत स्वीकारः २०५ इ भुजतं वा साइज्जइ xxxxआवज्ज चाउम्मासियं परिहारद्वाणं ॥ ७६ ॥” इति । तच्च सर्वमशनादिकं रात्रौ नैव स्वयं भुजे, इत्यादि सर्व व्याख्यातपूर्वम् ॥ १३॥ सम्प्रति गृहीतमहाव्रतः शिष्य उपसंहरन्नाह - 'इच्चेयाई' इत्यादि । मूलम् - इच्चेयाइं पंच महव्वयाई राइभोयणवेरमणछट्ठाई अत्तद्रियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि || १४ || छाया - इत्येतानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि आत्महितार्थायोपसपद्य विहरामि ॥ १४ ॥ उपसंहारः सन्वयार्थः -- इच्चेयाइं - ये पहले कहे हुए राइभोयण वेरमणछट्टाई - छठे रात्रिभोजनविरमण व्रत के साथ पंच महव्बयाई पांच महावतों को अत्तहियद्वयाए-आत्म कल्याण के लिये उवसंपज्जित्ताणं - स्वीकार करके विहरामि - संयममें विचरता हूँ || १४ || टीका - इत्येतानि - समनन्तरोदोस्तिलक्षणानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि = रात्रौ भोजनं रात्रिभोजनं, रात्रिभोजनाद्विरमणं रात्रिभोजनविरमणं, पण्णां पूरणं पष्ठं षट्संख्याप्रपूरकं, रात्रिभोजनविरमणं पष्ठं येषु तानि पञ्च महाव्रतानि आत्महितार्थाय - आत्मने हितम् - इष्टमिति आत्महितम्, आत्मनो हितं मङ्गल मस्मादिति वाऽऽत्महितो मोक्षः, स एवार्थः = प्रयोजनम् आत्महितार्थस्तस्मै तोकाय उपसम्पद्य - सामस्त्येन स्वीकृत्य विहरामि-संयमविषये विचरामि ॥ १४ ॥ 1 जो साधु रात्रिमें अशनादिक लेकरके रात्रिमें भोगे दूसरेको भोगवावे और अन्य भोगनेवालेको भला जाने उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लगता है । ।। सू. ७६ ॥ इन सब अशन आदि चार प्रकारके आहारको रात्रिमें नहीं भोगूँगा, इत्यादिका व्याख्यान पहले कर चुके हैं ||१३|| (६) अब महाव्रतोंको स्वीकार करनेवाला शिष्य उपसंहार करता हुआ कहता है - 'इच्चेयाई' इत्यादि । हे भगवन् ! मैं पांच महाव्रतोंको और छठे रात्रिभोजनविरमण व्रतको आत्मा के हित- मोक्ष-के लिए स्वीकार करके संयममार्ग में विचरता हूँ ॥ १४ ॥ ભગાવે અન્ય ભાગવનારને જે સાધુ રાત્રે અશનાદિ લઇને રાત્રે ભગવે, બીજાને लो। ये. (सू. ७६) तेने यातुर्भासि आयश्चित्त लागे छे." એ સર્વ અશનાદિ ચાર પ્રકારના અહારને રાત્રે નહિ ભાગતુ, ઇત્યાદિનુ વ્યાખ્યાન पांडवामां आवे छे. (१३) (६) ये महाव्रत स्त्रीअर उरवावाणी शिष्य उपसंहार ठरतो छत हे छे - इन्वेयाई छत्याहि. હું ભગવન્ ! હું પાંચ મહાવ્રતાને અને છઠા રાત્રિ@ાજનવિરમણ વ્રતને આત્માને હિતસ્વરૂપ મેક્ષને માટે સ્વીકાર કરીને સયમમાગ માં વિચરૂ ́ છું. (૧૪) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रीदशचैकालिकसूत्र तनापुरस्सरमेवव्रतग्रहणं सफलं भवतीत्यतस्तद्यतनास्वरूपं प्रदर्शयते - 'से भिक्खु वा" इत्यादि । मूलम् - - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविश्यपडिहय पच्चक्खा पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमा वा से पुढवि वा मित्ति वा सिलं वा लेलुं वा ससरकखं वा कार्यं ससरकखं वा वत्थं हत्थे वा पाएण वा कट्ठेग वा किलिचेण वा अंगुलियाएवा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा न विलिहिज्जा न घट्टिज्जा न भिंदिज्जा, अन्नं न आलिहाविज्जा, न विलिहाविज्जा, न घट्टाविज्जा, न भिदाविज्जा, अन्नं आलिहंतं वा, विलितं वा, घट्टतं वा भिदंतं वा न समणुजाणिज्जा. जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि ! तस्स भंते! पडिकनामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ १ ॥१५॥ छाया- --सभिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत-विरत प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा, स पृथिवीं वा भित्तिं वा शिलां वालेष्टुं वा सरजस्कंवा कार्य सरजस्कं वा वस्त्रं हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा किलिचेन वा अङ्गुल्या वा शलाकया वा शलाकाहस्तेन वा नाऽऽलिखेत् न विलिखेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यात्, अन्यं नाssलेखयेन विलेखयेन्न घट्टयेन्न भेदयेद्, अन्यमा लिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयात्, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्ये न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि ||१|| १५ || (१) पृथ्वी काययतना. - सान्वयार्थ :- संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे = वर्तमानकालीन सावध व्यापारों से रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावयव्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागको न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंको निन्दा करके सावध व्यापार के त्यागी, से वह पूर्वोक्त भिक्खू वा = साधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा=दिनमें राओ वा = अथवा रात्रिमें एगओ वा = अकेला परिसागओ वा अथवा संघ में स्थित सुते वा सोया हुआ। जागरमाणे वा = अथवा जागता हुआ रहे, वहां से वह पुढवि वा - पृथ्वीको भित्तिं वा भीत - दीवार को सिल वा = शिलाको लेलुं वा = ढेलेको ससर શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू०१५ पृथ्वीकाययतना २०७ क्वं सचित्तरजसहित कार्य वा = शरीरको ससरक्खं - सचि सहित वत्थं वा-वस्त्र को हत्येण वा = हाथ से पाएण वा परसे कटेण वा = काष्ठसे किलिंचेण वा = वांस आदि को खपच्चसे अंगुलियाए वा=अंगुलीसे सिलागाए वा= छडसे सिलागहत्थेण वा = बहुतसी छड़ोसे न आलिहिज्जा = जराभी संघर्षण न करे न विलिहिज्जा = बारम्बार संघर्षण न करे, न घट्टिज्जा=न घट्टन करे-न चलावे न भिंदिज्जा=न.भेदे,अन्नं = दूसरेसे न आलिहाविज्जा=जराभी संघर्षण न करावे, न विलिहाविज्जा=न बारम्बार संघर्षण करावे, न घट्टाविज्जा=न घट्टन करावे, न भिदाविज्जान भेदन करावे, आलिहंतं वा= संघर्षण करनेवाले विलिहंतं वा = बार-बार संघर्षण करनेवाले घट्टतं वा घट्टन करनेवाले भिदंतं वा = भेदन करनेवाले अन्नं = दूसरेको न समणुजाणिज्जा = भला न समझे । इसलिये मैं जावज्जीवाए = जीवनपर्यन्त ( इसको ) तिविहं = कृतकारित अनुमोदनारूप तीन करणसे ( तथा ) तिविहेणं = तीन प्रकारके मणेणं = मनसे वायाए = वचनसे कारणं = कायसे न करेमि=न करूँगा, न कारवेमि = न कराऊँगा, करंतंपि = करते हुए भी अन्नं = दूसरेको न समणुजाणामि = भला नहीं समझूगा । भंते ! = हे भगवन् ! तस्स = उस दण्डसे पडिकमामि = पृथक् होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि – गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं = दण्ड सेवन करनेवालेआत्माको वोसिरामि = त्यागता हूँ ॥१॥ १५॥ टीका-से = सः = भिक्षावृत्तिकत्वेन प्रसिद्धः, भिक्षुः= भिक्षितुं = याचितुं शीलं धर्मों वा यस्य स भिक्षुः । ('भिक्ष याञ्चायामलाभे लाभे चे'-त्यस्माद्धातोः 'आक्वेस्तच्छील-तद्धर्म-तत्साधुकारिषु' इत्यधिकारे 'सनाशंसभिक्ष उः' (३।२। १६२) इत्युप्रत्यये भिक्षुपदं सिध्यति) । अत्र 'उ' प्रत्ययेन ताच्छील्यद्योतनाद् भिक्षणशीलत्वं भिक्षुत्वमिति पर्यवस्यति । व्रतोंको यतनापूर्वक स्वीकार किया जाय तभी वे सफल होते हैं, इसलिए यतनाका कथन करते हैं-'से भिक्खू०' इत्यादि । भिक्षावृत्तिसे प्रसिद्ध भिक्षु कहलाते हैं, अर्थात् याचना करके आहारादि लेनेवाले लेको भिक्षु कहते हैं। संस्कृत व्याकरणके अनुसार 'भिक्षु' पदमें 'उ' प्रत्यय लगा हुआ है । उससे यह प्रगट होता ઘતેને યતનાપૂર્વક સ્વીકાર કરવામાં આવે ત્યારે તે સફળ થાય છે, તેથી યતનાનું કથન रे जे-जे भिक्खू० (त्या. ( ભિક્ષાવૃત્તિથી પ્રસિદ્ધ હોય તે ભિક્ષુ કહેવાય છે. અર્થાત યાચના કરીને આહારાદિ લેવાવાળા ને ભિક્ષુ કહે છે, સંસ્કૃત વ્યાકરણને અનુસરીને મિક્ષ શબ્દમાં ૩ પ્રત્યય લાગે છે. તેથી એમ પ્રકટ થાય છે કે ભિક્ષુ એને કહેવું જોઈએ કે જે કોઈ વસ્તુને ભિક્ષા વિના લે નહીં, અર્થાત શિક્ષણશીલ હોય તે ભિક્ષુ કહેવાય છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशवैकालिकसूत्रे २०८ aa काषायाम्बरधारिणामपि भिक्षोपजीवित्वेन तत्रो कभिक्षु लक्षणमतिव्याप्तमिति चेवमात्तित्वे सति भितर चिरहितत्वं हि भिक्षुत्वम्, तथा च स्वायिनिदेशमन्तरेणापि जलाशयादितोऽपि स्वहस्तेनापि जलादिग्रहणस्य तदीयीजविकान्तर्थतत्वेन, तथा कदाचिद् भिक्षाया अलाभे पचन - पाचनादिक्रियया, कन्दमूलफलादिना च जीवननिर्याहाचेषामुक्तलक्षणमिक्षुत्वाभावात् । न च 'भिक्षत्रो यदा भिक्षमाणास्तदा तत्रास्तु भिक्षुत्वं परन्त्वभिक्षमाणत्वावस्थायां कथं तेषु भिक्षुशब्दः प्रवर्त्तेत तदानीं भिक्षणव्यापाराभावा ?' 'दिति वयम्। उभय्वामध्यहै कि- भिक्षु उसे कहना चाहिए जो किसी वस्तुको विना भिक्षाके न लें, अर्थात् भिक्षणशील भिक्षु कहलाते हैं । प्रश्न- गेरुआ या अन्य किसी प्रकारके रंगसे रंगे हुए कपड़े पहननेवाले संन्यासी आदि भी भिक्षा मांग कर अपने जीवनका निर्वाह करते हैं, इसलिए यह भिक्षुका लक्षण उनमें भी चला जाता है, भी भिक्षु कहलायेंगे ! उत्तर - जो भिक्षासे ही अपना निर्वाह करते हैं और सिवाय भिक्षाके अन्य वृत्तिको कदापि स्वीकार नहीं करते वे ही भिक्षु कहलाते हैं, संन्यासी आदि स्वामीकी आज्ञा के बिना भी जलाशय आदिसे भी जल आदि अपने हाथोंसे ले लेते हैं । जब भिक्षा नहीं मिलती तब पचन - पाचनादि करते कराते हैं, तथा कन्द-मूल-फल - आदिसे निर्वाह कर लेते हैं, इसलिए वे भिक्षु नहीं कहला सकते । प्रश्न- अच्छा, जो भिक्षा से ही अपना निर्वाह करे उसे भिक्षु कहते हैं तो साधु जब मिक्षाकी गवेषणा करेंगे तब ही भिक्षु कहलावेंगे, जिस समय स्वाध्याय आदि अन्य क्रिया करते होंगे उस समय भिक्षु कैसे कहलावेंगे ? પ્રશ્ન-ગેરૂથી યા અન્ય કોઈ પ્રકારના રંગથી રંગેલાં કપડા પહેરનારા સંન્યાસીગ્માદ્ધિ પણ ભિક્ષા માંગીને પેાતાના જીવનના નિવહુ કરે છે. તેથી એ ભિક્ષુનું લક્ષણ એને પણ લાગુ छे, ते लिक्षु वाशे ? ઉત્તર-જેએ ભિક્ષાથી જ પેાતાના નિર્વાહ કરે છે અને ભિક્ષા સિત્રાય અન્યવૃત્તિને દાપિ સ્વીકારતા નથી તેએ। જ ભિક્ષુ કહેવાય છે. સ`ન્યાસી આદિ સ્વામીની આજ્ઞા વિના પણ જળાશય આદિથી પણ જળ આદિ પેાતાના હાથે લઈ લે છે, જ્યારે ભિક્ષા નથી મળતી ત્યારે રાંધવા–રધાવવાની ક્રિયા કરે છે, તથા કંદ મૂલ ફળ આદિથી નિર્વાહ કરી લે છે, તેથી તે ભિક્ષુ કહેવાઈ શકતા નથી. પ્રશ્ન—ઠીક, જેએ ભિક્ષાથી જ પેાતાના નિર્વાહ કરે તેમને લિક્ષ કહે છે તે સાધુ જ્યારે ભિક્ષાની અવેષણા કરશે ત્યારે જ ભિક્ષુ કહેવાશે, જે સમયે સ્વાધ્યાય માદિ અન્ય ક્રિયા કરતા હરશે તે સમયે ભિક્ષુ કેવી રીતે કહેવાશે ! શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू०१५ भिक्षुत्व सिद्धिः २०९ स्थायां भिक्षुशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावेन भिक्षुशब्दप्रवृत्तिसंभवात् तथाहि शब्दस्य द्वे निमित्ते व्युत्पत्तिनिमित्तं प्रवृत्तिनिमित्तं चेति तत्र व्युत्पत्तिलभ्यार्थप्रतोतों प्रकारीभूतो धर्मोव्युत्पत्तिनिमित्तम्, यथा पङ्कजशब्दस्थ पङ्कजनिकर्त्तृत्वम् । सङ्केत प्रकारीभूतो धर्मः प्रवृत्तिनिमित्तम्, यथा पद्मत्वजातिः । न च शब्दानां व्युत्पत्तिनिमित्तमेव प्रवृत्तिनिमित्तमिति वाच्यम्, पाचकादिशब्दे तथात्वेऽपि षङ्कजादिशब्दे तद्वयभिचारात् । तथाहि षङ्कजपदं 'पङ्काज्जायते' इति व्युत्पत्त्या पङ्कजनिकर्तृत्व शक्ततया पद्मरूपार्थबोधकं सदपि शैवालादिष्वतिप्रसङ्गवारणाय उत्तर - भिक्षाकी गवेषणा करते समय भी साधुको भिक्षु कह सकते हैं और न करते समय भो कह सकते हैं । दोनों अवस्थाओं में भिक्षु शब्दकी प्रवृत्तिका कारण मौजूद है । 1 शब्दों की प्रवृत्ति दो प्रकार से होती है। जैसे कमलका वाचक एक पङ्कज शब्द है दूसरा पद्म शब्द है । पंकज शब्द का अर्थ है कीचड़से उत्पन्न होनेवाला, कमल कीचड़से उत्पन्न होता है। इसलिए पंकजत्व व्युत्पत्तिनिमित्त है । अर्थात् पङ्कज शब्द की व्युत्पत्ति करनेसे जो अर्थ निकलता है वही अर्थ उसके वाच्यमें (अर्थ) ठीक-ठीक घट जाता है, इसे व्युत्पत्तिनिमित्त कहते हैं । दूसरा प्रवृत्तिनिमित्त है । शब्दके संकेत से बोध्य अर्थमें विशेषणभूत धर्मको प्रवृत्तिनिमित्त कहते हैं, जैसे पद्मत्व या कमलत्व (कमलपन) जाति । यदि कोई कहे कि - 'जो व्युत्पत्तिनिमित्त है वही प्रवृत्तिनिमित्त है तो ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि 'पाचक' आदि शब्दों में जो व्युत्पत्तिनिमित्त है वही प्रवृत्तिनिमित्त है तथापि पङ्कज आदि शब्दों में यह कथन नहीं घटता, 'पंक' (कीचड़ ) से उत्पन्न होनेवाला पंकज है" इस व्युत्पत्ति से पंकज शब्द कमलका बोध तो कराता है परन्तु साथही साथ शैवाल तथा इस प्रकार से पैदा ઉત્તર-ભિક્ષાની ગવેષજીાકરતી વખતે સાધુને ભિક્ષુ કહી શકાય છે. અને ન કરતી વખતે પણ કહી શકાય છે. બેઉ અવસ્થામાં ભિક્ષુ શબ્દની પ્રવૃત્તિનું કારણ મૈ જુદ છે. શબ્દોની પ્રવૃત્તિ એ પ્રકારે થાય છે. જેમકે-કમળના વાચક એક પોંકજ શબ્દ છે, ખીજે પદ્મ શબ્દ છે. પંકજ શબ્દના અર્થ કાદવમાં ઉત્પન્ન થએલ એવા થાય છે. કમલ કાદવમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી પકત્વ વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત છે. અર્થાત્ પંકજ-શબ્દની વ્યુત્પત્તિ કરવાથી જે અથ નીકળે છે તેજ અથ તના વાચ્યમાં (અથમા) ખરાખર બંધ બેસે છે, તેથી તેને વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત કહે છે. ખીજો પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે શબ્દના સકેતથી બેધ્ય અર્થમાં વિશેષણભૂત ધમને પ્રવૃત્તિनिमित्त हे छे. प्रेम-पद्मत्व या उभसत्व (भाजपा) अति. જો કાઈ કહે કે—જે વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત છે તેજ પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે, તા તે ખરાખર નથી. કારણ કે ો કે ‘વાચક' આદિ શબ્દમાં જે વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત છે તેજ પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે, તથાપિ ૫કજ આદિ શબ્દોમાં એ કથન બંધ બેસતુ નથી, કારણ કે ‘પ’ક (કાદવ) માંથી ઉત્પન્ન થવાવાળું પંકજ છે, “એ વ્યુત્પત્તિથી પંકજ શબ્દ કમળના આધ તા કરાવે છે, પરન્તુ સાથે २७ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोदशवेकालिकसूत्रे २१० पद्म (जाति) रूपं प्रवृत्तिनिमित्तमादायैव पद्मं बोधयति न त्वितरथा । एवमत्रापि भिशब्दस्य भिक्षणं व्युत्पत्तिनिमित्तम्, भिक्षत इत्येवंगीलो भिक्षुरिति व्युत्पत्तिः । तथा चाऽभिक्षमाणत्वावस्थायां भिक्षुत्वाप्रसक्तावपि ऐहिकपारत्रिकाऽऽशंसाविरहेण समितिगुप्त्यादिधारित्वरूपप्रवृतिनिमित्तमादाय भिक्षुत्व-समित्यादिपालकत्वयो भिक्षुलक्षणैकार्थसमवायेन कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणेन भिक्षमाणेऽभिक्षमाणे वा भिक्षौ भिक्षुशब्दप्रवृत्तेः वर्त्तमानपर्यायमात्रग्रहण लक्षणऋजुसूत्रनयाभिप्रायाच्च भिक्षुत्वसिद्धिः । 1 ननु पूर्वोकलक्षणं प्रवृत्तिनिमित्तकाषायाम्बरधारिप्रभृतिष्वपि विद्यते, तेऽपि मार्गे होनेवाले गडुलके फूल आदिका अर्थ भी उससे निकलता है, क्योंकि वे भी कीचड़से पैदा होते है । यदि व्युत्पत्तिनिमित्तको ही शब्दकी प्रवृत्ति में कारण माना जाय तो शैवाल आदि में भी पंकज शब्दका प्रयोग हो जायगा, इस आपत्तिका निवारण करनेके लिए व्युत्पत्तिनिमित्तके सिवाय प्रवृत्तिनिमित्त कमलत्व धर्मकी भी आवश्यकता है, इससे शैवाल आदिका निराकरण हो जाता है, दोनों निमित्तोंसे ठीक-ठीक अर्थका प्रतिपादन हो जाता है कि जो कीचड़ से उत्पन्न हो और जिसमें कमलस्वरूप सामान्य (जाति) पाया जाय उसे पङ्कज कहते हैं । इसी प्रकार यहाँ 'भिक्षु' शब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त भिक्षण ( याचना ) धर्म है, जिस समय साधु भिक्षण नहीं करते उस समय व्युत्पत्तिनिमित्त से भिक्षु नहीं कहला सकते, फिर भी 'समितिगुप्तिपालकत्व' - रूप प्रवृत्तिनिमित्त से भिक्षु शब्दकी प्रवृत्ति होती है क्योंकि भिक्षुत्व और समितिगुप्तिपालकत्व दोनों धर्म भिक्षुमें कर्थाश्चत् तादात्म्य सम्बन्धरूप एकार्थसमवायसे रहते हैं । इसलिए भिक्षा न करते समय भी 'समिति गुप्तिपाल कत्व' - रूप प्रवृत्ति - निमित्तसे भिक्षु शब्द की प्रवृत्ति होती है। w शङ्का - समिति - गुप्तिपालकता तो गेरुआ आदि वस्त्र पहननेवालों में भी पाई जाती है । वे શેવાળ તથા એ પ્રકારે પેદા થનારા ઘીનેલાં શીંગાડા આદિને અથ પણ તેમાંથી નીકળે છે, કારણ કે તે પણ કીચડમાંથી પેઢા થાય છે. જો વ્યુત્પત્તિનિમિત્તને જ શની પ્રવૃત્તિમાં કારણ રૂપ માનવમાં આવે તે શેવાળ આદિમાં પણ પંકજ શબ્દના પ્રયાગ થઈ જશે. એ આપત્તિનુ' નિવારણ કરવાને માટે વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત ઉપરાંત પ્રવૃત્તિનિમિત્ત કમળત્વ ધર્મની પશુ આવશ્યકતા છે. તેથી શેવાળ આદિનું નિરાકરણુ થઈ જાય છે. બેઉ નિમિત્તથી ખરાખર અનુ પ્રતિપાદન થઇ જાય છે કે જે કીચડમાંથી ઉત્પન્ન થાય અને જેમાં કમલરૂપ સામાन्य (अति) भजी भावे तेने पंडे हे छे. એ રીતે અહી ‘ભિક્ષુ’ શબ્દના વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત ભિક્ષણ (યાચના) ધમ છે જે સમયે સાધુ ભિક્ષણ કરતા નથી તે સમયે વ્યુત્પત્તિનિમિત્તથી ભિક્ષુ નથી કહેવાતા, તે પણ સમિતિગુપ્તિ-પાલકત્વ' રૂપ પ્રવૃત્તિનિમિત્તથી ભિક્ષુ શબ્દની પ્રવૃત્તિ થાય છે, કારણ કે ભિક્ષુત્વ અને સમિતિગુપ્તિ-પાલકત્વ એઉ ધર્મ ભિક્ષુમાં કોઈપણ રીતે તાદાત્મ્ય સ’બધરૂપે એકા-સમવાયથી રહે છે, તેથી ભિક્ષા ન કરતી વખતે પણ ‘સમિતિગુપ્તિ પાલકત્વ' રૂપ પ્રવૃત્તિનિમિત્તથી ભિક્ષુ શબ્દની પ્રવૃત્તિ થાય છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ स्० १५ भिक्षुत्वसिद्धिः पश्यन्त एव गच्छन्ति, तेन च तेषां समित्यादिपालकत्वं, मौनादिसमवलम्बनेन गुप्तिपालकत्वं चास्ति, ततश्च समिति, गुप्तिपालकत्वरूपप्रवृत्तिनिमित्तस्य तेष्वपि सत्वे कुतो न तेषां भिक्षुशब्दव्यवहार्यत्वमिति चेत ? यत् इहलोकाद्याशंसाविरहिततया समित्यादिपालकत्वमेव भिक्षुशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम्, तच्च तेषु न विद्यते तेषां तथाविधप्रवृत्तेः, ऐहिककण्टका दिनिवृत्त्यर्थत्वात् , यशः कीर्त्यादिसम्पादनार्थत्वाच्च, नातस्तेषां वस्तुतः समितिगुप्त्यादिपालकत्वं विद्यते । अन्यथा-'यावनिगडबद्धोऽहं तावदेनं ने हनिष्यामि, यावन्न समालपामि तावदहं मृषात्यागी, यावत्सनिद्रोऽहं तावदचौर्यवतो'-त्यादाभिमाना अपि केचिद व्रतधारित्वेन व्यवहियेरन् , किन्तु तेषामान्तरिकेच्छायाः सततानुबन्धितया विद्यमानत्वान्न व्रतित्वमस्ति । भी मार्ग देखकर ही चलते हैं इसलिए वे समितिका पालन करते हैं । और कभी मौन रखते हैं इसलिए गुप्तिका भी पालन करते हैं । जब उनमें समिति-गुप्तिपालकता पाई जाती है तो उन्हें भी भिक्षु क्यों नहीं कहना चाहिए ? समाधान-इहलोक और परलोक सम्बन्धी आकांक्षा या स्वार्थरहित होकर जो समितिगुप्तिका पालन करते हैं वे ही भिक्षु कहलाते हैं। उनमें ऐसा नहीं पाया जाता। वे हिंसासे बचने के लिए मार्ग देख कर गमन नहीं करते, किन्तु कोटे आदि लग जानेके भयसे मार्ग देखकर गमन करते हैं, और यश-कीर्ति सम्पादन करनेके लिए मौन रखते हैं, इसलिए वे वास्तवमें समितिगुप्तिके पालक नहीं हो सकते । यदि उन्हें समितिगुप्तिका पालक माना जाय तो वह मनुष्य भी व्रती कहलायगा जो ऐसी प्रतिज्ञा करे कि "मैं जब तक बेड़ीमें जकड़ा हुआ हूँ तबतक इसे नही मारूँगा" "जब तक न बोलू तब तक मृषावादका त्यागो हूँ" "जब तक सोया रहूँगा શંકા- સમિતિગુપ્ત પાલકતા તે ગેરૂઆ આદિ વસ્ત્ર પહેરનારાઓમાં પણ જોવામાં આવે છે. તેઓ પણ માર્ગ જોઈને જ ચાલે છે, તેથી તેઓ સમિતિનું પાલન કરે છે, અને કેાઈકઈવાર મૌન રહે છે તેથી ગુપ્તિનું પણ પાલન કરે છે, જે તેઓમાં સમિતિમુસિપાલતા જેવામાં આવે છે, તો તેમને પણ ભિક્ષુ કેમ ન કહેવા જોઈએ? સામાધાન-ઈહલોક અને પરલેક સંબંધી આકાંક્ષા અથવા વાર્થરહિત થઈને જેઓ સમિતિ ગુપ્તિનું પાલન કરે છે તે જ મિક્ષ કહેવાય છે તેમાં એવું જોવામાં આવતું નથી. તેઓ હિંસાથી બચવાને માટે માર્ગ જોઈને ગમન કરતા નથી, પરંતુ કાંટા વગેરે વાગી જવાના ભયથી માર્ગ જોઈને ચાલે છે અને યશ કીતિ સંપાદન કરવાને માટે મૌન રાખે છે, તેથી તેઓ વસ્તુતાએ સમિતિ-ગુપ્તિ કે પાલક નથી થઈ શકતાં. જે તેમને સમિતિ-ગુતિના પાલક માનવામાં આવે તે એ માણસ પણ વતી કહેવાશે કે જે એવી પ્રતિજ્ઞા કરે કે-“જ્યાં સુધી હું બેડીથી બંધાયેલ છું ત્યાં સુધી હું તેને નહિ મારૂં” “જયાં સુધી હું ન બોલું ત્યાં સુધી મૃષાવાદને ત્યાગી છું” “ જયાં સુધી સૂઈ રહીશ ત્યાં સુધી અચૌર્ય વ્રતનું પાલન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीदशवकालिकसूत्र __ किश्च भिक्षुम्मन्येषु काषायाम्बरधारिषु नैवाऽयं भिक्षुशब्द आत्मसत्तां लभते, तेपामुद्मोत्पादनादिदोषदुष्टान्नभोजित्व- सचित्ततोयकन्दमूलाधासेवित्व- पचन-पाचनादिक्रियेच्छानिवृत्त्यभावादिदोषदूषितत्वात् , अतो समितिगुप्तिधारका भिक्षामात्रोपजीविनोऽचित्तामेषणीयामुद्गमोत्पादनादिदोषराहित्येन विशुद्धां प्रमाणोपेतां च भिक्षां गृह्णन्ति, प्राणात्ययसमयेऽपि पचनपाचनादिनवकोटिविशुद्धि नैव खण्ड यन्ति त एव भिक्षु पदव्यवहारयोग्यतां लभन्ते, इति विदेलिमम् ।। यद्वा क्षोभते क्षुभ्यति वा अन्तर्भावितण्यर्थतया क्षोभयति-संचालयति चतुर्गतिसंसारे सकलपाणिन इति क्षुप्-अष्टविधं कर्म (अन्तर्भावितण्यादभौवादिकाद् देवादिकाद्वा 'शुभ सञ्चलने' अस्माद्धातोः 'सम्पदादित्वात् क्षिप्) तद् ज्ञानदर्शनादिना भिनत्ति-क्षपयतीति भिक्षुः (पृषोदरादित्वात्सिद्धिः)॥ भिक्षुकी साध्वी । 'संजय०' इत्यादीनि भिक्षु विशेषणानि भिक्षुक्या अपि बोध्यानि उभयोः समानाचारशीलत्वात् । तब तक अचौर्य व्रतका पालन करूँगा वास्तवमें ऐसे मनुष्य व्रती नहीं कहलाते हैं, क्योंकि उनकी आन्तरिक इच्छा पापोंसे निवृत्त नहीं हुई है गेरुआ आदि वस्त्र धारण करनेवाले और अपनेको भिक्षु समझने वाले संन्यासी आदि वास्तव में भिक्षु नहीं कहला सकते, क्योंकि वे उद्गम-उत्पादना आदि दोषोंसे दूषित अन्न आदि अंगीकार करते हैं, सचित्त जल लेते हैं, सचित्त कन्द मूल आदि का सेवन करते हैं, पचनपाचनादि क्रियाएँ करते हैं और इच्छाका दमन नहीं करते है । अतः वास्तवमें वे ही भिक्षु कहलाने योग्य हैं जो समिति-गुप्तिके धारक तथा भिक्षामात्रप्से उपजीवी हैं, अचित्त एषणीय उद्गम आदि दोषरहित विशुद्ध प्रमाणोपेत भिक्षा लेते हैं और प्राण जानेका अवसर आ जाने पर भी पचनपाचन आदि नव कोटिकी विशुद्धताको खण्डित नहीं करते । __अथवा संसारके समस्त शरीरधारियोंको क्षोभित करनेवाले ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों को भेदनेवाले भिक्षु कहलाते है। કરીશ.” વસ્તુતઃ એવો માણસ વતી નથી કહેવાતો, કારણ કે એની આંતરિક ઈચ્છા પાપથી નિવૃત્ત થઈ નથી. ગેરૂઆ આદિ વ ધારણ કરનારા અને પિતાને ભિક્ષુ માનનારા સંન્યાસી આદિ વસ્તુતઃ ભિક્ષુ કહેવાઈ શક્તા નથી, કારણ કે તેઓ ઉદ્ગમ ઉત્પાદન આદિ દોષથી દૂષિત અને આદિ અંગીકાર કરે છે, સચિત્ત જળ લે છે, સચિત્ત કંદમૂળ આદિનું સેવક કરે છે પચનપાચનદિ ક્રિયાઓ કરે છે અને ઈચ્છાનું દમન કરતા નથી. એથી કરીને વસ્તુતઃ તે એ જ ભિક્ષુ કહેવાવા યોગ્ય છે કે જેઓ સમિતિ-ગુપ્તિના ધારક તથા ભિક્ષા માત્રથી ઉપજીવી છે, અચિત્ત, એષણીય, ઉદુગમાદિ–ષથી રહિત, વિશુદ્ધ, પ્રમાણપત ભિક્ષા લૂં છે, અને પ્રાણ જવાનો અવસર આવે તે પણ પચન–પાશનાદિ નવ કેટિની વિશુદ્ધતાને ખંડિત કરતા નથી અથવા સંસારના સર્વ શરીરધારીઓને ક્ષેલિત કરનારાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કમેને ભેદનારા ભિક્ષુ કહેવાય છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० १५ (१) पृथ्वीकाययतना २१३ (१) पृथिवीकाययतना । 1 " संयत- विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात - पापकर्मा - संयतः - वर्त्तमानकालिकसर्व सावधानुष्ठाननिवृत्तः, विरतः अतीतकालिकपापाज्जुगुप्सापूर्वकं भविष्यति च संवरपूर्वकमुपरतो निवृत्त इत्यर्थः अत एव प्रतिहतं = वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहासेन नाशितं प्रत्याख्यातं = पूर्वकृतातिचार निन्दया भविष्यत्यकरणेन निराकृतं पापकर्म = पापानुष्ठानं येन स प्रतिहत प्रत्याख्यात पापकर्मा, संयतश्वासौ विरतश्च (विशेषयोरपि परस्परविशेष्य विशेषणभावविवक्षया समासो गतप्रत्यागतादिवत् ) संयत विरतश्वासौ प्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा चेति तथोक्तः, दिवा दिवसे, रात्रौ - रजन्याम्, एककः = एकाकी द्रव्यतो ध्यानादिहेतोकान्तस्थानस्थितोऽद्वितीयः, भावतो रागद्वेषरहितो वा परिषद्रतः = परि= समन्ततः सीदन्ति - गच्छन्ति गत्वा संहता भवन्ति जना अस्यामिति परिषत् सभा, तां गतः परिषद्गतः - साध्वादिसङ्घ स्थित इत्यर्थः सुप्तः = स्वाध्यायादिजनितश्रमापनोदार्थं रजनी मध्यमयामयुगलमात्रं निद्रितः, जाग्रत्-इन्द्रियादिकरणकविषयज्ञानयोग्यावस्था प्राप्तः निद्राविमुक्तो भवेत् । एवंविधो भिक्षुर्वक्ष्यमाणरीत्या दुष्कृत्यं न करोतीति प्रदर्श्यते से' इति भिक्षुकी साध्वीको कहते हैं। संजय आदि विशेषण साध्वी के साथ भी समझना चाहिए क्योंकि साधु और साध्वीका आचार प्रायः समान है । (१) पृथ्वी काययतना । वर्तमान कालके सब प्रकार के सावद्य व्यापार से निवृत्त होने के कारण संयत, अतीतकालीन पापोंसे जुगुप्सा-पूर्वक और भविष्यत्कालीन पापोंसे संवर-पूर्वक निवृत्त होनेसे विरत, संयत और विरत होनेके कारण वर्त्तमान कालमें स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका ह्रास करके पापकर्म को नष्ट करनेवाले, दिनमें, रात्रिमें द्रव्यसे ध्यान आदिके लिए एकान्तमें स्थित और भावसे रागद्वेषरहित होनेसे एकाकी, अथवा साधुओं के संधमें स्थित, स्वाध्याय आदि से उत्पन्न श्रमको दूर करने के लिए रात्रिके बोचके दो प्रहरोंमें सोते हुए, तथा जागते हुए भिक्षु, आगे कहे हुए सावध व्यापार नहीं करते हैं । , ભિક્ષુકી સાધ્વીને કહે છે. સ’જય આદિ વિશેષણ સાધ્વીની સાથે પણ સમજવાનું છે, કારણ કે સાધુ અને સાધ્વીના આચાર પ્રાયઃ સમાન છે. (१) पृथिवी डाययतना વર્તમાનકાળના સર્વ પ્રકારના સાવઘ-વ્યાપારથી નિવૃત્ત હાવાને કારણે સંયત, અતી. તત્કાલીન પાપેાથી ભ્રુગુપ્સાપૂર્ણાંક અને ભવિષ્યત્કાલીન પાયાથી સવરપૂર્ણાંક નિવૃત્ત હાવાથી વિરત, સંયત અને વિરત હાવાને કારણે વત માન કાળમાં સ્થિતિબધ અને અનુભાગમધના ડાસ કરીને પાપકને નષ્ટ કરનારા, દિવસમાં અને રાત્રે, દ્રવ્યથી ધ્યાન આદિને માટે એકાન્તમાં સ્થિર અને ભાવથી રાગ-દ્વેષ આદિથી રહિત હેવાને કારણે એ કાકી અથવા સાધુઓના સંઘમાં સ્થિત, સ્વાધ્યાય આદિથી ઉત્પન્ન થતા શ્રમને દૂર કરવાને માટે રાત્રિની વચ્ચેના એ પહેારમાં સૂતા તથા જાગતા ભિક્ષુ, આગળ કહેલા સાવદ્ય વ્યાપારને કરતા નથી. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे सः - भिक्षुः पृथिवीं पनि समुद्भूतमृत्तिकारूपाम् भित्ति= सरितीरमृत्तिकाम्, शिलां= विशालपापाणलक्षणाम् लेष्टुं = पिण्डात्मकमृत्खण्डम्, सरजस्कं = सचितरजोऽवगुण्ठितम्, कार्य = शरीरम् वस्त्रं = चोलपट्टप्रमुखं च पात्रादीनामप्युपलक्षणमेतत्, एतेषु अन्यतमं किमपि वस्तु हस्तेन करेण पादेन चरणेन, काष्ठेन खदिरादिदारुखण्डेन, किलिञ्चेन = वंशादिकचिकया, अगुल्या करचरणावयव विशेषेण, शलाकया = लोहादिरचितया, शलाकाहस्तेन=पुञ्जीकृतशलाकाभिवी नाऽऽलिखेत् = सकृत् अयं वा न संघर्षयेत् न विलिखेत् = बहुशोऽविरतं विशेषतो वा न घट्टयेत्=चालयेत् न भिन्द्यात्न विदारयेत् न विदीर्णतां नयेत्, तथाऽन्येन = (सूत्रे त्वार्षत्वाद्वितीया ) स्वव्यतिरिक्तजनेन नाऽऽलेखयेत्, न विलेखयेत् न घट्टयेत् = न भेदयेत् अलिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा अन्यं=व्यक्त्यन्तरं न समनुजानीयात् = नानुमन्येत, इत्येवं भगवदुपदिष्टाचारपद्धतिसंरक्षणपरायणान्तःकरणोऽहं यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेनेत्यादि पूर्ववत् |१| ॥ १५ ॥ सम्प्रति क्रमप्राप्तामपकाययतनामाह - ' से भिक्खू वा ० ' इत्यादि । " मूलम् - भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय-पडिहय-पच्चकापाचकम्मे दिया वा राओ वा परिसागओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा से उदगं वा ओसं वा हिमं वा महियं वा करगं वा हर खानसें निकली हुई मृत्तिकारूप पृथ्वीपर, नदी के किनारे की मिट्टो पर पत्थरकी शिलापर, मिट्टी के ढेलेपर, सचित्त धूलीसे धूसर काय, चोलपट्ट आदि वस्त्र तथा पात्र पर, अर्थात् इनमें से किसी भी पदार्थ पर हाथसे, पैरसे, काष्ठसे, बांस आदिको सटक (छडो-खापटो) से; अंगुलोसे, लोहे आदि की बनी हुई छड़से, अथवा बहुतसी छडों ( सलाइयों) से, न स्वयं एकबार लकीर खींचे, न बारबार लकीर खींचे अर्थात् इनको न घिसे तथा न हिलावे, न विदारे, न दूसरेसे ये सब क्रियाएँ करावे और न ये सब क्रियाएँ करते हुए अन्यको भला जाने । हे गुरुमहाराज ! इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान् द्वारा उपदेश किए हुए आचारकी रक्षा करने में मनको तत्पर रखनेवाला मैं तीन करण तीन योगसे यह सब कार्य नहीं करूँगा || १ ||१५|| ખાણમાંથી નીકળેલી માટીરૂપ પૃથ્વી પર, નદીના કિનારાની માટી પર પત્થરની શિલા પર, માટીનાં ઢેફાં પર, સચિત્ત ધૂળથી ધૂસરકાય, ચેાલપટ્ટો આદિ વસ્ત્ર તથા પાત્ર પર અર્થાત્ એમાંના કોઈ પણ પદાર્થ પર હાથથી, પગથી, કાષ્ઠથી વાંસ આદિની ખપાટથી, આંગળીથી, લેઢા આદિની સળીથી અથવા કાઈપણુ સળીઓથી ન પોતે એકવાર રેખા દ્વાર, ન વારંવાર રેખા દોરા, અર્થાત્ એને ન ઘસે તથા ન હલાવે, ન વિદ્યારે, ન ખીજાએ પાસે એ બધી ક્રિયાઓ કરાવે અને ન એ બધી ક્રિયાએ1 કરનારા અન્યને ભલે જાણે હે ગુરૂ મહારાજ ! એ પ્રકારે સર્વજ્ઞ ભગવાને ઉપદેશેલા આચારની રક્ષા કરવામાં મનને તત્પર રાખનારા એવા હું ત્રણ કરણ ત્રણુ ચેગથી એ બધાં કાર્યં કરીશ નહી. (૧) (૧૫) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४. सू० १६ (२) अप्काययतना तणुगं वा सुद्धोदगं वा उदउल्लं वा कायं उदउल्लं वा वत्थं ससिणिद्धं वा कायं ससिणिद्धं वा वत्थं न आमुसिज्जा न संफुसिज्जा न आविलिज्जा, न पविलिज्जा न अक्खोडिज्जा,न पक्खोडिज्जा, न आया विज्जो, न पायाविज्जा, अन्नं आमुसंत बा, संफुसंतं वा अवीलंतं वा पवीलंतं वा, अक्खोडतं वा, पक्खोडतं वा, आयावंतं वा, पया वंतं वा न समणुजाणिज्जा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजा' णामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥२॥१६॥ छाया–स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्यारख्यातपापकर्मा दिवा या रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा स उदकं वा आवश्यायं वा हिमं या मिहिकां वा करकं वा हरतनुं वा शुद्धोदकं वा उदका वा कायं उदका वा वस्त्रं, सस्निग्धं वा कार्य, सस्निग्धं वा वस्त्रं नाऽऽमृशेन्न संस्पृशेन्नाऽऽपीडयेन्न प्रपीडयेन्नास्फोटयेन्न प्रस्फोटयेन्नातापयेन्न प्रतापयेत्, अन्यमामृशन्तं वा, संस्पृशन्तं वा, आपीडयन्तं वा, प्रपीडयन्तं वा, आस्फोटयन्तं वा, प्रस्फोटयन्तं वा, आतापयन्तं वा, प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि ॥२॥१६॥ (२) अप्काययतना. सान्वयार्थः-संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से वह पूर्वोक्त भिक्खू वा-साधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा दिन में राओवा=अथवा रात्रि में एगो वा अकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित मुत्तेवा-सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुवा रहे वहां से = वह उदगं वाजलको हिमं वा=हिमको महियं वा-कुहरे-भर-को करगं वा-ओलेको हरतणुगं वा-घास पर बंद-बूंद पड़ा हुआ जलविशेपको सुद्धोदगं बा-आकाशसे गिरे हुए निर्मल जलको (और) उदउल्लं वा-जलसे भीने हुए-गीले कायं-शरीरको उदउल्लं वा वत्थं= जलसे भीगे हुए वस्त्रको ससिणिद्धं वा कार्य-कुछ-कुछ गीले शरीरको ससिणिद्धं वा वत्थं कुछ-कुछ गीले वस्त्रको न आमुसिज्जाजराभी स्पर्श न करे न संफुसिज्जा શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्रीदशवैकालिफसूत्रे अधिक स्पर्श न करे, न आवीलिज्जा पीडित न करे, न पवीलिज्जा-अधिक पीडित न करे, न अक्खोडिज्जा-स्फोटन न करे, न पक्खोडिज्जा-प्रस्फोटन न करे, न आयाविज्जा-तपावे नहीं, न पयाविज्जा-अधिक तपावे नहीं, अन्नं-दूसरेसे न आमुसाविज्जा-जराभी स्पर्श न करावे, न संफुसाविज्जा=अधिक स्पर्श न करावे, न आवीलाविज्जा-पीडित न करावे, न पवीलाविज्जा-अधिक पीडित न करावे, न अक्खोडाविज्जा-स्फोटन न करावे, न पक्खोडाविज्जा प्रस्फोटन न करावे, न आयाविज्ना= तपवावे नहीं, न पयाविज्जा=अधिक तपवावे नहीं, आमुसंत वा-जराभी म्पर्श करनेवाले संफुसंत वा अधिक स्पर्श करनेवाले आवीलंत वा=पीडित करनेवाले पवीलंतं वा अधिक पीडित करनेवाले अक्खोडंत वा-स्फोटन करनेवाले पक्खोडंतं वा अस्फोटन करनेवाले आयावंतं वा तपानेबाले पयावंतं वा=अधिक तपानेवाले अन्नं-दूसरेको न समणुजाणिज्जा भला न समझे । जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए-वचनसे कारणं कायसे न करेमि-न करूँगा, न कारवे मिन कराऊँगा, करंतंपि = करते हएभी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा। मंते ! हे भगवन् ! तस्सउस दण्डसे पडिक्कमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि= गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको बोसिरामि = त्यागता हूँ ॥२॥१६॥ (२) अप्काययतरा । टोका–स भिक्षुर्वेत्यादि पूर्ववत् । उदकं = प्रसङ्गात्कूपादिजलम् भूगर्भोद्गतस्रोतोजलमित्यर्थः, अवश्यायं = मेघमन्तरेण रात्रौ पतितं सूक्ष्मतुषाररूपमप्कायम् । हिम = शीतत्तौं शीताधिक्येन घनीभूतमपूकायम् -'बर्फ' इति लोके प्रसिद्धम् । मिहिका हेमन्तशिशिरयोः कदाचित्र सान्द्रतया धूमवत्प्रतिभासमानस्वरूपां कुज्झटिकाम् ' अर' इति अब अप्कायको यतनाका प्रतिपादन करते हैं-'से भिक्खू.' इत्यादि । (२) अप्काययतना । भिक्षु और भिक्षुकी आदि पदोंका अर्थ पहले की भाँति समझना चाहिए। कुएका पानी अर्थात भूमिमें सोता (झरना)से निकलनेवाला जल, ओस,पाला, कुहरा (धू अर), क्षाला (गड़ा), हरतनु (भूमिको भेद कर गेहूँ आदिके अंकुरोंपर जमनेवाले जलबिन्दु), वर्षाका निर्मल जल, इन हमायनी यतनानु प्रतिपाइन रे छ से भिक्खू' त्यहि (२) म ययतना. ભિક્ષ અને ભિક્ષુકી ખાદિ શબ્દનો અર્થ પહેલાંની પેઠે સમજવો. કુવાનું પાણી અર્થાત ભૂમિમાં ત (ઝરણુ) થી નીકળતું જળ, એસ, ઠાર, ઝાકળ, કરા, હરતનું (મિને ભેદીને ઘઉં આદિના અંકુરો ઉપર જામનારા જલબિન્દુબે) વરસાદનું નિર્મળ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू, १७ (३) तेजस्काययतना लोकप्रसिद्धाम् । करकं = किरति = क्षरति पानीयमिति करकं = वर्षोंपलम् । हरतनुम्= भूमिमुद्भिद्य तृणाङ्कुरायुपरि बिन्दुरूपेण स्थितमप्कायविशेषम् । शुद्धोदकम् = आकाशात्पतितं स्वभावनिर्मलं सलिलम् । तथा उदका जलक्लिन्नं कायं वस्त्रं च । सस्निग्धम् स्निग्धमिति भावतान्तम्, स्नेहः = स्निग्धत्वमिति तदर्थस्तेन सह वर्तमानं तत् = बिन्दुरहितमीषदाई कायं वस्त्रं च, स्वयं न आमृशेत् = आ = ईषत् 'आङ्गीषदर्थेऽभिव्याप्तौ सोमार्थे धातुयोगजे' इति कोशात्, मृशेत् = स्पृशेत्, न स्पर्शयुक्तं कुर्यादित्यर्थः । न संस्पृशेत् = न सं-प्रकर्षेण स्पृशेत् । नापीडयेत्, न प्रपीडयेत् । नाऽऽस्फोटयेत्, न प्रस्फोटयेत् । नाऽऽतापयेत्, प्रतापयेत् । शेषं सुगमम् । एषु ('आमृशेत् संस्पृशेत्' इत्यादिषु) सर्वत्र धात्वर्थाऽविशेषेऽप्युपसर्ग (आ. सं. प्र.) कृतवाच्यवैलक्षण्यान्न पौनरुक्त्यदोषावसर इति बोध्यम् ॥२॥१६॥ ___सम्प्रति तेजस्काययतनामाह- से भिक्खू वा' इत्यादि । __ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय पच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा; से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चि वा जालं वा अलायं वा सुद्धागणि वा उक्कं वा न उंजेज्जा न घटेज्जा न भिंदेज्जा न उज्जालेज्जा न पज्जाले ज्जा न निव्वावेज्जा, अन्नं न उंजावेज्जा न घडावेज्जा न भिंदावेज्जा, न उज्जालावेज्जा न पज्जालावेज्जा न निव्वावेज्जा, अन्नं उंजंतं वा घटतं वा भिंदंतं वा उज्जालंतं वा पज्जालंतं वा निव्वावंतं वा न समणुजाणिज्जा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं सबको, तथा जलसे बहुत गीला या थोड़ा गीला शरीर या वस्त्र, इन सबको स्वयं एक बार स्पर्श न करे, बार-बार स्पर्श न करे, वस्त्रको एकबार न निचोड़े, बार-बार न निचोड़े, न एकबार झटके न बार-बार झटके, न एकबार धूपमें सुखावे, न बार-बार सुखावे, न ये सब क्रियाएँ दूसरे से करावे, न करते हुएको भला जाने, शेष सुगम है ॥२॥१६॥ જળ એ સર્વને, તથા જળથી બહુ લીલુ અથવા થેડું લીલું શરીર યા વસ્ત્ર, એ સર્વને स्वयमेवार २५श नही, ४३. वारंवार ५५४ नही ४३. वस्त्रने वा नही नीयाधु, વારંવાર નહિ નીચેવું, એકવાર નહિ ઝાટકું, વારંવાર નહિ ઝાટકું, એકવાર તડકામાં નહીં સુકાવું, વારંવાર નહીં સુકાવું, નહીં એ બધી ક્રિયાઓ બીજા પાસે ન કરાવું, અને કરનારને नही शेष भाग सडे। छे. (२) (१६) २८ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे न समणुजाणामि ! तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥३॥१७॥ __ छाया—स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा, सः अग्नि वा अङ्गारं वा मुर्मुरं वा अचिर्वा ज्वालां वा अलात वा शुद्धाग्निं वा उल्का वा नोसिञ्चेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यान्नोज्जालयेन्न प्रज्यालयेन्न निर्वापयेद्, अन्येन नीत्सेचयेन्न घट्टयेन्न भेदयेन्नोज्ज्वालयेन्न प्रज्वालयेन्न निर्वापयेद् अन्यमुत्सिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा उज्ज्वालयन्तं वा प्रज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जोवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥३॥१७॥ (३) तेजस्काययतना. सान्वयार्थः-संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारों से रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी, सेवह पूर्वोक्त भिक्खू वासाधु भिक्खुणी वा-अथवा साध्वी; दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें; एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित, सुत्ते वा सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से वह अगणि वा-अग्निको इंगालं वा-अंगारेको मुम्मुरं वा-मुमर-भू भूदर-(तुषाग्नि) को अच्चि वा-ज्योति-मूलाग्निसे विच्छिन्न ज्वालाको, जालं वा-मूलाग्निसे अविच्छिन्न जलती हुई ज्वालाको, अलायं वा जिसका अग्रभाग जल रहा हो ऐसे काठको, सुद्धागणिं वा-शुद्ध अग्नि-लोहा पिण्ड में संबद्ध अग्नि अथवा बिजलीरूप अग्निको, उक्कं वा-चिनगारियोको न उंजेज्जा-इंधन डाल कर अग्निको बढावे नहीं, न घटेज्जा-चलावे नहीं, न भिंदेजाभेदे नहीं, न उज्जालेज्जा-थोडाभी जलावे नहीं, न पज्जालेज्जा-प्रज्वलित करे नहीं, न निव्यावेज्जा-बुझावे नहीं, अन्नं दुसरेसे न उंजावेज्जा बढवावे नहीं, न घडावेज्जा-चलवावे नहीं, न भिंदावेज्जा-भिदावे नहीं न उज्जालावेज्जान जलवावे, न पज्जालावेज्जा-न प्रज्वलित करावे, न निव्या वेज्जान बुझावावे, उंजंतं वा-बढानेवाले घट्टतं वा-चलानेवाले भिदंतं वा भेदनेवाले उज्जालंत वा जलानेवाले पज्जालंत वा-प्रज्वलित करनेवाले निव्वावंतं वा-बुझानेवाले अन्नं= दूसरेको न समणुजाणिज्जा-भला न समझे । जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त ( इसको) तिविहं-कृत-कारित-अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं= मनसे वायाए-वचनसे कारणं = कायसे न करेमि = न करूँगा, न कारवेमि = न कराऊँगा, करंतंपि-करते हुएको भी अन्न-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझुगा। भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिक्कमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि = आत्म શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४सू०१७ (२) तेजस्काययतना २१९ साक्षी से निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाण-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि-त्यागता हूँ ॥३॥१७॥ टीका-अग्नि-वतिम , अङ्गारं-नि मज्वालं ज्वलदिन्धनम् , मुम्मुरं-अविरलस्फुलिङ्गसंमिश्रभस्मरूपं तुषानलं वा, 'मुर्मुरस्तु तुषानलः' इति वैजयन्तिकोशात् , अजालिण्डिकाग्नि वा, अर्चिः मूलाग्निविच्छिन्नां ज्वालाम् , ज्वालां-दह्यमानतृणादिसम्बद्धाऽऽ. मूलोज़वप्रसारितेजोराशिम् , अलातं = ज्वलदग्रभागं काष्ठम् , शुद्धाग्निम् = अयः पिण्डानुसंबद्ध विद्युदादिरूपं वा, उल्को = मूलवह्नविच्छिद्य र समन्तात्प्रसर्पदग्निकणात्मिकाम् , (चिनगारी, तडंगिया, इति भाषा) स्वयं न उत्सिञ्चेत् न तत्रेन्धनादिकं प्रक्षिपेत् , न घट्टयेत्-न सञ्चालयेत् , न भिन्द्यात्-दण्डेष्टकखण्डादिना न स्फोटयेत्, न उज्ज्वालयेत्= तालवृन्तादिना सकृदल्प वा न ध्मापयेत्-न वधयेदित्यर्थः, न प्रज्वालयेत सततं बहशो वा न प्रज्वलितं कुर्यात्, न निर्वापयेत्=न विध्यापयेत् न निर्वाणं नयेदित्यर्थः, अन्येन न उत्सेचयेदित्यादि सर्व सुगमम् ।३॥१७॥ वायुकाययतनामाह-'से भिक्खू वा०' इत्यादि । मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विश्य पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे दिया वा राओ वा परिसागओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्तेवा जागरमाणेवा, से सिएण वा विहुणेण वा अग्निकायकी यतना कहते हैं-'से भिक्खू वा० इत्यादि । (३) तेजस्काययतना । अग्नि, अंगारा, भूभल (गर्म राख) बकरीकी लेंडीकी आग, मूलसे टूटी हुई ज्वाला, मूलसे अविच्छिन्न ज्वाला, लुआठा (जलती हुई लकडी), गर्म लोहेके गोलेकी या चिजलीको अग्नि, अथवा चिनगारी आदिमें स्वयं इन्धन न डाले, न संचालन करे (न संघटा करे), न दंड ईंट आदि से उसे भेदे, न पंखा आदिसे एकबार प्रज्वलित करे, न वार-बार प्रज्वलित करे, न बुझावे । न ये सब क्रियाएँ दूसरेसे करावे, न करते हुएकी अनुमोदना करे. इत्यादि सब पूर्ववत् ॥३॥१७॥ यिनी यतन। ४ छ-'से भिक्खू वा०' त्यादि. (3) ता२४७ययतना. અગ્નિ, અંગારા, ગરમ રાખ, બકરીની લીંડીની આગ. મૂળથી તૂટેલી જવાળા, મૂળથી અવિચ્છિન્ન જ્વાલા, બળતા લાકડા, ગરમ લોખંડના ગોળાને અથવા વિજળીને અગ્નિ, अथवा बीमारी माहिम पाते यन (तए) नही नांगे, नही सयासन रे (नही સંઘટન કરે), નહીં દંડ કે ઈટ આદિથી તેને ભેદે, નહી પંખા વગેરેથી તેને એકવાર પ્રજવલિત કરે નહીં વારંવાર પ્રજવલિત કરે, નહીં બુઝાવે, નહીં એ બધી ક્રિયાઓ બીજા પાસે કરાવે નહીં, કરનારની નહીં અનુમોદના કરે ઈત્યાદિ પૂર્વવત્ (૩) (૧૭) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहृणहत्थेणं वा वेलेण वा चेलकन्नेण वा हत्थे वा मुहेण वा अप्पणी वा कार्य बाहिरं वावि पुग्गलं न फुमेज्जा न वी एज्जा, अन्नं न फुसावेज्जा न वीआवेज्जा, अन्नं तं वा वीअंतं वा न समणुजाणिज्जा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण मणेणं वायाए कारण न करेमि . न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजा णामि । तस्स भंत ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाण वोसिरामि ॥ ४ ॥ १८ ॥ २२० छाया - स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्वतो वा जाग्रद्वा स सितेन वा विधूननेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा पत्रभङ्गेन वा शाखया वा पिहुनेन वा पिहुनहस्तेन वा चैलेन वा चैलकर्णेन वा हस्तेन मुखेन वा, आत्मनो वा कार्य बाह्यं वाऽपि पुद्गलं न फूत्कुर्यात्, न वीजयेत्, अन्येन न फूत्कारयेन्न वीजयेद्, अन्यं फूत्कुर्वन्तं वा वीजयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनु · जानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्हे आत्मानं व्युत्सृजामि ||४|| १८ || (४) वायुकाययतना. सान्वायार्थः – संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे = वर्त्तमानकालीन सावद्य व्यापारों से रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावद्य व्यापारोंसे रहित, वर्त्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापार के त्यागी से = वह पूर्वोक्त भिक्खू वा = साधु भिक्खुणी वा = अथवा साध्वी दिया वा = दिनमें राओ वा = अथवा रात्रिमें एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संघ में स्थित सुत्ते वा=सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुवा रहे, वहाँ से वह सिएण वा = चामर से, विहुणेणवा = पंखे से, तालिअंटेण वा ताडके पंखे से पत्तेण वा = पत्तेसे, पत्तभंगेण बा=बहुत से पत्तों से, साहाए वा शाखा डाली से, साहाभंगेण वा शाखा के खण्ड से, पिहुor वा मोरपीसे, पिहुणहत्येण वा = मोरपीछियों के समूह से, चेलेण वा कपडेसे, चेलhoor arrush छोर-परले से, हत्थेण वा = हाथसे, मुहेणवा = मुखसे, अप्पाणी वा= अपने कार्य = शरीरको, वा = अथवा बाहिरं वि पुग्गलं - बाहरी पुद्गलोंको भी न फुमेज्जा = फूक न मारे, न वीएज्जा = चंवर आदिसे हवा न करे, अन्नं-दूसरे से न फुमवेज्जा = फूक न मरावे, न वोआवेज्जा - हवा न करावे, फुमंतं वा = फूंकनेवाले बोअंत वाहवा करने वाले अन्न = दुसरेको न समणुजाणिज्जा-भला न समझे । जावज्जीवाए = जीवनपर्यन्त ( इसको ) तिवि = कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेण - तीन प्रकार શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० १८ (४) वायुकाययतना २२१ के मणेणं मतसे वायाए-वचनसे कारण कायसे न करेमि=न करूँगा, न कारवेमिन कराऊँगा, करंतंपि-करते हुए भी अन्नं दुसरेको न समणुजाणामि= भला नहीं समझूगा। भते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिक्कमामि-पृथक होता है, निंदामि= आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणंदण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूँ ॥४॥१८॥ (४) वायुकाययतना । टीका-सितेन-चामरेण श्वेतत्वगुणवत्त्वेनोपचारात् , विधूननेन-वीजनकेन, तालवृन्तेन-ताले = करतले = वृन्तं = बन्धनमस्येति, तालस्येव वृन्तमस्येति, ताडयते = करादिनाऽऽहन्यत इति तालम् , उभयोरेकत्वस्मणात्, तादृशं वृन्तं यस्येति वा तालमन्तं तालपत्रादिरचितं व्यजन तेन, उपलक्षणमिदं विधुद्वय जनादीनामपि, पत्रेण = कमलिनीदलादिना, पत्रभङ्गेन = दलशकलेन, शाखया = वृक्षभुजया, शाखाभङ्गेन = तदेकदेशेन, पिहनेन = बहिबहण (मयूरपिच्छेन) पिहुनहस्तेन = पुजीकृतमयूरपिच्छेन' चैलेन = वस्त्रेण, चैलकर्णेन = अञ्चलेन (वस्त्रप्रान्तेन) हस्तेन = करेण, पुखेन = वदनेन, आत्मनः= स्वस्य कायं = शरीरं बाह्यमपि पुद्गलम् = उष्णदुग्धादिकं वा स्वयं न फूत्कुर्यात् न मुखेन धमेत् , न वीजयेत् = चामरादिना वातं न सञ्चालयेत् , अन्येन वा न फूत्कारयेत् , इत्याधन्यत्सुबोधम् ॥४॥१८॥ वायुकायकी यतना कहते हैं- से भिक्खू वा०' इत्यादि । (४) वायुकाययतना । चाँवरसे, पंखेसे, ताड़के बने हुए पंखेसे अथा अन्य बिजली आदिके किसी प्रकार के पंखेसे, कमल आदिके पत्तेसे, पत्तेके टुकड़ेसे, वृक्षकी शाखासे, शाखाके खण्डसे, मयूरके पिच्छसे मयूरके बहुतसे पिच्छोंसे, वस्त्रसे, वस्त्र के पल्ले (छोर) से,हाथसे, मुखसे, अपने शरीरको तथा अन्य गरम दूध आदि पुद्गलोंको न स्वयं फूंके न चांवर आदिसे वीजे-वायुका संचालन करे, न दूसरेसे (कावे, न वीजावे, न फूंकते हुए तथा वींजते हुए अन्यको भला जाने, इत्यादि सुगम ही है ॥ वायुयनी यतना ४ छ-'से-भिक्खू वा०' त्या (४) वायुआययतन। ચામરથી, પંખાથી, તાડના બનાવેલા પંખાથી અથવા અન્ય વિજળી આદિના કોઈ પ્રકારના પંખાથી, કમળ આદિનાં પાંદડાથી, પાંદડાના ટુકડાથી, વૃક્ષની શાખાથી, શાખાના ખંડથી, મયૂરના પિચ્છથી, મયૂરના અનેક પીંછાંથી, વસ્ત્રથી, વસ્ત્રના છેડાથી, હાથથી, મુખથી, પિતાના શરીરને, તથા બીજા ગરમ દૂધ આદિ પુદ્ગલોને નહિ સ્વયં કે નહી ચામર આદિથી વીઝે–વાયુનું સંચાલન કરે નહીં, નહિ બીજા પાસે ફેંકાવે, તથા ફેંકનાર तथा वार अन्य स ग नही. त्या स२० छे. (४) (१८) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे वनस्पतिकाययतनामाह-‘से भिक्खू वा०' इत्यादि मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विस्य पडिह य पच्चक्खाय पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसा गता वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, से बीएण वा बीयपइट्ठसु वा रूढेसु वा रूढपइढेसु वा जाएसु वा जायपइट्ठेसु वा हरिएसु वा हरियपइढेसु वा छिन्नेसु वा छिन्नपइटेसु वो सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडि निस्सिएसु वा न गच्छेज्जा न चिट्ठज्जा न निसी इज्जा न तुयट्टिज्जा, अन्नं न गच्छाविज्जा न चिट्ठाविज्जा न निसीयाविज्जा न तुयट्टाविज्जा अन्नं गच्छंतं वा चिट्ठतं वा निसी यंतं वा तुयट्ठतं वा न समणुजाणिज्जा । जावज्जोवाए तिवि तिहं विहेणं मणेणं वायोए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥१९॥ छाया–स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा, स बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रत्तिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा न गच्छेन्नतिष्ठेन्न निषोदेन्न त्वग्वत्र्तयेत् , अन्यं न गमयेन्न स्थापयेन्न निषादयेन्न त्वग्वर्तयेत् , अन्य गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा त्वरवर्तयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥५॥१९॥ (५) वनस्पतिकाययतना. सान्वयार्थः—संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे = वर्तमानकालीन सावध व्यपारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान काल में स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके, तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से = वह पूर्वोक्त भिक्खू वा = साधु भिक्खुणी वा = अथवा साध्वी दिया वा = दिनमें, राओ वा = अथवा रात्रिमें, एगओ वा = अकेला परिसागओ वा = अथवा संघमें स्थित सुत्ते वा = सोया हुआ जागरमाणे वा = अथवा जागता हुआ रहे, वहाँ से = શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० १९ ( ५ ) वनस्पतिकाययतना वह बीएसुवा = शालि आदि बीजों पर, बीयपइट्ठेसु वा = बीजों पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, रूढेसु वा = अङ्कुरित वनस्पति पर रूढ पइट्ठिएस वा = अङकुरित वनस्पति पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, जासु वा = पत्ते आनेकी अवस्थावाली वनस्पति पर, जायपइट्ठेसु वा = पत्ते आनेकी अवस्थावाली वनस्पति पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, हरिएसु बा = हरित पर, हरियपइट्ठेसु वा = हरित पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, छिन्नेसु वा = कटे हुए हरित पर छिन्नपट्ठेसु वा = कटे हुए हरित पर रखे हुए शयन आसन पर स चित्तसु वा = फिर अन्य सचित्त अण्डा आदि सहित वनस्पति पर, सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा = घुने हुएसड़े हुए काठ पर न गच्छेज्जा = गमन न करे, न चिट्ठेज्जा = न खड़ा होवे न निसीइज्जा = न बैठे, न तुअट्टिज्जा = न सोवे, अन्नं दुसरेको न गच्छावेज्जा = न चलावे न चिद्वावेज्जा = न खडा करे न निसीयावेज्जा = न बैठावे, न तुअट्टाविज्जा = न सुलावे, गच्छंत वा = सोते हुए अन्न = दूसरेको न समणुजाणेज्जा-भला न जाने । जावज्जीवाए = जीवनपर्यन्त (इसको ) तिविहं = कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेण = तीन प्रकारके मणेण मनसे वायाए = वचनसे कारणं = कायासे नकरेमि न करूंगा न कारवेसि न कराऊँगा, करंतंपि = करते हुए भी अन्नं दूसरेको न समणु जानामि : = भला नहीं समझुंगा भंते ! हे भगवन् ! तस्स उस दण्ड से पडिक मामि= पृथक होता हूँ, निंदामि - आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि = गुरुसाक्षी से ग करता हूँ, अप्पा = दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि = त्यागता हूँ || ५ ||१९|| (५) वनस्पतिकाययतना. = = २२३ टीका- बीजेषु = शाल्यादिषु, बीजप्रतिष्ठितेषु - बीजोपरिस्थितेषु शयनाऽऽसनादिषु एवमग्रेऽपि प्रतिष्ठितपदव्याख्या कार्या, रूढेसु-अङ्कुरितेषु जातेषु प्ररोहणानन्तरकालिकावस्थां सम्प्राप्तेषु पत्रितेष्वित्यर्थः, हरितेषु = कीर मयूरपक्षसच्छायतां गतेषु, छिन्नेषु = कुठारादिना संछिद्य पृथक्कृतेषु आर्द्रेषु = सचित्तेषु = अन्येष्वपि सजीवाण्डा वनस्पतिकायकी यतना कहते हैं - से भिक्खू वा ०' इत्यादि । (५) वनस्पतिकाययतना शालि आदि बीजों पर, बीजों पर रक्खे हुए शय्या आसन आदि पर, अंकुरों पर अंकुरोंपर रक्खे हुए शयन आदि पर, अंकुर अवस्थाके पश्चात् पत्रित अवस्थाको प्राप्त वनस्पतिपर, अथवा उसपर रक्खे हुए शयन आदिपर, कटो हुई वनस्पतिपर, हरी वनस्पतिपर, तथा इनके सिवाय वनस्पति अयनी यतना डे छे से भिक्स वा० छत्याहि. (घ) वनस्पतिाययतना. ડાંગર આદિ બીજે પર, ખીજો પર મૂકેલાં શય્યા આસન આદિ પર, અંકુરે પર, અંકુરે ઉપર મૂકેલાં શયનાદિ પર, અકુર અવસ્થા પછી પત્રિત અવસ્થાને પ્રાપ્ત થએલી વનસ્પતિ પર, અથવા તે પર મૂકેલાં શયનાદિ પર, કાપેલી વનસ્પતિ પર, લીલી વનસ્પતિ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे , दिषु, सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु = सचितैः सचेतनैः, कोलै: - घुणैः प्रतिनिश्रितेषु = आश्रितेषु जीवगुणयुक्तकाष्ठादिष्वित्यर्थः, न गच्छेत्, न तिष्ठेत् न निषीदेत्-नोषविशेत्, न त्वग्वर्त्तयेत् = वर्त्तनं वर्त्तः = परिवर्तनम् (भावे घञ् ) त्वचः त्वगिन्द्रियस्थ शरीरस्येत्यर्थात् वर्त्तः त्वग्वत्तः = वामपार्श्वतः परावृत्य दक्षिण पार्श्वेन दक्षिणपार्श्वतः परावृत्त्य वामपार्श्वेन वा स्वपनम् त्वग्वर्त्तं करोति त्वग्वर्त्तयति (त्वग्वर्त्तशब्दात् 'तत्करोति तदाचष्टे' इति णिचि टिलोपे धातुत्वाल्लडादयः ) तस्य विधौ त्वग्वर्त्तयेत् - सुप्यादित्यर्थः ॥ ५ ॥ १९ ॥ अथ स काययतनामाह - - ' भिक्खू वा०' इत्यादि । 9 मूलम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय-पडिहयपच्चकखाय - पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथुं वा पिवीलियं वा इत्थंसि वा पायंसि वा बाहुसि वा ऊरुंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा कंबलंसि वा पायपुच्छ सि वा स्यहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेज्जंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहपगारे वगरणजाए तओ संजयामेव पडिलेहिय पडिले हिय पमज्जिय एगंतमवणेज्जा तो संघायमावज्जेज्जा ॥ ६ ॥२०॥ छाया - स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा स, कीटं वा पतङ्ग वा कुन्थुं वा पिपीoिri वा हस्ते वा पादे वा बाहौ वा ऊरौ वा उदरे वा शीर्षे वा वस्त्रे वा पात्रे वा कम्बले वा पादप्रच्छनके वा रजोहरणे वा गोच्छे वा उन्दके वा दण्डके वा पीठके वा फलके वा सजीव अन्डा आदि पर, घुने (मुले) हुए काष्ठ आदिपर न स्वयं गमन करे, न खड़ा होवे, न बैठे, तथा बाँयाँ पसवाडा बदलकर दाहिने पसवाडेसे और न दाहिना पसवाड़ा बदलकर बायें पसवाडे से सोवे अर्थात् पसवाड़ा न बदले, ये सब क्रियाएँ दूसरे से भी न करावे, न करते हुए को भला जाने | इसलिए तीन करण तीन योगसे इनका त्याग करता हूँ, इत्यादि व्याख्यान पूर्ववत् ॥५॥१९॥ પર તથા એ ઉપરાંત સજીવ ઈંડાં આદિ પર, સડેલા કાષ્ઠ આદિ પર નહિ હું સ્વયં ગમન કરૂ, નહી ઉભેા રહું, નહીં ખેસ, તથા ડાબું પડખું બદલીને જમણે પડખે અને જમણુ પડખું બદલીને ડામે પડખે નહી' સૂવુ' અર્થાત્ પડખા નહી બદલું, એ બધી ક્રિયાએ ખીજા પાસે નહીં કરાવું, નહી કરનારને ભલે જાણું. એ રીતે ત્રણુ ત્યાગ કરૂ છું ઇત્યાદિ વ્યાખ્યાન પૂર્વવત્ (૫) (૧૯) કરણ ત્રણ ચાગથી એને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० २० (६) प्रसकाययतना २२५ शव्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे उपकरणजाते ततः संयत एव प्रत्युपेक्ष्य२ प्रमृज्य२ एकान्तेऽपनयेन्नैन संघातमापादयेत् ॥६॥२०॥ (६) त्रसकाययतना. सान्वयार्थः-संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे = वर्तमानकालीन सावध व्यापारों से रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से-वह पूर्वोक्त भिक्खू वा-साधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा = अथवा रात्रिमें एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित सुत्ते वा-सोया हुआ अथवा जागरमाणे वा = जागता हुआ रहे, वहां से वह कीडं वा= कीडेको पयंग वा = पतंगेको कुंथुवा = कुंथुवाको पिवीलियं वा = कीड़ीचिऊंटीको हत्थंसि वा हाथ पर पायंसि वा = पैरपर बाहुंसि वा = भुजापर ऊरुंसि वा जांघपर उदरंसि बा= पेट पर सीसंसि वा = सिरपर वत्थंसि वा = वस्त्रपर पडिग्गहसि वा = पात्रपर कंबलंसि वा = कम्बल पर पायपुच्छणंसि वा पैर पोंछनेके उपकरणविशेष पर रयहरणंसि वा = रजोहरण पर गोच्छगंसि वा = पूजनी पर उंडगंसि वा = स्थण्डिलपात्र पर दंडगंसि वा = दंड पर पीढगंसि वा = चौकी पर फलगंसि वा = पाठे पर सेज्जसि वा = शरीरपरिमित शयन करने के उपकरण पर संथारंगसि वा-संस्तारक-साढे तीन हाथ परिमित बिछौने पर (अथवा) अन्नयरंसि वा = फिर दूसरे तहप्पगारे = इसी प्रकार के उवगरणजाए = उपकरणो पर (लगे हुए पूर्वोक्त कीडे आदिको) तओ = उस स्थान-हाथ पैर आदिसे संजयामेव = यतनाके साथही पडिलेहिय२ = बार-बार प्रतिलेखन करके पमज्जिय२-बार-बार पूजकर एगंतं = एकान्त-निरुपद्रव स्थान-में अवणेज्जा ले जाकर रखदे, (किन्तु उनको) नो णं संघायमावज्जेज्जा-एकट्ठा न करे ॥२०॥ (६) सकाययतना। टीका-हस्ते, पादे, बाहौ, ऊरौ = जानपरिभागे, उदरे, शीर्षे, वस्त्रे = मुख-वस्त्रिकाचोलपट्टादौ, प्रतिग्रहे = प्रतिगृहाति = आधत्ते स्वस्मिन् भक्तपानादिकमिति प्रतिग्रहः अब त्रसकायकी यतना कहते हैं-'से भिक्खू वा०' इत्यादि (६) सकाययतना । हाथ, पैर, भुजा, जाँध, उदर, मस्तक, मुखवस्त्रिका, चोलपट्ट आदि वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन-पैर पोंछने का वस्त्रखण्ड, रजोहरण, गोछा-पूजनी (पैरोंमें लगी हुई रजको पोंछने व सायनी यतना ४ छ-से भिक्खू वा०' त्याह. (8) अययतना. डाथ, ५, सुन, ar, २, भरत, भुभवनि, याण५४ मा १७ पात्र, કામળી, પગલુંછણું, હરણ, પંજણી, Úડિલપાત્ર, વૃદ્ધાવસ્થાઆદિને કારણે ચાલવામાં २९ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रीवैकालिकसूत्रे = पात्रं तस्मिन, कम्बले, पादप्रोञ्छने = प्रोव्छ्यते = प्रमृज्यतेऽनेनेति प्रोञ्छनं = प्रमार्जनसाधनम्, पादयोः प्रोञ्छनं = पादप्रोञ्छनं तस्मिन् = पादप्रोव्छन - साधने वस्त्र खण्डे, रजोहरणे, गोच्छे सचितरजः - संसृष्टचरणप्रमार्जनिकाम् 'पूँजनी' इति भाषा - प्रसिद्धाम्, उण्डके = स्थलिण्डपात्र, दण्डे वृद्धत्वादिना प्रस्थानविप्लवगतिभिरवलम्बनाय धार्यमाणे, नान्यथा, “ थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पर दंडए वा" इत्यादिना स्थविर स्थवि - रभूमिप्राप्तातिरिक्तमुनीनां दण्डाग्राह्यत्वस्य भगवता स्पष्टं प्रतिपादितत्वात्, पीठके = काष्ठनिर्मितचतुरस्राद्यासनविशेषे ', चौकी, चौरंग' इति - भाषाप्रसिद्धे, फलके = शयनोपयोगि काष्ठविरचितपट्टादिरूपे, शय्यायां = शयनोपकरणरूपायां वसतौ वा अस्या अपि धर्मोपकरणत्वात्, संस्तारके = संस्तार्यते = विस्तार्यते शयनार्थिभिरिति संस्तारः (सं+स्तृञः कर्मणि घन् ) स एव संस्तारकः = ( स्वार्थिकः कः ) अर्द्धत्तीय हस्तप्रमाणस्तस्मिन् दर्भादिनिर्मितास्तरणे इत्यर्थः । अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे = तत्सदृशे संयमोपयोगिनि उपकरणजाते = उपक्रियन्ते = उपयुज्यन्ते संयमादिदाढर्चकृते यानि तान्युपकरणानि - स - साधूनां सं यमसाधनाङ्गी भूतोपकारकवस्त्रपात्रादीनि तेषां जातं = समूहस्तस्मिन् उपकरणमात्रे इत्यर्थः, समापतितं कीटादिकत्रसजीवम्, ततः तस्मात् हस्तादेः स्थानात् संयत एव = सम्यग् यतमान एव 'संजयामेव' इति मूलपाठे आर्षत्वाद्दीर्घो मकारश्च प्रतिलेख्य २ = प्रत्यवेक्ष्य२ सम्यगवलोक्येत्यर्थः, प्रमृज्य २ = पौनःपुन्येन प्रमार्जनिकादिद्वारा निस्सार्य एकान्ते निरुपद्रवस्थाने अपनयेत् = नीत्वा स्थापयेत् किन्तु संघातम् = एकत्र पुञ्जीकरणेन पीडाजनकपरस्परशरीरसंघर्षकारणदृढसंयोगं सामान्येन सम्मेलनं वा नो = नैव आपादयेत् = संप्रापयेत् का उपकरण), स्थण्डिलपात्र, वृद्धावस्था आदि के कारण गमन करनेमें असमर्थ मुनिके ( चलने में ) सहायक दण्ड, क्योंकि भगवानने “ स्थविर और स्थविरभूमिको प्राप्त मुनियोंको ही दण्ड धारण करना कल्पनीय है" ऐसा कहा है, अन्यको दण्ड धारण करना मना है । अत एव उनके द्वारा गृहीत दण्ड पर तथा चौकी पाटा (पट्ट) शय्या अर्थात् उपाश्रय, क्योंकि यह भी एक धर्मोपकरण है, संस्तारक अर्थात् दर्भ आदिका बिछौना, तथा संयममें उपयोगी इस प्रकार का अन्य कोई उपकरण, इन सबमें कीट आदि त्रस जन्तु हों तो उन्हें संयमी स्वयं सम्यक् प्रकार प्रतिलेखन कर बार-बार पूँजनी आदिसे पूँजकर बाधारहित एकान्त स्थानमें यतनासे रक्खें, किन्तु उन्हें અસમર્થ મુનિના સહાયક એવેા દંડ, કારણ કે ભગવાને સ્થવિર અને સ્થવિર ભૂમિને પ્રાસ મુનિઓને માટે જ દંડ ધારણ કલ્પનીય છે' એવુ' કહ્યુ' છે, અન્યને દંડ ધારણની મનાઇ છે, એટલે એમણે ધારણ કરેલા દંડ પર, તથા ચાકી, પાટ, શષા અર્થાત્ ઉપાશ્રય કારણ કે એ પણ એક ધમેપકરણ છે સસ્તારક અર્થાત્ દભ આદિનું બિછાનું, તથા સયમમાં ઉપયોગી એ પ્રકારના અન્ય કોઇ ઉપકરણા, એ સમાં કીડી-કીડા આદિ ત્રસ જંતુ હાય તા તેને સંયમી સ્વયં સમ્યક્ પ્રકારે પ્રતિલેખન કરીને વારંવાર પૂંજણી આદિથી પૂજીને ખાધારહિત એકાન્ત સ્થાનમાં યતનાથી મૂકે, પરન્તુ એને એકઠાં કરીને ન રાખે, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ = Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ अध्ययन ४ स्० २० गा० १ अयतनायाः दुःखफलम् 'ण' -मिति वाक्यालङ्कारे । 'संघातो दृढसंयोगः' इति वाचस्पत्यम् । यत्तु केचित्-एकान्तप्रदेशे रक्षार्थ त्रसजीवानां स्थापने साधूनामसंयतिवैयावृत्त्यदोषेण महाव्रतभङ्गो भवतीत्याहुस्तदेतद्भगवदाज्ञाविरुद्धम्, अनेनापि सूत्रेण धर्मोपकरणस्थानां त्रसजीवानां निरुपद्रवप्रदेशे रक्षार्थ यतनया स्थापनविधानात् ।६। ॥२०॥ इत्येवं षट्काययतनामभिधाय सम्प्रति तदपरिपालनपरिणामदारुणत्वं वर्ण्यते-'अजयं चरमाणो' इत्यादि। मूलम्-अजयं चरमाणो य, पाणभूयाई हिंसइ । ६ . ९ १० १३ १२ ११ बंधई पावयं कम्म. तं से होइ कडुयं फलं ॥१॥ छाया-अयतं चरंश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति । ___ बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥१॥ यतना न पालन करने का बुरा फल कहते हैं सान्वयार्थ:-अजयं- अयतनापूर्वक चरमाणो गमन करता हुआ साधु पाणभूयाई - त्रस स्यावर जीवोंकी हिंसइ-हिंसा करता है य=और पावयं कम्म=पापकर्मको बंधई = बांधता है, तं = उस कारण से उस पाप कर्मका फलं-फल कडुयं-दुःखदायी होइ = होता है ॥१॥ इकट्ठा करके न रखें, क्योंकि ऐसा करनेसे उनको पीड़ा होने की संभावना है । कितनेक कहते हैं कि-रक्षाके लिए त्रस जीवको एकान्त स्थानमें रखनेमें साधुको असंयति की वेयावच करनेरूप दोष लगता है और उससे महाव्रतका भंग होता है । यह उनका कहना भगवानकी आज्ञासे विरुद्ध है, क्योंकि इस सूत्रसे भगवानने स्पष्ट विधान किया है कि धर्मोपकरणमें स्थित त्रस जीवोंको रक्षा के लिए निरुपद्रव स्थानमें यतनासे रखना चाहिये ॥६॥२०॥ इस प्रकार षट्कायकी यतना कहकर "उसकी रक्षा नहीं करनेसे भयंकर परिणाम होता है" इस बातका उपदेश देते हैं-'अजयं चरमाणो' इत्यादि । ___ यतना रहित गमन करनेवाला संयत (साधु) द्वीन्द्रिय आदि प्राणोंकी तथा एकेन्द्रिय पृथ्वीकाय आदि भूतोंकी अर्थात् त्रस और स्थावर जीवोंकी हिंसा करता है, और ज्ञानावरणीयादि पाप કારણ કે એમ કરવાથી તેમને પીડા થવાની સંભાવના રહે છે. કેટલાક કહે છે કે રક્ષાને માટે ત્રસ જીવને એકાંત સ્થાનમાં રાખવામાં સાધુને અસંયતિની વૈયાવચ્ચ કરવા રૂપ દેષ લાગે છે અને તેથી મહાવ્રતનો ભંગ થાય છે. એમનું એવું કથન ભગવાનની આજ્ઞાથી વિરૂદ્ધ છે, કારણ કે આ સૂત્રથી ભગવાને સ્પષ્ટ વિધાન કર્યું છે કે ધર્મોપરણમાં સ્થિત વસ જીની રક્ષાને માટે નિરૂપદ્રવ સ્થાનમાં યતનાથી તેમને મૂકવા જોઈએ. (૬) (૨૦) એ રીતે ષકાયની યતના કહીને “એમની રક્ષા નહિ કરવાથી ભયંકર પરિણામ આવે छ, से वातना 64हेश मा छ-अजय चरमाणो त्यादि. યતનારહિતપણે ગમન કરનાર સંયત (સાધુ) દ્વીન્દ્રિય આદિ પ્રાણની તથા એકેન્દ્રિય પૃથિવીકાય આદિ ભૂતોની અર્થાત્ ત્રસ અને સ્થાવર જીની હિંસા કરે છે અને જ્ઞાનાવરણી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका-अयतं यतनारहित यथास्यात्तथा चरन् गच्छन् 'संयतः' इति शेषः, प्राणभूतानि-प्राणन्तीति प्राणः उच्छ्वासादिमन्तो द्वीन्द्रियप्रभृत यो जीवा:; भूतानि भवनशीला एकेन्द्रिया पृथिव्यादयः, प्राणाश्च भूतानि चेति प्राणभूतानि (द्वन्द्वत्वात्परवल्लिङ्गता) तानि-त्रसस्थावराणीत्यर्थः, हिनस्ति-हन्ति, च-तथा पापकं पं% पङ्किलमर्थान्मलिनं भावमापयति, = प्रापयतीति, पं = क्षेमम् आ= समन्तात् पिबति = नाशयतीति, पानंपास्तमर्थात्प्राणिनामात्मानन्दरसपानम् आप्नोति प्रामोति = गृह्णातीति, नरकादिकुगतिषु जीवनं पातयतीति, कर्मरजोभिरात्मानं पांशयति' = मलिनयतीति वा पापं तदेव पापकं = (कुत्सायां कन्) ज्ञानावरणीयादि, कर्म = तत्सम्बन्ध्यतिसूक्ष्मपुद्गलसञ्चयं बन्धाति = उपार्जयति, तत्-तेन हेतुना, तस्य = पापकर्मणः फलं = परिणतिः कटुकं दुःखदम्, यद्वा 'कटुकफल' मिति च्छाया, तत् = पापकर्म तस्य अयतनया गच्छतः कटुकफलं = कटुकम् अनिष्टं फलं = परिणामो यस्य तत् अशुभफलप्रदमित्यर्थः, भवति-जायते । अत्र पक्षे 'कटुक'-मित्यत्रानुस्वार आषत्वात् ॥१॥ मूलम्-अजयं चिट्ठमाणो य पाणभूयाइं हिंसइ । ८ ६ . ९ १० १३ १२ ११ बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥२॥ छाया--अयतं तिष्ठंश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति । बन्धाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥२॥ सान्वयार्थः अजयं = अयतनापूर्वक चिट्ठमाणो = खड़ा होता हुआ साधु पाणभूकर्मका उपार्ज करता है । पाप (१) मलिनताको प्राप्त कराता है, (२) नरक आदि अधोगतिमें पहुँचाता है, (३) आत्माके हितका नाश करता है, (४) प्राणियों के आत्मिक आनन्द रसको सुखा डालता है, (५) आत्माको कर्मरूपी रजसे मलिन कर देता है, इसलिए उसे पाप कहते हैं। अर्थात् अयतनापूर्वक प्रवृत्ति करनेसे जीवोंकी हिंसा होती हैं, और ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्मोंका बन्ध भी होता है, और उस पापकर्म का परिणाम दुःखदायी होता है, तथा उसका कडुआ फल भोगना पड़ता है ॥१॥ યાદિ પાપકર્મનું ઉપાર્જન કરે છે. પાપ-(૧) મલિનતાને પ્રાપ્ત કરાવે છે, (૨) નરક આદિ અધોગતિમાં પહોંચાડે છે, (૩) આત્માના હિતને નાશ કરે છે, (૪) પ્રાણીઓના આત્મિક આનંદ રસને સુકાવી નાંખે છે. (૫) આત્માને કર્મરૂપી રજથી મલિન કરી નાંખે છે, તેથી તેને પાપ કહે છે. અર્થાત્ અયતનાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાથી જીવોની હિંસા થાય છે. અને જ્ઞાના. વરણીય આદિ અશુભ કર્મોને બંધ પણ ઉત્પન્ન થાય છે. એ પાપકર્મનું પરિણામ દુઃખદાયી આવે છે, તથા એનાં કડવાં ફળ ભેગવવાં પડે છે. (૧) १ पांशयति = पशु-धूलिः, 'पांशुर्ना न द्वयो रजः' इत्यमरः' सोऽस्यास्तोति पांशुमान् पांशुमन्तं करोति पांशयति 'तत्करोति तदाचष्टे' इति णिचोष्ठवद्भवात् 'विम्मतोलुंग' इति मतुपो लुकू' तष्टिलोपः । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ अध्ययन ४ गा० २-६ अयतनायाः दुःखफलम् याई = त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसइ = हिंसा करता है य = और पावयं कम्मं = पाप कर्मको बंधई = बांधता है, तं = उस कारण से = पापकर्म का फलं = फल कडुयं = दुःखदायी होइ = होता है ॥२॥ टीका-'अजयं चिट्ठमाणो' इत्यादि । अयतं = यतनारहितं तिष्ठन् = करचरणादिप्रसारणेनाऽनवहितं दण्डवावस्थानं कुर्वन् । प्राग्वद्वयाख्येयम् ॥२॥ मूलम्-अजयं आसमोणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । . . ९.१० १३ १२ ११ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कड़यं फलं ॥३॥ छाया-अयतमासीनश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति ।। बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥३॥ सान्बयार्थः-अजयं-अयतना-पूर्वक आसमाणो-बैठता हुआ साधु पाणभूयाइंस स्थावर जीवों की हिंसइ हिंसा करता है, य और पावयं कम्म पापकर्म को बंधई बांधता है, तं-उस कारण से-उस पापकर्म का फलं-फल कडुयं-दुःखदायी होइ-होता है ॥३॥ टीका-'अजयं आसमाणो' इत्यादि । अयतमासीनः प्रमार्जनं विनाऽनुपयुक्तोऽनवहित उपविशन्नित्यर्थः । शेषं पूर्ववत् ॥३॥ भूलम्-अजयं सयमाणो य पोणभूयाइं हिंसइ । ६. ७ ९ १० ११ १२ ११ बंधई पावयं कम्म. तं से होइ कडयं फलं ॥४॥ छाया-अयंत स्वपंच, प्राणभूतानि हिनस्ति ।। बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥४॥ सान्वयार्थः-अजय-अयतना पूर्वक सयमाणो-सोता हुआ साधु पाणभूयात्रस स्थावर जीवोंकी हिंसइ-हिंसा करता है, य=और पावयं कम्म-पापकर्मको बंधई-बांधता है, तं-उस कारण उस पापकर्म का फलं फल कडुयं-दुःखदायी होइ होता है ॥४॥ टीका-'अजयं सयमाणो' इत्यादि अयतं स्वपन्-शय्या प्रमार्जनादिकं विना प्रकामशय्यादिना दिवसे वा शयानः । शेषं पूर्ववत् ॥४॥ 'अजयं चिट्रमाणो' इत्यादि । अयतनापूर्वक खड़ा होने,,से पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता ।।२।। 'अजयं आसमाणो' इत्यादि । भूमि आदिकी विना प्रर्माजना किये हो अयतनापूर्वक बैठनेसे पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥३।। _ 'अजयं चिठमाणो' त्यादि. २५यत पू४ मा २ाथी ५५ चाय छ भने તેનાં કડવાં ફળ આવે છે (૨) 'अजयं आसमाणो' इत्यादि सूभि माहिनी प्रभा नाविना मयतनाव : सपाथी પાપકર્મ બંધાય છે, અને તેનાં કડલાં ફળ મળે છે. (૩) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशयैकालिकस्त्रे मूलम्-अजयं भुंजमाणो य, पाणभूयाई हिंसइ । ६ ७ ९ १० १३ १२ १३ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कटुयं फलं ॥५॥ छाशा--अयतं भुजानश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥५॥ सान्वयार्थः-अजयं-अयतना-पूर्वक भुजामाणो खाता हुआ साधु पाणभूयाइंसस्थावर जीवोंकी हिंसइ हिंसा करता है, य=और पावयं कम्म-पाप-कर्मको बंधता है, तं= उस कारण से-उस पापकर्मका फलं-फल कडुयं दुःखदायी होइ-होता है ॥५॥ टीका-'अजयं भुंजमाणो' इत्यादि । अयतं भुजानः यथाकल्पलब्धान्त प्रान्ताद्याहारं संयोजनादिमण्डलदोपापरिहारेण चपड़-चपड़-शब्दपूर्वकमभ्यवहरन् । अन्यत् सुबोधम् ॥५॥ मूलम्-अजयं भासमाणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । ८. ६ ७ ९ १० १३ १२ ११ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअं फलं ॥६॥ छाया--अयतं भापमाणश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥६॥ सान्वयार्थः-अजय-अयतना-पूर्वक भासमाणो-बोलता हुआ साधु पाणभूयाइं= उस स्थावर जीवोंकी हिंसइ-हिंसा करता है, य=और पावयं कम्म-पापकर्मको बंधई बांधता है, तं-उस कारण से उस पापकर्मके फलं-फल कडुयं-दुःखदायी होइ = होता है ॥६॥ टीका-'अजयं भासमाणो' । इत्यादि । अयतं भाषमाणः = अयतनया ब्रुवन् । ननु यतनापूर्वकभाषणार्थमेव मुनिर्मुखवस्त्रिकां बध्नातीति तं प्रति पुनरयं विधि 'अजयं सयमाणो' इत्यादि । अयतनासे अर्थात् शय्याकी प्रमार्जना न करके शयन करनेसे पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥४॥ 'अजयं भुंजमाणो' इत्यादि । साधुके कल्पके अनुसार प्राप्त हुए आहारका संयोजना आदि मण्डल दोषों का परित्याग न करके 'चपड़-चपड़' आदि शब्द करते हुए भोजन करनेसे पापकर्म बंधता है और उसका फल कडुआ होता है ॥५॥ 'अजयं भासमाणो' इत्यादि । अयतनापूर्वक भाषण करनेसे हिंसा होती है और पापकर्मका મકાઇ સમાજે ઈત્યાદિ. અયતનાથી અર્થાત શયાની પ્રમાર્જના કર્યા વિના શયન કરવાથી પાપકર્મ બંધાય છે અને એનાં કડવા ફળ મળે છે. (૪) . अजय भुजमाणो छत्याहि. साधुन। ४६५२ अनुसार प्रात थमेव माहाना सोना આદિ મંડલ દોષને પરિત્યાગ કયો વિના ‘ચ પડ-ચપડ’ અવાજ કરતાં ભજન કરવાથી પાપકર્મ બંધાય છે. અને તેનાં કડવાં ફળ આવે છે. (૫) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० ७-८ अयतनायाः दुःखफ लम् ........२३१ यर्थ एवेति चेन्न, यथाविधिनिबद्धमुखवस्त्रि कस्यापि मुनेरनृतकर्कशादिसावद्य-भाषणेऽनावृतमुखेन भाषणवदयतना भवतीति सर्वथा भाषासमितिसमाराधनाऽवधानमाधातुमस्योपदे. शस्य सार्थक्यात् । शेषं पूर्ववद्वयाख्येयम् ॥६॥ मूलम्-कहं चर कहं चिट्ठ कहमासे कहं सए । १२ १३ १४ ___ कहं भुंजतो भासतो, पावकम्मं न बंधई ॥७॥ छाया--कथं चरेत् कथं तिष्ठेत्, कथरमासीत कथं शयीत । ___ कथं भुजानो भाषमाणः, पापकर्म न बध्नाति ॥७॥ सान्वयार्थ :-शिष्य पूछता है-(अगर ऐसा है तो हे गुरु महाराज !)कई = कैसे चरे = गमन करे ?, कई = कैसे चिट्टे = खड़ा हो ?, कहं = कैसे आसे = बैठे ?, कई = कैसे सए = सोवे ?, कहं = किस प्रकार मुंजतो = आहार करता हुआ (तथा) भासतो = पोलता हुआ पावकम्म = पापकर्म न बंधई = नहीं बांधता है ॥७॥ शिष्यः पृच्छति-'कहं चरे' इत्यादि । टीका--हे भगवन् ! यद्येवं तर्हि संयतः कथं केन प्रकारेण चरेत्-विहरेत् ?, कथं बन्ध होता है । उस पापकर्मका फल कडुआ होता है । प्रश्न-हे गुरु महारज ! अयतनाको दूर करनेके लिए ही मुखवस्त्रिका मुख पर बाँधी जाती है, फिर उनके प्रति 'अजयं भासमाणो य ऐसा उपदेश देना कैसे संगत है ?।। ___ उत्तर-हे शिष्य ! सुनो; मुख पर मुखवस्त्रिका सदा बाँधी रहने पर भी असत्य कर्कश कठोर आदि बोलनेसे तथा सावध उपदेश देनेसे उसी प्रकार अयतना होती है जिस प्रकार खुले मुख बोलनेसे होती है। साधुको भाषासंबन्धी सब प्रकारकी अयतनाका त्याग करना चाहिए इसलिए यह अयतनाके त्यागका उपदेश दिया गया है ॥६॥ शिष्य पूछता है-'कहं चरे०' इत्यादि । हे भगवन् ! यदि ऐसा है तो मुनि कैसे चले ? कैसे खड़ा रहे ? कैसे बैठे ? कैसे शयन अजयं भासमाणो त्या मयतनापू भाषय ४२वाथा हिंसा थाय छे. मने पाप બંધાય છે. એ પાપકર્મના ફળ કડવાં આવે છે. પ્રશ્ન-હે ગુરૂ મહારાજ ! અયતનાને દૂર કરવાને માટે મુખવસ્ત્રિકા મુખ પર બાંધવામાં भाव छ, पछी तमनी प्रत्ये 'अजयं भासमाणो य' सव अपहेश मा वारीत सात छ ? ઉત્તર–શિષ્ય ! મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા સદા બાંધી રહેવા છતાં પણ અસત્ય કર્કશ કઠોર આદિ બલવાથી તથા સાવદ્ય ઉપદેશ આપવાથી એવા પ્રકારની અયતના થાય છે કે જેવા પ્રકારની અયતના ઉઘાડે મોંએ બોલવાથી થાય છે. સાધુએ ભાષાસંબંધી સવ* પ્રકારની અયતનાનો ત્યાગ કરે જોઈએ, તેથી આ અયતનાના ત્યાગને ઉપદેશ આપવામાં भाव्य छे. (६) शिष्य पछे छ-'कहं चरे.' त्या€, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ श्रीदशवकालिकसूत्रे =केन प्रकारेण तिष्ठेत् स्थितो भवेत् ?, कथं केन रूपेण आसीत-उपविशेत् ?, कथं शयोत-स्वप्यात् ?, कथं वा भुञ्जानः अभ्यवहरमाणः, भाषमाणश्च पापकर्म-व्याख्यातपूर्व न बनाति ? ॥७॥ मूलम्-जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए ९ १० ११ १२ १३ १४ जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधई ॥८॥ छाया-यतं चरेद् यतं तिष्ठेद, यतमासीत यतं शयीत । यतं भुजानो भाषमाणः, पापकर्म न बनाति ॥८॥ सान्वयार्थ:-गुरु महाराज उत्तर देते हैं-जयं-यतनापूर्वक चरे-गमन करे जयं= यतनापूर्वक चिट्टे खड़ा होवे जयं-यतनापूर्वक आसे बैठे जयं यतना पूर्वक सए= सोवे (और) जयं यतना पूर्वक भुंजतो-खाता हुआ तथा भासंतो=बोलता हुआ पावं कम्म=पापकर्म न बंधई नहीं बांधता है ॥८। टीका-यतम् ईर्यादिसमितिसमन्वितं यथा तथा चरेत्-विहरेत्, यतं तिष्ठेत् करचरणादिकमविक्षिपन् समवहितो दण्डावस्थितिं विदध्यात्, यतमासीत=यतनया-हस्तपादाघाकुञ्चनप्रसारणादिकमकुर्वन् सोपयोगमुपविशेत्-दृढासनादिना स्थिरः सन्नावश्यककायमन्तरेण नेतस्ततो भ्रम्येदित्यर्थः, यतं शयीत-प्रकाम-शयनीयादिपरिहारेण स्वप्यात, यतं भुजानः यथाकल्पप्राप्ताहारं संयोजनादिमण्डलदोषवर्जनपुरस्सरं 'चपड़-चपड़' इतिकरे : कैसे आहार करे ? और कैसे बोले ? जिससे पापकर्म न बंधने पावे ॥७॥ गुरु महारज उत्तर देते हैं-'जयं चरे०' इत्यादि । हे शिष्य ! संयत ईर्यासमितियुक्त होकर चले, यतनासे खड़ा रहे, अर्थात् हाथ-पैर न हिलाता हुआ सावधान होकर दंडकी तरह खड़ा रहे यतनासे बैठे अर्थात् वृथा हाथ पैर न हिलावे, उपयोग-सहित दृढासन आदिसे बैठे, विना कार्यके इधर उधर न हिले, यतनासे शयन करे अर्थात् प्रकाम शय्याका परिहार करता हुआ सोवे, यतनासे आहार करे अर्थात् जैसा निरवद्य आहार मिल जाय उसोमें सन्तुष्ट रहे और 'चपड़-चपड़' आदि शब्द न करते हुए भोजन करे, न भोजन હે ભગવન ! જે એમ છે તે મુનિ કેવી રીતે ચાલે ? કેવી રીતે ઉભે રહે? કેવી રીતે બેસે ? કેવી રીતે સૂએ ? કેવી રીતે આહાર કરે ? અને કેવી રીતે બેલે ? કે જેથી पा५ भ म न पा ? (७) शु३ महा। उत्तर साये छ-जयं चरेत्याहि. હે શિષ્ય ! સંયત ઈર્ષા સમિતિયુક્ત થઈને ચાલે, યતનાથી ઉભો રહે, અર્થાત્ હાથપગ ન હલાવે ને દંડની જેમ ઉભું રહે. યતનાથી બેસે અર્થાત્ વૃથા હાથ-પગ ન હલાવે ઉપગ સહિત દઢાસન આદિથી બેસે, કાર્ય વિના આમ-તેમ હલે નહીં, યતનાથી શયન કરે, યતનાથી આહાર કરે, અર્થાત્ જે નિરવદ્ય આહાર મળી જાય તેમાં જ સંતુષ્ટ રહે અને “ચપડ-ચપડ’ અવાજ કર્યા વિના ભેજન કરે, ભોજનમાં રાગ-દ્વેષ ન કરે તેનાથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० ९ यतनावतो न पापकमबन्धः शब्दमकुर्वाणोऽभ्यवहरमाणः, यतं भाषमाणः- निबद्धमुखवत्रिकः सन् हितमितमृद्वादिनिरवद्यभाषयावसरे समालपन् पापकर्म न बध्नाति = न बनीयात् ||८|| किञ्च - 'सव्वभूय ० ' इत्यादि । १ ३ २ ४ मूलम् - सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाई पासओ । ६ ८ ९ पहिआसवस तस्स, पावकम्मं न बंधई ॥ ९ ॥ छाया - सर्वभूतात्मभूतस्य, सम्यग् भूतानि पश्यतः । पिहितास्रवस्य दान्तस्य पापकर्म न बध्यते ॥ ९ ॥ २३३ सान्वयार्थ :- सव्वभूयप्पभूयस्स = सब प्राणियोंको अपने समान समझनेवाले सम्म =सम्यक् प्रकार-भागमानुसार भूयाइं जीवोंको पासओ - देखने-समझने-वाले पिहिआसवस = आस्रवको रोकनेवाले दंतस्स = जितेन्द्रिय साधुके पावकम्मं पापकर्म न बंधाई - नहीं बंधा है ॥९॥ टीका - सर्वभूतात्मभूतस्य = सर्वाणि च तानि भूतानि सर्वभूतानि = एकेन्द्रियादारभ्य पञ्चेन्द्रियपर्यन्तं सर्वे जीवास्तेषु आत्मभूतः - आत्मसदृशः, जीव आत्मानं रक्षितुं यथा प्रयतते तथा यथाविधिसकलजीवरक्षासावधान इत्यर्थः, तस्य भूतानि सम्यक् = प्रवचनप्रतिपादित स्वरूपेण पश्यतः - प्रेक्षमाणस्य निखिलप्राणिगणस्वरूपं याथातथ्येन पर्यालोचयत इत्यर्थः । पिहितास्त्रवस्य - पिहिताः = आच्छादिता आस्रवाः - कर्मागमहेतवो येन स पिहितास्रवः = प्रतिरुद्ध कर्म द्वारस्तस्य : दान्तस्य दमयति वशं नयति इन्द्रियाऽश्वानिति दान्तः = जितेन्द्रियस्तस्य पापकर्म न बध्यते = तस्य पापलेपो न जायत इत्यर्थः ॥ ९ ॥ में राग-द्वेष करे । यतनासे भाषण करे अर्थात् हित मित मधुर और निरवद्य भाषा बोले, खुले मुंह न बोले, तथा कर्कश कठोर शब्दोंका उच्चारण न करे और निष्प्रयोजन न बोले । ऐसा करनेसे पापकर्म नहीं बंधता है ||८|| और - 'सव्वभूय ० ' इत्यादि । समस्त प्राणियों में आत्मतुल्य बुद्धि रखनेवाले, तथा आगमके अनुसार जीवोंका स्वरूप समझनेवालेको, कर्मोंके आगमन के कारण (आस्रव) का निरोध करनेवालेको पापकर्मका बंध नहीं होता है ॥९॥ ભાષણ કરે અર્થાત્ હિત મત મધુર અને નિરવદ્ય ભાષા એટલે, ખુલે માઢ ખેલે નહિ. એમ કર્વાથી પાપકમ ખધાતું નથી. (૮) मने - सव्वभ्य० धत्याहि. બધાં પ્રાણીઓમાં આત્મતુલ્ય બુદ્ધિ રાખનારા, અને ભાગમ અનુસાર જીવાનું સ્વરૂપ સમજનારાને, કર્મીના આગમનનાં કારણેા (આસવા) ના નિરોધ કરનારાઓને પાપકમનું अधन धतु नथी. (e) ३० શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ___ श्रीदशवैकालिकसूत्रे ननु क्रियैव पापकर्मावरोधश्वेत्तर्हि तदर्थमेव यतनीयं कृतं ज्ञानेनेति चेदत्रोच्यते नहि ज्ञानमन्तरेण क्रिया कदाचिदपि फलाय कल्पते प्रत्युतोन्मत्तक्रियावदनानुबधिनी स्यादिति ज्ञानविरहितकेवलक्रियाप्रवृत्तिलॊकानां मा स्म भूदतो ज्ञानस्य क्रियापेक्षया प्राथम्यं दर्शयति-'पढमं नाणं' इत्यादि । मूलम्-पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सबसंजए । ८ ९ १० ११ १२ १४ १३ अन्नाणी किं काही; किंवा नाही छेय-पावगं ॥१०॥ छाया-प्रथमं ज्ञानं ततो दया, एवं तिष्ठति सर्व संयतः । ___ अज्ञानी किं करिष्यति, किं वा ज्ञास्यति छेक-पापकम ॥१०॥ सान्वयार्थः-पढम-पहले नाणं ज्ञान है तो उसके पश्चात् दया-दया अर्थात् चारित्र है एवं-इसी प्रकार सव्वसंजए-सर्वसंयत साधु चिट्ठइ-आचरण करते हैं, अन्नाणी सम्यग्ज्ञानसे रहित पुरुष किंकाही क्या कर सकता है-कैसे संयम पाल सकता है, अर्थात नहीं पाल सकता । (और) किं वा कैसे छेयपावर्ग-उपादेय और हेयको नहीं जान सकता है ?, अर्थात् नहीं जान सकता ॥१०॥ टीका-प्रथमम् आदौ ज्ञान-ज्ञायन्ते-बुध्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था येन यस्माद् यस्मिन् वा तज्ज्ञानं स्वपरस्वरूपपरिच्छेदलक्षणम्, अपेक्ष्यं भवतीत्याशयः, क्रियामात्रस्य ज्ञानपूर्वकत्वे हि स्वाभीष्टसिद्धिकत्वात्, ततः तदनन्तरं दया क्लेशाकुलप्राणिसंकष्टमोचनेच्छालक्षणाऽनुकम्पा, दयाशब्देन चात्र क्रियामात्रमुपलक्ष्यते, एवम् =अनेन प्रका प्रश्न - हे गुरुमहराज ! यदि केवल क्रियासे पापकर्मोंका निरोध हो जाता है तो क्रिया ही करनी चाहिए, ज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर- हे शिष्य ! ज्ञानके विना क्रिया का कुछ फल नहीं होता, ज्ञानरहित क्रिया उन्मत्त (पागल) पुरुषकी क्रियाके समान अनर्थको उत्पन्न करती है। कोई जीव ज्ञानरहित क्रिया न करे' इस अभिप्रायसे 'पहले ज्ञान फिर क्रिया होनी चाहिए ',-इस बातको शास्त्रकार कहते हैं-'पढमं नाणं०' इत्यादि । ___ जिससे स्व-परका बोध होता है उसे ज्ञान कहते हैं। वह ज्ञान प्रथम है, क्योंकि जीव आदि नव पदार्थका ज्ञान होने पर ही संयम अर्थात् षड्जीवनिकायकी दया का पालन हो सकता પ્રશ્ન-હે ગુરૂ મહારાજ ! જે કેવળ ક્રિયાથી પાપકર્મોને નિરોધ થઈ જાય છે તે ક્રિયા જ કરવી જોઈએ, જ્ઞાનની શી આવશ્યકતા છે ? ઉત્તર–હે શિષ્ય ! જ્ઞાન વિના ક્રિયાનું કશું ફળ હેતું નથી. જ્ઞાનરહિત ક્રિયા ઉમર (ગાંડા) પુરૂષની ક્રિયાની પડે અનર્થને ઉત્પન્ન કરે છે. “કઈ જીવ જ્ઞાનરહિત ક્રિયા ન કરે એવા तथी 'प्रथम ज्ञान पछया में भावात सूत्रधार छ-पढमं नाणं० ४त्या. જે વડે સ્વપરને બંધ થાય છે તેને જ્ઞાન કહે છે.એજ્ઞાન પ્રથમ છે કેમકે જીવ આદિ નવ પદાર્થનું જ્ઞાન થયા પછી જ સયમ અર્થાત્ ષડૂજીવનિકાયની દયાનું પાલન થઈ શકે છે. અહીં દયા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० ११ ज्ञानप्रापयुपाय: २३५ रेण क्रियाया ज्ञानपूर्वकत्वाऽवबोधरूपेण सर्वसंयतः सर्वविरतः साधुरित्यर्थः, तिष्ठति= वर्त्तते, कथमिदमुच्यते ? इत्याशङ्कायामाह-अज्ञानी-तत्त्वातत्त्वविवेकलक्षणज्ञानविरहितः किं करिष्यति=किं विधास्यति, किंवा कथं वा छेकं-पापकं, छेकश्च पापकं, चानयोः समाहारे छेकपापकं, तत्र छेकं-कल्याणम् उपादेयमित्यर्थः, पापकम् अकल्याणं हेयमित्यर्थः, ज्ञास्यति वेत्स्यति जन्मनाऽन्ध वदन्न किश्चिदपीत्यर्थः, अतो ज्ञानार्थमेव प्रथमं यतनीयम् "हेया अन्नाणिणं किया" इत्युक्तेः ॥१०॥ ज्ञानमहत्त्वं प्रदर्य सम्प्रति तत्प्राप्त्युपायमाह-"सोच्चा जाणइ” इत्यादि । मूलम्-सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । १० ११ १२ १३ उभयपि जाणई सेोच्चा. जं सेयं तं समायरे ॥११॥ छाया-श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम् । उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्रेयस्तत्समाचरेत् ॥११॥ अब जानने का उपाय बताते हैं सान्वयार्थ:-सोच्चा-गुरुमुखसे सुनकर कल्लाणं कल्याण-दयारूप संयमको जाणइ-जानता है, (तथा) सोच्चा-सुनकर ही पावगं-पाप हिंसारूप असंयमको जाणइ= जानता है, (और) उभयपि दोनोंको भी सोच्चा-सुनकर ही जाणई = जानता है। (अतः) जं = जो सेयं = आत्माके हितकारी हो तं = उसका समायरे = आचरण करे ॥११॥ टीका-श्रुत्वा = गुरुमुखादाकर्ण्य श्रतज्ञानविषयीकृत्येत्यर्थः, कल्याणम् = कल्यो मोक्षः कर्मबद्धसकलोपाधिव्याधिवाधाविधुरत्वात्, तम् आ = समन्तादणति-प्रापयतीति, है। यहाँ दया शब्दसे समस्त क्रियाओंका ग्रहण होता है । अर्थात् सभ्यगज्ञानपूर्वक की हुई ही क्रिया सफल होती है, इसलिए मुनि ज्ञानपूर्वक ही क्रियाएँ करते हैं, क्योंकि तत्त्व और अतत्त्वके विवेकसे रहित अज्ञानी क्या करसकता है ? अर्थात् कुछ नहीं कर सकता, और जन्मान्धके समान उसे हेय-उपादेयका ज्ञान ही कैसे हो सकता है। ? अर्थात् नहीं हो सकता, अतः पहले ज्ञानके लिए प्रयत्न करना चाहिए । कहा भी है-"ज्ञानके विना क्रिया निरर्थक है" ॥१०॥ ज्ञानका महत्त्व बताकर अब उसकी प्राप्तिका उपाय कहते हैं-"सोच्चा जाणइ०" इत्यादि कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली समस्त आधि-व्याधि और बाधासे रहित मोक्षकी प्राप्ति कराने શબ્દથી બધી ક્રિયાઓનું ગ્રહણ થાય છે. અર્થાત સમ્યગજ્ઞાનપૂર્વક કરેલી યા જ સફળ થાય છે તેથી મુનિ જ્ઞાનપૂર્વક જ ક્રિયાઓ કરે છે. કારણ કે-તવ અને અતત્વના વિવેકથી રહિત અજ્ઞાની શું કરી શકે ? અર્થાત્ કશું નથી કરી શકતા અને જન્માંધની પેઠે એને હેય-ઉપાદેનું જ્ઞાન કેવી રીતે થઈ શકે? અથતુ નૂથી થઈ શકતું, તેથી પહેલા જ્ઞાનને માટે પ્રયત્ન ४२ मे. ४ छ -“ज्ञान विनानी जिया नि२४ छ.” (१०) ज्ञाननु मत्व मतावान वे सनी लिन पाय ४९ छे-सोचा जाणइ० त्याह શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कल्येन = आरोग्येण आरोग्यकरणेनेत्यर्थः ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणमोक्षमार्गोपदेशद्धारेति भावः, आनयति = जीवयति सांसारिकविशालविषयकाननसंलग्नेष्टवियोगानिष्टसंयोगदावानलज्वालामालावलीढान् प्राणिन इति कल्याणं = दयाभिधानसंयमस्वरूपं, निपातनाण्णत्वम्, तदुपादेयभूतं जानाति, श्रुत्वा च पापक-नरकादिकुगतिपातिनं हेयभूतमसंयमं जानाति, उभयमपि-उपादेयानपादेयभूतसंयमासंयमलक्षणं द्वयमपि श्रुत्वैव जानाति । निष्कर्षमाह-अत्र यत् श्रेया हितं तत् समाचरेत्=विदध्यात् ॥११॥ मूलम्-जो जीवे वि न याणेइ अजीवे वि न याणइ । जीवजीवे अयाणतो, कह सो नाहीइ संजमं ॥१२॥ छाया-यो जोवानपि न जानाति, अजीवानपि न जानाति । जीवाऽजीवानजानन् कथं, स ज्ञास्यति संयमम् ॥१२॥ सान्वयार्थः-जो जो जीवेवि जीवोंकोभी न याणेइ-नहीं जानता है (और) अजीवेवि अजीवोंकोभी न याणेइ=नहीं जानता है, जीवाजीवे जीवों और अजीवोंको अयाणंतो नहीं जानता हुआ सो वह संजमं संयमको कई-कैसे नाहीइ-जानेगा ! अर्थात् नहीं जान सकता ॥१२॥ टीका-जो 'जीवेवि' इत्यादि । यः जीवान् एकेन्द्रियादीन्, जीवलक्षणं तु मत्कतात्तत्त्वप्रदीपाद्विशेषतोऽवगन्तव्यम्, न जानाति-न वेत्ति, तथा अनीवान्जीवविपरीतलक्षवालेको, अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूपी आरोग्यसे, हितवचन अथवा उपदेशसे संसारके विषय रूपी विशाल वनमें धधकती हुई इष्टवियोग अनिष्टसंयोगरूप दावाग्निी ज्वालाओंमें जलते हुए जीवोंको शान्ति देनेवालेको कल्याण कहते हैं । इस कल्याण (संयम) का ज्ञान गुरुमुखसे सुनकर हीं होता है । पाप अर्थात् नरक आदि कुगतियोंमें गिरानेवाले असंयमका ज्ञान भी सुननेसे ही हो ता है, तथा इन दोनों का भी ज्ञान सुननेसे ही होता है । इसलिए इनमेंसे जो श्रेष्ट (हितकर) हो उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिए ॥११॥ 'जो जीवे वि.' इत्यादि । जो पुरुष एकेन्द्रिय आदि जीवोंके स्वरूपको नहीं जानता और न કર્મોથી ઉત્પન્ન થનારી બધી આધિ-વ્યાધિ અને બાધાથી રહિત મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનારને અથવા જ્ઞાન-દર્શન ચારિત્રરૂપી આરોગ્યથી, હિતવચન અથવા ઉપદેશથી સંસારના વિષયરૂપી વિશાળ વનમાં ભભુક્તા ઈષ્ટવિગ-અનિષ્ટસ ગરૂપી દાવાગ્નિની જવાળાઓમાં બળતા છોને શાન્તિ દેનારને કલ્ય ણ (સંયમ) નું જ્ઞાન ગુરૂમુખથી શ્રવણ કરવાથી જ થાય છે. પાપ અર્થાત્ નરક આદિ કુંગતિઓમાં પાડનારા અસંયમનું જ્ઞાન પણ સાંભળવાથી જ થાય છે; તથ એ બેઉનું જ્ઞાન પણ સાંભળવાથી જ થાય છે, તેથી એમાં જે શ્રેષ્ઠ (હિતકર) હોય એમાં प्रवृत्ति ४२वी ने . (११) . * जो जीवे वि० त्यारे ५३५ मेन्द्रिय साना २१३५ने ongता नथी भने શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १३ संयमज्ञपरिचयः ____ २३० णान् संयमपरिपन्थिनः काञ्चनरजतादीन् धर्मास्तिकायादीन् वा न जानाति, इत्थं जीवाजीवान् जीवान् अजीवाँश्चोभयानपि अजानन् सन् स-संयम-प्राणातिपातबिरमणादिलक्षणं सप्तदशविधं कथं केन प्रकारेण ज्ञास्यति वेत्स्यति, संयमस्य जीवाजीवोभयविषयकज्ञानजन्यत्वात् ॥१२॥ ननु करताई संयमं विज्ञातुमर्हती ! त्याह-'जो जीवे वि० इत्यादि । मूलम्-जो जोवे बियाणेइ, अजीवे वि वियाणइ । १० ११ १३ १२ जीवाजीवे वियाणतो, सा हु नाहीइ संजमं ॥१३॥ छाया-यो जीवानपि विजानाति (तथा) अजीवानपि विजानाति । (इत्थं) जीवाजीवानन् स खलु संयम ज्ञास्यति ॥१३॥ सान्वयार्थः-जो जो जीवे वि-जीवोंकोभी वियाणेइ-जानता है, (तथा) अजीवे वि=अजीवोंकोभी वियाणेइ=जानता है, इस तरह जीवाज़ीवेजोवों और अजीवोंको वियाणंतोजानता हुआ सो वह हु-निश्चय ही संजमं-संयमको नाहीइ जानेगा ॥१३॥ टीका-यो जीवाजीवपदार्थान् जानाति स हु=खलु-निश्चयेन संयमं ज्ञास्यतीतिभावः॥१३॥ मूलम्-जया जीवमजीवे य, दोवि एए वियाणइ । ८ ११ १०९ १२ तया गई बहुविहं सबजीवाण जाणइ ॥१४॥ छाया-यदा जीवमजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति । तदा गति बहुविधां, सर्वजीवानां जानाति ॥१४॥ सान्वयार्थ:-जया जब जीवमजीवे य-जीव और अजीव एए-इन दोवि-दोनोंजीवसे भिन्न पुद्गल आदि अजीवोंको जानता है । इस प्रकार दोनोंको ही नहीं जानता हुआ वह अज्ञानी प्राणातिपात आदिसे विरमणरूप सत्रह प्रकारके संयमको कैसे जानेगा ? अर्थात् नहीं जान सकेगा, क्योंकि संयम तब ही हो सकता जब जीव और अजीवका ज्ञान हो जाय ॥१२॥ संयमका ज्ञाता कौन हो सकता है ? सो कहते हैं-'जो जीवे बि०' इत्यादि । जो जिवों को जानता है और अजीवों को जानता है वही जीव और अजीवको जानता हुआ मुनि संयमका ज्ञाता हो सकेगा ॥१३ ॥ છવથી ભિન્ન પુદ્ગલ આદિ અને જાણ નથી, એ રીતે બેઉને જાણતા નથી તે અજ્ઞાની પ્રાણાતિપત આદિથી વિરમગુરૂપ સત્તર પ્રકારના સંયમને કેવી રીતે જાણશે? અથત નહિ જાણી શકે, કારણ કે સંયમ ત્યારે જ થઈ શકે છે કે જ્યારે જીવ અને અજીવનું જ્ઞાન થાય છે. (૧૨) सयभनी ज्ञाता थई । छ ? ते ४ छ-जो जोबे वि० ५त्याहि. જે જીવને જાણે છે, અને અજીવ ને જાણ છે તે જીવ અને અજીવને જાણનાર મુનિ संयनना ज्ञाता थशश. (13) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C ૨૩૮ श्रीदशकालिकसूत्रे को वियाणइ जानता है, तया तब सव्यजीवाण-सब जीवोंकी बहुविहं अनेक प्रकारकी गइंगतिको जाणइ जानता है ॥१४॥ टीका-'जया जीव' इत्यादि । यदा जीवाजीवौ एतौ द्वावपि पदार्थो विजानाति तदा सर्वेषां जीवानां बहुविधां नानाविधां देव मनुष्यतिर्यनारकरूपां गति-गम्यतेप्राप्यते स्वस्वककर्माकृष्ट वेरिति गतिः=भवाद्भवान्तरे गमनं, तां तथोक्त जानातिअवगच्छति ॥१४॥ मूलम्-जया गई बहुविहं, सब्वजीवाण जाणइ । ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ तया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ ॥१५॥ छाया-यदा गतिं बहुविधां, सर्वजीवानां जानाति ।। तदा पुण्यं च पापं च, बन्धं मोक्षं च जोनाति ॥१५॥ सान्वयार्थः-जया जब सव्वजीवाण-सब जीवोंकी बहुविहं अनेक प्रकारकी गई= गतिको जाणइ-जानता है, तया-तब पुण्णं च पावं-पुण्य और पापको च-तथा बंधंबन्ध को मुक्खं च और मोक्षको जाणइ जानता है ॥१५॥ टीका--'जया गई' इत्यादि । यदा सर्वजीवानां बहुविधां गतिं जानाति तदा पुण्यम्-पुणति-शुभयत्यात्मानमिति तत् ('पुण् शुभे' इति धातोरौणादिको यत्) । यद्वा पूयते पवित्रीक्रियते आत्माऽनेनेति, पुनात्यात्मानमिति वा पुण्य-शुभकर्म, ('पूञ् पवने 'जया जीव.' इत्यादि । जब जीव और अजीवका ज्ञान हो जावेगा तब सब जीवों की नाना प्रकार की देव मनुष्य तिर्यच और नरक रूप गतियोंको भी जानेगा । एक भवसे दूसरे भव में जाने को गति कहते हैं ॥१४ । 'जया गई ' इत्यादि । जब सर्व जीवोंकी बहुत प्रकारको गतियों को जानेगा तब पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्षको भी जानेगा । जो आत्मा को पवित्र करता है शुभ बनाता है उसे पुण्य कहते हैं । संसार-सागरसे पार उतरनेके लिए पुण्य तरणि(नौका) के समान है । पुण्यसे ही आर्य देश तथा उत्तम कुलमें जन्म और बोधिचीज-जिन धर्मको प्राप्ति होती हैं । अधिक क्या कहा जाय ? तीर्थङ्कर गोत्र भी पुण्यसे ही बंधता है। जया जीव. त्याह. न्यारे भने अनुज्ञान तय त्यारे सव' यानी નાના પ્રકારની દેવ મનુષ્ય તિર્યંચ અને નારક રૂપ ગતિઓનું પણ જ્ઞાન થાય. એક ભવમાંથી બીજા ભવમાં જવાને ગતિ કહે છે. (૧૪) जया गई पत्या. या सब ७वानी । प्र४ानी गतिमाने तो त्यारे पुश्य, પાપ, બધ અને મોક્ષને પણ જાણે. જે આત્માને પવિત્ર કરે છે, શુભ બનાવે છે, તેને પુણ્ય કહે છે. સંસારસાગરથી પાર ઊતરવાને માટે પુણ્ય એ તરણી (નૌકા) સમાન છે. પુણ્યથી જ આદેશ તથા ઉત્તમ કુળ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ पुण्य स्वरूपम् २३९ इत्यस्माधातोः पूञो यण्णुक् हस्वश्रे' - त्यौणादिकसूत्रेण सिद्धि:,) जानातीत्यग्रेण सम्बन्ध; पुण्यं हि संसारपारावारोत्तरणे तरणिभूतम् अनेनैवाऽऽर्य जनपदाभिजन कुल बोधिबीजजिनधर्मादिप्राप्तिर्जायते, किंबहुना तीर्थकरगोत्रमपि पुण्येनैव बध्यते, यो हि पुण्यं सर्वथा हेयं मन्यमानस्तच्यजति असौ समुपेक्षिततरिरिवाऽप्राप्त परतीरो मध्येसमुद्रं मज्जन्नक्सीदति । ननु पुण्यपापक्षयानन्तरमेव मोक्षप्राप्तिः शास्त्रे श्रूयते इति पापवत्पुण्यमप्यनुपादेयं मोक्षार्थिनामिति चेन्न, द्विविधं हि पुण्यं पु०यानुबन्धि पापानुबन्धि च तत्र पुण्यानुबन्धिपुण्यस्य लक्षणमुक्तम्"दया भूतेषु वैराग्यं विधिवद्गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्ति, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥ १ ॥ इति. ( स्थानाङ्गे १ स्था. टीका ) जो पुण्यको सर्वथा हेय मानता हुआ उसका त्याग करता है वह संसार सागर में गोते लगाता है । जैसे मध्य समुद्र में नौकाका त्याग कर देनेवाला पुरुष समुद्रमें डूबता हुआ दुःख पाता है । शङ्का - पुण्य और पाप दोनों का क्षय होने बाद मोक्षको प्राप्ति होती है, ऐसा शास्त्रों में सुना जाता है, इसलिए पापकी तरह पुण्य भी मोक्षार्थियोंके लिए उपादेय नहीं है । समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पुण्य दो प्रकारका है - ( १ ) पुण्यानुबन्धि, (२) पापानुबन्धि पुण्य | पुण्यानुबन्धि पुण्यका लक्षण यह है प्राणियों पर दया रखना, वैराग्य-भाव होना, आगमके अनुसार गुरुओं की भक्ति करना शुद्ध शील का पालन करना, यह पुण्यानुबन्धि पुण्य है । ( स्थानाङ्ग० १स्था ० टीका) માં જન્મ અને એધિખીજ-જિનધર્મની પ્રાપ્તિ થાય છે. વધારે શું કહેવુ. ? તીથ કર-ચૈત્ર પણ પુણ્યથી જ બંધાય છે. જે પુણ્યને સવ થા હય માનીને તેને ત્યાગ કરે છે, તે સૌંસાર સાગરમાં ગોથાં ખાય છે, જેમકે મધ્ય-સમુદ્રમાં નૌકાના ત્યાગ કરી નાંખનાર પુરૂષ સમુદ્રમાં ડુમતાં દુઃખ પામે છે. શકા-પુણ્ય અને પાપ એ બેઉના ક્ષય થયા પછી મેાક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું શાસ્રો માં સાંભળવામાં આવે છે. તેથી પાપની પેઠે પુણ્ય પણ મેક્ષાથી એને માટે ઉપાદેય નથી. સમાધાન એમ કહેવું તે ખરાખર નથી, કારણ કે પુણ્ય એ પ્રકારનાં છે. (૧) પુણ્યાનુષંધિ પુણ્ય, (૨) પાપનુબંધિ પુણ્ય. પુણ્યાનુબંધિ પુણ્યનું લક્ષણ એવું છે કે— પ્રાણીઓ ઉપર દયારાખવી; વૈરાગ્યભાવ થવા, આગમને અનુસાર ગુરૂઓની ભક્તિ કરવી, શુદ્ધ શીલ પાળવું, એ પુણ્યાનુષિ પુણ્ય છે (સ્થાનાંગ૰૧સ્થા ટીકા) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्रीदशवकालिकसूत्रे हरिभद्रसरिरप्याह "गेहाद् गेहान्तरं कश्चिच्छोंभनादधिकं नरः।। __ याति यद्वत् सुधर्मेण, तद्वदेव भवाद्भवम् ॥१॥” इति । एतच्च मोक्षार्थिनामप्यादरणीयमेव, पुण्यानुबन्धिपुण्यस्याऽपतनशीलमोक्षसम्पज्जनकत्वात्, तथा चोक्तम् "शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं, कर्त्तव्यं सर्वथा नरैः। __ यत्प्रभावादपातिन्यो, जायन्ते सर्वसम्पदः ॥१॥” इति । किञ्च--- मनुष्यजन्मनोऽपि मोक्षप्राप्तिकारत्वेन शास्त्रे प्रतिपादनात्पुण्यं मोक्षार्थिनामुपादेयमेवेत्यवसीयते, पुण्यमन्तरेण मनुष्यजन्मनो दुर्लभत्वात्, तथा चोक्तमुत्तराध्यनसूत्रे तृतीयाध्ययने-- हरिभद्रसूरिने भी कहा है "जसे कोई मनुष्य एक अच्छे गृहसे दूसरे बहुत ही अच्छे गृहमें जाता हैं वैसेही पुण्यके प्रभावसे जीव अत्यन्त शुभ गतिको प्राप्त होता है ॥१॥" यह पुण्य मोक्षार्थी पुरषों के लिए भी उपादेय है, क्योंकि इससे अविनश्वर-शाश्वत -मोक्षरूपी सम्पत्तिको उत्पत्ति होती है । कहा भी है - "मनुष्यों को पुण्यानुबन्धि पुण्य अवश्य करना चाहिए, जिसके प्रभावसे कभी नष्ट न होनेवाली सब प्रकार की सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं ॥१॥" दूसरी बात यह है कि-शास्त्रों में मनुष्यभवकी प्राप्ति पुण्यके उदयसे कही गई है, मनुष्यभय मोक्ष-प्राप्तिका कारण माना गया है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि पुण्य मुमुक्षुओंके लिए उपादेय है, क्योंकि पुण्यके विना मनुष्य-पर्याय मिलना दुर्लभ है। उत्तराध्ययन सूत्रके तीसरे अध्ययनमें कहा हैહરિભદ્રસૂરિએ પણ કહ્યું છે કે જેમ કેાઈ મનુષ્ય એક સારા ગૃહમાંથી બીજા બહુ જ સારા ગૃહમાં જાય છે, તેમ પુણ્યના પ્રભાવથી જીવ અત્યંત શુભ ગતિને પામે છે.” એ પુણ્ય મેક્ષાથી પુરૂષને માટે પણ ઉપાદેય છે, કારણ કે તેથી અવિનાશ્વર-શાશ્વત મોક્ષરૂપી સંપત્તિની ઉત્પત્તિ થાય છે. કહ્યું છે કે મનુષ્યએ પુણ્ય અવશ્ય કરવું જોઈએ. જેના પ્રભાવથી કદાપિ નષ્ટ ન થાય તેવી સર્વ પ્રકારની સંપદાઓ પ્રાપ્ત થાય છે.” બીજી વાત એ છે કે-શાસ્ત્રમાં મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ પુરયના ઉદયથી કહી છે અને મનષ્યભવ મેક્ષપ્રાપ્તિનું કારણ માન્યું છે, તેથી પણ એમ સિદ્ધ થાય છે કે પુણ્ય મુમુક્ષુઓને માટે ઉપાદેય છે, કારણ કે પુણ્ય વિના મનુષ્ય પર્યાય મળ દુર્લભ છે. ઉત્તરાધ્યયનમાં કહ્યું શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ पुण्यस्वरूपम् "चत्तारि' परमंगाणि, दुल्लहाणि य जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥" इति । संसारार्णवोत्तरणाय नरशरीरस्य नौकारूपत्वेन प्रतिपादनान्मोक्षकारणत्वं गम्यते, तथा चोत्तराध्ययनसूत्रे त्रयोविंशाध्ययने-- "शरीरमाहु' नाबत्ति, जीवो उच्चइ नाविओ । संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥१॥” इति । तत्रैव दशमाध्ययने मनुष्यजन्मनो दौलभ्यं चोक्तम्" *दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेणवि सवपाणिणं" इति । स्थानाङ्गसूत्रेऽपि तृतीयस्थानके च "चार परमांग जीवके लिए दुर्लभ हैं-(१)मनुष्य भव, (२)शुचिता, (३) सत्य धर्ममें अचा, संयममें पराक्रम ॥" मनुष्य संसाररूपी समुद्रको पार करनेके लिए नौकाके समान है, इसलिए ज्ञात होता हैं कि मनुष्य-शरीर मोक्षका कारण हैं । उत्तराध्ययन सूत्रके तेईसवें अध्ययन में कहा है “(मनुष्यका)शरीर, नौकाके समान है, जीव, नाविक (खेवटिया) के सदृश है और संसार समुद्र सरीखा है, इसे महर्षि पार करते हैं।" इसी उत्तराध्ययनके दसवें अध्ययनमें मनुष्य-जन्मकी दुर्लभता बताई है"चिरकाल तक सब प्राणियों के लिए मनुष्य-भव अत्यन्त दुर्लभ है ।" स्थानाङ्गसूत्रमें तीसरे स्थानकमें कहा है "यार ५२भाग ने भाटे दुल छ-(१) मनुष्यम, (२) शुयिता, (3) सत्ययममा श्रद्धा, (४) सयममा पराभ." - મનુષ્ય શરીર સંસારરૂપી સમુદ્રને પાર કરવાને માટે નૌકા સમાન છે, તેથી સમજાય છે કે મનુષ્ય–શરીર મોક્ષનું કારણ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના તેવીસમા અધ્યયનમાં કહ્યું છેકે – "(भनुष्यनु) शरी२, नौ। समान छ, ७५, न (HIAl) समान छ भने ससा२, સમુદ્ર સરખો છે, તેને મહર્ષિ પાર કરે છે.” એજ ઉત્તરાધ્યયનના દસમા અધ્યયનમાં મનુષ્ય જન્મની દુર્લભતા બતાવી છે“ચિરકાળ સુધી સર્વ–પ્રાણીઓને માટે મનુષ્યભવ અત્યંત દુર્લભ છે.” સ્થાનાંગ–સૂત્રમાં ત્રીજા સ્થાનકમાં કહ્યું છે કે – “આ ત્રણ બેલેની અભિલાષા દેવ પણ રાખે છે. (૧) મનુષ્યભવ, (૨) આર્યક્ષેત્રમાં १ "चत्वारि परमाङ्गानि दुर्लभानि च जन्तोः। ___ मानुषत्वं शुचिः श्रद्धा, संयमे च वीर्यम् ॥१॥" १"शरीरमाहुः नौः इति, जीव उच्यते नाविकः : संसारः अर्णवः उक्तः, ये तरन्ति महर्षयः ॥१॥" २ दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् । ३१ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ श्रीदशवैकालिकसूत्रे "तओ ठाणाई देवेवीहेज्जा तं जहा-(१) माणुसंभवं, (२) आरिए खेते जम्म (३) सुकुलपच्चायाति ।" इति । उत्तराध्ययनसूत्रे त्रयोदशाध्ययने पुण्यसंग्रहस्य परमावश्यकता प्रतिपादिता, तथाहि'इह जीविए राय ! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुब्वमाणे । से सोयइ मच्चुमुहोवणीए, धम्मं अकाऊण परम्मि लोए ॥२१॥" किश्चागमे साधुप्रभृतये आहारोपकरणादिवितरणलक्षणस्य पुण्यस्य कर्तव्यत्वेनोपदिष्टतयाऽऽगमप्रमाणेनोपादेयत्वसिद्धिः, तथा चागमः " नवबिहे पुण्णे पण्णत्ते, तं जहा-(१) अन्नपुण्णे, (२) पाणपुण्णे, (३) वत्थपुण्णे, (४) लेणपुण्णे, (५) सयणपुण्णे, (६) मण पुण्णे, (७) वयपुण्णे, (८) कायपुण्णे, (९) नमोकारपुण्णे" इति । "इन तीन बोलोकी देव भी अभिलाषा रखते हैं-(१)मनुष्य-भव,(२)आर्यक्षेत्रमें जन्म (३) सुकुलकी प्राप्ति"। ___ उत्तराध्ययनके तेरहवें अध्ययनमें पुण्यके संग्रह करनेकी अत्यन्त आवश्कता प्रतिपादन की है "हे राजन् ! इस नश्वर जीवनमें पुण्य और धर्म न करनेवाले इहलोक पर लोकमें मृत्युके मुखमें गये हुए शोच करते हैं।" आगममें साधु आदिके लिए आहार-उपकरण आदिका दान करने रूप पुण्य कर्त्तव्य · माना है । आगममें कहा है कि -- "पुण्य नव प्रकारका है वह इस प्रकार (१)अन्न पुण्य (२) पान-पुण्य' (३) वस्त्र पुण्य गन्म, (3) सुगनी प्रास्त." ઉત્તરાધ્યયનના તેરમા અધ્યયનમાં પુણ્યને સંગ્રહ કરવાની અત્યંત આવશ્યકતા પ્રતિપાદન વરવામાં આવી છે હે રાજન ! આ નશ્વર જીવનમાં પુણ્ય અને ધર્મ ન કરનારા ઈહલોક પરલેકમાં મૃત્યુના મુખમાં ગયેલા શાચ કરે છે.” આગમમાં સાધુ આદિને માટે આહાર-ઉપકરણ આદિનું દાન કરવારૂપ પુણ્યને કર્તવ્ય માન્યું છે. આગમમાં કહ્યું છે કે___ "पुष्य नप प्रार्नु छे ते ॥ प्रमाणे-(१) अन्न पुथ्य, (२) पान-पुण्य, (3) ३ त्रीणी स्थानानि देवा अपीहेरन् तद्यथा-(१) मानुष्यं भवम् (२) आर्य क्षेत्रे जन्म, (३) सुकुलप्रत्यायातिम् । छाया-इह जीविते राजन् ! अशाश्वते, अधिकं तु पुण्यान्यकुर्वाणः। स शोचति मृत्यु मुखोपनीतः, धर्ममकृत्वा परस्मिन् लोके ॥१॥ छाया-नवविधं पुण्य प्राप्तं, तद्यथा-(१) अन्नपुण्यम् , (२) पानपुण्यम् , (३) वस्त्रपुण्यम् (४) लयनपुण्यम् , (५) शयनपुण्यम् . (६) मनः पुण्यम् , (७) वचः पुण्यम् , (८) कायपुण्यम् , (९) नमस्कारपुण्यम् । इति । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४० गा० १५ पुण्यस्वरूपम् २४३ “ पुणाई खलु आउसो ? किच्चाई, तरणिज्जाई, पायकराई, धणकराई, जसकराई " इति । किञ्च पुण्ये यत्वहेतुभूतस्य मिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादकषायाऽशुभयोगाऽन्यतमजनकत्वस्याभावात् तस्यानुपादेयत्वापादनं गगनकुसुमा यितमेव प्रत्युताऽशुभभावपरिपन्धितया तस्य कर्त्तव्यत्वमेव सुतरां दृढीभवति, अशुभभावपरिपन्थिनः कर्त्तव्यकोटौ विनिविष्टत्वाद् यथा संयमस्य । "दुविहं खवेऊण य पुण्ण - पावं" (द्विविधं क्षपयित्वा च पुण्य-पापम् ) इति यच्छूयते शास्त्रे तत् पारमासाद्य तरणिपरित्यजनमिव मुक्तिप्राप्तिसमयापेक्षम् । यथा समुद्रस्य पर(४) लयन पुण्य ( ५ ) शयन पुण्य (६) मनः - पुण्य (७) वचनपुण्य (८) कायपुण्य (९) नमस्कार पुण्य ।" इति । फिर भी कहा है “हे आयुष्मन् ! पुण्य-कृत्य करने योग्य है, पुण्य ही पात्र बनाता है, पुण्य ही सम्पत्ति और यशको बढाता है " -- इति । जिससे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग उत्पन्न हों या इनमें से कोई एक उत्पन्न होता हो, वह न्याज्य होता है । पुण्य इनमेंसे किसीको भी उत्पन्न नहीं करता अतः उसे अनुपादेय बतलाना आकाशके पुष्पके समान असत् है । पुण्य अशुभ भावोंको दूर करता है इसलिए उसकी कर्त्तव्यता स्वयंसिद्ध है । जो अशुभ भावोंका विरोधी होता है वह अब - श्य कर्त्तव्य होता है, जैसे- संयम । शास्त्रो में यह कथन किया गया है कि - "पुण्य और पाप दोनोंका क्षय होनेसे मोक्षकी प्राप्ती होती है " सो इस प्रकार समझना चाहिए कि- जैसे समुद्र को पार करके फिर नौकाका त्याग किया जाता है । जैसे समुद्र के दूसरे किनारे पर बने हुए घरमें जानेकी इच्छा करनेवाला पथिक 1 वस्त्र - पुष्य, (४) सायन-पुष्य, (4) शयन-पुण्य, (६) भन:-पुष्य, (७) वयन-पुष्य, (८) अय-पुण्य, (८) नमस्ठार- चुएय." इति वजी उधु छे “ હે આયુષ્મન્ પુણ્ય-કૃત્ય કરવા યેાગ્ય છે, પુણ્ય જ પાત્ર મનાવે છે, પુણ્ય જ સપત્તિ અને યશને વધારે છે ' ઇતિ. જેથી મિથ્યાત્વ અવિરતિ પ્રમાદ કષાય અને અશુભ યેાગ ઉત્પન્ન થાય, યા એમાનુ કોઇ એક ઉત્પન્ન થાય, તે ત્યાજ્ય ઢાય છે. પુણ્ય એમાંના કાઇને ઉત્ત્પન્ન કરતુ નથી. તેથી તેને અનુપાદેય ખતાવવુ એ આકાશના પુષ્પની સમાન અસત છે. પુણ્ય અશુલ ભાવાને દૂર કરે છે, તેથી તેની કન્યતા સ્વયંસિદ્ધ છે. જે અશુભ ભાવાનું વિરાધી હોય છે તે અવશ્ય કર્તવ્ય હૈાય છે. જેમકે સાંચમ શાસ્ત્રામાં એમ કહ્યું છે કે“પુણ્ય અને પાપ બેઊના ક્ષય થવાથી મેાક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે” તે એ પ્રકારે સમજવુ` કે–જેમ સમુદ્રને પાર કરીને પછી નૌકાનેા ત્યાગ કરવામાં આવે छाया - पुण्यानि खलु आयुष्मन् ! कृत्यानि करणीयानि, तरणीयानि, पात्रकराणि, धनकराणि, यशःकराणि । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ श्रीदशवकालिकस्ने स्मिन् पारे विद्यमानं गृहं गन्तुकामः पथिकोऽपरतीरे विभावयति-'कथमहं तरिष्यामी' ति, तदानीं नावं विलोक्य "नौरियं परपारप्रापिकैव न तु मदीयगृहप्रापिका, अलमस्या आश्रयणेन" इत्यालोच्य यदि नावं नावलम्बते तदाऽसौ गृहं गन्तुं न शक्नोति । यदि कश्चिन्नावि संस्थितः समुद्रमध्ये पूर्वोक्तभावनां कुर्वाणो नावं परित्यजेत् तदाऽपि नासौ गृहमुपैति प्रत्युत समुद्रस्य तरलतरकल्लोलावर्त्तयुक्ताऽगाधजले पतितो निमज्जति म्रियतेऽपि च । यस्तु पुनर्विवेकी पथिको नावमाश्रयति तयाऽसौ परं पारं चलितुमक्षमां तरणिं परित्यजति, एवं तरणितो विप्रयुक्तः पान्थ: स्वालम्बनो भूत्वा सुखेन सत्वरं स्वकीयं धाम समवानोति, तथा भव्यजीवः संसारतः परस्मिन् पारे विद्यमानं मोक्षं गन्तुकामोऽपरपारे मनुष्यशरीरे तिष्ठन् विभावयति-"कथमहं दुःखबहुलं चतुर्गतिकसंसारं तरिष्यामि?" इति, तदानीं मुनिजनोपदेशश्रवणतो जैनागमाद्वा दयादानादिपुण्यमहिमानमवगत्य तत्र यदि विवेकी पुण्यमाश्रयते तदा स सुखेन संसारसागरमुत्तरति । सोचता है कि 'मैं समुद्रको कैसे पार कर सकूँगा ?' उसी समय नौकाको देख कर वह पथिक यदि यह विचार करने लगे कि इससे तो मै परले पार तक ही पहुँच सकूँगा घर तक नहीं पहुँचूंगा ऐसे विचार से नौकाका अवलम्बन न करे तो कभी घर नहीं पहुँच सकता । यदि नौकामें बैठा हुआ कोई पथिक बीच समुद्रमें उक्त विचार करके नौकाका त्याग करदे तो भी घर नहीं पहुँच सकता, बल्कि समुद्रकी चंचल तरंगों और भवरोंसे युक्त अथाह जलमें गिर पडेगा और मृत्युको भी प्राप्त हो जायगा किन्तु जो विवेकी पथिक नौकाका सहारा लेता हैं उसे नौका परले पार पहूँचा देती हैं, आगे गति करनेमें असमर्थ होनेसे पथिक उसका त्याग करके स्वावलम्बी बनकर अपने धर पहुँच जाता है। इसी प्रकार भव्य जीव संसार से परले पार पर अर्थात् मोक्ष को जाना चाहता है। वह मनुष्यशरीररूपी इस पार पर ठहरा हुआ विचार करता है कि- 'मैं दुःखोंसे भरे हुए चतुर्गછે. જેમાં સમુદ્રના બીજા કિનારા પર બનેલા ઘરમાં જવાની ઈચ્છા કરનારો પથિક વિચારે છે કે “ સમુદ્રને કેવી રીતે ઊતરી શકીશ ?” એ વખતે નૌકાને જોઈને એ પથિક જે, એમ વિચાર કરવા લાગે કે “આથી તે હું પેલા કિનારા સુધી જ પહોંચી શકીશ, ધર સુધી નહીં પહોંચી શકું,” એવા વિચારથી નૌકાનું અવલંબન ન કરે તે તે કદાપિ ઘેર પહોંચી શકશે નહિ. જે નૌકામાં બેઠેલ કોઈ પથિક સમુદ્રની વચ્ચે એ વિચાર કરીને નૌકાને ત્યાગ કરી દે તો પણ ઘેર પહોંચતું નથી. બલકે સમુદ્રના ચંચળ તરંગો અને ભમ્મરીઓથી યુક્ત અથાગ જલમાં પડી જશે અને મરણ પણ પામશે. પરંતુ જે વિવેકી પથિક નૌકાનો આશ્રય લે છે તેને નૌકા પેલે પાર પહોંચાડી દે છે. નૌકા આગળ ગતિ કરવામાં અસમર્થ હોવાથી પથિક એને ત્યાગ કરીને સ્વાવલંબી બનીને પિતાને ઘેર પહોંચી જાય છે. એ પ્રકારે ભવ્ય જીવ સંસારને પેવેપાર અર્થાત મોક્ષે જવા ઈચ્છતો હોય છે તે મનુષ્ય શરીરરૂપી આ કિનારા પર ઉભા રહીને વિચાર કરે છે કે “હું દુખેથી ભરેલાં તુગતિક, - શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ जीवकर्मणोर्बन्धसिद्धिः २०५ अथवा यथाऽङ्गारकामस्तावत् काष्ठादिषु वह्नि प्रज्वलयति, अन्येन वा प्रज्वलितं वनिमुपादत्ते, ततः काष्ठगतानलं जलेन निर्वापयति, वह्निविनाशे च सति अङ्गारोत्पत्तिर्भवति, एवं वह्नयुपादानं विनाऽङ्गारो लब्धुमशक्यः यथाऽङ्गारं प्रति वह्निध्वंसस्य कारणता, ध्वंसस्य च प्रतियोगिसापेक्षत्वेव प्रतियोगि वह्निरुपादेयो भवति, तद्वत् मोक्षं प्रति पुण्यध्वंसस्य कारणतायां तत्प्रतियोगितया पुण्यमप्युपादेयमेव । पुण्यमर्जयित्वा शुभपरिणामरूपं पुण्यं ध्यान'दिशुद्धपरिणामेन क्षपयित्वा मोक्षो लब्धुं शक्यते । इत्थं चाऽऽगमप्रामाण्येन पुण्यस्य भव्यकर्तव्यता सुस्पष्टं सिध्यति, भव्यकर्त्तव्यतयाऽऽगमे प्रतिपादितत्वात् , शुद्धभावकारणत्वाच्चेति । तिक संसार-सागरको कैसे पार कर सकूँगा ?' तब मुनिजनोंके उपदेशसे, अथवा शास्त्रोंसे दया दान आदि पुण्यकी महिमा जान कर पुण्यका आश्रय लेवे तो सुखपूर्वक संसार-सागरके पार पहुँच सकता है। अथवा जैसे कोयले चाहनेवाले पुरुष काष्ठ आदिमें अग्नि जलाता है, अथवा दूसरेके द्वारा जलाई हुई अग्निको ग्रहण करता है, फिर उस अग्निको बुझा देता है। अग्नि बुझ जाने पर कोयला उत्पन्न होता है । इस प्रकार अग्निका आश्रय लिए विना कोयला कदापि नहीं प्राप्त हो सकता । अर्थात् जैसे कोयलेको प्राप्तीके लिए अग्निका ध्वंस कारण होता है और ध्वंस प्रति योगिसापेक्ष होता है इसलिए अग्निके ध्वंसका प्रतियोगी अग्नि भी उपादेय होती है। इसी प्रकार मोक्षका कारण पुण्यका ध्वंस है, अतः ध्वंसका प्रतियोगी पुण्य भी मोक्षके लिए उपादेय है। उसका उपादान किये विना मोक्षकी प्राप्तो नहीं हो सकती क्योंकि पहले शुभ परिणाम रूप पुण्यका उपार्जन करके फिर ध्यान आदि शुद्ध परिणामोंसे उनका क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । સંસાર-સાગરને કેવી રીતે પાર કરી શકીશ ? ત્યારે મુનિજનના ઉપદેશથી, અથવા શાસ્ત્ર દ્વારા દયા દાન આદિ પુણ્યને મહિમાં જાણીને પુણ્યનો આશ્રય લે તે સુખપૂર્વક સંસારસાગરને પેલે પાર પહોંચી શકે છે. અથવા જેને કેયલા જોઈતા હોય છે તે પુરૂષ લાકડાને અગ્નિ લગાડે છે અથવા બીજા ઓએ સળગાવેલા અગ્નિને ગ્રહણ કરે છે, અને પછી એ અગ્નિને હલાવી નાંખે છે. અગ્નિ હલવાઈ જતાં કેયલા ઉત્પન્ન થાય છે, એ રીતે અગ્નિને આશ્રય લીધા વિના કોયલા દાપિ પ્રાપ્ત થતા નથી. અર્થાત જેમ કેયલાની પ્રાપ્તિ માટે અગ્નિના દેવંસ કારણ બને છે અને દવંસ પ્રતિયોગિ-સાપેક્ષ હોય છે, માટે અગ્નિને ધવંસને પ્રતિયોગી અગ્નિ પણ ઉપારેય બને છે એજ રીતે મોક્ષનું કારણ પુણ્યને વંસ છે. એટલે દવંસનું પ્રતિવેગી પુણ્ય પણ મોક્ષને માટે ઉપાદેય છે. એનું ઉપાદાન કર્યા વિના મોક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. કારણ કે પહેલાં શુભ-પરિણામરૂપ પુણ્યનું ઉપાર્જન કરીને પછી ધ્યાન આદિ શુદ્ધ પરિણા મેથી એને ક્ષય કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકાય છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ___ श्रोदशवकालिकसूत्रे पापम्=पातयति-शुभपरिणामाद्ध्वंसयत्यात्मानमिति, यद्वा पाति-रक्षत्यात्मनोऽशुभपरिणाममिति पाप-पुण्यपरिपन्थि तत् , विस्तरस्तु श्रमणसूत्रीय-मत्कृतमुनि-तोषिणीटीकातोऽवगन्तव्यः। बन्धम-बध्यते परतन्त्रीक्रियतेऽनेनाऽऽत्मेति बन्ध: अभीप्सितस्थानप्राप्तिगतिप्रतिरोधलक्षणः, जीवकर्मणोरयोगोलकवयोरिव तादात्म्यापन्नत्वं वा, स च द्रव्यतो निगडादिः, भावतो रागद्वेषादिः, यथा द्रव्यबन्धनबद्धो जनोऽभिमतस्थानलाभाभावेन कारागारादावेव विविधवेदनादारुणां दशामासादयन् विषीदति, तथाऽयमात्मा ज्ञानावरणीयादिकर्माष्टक-निगडसन्दानितोऽनन्ताऽक्षय्यमुखसम्पदुल्लसिताऽव्याबाधाऽभिमतशिव स्थानप्राप्ति विना जन्मजरामरणादिजन्यानन्यसामान्यकष्टसमष्टि स्पष्टमनुभवन्निहैवसंसारगहरे विषीदति, तम् । इस प्रकार आगममें कर्तव्य रूपसे प्रतिपादन करनेसे शुद्ध भावका कारण होनेसे यह भली भौति सिद्ध हो गया कि पुण्य अवश्य कर्तव्य है। जो शुभ परिणामोसे आत्माको दूर रखता है-शुभ परिणाम नहीं होने देता उसे पाप कहते हैं। वह पुण्यका विरोधी है। आत्मा जिससे बद्ध-परतन्त्र हो जाती है वह अर्थात्-अभीष्ट स्थानकी प्राप्ति करानेवाली गतिको रोकनेवाला बन्ध कहलाता है । अथवा जैसे लोहेका गोला और अग्नि एकमेकसे हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव और कमों में एकताका ज्ञान करानेवाला बन्ध होता है। बेडी अदि द्रव्यबन्ध है और रागद्वेष आदि भावबन्ध हैं जेसे द्रव्यवन्ध-निगड आदि-से बंधा हुआ मनुष्य अभिमत स्थान पर न पहुँच सकनेके कारण कारागार आदिमें विविध वेदनाओंके द्वारा दारुण दशा प्राप्त करताहुआ दुःख पाता है, वैसे ही ज्ञानावरण आदि आठ कर्म-स्वरूप भाब-बन्धरूपी बेड़ीके कारण अनन्त अविनाशी सुखरूपी सम्पत्तिसे शोभित, अव्याबाध और अभीष्ट मोक्ष-स्थानकी प्राप्तीके विना जन्म जरा मरण आदिसे होनेवाले अपरमित दुःख भोगता हुआइसी संसाररूपी એ રીતે આગમમાં કર્તવ્યરૂપે પ્રતિપાદન કર્યું હોવાથી તથા શુદ્ધ ભાવનું કારણ હોવાથી એ સારી રીતે સિદ્ધ થઈ ગયું કે પુણ્ય અવશ્ય કર્તવ્ય છે. આમાને શુભ પરિણામોથી દૂર રાખે છે–શુભ પરિણામ થવા દેતું નથી તેને પાપ કહે છે. તે પુણ્યનું વિરોધી છે. આત્મા જેથી બદ્ધ-પરતંત્ર થઈ જાય છે તે અર્થાત અભીષ્ટ સ્થાનની પ્રાપ્તિ કરાવનારી ગતિને રોકનાર બંધ કહેવાય છે. અથવા જેમ લોઢાને ગળે અને અગ્નિ એક-મેક બની જાય છે, તેમ જીવ અને કર્મોમાં એકતાનું જ્ઞાન કરાવનાર બંધ હોય છે. બેડી આદિ દ્રવ્ય બંધ છે અને શગ દ્વેષ આદિ ભાવ-બંધ છે. જેમ દ્રવ્ય-બંધ હેડ કે બેડી આદિથી બંધાયેલે મનુષ્ય ધારેલે સ્થાને ન પહોંચી શકવાને કારણે કારાગાર આદિમાં જ વિવિધ વેદનાઓ દ્વારા દારૂણ દશા પ્રાપ્ત કરતાં દુઃખ પામે છે તેમ જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મસ્વરૂપ ભાવ-બંધારૂપી બેડીને કારણે, અનંત અવિનાશી સુખરૂપી સંપત્તિથી ભિત, અવ્યાબાધ અને અભીષ્ટ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____२४७ अध्ययन ४ गा० १५ जीवकर्मणोर्बन्धसिद्धिः नन्वात्मनोऽमूर्त्तत्वाकर्मणां च मूर्तत्वान्न तयोः परस्परं सम्बन्धः संभवति, अमूर्तत्वेऽपि सम्बन्धस्वीकारे आकाशधर्माधर्मास्तिकायकालैः सहापि सम्बन्धप्रसङ्ग इति चेत्र, आत्मनः कर्मणा सह सम्बन्धाभावाऽऽपादने हेतुत्वेनोपन्यस्तममूर्त्तत्वं किं सर्वथारूपेण किं वा कथञ्चिद्रपेण स्वीक्रियते ? नाधः, हेत्वसिद्धेः, सर्वथैवाऽमृतभूतस्य सिद्धात्मनः कर्मसम्बन्धाभावो मयाऽपीष्यत एव । आत्मत्वावच्छिन्नस्य सर्वथैवाऽमूतत्वं तु दुर्वचं, संसारिजीवानां कश्चिन्मूर्तत्वासद्भावात् । कथश्चित् स्वीक्रियेत चेत्तदा यदपेक्षया मूर्तत्वं तदपेक्षया सम्बन्धोऽसन्दिग्ध एव । मुक्तात्मनश्च मूर्त्तत्वाभावान्न सम्बन्धाभ्युपगमः । गड्ढेमें पडा हुआ कष्ट उठाता है । प्रश्न-आत्मा अमूर्त (अरूपी) है और कर्म मूर्त (रूपी) है । इस कारणसे इन दोनोंका परस्पर बन्ध कैसे हो सकता है ? यदि मूर्तका बन्ध अमूर्त्तके साथ हो सकता है तोआकाशास्तिकाय धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और कालके साथ भी कौका बन्ध हो जायगा, क्योंकि वे भी अमूर्त हैं। उत्तर-तुम कहले हो कि आत्मा अमृत है, सो यह बताओकि आत्मा सर्वथा अमूर्त है या कथञ्चित् अमूर्त है ? यदि कहोगे कि आत्मा सर्वथा अमूर्त है तो हेतु असिद्ध हो जायेगा, क्योंकि आगममें आत्माको सर्वथा अमूर्त नहीं माना गया है । अगर 'कथञ्चित् अमूर्त' कहोगे तो कथञ्चित् मूर्त भी होगी, और जिस(संसारावस्थाकी) अपेक्षासे आत्मा मूर्त है उसी अपेक्षा से कर्मोंका बंध होता है । मुक्तात्मा मूर्त नहीं है इसलिए वहाँ बंध भी नहीं होता। अथवा जैसे आकाश अमूर्त है और घट मूर्त है तथापि उन दोनोंका संयोग सम्बन्ध होता है, और जैसे मूर्त हाथ तथा हाथसे होनेवाली अमूर्त क्रियाका दूसरोंने समवाय-सम्बन्ध મેક્ષસ્થાનની પ્રાપ્તિ વિના જન્મ-જરા મરણ આદિથી થતાં અપરિમિત દુખ ભેગવતાં જીવ આ સંસારરૂપી ખાડામાં પડીને કષ્ટ ભોગવે છે. પ્રશ્ન-આત્મા અમૂર્ત (અરૂપી) છે અને કર્મ ભૂત (રૂપી) છે. એ કારણે એ બેઉનો પરસ્પર બંધ કેવી રીતે થઈ શકે ? જો મૂર્તાને બંધ અમૂર્તની સાથે થઈ શકે તે આકાશાસ્તિકાય, ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય અને કાલની સાથે પણ કર્મોને બંધ થઈ જશે, કારણ કે તે પણ અમૂર્ત છે. ઉત્તર-તમે કહે છે કે આત્મા અમૂર્ત છે, તે બતાવે કે આત્મા સર્વથા અમૂત છે કે કથંચિત અમૂર્ત છે? જે કહેશે કે આત્મા સર્વથા અમૂર્ત છે તે હેતુ અસિદ્ધ થઈ જશે, કારણ કે આગમમાં આત્માને સર્વથા અમૂર્ત માન્ય નથી. ___ ययित् अभूत' तो यायित् भूत ५५ थरी , मने रे (सा२।વસ્થાની) અપેક્ષાએ આત્મા મૂર્ત છે તે અપેક્ષાએ કર્મોને બંધ થાય છે. મુકતાત્મા મૂત નથી તેથી તેને બંધ પણ થતા નથી. અથવા જેમ આકાશ અમૃત છે અને ઘટ મૂર્ત છે, તથાપિ એ બેઉને સગા-સંબંધ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे किच-यथा मूर्तीमूर्तयोः घटाकाशयोः संयोगरूपः सम्बन्धः, करक्रिययोमामूर्तयोः समवायसम्बन्धः परैरङ्गीक्रियते तथाऽऽत्मकर्मणोरमूर्तमूर्तयोः सम्बन्धे न काचिदनुपपत्ति म । अपि च यथा शरीरमिदमात्मसम्बद्धं प्रत्यक्षमुपलभ्यते तथा प्रेत्य भवान्तरगमननिमित्त कार्मणलक्षणं शरीरान्तरमप्यात्मसम्बद्धमिति स्वीकर्त्तव्यम् । नन्त्रपूर्वापरपर्यायाऽदृष्टहेतुकमिदमेव शरीरं तत्रास्ति न कार्मणशरीरमिति चेत्, अहटममूर्त मृत वा ? अमूर्त्तत्वे कथं स्थूलमूर्तशरीरेण तत्सम्बन्धः? भवन्मते तदसम्भवात् । सम्भवे चाऽऽत्मकर्मसंयोगेन किमपराद्धम् ?, अथ मूतत्वमङ्गीक्रियते तदाऽन्धसर्प बिलप्रवेशन्यायेन मूर्तीमूर्त्तयोः सम्बन्धः स्वीकृत एव ॥ स्वीकार किया है, उसी प्रकार अमूर्त आत्मा और मूर्त कर्मका बन्ध मी युक्ति-युक्त ही है। अथवा जैसे आत्मासे संबद्ध यह शरीर प्रत्यक्षसे सिद्ध है उसी प्रकार परलोकमें गमन करनेवाला कामेण शरीर भी आत्मासे सम्बन्ध है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। यदि ऐसा कहो कि- 'अपूर्व' 'अदृष्ट' के कारण यही शरीर परलोअके लिए गति कराता है तो हम पूछेगे कि वह अदृष्ट अमूर्त है या मूर्त ? अमूर्त है तो स्थूल मूर्त शरीरके साथ अदृष्टका संयोग कैसे हुआ ? क्योंकि तुम्हारे मतसे ऐसा होना असंभव है । बिना अदृष्टके सम्बन्धके स्थूल शरीरमें चेष्टा नहीं हो सकती । संभव मानो तो आत्मा और कर्मके संयोगने क्या अपराध किया है ? अर्थात् जब अमूर्त अदृष्ट और मूर्त शरीरका सम्बन्ध हो सकता है तो आत्मा और कर्मका भी संयोग हो सकता है। अगर अदृष्ट(भाग्य) को मूर्त मानो तो अमूर्त आत्माके साथ उसका सम्बन्ध स्वीका करनेसे यह मान लियाकि अमूर्त और मूर्तका सम्बन्ध होता है । जैसे अंधा सर्प इधर उधर भटककर फिर बिलमें प्रवेश करता है वैसेही तुमने कल्पनासे इधर उधर दौड़कर अंतमें अमूर्तका मूर्त के साथ संबन्ध स्वीकार करही लिया । થાય છે, અને જેમ મૂર્ત હાથ તથા હાથથી થનારી અમૂર્ત ક્રિયાને બીજાઓએ સમવાયસંબંધ સ્વીકાર્યો છે, એ પ્રકારે અમૂર્ત આત્મા અને મૂર્ત કર્મને બંધ પણ યુક્તિયુક્ત જ છે. અથવા જેમ આત્માથી સંબદ્ધ આ શરીર પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે તેમ પોકમાં ગમન કરાવનારું કામણ શરીર પણ આત્માથી સંબદ્ધ છે એ સ્વીકાર કરવો જોઈએ. જે એમ કહો કે “અપૂર્વ’ યા “અદૃષ્ટ” કારણે આ શરીર પરલેકને માટે ગતિ કરાવે છે, તો અમે પૂછીશું કે એ અદષ્ટ અમૂર્ત છે કે મૂર્ત ? અમૂર્ત છે તે સ્થૂલ મૂર્ત શરીરની સાથે અદૃષ્ટને સંગ કેવી રીતે થયો ?, તમારે મને એમ થવું અસંભવિત છે. અદષ્ટના સંબંધ વિના સ્થૂલ શરીરમાં ચેષ્ટા થઈ શકતી નથી. સંભવ માને તે આત્મા અને કમ ના સંગે શે અપરાધ કર્યો છે? અર્થાત જે અમૂર્ત અદષ્ટ અને મૂર્ત શરીરને સંબંધ થઈ શકે છે તે આત્મા અને કમને પણ સંગ થઈ શકે છે. અગર અદૃષ્ટ (ભા)ને મૂત માને તે અમૂર્ત આત્માની સાથે એને સંબંધ સ્વી. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४० गा० १५ बन्धस्वरूपम् ૧૦૨ ननु कर्मसंयोगादात्मनो मूर्त्तत्वं संपद्यते, तस्मिंश्च सति बन्धसम्बन्धो युज्यते, कर्मबन्धात्पूर्वं तु आत्मनो मूर्त्तत्वाभावात् कथमिव बन्धः संभावनासरणिमारोढुं प्रभवेदिति चेन, जो कर्मणोः खनौ सुवर्णोपलयोरिव संयोगस्याऽनादिकालिकत्वात् । नच 'जीवकर्मणोः सम्बन्धस्याऽनादित्वे मोक्षो नैव संभवति अनादेरन्ताभावादाकाशात्मनोरिवे' -ति वाच्यम् अनाद्यनन्तत्वयोरविनाभावाऽभावात्, अनादेरपि घटादिप्रागभावस्य सान्तत्वोपलम्भात्, अनादेरपि वीजाङ्कुरादिसन्तानस्य दाहादिकारणवशात्सान्ततादर्शनाच्च, इत्यलमतिविस्तरेण । बन्धस्वरूपमुच्यते - प्रश्न- कर्मका संयोग होनेपर आत्मा मूर्त्त होती है और मूर्त हो जाने पर बंध हो सकता है किन्तु कर्मबंध होनेसे पहले तो आत्मा मूर्त नहीं थी, फिर बंधकी संभावना कैसे हो सकती है । उत्तर- जैसे स्वानमें रहे हुए सुवर्ण तथा पाषाणका सम्बन्ध अनादिकालीन है, वैसेही जीव और कर्मका भी सम्बन्ध अनादिकालीन है । कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि जिसकी आदी नहीं होती उसका अंत भी नहीं होता है, जैसे जीव और आकाशका सम्बन्ध कभी नष्ट नहीं होता, इस नियमके अनुसार यदि जीव - कर्म का सम्बन्ध अनादिकालिन है तो कभी उसका भी अंत न होगा, फिर किसीको मोक्ष मिल ही नहीं सकेगा । उनका यह कथन दूषित है, क्योंकि घट आदिका प्राग् अभाव यद्यपि अनादिकालीन है फिर भी घट उत्पन्न होते ही उसका अन्त हो जाता है । बीज तथा वृक्षकी परम्परा भी अनादिकालीन है तथापि यदि बीज जल जाय तो उस કારવાથી એમ માની લીધુ` કે અમૂત અને મૂતને! સંબંધ થાય છે, જેમ આંધળા સપ અહી’-તહીં' ભટકીને પછી દરમાં પ્રવેશ કરે છે, તેમ તમે કલ્પનાથી અહીં-તહી દોડીને છેવટે અમૂર્ત ના ભૂતની સાથે સબંધ સ્વીકાર કરી લીધેા. પ્રશ્ન-કના સચાગ થયા પછી આત્મા ભૂત થાય છે અને ભૂત થયા પછી બંધ થઈ શકે છે, પરન્તુ ક બંધ થયા પહેલાં તે આત્મા ભૂત ન હતેા, અમૂત હતા, પછી અ'ધની સ’ભાવતા કેવી રીતે હાઇ શકે છે ? ઉત્તર-જેમ ખાણમાં રહેલા સુવણુ તથા પાષાણુના સંબંધ અનાદિકાળના છે. તેમ જીવ અને કમના પણ સંબંધ અનાદિકાળના છે. કાંઈ-ફાઈ એમ કહે છે કે જેની આદિ નથી તેના અંત પણ હાતા નથી, જેમકે જીવ અને આકાશના સંબધ કાપિ નષ્ટ થતા નથી, એ નિયમાનુસાર જો જીવ-કમના સંબધ અનાદિકાળના છે તે કદાપિ તેના મત થશે નહિ, પછી કાઇને મેાક્ષ મળી શકશે નહિ. એનું એ કથન દૂષિત છે, કારણ કે ઘટ આદિને પ્રાગૂ અભાવ જો કે અનાદિકાળના છે; તેાપણુ ઘટ ઉત્પન્ન થતાં જ તેને અંત થઈ જાય છે. ખીજ તથા વૃક્ષની પરંપરા પદ્મ અનાદિકાળની છે તથાપિ ને ખીજ મળી જાય તા એ પરપરાના અભાવ થઈ જાય છે, તેથી ३९ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे बन्धचतुर्विधः -प्रकृति-स्थित्यनुभाग- प्रदेशभेदात्, तत्र - प्रकृति = स्वभात्रः आत्मगृहीतकर्मपुद्गलानां तत्तच्छक्तिरूपतया परिणमनलक्षणः, यथा - निम्बस्य तिक्तत्वम्, गुडस्य मधुरत्वमित्यादि, तथा ज्ञानावरणीयस्य जीवादिपदार्थानवबोधकत्वम् (१), दर्शनावरणीयस्य जीवादीनामनालोचकत्वम् (२), वेदनीयस्याऽव्याबाधकत्वम् (३), मोहनीयस्य तत्वारुचित्वमत्र तित्वं च (४), आयुषो भवाधायकत्वम् मोक्षस्य साद्यनन्तस्थित्याच्छादकत्वमित्यर्थः (५), नाम्नोऽमूर्त्तत्वगुणनिरोधकत्वम् (६), गोत्रस्यागुरुलघुगुणघातकत्वम् (७), अन्तरायस्य च दानादिप्रतिघातकत्वम् (८), तद्रूपो बन्धः प्रकृतिबन्धः १ । २५० परम्पराका अभाव हो जाता है, इसलिए आत्मकर्म संयोग अनादि होनेपर भी सान्त हो सकता है । बन्धका स्वरूप कहते हैं—बन्ध चार प्रकारका है - ( १ ) प्रकृतिबंध, (२) स्थितिबंध, प्रदेशबंध (३) अनुभागबन्ध, और ( ४ ) (१) प्रकृतिबंध - प्रकृति स्वभावको कहते हैं । अर्थात् आत्माके द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मों में अमुक अमुक प्रकारकी शक्तिका आजाना । जैसे- नीमका स्वभाव कटुकता, गुडका स्वभाव यदि । इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मका स्वभाव है-आत्माके ज्ञानको आच्छादित करना १ दर्शनावरण का स्वभाव है - दर्शनको रोकना २ । अव्याबाध गुणको प्रगट न होने देना वेदनीय कर्मका ३ | जीवादि तत्त्वों में रुचि न होने देना तथा चारित्रको रोकना मोहनीय कर्मको ४ । किसी शरीरमें रोक रखना आयुकर्मका ५ । अमूर्त्तत्व गुणको प्रगट न होने देना नामकर्मका ६ । अगुरुलघुत्व गुणका नाश कर देना गोत्रकर्मका ७ । तथा दान लाभ भोग उपभोग और वीर्यमें विघ्न डालना अन्तराय कर्मका स्वभाव है । ८ । इसीको प्रकृतिबन्ध कहते हैं । આત્મ-ક-સચાગ અનાદિ હોવા છતાં પણ સાન્ત થઇ શકે છે. બંધનું સ્વરૂપ કહે છેअंध यार अमरनो छे. (१) अमृति - अंध, (२) स्थिति - अध, (3) अनुभागमध भने प्रदेश-ध (૧) પ્રકૃતિ-મધ-પ્રકૃતિ સ્વભાવને કહે છે, અર્થાત્ આત્મા વડે ગ્રહણ કરાયલાં કર્માંમાં अभु-भभु४ प्राश्नी शक्ति भावि भवी ते. प्रेम सीजडाना स्वभाव उटुता (उडवाश) छे, ગાળના સ્વભાવ મધુરતા (મિઠાશ) છે, ઇત્યાદિ. એ રીતે જ્ઞાનાવરણીય ક'ના સ્વભાવ આત્માના જ્ઞાનને આચ્છાદિત કરવાના (ઢાંકવાના) છે ૧. દશનાવરણને સ્વભાવ દર્શીનને રાકવાના છે ૨. અવ્યાખાધ ગુણને પ્રકટ ન થવા દેવા એ વેદનીય-ક ના સ્વભાવ છે ૩. જીવાદિ તત્ત્વમાં રૂચિ ન થવા દેવી:તથા ચારિત્રને રોકવું એ મેહનીય-કર્મીના સ્વભાવ છે ૪. કાઈ શરીરમાં આત્માને રોકી રાખવા એ આયુ-ક ના સ્વભાવ છે ૫. અમૂત્વ ગુણને પ્રકટ થવા ન દેવા એ નામક ના સ્વભાવ છે ૬. અગુરૂ-લઘુત્વ ગુણના નાશ કરવા એ ગાત્રકમને સ્વભાવ છે છ. તથા દાન લાભ ભાગ ઉપભેગ અને વીયમાં વિઘ્ન નાખવું એ અંતराय-र्भनो स्वभाव छे ८. खेने अमृति-संबंध हे छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ बन्धस्वरूपम् २५१ स्थिति:- जघन्यादिभेदेन कर्मणामात्मना सहावस्थानं, तल्लक्षणो बन्धः स्थिति बन्धः २ । अनुभागो - रसः - कर्मणां फलदातृत्वशक्तितारतम्यं तत्स्वरूपो बन्धोऽनुभागबन्धः ३ । प्रदेश :- कर्मदलसञ्चयस्वरूपः - अनन्तानन्तकर्मप्रदेशानामियत्तारूपेण जीवप्रदेशेषु सम्बन्धस्तल्लक्षणो बन्धः प्रदेशबन्धः ४ । उक्तश्च "स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दलसञ्चयः || १||" इति । एतेषां स्वरूपं च सुखावबोधाय मोदकदृष्टान्तेन प्रदर्श्यते— यथा कचिदौषधमोदकस्य प्रकृतिर्वातहारिका, कस्यचित्पित्तहारिका, कस्यचि - कफहारिणी, कस्यचिद् बुद्धिनाशिनी, तथा कस्यचित्कर्मणः प्रकृतिर्ज्ञानावरणकारिणी, कस्यचिद्दर्शनावरणविधायिनीत्येवमादिविभिन्नशक्तिमतां कर्मणां बन्धः प्रकृतिबन्धः (१) । (२) स्थितिबन्ध - बंधे हुए कर्म आत्माके साथ जघन्य कितने काल तक रहेंगे और उत्कृष्ट कितने काल तक रहेंगे, इस कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं । (३) अनुभागबन्ध - फल देनेवाली कर्मोंकी शक्तिके तरतम्यको अनुभागबन्ध कहते हैं । (४) प्रदेशबन्ध - कितने कर्म आत्माके साथ बन्धको प्राप्त हुए हैं, इस प्रकार कर्मप्रदेशोंकी परिगणनाको प्रदेशबन्ध कहते हैं । कहा भी है “स्वभावको प्रकृतिबन्ध, कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध, रसको अनुभागबन्ध और कर्म पुoth समूहको प्रदेशबन्ध कहते हैं ॥ १ ॥ | " सरलतासे समझानेके लिए मोदकका दृष्टान्त देकर चारों बन्धोंका स्वरूप दिखलाते है(१) जैसे किसी औषध - मोदकको प्रकृति वातको हरने वालीं होती है किसी को पित्तको हरने वाली होती है, किसी की कफको हरने वाली होती है और किसी मोदककी प्रकृति बुद्धि (૨) સ્થિતિમધ-મ ધાયલાં ક આત્માની સાથે જધન્ય કેટલા કાળસુધી રહેશે અને ઉત્કૃષ્ટ કેટલા કાળસુધી રહેશે એ કાળની મર્માંદાને સ્થિતિમ ધ કહે છે. (3) अनुभाग अंध- आपनारी भनी शक्तिना तारतम्यने अनुभाग-मंध-मुडे छे. (૪) પ્રદેશખ ધ-કેટલાં કર્માં આત્માની સાથે ખંધને પ્રાપ્ત થયાં છે, એ પ્રકારે કમ प्रदेशांनी परिशणुनाने प्रदेश - अंध उडे छे.धु छे “સ્વભાવને પ્રકૃતિમધ, કાળની મર્યાદાને સ્થિતિબંધ, રસને અનુભાગ-મધ અને ક પુદ્દગલાના સમૂહને પ્રદેશબંધ કહે છે.” (૧) સરળતાથી સમજવાને માટે મેઇકનું દૃષ્ટાંત આપીને ચારે બધાનુ સ્વરૂપ બતાવે છે– (૧) જેમ કોઈ ઔષધ-મેદકની પ્રકૃતિ વાયુને હરવાવાળી છે. કોઇની શક્તિ પિત્તને હરવાવાળી છે, અને કોઇ મેદકની પ્રકૃતિ બુદ્ધિને નષ્ટ કરવાવાળી હાય છે. એ રીતે કોઈ કમની પ્રકૃતિ જ્ઞાનનું આવરણ કરનારી હાય છે, કોઈની દશનનું આવરણ કરનારી હોય છે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ __ श्रीदशवैकालिकसूत्रे यथा कस्यचिन्मोदकस्य स्थितिः सप्ताहोरात्रव्यापिनी, कस्यचित्पक्षव्यापिनी, कस्यचनकादिकमासं यावत् स्थितिस्तथा कस्यचित्कर्मणस्त्रिंशत्कोटीकोटीसागरोपमा स्थितिः, कस्यचिविंशतिकोटीकोटीसागरोपमा, कस्यचन सप्ततिकोटीकोटीसागरोपमा, कस्यचिच्चान्तर्महूर्त्तपरिच्छिन्ना, एवं विभिन्नकर्मणां नियतकालावस्थानं स्थितिबन्धः (२)। यथा कस्यचिन्मोदकस्यानुभागो(रसो) ऽतिमधुरः स्वल्पमधुरो वा, कस्यचिदति कटुकः स्वल्पकटुको वा, कस्यचिच्च नातिमधुरो नाप्यतिकटुको भवति, द्विगुणी करणादिना च स एव मन्द-मन्दतरत्वादिव्यपदेशं च लभते, तथा कर्मणामपि 'शुभाशुभादिरूनष्ट करनेवाली होती है । इसी प्रकार किसी कर्मकी प्रकृति ज्ञानका आवरण करनेवाली होती है और किसीकी दर्शनका आवरण करनेवाली होती है । इस प्रकार भिन्न-भिन्न शक्तिवाले कौका बन्ध होना प्रकृतिबन्ध है। (२) जैसे किसी मोदककी स्थिति एक सप्ताहकी होती है, किसी मोदकको स्थिति एक पक्ष (पखवाड़े) की होती है, किसी मोदककी स्थिति एक मासकी होती है, वैसे ही किसी कर्मकी स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपमकी होती है, किसीकी वीस कोडाकोडी सागरोपमकी होती है, किसी की सत्तर कोड़ाकोड़ो सागरोपमकी होती है, किसी कर्मकी अन्तर्मुहर्त मात्रकी होती है, इस प्रकार विभिन्न कर्मोका अमुक समय तक आत्माके साथ स्थित रहना स्थितिबन्ध कहलाता है। (३) जैसे किसी मोदकका स्वाद (रस) बहुत मीठा होता है, किसी मोदकका कम मीठा होता है, किसीका स्वाद बहुत कडुआ होता है, किसीका कम कडुआ होता है, किसी का स्वाद न अधिक मीठा होता हैं, न अधिक कडुआ होता है, उसे ही द्विगुण आदि करदेनेसे वही मन्द मन्दतर आदि कहलाने लगता है । वैसे ही कर्मों का रस शुभ अशुभ रूपसे तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द मन्दतर और मन्दतम आदि भेदोंसे विविध प्रकारका होता है उसे ही એ રીતે ભિન્ન- ભિન શક્તિવાળાં કર્મોને બંધ થશે એ પ્રકૃતિબંધ કહેવાય છે. (૨) જેમ કોઈ મોદકની સ્થિતિ એક સપ્તાહની હોય છે, કોઈ મોદકની સ્થિતિ એક પક્ષ (પખવાડિયું) ની હોય છે, કોઈ મોદકની સ્થિતિ એક માસની હોય છે, તેમજ કઈ કર્મની સ્થિતિ ત્રીસ કેડાછેડી સાગરોપમની હોય છે, કેઈની વીસ કડાકડી સાગરોપમની હોય છે. કેઈની સત્તર કાડાકોડી સાગરોપમની હોય છે. કોઈ કર્મની સ્થિતિ માત્ર અંત મંહતની હોય છે. એ પ્રકારે વિભિન્ન કર્મોનું અમુક સમય સુધી આત્માની સાથે સ્થિત રહેવું એ સ્થિતિબંધ કહેવાય છે, (૩) જેમ કેઈમેકને સ્વાદ (રસ) બહુ મીઠે હોય છે. કોઈ મોદકનો એ છે ભી હોય છે, કોઈ મોદકને સ્વાદ બહુ કડ હોય છે, કોઈને એછે. કડવે હાય છે, કોઈનો સ્વાદ ન વધુ મીઠે કે ન વધુ કડવું હોય છે, તેને દ્વિગુણ (બેવડો) કરવાથી તે મંદમંદતર આદિ કહેવાવા લાગે છે, એજ રીતે કમેને રસ શુભ અશુભ રૂપથી તીવ્ર, તીવ્રતર, તીવ્રતમ, મંદ, મંદતર, મંદતમ આદિ ભેદાએ કરીને વિવિધ પ્રકારને થાય છે. એને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ वन्धस्वरूपम् २५३ पेण तीव-तीव्रतर-तीव्रतम-मन्द-मन्दतर मन्दतमत्वादिभेदभिन्नो बन्धोऽनुभागबन्धो रसबन्धव्यपदेश्यः (३)। १ शुभकर्मणामनुभागो (रसो) द्राक्षेनुक्षीरमाक्षीकवदतिमधुरो भवति, यदनुभवेन जीव: सान्द्रानन्दसन्दोहतुन्दिलान्तःकरणो जायते । अशुभकर्मणां रसस्तु निम्बकिराततिक्तादिवदतितरां तिक्तो भवनि, यदनुभवेन जोवोऽनिर्वचनीय व्याकुलीभावं भजते, तीव्रतीव्रतरत्वा. दिबोधनार्थं च दृष्टान्तः प्रदयते इक्षुनिम्बयोरन्यतरम्य चतुःशेटकपरिमितो रसः 'स्वाभा विकरस' इत्युच्यते, वह्नितापद्वारोत्कालितो यदा शेटकचतुष्टयस्थाने शेटत्रितयमात्रोऽव. शिष्येत तदाऽसौ 'तीव्र' इत्युच्यते, पुनरुत्कालनेन शेटकद्वितयमात्रोऽवशिष्यते तदा तीवतर' इत्यभिधीयते, पुनरप्युत्कालनेन शेटकैकमात्रेऽवशिष्टे 'तीव्रतम' इति कथ्यते । इक्षु निम्बयोरेव शेटकैकमात्रो रसः 'स्वाभाविकरसः' इत्युच्यते, एकशेटकजलमेलनेन 'मन्दरस' इति, द्विशेटकजलसंयोजनेन 'मन्दतरो रस' इति, शेटकत्रितयपरिमितजलसम्बन्धेन 'मन्दतमो रस' इति व्यपदेशं लभते । अनुभागबन्ध कहते हैं । शुभ कर्मोका अनुभाग (रस) दाख, सांठा, गन्ना दूध या मधुके समान अतिमधुर होता है, इसके उपभोगसे आत्मामें अत्यन्त आनन्द उत्पन्न होता है । अशुभ कर्मीका फल नीम चिरायता आदिके समान अत्यन्त तिक्त होता है, इसका अनुभव करनेसे जीव अतिशय व्याकुलता प्राप्त करता हैं । तोव तीव्रतर आदि समझाने के लिये उदाहरण देते हैं इक्ष या नींममें से किर्स का चार सेर रस 'स्वाभाविक रस' कहलाता है यदि अग्निमें उकालने पर तीन सेर रह जाय तो वह तीव्रतम कहलाता है । इक्षु और निम्बका एक सेर रस स्वभाविक रस, उसमें एक सेर जल मिला दिया जाय तो मन्द, दो सेर मिलानेसे मन्दतर, तीन सेर मिलानेसे मन्दतम रस कहलाता हैं। જ અનુભાગબંધ યા રસબંધ કહે છે. ૧. શુભ કર્મોને અનુભાગ (રસ) દ્રાક્ષ, શેરડી, દૂધ મા મધના જે અતિમધુર હોય છે. એના ઉપભેગથી આત્મામાં અત્યંત આનંદ ઉત્પન થાય છે. અશુભ કર્મોનું ફળ લી બડે, કરિયાતું આદિની પેઠે અત્યંત તિક્ત હોય છે. એને અનુભવ કરવાથી જીવ અતિશય વ્યાકુળતા પ્રાપ્ત કરે છે. તીવ્ર તીવ્રતર આદિ સમજાવવાને ઉદાહરણ આપે છે–શેરડી યા લીંબડામાંથી કાઢેલે કેઈન ચાર શેર રસ “સ્વભાવિક રસ” કહેવાય છે જે તેને અગ્નિ પર ઉકાળવાથી ત્રણ શેર રહે તો તે તીવ્ર કહેવાય છે, ફરી ઉકાળવાથી બે શેર રહે છે તે તીવ્ર. તર કહેવાય છે. અને તેને ફરીથી ઉકાળતા માત્ર શેર બાકી રહે તે તે તીવ્રતમ કહેવાય છે. શેરડી અને લીબડાના એક શેર સ્વાભાવિક રસમાં જે એક શેર પાણી મેળવવામાં આવે તો મંદ બશેર પાણી મેળવતાં મંદતર અને ત્રણ શેર પાણી મેળવવાથી મંદતમ રસ उपाय छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ श्रीदशवैकालिकसूत्रे यथा कस्यचिन्मोदकस्य प्रदेशः कणिक्कादिदलसञ्चयः परिमाणेन द्विकर्षमितः, कस्यचित्कर्षत्रयमितः, एवं कस्मिंश्चित् कर्मदले परिमाणतोऽधिकसंख्याकाः, कस्मिंश्चिन्न्यूनसंख्यकाः, इत्येवं न्यूनाधिक्यरूपेण कर्मवर्गणाभिरात्मनोऽभिसम्बन्धः प्रदेशबन्धः (४)। मोक्षम् मोक्षणं मोक्षः स च द्रव्यभावभेदाद्विविधः, तत्र द्रव्यतो निगडादितः, भावतो ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मपाशतः पृथग्भवनमात्मनः, प्रकृते च भावमोक्षस्य आत्मनः पुनरप्रादुर्भाव्यशेषकर्मक्षयादनन्तज्ञानशाश्वतावस्थिति --कृतकृत्यत्वाऽव्याबाधसुखस्वरूपस्य ग्रहणम् । अत्र बौद्धा-“दीपनिर्वाण वदात्मनो निर्वाणं मोक्षः" यथोक्तम् -- "दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद्विदिशं न काश्चित, स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥१॥ (४) जैसे किसी मोदकमें आटे आदिके प्रदेश, परिमाणमें दो तोला होता है, किसीका तीन तोला होता है । इसी प्रकार किसी कर्मदलमें अधिक संख्यावाले प्रदेश हैं, किसी कर्मदलमें कम संख्यावाले प्रदेश होते हैं, अतः न्यूनाधिक रूपसे कर्मवर्गणाओंके साथ आत्माका सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध है। छूटनेको मोक्ष कहते हैं, मोक्ष भी दो प्रकारका है-(१) द्रव्यमोक्ष और (२) भावमोक्ष बेड़ी आदिसे छूटना द्रव्यमोक्ष है और ज्ञानावरण आदि आठ कर्मरूपी पाशसे आत्माका मुक्त हो जाना भावमोक्ष है। यहां समस्त कर्मोके आत्यन्तिक अभावसे उत्पन्न होनेवाले अनन्त ज्ञान, शाश्वत स्थिति, कृत-कृत्यता, अव्याबाध सुखस्वरूप भाव-मोक्षका ग्रहण किया गया है । बौद्धमतावलम्बी मानते हैं कि-"जैसे दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्माका अभाव हो जाना मोक्ष है"। कहाभी है (૪) જેમ કે ઈ મેદકમાં આટા આદિને પ્રદેશ પરિમાણમાં બે તોલા હોય છે, કેઈમાં ત્રણ તલા હોય છે; એ જ રીતે કેઈ કર્મદળમાં અધિક સંખ્યાવાળા પ્રદેશ હોય છે, કઈ કર્મદળમાં ઓછી સંખ્યાવાળા પ્રદેશ હોય છે, એમ ન્યૂનાધિક રૂપે કર્મવગણાઓની સાથે આત્માનો સંબંધ થ એ પ્રદેશબંધ છે. छुपाने मोक्ष ४३ छ. भाक्षना ५ मे १२ छे. (१) द्रव्य-भाक्ष अने (२) मायोक्ष બેડી વગેરેથી છૂટવું એ દ્રવ્યમેક્ષ છે અને જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મરૂપી પોશથી આત્માનું મુક્ત થઈ જવું તે ભાવમક્ષ છે. અહીં સર્વ કર્મોના આત્યંતિક અભાવથી ઉત્પન્ન થનારાં અનંત જ્ઞાન, શાશ્વત-સ્થિતિ કૃતકૃત્યતા, અવ્યાબાધ-સુખ-સ્વરૂપ ભાવમોક્ષને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. બૌધમતાવલંબીઓ માને છે કે-“જેમ દીપક બુઝાઈ જાય છે તેમ આત્માનો અભાવ थवा भाक्ष छ,' ४ छ - શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ मोक्षस्वरूपम् जोवस्तथा निवृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद्विदिशं न काश्चित, क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥२।" इत्याहुस्तच्छाश्वताबस्थितिपदेन निराकृतम् , सतोऽत्यन्तविनाशाभावात् , तस्मादात्मनः सकलकर्ममलविरहिता सद्भावस्वरूपा काचिदवस्थाऽवश्यम्भाविनी। न च 'दीपस्याभ्रस्य वा निरन्वयविनाशदर्शनादात्मनः स (निरन्धयविनाशः) कथं ने-'ति शङ्कनीयम् । तयोरपि निरन्वयविनाशानभ्युपगमात् , यथा कर्पूरस्य 'पिपरमेण्ट' इति ख्यातपदार्थस्य वा वातेन हियमाणस्य परिणमनसौक्ष्म्यादिन्द्रियगोचरत्वापायेऽपि न सर्व जैसे दीपककी ज्वाला जब नष्ट हो जाती है, तब न भूमिको ओर जाती है न आकाशकी ओर जाती है, न किसी दिशामें जाती है, न किसी विदिशामें जाती है, किन्तु स्नेह (तेल) का अभाव हो जानेसे शान्त हो जाती है ॥१॥ इसी प्रकार मुक्त जीव न भूमिकी ओर जाता है, न आकाशकी ओर जाता है, न किसी दिशामें जाता है, न विदिशामें जाता है; हां, दुःखोंका क्षय होजानेसे शान्त हो जाता है, अर्थात् मुक्त अवस्थामें जीवका अभाव हो जाता है ॥२॥" ऐसा माननेवाले बौद्धोंका खण्डन मौक्षके लक्षणमें आये हुए 'शाश्वत अवस्थिति' पदसे किया गया हैं, क्योंकि सत् पदार्थका कभी अभाव नहीं होता जब सत् पदार्थका आभाब नहीं हो सकता तो आत्माकी भी समस्त कर्मोसे रहित विद्यमान अवस्था अवश्य होनी चाहिये। बौद्ध-जब दीपककी ज्वालाका तथा मेघका निरन्तर नाश देखा जाता है तो आत्माका निरन्वय (सर्वथा) नाश क्यों नहीं हो सकता है। जैन-यह कहना सत्य नहीं है कि दीपककी ज्वाला और मेघ का निरन्वय नाश होजाता है। वह सूक्ष्म रूपसे परिणमन होनेसे यद्यपि इन्द्रियगोचर नहीं होता तथापि उसका सर्वथा अभाव જેમ દીપકની જવાલા જ્યારે નષ્ટ થઈ જાય છે, ત્યારે નથી તે ભૂમિની તરફ જતી, નથી વિદિશામાં જતી પરંતુ સ્નેહ (તેલ) ને અભાવ થવાથી શાન્ત થઈ જાય છે. (૧) એ રીતે મુક્ત જીવ નથી ભૂમિની તરફ જતા, નથી આકાશની તરફ જતે, નથી કોઈ દિશામાં જતે, હા, દુઃખનો ક્ષય થઈ જવાથી શાન્ત થઈ જાય છે, અર્થાત્ મુક્ત અવસ્થામાં बनी समाव / जय छे.” (१) એમ માનનારા બૌદ્ધોનું ખંડન મોક્ષના લક્ષણમાં આવેલા “શાશ્વત અવસ્થિતિ” શબ્દ વડે કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે સત્ પદાર્થને કદાપિ અભાવ થતો નથી. જે સત પદાનો અભાવ થઈ શકતા નથી તે આત્માની પણ સર્વ કર્મોથી રહિત વિદ્યમાન અવસ્થા અને વશ્ય હોવી જોઈએ. બૌધ– દીપકની જ્વાલાને તથા મેઘને નિરન્વય નાશ જોવામાં આવે છે, તે આત્માને નિરન્વય (સર્વથા) નાશ કેમ ન થઈ શકે? જૈન–એમ કહેવું સત્ય નથી કે દીપક જવાલાઅને મેઘને નિરન્વય નાશ થઇ જાય શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे थाऽभावः किन्त्ववस्थान्तरेण परिणतिमात्रम् , तथैव प्रदीपपर्यायाऽऽपन्नाः पुद्गलास्तमस्त्वेन परिणमन्ति, एवमभ्रस्यापि विशोर्यमाणस्य पुद्गलपुञ्जः परिणामसूक्ष्मत्वेन दृष्टिपथमप्राप्तोऽपि न पुद्गलत्वेनाऽसद्भूतः । एवमेवाऽऽत्मापि कृत्स्नकर्मकलापविप्रमुक्तः शुद्धःसिद्धो बुद्धोऽनन्तगुणसमृद्धो मोक्षावस्थायामपि विद्यत एवेति । अत्र 'अनन्तज्ञाने'- तिविशेषणेन नैयायिकवैशेषिकाभिमतं मतं निरस्तम् । तथाच "बुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेष प्रयत्न-धर्मा-ऽधर्म-संस्कारस्वरूपाणां नवानामात्मविशेषणगुणानामत्यन्तविच्छेदो मोक्षः"इति । अत्रोच्यते-बुद्धथादयो गुणा आत्मनो भिन्ना अभिन्ना वा ?, अभिन्नाश्वेत्तद्विनाशे आत्मनोऽपि विनाशोऽवश्यम्भावी तत्स्वरूपत्वात् , औण्यविनाशे वन्हिविनाशवत् , तथा च तदानीं कस्य मोक्षः ? । भिन्नाश्चेत्तर्हि वन्हिशैत्ययोनहीं होजाता, वह दूसरी सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होजाता है । इसी तरह प्रदोप अवस्था वाले पुद्गल अन्धकाररूपमें परिणत होजाते हैं। मेध जब छिन्न-भिन्न हो जाता है तो सूक्ष्मरूपमें परिणत होजाने से इन्द्रियोंद्वारा गृहीत नहीं हो सकता तथापि पुद्गल के रूपमें विद्यमान रहता हो है। ऐसे ही समस्त कर्मोसे रहित, शुद्ध, सिद्ध, बुद्ध, और अनन्त गुणों से समृद्ध आत्मा मोक्षअवस्थामें भी विद्यमान रहती है। 'अनन्तज्ञान' विशेषण से नैयायिक-वैशेषिक मत का निराकरण किया गया है। उनको मान्यता है कि "बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, और संस्कार, इन आत्मा के नौ विशेष गुणोंका अत्यन्त विनाश हो जाना मोक्ष है ।" यहाँ पूछना यह है कि-बुद्धि आदि गुण आत्मा से भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है तो गुणोंका नाश होने पर आत्माका भो नाश हो जायगा, क्योंकि आत्मा और गुण भिन्न नहीं हैं-एक हो है, जैसे उष्णता का नाश होनेपर अग्निका नाश हो जाता है। जब आत्मा का છે. સૂમરૂપથી પરિણમન થવાથી જો કે તે ઈન્દ્રિયગોચર થતાં નથી, તથાપિ એને સર્વથા અભાવ થઈ જતો નથી. તે બીજી સૂક્ષ્મ અવસ્થાને પામે છે. એ રીતે પ્રદીપ અવસ્થાવાળાં પુદગલ અંધકારરૂપમાં પરિણા થઈ જાય છે. મેઘ યારે છિન્ન-ભિન્ન થઈ જાય છે ત્યારે તે સૂફમરયમાં પરિણત થઈ જવાથી ઇંદ્રિયો દ્વારા ગ્રહણ થઈ શકતું નથી, પણ પુદ્ગલના રૂપમાં વિદ્યમાન તે રહે જ છે, એવી જ રીતે સર્વ કર્મોથી રહિત, શુદ્ધ, સિદ્ધ, બુદ્ધ અને અનંત ગુણેથી સમૃદ્ધ આત્મા મેક્ષ અવસ્થામાં પણ વિદ્યમાન રહે છે. અનન્ત જ્ઞાન વિશેષણથી નિયાયિક-વિશેષિક મતનું નિરાકરણ કરવામાં આવ્યું છે. तनी मान्यता मेवी छे , “भुद्धि, सुम, २छ।, द्वेष, प्रयल, धर्म, अधर्म भने સંસ્કાર, એ આત્માના નવ વિશેષ ગુણેને અત્યંત વિનાશ થઈ જવો એ મોક્ષ છે.” અહીં પૂછવાનું એ છે કે-બુદ્ધિ આદિ ગુણ આત્માથી ભિન્ન છે કે અભિન્ન ? જે અભિન્ન છે તે ગુણોનો નાશ થયા બાદ આત્માને પણ નાશ થઈ જશે, કારણ કે આત્મા અને ગુણ ભિન્ન નથી–જેમકે ઉષ્ણુતાને નાશ થવાથી અગ્નિને પણ નાશ થઈ જાય છે, જે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ मोक्षस्वरूपम् २५७ रिव तयोर्गुणगुणिभावोऽनुपपन्नः समवायस्याऽसिद्धत्वात् , अत एव न बुद्धयादीनामात्मगुणत्वम् । अस्तु वा अयौक्तिकोऽपि गुणगुणिभावस्तथापि ज्ञानसुखाधभावादात्मानं को जडीकर्तुमुद्यच्छेदिच्छेदपि ? ईदृशाद्भवदभिमतान्मोक्षात्संसारावस्थैव सम्यक्तराऽस्माकमस्तु, यस्मिन् सत्यपि क्लेशे कादाचित्कं स्वल्पमपि सुख लभ्यत एव । __ लोकेऽपि भवदभिमतमोक्षमाहात्म्यमुपहस्यते यथा "वरं वृन्दावने रम्ये, शृगालत्वं व्रजाम्यहम् । न तु वैशेषिकी मुक्तिं, प्रार्थयामि कदाचन ॥१॥" इति । नाश होजायगा तो मोक्ष किस का होगा ? अगर कहो कि ये गुण आत्मा से भिन्न हैं तो उनका आत्मा के साथ गुण-गुणि सम्बन्ध कैसे हुआ ? भिन्न होनेके कारण जैसे अग्नि और शीतलता में गुण-गुणी सम्बन्ध नहीं होता वैसे ही आत्मा और बुद्धि आदि का भी सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि समवाय सम्बन्ध से गुण गुणिभाव मान लोगे तो बुद्धि आदि गुणों का नाश नहीं हो सकता क्योंकि समवाय सम्बन्धको तुमने नित्य माना है, अतः बुद्धि आदि आत्मा के गुण ही सिद्ध नहीं होते । यद्यपि यह सम्बन्ध युक्ति से तो सिद्ध नहीं होता फिर भी मान लोगे तो जबकी मोक्ष में ज्ञान और सुख आदिका अभाव हो जाता है तो कौन बुद्धिमान् अपनी आत्मा को इन गुणोंसे रहित जड़ के समान बनाने का प्रयत्न करेगा ? तुम्हारे इस मोक्षसे तो संसार ही भला जिसमें दुःखोंके साथ-साथ कभी-कभी थोड़ा बहुत सुख भी मिल जाता है। लोकमें भी तुम्हारे माने हुए मोक्षकी हँसी उड़ाई जाती है, सुनो - "मैं मनोहर वृन्दावन में शृगाल हो जाना पसंद करता हूँ, किन्तु वैशेषिकका मोक्ष नहीं चाहता ॥१॥" આત્માને નાશ થઈ જશે તે પછી મોક્ષ કેને થશે ? અગર જે કહે કે એ ગુણ આત્મા થી ભિન્ન છે તે આત્માની સાથે એને ગુણ ગુણને સંબંધ કેવી રીતે થયે ? ભિન્ન હેવાને કારણે જેમ અગ્નિ અને શીતલતામાં ગુણ-ગુણ સંબંધ નથી હોતો. તેવી રીતે આત્મા અને બુદ્ધિ આદિને પણ સંબંધ નથી હોઈ શકતે. જે સમવાય સંબંધથી ગુણગુણીભાવ માની લેશે તે બુદ્ધિ આદિ ગુણેને નાશ નથી થઈ શકતે, કારણ કે સમવાય સંબંધને તમે નિત્ય માન્યો છે. એથી બુદ્ધિ આદિ આત્માના ગુણ જ સિદ્ધ થતા નથી. છે કે એ સંબધ યુક્તિથી તે સિદ્ધ નથી થતો, તોપણ માની લેશે તે જે મેક્ષમાં જ્ઞાન અને સુખ આદિનો અભાવ થઈ જાય છે તે કો બુદ્ધિમાન પોતાના આત્માને એ ગુણોથા રહિત જડની સમાન બનાવવાનો પ્રયત્ન કરશે ? તમારા એવા મક્ષ કરતાં તો સંસાર જ સારો કે જેમાં દાખની સાથે સાથે કઈ-કઈવાર થોડું ઘણું સુખ પણ મળી જાય છે કેમાં પણ તમારા માનેલા મોલની હાંસી ઉડાવવામાં આવે છે. સાંભળો– भनी २ वृन्दावनमा शुण (शियाण) ६ पानु ५ ४ ४३ छु, परंतु वैषना मोक्ष नथी ५ उरतो.” (१) ३६ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्रीदशवकालिकसूत्रे ___ यत्तु "अनन्तसुखरूपो मोक्षः" इति तदप्यसमीचीनम् , तथाहि-तदनन्त-सुखं मुतात्मनो ज्ञानगोचरं भवति न वा ?, आध पक्षे ज्ञानाऽऽनन्त्यप्रसङ्गः, सातसंवेदनस्यैव सुखत्वात् , अत एवाऽनन्तज्ञानविरहितसुखस्वभावत्वं मोक्षस्य न सिध्यति । "प्रकृतावुपरतायां' पुरुषस्य स्वस्वरूपेणाऽवस्थानं मोक्षः" इति हि साङ्ख्याः , तद् आत्मनः' इतिपदेन प्रत्यादिष्टम् । किञ्च-तन्मते प्रकृति-पुरुषयोः संयोगोऽपि न घटते कुतो मोक्षचर्चा ?, तथाहि-नित्या प्रकृतिः प्रवृत्तिस्वभावा तदितरस्वभावा वा ? तयोराधः सावधः पक्षः, तत्र त जो कहते हैं कि-"मोक्ष अनन्तसुखस्वरूप है" अर्थात् मोक्ष में सुख ही अवशिष्ट रह जाता है और कुछ नहीं रहता । उनका यह मानना समीचीन नहीं है । वह अनन्त सुख मुक्तात्मा के ज्ञान का विषय है या नहीं ? पहला पक्ष स्वीकार करो तो अनन्त सुखको जाननेके लिए अनन्त ज्ञान भी चाहिए । अनन्त ज्ञानके बिना अनन्त सुखका बोध नहीं हो सकता । दूसरा पक्ष अंगीकार करो तो सुखस्वभावता सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि, सातारूप संवेदनको ही सुख कहते हैं । जब संवेदन ही नहीं तो सुख हो ही नहीं सकता है, इसलिए "अनन्त ज्ञानसे रहित सुखस्वभाववाला मोक्ष" नहीं मानना चाहिए । "प्रकृति जब उपरत हो जाती है तब पुरुष अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, इसी अवस्था का मोक्ष कहते हैं।" ऐसी सांख्यमतानुयायिओंकी मान्यता है । 'आत्मनः' पदसे उसका निराकरण किया गया है। सांख्यमतमें प्रकृति और पुरुषका संयोग ही सिद्ध नहीं होता तब मोक्ष की चर्चा ही क्या करना ? सो ही आगे दिखलाते है कि प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्ति करनेका है या नहीं ?, पहला पक्ष दूषित है, क्योंकि प्रकृतिका स्वभाव यदि सर्वदा प्रवृत्ति करने का है तो उस प्रवृत्तिकी निवृत्ति જેઓ કહે છે કે “મેક્ષ અનંત સુખસ્વરૂપ છે અર્થાત્ મેક્ષમાં સુખ જ અવશિષ્ટ રહી જાય છે. બીજું કશું નથી રહેતું, તેએાનું એ માનવું પણ સમીચીન નથી એ અનંત સુખ સુદ્ધાત્માના જ્ઞાનનો વિષય છે કે નહિ ? પહેલો પક્ષ સ્વીકારો તે અનંત સુખને જાણવાને માટે અનંત જ્ઞાન પણ જોઈએ અનંત જ્ઞાન વિના અનંત સુખનો બંધ થઈ શકતો નથી. બીજો પક્ષ સ્વીકારો સુખ-સ્વભાવતા સિદ્ધ થઈ શકતી નથી. કારણ કે સાતા૩૫ સંવેદનને જ સુખ કહે છે જે સંવેદન જ હોતું નથી તે સુખ થઈ જ શકતું નથી. તેથી “અનંત જ્ઞાનથી રહિત સુખ-સ્વભાવવાળે મોક્ષ નહિ માન જોઈએ. પ્રકૃતિ જ્યારે ઉપરત થઈ જાય છે ત્યારે પુરૂષ પિતાના રવરૂપમાં સ્થિત થઈ જાય છે;” सेवा सांध्यमतानुयायीसानी मान्यता छ आत्मनः शथी अनु (न।४२ ४२वाभां આવ્યું છે. સાંખ્યમતમાં પ્રકૃતિ અને પુરૂષને સંયોગ જ સિદ્ધ નથી થતો તે મેક્ષની ચર્ચા જ શું કરવી ? તેજ આગળ બતાવવમાં આવે છે કે–પ્રકૃતિને સ્વભાવ પ્રવૃત્તિ કરવાનો છે કે નહિ ? પહેલે પક્ષ દૂષિત છે, કારણ કે પ્રકૃતિને સ્વભાવ જે સર્વદા પ્રવૃત્તિ કરવાને १ उपरतायां = निवृत्तायाम् । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ मोक्षस्वरूपम् २५९ त्प्रवृत्तेरुपरत्यभावेन मोक्षासम्भवात्, उपरत्यभ्युपगमे च प्रकृतेरनित्यत्वप्रसङ्गः । द्वितीयो - sपि पक्षो न क्षोदक्षमः प्रवृत्तेरेवाऽसम्भवतः कथमिवः भवसम्भवतः ?, भवाभावे कस्य मोक्षः ? एवं तन्मते मोक्षस्यैवायौक्तिकत्वात्कथं तल्लक्षणस्य समीचीनत्वं सिध्येत् ? । यच्चाssजीवकाः ( सम्प्रदायविशेषाः) मुक्तेः सकाशादात्मनः पुनरागमनमामनन्ति, तथाहि "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥ १॥” इति, तत् " पुनरप्रादुर्भावतये' - ति पदेनाsपाकृतम्, यतो मोक्षः कर्मनाशे सति सम्पद्यते, कर्म च कर्मणैव जन्यते, ततश्च मुक्तावस्थायां कर्माभावात्कुतः पुनः कर्मोत्पत्तिः ?, तदभावे च कुतस्तरां संसारागमनम् ? संसारस्य कर्महेतुकत्वात्, न कारणमन्तरेण कार्योत्पत्तिरिति सर्वसंमतत्वाच्चेति । । नहीं हो सकती और इसी कारणसे कभी मोक्ष भी नहीं होगा । दूसरा पक्ष भी विचार करने से बात हो जाता है । जब प्रकृति प्रवृत्ति ही नहीं करेगी तो संसार कैसे होगा ?, और जब संसार ( कर्मसहित अवस्था) ही नहीं तो मोक्ष किससे होगा ?, अर्थात् किसी प्रकार मोक्ष ही नहीं बनता जब मोक्ष नहीं बनता तो उसके लक्षण की निर्दोषता भी सिद्ध नहीं हो सकती । आजीवक सम्प्रदाय वाले ऐसा कहते है कि - " आत्मा मोक्ष से वापस लौट आती है । कहा भी हैं " धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले ज्ञानी परम पदको प्राप्त होकर जब तीर्थका अनादर होने लगता है तब मोक्षसे फिर संसारमें आ जाते हैं ॥ १ ॥ | " इनका यह मत 'पुनरप्रादुर्भावतया' इस विशेषण से खण्डित हो गया है । क्योंकि कमौके नाश होने पर ही मोक्ष होता है, और कर्म कर्मोंसे ही उत्पन्न होते हैं । मोक्षमें कर्मोंका अभाव છે તે એ પ્રવૃત્તિની નિવૃત્તિ થઈ શકતી નથી, અને તે કારણે કદાપિ મેાક્ષ પણ થશે નિ ખીજો પક્ષ પણ વિચાર કરવાથી બાધિત થઇ જાય છે, જો પ્રકૃતિ પ્રવૃત્તિ જ નહિ કરે તે સંસાર કેવી રીતે થશે ? ઋને જો સસાર (કમ સહિત અવસ્થા) જ નથી તા મેક્ષ શાનાથી થશે ? અર્થાત્ કોઇ પ્રકારે માક્ષ જ નથી બનતા, જો મેાક્ષ નથી બનતા તા તેના લક્ષણની નિષિતા પણ સિદ્ધ થઈ શકે નહિ. આજીવક સંપ્રદ્યાયવાળા એમ કહે છે કે-“આત્મા માથી પાછા ફરી આવે છે. કહ્યું छे “ધમ તીથની સ્થાપના કરનારા જ્ઞાની પરમ પદને પ્રાપ્ત થઈને જ્યારે તીના અનાદર થવા લાગે છે ત્યારે મેાક્ષમાંથી પાછા સંસારમાં આવી જાય છે.’ (૧) भेने। ये भत 'पुनरप्रादुर्भावतया' मे विशेषणुथी मंडित थ गयो छे. अर કર્મીના નાશ થવાથી જ મેક્ષ થાય છે. અને ૪ કર્મોથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. મેાક્ષમાં કર્માંના અભાવ થઈ જવાથી કર્માંની ઉત્પતિ થતી નથી, તેથી સંસારમાં ક્ી આવવાને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्रीदशवैकालिकसूत्रे "आत्मनः सततमूर्ध्वगतिर्मुक्ति"--रिति मण्डलीमतानुयायिनः, तच्च प्रमत्तप्रलपनप्रायम् , लोकाकाशानन्तरं धर्मास्तिकायस्यास्तित्वाभावात् । धर्मास्तिकायस्य जीवपुद्गलानां गतिनिमित्तत्वं प्रमाणासिद्धं, तथाहि-गमनोन्मुखानां जीवपुद्गलानां गतिर्बाह्यनिमित्तसापेक्षा गतित्वात् , बाह्यनिमित्तमत्र धर्मास्तिकायोऽन्यस्यासम्भवात् , लोकाकाशाऽनन्तरं तदभावान्न तस्मादूर्ध्वं गतिसंभवः । अत एवाऽगर्हणा हमाहतमताभिमतमुक्तिस्वरूपमवेति । ननु नरामरतिर्यङ्नारकपर्यायस्वरूप एव संसारस्तेभ्यः पृथग्भावेन न कस्यचिदामन उपलब्धिस्ततश्च मनुष्यादिस्वरूपसंसाराभावे तल्लक्षणस्याऽऽत्मनोऽपि विनाशः, अत एव 'अभावलक्षणो मोक्षः' इति चेदत्रोच्यते नारकादयो जीवस्य पर्यायाः, नहि पर्यायनाशे पर्यायिणोऽपि नाशः प्रत्युत पर्यायान्तरोत्पत्तिरेव संजायते, यथा कटकाऽऽकृतिविनाशेऽपि सुवर्णस्य न विनाशः किन्तु कुण्डलाद्याकारान्तरोत्पत्तिदृश्यते, तथैव नारकादिपर्यायनाशे नात्मनोऽपि नाशः किन्तु हो जाने से कर्मोकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए संसारमें आगमन संभव नहीं है । कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, ऐसा सब सिद्धान्त वाले स्वीकार करते है । मण्डलीमत के माननेवाले कहते है कि- "आत्मा सदा ऊपर चली जाती है कहीं ठहरती नहीं है " यह कथन उन्मत्त पुरुषके प्रलापके सदृश है, क्योंकि लोकाकाशके बाद धर्मास्तिकायका सद्भाव नहीं है । यह बात प्रमाण से सिद्ध है कि धर्मास्तिकायके विना जीव और पुद्गलोंकी गति विना बाह्य कारण के नहीं हो सकती, क्योंकि-'वह गति है, जो जो गति होती है वह बाह्य निमित्तकी अपेक्षा रखती है' । गति में बाह्य निमित्त धर्मास्तिकाय हो हो सकता, क्योंकि अन्य किसीमें ऐसी शक्ति नहीं है । यह धर्मास्तिकाय लोकाकाशसे आगे नहीं है, इसलिए लोकाकाशसे आत्मा गमन भी नहीं कर सकती' । अत एव सिद्ध हुआ कि 'आर्हतमत (जिनमत) में माना हुआ मोक्षका लक्षण ही सर्वथा निर्दोष है। સંભવ નથી, કારણ વિના કાર્યની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી, એવું સર્વ સિદ્ધાન્તવાળાએ स्वीरे छे. મંડલીમતના માનનારાઓ કહે છે કે “આત્મા સદા ઉપર ચાલ્યો જાય છે, કયાંય ભોરહેતું નથી” આ કથન ઉન્મત્ત પુરૂષના પ્રલા૫ જેવું છે, કારણ કે કાકાશની પછી ધર્માસ્તિકાયને સદૂભાવ જ નથી. એ વાત પ્રમાણુથી સિદ્ધ થએલી છે કે ધમસ્તિકાય વિના જીવ અને પુદગલની ગતિ બાહ્ય કારણ વિના થઈ શકતી નથી, કારણ કે એ ગતિ છે, જે જે ગતિ હોય છે તે તે બાહ્ય નિમિત્તની અપેક્ષા રાખે છે, ગતિમાં બાહ્ય નિમિત્ત ધર્માસ્તિકાય જ હોઈ શકે છે. કારણ કે અન્ય કેઈમાં એવી શકિત નથી. એ ધર્માસ્તિકાય કાકાશથી આગળ નથી, તેથી કાકાશથી આગળ આત્મા ગમન કરી શકતો નથી. એટલે સિદ્ધ થયું કે “આતમત (જૈનમત)માં માનેલું મેક્ષનું લક્ષણ જ સર્વથા નિર્દોષ છે.” प्रश्न-मनुष्य, देव, तियय अने ना२४ी-पर्याय२१३५ । संसार छे. ये प्यारे भव શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ मोक्षस्वरूपम् २६१ सिद्धत्वपर्यायान्तरं सम्पद्यते । किञ्च नारकादयः तर्यायाः कर्मकृताः सन्त्यतो हि कर्माभावे पर्यायाभावः, कारणाभावे कार्यस्याप्यभावाद् वयभावे धूमाभावात् , जीवत्वं तु न कर्मकृतं तस्थ स्वाभाविकत्वादतो न खलु कर्माभावे जीवाभावस्तन्त्वभावे घटाभाववत् , तस्मान्नाऽभावलक्षणमोक्षः किन्तु शाश्वतिकावस्थितिरूपः । असौ (मोक्षः) च सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपरत्नत्रयहेतुकः, अन्यतमाभावे तदसम्भवात् काञ्चनोपलवियोगवत् , यथा हि न केवलं ज्ञानमात्रेणोपलात्सुवर्णवियोगः सुस प्रश्न-मनुष्य, देव, तिर्यञ्च और नारकी- पर्यायस्वरूप ही संसार है इन चारों अवस्थाओं से भिन्न किसी आत्माकी उपलब्धि नहीं होती, इसलिए संसारका अभाव होने से आत्माका भी अभाव हो जायगा, अतएव मोक्षको अभावस्वरूप मानना चाहिए । उत्तर-नारक आदि जीवकी पर्यायें हैं । पर्यायों का नाश होनेसे पर्यायी (आत्मद्रव्य) का नाश नहीं होता । बल्कि दूसरी पर्याय उत्पन्न हो जाती है । जैसे सोनेके कडे का नाश होनेसे सोनेका नाश नहीं होता किन्तु कुण्डल आदि दूसरी पर्याय उत्पन्न हो जाती है, वैसे ही नारक आदि पर्यायोंका नाश होनेपर भी आत्माका नाश नहीं होता किन्तु सिद्ध पर्याय उत्पन्न हो जाती है। ___ अथवा-नारक आदि पर्यायें कर्मकृत है अतः कर्मके कभाव होनेपर उनका भी अभाव होताहै, क्योंकि कारणके अभाव होनेसे कार्यका भी अभाव हो जाता है, जैसे अग्निका अभाव होनेसे धूमका अभाव होता है । आत्मा कर्मकृत नहीं है, वह स्वाभाविक है, अतएव कर्मका अभाव होनेसे आत्माका नाश संभव नहीं है । जैसे तन्तुओंका नाश होनेसे घटका अभाव नहीं होता, इसलिए मोक्ष अभाव स्वरूप नहीं है किन्तु शाश्वत स्थितिवाला है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकुचारित्र स्वरूप रत्नत्रय मोक्षका कारण है । रत्नत्रयमेंसे સ્થાથી ભિન કેઈ આત્માની ઉપલબ્ધિ થતી નથી. તેથી સંસારને અભાવ હોવાથી આત્માને પણ અભાવ થઈ જશે. તેથી મોક્ષને અભાવસ્વરૂપ માન જોઈએ. उत्तर-ना२४ माहिया पर्याय छे. पर्यायांना नाश थवाथी पर्यायी (मात्मद्रव्य) ને નાશ નથી થતું, બલકે બીજે પર્યાય ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. જેમકે સેનાના કડાનો નાશ થવાથી સોનાનો નાશ નથી થતું, પરંતુ કુંડલ આદિ બીજે પર્યાય ઉત્પન્ન થાય છે. તેવી રીતે નારક આદિ પર્યાને નાશ થતાં પણ આત્માને નાશ નથી થતે કિન્તુ સિદ્ધપર્યાય ઉત્પન્ન થાય છે અથવા- નારક આદિ પર્યાયે કર્મકૃત છે. તેથી કમને અભાવ થતાં તેને પણ અભાવ થાય છે. કારણને અભાવ થવાથી કાર્યને પણ અભાવ થઈ જાય છે, જેવી રીતે અગ્નિનો અભાવ થવાથી ધુમાડાને પણ અભાવ થાય છે. આત્મા કર્મકૃત નથી, એ સ્વાભાવિક છે. તેથી કર્મને અભાવ થતાં આત્માને નાશ સંભવિત નથી, જેમ તંતુઓને નાશ થવાથી ઘટનો અભાવ થતું નથીએથી કરીને મોક્ષ એ અભાવસ્વરૂપ નથી શાશ્વત સ્થિતિવાળે છે. સમ્યફજ્ઞાન, સમ્યગ્દર્શન અને સમ્યકૂચારિત્ર-સ્વરૂપ રત્નત્રય મેક્ષનું કારણ છે. રન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे म्पाद्यो भवितुमर्हति श्रद्धान-क्रिययोरभावात् (१), न श्रद्धानमात्रेण ज्ञान-क्रिययोरभावात् (२), नापि क्रियामात्रेण ज्ञान-श्रद्धानयोरभावात् (३), न ज्ञान-श्रद्धानमात्रेण क्रियाया अभावात् (४), न ज्ञान-क्रियामात्रेण श्रद्धानाभावात् (५),नापि श्रद्धानक्रियामात्रेण ज्ञानाऽभावात् (६) । एवमेव मोक्षोऽप्यन्यतमाभावे न संभवत्यपि तु समुदितरत्नत्रयादेवेति । तं मोक्षं च जानीयात् विद्यादित्यर्थः ॥१५॥ मूलम्-जया पुण्णं च, पावं च बंधं मोक्खं च जाणइ । १६ १९ १२ १३ १४ १५ तया निविदए भोए, ज दिव्वे जे य माणुसे ॥१६॥ कोई एक न हो तो मोक्ष नहीं हो सकता, जैसे सुवर्ण और पाषाणका वियोग । अर्थात् जैसे (१) अकेले ज्ञान द्वारा पाषाणसे सुवर्णको पृथक नहीं कर सकते, क्योंकि श्रद्धान और क्रियाका अभाव है। (२) केवल श्रद्धानसे भी पृथक् नहीं कर सकते, क्योंकि ज्ञान और क्रियाका अभाव है । (३) केवल क्रियासे भी पृथक् नहीं कर सकते, क्योंकि ज्ञान और श्रद्धान नहीं है । (४) ज्ञान और श्रद्धानसे ही सुवर्ण और पाषाणको पृथक् नहीं कर सकते, क्योंकि वहाँ क्रिया नहीं है । (५) ज्ञान और क्रियामात्रसे भी पृथकू नहीं कर सकते, क्योंकेि श्रद्धान नहीं है । (६) श्रद्धान और क्रिया मात्रसे भी पृथक् नहीं कर सकते, क्योंकि ज्ञानका अभाव है। इसी प्रकार मोक्ष भी समु. दित तीनोंसे प्राप्त होता है, किसो एकके अभावमें नहीं हो सकता । जिस प्रकार वन में आग लगने पर, बहाँ रहे हुए अन्धा नेत्रोंके अभावसे, पङ्ग चरणों के अभावसे और अश्रद्धालु अग्निकी दाहकता-शक्ति के प्रति श्रद्धा के अभावसे उस वन से नहीं निकल सकते हैं उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रों से रहित होनेके कारण अन्ध जीव, सम्यक्चारित्र से रहित होने के कारण पंगु जीव और सम्यग्दर्शन के अभाव से अश्रद्धालु जीव भी जन्मजरा-मरण रूपी भीषण दुःखोंकी प्रचण्ड अग्नि से जलते हुए इस संसार रूपी वन से नहीं निकल ત્રયમાંથી કઈ એક ન હોય તો મોક્ષ થઈ શકતું નથી જેમ કે સુવર્ણ અને પાષાણને વિયેગ, અર્થાત્ જેમ-(૧) એકલા જ્ઞાન દ્વારા પાષાણથી સુવર્ણ અલગ કરી શકાતું નથી, કારણ કે શ્રદ્ધાન તથા ક્રિયાને અભાવ છે. (૨) કેવળ શ્રદ્ધાનથી પણ અલગ કરી શકાતું નથી, કારણ કે જ્ઞાન અને ક્રિયાનો અભાવ છે. (૩) કેવલ ક્રિયાથી પણ અલગ કરી શકાતું નથી કારણ કે જ્ઞાન અને શ્રદ્ધાન નથી ( જ્ઞાન અને શ્રદ્ધાનથી પણ સુવર્ણ અને પાષાણુ અલગ કરી શકાતાં નથી કારણ કે ત્યાં કિયા નથી. (૫) જ્ઞાન અને ક્રિયા માત્રથી પણ અલગ કરી શકાતાં નથી કારણ કે શ્રદ્ધાન નથી. (૬) શ્રદ્ધાન અને ક્રિયાથી પણ અલગ કરી શકાતાં નથી કારણું કે જ્ઞાનને અભાવ છે. એ રીતે મેક્ષ પણ સમુદિત ત્રણેથી પ્રાપ્ત થાય છે, કેઈ એકને અભાવ હોય તે મેક્ષ પ્રાપ્ત થતો નથી. જેમ વનમાં આગ લાગવાથી, ત્યાં રહેલ આંધળે નેત્રે ન હોવાથી, લંગડે પગે ન હોવાથી, અને અશ્રદ્ધાળુ અગ્નિની દાહર્તા-શક્તિ પ્રત્યે શ્રદ્ધા ન હોવાથી તે વનમાંથી નીકળી શકતા નથી તેમ સમ્યજ્ઞાનરૂપી નેત્રે ન હેવાથી આંધળે જીવ, સમ્યક ચારિત્ર ન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ ० गा० १६ पुण्यादिशाने भोगनिर्वेदः २६३ छाया-यदा पुण्यं च पापं च, बन्ध मोक्षं च जानाति । तदा निर्विन्ते भोगान् , ये दिव्या ये च मानुषाः ॥१६॥ सान्वयार्थ:-जया जब पुण्णं च पावं च पुण्य और पापको, च-तथा बंधं मुक्ख= बंध और मोक्षको जाणइ-जानता है, तया तब जे दिव्वे जो देव सम्बन्धी य= और जे माणसे जो मनुष्यसम्बन्धी (भोग हैं, उन) भोए=भागोंको निविदए-तत्त्वसे विचारता है, अर्थात् निस्सार समझने लगता है ॥१६॥ टीका-'जया पुण्ण' मित्यादि । यदा पूर्वप्रतिपादितलक्षणलक्षितं पुण्यादिकं जानाति तदा ये दिव्याः दिवि-स्वर्गे भवाः देवसम्बन्धिनः, च=तथा ये मानुषाः मनुष्यसकते हैं । जैसे-अन्ध, पंगु, और अश्रद्धालु वनाग्नि में जल मरते है उसी प्रकार ये भी संसाराग्नि में जल मरते हैं । परन्तु जिनके नेत्र और दोनों चरण अक्षत हैं, और अग्निकी दाहकता-शक्ति के प्रति भी श्रद्धा है वे जिस प्रकार दावाग्नि-प्रज्वलित वनको पार कर जाते है उसी प्रकार जो जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यग्दर्शनसे युक्त है वे भी जन्म-जरा-मरणरूप भीषण दुःखों के प्रचण्ड-अग्नि से जलते हुए इस संसाररूपी वनको पार कर जाते है । इससे सिद्ध है कि रत्नत्रयमेंसे किसी एककी भी कमी होनेसे सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती। उस प्रकारके मोक्षको जाने ॥१५॥ 'जया पुण्णं०' इत्यादि । जब पूर्वोक्तस्वरूपवाले पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्षको जानता है तब देवों तथा मनुष्योंके सम्बन्धी भोगोंका वास्तविक विचार करता है । इन्द्रिय और मनकी अनूकूलतारूपसे जिनका उपयोग किया जाता है उन्हें भोग कहते हैं । भोगोंके विषयमें साधु ऐसा विचार करते है कि-'ये भोग भुजंगके समान भयंकर है, अशुचि है, अशुचि पदार्थों से उत्पन्न होते है, सड़ जाते है, गल जाते हैं, नष्ट हो जाते है, नित्य नहीं रहते । कौन विवेकी ऐसे भोगों को હોવાથી લંગડો જીવ, અને સમ્યક દર્શન ન હોવાથી અશ્રદ્ધાળુ જીવ પણ જન્મ–જરા– મરણરૂપી ભીષણ દુઃખના પ્રચંડ અગ્નિથી પ્રજ્વલિત આસંસારરૂપી વનમાંથી નીકળી શકો નથી. જેમ આંધળ, લંગડો અને અશ્રદ્ધાળુ વનાગ્નિમાં બળી મરે છે તેમ આજી પણ સંસારાગ્નિમાં બળી મરે છે. પરંતુ જેના નેત્રે અને બેઉ ચરણે સાબૂત છે, અને અગ્નિની દાહકતા-શક્તિ પ્રત્યે પણ શ્રદ્ધા છે તે જેમ દાવાગ્નિ થી પ્રજવલિત વનને પાર કરી જાય છે તેજ પ્રકારે જે જે સમ્યજ્ઞાન, સમ્યકૂચારિત્ર અને સમ્યગ્દર્શનથી યુક્ત છે તે છે પણ જન્મ-જરા-મરણરૂપ ભીષણ દુઃખના પ્રચંડ અગ્નિથી પ્રજવલિત આ સંસારરૂપી વનને પાર अशजय छे. એથી સિદ્ધ થાય છે કે એ રત્નત્રયમાંથી કોઈ એક પણ જે ઓછું હોય તે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થઈ શકતી નથી, એ પ્રકારના ટેક્ષને જાણે (૧૫) जया पुण्णं० छत्याहयारे पूर्वत-२१३५वा पुख्य पा५ सय भने भाक्षन गणे છે ત્યારે દેવે તથા મનુષ્ય સંબંધી ભેગોને વાસ્તવિક વિચાર કરે છે. ઈદ્રિય અને મનની અનુકૂલતારૂપે જેને ઉપયોગ કરવામાં આવે છે એને ભેગ કહે છે, ભેગેના વિષયમાં સાધુ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीदशवकालिकस्ले सम्बन्धिनः (भोगाः सन्ति तान् सर्वानपि) भोगान्-भुज्यन्ते निर्विश्यन्ते तत्तदिन्द्रियनोइन्द्रियानुकूलतयोपयुज्यन्त इति भोगा: शब्दादिविषयास्तान् निविन्ते तत्वतो विचा रयति-'भोगि भोगोपमा खल्विमे भोगा अशुचयोऽशुचिसम्भवाः शटन-पतन-विध्वंसनस्वभावा अशाश्वताश्च, को नाम विवेकी एवंविधानिमान् भोगानुपभोक्तुमभिलषेदिति ? कस्य वा विवेकिनो वान्ताशनेच्छा, अतिपूतिगन्धिपूयरुधिरप्रवाहेऽवगाहनाऽऽकाङ्क्षा, शादूलसदननिवासाभिलाषः, कलकलायमाने सीसककटाहादौ पतनस्पृहा, समन्ततो दन्दह्यमान भवनान्तरालपरिभ्रमणसाहसम् अजगर विषधरमुपधानीकृत्य शयनेच्छा वा जायेत? । "खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा" इत्यादि पर्यालोचयन् निर्वेदं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥१६॥ मूलम्-जया निबिए भोए, जे दिवे जे य माणुसे । ८ १२ ११ १० तया चयइ संजोग, सभितर-बाहिरियं ॥१७॥ छाया-यदा निर्विन्ते भोगान् , ये दिव्या ये च मानुषाः । तदा त्यजति संयोगं, साभ्यन्तर-बाह्यम् ॥१७॥ भोगनेकी अभिलाषा करेगा ?, किस विवेकशील व्यक्तिको वमन भक्षण करनेकी इच्छा होगी !, अहा ! कौन चाहेगा कि-'मैं अत्यन्त दुर्गन्धवाले पीप और रुधिरके प्रवाहमें अवगाहन (स्नान) करूँ ?, क्या कोई सिंह की मांद (गुफा) में निवास करनेकी इच्छा करता है ?, उकलते हुए शीशे की कड़ाही में कौन बुद्धिमान् कूदनेको कामना करता है ? कोई नहीं करता हैं । अथवा चारों ओर से धधकते हुए घरमें घुसनेका कौन साहस कर सकता हे ?, और अजगर सर्पको उपधान (उसीसा -सिरहाना) बनाकर कौन शयन करना चाहेगा ? । ये विषय-भोग क्षणमात्र सुख देनेवाले हैं और बहुत काल तक दुःख देने वाले है ॥" ऐसा विचार कर मुनि जन निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त करते है ॥१६॥ એવો વિચાર કરે છે કે એ ભેગે ભુરંગ (સર્પ)નાં જેવા ભયંકર છે, અશુચિ છે, અશુચિ પદાર્થોથી ઉત્પન્ન થાય છે. સડી જાય છે, ગળી જાય છે, નષ્ટ થઈ જાય છે, નિત્ય રહેતા નથી. કયો વિવેકી મનુષ્ય એવા ભેગો ભેગવવાની અભિલાષા કરશે ? કઈ વિવેકશીલ વ્યકિતને વમન કરેલાંનું ભક્ષણ કરવાની ઈચ્છા થશે ? અહા ! કેણુ ઈચ્છશે કે હું અત્યંત દુર્ગધવાળા પરૂ અને રૂધિરના પ્રવાહમાં અવગાહન (સ્નાન) કરીશ ? શું કઈ સિંહની ગકામાં નિવાસ કરવાની ઈચ્છા કરે છે ? ઊકળતા સીસાંની કડાઈમાં કયે બુદ્ધિમાન મનુષ્ય કૂદી પડવાની કામના કરે? કેઈ કરે નહિ. અથવા ચારે બાજુએથી અગ્નિથી ધગી રહેલા ઘરમાં પિસવાનું સાહસ કેશુ કરી શકે ? અને અજગર સર્પનું ઉપધાન (ઓશીકું) બનાવીને સૂવાની કેણ ઈચ્છા કરશે? એ વિષય–ભેગ ક્ષણમાત્ર સુખ દેવાવાળા છે અને ઘણા કાળ સુધી દુખ દેવાવાળા છે.” એ વિચાર કરીને મુનિજન નિર્વેદ (વૈરાગ્યને પ્રાપ્ત કરે છે. (૧૬) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १७-१९ संयोगादित्यागः सवरधर्मस्पर्शः ___ २६५ सान्वयार्थ:-जया जब जे दिव्वे जो देवसंबंधी और जे य-जो माणुसे मनुष्यसम्बन्धी भोए भोगोंको निबिदए-तत्त्वसे विचारता है, तया तब सब्भितरबाहिरियंआभ्यन्तर और बाह्य संजोग संयोगको चयइ-त्याग देता है ॥१७॥ टीका---'जया निविदए' इत्यादि । यदा दिव्य-मानुष-भोगोपभोगेषु निर्वेदो जायते तदा साऽऽभ्यन्तरबाह्यम् बहिर्मवो बाह्यः-सुवर्णमणिमाणिक्यादिः, अभ्यन्तरेअन्तःकरणे भवं आभ्यन्तर:-क्रोधादिः, आभ्यन्तरेण सहितः साऽऽभ्यन्तरः स चासौ बाह्यश्चेति साभ्यन्तरबाह्यस्तम् , संयोग-संयुज्यते-सम्बध्यतेऽनेनाऽऽत्मेति संयोगः ममत्वकृतसम्बन्धस्तम् त्यजति-परिहरति ॥१७॥ मूलम्-जया चयइ संयोगं, सब्भितर-बाहिरियं । तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं ॥१८॥ छाया-यदा त्यजति संयोग, साभ्यन्तर-बाह्यम् । तदा मुण्डो भूत्वा, प्रव्रजत्यनगारिताम् ॥१८॥ सान्वयार्थ:-जया जब सब्भिरबाहिरियं-आभ्यन्तर और बाह्य संजोग-संयोगको चयइ-त्याग देता है, तया तब मुंडे-द्रव्यभावसे मुण्डित भवित्ता-होकर अणगारियं= साधुपनेको पव्वाइए प्राप्त होता है ॥१८॥ टीका--'जया चयइ' इत्यादि । यदा बाह्याऽऽभ्यन्तरसंयोगविरहितो भवति तदा मुण्ड:-मुण्डनं मुण्डः ('मुडि खण्डने इत्यस्माद्भावे घञ्) स च द्वेधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मस्तककेशापनयनम् , भावतो रागद्वेषापनयनम् , मुण्डनधर्मयोगाद्धर्म्यपि 'जया निविदए.' इत्यादि । जब देवसम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी भोगोंको जान लेता है, तब सुवर्ण-मणि-माणिक्य आदि बाह्य परिग्रहका तथा क्रोधादि आन्तरिक परिग्रहका अर्थात् बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर देता है ॥१७॥ ___'जया चयइ' इत्यादि । जब बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग करता है तब मुण्डित हो जाता है। मुण्डन दो प्रकारका होता है (१) द्रव्य मुण्डन, (२) भावमुण्डन । मस्तकके केशोंका लुच्चन करना द्रव्यमुण्डन कहलाता है। राग द्वेष आदिको दूर करना भावमुण्डन है । दोनों प्रकारोंसे मुण्डित होकर सर्वविरतिरूप વિવિઘ ઈત્યાદિ. જ્યારે દેવસંબંધી અને મનુષ્ય સંબંધી ભેગને જાણી લે ત્યારે મુનિ સુવર્ણ—મણિ-માણિકયાદિ બાફ્રા પરિગ્રહને તથા ક્રોધાદિ આંતરિક પરિગ્રહને અર્થાત્ બાહ્યાભ્યતર પરિગ્રહને ત્યજી દે છે. (૧૭) . ના ર૦ ઈત્યાદિ. જ્યારે બાહ્યાભ્યતર પરિગ્રહને મુનિ પરિત્યાગ કરે છે ત્યારે भुति थ य छे. भुउन में प्रधान डाय छ-(१) द्रव्य-भुन भने (२) मा मुंडन. મસ્તકના કેશનું લંચન કરવું એ દ્રવ્યમુંડન કહેવાય છે. રાગ-દ્વેષ આદિને દૂર કરવા એ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मुण्ड : मुण्डित इत्यर्थः भूत्वा अनगारिताम् अनगारिणो भावोऽनगारिता साधुत्वं सर्वविरतिलक्षणं सामायिकादिकमित्यर्थः, ताम् प्रव्रजति प्रा मोति प्रत्रजितो भवतीत्यर्थः ॥ १८ ॥ ૧ २ ५ 8 मूलम् - जया मुंड भवित्ताणं, पव्वइ अणगारियं । ६ तया संवरमुक्किहूँ धम्मं फासे अणुत्तरं ||१९|| छाया -यदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारिताम् । तदा संवरमुत्कृष्टं, धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् ॥१९॥ सान्वयार्थ::- जया - जब मुंडे - द्रव्यभावसे मुण्डित भवित्ता - होकर अणगारियं =: - साधुपने को पव्व प्राप्त होता है, तया तब उक्किट्ठे अत्यन्त प्रशस्त अणुत्तरं - सर्वश्रेष्ठ संवरं-संवर धम्मं धर्म को फासे-स्पर्श करता है- प्राप्त होता है ॥ टीका- 'जया मुंडे० ' इत्यादि । यदा मुण्डो भूत्वाऽनगारितां प्रव्रजति = प्रामोति, तदा उत्कृष्टम्=अतिप्रशस्तम्, अनुत्तरं = निरतिचारतया सर्वश्रेष्ठम् । यद्वा स्थिरं = निश्चलम् । अथवा जिनागमसिद्धत्वात् प्रतिजल्पविवर्जितम्, यद्वा 'अनुत्तर' मित्येतत् क्रियाविशेषणम् अनुत्तरम् - उक्तार्थकं यथा स्यात्तथा स्पृशतीति सम्बन्धः । संवरं = संत्रियते = निरुध्यते आस्रवत्कर्म येन सः, यद्वा संवरण संवरः = स्थगनम् । स द्रव्य भावभेदाभ्यां द्विविधः । तत्र द्रव्यतस्तथाविधद्रव्येण (मसृणमृत्तिकादिना ) सलिलोपरि तरतरण्यादेरनारत प्रविशन्नीसामायिक आदि चारित्रको प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ 'जया मुंडे ०' इत्यादि । जब मुण्डित होकर सर्वविरतिको प्राप्त होता है तब अत्यन्त प्रशस्त निरतिचार होने के कारण सर्वश्रेष्ठ निश्चल आचरणीय संवर धर्मको स्पर्श करता है । आते हुए कर्म जिस आत्मपरिणामसे रुक जाते हैं उसे संवर कहते हैं । संवर, द्रव्य भावके भेदसे दो प्रकारका है । जल पर चलती हुई नौकाके छेदोंसे उसमें प्रवेश करनेवाले जलको चिकनी मिट्टी वस्त्र आदि से बन्द कर देना द्रव्य-संवर है । आत्मारूपी नौकामें आस्रवरूपी छिद्रों द्वारा आनेवाले कर्मरूपी जलको रोक देना भाव-संवर है । यहां भाव-संवर अर्थात् चारित्रका अधिकार है । अर्थात् सर्वविरत मुनि ભાવ-મુંડન છે. એઉ પ્રકારે મુંડિત થઈને સર્વવિરતિરૂપ સામાયિક આદિ ચારિત્રને પ્રાપ્ત थाय छे. (१८) I जया मुंडे ० त्याहि न्यारे भुडित थमने सर्व विरतिने प्राप्त थाय छे. अत्यंत प्रशस्त નિરતિચાર થવાને કારણે સશ્રેષ્ઠ નિશ્ચલ આચરણીય સંવરધમ ને સ્પર્શ કરે છે. આવતાં ક્રમ જે આત્મપરિણામથી રાકાઈ જાય છે તેને સવર કહે છે, સવર દ્રવ્ય-ભાવના ભેદે કરીને એ પ્રકારના છે. જળપર ચાલતી નૌકાના છિદ્રવાટે નૌકામાં પ્રવેશ કરનારા જળને ચીકણી માટી, વસ્ત્ર સ્માદિથી અંધ કરી દેવુ' તે દ્રવ્યસવર્ છે. આત્મારૂપી નૌકામાં આસવરૂપી છિદ્રોદ્વારા આવનારા કમરૂપી જળને રોકી દેવુ... એ ભાવ-સ’વર છે. અહી ભાવસ'વર એટલે अनुत्तरम् श्रेष्ठं, प्रतिजल्प विवर्जितम् स्थिरमिति शब्दकल्पद्रुमः । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ " Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ ० गा० २० संवरधर्मस्पर्शे कमरजोधुननम् राणां विवराणां पिधानम्, भावतः समिति गुप्तिप्रभृतिभिरात्मतरण्यां क्षरत्कर्मसलिलानां स्थगनम् । अत्र च भावसंवरवारित्रलक्षणो गृह्यते, तं तल्लक्षणं धर्मं स्पृशति = प्राप्नोति, अन्तःकरणत आत्मना सम्बन्धयतीत्यर्थः ॥१९॥ २ १ ४ ५ ૬ ३ मूलम् - जया संवरमुक्किट्ठे धम्मं फासे अणुत्तरं । ७ ८ १० तया धुणइ कम्मर अबोहिकलसंकडं ॥२०॥ २६७ छाया - यदा संवरमुत्कृष्टं धर्मे स्पृशत्यनुत्तरम् । तदा धुनाति कर्मजो-वोधिकलुषकृतम् ॥२०॥ सान्वयार्थः - जया - जब उक्कि=अत्यन्त प्रशस्त अणुत्तरं - सर्वश्रेष्ठ संवरं - संवर धम्मं= धर्मको फासे - स्पर्श करता है, तया - तब अबोहिकलुसकडं - आत्माके मिथ्यात्व परिणाम द्वारा उपार्जित किये हुए कम्मरयं कर्मरूपी रजको धुणइ - हटा देता है ॥२०॥ टीका - - ' जया संवरं ० ' इत्यादि । यदा उत्कृष्टम् अनुत्तरं धर्मं स्पृशति तदा अबोधिकलुषकृतम् - बोधनं बोधि := आत्मनः सम्यक्त्वपरिणामः, तद्विपरीतोऽबोधिः =मिथ्यात्वाध्यवसायः स एव कलुष पापं तेन कृतं जनितम् अवोधिकलुषकृतम्, तत्, 'कलुष' मित्यत्रानुस्वर आर्षः । कर्मरज : - क्रियते = मिथ्यात्वादिपरिणामैः सम्पाद्यते यत्तत् कर्म, द्विधा- द्रव्य भावभेदात् तत्र द्रव्यतः कूपिकासंभृतकज्जलवत् सकललोकसंभृता आत्मना भाव-संवर रूपी धर्मको प्राप्त करते हैं अथवा अनुत्तर रूपसे स्पर्श करते हैं, क्योंकि 'अनुत्तर' यह क्रियाविशेषण भी हो सकता है || १९|| 1 9 'जया संवर ० ' इत्यादि । जब साधु उत्कृष्ट अनुत्तर संवरधर्मको स्पर्श करते हैं तब आत्मा के मिथ्यात्वपरिणामरूपी पापसे उत्पन्न हुए कर्मरूपी रजको धो डालते हैं । कर्मरज दो प्रकार हैं (१) द्रव्यकर्मरज, और (२) भावकर्मरज । कुप्पीमें भरे हुए कज्जल की तरह समस्त लोकाकाशमें व्याप्त तथा आत्माके साथ बंधे हुए या बंधनेवाले और बंधते हुए विशेष प्रकारके (कार्मण जातिके) पुद्गलपरमाणुओंको द्रव्यकर्म कहते हैं । आत्माके राग-द्वेष आदि विभाव-परिणामोंको भावकर्म कहते हैं । वृक्षसे बीज उत्पन्न होता हैं और बीजसे वृक्ष उत्पन्न होता ચારિત્રના અધિકાર છે, અર્થાત્ સદૈવત મુનિ ભાવસવરરૂપી ધમને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા અનુત્તર રૂપે સ્પર્શ કરે છે, કારણકે ‘અનુત્તર’ એ ક્રિયાવિશેષણ પણ હાઈ શકે છે. (૧૯) કા પંચ॰ ઈત્યાદિ. જ્યારે સાધુ ઉત્કૃષ્ટ અનુત્તર સવરધમ ને સ્પર્શ કરે છે ત્યારે આત્માના મિથ્યાત્વ-પરિણામરૂપી પાપથી ઉત્પન્ન થએલ કમરૂપ રજને ધેાઈ નાંખે છે. કરજ એ પ્રકારની છે :-(૧) દ્રવ્યકમ રજ, અને (ર) ભાવકમ રજ કુપ્પીમાં ભરેલા કાજળની પેઠે સમસ્ત લેાકાકાશમાં વ્યાસ તથા આત્માની સાથે અધાયલા તથા મંધાનારા અને બધાતા વિશેષ પ્રકારના (કામણુ જાતિના) પુદ્ગલપરમાણુઓને દ્ર કમ કહે છે. આત્માના રાગ-દ્વેષ આદિ વિભાવ-પરિણામેાને ભાવકમ કહે છે. વૃક્ષથી ખીજ ઉત્પન્ન થાય શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीदशवकालिकसूत्रे सह बद्धा बध्यमाना बन्धार्दाश्च तथाविध पुद्गलपरमाणवः । भावतस्तु आत्मनो रागद्वेषादि परिणामः अनयोश्च बीजक्षयोरनादिकालिककार्यकारणभाववत् पारस्परिकार्यकारणभावः, तथा च-द्रव्यकर्मभावकर्मणः कारणं कार्य च । भावकर्म च द्रव्य-कर्मणः कारणं कार्य च । "जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्म कारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभावः प्रत्युपकारिवत् ॥ १॥" इति । संसारी खल्यात्माऽनादिकालतः कर्म बनाति तदुदयादात्मनि रागद्वेषाद्युत्पत्तिः तदनु यथा वह्निसंतप्तायःपिन्डः समन्तात् स्वसंसृष्टजलमाकर्षति तथाऽऽत्मै कक्षेत्रावगाहिक मपुद्गलानादत्ते, तैश्च रागादिकं भावकर्मोत्पाद्यते, तच्च पुनरपि द्रव्यकर्मोत्पादयति, तदेव रज इव रजो जीवस्य मालिन्यहेतुत्वात् घातिकर्मचतुष्टयमित्यर्थः तद् धुनाति-व्यपनयति= दूरीकरोतीत्यर्थः। है। दोनों में कार्य-कारणभाव अनादिकालीन है । इसी प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्ममें कार्य-कारण भाव है, अतः द्रव्यकर्म, भावकमका कारण भी है और कार्य भी है। कहा भी है "जीवके राग आदि अशुद्ध भावोंका कारण द्रव्यकर्म है और रागादि अशुद्ध भाव द्रव्यकर्मके कारण हैं । जैसे कोई पुरुष किसीका उपकार कर देता है तो वह उपकृत पुरुष उस उपकारीका पीछा उपकार करता है ॥१॥" संसारी जीव अनादिकालसे कौका बन्ध कर रहा है । उन बंधे हुए कर्मोंके उदय होने पर आत्मामें रागद्वेष आदिकी उत्पत्ति होती है। रागादिके उदय होनेपर जैसे तपा हुआ लोहे का गोला आस पासके जलको आकर्षित कर लेता है वैसे ही आत्मा एक क्षेत्रावगाही अर्थात् जिस आकाशके प्रदेशमें आत्मा स्थित है उसी आकाश प्रदेशमें स्थित कर्मके पुद्गलोंको ग्रहण करती है, उन रागादि-भावोसे फिर द्रव्यकर्म बंधते हैं । इस प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्म एक છે અને બીજથી વૃક્ષ ઉત્પન્ન થાય છે. બેઉ કાર્ય-કારણભાવ અનાદિકાળને છે. એ પ્રકારે દ્રવ્ય કર્મ અને ભાવકર્મમાં કાર્ય-કારણભાવ રહેલું છે. તેથી દ્રવ્યકર્મ, ભાવકર્મનું કારણ છે અને કાર્યપણું છે, તેમજ ભાવકર્મ દ્રવ્યકર્મનું ઝરણું છે અને કાર્ય પણ છે. કહ્યું છે કે “જીવના રાગાદિ અશુદ્ધ ભાવેનું કારણ દ્રવ્યકમ છે, અને રાગાદિ અશુદ્ધ ભાવ દ્રવ્યકર્મનું કારણ છે, જેમ કે પુરૂષ કેઈને ઉપકાર કરે છે તે એ ઉપકૃત પુરૂષ એને પાછો ७५२ रे छ. (१)" સંસારી જીવ અનાદિ કાળથી કમેને બંધ કરી રહ્યો છે. એ બંધાયેલાં કર્મને ઉદય થતાં આત્મામાં રાગદ્વેષ આદિની ઉત્પત્તિ થાય છે. રાગાદિને ઉદય થતાં જેમ તપાવેલ લેખંડને ગેળે આસપાસના જળને આકર્ષિત કરી લે છે તેમ આત્મા એક ક્ષેત્રાવગાહી અર્થાત્ જે આકાશના પ્રદેશમાં આત્મા સ્થિત છે એ આકાશપ્રદેશમાં રહેલાં કર્મના દિગલેને ગ્રહણ કરે છે, એ રાગાદિ-ભાવથી ફરી દ્રવ્યોફર્મ અને ભાવકર્મ એક બીજાનાં ઉત્પાદક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २० शुक्लध्यानस्वरूपम् २६९ कर्मरजोधुननं च यद्यपि धर्मध्यानेनापि जायते तथापि आत्यन्तिकतद्विधूननं शुक्लध्यानेनैव भवति, यथा मलापगमेन शुचिताधर्माभिसम्बन्धात् पटः शुक्ल इत्युच्यते तथा रागद्वेषमलापनयनाच्छुचिधर्मसम्बन्धाद् ध्यानपि शुक्लमित्युच्यते, तच्चतुर्विधम् (१)पृथक्त्ववितर्कसविचारम् , (२) एकत्ववितर्काविचारम् ,(३)सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति, (४) समुच्छिन्ननियाऽप्रतिपाति, इति । ___तत्र पूर्वगतश्रुतज्ञानानुसारेण ध्येयविशेषगतोत्पादादिनानापर्यायाणां द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकादिनानानयैरर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिसहितानुचिन्तनं पृथक्त्ववितर्कसविचारम् । तत्रार्थसंक्रान्तिस्तावत्-ध्येयस्यैकपर्यायपरित्यागेन पर्यायान्तरे, व्यञ्जने, योगे वा दूसरेके उत्पादक हैं । इन्हीं कर्मीको रज कहते है, क्योंकि ये आत्मामें मलिनता उत्पन्न कर देते है । संवरधर्म को ग्रहण करनेसे यह चार-घातिकर्मरूपी रज दूर हो जाती है। कर्मरजका दूर होना यद्यपि धर्म ध्यानसे होता है तथापि आत्यन्तिक रूपसे तो शुक्ल-ध्यान से ही होता है। जैसे मैलको दूर करनेसे शुचिताधर्म आ जाता है, इसलिए वस्त्रको शुक्ल (सफेद) वस्त्र कहते है, इसी प्रकार राग-द्वेषरूपी मैलके हट जानेपर शुचिताधर्मके सम्बन्धसे ध्यान भी शुक्ल ध्यान कहलाता है। शुक्लध्यान चार प्रकारका है-(१) पृथक्त्ववितर्क-सविचार, (२) एकत्ववितर्क-अविचार; (३) सूक्ष्मक्रिय-अनिवर्ति, (४) समुच्छिन्नक्रियअप्रतिपाति । ___ पृथक्त्ववितर्क-पूर्वगत श्रुतज्ञानके अनुसार किसी ध्येय पदार्थकी उत्पाद आदि पर्यायोंका द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक आदि विविध नयोंसे, अर्थ व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति सहित चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्क शुक्ल ध्यान है । ध्येय वस्तुको एक पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्यायका ध्यान करना या व्यञ्जन अथवा योगमें संक्रान्त होजाना अर्थसंक्रान्ति है । यहाँ चौदह पूर्वरूप છે. એજ કમેને રજ કહે છે, કારણ કે તે આત્મામાં મલિનતા ઉત્પન્ન કરે છે. સંવરધર્મ ને ગ્રહણ કરવાથી એ ચાર ઘાતિકર્મરૂપી રજ દૂર થઈ જાય છે, કે કર્મજ ધર્મધ્યાનથી દૂર થાય છે તો પણ આત્યંતિક રૂપથી તે શુકલ ધ્યાનથીજ થાય છે. જેમ મેલ દૂર કરવાથી શુચિતા-ધર્મ આવી જાય છે તેથી વસ્ત્રને શુકલ (સફેદ) વસ્ત્ર કહે છે, તેમ રાગદ્વેષરૂપી મેલ હઠી જતા શુચિતાધર્મના સંબંધથી ધ્યાન પણ સુફલધ્યાન કહેવાય છે. शुस ध्यानना या२ प्रा२ छे. (१) पृथपवित-सविया२, (२) मेक्ति -वि. थार, (3) सूक्ष्माय मनियति, (४) समुश्छिन्नलिय अप्रतिभाति. (૧) પૃથફવિક–પૂર્વગત શ્રુતજ્ઞાન અનુસાર કેઈ ધ્યેય પદાર્થના ઉત્પાદ આદિ નાના પ્રકારના પર્યાયેનું દ્રવ્યાર્થિક યા પર્યાયાર્થિક આદિ નથી, અર્થ વ્યંજન અને યોગની સંક્રાન્તિસહિત ચિંતન કરવું એ પૃથફવિતર્ક શકય ધ્યાન છે, દયેયવસ્તુના એક પર્યાયને છોડીને બીજા પર્યાયનું ધ્યાન કરવું યા વ્યંજન અથવા યુગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्रीदशवेकालिकसूत्रे संक्रमः । व्यञ्जनं चात्र चतुर्दशपूर्वात्मकश्रुतसम्बन्धिशब्दाः, तत्रत्यं किञ्चिदेकं व्यञ्जन - मुपादाय ध्यानमारभ्य व्यञ्जनान्तरेऽर्थे योगेवा संक्रमणं व्यञ्जनसक्रान्तिः । योगसंक्रान्तिश्च पुनः काययोगतो मनोयोगे, मनोयोगतो वाग्योगे, इत्येवमेकस्माद् योगादन्यतरस्मिन् योगे संक्रमणम् । त्रिविधमेतत्संक्रमणं च ध्यातुरनिच्छायामपि तादृश - ( असंक्रान्त) - ध्यानसंपादनसामर्थ्याभावाज्जायते । इदमत्र तात्पर्यम् – -- अत्र पूर्वगताः शब्दास्तदर्था वा ध्येया भवन्ति, परन्तु ध्यातुस्तादृशं सामर्थ्य न भवति येन स कञ्चिदेकं शब्दं वाऽर्थ वा ध्यायेत्, अत एव कञ्चिदेकमर्थं तत्पर्यायं वा परित्यज्येतरमर्थमितरपर्यायं वा ध्यायति । इदमेव च परिवर्त्तनं संक्रमणशब्देनोच्यते । उक्तञ्च - अर्थादर्थान्तरे शब्दाच्छन्दान्तरे च संक्रमः । योगाद् योगान्तरे यत्र, सविचारं तदुच्यते ॥ श्रतके शब्दों को व्यञ्जन कहा है । उन शब्दोंमेंसे किसी एक शब्दका ध्यान आरम्भ करके फिर किसी दूसरे व्यञ्जनका ध्यान करने लगना, अथवा अर्थ या योगमें संक्रान्त होजाना व्यञ्जनसंक्रान्ति है । काययोगसे मनोयोगमें, मनोयोगसे वचनयोगमें, इस प्रकार एक योगसे दूसरे योग में संक्रान्त होजाना योगसंक्रान्ति है । यह तीनों तरहका संक्रमण ध्याताको इच्छा न होनेपर भी उतनी अधिक सामर्थ्य न होनेके कारण होता है । तात्पर्य यह हैं कि - इस ध्यानमें पूर्वगत शब्द या उसके अर्थका ध्यान किया जाता है, किन्तु इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि एक ही शब्द या एक ही अर्थका ध्यान करते रहें, त एव एक पदार्थ या उसकी पर्यायको छोड़ कर दूसरी पर्यायका ध्यान करते हैं । इसी प्रकर परिवर्तन या बदलनेको संक्रमण करते हैं । कहा भी है એ અંસ ક્રાન્તિ છે. અહીં ચૌદ પૂર્વરૂપ શ્રુતના શબ્દોને વ્યંજન કહેલ છે, એ શબ્દમાંથી કાઈએક શબ્દનું યાનઆર.ભીને પછી કાઈ ખીજા વ્યંજનનું ધ્યાન લગાવવુ અથવા અથ યા ચેાગમાં સંક્રાન્ત થઇ જવું એ વ્યંજનસક્રાન્તિ છે. કાયયેાગથી મનાયેાગમાં, મનેયાગથી વચનયાગમાં, એ પ્રકારે એક ચેાગથી ખીજા ચેાગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ ચેાગસ ક્રાન્તિ છે, એ ત્રણે જાતનુ સંક્રમણ, ધ્યાતાની ઈચ્છા ન હૈાવા છતાં પણ એટલુ અધિક સામર્થ્ય ન હાવાને કારણે થાય છે. તાત્પય એ છે કે—આ ધ્વનિમાં ગત શબ્દ યા તેના અર્થનુ ધ્યાન કરવામાં આવે છે, કિંતુ એટલું સામર્થ્ય હાતું નથી કે એકજ શબ્દ યા એકજ અનુ ધ્યાન કરતા રહે તેથી કરીને એક પદાથ યા એના પર્યાયને છેડીને બીજા પર્યાયનું ધ્યાન કરે છે. આ પ્રકારના પરિવનને યા બદલાવાને સંક્રમણ કહે છે. કહ્યું છે કે એક અથ થી ખીજા અથમાં, એક શબ્દથી બીજા શબ્દમાં તથા એક યાગથી ખીજા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २० शुक्लध्यानस्वरूपम २७१ द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति गुणाद् याति गुणान्तरम् । पर्यायादन्यपर्यायं सपृथक्त्वं भवत्यतः ॥” इति, नन्वर्थव्यञ्जनयोगान्तरेषु संक्रान्तस्य मनसः स्थैर्यासम्भवाद् ध्यानत्वमनुपपन्नमिति चेन्न, एकमेव ध्येयं लक्ष्यीकृत्य प्रवृत्तस्य ध्यानस्यार्थादौ संक्रमणेऽपि ध्येयैकमात्रोद्देश्यकतया मनःस्थिरीकरणरूपाया ध्यानक्रियायास्तत्रापि सद्भावात् । इदं च ध्यानं भङ्गिकश्रुतपाठकानां योगत्रयवतां वा मुनिपुङ्गवानां भवति । अनेन ध्यानेन पकश्रेण्यां समारूढो मुनिरष्टमगुणस्थानादारभ्य क्रमशो दशमगुणस्थानचरमसमये बलवदपि मोहनीयकर्म क्षपयित्वा द्वितीयध्यानमाश्रित्य द्वादशं गुण-स्थानमधिरोहति । उपशमश्रेण्यां समारूढस्तु तदानीं मोहनीयकर्म शमयित्वा एकादशमुपशान्तमोहगुण "एक अर्थसे दूसरे अर्थमें, एक शब्दसे दूसरे शब्दमें, तथा एक योगसे दूसरे योगमें संकगण होता है, अतः उसे सविचार (संक्रान्ति) कहते हैं ॥१॥ __ अर्थ व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति रूप होते हुए निज शुद्ध आत्मद्रव्यको एक गुणसे दूसरे गुणको, एक पर्यायसे दूसरी पर्यायको प्राप्त होता है, अतः उसे सपृथक्त्व कहते हैं ॥२॥ प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! इस ध्यानमें अर्थ, व्यञ्जन और योगोमें मन संक्रान्त होता रहता हैं, इस कारण स्थिरता नहीं रह सकती; फिर इसे ध्यान कैसे कह सकते हैं । उत्तर-हे शिष्य ! परिवर्तन तो होता रहता है, परन्तु ध्येय एक ही रहता हैं । ध्येयकी एकताके कारण यह ध्यान कहलाता है। ___ यह ध्यान पूर्वधारी तीन योगवाले श्रेष्ठ मुनियोंको ही होता है। इस ध्यान से दशवें गुणस्थानके अन्त समयमें क्षपकश्रेणीमें आरूढ मुनि बलवान् मोहनीय कर्मका क्षय करके बारहवें गुणस्थानमें पहुँच जाते हैं, और यदि उपशमश्रेणिमें आरूढ हों तो ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानमें जाते हैं । यह प्रथम ध्यान उपशमश्रेणीकी अपेक्षासे आठवें गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें ગિમાં સંક્રમણ થાય છે, તેથી તેને અવિચાર (સંક્રાન્તિ) કહે છે. (૧) અર્થ વ્યંજન અને ચગની સંક્રાન્તિરૂપ થતા નિજ શુદ્ધ આત્મ-દ્રવ્યને, એક ગુણથી બીજા ગુણને, એક પર્યાયથી બીજા પર્યાયને પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી તેને સપૃથફત્વ કહે છે.” (૨) પ્રશ્ન-હે ગુરૂમહારાજ ! આ ધ્યાનમાં અર્થ વ્યંજન અને રોગમાં મન સંક્રાન્ત થયા કરે છે તે કારણથી સ્થિરતા રહી શકતી નથી, તે પછી તેને ધ્યાન કેમ કહી શકાય ? | ઉત્તર-હે શિષ્ય ! પરિવર્તન તે થયા કરે છે, પરંતુ ધ્યેય એકજ રહે છે. ધ્યેયની એકતાને કારણે એ ધ્યાન કહેવાય છે. એ દયાન પૂર્વ ધારી ત્રણ ચોગવાળા શ્રેષ્ઠ મુનિઓને જ થાય છે. આ ધ્યાનથી દસમા ગુણસ્થાનના અંત સમયે ક્ષપકશ્રેણીમાં આરૂઢ મુનિ બળવાન્ મેહનીય-કર્મનો ક્ષય કરીને બારમા ગુણસ્થાનમાં પહોંચી જાય છે, અને જે ઉપશમ-શ્રેણીમાં આરૂઢ હોય તે અગ્યારમા ઉપશાન્તાહ ગુણસ્થાનમાં જાય છે. એ પ્રથમ ધ્યાન, ઉપશમ-શ્રેણીની અપેક્ષાએ કરીને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे स्थानमारोहति । इदं च प्रथमं ध्यानमष्टमगुणस्थानादारभ्य क्षपकश्रेण्यपेक्षया दशम गुणस्थानं यावद्भवतीति विवेकः । (२) ततश्चैकत्ववितर्का विचारमारभते, यथा सिद्धगारुडिकादिमन्त्रः सकलशरीरस्यापि विषमं विषं मन्त्रसामध्येंन सर्वावयवेभ्यः समाकृष्य दंशस्थाने समानीय संस्तम्भयति, तथा पूर्वगतश्रुतानुसारतोऽर्थ - व्यजन - योगसंक्रान्तिराहित्येनाशेषविषयेभ्यः संहृत्यैकस्मिन्नेव पर्याये योगस्य निर्यातस्थाने दीपशिखावत्स्थिरीकरणम् एकत्ववितर्काऽविचारम् । २७२ अयमाशयः --- प्रथमं ध्यानं सपृथक्त्वं भवति इदं तु पृथक्त्वरहितम् । अत्रैकम विहायाऽर्थान्तरे, तथैकं शब्दं विहाय शब्दान्तरे, तथा योगाद् योगान्तरे संक्रमणं न I गुणस्थान तक होता है | क्षपकश्रेणीकी अपेक्षासे तो अष्टम से लेकर दशम गुणस्थान तक होता है, ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह होने से क्षपकश्रेणीमें आरूढ मुनि उसका स्पर्श न करते हुए दूसरे ध्यानका आरम्भ करके बारहवें गुणस्थान में जाते हैं । (२) एकत्ववितर्क-अविचार - जैसे मन्त्र जाननेवाला पुरुष समस्त शरीरमें व्याप्त विषको मंत्रकी शक्तिद्वारा अन्य-अन्य अवयवोंसे खींचकर दंशस्थान ( जहां विषैला जन्तुने काटा है उस जगह) पर स्तंभित कर देता है, वैसे ही पूर्वगत श्रुतके अनुसार अर्थ, व्यञ्जन और योगों के परिवर्तन से रहित होकर समस्त विषयोंसे विमुख होकर एक ही पर्यायके ध्यानमें वायुरहित स्थानमें रखे हुए दीपककी शिखा के समान स्थिर होजाना 'एकत्ववितर्क' ध्यान कहलाता है । तात्पर्य यह है कि पहला ध्यान पृथक्त्व ( अनेकप्रकारता ) सहित होता है किन्तु दूसरे भेदमें पृथक्त्व नहीं रहता । इसमें एक अर्धसे दूसरे अर्थ में संक्रमण नहीं होता, इसलिए इसे एकत्ववितर्क - ध्यान कहते हैं । આઠમા ગુણસ્થાનથી લઇને અગ્યારમા ગુણસ્થાન સુધી થાય છે. ક્ષપક-શ્રેણીની અપેક્ષાએ કરીને આઠમાથી લઇને દસમા ગુણસ્થાન સુધી થાય છે; અગ્યારસુ· ગુણસ્થાન ઉપશાન્તમાહુ હાવાથી ક્ષપક શ્રેણીમાં આરૂઢ મુનિ એને સ્પર્શ ન કરતાં બીજા ધ્યાનને આરભ કરીને બારમા ગુણસ્થાનમાં જાય છે. (૨) એકવિતક –અવિચાર-જેમ મંત્ર જાણવાવાળા પુરૂષ આખા શરીરમાં વ્યાપેલા વિષને મંત્રની શક્તિદ્વારા અન્ય-અન્ય અવયવેદ્યમાંથી ખેંચી લઇને શસ્થાન ( જ્યાં ઝેરી જંતુ કરડયેા હાય તે સ્થાન) પર સ્ત`ભિત કરી દે છે, તેમ પૂગત શ્રુત અનુસાર અ વ્યંજન અને ચાગના પરિવત નથી રહિત થઇને બધા વિષયેાથી વિમુખ થઈ એકજ પર્યાયના ધ્યાનમાં રાખેલા દ્વીપકની શિખાની પેઠે સ્થિર થઈ જવુ એ એકવિતર્ક' કહેવાય છે. તાત્પય એ છે કે પહેલું ધ્યાન પૃથક્ત્વ (અનેક-પ્રકારતા) સહિત હોય છે કિન્તુ બીજા લેકમાં પૃથકત્વ રહેતુ' નથી. એમાં એક અથમાંથી ખીજા અર્થમાં, એક શબ્દમાંથી ખીજા શબ્દમાં અને એક ચેાગમાંથી ખીજા ચેાગમાં સંક્રમણુ થતું નથી, તેથી એને એકવિતર્ક ધ્યાન કહે છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २० शुक्लध्यानस्वरूपणम् २७३ भवति तस्मादिदमेकत्ववितर्काभिधानं ध्यानमिति । इदं च ध्यानं मनोवाकाययोगान्यतमवतामेब महामुनीनां जायते, अत्र योगानां संक्रमणाभावात् ।। तथ चोक्तम् - "निजात्मद्रव्यमेकं वा, पर्यायमथवा गुणम् । निश्चलं चिन्त्यते यत्र, तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥१॥ यद्वयजनार्थयोगेषु, परावर्तविवर्जितम् । चिन्तनं तदविचारं, स्मृतं सद्ध्यानकोविदैः ॥२॥” इति ॥ इदं ध्यानं क्षीणमोहनीयगुणस्थाने एव भवति, एतद्धयानचरमसमये क्षपकश्रेण्यारूडो मुनि नावरणीयं दर्शनावरणीयमन्तरायाख्यं च, त्रीणि कर्माणि युगपत् क्षपयति, अस्य ध्यानस्य फलं च केवलज्ञानकेवलदर्शनाऽनन्तवीर्यप्राप्तिरेव, प्रकृतध्यानद्वयमन्तरेण केवलज्ञानं लब्धुमशक्यम् । एतच्चोभयं ध्यानं छद्मस्थानां जायते, तृतीयचतुर्थे तु केवलिनामेष भयत इति बोद्धव्यम् ॥२०॥ यह ध्यान मन वचन काय योगोंमेंसे किसी एक योगवाले मुनिराजको ही होता है, अर्थात् इस ध्यानके समय एक हो योगमें स्थिरे रहते हैं, क्योंकि इसमें योगोंका संक्रमण नहीं होता । कहा भो है "जिस ध्यानमें केवल निज आत्मा का अथवा उसकी एक पर्यायका या एक गुणका ध्यान किया जाता है उसे 'एकत्व' कहते हैं ॥१॥ जो व्यजन अर्थ और यागोंके परिवर्तनसे रहित चिन्तन किया जाता है उसे 'अविचार' कहते हैं ॥२॥" ___ यह ध्यान क्षीणमोहनीय गुणस्थानमें ही होता है । इस ध्यानके अन्तमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय नामक तीन धातिकर्मीका एक साथ ही क्षय हो जाता है। इस ध्यानका फल केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीयेकी प्राप्ति है । इन दोनों ध्यानोंके विना केचलज्ञान नहीं प्राप्त होसकता । ये दोनों ध्यान छन्मस्थोंको होते हैं, तथा तीसरा और चौथा ध्यान केवलियों को होता है ॥२०॥ એ ધ્યાન મન વચન કાયાના ગેમાંના કોઈ એક પેગવાળો મુનિરાજનેજ થાય છે. અર્થાત એ ધ્યાનને સમયે એકજ ચાગમાં સ્થિર રહે છે, કારણ કે એમાં યોગનું સંકમણું यतुं नथी. युं छे જે ધ્યાનમાં કેવળ નિજ આત્માનું અથવા એના એક પર્યાયનું યા એક ગુણનું ધ્યાન કરવામાં આવે છે, તેને “એકત્વ' કહે છે. (૧) વ્યંજન અર્થ અને ચગેના પરિવર્તનથી ૨હિત ચિંતન કરવામાં આવે છે તેને “અવિચાર' કહે છે. (૨)” એ ધ્યાન ક્ષીણમેહનીય ગુણસ્થાનમાં જ થાય છે. એ ધ્યાનના અંતમાં જ્ઞાનાવરણીય અને અન્તરાય નામનાં ત્રણ ઘાતિ-કર્મોને એકીસાથે જ ક્ષય થઈ જાય છે. એ ધ્યાનનું ફલ કેવળજ્ઞાન, કેવળદર્શન અને અનંત વીર્યની પ્રાપ્તિ છે. એ બેઉ ધ્યાન વિના કેવળ જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકતું એ બેઉ ધ્યાન છદ્મસ્થાને થાય છે, તથા ત્રીજું અને શું ધ્યાન पणीमान थाय छे. (२०) ३५ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्रीदशवैकालिकस्त्रे घातिकर्मक्षयजनितफलं प्रदर्शयितुमुक्रमते-'जया धुणइ' इत्यादि । मूलम्-जया धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसंकडं । तया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ ॥२१॥ छाया—यदा धुनाति कर्मरजोऽबोधिकलुषकृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति ॥२१॥ सान्वयार्थ:-जया अब अबोहिकलसंकडं-आत्माके मिथ्यात्वपरिणामद्वारा उपाजित किये हुए कम्मरप-कर्मरूपी रजको धुणइ-घटा देता है, तया तब सव्वत्तगं-सब जगह जानाले-सब पदार्थों को जाननेवाले नाणं-ज्ञानको च-और दसणं-दर्शनको अभिगच्छके प्राप्त करता है ॥२१॥ टीका-यदाऽबोधिकलुषकृतं कर्मरजो धुनाति तदा सर्वत्रग-सर्वत्र गच्छति-न्याजीवीति सर्वत्रग-सकललोकव्यापि तत्, ज्ञान-ज्ञायन्ते-परिच्छिद्यन्ते द्रव्य-गुण-पर्यायादयोऽनेनेति ज्ञानं केवलज्ञानमित्यर्थस्तत्, दर्शनं दृश्यन्ते साक्षात्कियन्ते द्रव्यादयो येनेति दर्शनम् केवलदर्शनमित्यर्थस्तत् । “सामान्यार्थावबोधो दर्शन, विशेषार्थावबोधो ज्ञान" -मित्युभयोर्भेदः, तथाहि "जं सामण्णग्गहण दंसणमेय नाणं" इति, चः समुच्चये, अभिगच्छतिकर्मजनितसकलाऽऽवरणाभावादतिशयेन सम्प्राप्नोति सयोगिकेवलिगुणस्थानमारोहतीत्यर्थः ॥२१॥ घातिकर्मोंके क्षय होनेसे उत्पन्न होनेवाला फल बतलाते हैं-'जया धुणह' इत्यादि । जब साधु मिथ्यात्वरूपी पापसे उत्पन्न हुए कर्मरजको नष्ट कर देते हैं तब समस्त लोकाकाश और अलोकाकाशमें व्यापी द्रव्य पर्यायोंको जाननेवाला केवलज्ञान तथा केबलदर्शन प्राप्त होता है । पदार्थों का सामान्य ज्ञान होना दर्शन है और विशेष ज्ञान होना ज्ञान है, वही दोनोंमें भेद है, कहाभी है "सामान्यका ग्रहण होना दर्शन है और विशेष का ग्रहण होना ज्ञान है।" कर्मोंसे उत्पन्न हुए समस्त आवरणों के अभावसे इन दोनों (ज्ञानदर्शन) को प्राप्त करते हैं ॥२१॥ पातानि। क्षय याथी पनि थना३३ पताव छ-जया धुणइत्यादि. જ્યારે સાધુ મિથ્યાત્વરૂપી પાપથી ઉત્પન્ન થએલી કમરજને નષ્ટ કરી નાખે છે, ત્યારે સમસ્ત કાકાશે અને અલકાકાશમાં વ્યાપેલા દ્રવ્ય પર્યાને જાણવાવાળું કેવળજ્ઞાન તથા કેવળદર્શન પ્રાપ્ત થાય છે. પદાર્થોનું સામાન્ય જ્ઞાન થવું એ દર્શન છે અને વિશેષ જ્ઞાન થવું તે જ્ઞાન છે એ બેઉમાં ભેદ છે. કહ્યું છે કે સામાન્યનું ગ્રહણ થવું દર્શન છે. અને વિશેષનું ગ્રહણ થવું એ જ્ઞાન છે.” કાથી ઉત્પન્ન થએલાં સર્વ આવરણના અભાવથી એ બેઉ (જ્ઞાન-દર્શન) ને પ્રાપ્ત अरे छ, (२१) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ अघ्ययन ४ गा० २३ लोकस्वरूपम् केवलज्ञान- केवलदर्शनयोः फलमाह-'जया सव्वत्तगं' इत्यादि । मूलम्-जया सव्वत्तगं नाणं, देसणं चाभिगच्छइ । ६ ९ १० ११ . १२ ८ तया लोगमलोग च, जिणो जाणइ केवली ॥२२॥ छाया-- यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाभिगच्छति । तदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली ॥२२॥ सान्वयार्थः-जया जब सव्वत्तग-सब जगह जानेवाले-सब पदार्थों को जाननेवाले नाणं ज्ञानको च-और दसण-दर्शनको अभिगच्छइ प्राप्त करता है, तया-तब जिणो= वीतराग केवली केवलज्ञानी होते-हुए लोगमलोगं च=लोक और अलोकको जाणइ= जानते हैं ॥२२॥ टीका-यदा केवलज्ञानं केवलदर्शनं च प्राप्नोति तदा जिना घातिकर्मविजेता, केवली केवलज्ञानी सन् लोकं लोक्यत इति लोकस्तं जानाति करतलामलकवज्ञानविषयीकरोति । आह-ननु कोऽयं लोकपदार्थः ? यदि केनचिदेको ग्रामोऽवलोकितस्तहि किं तापानेव लोकः ? न, अपरेण ततोऽप्यधिकग्रामदर्शनात् । तहिं यावद् प्रामादिकमस्माभिरवलोक्यते तावानेव लोकः ?, नहि अनन्तज्ञानसम्पन्नेन सर्वज्ञेन यो लोक्यते स लोक इति । केवलज्ञान और केवलदर्शन का फल कहते हैं-'जया सव्वत्तगं' इत्यादि । जब सर्वव्यापी ज्ञान तथा दर्शनको प्राप्त करते हैं तब केवली होकर लोक और अलोकको जानते हैं। जो देखा जाता है उसे लोक कहते हैं। प्रश्न-यदि किसीने एक ग्राम देखा हो तो लोक क्या उतना ही होगा ? उत्तर-उतना ही नहीं होगा, क्योंकि दूसरे उससे अधिक ग्राम देखते हैं ? प्रश्न-तो हमलोग जितने ग्रामोंको देखते हैं उतना ही लोक है ! उत्तर-उतना ही नहीं है । अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ भगवान् द्वारा जितना देखा जाता है उतना विज्ञान भने साशननु ३ ४ छ-जया सव्वत्तगं छत्या. જ્યારે સર્વવ્યાપી જ્ઞાન તથા દર્શનને પ્રાપ્ત કરે છે ત્યારે કેવળી થઈને લોક અને अतान छ. .. જે જોઈ શકાય તેને લેક કહે છે. પ્રશ્ન-જે કેઈએ એક ગ્રામ જેયું હોય તે લેક શું એટલે જ હોય ? ઉત્તર–એટલે જ નહિ હોય, કારણ કે બીજાઓ એથી વધારે ગ્રામો જુએ છે. પ્રશ્ન-તે આપણે જેટલા ગ્રામને જોઈએ છીએ એટલે જ લેક છે ? ઉત્તર-એટલે જ નહિ. અનંતજ્ઞાની સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા જેટલો જોવાય છે એટલે લોક છે; શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anandamanarrammmmm २७६ श्रीदशकालिक सूत्र नन्वतेनाऽलोकस्यापि लोकत्वप्रसङ्गस्तस्यापि सर्वज्ञेनावलोकितत्वात् , तथाचाऽलोकोऽपि किं लोकः ? न, यतो लोक्यते धर्मास्तिकायाद्याधारभूत आकाशविशेषो यः स लोक इत्यवधार्यम् । स च कटितटोभयपार्श्वतो निहितहस्तद्वयो विस्फारितपादयुगलोऽवस्थितः पुरुष इव नृत्यभैरवोपासकाकृतिको वा ऊर्ध्वाऽधस्तिर्यभेदभिन्नश्चतुर्दशरज्जुपरिमितोऽसंख्यातप्रदेशात्मक आकाशविशेषस्तम् । तद्विपरीतोऽलोकः। अस्तु लोको जीवपुद्गलादीनामनाधारतयाऽवस्थानासम्भवात् , अलोकस्तु कथम् , तस्याऽमूर्तत्वेनेन्द्रियागोचरतयाऽस्तित्वसाधकप्रमाणाभावात् , इन्द्रियागोचरे चार्थे मन:लोक है। प्रश्न केवली भगवान् अलोकको भी देखते हैं तो उनके देखनेसे अलोक भी लोक हो जायगा? उत्तर-नहीं होगा। भगवान्ने धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का आधारभूत जो आकाश देखा है उसे लोक कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये । वह लोक कमरपर दोनों हाथ रखकर, पैर फैलाकर खड़े हुए पुरुष के आकारका, मथया नाचते हुए भैरवीपासक (भोपा) की आकृतिका है। इसके तीन भेद हैं-(१) उर्ध्वलोक, (२) मध्यलोक, (३) अधोलोक । यह चौदह राजू जितना ऊंचा और असंख्यात-प्रदेशमय है। अलोकाकाश इससे विपरीत है। प्रश्न-जीव और पुद्गल आदि विना आधारके नहीं ठहर सकते; अतः लोकाकाश मानना तो ठीक है, परन्तु लोकाकाशके अस्तित्वमें क्या प्रमाण है ?, कारण यह कि इन्द्रियों का यह विषय नहीं है, क्योंकि अमूर्त है । जिस विषयमें इन्द्रियों की प्रवृत्ति नहीं होती उसमें मन भी प्रवृत्त नहीं हो सकता । अत एव न इन्द्रियोंसे अलोकाकाशको जान सकते हैं और न मनसे । આ પ્રશ્ન-કેવળી ભગવાન તે અલોકને પણ જુએ છે તે એમના જેવાથી અલેક પણ લોક થઈ જશે ? - ઉત્તર-નહિ થાય. ભગવાને ધમસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યનું આધારભૂત જે આકાશ જોયું છે એને લક કહે છે, એમ સમજવું જોઈએ. એ લેક કમર પર બેઉ હાથ રાખીને, પગ ફેલાવીને ઊભેલા પુરૂષના આકારને, અથવા नायता लेरवास (gi) नी मातिना छे. तेन ए से छ. (१) aats, (२) મધ્યલેક, (૩) અને અલેક. એ ચૌદ રાજુ જેવડે ઉંચે અને અસંખ્યાત પ્રદેશમય છે. અલકાકાશ એથી વિપરીત છે. પ્રશ્ન-જીવ અને પુદ્ગલ આદિ આધાર વિના રહી શકતા નથી, તેથી લોકાકાશ માનવું એ તે બરાબર છે, પરન્તુ અલકાકાશના અસ્તિત્વનું શું પ્રમાણ છે ? કારણ એ છે કે ઇદ્રિને એ વિષય નથી કેમકે અમૂર્ત છે. જે વિષયમાં ઇન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિ થતી નથી તેમાં મન પણ પ્રવૃત્ત થઈ શકતું નથી. એથી કરીને ઈન્દ્રિયોથી અલકાકાશને જાણી શકાતું નથી તેમજ મનથી પણ જાણી શકાતું નથી. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २२ लोकस्वरूपम २७७ प्रवृत्तेः कदाऽप्यसम्भवादिति न शङ्कनीयम् , इन्द्रियनोइन्द्रियविषयत्वाभावमात्रदर्शनेन तदस्तित्वनिराकरणस्याऽशक्यत्वात् , अन्यथा हि प्रपितामहादीनामपि तत एवाभावः प्राप्नुयात् । यतः 'आसन् प्रपितामहादयोऽस्मादादिशरीरस्याऽन्यथाऽनुपपन्नत्वात्' इत्यनुमानेन तेषामस्तित्वं साध्यते चेदलोकस्याप्यनुमानेन सिद्धिरनवद्यैव, तथाहि __लोकः सप्रतिपक्षः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वात् , यो हि व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयः स सप्रतिपक्ष एव भवति, यथा घटः। यश्च लोकप्रतिपक्षः स एव सद्भूतोऽलोकः, अस्तित्ववत एव प्रतिपक्षित्वसम्भवात् । ननु 'न लोकोऽलोकः' इति व्युत्पत्त्या घटादिष्वन्यतम एवालोकः सिध्यति किं उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और मनका विषय न होनेसे उसके अस्तित्वका खण्डन नहीं हो सकता, अन्यथा दादे परदादे आदि पूर्वजोंका भी अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि वे भो इन्द्रिय और मनके विषय नहीं होते। यदि कोई इस अनुमानसे पूर्वजोका अस्तित्व सिद्ध करे कि-पितामह (दादा) आदि पूर्वजोंका किसी समयमें अस्तित्व था, क्योंकि उनके विना हमारा शरीर नहीं बन सकता तो अनुमानसे ही अलोकको भी सिद्धि मान लेनी चाहिए । अनुमान यह है लोक अपने प्रतिपक्ष (विरोधी-अलोक) की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य (अर्थ) है । जो जो व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य होता है वह प्रतिपक्षसहित ही होता है, जैसे घट । घट व्युत्पत्तिवाला है और समासरहित है, अर्थात् दो पद मिल कर नहीं बना हुआ है, अत एव घटके प्रतिपक्ष-अघट-पट, मुकुट शकट, कट आदि भी अवश्य होते हैं । लोकका जो प्रतिपक्ष है वह अस्तित्ववान् अलोक है, क्योंकि अस्तित्ववान् पदार्थ किसीका प्रतिपक्ष हो सकता है । गधेका सींग आदि नास्तित्ववान् पदार्थ किसीके प्रतिपक्ष नहीं होते ॥ ઉત્તર-એ પ્રશ્ન બરાબર નથી. કેમકે ઈન્દ્રિય અને મનને વિષય ન હોવાથી તેના અસ્તિત્વનું ખંડન થઈ શકતું નથી. એમ તે દાદા પરદાદા આદિ પૂર્વજોનું પણ અતિત્વ સિદ્ધ નહિ થાય, કેમકે તે પણ ઇન્દ્રિય અને મનના વિષય નથી હોતા. જો કે અનુમાનથી પૂર્વજોનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરે કે પિતામહ (દાદા) આદિ પૂર્વજોનું કોઈ સમયે અસ્તિત્વ હતું, કારણ કે એના વિના આપણું શરીર બની શકે નહિ, તો અનુમાનથી જ અલેકની પણ સિદ્ધિ માની લેવી જોઈએ, અનુમાન એ છે કેલેક પિતાના પ્રતિપક્ષ ( વિધી-અલક) ની અપેક્ષા રાખે છે, કારણ કે એ વ્યુત્પત્તિવાળા સમારહિત શબ્દને વાચ્ય (અર્થ) છે. જે જે વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસારહિત શબ્દને વાચ્ય હોય છે તે પ્રતિપક્ષસહિત જ હોય છે. જેમ ઘટ, ઘટ વ્યુત્પત્તિવાળે છે અને સમાસરહિત છે, અર્થાત બે શબ્દો મળવાથી બનેલું નથી, તેથી ઘટને પ્રતિપક્ષ-અઘટ-પટ, સુટ. શકટ, કટ આદિ પણ અવશ્ય હોય છે. લેકને જે પ્રતિપક્ષ છે તે અસ્તિત્વવાન અલક છે કારણ કે અસ્તિત્વવાન્ પદાર્થ જ કેઈન પ્રતિપક્ષ થઈ શકે છે. ગધેડાનુ શીંગડું વગેરે નાસ્તિત્વવાન્ પદાર્થ કોઈને પ્રતિપક્ષ થતો નથી. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे पदार्थान्तरकल्पनया ? इति चेदुच्यते - 'न लोकः' इत्यत्र नञः पर्युदासार्थकत्वात्, 'पर्युदासः साग्राही' - ति नियमान्निषेध्यसदृशेनैव भाव्यम्, निषेध्यश्चात्र जीवाऽजीबाऽऽदिद्रव्याधारभूत आकाश विशेषात्मको लोकः, अतोऽलोकोऽप्याकाशविशेषरूप एव भवितुं योग्यः यथा 'अधनोऽयम्' इत्युक्ते धनरहितो मनुष्य एव गृह्यते न तु घटपटादिः, तथेाऽप्यलोको लोकानुरूप एव बोद्धव्य इति ॥ २२ ॥ २७८ प्रश्न- 'जो लोक नहीं बह अलोक है' ऐसा माननेसे लोकसे भिन्न जितने घट पट आदि पदार्थ हैं वे सब अलोक होंगे, क्योंकि वे लोक नहीं है - लोकसे भिन्न हैं । फिर घट आदि पदासे भिन्न एक अलग अलोक क्यों मानते हो ? 1 उत्तर 1 र-जो लोक नहीं वह अलोक है । यहाँ नञ्समास है । नञर्थ दो प्रकारका होता है । एक नञर्थ ऐसा होता है कि वह जिसका निषेध किया जाता है उस निषेध्यके समानका हो ग्रहण करनेवाला होता है उसे पर्युदास कहते हैं । कहा भी है कि - "पर्युदास सदृशका बोधक होता है ।" अत एव लोकका निषेध रूप अलोक भी लोकही के समान होना चाहिए । निषेध्य यहां जीव अजीब आदि द्रव्योंका आधारभूत आकाशविशेष है, अतः अलोक भी आकाशविशेष (जीव अजीव आदि द्रव्योंके आधार से भिन्न ) होना चाहिए | जैसे किसी काहाकि यह 'अधन' है । इस वाक्यमें 'अधन' शब्द से यह नहीं समझा जाता है कि यह घ है या कपड़ा है, किन्तु धनरहित मनुष्य अर्थ ही समझा जाता है । इसी प्रकार यहाँ 'अलोक ' शब्द से घड़ा नहीं समझना चाहिए किन्तु आकाशविशेष ही समझना चाहिए । केवली भगवान्, इन लोक अलोक दोनों को जानते हैं ||२२|| પ્રશ્ન-જે લેાક નથી તે અલેાક છે' એમ માનવાથી લાકથી ભિન્ન જેટલા ઘટ પટે આદિ-પદાર્થો છે તે બધા અલાક થશે, કારણ કે તે લેાક નથી-લેાકથી ભિન્ન છે. પછી ઘટ આદિ પદાર્થાથી ભિન્ન એક જૂદો અલાક કેમ માને છે ? उत्तर -? सो नथी ते असो छे. शेभां नञ् सभास छे. नञर्थ जे अभरना होय છે. એક નગર્થ એવા હાય છે કે તે જેનેા નિષેધ કરવામાં આવે છે એ નિષેયની સમાનને જ ગ્રહણુ કરનાર હાય છે, તેને પયુ દાસ કહે છે, કહ્યુ છે કે- “સુદાસ સદેશના મેધક હાય છે” તેથી કરીને લેાકના નિષેધરૂપ અલાક પણ લોકની જ સમાન હાવા જોઇએ, અહીં નિષેધ્ય જીવ–અજીવ આદિ દ્રવ્યોના આધારભૂત આકાશ-વિશેષ છે, તેથી અલેાક પણ આકાશ વિશેષ (જીવ અજીવ આદિ દ્રબ્યાના આધારથી ભિન્ન) હેાવા જોઈએ, જેમકે કાઈએ કહ્યુ કે એ અધન’ છે, એ વાકયમાં અધન' શબ્દથી એમ નથી સમજાતું કે એ ઘડા છૈયા કપડું છે, કિન્તુ ધનરહિત મનુષ્ય' એવા અથ જ સમજાય છે. એ રીતે અહીં અલાક' શબ્દથી ઘડા યા કપડુ નસમજવુ જોઇએ, કિન્તુ આકાશવિશેષ જ સમજવુ જોઇએ. કેવળી ભગવાન્ એ લોક અને અલાક બેઉને જાણે છે. (૨૨) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अध्ययन ४ गा० २३ शैलेशीकरणस्वरूपम् १४ ५ ६२ मूलम्-जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली । तया जोगे निरूभित्ता. सेलेसिं पडिवज्जइ ॥२३॥ छाया-यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली । ___ तदा योगान्निरुध्य, शैलेशी प्रतिपद्यते ॥२३॥ सान्वयार्थः-जया-जब जिणो-वीतराग केवली केवलज्ञानी होये हुएः लोगमलोग च-लोक और अलोकको जाणइ-जानते हैं, तया तब जोगे-मनवचन-कायके योगों का निरूभित्ता-निरोध करके सेलेसिं-शैलेशीकरणको पडिवज्जइ-प्राप्त करते हैं ॥२४॥ टीका--'जया लोग'-मित्यादि । यदा जिनः केवली लोकालोकं जानाति तदा योगान् मनोवाकायलक्षणान् निरुध्य, तथाहि-मुक्तिपदेऽन्तर्मुहूर्तभाविनि आयुष्यन्तर्मुर्त्तमात्राविशेषे सति यद्यपातिकर्मचतुष्टयं स्वभावतः समस्थितिकं स्यात्तदा निष्कलङ्कः परमकल्याणाऽऽस्पदीभूत केवली सूक्ष्मक्रियाऽनिवाख्यं ध्यानमारभते । उत्कृष्टत आयुषः षण्मा सावशेषे समुत्पन्नकेवलस्य भगवतस्तु तदायुषोऽल्पत्वाद् वेदनीयनामगोत्रकर्मणां च स्थितिबाहुल्याच नियतसमुद्रातत्वात् , तत्कृत्वा वेदनीयादिषु चतुषु। समस्थितिकेषु सत्सु तदारम्भः । "जया लोग.” इत्यादि । जब घातीकोको जीतनेवाले केवली भगवान् लोक और अलोकको जान लेते हैं तब योगोंका निरोध करके शैलेशी अवस्थाको प्राप्त करते हैं । (३) अन्तर्मुहर्त मात्र आयु शेष रहने पर यदि बाको रहे हुए चारों अघातिया कर्मोकी स्थिति स्वभावसे ही बराबर हो तो निष्कलङ्क परम कल्याणके आश्रयभूत केवली प्रभु सूक्ष्म क्रिय नामक शुक्ल ध्यानके तीसरे पायेका ध्यान प्रारम्भ करते हैं, किन्तु जिन्हें उत्कृष्ट आयुकर्म छह मास अवशेष रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है उन्हें नियमसे केवलिसमुद्धात करना पड़ता है, क्योंकि उनका आयुकर्म अल्प होता है और उनके वेदनीय नाम गोत्र कर्मोकी स्थिति अधिक होती है, इसलिए वे पहले समुद्धातके द्वारा चारों कौंको स्थिति बराबर करके फिर तीसरे पायेका ध्यान आरम्भ करते हैं। ના જોઈત્યાદિ. જ્યારે ઘાતી કર્મોને જીતવાવાળા કેવળી ભગવાન લોક અને અલક ને જાણી લે છે ત્યારે પેગોને નિરોધ કરીને શૈલીશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. (૩) અન્તર્મુહૂર્ત માત્ર આયુ શેષ રહેતાં બાકી રહેલા ચારે અઘાતી કર્મોની સ્થિતિ સ્વભાવથી બરાબર હોય તે નિષ્કલંક પરમ કલ્યાણના આશ્રયભૂત કેવળી પ્રભુ સૂમયિ નામના શુકલ ધ્યાનના ત્રીજા પાયાનું ધ્યાન પ્રારંભે છે. કિન્તુ જેમને ઉત્કૃષ્ટ આયુકમ છ માસ અવશેષ રહેતાં કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, તેમને નિયમથી કેવળી સમુદ્દઘાત કર પડે છે, કારણ કે એમનું આયુકમ અલ્પ હોય છે અને એમનાં વેદનીય નામ ગોત્ર કર્મોની સ્થિતિ વધારે હોય છે. તેથી કરીને તે પહેલાં સમુદ્રઘાતની દ્વારા ચારે કર્મોની સ્થિતિ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे यदा जघन्ययोगवतः सज्ञिपर्याप्तस्य मनोद्रव्याणि समये २ निरुन्धन् असंख्यातसमयैः सम्पूर्ण मनोयोगं, तत्पश्चात्पर्याप्तद्वीन्द्रिस्य वाग्योगपर्यायतोऽसंख्यातगुण न्यूनवाग्योगपर्यायान् प्रतिसमयं निरुन्धन् असंख्यातसमयैः सम्पूर्णवाग्योगं, ततश्च प्रथमसमयसमुत्पन्न - निगोदजीवस्य जघन्यकाययोगपर्यायतोऽसंख्यातगुणहीनकाययोगं प्रतिसमयं निरुन्धन् असंख्यात समयैर्बादरकाययोगं च सर्वथा निरुणाद्धि तदेदं सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्त्तिध्यानमुपक्रमते । तत्र श्वासोच्छ्वासस्वरूपं सूक्ष्ममपि काययोगं निरुध्य = अयोगित्वं प्राप्येत्यर्थः, शैलीशीम् = शैलाः=पर्वत । स्तेषामीशः शैलेशः = सुमेरुस्तद्वत् स्थैर्य यस्यामवस्थायां २८० जब जघन्य योंगवाले सञ्ज्ञी पर्याप्तकके मनोद्रव्य और मनोद्रव्य के व्यापारोंसे असंख्यात गुणहीन मनोद्रव्यों का प्रतिसमय में निरोध करते हुए असंख्यात समयों में सम्पूर्ण मनोयोगका निरोधक कर देते हैं । तब मनोयोगका निरोध करके पर्याप्त द्वीन्द्रियके वचनयोगकी पर्यायों से असंख्यात गुणहीन वचनयोगकी पर्यायोंका प्रतिसमय निरोध कहते हुए समस्त वचनयोगका निरोध करते हैं । वचन योगका सपूर्ण निरोध करके प्रथम समय में उत्पन्न निगोदिया जीवके जघन्य काययोग की पर्यायों से असंख्यातगुणहीन काययोगका प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में बादर काययोगका भी सर्वथा निरोध कर देते है । अर्थात् समस्त मनोयोग और वचनयोगका तथा बादर काययोगका निरोध होने पर सूक्ष्म कियाsनिवर्त्ति नामक तीसरे ध्यानको आरंभ करते हैं । तीसरे ध्यानके समय श्वासोच्छ्वासरूप काययोगकी सूक्ष्मक्रिया ही रहती है । इस ध्यान से उस सूक्ष्मक्रियाका भी निरोध करके अयोगी हो जाते हैं । अयोगी होकर अर्थात् तेरहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थानमें पहुंचकर शैलेशी अबस्थाको प्राप्त होते हैं । जिसमें शैलों (पर्वतों) के ईश (स्वामी) सुमेरु पर्वत के समान स्थिरता रहती है उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं । अथवा - शोल ( यथाख्यात चारित्र) के ईश (स्वामी) को शीलेश कहते हैं, उनकी ખરાખર કરીને પછી ત્રીજા પાયાનુ ધ્યાન આરભે છે. જ્યારે જઘન્ય ચેાગવાળા સ'ની પર્યાપ્તકના મનેાદ્રવ્ય અને મનેાદ્રવ્યના વ્યાપારાથી અસંખ્યાતગુણહીન મનાદ્રવ્યાને પ્રતિ સમયે નિરોધ કરતાં અસંખ્યાત સમયેામાં સંપૂણ મનાયેાગના નિષ કરીને પર્યાપ્ત દ્વીન્દ્રિયના વચનયાગના પર્યાયેાથી અસંખ્યાતગુણીન વચનચેાગના પર્યાયાના પ્રતિસમય નિરષ કરતાં સમસ્ત વચનયોગના નિરોધ કરે છે. વચનચેાગના સપૂર્ણ નિરોધ કરીને પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન નિગેઢિયા જીવના જઘન્ય કાયચાગના પાંચાથી અસંખ્યાતગુણહીન કાયયેાગના પ્રતિસમય નિરાધ કરતાં અસ`ખ્યાત સમયેામાં બાદર કાયયેાગના પણ સવથા નિરોધ કરી નાંખે છે. અર્થાત્ સમસ્ત મનાયેાગ અને વચનચેાગના તથા આદર-કાયયેાગના નિરોધ થતાં સૂમક્રિયાઽનિયતિ નામના ત્રીજા ધ્યાનના આરંભ કરે છે. ત્રીજા ધ્યાનને સમયે શ્વાસે શ્ર્વાસરૂપ કાયયેાગની સૂક્ષ્મ-ક્રિયા જ રહે છે, એ ધ્યાનથી તે સૂક્ષ્મ-ક્રિયાના પણ નિરાધ કરીને અયેગી થઇ જાય છે. અચેાગી થઈને અર્થાત્ તેરમે ગુણ સ્થાન થી ચૌદમાં ગુરુસ્થાનમાં પહેાચીને શૈલશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત थाय छे. मां शैलेो (पर्वत) ना श (स्वाभी) सुभे३ पर्यंतनी पेठे स्थिरता रहे छे सेने શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २३ शैलेशीकरणस्वरूपम २८१ सा, यद्वा शीलं यथाख्यातचारित्रं तस्येश: स्वामी शीलेशस्तस्येयमवस्था शैलेशी तां प्रतिपद्यते मध्यमकालेन 'अ-इ-उ-भू-ल' इत्येवंरूपपञ्चलध्वक्षरोच्चारणसमकालस्थितिकं समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपातिध्यानमनुभबतीत्यर्थः, ननु सूक्ष्मक्रियाऽनिवाख्यस्य शुक्लध्यानस्य कथं ध्यानपदप्रतिपाद्यता ?, ध्यानं हि नाम मनःस्थैर्यम् , केवलिनश्च तदानीं मनसोऽसत्त्वादिति चेन्न, स्थैर्यावस्थापन्नत्वमेव ध्यानत्वम् , तच्च यथा स्थिरीभावमापन्नस्य छद्मस्थीयमनसस्तथैव केवलिकाययोगस्यापि सुस्थिरतया सुवचम् । नन्वेवमपि समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपात्याख्यस्य शुक्लध्यानस्य कथं ध्यानत्वम् ? तत्र काययोगस्याप्यभावात् , इति चेदुच्यते-यथा कुम्भकारचक्रं तद्भ्रामकदण्डादिसम्बन्धाअवस्थाको शैलेशी कहते हैं । इस शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होकर न धीमे न जल्दी अर्थात् मध्यम काल से 'अ-इ-उ-ऋ-लु' इन पांच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारणमें जितना समय लगता है उतने समय तक चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थानमें रहकर समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति ध्यान ध्याते हैं । प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! मनकी स्थिरताको ध्यान कहते हैं । केवली भगवान के उस समय मन नहीं रहता; अतः सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्त्ति शुक्लध्यान को ध्यान कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर-स्थिरता को ही ध्यान कहते हैं। वह स्थिरता जैसे छद्मस्थके मनोयोगकी होती है वैसे ही केवलीके काययोगकी स्थिरता होती है इसीलिए उसे ध्यान कहते हैं । प्रश्न-तो समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्ल-घ्यानको ध्यान कैसे कह सकते हैं ? क्योंकि वहां काययोगका भी अभाव है ! । उत्तर-जैसे कुंभारका चाक, घुमानेवाले दण्ड आदिके संयोग न होनेपर भी पूर्वकालके શલેશી અવસ્થા કહે છે, અથવા શીલ (યથાખ્યાત-ચારિત્ર) ના ઈશ (સ્વામી) ને શીલેશ કહે છે, એની અવસ્થાને શશી કહે છે. એ શિલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈને, નહીં ધીમે न वी अर्थात् मध्यम ९थी अ-इ-उ-ऋ-ल से पांय २१ अक्षरोन क्याરણમાં જેટલો સમય લાગે એટલા સમય સુધી ચૌદમે અયોગિકેવળી ગુણસ્થાનમાં રહીને સમુચિછનક્રિયાપ્રતિપાતિ ધ્યાન ધ્યાવે છે. પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ ! મનની સ્થિરતાને ધ્યાન કહે છે. કેવળી ભગવાનને એ સમયે મન રહેતું નથી, એટલે સૂફમક્રિયા:નિવતિ શુકલધ્યાનને ધ્યાન કેવી રીતે કહી શકાય ? ઉત્તર–સ્થિરતાને જ ધ્યાન કહે છે. એ સ્થિરતા જેવી છદ્મસ્થના મ ગની હોય છે તેવીજ કેવળીના કાગની સ્થિરતા હોય છે, તેથી તેને ધ્યાન કહે છે. प्रश्न-तो समुन्निध्या-मप्रतिपाति-शुस-ध्यानने ध्यान वी शते ही शाय? કારણ કે ત્યાં કાયાગને પણ અભાવ છે. ઉત્તર–જેમ કુંભારને ચાકડે, તેને ફેરવનાર દંડ આદિને સંગ ન થવા છતાં પણ પૂર્વકાળના વેગથી ઘુમ્યા કરે છે, તેમજ મન વચન કાયને નિરોધ થઈ ગયા પછી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ૨૮૨ श्रीदशबैकालिकसूत्रे भावेऽपि प्राक्कालीनवेगतो भ्रमति तथा मनोवाक्काययोगनिरोधेऽप्ययोगिनः प्राक्कृतध्यानधारावेगतो ध्यानं सम्पद्यते । किश्व-तत्र द्रव्ययोगाभावेऽपि भावयोगस्य सत्त्वाद् ध्यानमुपपद्यते, जीवोपयोगरूपस्य भावमनसस्तत्रापि सद्भावात् । अथ च-यथा पुत्रमिन्नोऽपि पुत्रकार्यकरणेन पुत्र उच्यते तथा भवोपग्राहिकर्मनि रणरूपम्य ध्यानकार्यस्य करणेन ध्यानत्वोपाचाराद् ध्यानशब्दाभिधेयत्वं सिद्धम् । ___ अथ च यथैकस्य नानार्थकशब्दस्य बहवोऽर्था भवन्ति, तथा धातूनामनेकार्थत्वाद् ध्यैधातुनिष्पादितस्य ध्यानशब्दस्यापि समुच्छिन्नक्रियाख्यं शुक्लध्यानमप्यर्थः । अपरं चउक्तशुक्लध्यानस्य ध्यानत्वेन जिनागमप्रतिपाद्यतया ध्यानत्वं निर्वाधमित्यलम् ॥२३॥ मूलम्-जया जोगे निलंभित्ता सेलेसि पडिवज्जइ । तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ॥२४॥ वेगसे घूमता रहता है वैसे ही मन वचन कायका निरोध हो जाने परभी पूर्व ध्यानको धारा के वेगसे अयोगी केवलीके ध्यान होता है। अथवा-द्रव्ययोगका अभाव होने पर भाव योगके सद्भावसे ध्यान होता है, क्योंकि जीबका उपयोगरूप भावमन उस अवस्थामें भी रहता है । अथवा जैसे पुत्र न होकर भी यदि कोई पुत्रका कार्य करता है तो वह पुत्र कहलाता है । वैसे हो भवोपनाही कर्मों की निर्जरारूप ध्यान का कार्य करनेसे उपचार से वह ध्यान कहलाता है । अथवा-जैसे नानार्थक शब्दके बहुत से अर्थ होते हैं वैसे ही धातुओंके भी अनेक अर्थ होते हैं इसलिए यहाँ 'ध्यै' धातुसे बने हुए ध्यान शब्द का अर्थ समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति- शुक्ल-ध्यान अर्थात् अयोगी गुणस्थानवालों की क्रिया भी समझ लेना चाहिए । अथवा जिनागममें इसको ध्यान कहा है अतः इसमें ध्यानत्व निर्बाध है ॥२३॥ પણ પૂર્વ ધ્યાનની ધારાના વેગથી અાગી કેવળીને ધ્યાન હોય છે. અથવા દ્રવ્યોગને અભાવ થયા છતાં પણ ભાવગના સદુભાવથી દયાન થાય છે. કારણ કે જીવના ઉપયોગરૂપ ભાવમન એ અવસ્થામાં પણ રહે છે. અથવા જેમ પુત્ર ન હોવા છતાં જો કે પુત્રનું કાર્ય કરે છે તે તે પુત્ર કહેવાય છે, તેમજ ભોપાહી કમેની નિર્જરારૂપ ધ્યાનનું કાર્ય કરવાથી ઉપચાર કરીને તે ધ્યાન કહેવાય છે. અથવા જેમ વિવિ. ધાર્થક શબ્દના ઘણાય અર્થે થાય છે તેમ ધાતુના પણ અનેક અર્થો થ ય છે, અહીં જે ધાતુથી બનેલા ધ્યાન અને અર્થ સમુચ્છિનક્રિયાપ્રતિપાતિ–શુકલધ્યાન અર્થાત અગી ગુણસ્થાન વાળાઓની ક્રિયા પણ સમજી લેવી. અથવા જિનાગમમાં એને ધ્યાન કહ્યું છે તેથી એમાં ધ્યાનત્વ નિબંધ છે. (૨૩) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ १० ११ ९ अध्ययन ४ गा० २४ अयोगिनो ध्यानसिद्धिः छाया-यदा योगान्निरुध्य, शैलेशी प्रतिपद्यते । __ तदा कर्म क्षपयित्वा, सिद्धिं गच्छति नीरजाः ॥२४॥ सान्वयार्थः-जया जब जोगे-यागोंका निलंभित्ता=निरोध करके सेलेसि शैलेशीकरणको पडिवज्जइ प्राप्त करते हैं, तया-तब कम्मं कर्ममात्रको खवित्ता-खपा करके नीरओ-कर्मरजरहित-सब कर्मों से मुक्त होकर सिद्धि-मोक्षको गच्छइ-जाते हैं ॥२४॥ टीका-'जया जोगे०' इत्यादि । यदा योगनिरोधं कृत्वा शैलेशी पामोति तदा कर्म वेदनीयाऽऽयुर्नामगोत्राख्यमघातिकर्मचतुष्टयलक्षणं क्षपयित्वा-क्षय नीत्वा सर्वथा विनाश्येत्यर्थः 'ण'-मिति वाक्यालङ्कारे, नीरजाः-निर्गतं रजः सकलकर्ममलं यस्मादिति, रजसः उक्तलक्षणान्निष्क्रान्तो वा नीरजा:-सकलर्मोपाधिरहितः साधितात्मा प्रभुः सिद्धिसिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धि-मुक्तिलक्षणा तां गच्छति प्राप्नोति गत्यथधातुनां प्राप्त्यर्थत्वात् ॥२४॥ मूलम्-जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥२५॥ छाया--यदा कर्म क्षययित्वा, सिद्धिं गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः, सिद्धो भवति शाश्वतः॥२५॥ सान्वयार्थ:-जया जब कम्मं कर्ममात्रको खवित्ताखपा करके नीरओ-कर्मरजरहित होकर सिद्धि-मोक्षको गच्छइ जाते हैं, तया-तब लोगमत्थयत्थो लोगके अग्रभाग पर स्थित सासओ शाश्वत-नित्य सिद्धो-सिद्ध हवइ-हो जाते हैं ॥२५॥ टीका-'जया कम्म' इत्यादि । यदा सर्वकर्मक्षयं कृत्वा नीरजाः सिद्धि गच्छति तदा लोकमस्तकस्थः सर्वलोकोपरिस्थितः, शाश्वत:=दग्धकर्मबोजत्वात्पुनः संसारसंसरणरहितो नित्यः, सिद्धः कृतकृत्यो भवतीति ।। 'जया जोगे' इत्यादि । जब योगोंका निरोध करके शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं तब वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चार अघाति कर्मोका क्षय करके सर्व कर्मोंसे मुक्त होकर भगवान मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥२४॥ 'जया कम्म' इत्यादि । जब सब कर्मोंका क्षय करके निष्कर्म होकर मोक्षगमन करते है तब लोकके अग्रभाग पर स्थित, सब कर्मोंसे रहित होनेके कारण सभी संसार में न आनेसे जया जोगे त्यादि. न्यारे योगाना निराध शन शोथी मवस्थान प्रास याय छ, ત્યારે વેદનીય, આયુ, નામ અને ગાત્ર એ ચાર અઘાતી કર્મોનો ક્ષય કરીને સર્વ કર્મોથી મુક્ત થઈને ભગવાન્ મોક્ષને પ્રાપ્ત થાય છે. (૨૪) નવા જમ ઈત્યાદિ. જ્યારે સર્વ કર્મોનો ક્ષય કરીને નિષ્કર્મ થઈને મોક્ષગમન કરે છે, ત્યારે લેકના અગ્રભાગ પર સ્થિત, સર્વ કર્મોથી રહિત હોવાને કરણે કદાપિ સંસારમાં શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ श्रोदशवैकालिकसूत्रे ननु सिद्धानां सर्वकर्मक्षयात् त्रसनामकर्मणोऽप्यविद्यमानत्वेन कथं गतिसम्भवः ? इति चेदुच्यते-- यथा धनुर्मुक्तस्य बाणस्य तद्विरहेऽपि पूर्वप्रयोगसामर्थ्याद्गतिर्भवति तथा संसारावस्थायामपवर्गप्राप्तये कृतानेकविधप्रणिधानेवलान्मुक्तात्मनोऽपीति । ननु भवतु गतिः किन्तु सा तिर्यगधस्ताद्वा न भूत्वोर्ध्वमेव भवतीति कथमवसीयते ? इति चेच्छ्रयताम्-तेषां गुरुत्वगुणाभावान्नाधस्तात् , कायादियोगपरफेरणयोरभावाच्च न तिर्यग्गतिर्भवति, यथा-नीरन्ध्रामतिशुष्कामनुपहतां चाऽलाबूं कुशादितृणैः परितः संवेष्टय तदुपरि शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं। प्रश्न-हे गुरुमहराज ! सिद्धोंके समस्त कर्मोका नाश होजाता है अत एव त्रस नाम कर्म भी नहीं रहता, फिर सिद्ध भगवान लोकके अग्र भाग तक किस प्रकार गमन कर सकते हैं। ___उत्तर-हे शिष्य जैसे धनुषसे छूटा हुआ बाण धनुषका सम्बन्ध न होने पर भी गति करता है, क्योंकि उसमें पहलेका व्यापार का सामर्थ्य रहता है। वैसे ही संसार अवस्थामें मोक्ष प्राप्त करनेके लिए किये हुए अनेक प्रकारके अनुष्ठानके बेगसे मुक्तात्मा भी गमन करते हैं। प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! गति तो होती है पर ऊर्ध्व गति ही क्यों होती है ? नीचे की ओर अथवा तिरछी गति क्यों नहीं होती ? उत्तर-हे शिष्य ? नीचे की ओर उसीकि गति होती है, जिसमें गुरुत्व गुण (भारी पन) पाया जाता हैं । सिद्धोंमें गुरुत्व गुण नहीं है अत एव उनकी गति नीचेकी ओर नहीं होती काय आदि योग और दूसरेकी प्रेरणा न होनेसे तिरछी गति भी नहीं होती। ન આવવાથી શાશ્વત સિદ્ધ થઈ જાય છે. પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ ! સિધ્ધનાં બધાં કર્મોને નાશ થઈ જાય છે, એટલે ત્રસનામકમ પણ રહેતું નથી, તે પછી સિદ્ધ ભગવાન્ કેકના અગ્રભાગ સુધી કેવા પ્રકારે ગમન 3री छ ? ઉત્તર–પેશિષ્ય ! જેવી રીતે ધનુષ્યથી છૂટેલું બાણ ધનુષ્યનો સંબંધ ન હોવા છતાં ગતિ કરે છે, કારણ કે તેમાં પહેલાંના વ્યાપારનું સામર્થ્ય રહેલું છે, તેવી રીતે સંસાર અવસ્થામાં મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને માટે કરેલાં અનેક પ્રકારનાં અનુષ્ઠાનેના વેગથી મુકતાત્મા 4 गमन ४२ छे. પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ ! ગતિ તે હોય છે પણ ઊર્વ ગતિ જ કેમ થાય છે ? નીચેની બાજુએ અથવા તિછી ગતિ કેમ નથી થતી? ઉત્તર–હે શિષ્ય ! નીચેની બાજુએ તેની ગતિ થાય છે કે જેમાં ગુરૂત્વગુણ (ભારે. પણું) હોય છે. સિદ્ધોમાં ગુરૂવ ગુણ નથી, તેથી તેમની ગતિ નીચેની બાજુએ નથી થતી કાય આદિ વેગ અને બીજાની પ્રેરણા ન હોવાથી તિછી ગતિ પણ થતી નથી. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २५ सिद्धानामूर्ध्वगमनस्वरूपम् २८५ स्निग्धमृत्तिकया सान्द्रं विलिप्याऽऽतपे संशोषयेत् , इत्थमष्टवारानुक्तप्रक्रियया यथाक्रम तृणवेष्टन-मृल्लेपन संशोषणादीनि विधायाऽगाधसलिले प्रक्षिप्ता साऽलाबूरष्टकृत्वोदत्तमल्लेपजनितगौरवेणोर्ध्वसलिलतलमतिक्रम्य तदधस्ताद् भूतलसंलग्ना भवति, तदनु मन्दमन्दमनुक्रमतस्तेष्वष्टवारविनिहितमृल्लेपेषु सार्द्रतामुपगम्य विशीर्णेषु सत्सु मृत्तिकालेपजन्यभारराहित्येन लघुतामुपगता साऽलाबूरधोभूतलमतिक्रम्य जलोपरिप्रतिष्ठाना भवति तथाअष्टविधकर्मलेपसंभारभराक्रान्त आत्मा जगज्जलधौ निमज्जति, तद्विरहितश्चोर्ध्वगतिधर्मत्वादूवमेव गच्छति । तथा चोक्तं भगवता-- “जह मिउलेवालित्तं, गरुयं तुंबं अहो वयइ एवं । आसवकयकम्मगुरू, जीवा वच्चंति अहरगइं ॥१॥ तं चेव तविमुक्कं, जलोवरि ठाइ जायलहुभावं । जह तह करमविमुक्का, लोयग्गपइडिया होति ॥२॥" इति । जैसे-छिद्ररहित बिलकुल सूखीं हुई, विना टूटी-फूटी तुम्बीको चारों ओर तृणपुञ्जसे बांध करके धूपमें सुखा ले, आठ बार ऐसा करके अगाध जलमें तुम्बी को डाल दे तो आठबार के लेप के भारीपनसे जलके तलमें पहुँचकर वह पृथ्वी से लग जाती है। उसके पश्चात् गीलेपनसे जब धीरे धीरे वह मिट्टीका लेप छूटने लगता तो क्रमशः मिट्टीके भारसे रहित होकर लघुता(हलकापन) पाकर वह तुम्बी नीचेसे उठकर जलके ऊपर आजाती है । इसी प्रकार आठ कर्मरूपी लेपके भारसे भारी आत्मा संसाररूपी समुद्र में डूबी रहती है । जब कर्मरूपो लेपसे रहित हो जाती है तब ऊर्ध्व गमनका स्वभाव होनेसे ऊर्ध्वगमन करती है । भगवान ने कहा भी है "जैसे मिट्टीके लेपसे लिप्त तुम्बी भारी होनेसे नीचेकी ओर जाती है वैसेही आम्रवसे उत्पन्न कर्मोंसे आत्मा अधोगतिको प्राप्त होती है ॥१॥ जैसे तुम्बो लेपसे मुक्त होनेपर लघु જેમ છિદ્રરહિત, બિલકુલ સુકાયેલી, તૂટ્યા ફૂટયા વિનાની તુંબડીને ચારે બાજુએ ઘાસ-તરણુથી બાંધીને તેની ઉપર ચીકણી માટીને સારી પેઠે લેપ કરીને તડકામાં સૂકવી નાંખે, આઠ વાર એમ કરીને અગાધ જળમાં એ તુંબડીને નાંખી દે તે આઠ વારના લેપના ભારે પણાથી જળને તળીયે પહોંચીને તે પૃથ્વીને અડીને રહે છે. પછી જ્યારે લીલાપણાથી ધીરે ધીરે એ માટીને લેપ છૂટવા લાગે છે ત્યારે ક્રમશઃ માટીના ભારથી રહિત થઈને લઘુતા (હલકાપણું) પામીને એ તુંબડી નીચેથી ઉઠીને જળની ઉપર આવી જાય છે. એજ પ્રકારે આઠ કર્મરૂપી લેપના ભારથી ભારે એ આત્મા સંસારરૂપી સમુદ્રમાં ડુબી રહે છે. જ્યારે કર્મરૂપી લેપથી રહિત થઈ જાય છે ત્યારે ઉદર્વગમનનો સ્વભાવ હોવાથી ઊર્ધ્વ ગમન ४२ छे. सावाने तु परा छ - - જેમ માટીના લેપથી લિપ્ત તુંબડી ભારે હોવાથી નીચેની બાજુએ જાય છે, તેમજ આસવથી ઉત્પન્ન થએલાં કમેથી આત્મા અધગતિને પ્રાપ્ત થાય છે. (૧) જેમ તુંબડી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्रीवैकालिकसूत्रे छाया-" यथामृल्लेपाऽऽलिप्तं, गुरुकं तुम्बमधो व्रजत्येवम् । आश्रवकृतकर्मगुरवो, जीवा व्रजन्ति अधरगतिम् ॥ १ ॥ तदेव (तुम्बं) तद्विमुक्तं (मृल्लेपविमुक्तं ), जलोपरि तिष्ठति जातलघुभावम् । यथा तथा कर्म्मविमुक्ता (सिद्धाः) लोकाग्रप्रतिष्ठिता भवन्ति ||२|| अथवा यथा वातादिरूपवाचक विरहादूर्ध्वगतिस्वभावायाः प्रदीपकलिकायाः, बीजबन्धविच्छेदाद्बोज कोशगतैरण्डबीजस्थ चोर्ध्वगतिः संजायते तथाऽऽत्मनोऽपि तादृशगतिस्वभावस्य विरोधिकर्मबन्ध विच्छेदादर्ध्वगतिरेवेति । डीजमूर्ध्व गत्वा पुनःपतति तथा तु न मुक्तात्मनः पातसम्भवः, अधःपतनहेतुभूतगुरुत्वगुणाभावादिति प्रागुक्तमेव । ननु शरीराभावात्तेषामात्मप्रदेशाः पारदद्रव्यवत् कथं न विकीर्णा भवन्तीति चेन्न, तद्विसर्पक नामकर्माभावात्प्रदेशवच्च गुणसद्भावाच्च । होकर जलके ऊपर आजाती है उसी प्रकार कमसे मुक्त होकर आत्मा लोकके अग्रभाग पर विराजमान हो जाती है ||२||" अथवा-जैसे हवा आदि किसी बाधकके न होनेसे दीपककी लौ ऊपर को जाती है, बीजकोष बन्धके टूटनेपर एरण्डका बीज ऊपरको जाता है, उसी प्रकार आत्माके ऊर्ध्वगमन विरोधी कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव हो जाने से आत्मा ऊर्ध्वगति करती है जैसे एरण्डका बीज पहले ऊपरको जाकर फिर नीचे गिर पड़ता है वैसे आत्मा नहीं गिर सकती, क्योंकि नीचे गिरानेका कारण गुरुवगुण आत्मामें नहीं है, यह पहले ही कह चुके हैं । प्रश्न - हे गुरुमहाराज ! शरीरका अभाव होनेसे सिद्धोंके आत्माके प्रदेश पारेके समान फैल क्यों नहीं जाते ? उत्तर-हे शिष्य । आत्मप्रदेशों को फैलानेवाले नामकर्मका अभाव होनेसे तथा प्रदेशवत्त्व गुण सद्भावसे सिद्धोंके आत्मप्रदेश नहीं फैलते हैं । લેપથી મુકત થતાં લઘુ થઇને જલની ઉપર આવી જાય છે, તેમ કાઁથી મુક્ત થઈને આત્મા લાકના અગ્રભાગ પર વિરાજમાન થઇ જાય છે. (૨)’ અથવા, જેમ હવા આદિ કોઇ ખાધક નહાવાથી દ્વીપની જ્યેાત ઉપર જ જાય છે, ખીજકોષના બંધ તૂટવાથી એરડાનું માજ ઉપર જ જાય છે, તેમ આત્માના ઊધ્વગમનના વિરોધી ક`બ ંધના સથા અભાવ થઇ જવાથી આત્મા ઊધ્વગતિ જ કરે છે. જેમ એરંડાનું ખીજ પહેલાં ઉપર જઇને પછી નીચે પડી જાય છે, તેમ આત્મા પડી શકતા નથી કારણ કે નીચે પાડવાનું કારણ ગુરૂત્વ ગુરુ આત્મામાં નથી એ પહેલાં કહેવામાં આવેલું જ છે. પ્રશ્ન-ડે ગુરૂ મહારાજ ! શરીરના અભાવ હાવાથી સિદ્ધોના આત્માના પ્રદેશેા પારાની પેઠે ફેલાઇ કેમ જતા નથી ? શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २५ सिद्धानामूर्ध्वगमनस्वरूपम् २८७ उक्तस्वरूपाः सिद्धाश्चरमशरीरतस्तृतीयभागन्यूना उत्कृष्टतो द्वात्रिंशदङ्गुलसमधिकत्रयस्त्रिंशदुत्तरशतत्रयधनुः परिमिताः, जघन्यतोऽष्टाङ्गुलाधिकरनिप्रमाणाः । यच्च मरुदेवीदेहप्रमाणस्य सपादपश्चशतधनुष्ट्वात्तत्तृतीयभागे पातिते तस्याः सार्द्धत्रिशतधनुः परिमिताऽवगाहना भवति तेनात्र न विरोधः, गजाधिरूढत्वेन वृद्धत्वेन वा शरीरसङ्कोचसम्भवात् । यत्तु जघन्यतः सप्तहस्तोच्छूितानां सिद्धिः शास्त्रेषु श्रयते तत्तीर्थकरापेक्षया, अन्ये तु द्विहस्तोच्छ्रिता अपि सिध्यन्ति, तदपेक्षया हि प्रोक्तस्वरूपा जघन्याऽवगाहनाऽवसेया । एवमुक्तस्वरूपो जन्म-ज़रा-मरणा-ऽऽधिव्याधिबाधापटलीकलङ्कलोभावगर्भनिवासत्रास सिद्धोंके चरम शरोरसे त्रिभाग कम, उत्कृष्ट तीनसौ तेंतीस (३३३) धनुष और बत्तीस (३२) अंगुलकी, तथा जधन्य एकरत्नि (एकहाथ) और आठ अंगुलकी अवगाहना होती है । मरुदेवीके शरीरकी अवगाहना सवा पाँचसौ (५२५) धनुषकी थी, उसमें से तीसरा हिस्सा कम करनेसे साढे तीनसौ (३५०) धनुषकी अवगाहना होती है, किन्तु यहाँ पर उत्कृष्ट अवगाहना तीनसौ तेतोस धनुष और बत्तीस अंगुल की बताई गई है, इससे यहाँ विरोध नहीं समझना चाहिये, क्योंकि मरुदेवी हाथी पर आरुढ थी, इसलिए या वृद्धावस्थाके कारण शरीरका (संकुचित होना) संभव है । यह जो आगममें सुना जाता है कि जघन्य सात हाथ ऊंचे शरीरवालोंको मोक्ष प्राप्त होता है सो यह नियम तीर्थंकरों की अपेक्षासे समझना चाहिए । तीर्थंकरोंके सिवाय अन्य भव्य जीव दो हाथ ऊँचे शरीरवाले होनेपर भी मुक्त हो जाते हैं। उनको अपेक्षासे हो सिद्धोंकी जघन्यअवगाहना एकरत्नि (एकहाथ) और आठ अंगुलकी कही गई है। ઉત્તર--હે શિષ્ય ! અત્મપ્રદેશને ફેલાવનારા નામકર્મને અભાવ હેવાથી તથા પ્રદેશવરવ ગુણને સદુભાવ હોવાથી સિદ્ધોના આત્મપ્રદેશ ફેલાતા નથી. સિદ્ધોના ચરમ શરીરથી ત્રિભાગ ઓછી, એકહાથત્રણસો તેત્રીસ (૩૩૩) ધનુષ અને બત્રીસ (૩૨) આંગળની તથા જઘન્ય એક રત્નિ અને ઉત્કૃષ્ટ આઠ આગળની અવગાહના હોય છે. મરૂદેવીના શરીરની અવગાહના સવા પાંચસે (૫૫) ધનુષ્યની હતી, તેમાંથી ત્રીજો ભાગ એ છે કરવાથી સાડા ત્રણસો (૩૫૦) ધનુષ્યની અવગણના થાય છે. કિનતુ અહીં ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ત્રણસને તેત્રીસ ધનુષ અને બત્રીસ આંગળની બતાવી છે, તેથી વિરોધ સમજ નહીં, કારણ કે મરૂદેવી હાથી પર આરૂઢ હતી. તેને લીધે યા વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે શરીરનું સંકુચિત થવું એ સંભવિત છે, આગમમાં જે સંભળાય છે કે–જઘન્ય સાત હાથ ઉંચા શરીરવાળાઓને જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે તે નિયમ તીર્થકરોની અપેક્ષાએ સમજવું જોઈએ. તીર્થકરો સિવાયના બીજા ભવ્ય જીવો બે હાથ ઉંચા શરીરવાળા હોવા છતાં પણ મુક્ત થઈ જાય છે. એમની અપેક્ષાએ જ સિધ્ધાની જઘન્ય અવગાહના એક રનિ અને આઠ આંગળની કહેવામાં આવી છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ____श्रीदशवकालिकसूत्रे सन्ततिविनिष्क्रान्तः शाश्वतः सिद्धो भवतीत्यर्थः । 'शाश्वत' पदेन चात्र “सम्प्राप्तसिद्धिपदो ह्यात्मा न पुनः संसारित्वमवाप्नोति हेतोरभावात् , न च कारणमन्तरेण कार्योत्पत्तिर्जायते" इति बोधितम् ।।२५॥ उक्तं सुगतिरूपं धर्मफलं, सम्प्रति तत् कस्य दुर्लभं भवती ?-तिदर्शति-'मुहसायगस्स०' इत्यादि । मूलम्-सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोयस, दुल्लहा सुगई तारिसगस्स ॥२६॥ छाया-सुखास्वादकस्य श्रमणस्य, शाताकुलस्य निकामशायिनः । उत्क्षालनाप्रधौतस्य दुर्लभा सुगतिस्तादृशकस्य ॥२५॥ सुगति की दुर्लभता बतलाते हैं--- सान्वयार्थः---सुहसायगस्स मुखकी आसक्ति रखनेवाले सायाउलगस्स-सुख के लिए व्याकुल रहनेवाले निगामसाइस्स मर्यादासे अधिक सोनेवाले उच्छोलणापहोयस्स-शरीरकी विभूषा करनेवाले तारिसगस्स-ऐसे समणस्स-साधुको सुगईमुगति दुल्लहा दुर्लभ है ॥२६॥ टीका-सुखास्वादकस्य-सुखस्य प्राप्तमनोरमशब्दाधुपभोगस्य आस्वादकः आसत्या ग्राहकस्तस्य, शाताकुलकस्य-शातार्थम् आकुलकाव्यग्रः उद्विग्नो वा तस्य, निकाम ऐसे सिद्ध जन्म-जरा-मरण, आधि, व्याधि, बाधा, कलङ्कलीभाव(संसारपरिभ्रमण), गर्भ वासके दुःखोसे रहित शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं । यहाँ 'शाश्वत' पदसे यह बोधित किया जाता है कि सिद्धि पदको प्राप्त आत्मा फिर संसार अवस्थाको प्राप्त नहीं होती है, क्योंकि संसारमें आनेके कारणभूत कमौका अभाव है। कारणके बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती ॥२५॥ यहाँ तक धर्मका सुगतिरूप फल कहा यह फल किसे दुर्लभ होता है सो दिखाते हैं'सुहसायगस्स' इत्यादि। प्राप्त हुए मनोज्ञ शब्दादि उपभोगोंको आसक्तिपूर्वक ग्रहण करनेवाले, सुखप्राप्ति के लिए मेवा सिध्धा म०।-भ२५, माधि-व्याधि, माया, सीमाव (ससा२-५२મણ), ગર્ભવાસનાં દુઃખથી રહિત શાશ્વત સિદ્ધ થઈ જાય છે. અહીં “શાશ્વત” શબ્દથી એમ બધિત કરવામાં આવ્યું છે કે સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત થએલો આત્મા ફરી સંસારી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થતું નથી, કારણ કે સંસારમાં આવવાનાં કારણભૂત કર્મોને અભાવ છે. કારણ વિના अयनी त्यत्ति थती नथी. (२५) અહીં સુધી ધર્મનું સુગતિરૂપ ફળ કહ્યું, એ ફળ કોને દુર્લભ થાય છે તે દર્શાવે छे-सुहसायगस्स त्याहि. પ્રાપ્ત થએલા મનોજ્ઞ શબ્દાદિ ઉપલેગને આસકિતપૂર્વક ગ્રહણ કરનારા, સુખપ્રાપ્તિને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा• २६-२७ सुगतेदो लभ्यसौलभ्यञ्च शायिनः निकामम् अतिशयित मध्यवर्तियामद्वयादधिकं रात्रौ, निष्कारणं दिवसे वा शेते -स्वपिति तच्छीलो निकामशायी-सूत्रार्थमननादिसमयमुल्लङ्घन्य शयानस्तस्य, उत्सालनाप्रधौतस्य-उत्क्षुलनया प्रक्षालनया प्र-प्रकर्षाथ-विभूषार्थ धौतानि-उज्ज्वलीकृतानि नयन बदन-कर-चरण-वस्त्रादीनि येन स तस्य शरीरादिविभूषाकारिण इत्यर्थः। तादृशकस्य-तीर्थकराऽऽज्ञाऽनाराधकस्य, श्रमणस्य श्रमणब्रुवस्य वेशमात्रेण साधोः सुगतिः सिद्धिलक्षणा गतिः दुर्लभा दुष्प्रापा 'भवती'-ति शेषः । 'सुखास्वादकस्ये'-त्यनेन सम्प्राप्तमनोज्ञशब्दादिविषयकाऽऽसक्तिनिराकृता। 'शाताकुलकस्ये' त्यनेनाऽप्राप्तसुखव्याक्षिप्तिनिरस्ता । 'निकामशायिनः' इत्यनेन च प्रमादनिवृत्तिः सूचिता । 'उत्क्षालनाप्रधौतस्ये'-त्यनेन च ब्रह्मचर्यरक्षार्थ विभूषाऽपाकृता।२६। एवं तर्हि कस्य मुक्तिः सुलभा ! इति जिज्ञासायामाह--‘तवोगुण०' इत्यादि । मूलम्-तवोगुणपहाणस्य, उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स । परीसहे जिणंतस्य, सुलहा सुग३ तारिसगस्स ॥ २७॥ छाया-तपोगुणप्रधानस्य, ऋजुमतेः शान्तिसंयमरतस्य ।। परीषहान् जयतः, सुलभा सुगतिस्तादृशकस्य ॥२७॥ व्याकुल रहनेवाले, दो मध्य प्रहरोंसे अधिक रात्रिमें, या कारणविशेष विना दिनमें अर्थात् सूत्रार्थके मनन करनेके समयका उल्लंघन होने तक सोनेवाले, तथा विभूषा के लिए आंख, मुख, नस हाथ-पैर वस्त्र आदि को धोनेवाले अर्थात शरीर को विभूषित करनेवाले, अतः तीर्थकस्की आज्ञाके विराधक, ऐसे श्रमणको सिद्धिगतिकी प्राप्ति दुलेभ है। 'सुहसायगस्स' पदसे यह सूचित किया है कि साधुको प्राप्त, शब्दादि विषयोमें आसक्ति नहीं रखनी चाहिए । 'सायाउलगस्स' पदसे अप्राप्त विषयसुखोंके लिए आकुल नहीं होना चाहिए, ऐसा सूचित किया है । 'निगामसाइस्स' पदसे प्रमादका परित्याग करना प्रदर्शित किया है। 'उच्छोलणापहोयस्स' पदसे ब्रह्मचर्यके संरक्षणके लिए शरीरको विभूषित करनेका निषेध किया गया है ॥२६॥ માટે વ્યાકુળ રહેનારા, બે મધ્ય પ્રહરોથી વધુ રાત્રિમાં યા કારણ-વિશેષ વિના દિવસમાં અર્થાત્ સૂત્રાર્થનું મનન કરવાના સમયનું ઉલ્લંઘન થાય ત્યાં સુધી સૂનારા તથા વિભૂષા (ભા) ને માટે આંખ, મુખ, નખ હાથ-પગ વસ્ત્ર આદિને જોનારા અર્થાત શરીરને વિભૂષિત કરનારા એટલે કે તીર્થકરની આજ્ઞાના વિરાધક, એવા શ્રમણને સિદ્ધગતિની પ્રાપ્તિ દુર્લભ છે. सुहसायगस्स या अभ सूथित ४२वामा माव्युछ साधुसे प्राप्त शwle विषयमा मासात रामवी ननये, सायाउलगस्स शपथी मारत विषयसुमोन भाट मन थनो ससूयित यु छ. निगामसाइस्स श५४थी प्रभाहने। परित्याग ३२वान प्रदर्शित ४य छे. उच्छोलणापूहोयस्स शvथा ब्रह्मययन। २क्षयने भाटे शरीरने विभूषित पारने निषेध ३२वामा माव्य। छे. (२६) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोदशवेकालिकसूत्रे सान्वयार्थः - तवो गुण पहाणस्स - तपरूपी गुणोंको मुख्य समझनेवाले उज्जुमइ-सरल बुद्धिवाले खंतिसंजमरयस्स - क्षान्ति और संयममें लीन परोस हे = परीषहोंको जिणं तस्स = जीतनेवाले तारिसगस्स - ऐसे ( श्रमणों को) सुगई - सुगति सुलहा सुलभ है ||२७|| टीका - तपोगुणप्रधानस्य तपति - अन्तर्भावितण्यर्थतया तापयति दहत्यष्टविधं कमेति तपः षष्ठभक्तादि तदेव गुणस्तपोगुणः स प्रधानं - मुख्यो यस्य स तस्य, ऋजुमतेः ऋज्वी - सरला मति - बुद्धिर्यस्य स तस्य, क्षान्तिसंयमरतस्य - क्षान्तिः कषायनिग्रहः संयमः सावद्यव्यपारोपरतिस्तयोः रतः = तत्परस्तस्य, परीषहान् = अनूकूललक्षणान् जयत: - अभिभवतः, तादृशकस्य रत्नत्रयाराधकस्य 'श्रमणस्ये' त्यनुषज्यते ; सुगतिः सुलभा । 'तपोगुणप्रधानस्ये' - त्यनेनेन्द्रिय-नोइन्द्रिविजेतृत्वं सूचितम् । 'ऋजुमते' - रित्यनेन मोक्षार्थिना कपटक दाग्रहरहितेन भवितव्यमिति बोधितम् । ' क्षान्तिसंयमरतस्ये' - त्यनेन ' क्षमायुक्त एव संयमः फलद:' इति द्योतितम् । 'परीषहान् जयतः' इत्यनेन च मनः स्थैर्य शरीरममत्वपरित्यागश्चेति ध्वनितम् ||२७|| २९० यदि ऐसा हैं तो सुगति किसके लिए सुलभ होती है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं'तवो गुणपहाणस्स' इत्यादि । जो आठ कर्मोंकों भस्म करनेवाले षष्ट अष्टम आदि तप- गुणसे प्रधान हैं, सरल-बुद्धी हैं । तथा क्रोधादि कषाय के निग्रह और सावध व्यापारके त्याग स्वरूप संयममें लीन हैं, अनुकूलप्रतिकूल- परीषहोंको जीतनेवाले हैं, उन मोक्षके मार्ग - रत्नत्रय - के आराधक मुनियोंको सिद्धिस्वरूप सुगतिकी प्राप्ति सुलभ है । 'तवो गुण पहाणस्स ' इस पदसे इन्द्रियों तथा मनका जीतना सूचित किया है । 'उज्जुमइ' पदसे यह सूचित किया गया है कि मोक्षार्थीको कपट और कदाग्रहसे रहित होना चाहिए । ' स्वतिसंजमरयस्स' पदसे सूचित होता है कि वही संयम फलदाता होता है जो क्षमासे युक्त हो । 'परीस हे जिणंतस्स' पदसे मनकी स्थिरता शरीरकी ममताका त्याग बतलाया है ॥२७॥ જો એમ છે તા સુગતિ કેાને માટે સુલભ હૈાય છે? એવી જિજ્ઞાસા થતાં, કહે છેनवोगुणपाणस्स छत्याहि. જે આઠ કર્મોને ભસ્મ કરનારા છઠ્ઠ અઠ્ઠમ આઢિ તપશુથી પ્રધન છે, સરલ-બુદ્ધિ છે, તથા ક્રાધાક્રિકષાયના નિગ્રહ અને સાવદ્ય વ્યાપારના ત્યાગસ્વરૂપ સંયમમાં લીન છે, અનુમૂળ-પ્રતિકૂળ-પરીષહાને જીતવાવાળા, એવા મેક્ષના માર્ગરત્નત્રયના આરાધક મુનિને સિદ્ધિસ્વરૂપ સુગતિની પ્રાપ્તિ સુલભ છે. तवगुणपहास मे शब्दथी धद्रियों तथा भनने तवानुं सूचित रे छे. उज्जुमह शब्थी सूयव्यु छे से मोक्षार्थी अने हाथी रहित थवु हाये. खंतिसंકામચરણ એ પદથી સૂચિત થાય છે કે તેજ સંયમ ફળદાતા થાય છે કે જે ક્ષમાથી युक्त डाय. परीसहे जिणंतस्स पहथी भननी स्थिरता तथा शरीरनी भभताना त्याग अतावे छे. (२७) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अघ्ययन ४ गा० २८-२९ चारित्रस्य महत्वम् उपसंहारश्च चारित्रस्य महत्त्वमाह-'पच्छावि ते' इत्यादि । १० १२ १३ १५ मूलम्-पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई । जेसि पिओ तो संजमा य खंती य बंभचेरं च ॥२८॥ छाया--पश्चादपि ते प्रयाताः, क्षिप्रं गच्छन्त्यमरभवनानि । येषां प्रियं तपः संयमश्च, शान्तिश्च ब्रह्मचर्य च ॥२८॥ चारित्र का महत्त्व बतलाते हैं-- सान्वयार्थः-जेसिं जिनको तवो-तपस्या संजमो-संयम य-और खंती क्षमा य= तथा बंभचेरंब्रह्मचर्य पिओ-प्रिय है, ते = वे पच्छावि = पश्चातुभी अर्थात् एकवार चारित्र खण्डित हो जानेपर वापस, अथवा वृद्धावस्थामें भी पयाया= आये हुए अर्थात् चढते परिणामोंसे संयम स्वीकार कियेहुए खिप्पं = शीघ्र अमरभवणाई = स्वर्ग अथवा अपवर्ग-मोक्ष-कोभी गच्छन्ति = प्राप्त हो जाते हैं ॥२८॥ ___टीका-येषां (श्रमणानां) तपः = अनशनादि द्वादशविधम्, संयमः = सावधव्यापारविरतिलक्षणः सप्तदशविधः, क्षान्तिः = अमर्पोत्पादकाऽऽक्षेपवचनादिसहन स्वरूपा, ब्रह्म. चय = विषयसेवनपरिहारलक्षणम्, चकाराः समुच्चायार्थाः, प्रियम = अभीष्टं रुचिरमित्यर्थः ते (श्रमणाः) पश्चादपि = चारित्रखण्डनानन्तरमपि वृद्धत्वेऽपि वा प्रयाताः = प्रवृद्धभावेन गृहीतसंयमाः सन्त आर्द्रकुमार-पुण्डरीकादिवत् , क्षिप्रं = शीघ्रम् अमरभवनम् = न म्रियन्त इत्यमराः = सिद्धा आयुषोऽभावत्, तेषां भवनम् = आलयः सत्ता वा तत् सिद्धक्षेत्र चारित्रको महत्त्व दिखाते हैं-'पच्छोवि ते-इत्यादि ।। जिनश्रमणोंको अनशन आदि बारह प्रकारका तप, सावध व्यापारका त्यागरूप सत्रह प्रकारका संयम, क्रोधजनक आक्षेपपूर्ण वचनोंका सहन करनारूप क्षान्ति, सर्वथा मैथुनका परित्याग, ये प्रिय होते हैं, वे कदाचित् मोहकर्म के उदयसे खण्डित-चारित्र होकर भी, अथवा वृद्ध होनेपर भी चढते परिणामोंसे आर्द्रकुमार, पुण्डरीक आदिके समान फिर संयमको ग्रहण करके शीघ्रही अमर भवन-(सिद्धिस्थान अथवा स्वर्गलोक) को प्राप्त होते हैं । 'अमरभवन' के दो अर्थ होते हैं-(१) जहां मृत्यु नहीं होती ऐसा स्थान मोक्ष है, क्योंयारित्रनु महत्त्व मताव छ-पच्छावि ते. छत्याहि. જે શ્રમણોને અનશન આદિ બાર પ્રકારના તપ, સાવધ વ્યાપારના ત્યાગરૂપ સત્તર પ્રકારને સંયમ, ક્રોધજનક અક્ષેપપૂર્ણ વચનેને સહન કરવારૂપ ક્ષાતિ, સર્વથા મૈથુનનો પરિ. ત્યાગ, એ પ્રિય હોય છે, તેઓ કદાચિત મેહકર્મના ઉદયથી ખંડિતચારિત્ર થઈને પણ અથવા વૃદ્ધ હોવા છતાં પણ ચડતા પરિણામેથી આદ્રકુમાર, પુંડરીક આદિની પેઠે ફરી સંય મને ગ્રહણ કરીને શીધ્ર અમરભવન (સિદ્ધસ્થાન અથવા સ્વર્ગેલેક) ને પ્રાપ્ત થાય છે. અમરભવન' ના બે અર્થ થાય છે. (૧) જ્યાં મૃત્યુ હોતું નથી એવું સ્થાન મેક્ષ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ९ १० ११ ૨૧૨ श्रीदशवकालिकसूने सिद्धस्वरूपं वेत्यर्थः । अथवा न म्रियन्ते अकालमृत्युना इत्यमराः = देवास्तेषां भवनं तत् स्वर्गलोकमित्यर्थः । बहुवचनं चोभयार्थद्योत नार्थम् , गच्छन्ति = यान्ति ॥२८॥ अथवा न म्रियन्ते अकालमृत्युना इत्यमराः = देवास्तेषां भवनं तत् स्व उपसंहारमाह-'इच्चेयं' इत्यादि। मूलम्-इच्चेयं छज्जीवणियं, सम्मदिट्ठी सया जए । दुल्लहं लहित्तु सामन्नं, कम्मुणा न विराहिज्जासि-त्तिबमि २९॥ गया--इत्येतं षड्जीवनिकाय, सम्यग्दृष्टिः सदा यतः । दुर्लभ लब्ध्वा श्रामण्यं, कर्मणा न विराधयेत् ॥२९॥ इति ब्रवीमि । उपसंहार करते हैं-- सान्वयार्थः-सम्मदिट्ठी= सम्यक्त्वी मनुष्य सया सदैव जए-यतनावान् होकर दुल्लह -दुर्लभ ऐसे सामन्नं साधुपनेको लहित्तु प्राप्त करके इच्चेयं-इस पूर्वोक्त स्वरूपवाले छज्जीवणियं षड्जीवनिकाय-छह प्रकारके जीवसमूह-की कम्मुणा मन वचन कायके व्यापारसे न विराहिज्जासि-विराधना न करे तिबेमि-श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि मैंने भगवान् महावीर स्वामीसे जैसा सुना है वैसा ही तुमसे कहता हूँ ।२९। ॥इति चतुर्थाध्यनस्य शब्दार्थः ॥४॥ टीका-सम्यग्दृष्टिः सम्यक्-यथाऽवस्थितत्त्वेनाऽविपर्यस्ता दृष्टि:-तत्त्वरुचिरभिप्रायो वा यस्य स तथोक्तः, सम्यग्दर्शनवानित्यर्थः, सदा-नित्यं यतः यतनावान् दुर्लभं-दुष्प्रापं, श्रमण्य-श्रमणभावं लब्ध्वा सम्प्राप्य इत्येतम्-उक्तलक्षणम्, षड्जीवनिकायं कर्मणा कि वहां आयुकर्मका सर्वथा अभाव है, और (२) अमरभवन स्वर्गलोकको भी कहते हैं, क्योंकि स्वर्गलोकमें अकाल मृत्यु नहीं होती ॥२८॥ उपसंहार करते हैं-'इच्चेयं' इत्यादि । तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव दुर्लभ श्रमणताको प्राप्त करके सदैव पहले कहे हुए स्वरूपवाले षड्जीवनिकायकी मन वचन कायसे एकदेशसे या सर्व देशसे છે, કારણ કે ત્યાં આયુકર્મને સર્વથા અભાવ હોય છે. અને (૨) અમરભવન સ્વર્ગલેકને પણ કહે છે, કારણ કે સ્વર્ગલોકમાં અકાલમૃત્યુ થતું નથી (૨૮) ५सार २ छ-इच्चेयं. त्यादि. તના યથાર્થ સ્વરૂપનું શ્રદ્ધાન કરવાવાળે સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ દુર્લભ શ્રમણતાને પ્રાપ્ત કરીને સદૈવ પહેલા કહેલા સ્વરૂપવાળા ષડૂજીવનિકાયની મન વચન કાયાથી એકદેશ યા સર્વરશે કરીને કદાપિ વિરાધના ન કરેપીડા ન ઉપજાવે. શ્રીસુધર્માદવામી જંબુસ્વામીને કહે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० २९ उपसंहारः २९३ मनोवाकायव्यापारेण न विराधयेत् देशतः सर्वतो वा न प्रमर्दयेत् न पीडयेदित्यर्थः । 'इति ब्रवीमी'-ति प्राग्वत् ॥२९॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलित-ललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्ध गद्य-पद्य-नैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दकशाहूछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूषितपूज्य-श्रीघासीलालव्रतिविरिचितायां श्रोदशवकालिकसूत्र-- स्याऽऽचारमणिमञ्जूषाख्यायां व्याख्यायां चतुर्थ 'षड्जीवनिकाया'-ऽऽख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥४॥ कभी विराधना न करे 'पीड़ा न पहुँचावे ।। श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूवामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान्श्री महावीरस्वामीसे जैसे मैने सुना है वैसा ही तुझे कहा है-इत्यादि परले के समान समझ लेना ॥२९॥ इति “षड्जीवनिकाया" नामक चौथा अध्ययनका हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ॥४॥ છેહે જંબૂ! અંતિમ તીર્થકર શ્રી ભગવાન મહાવીર સ્વામી પાસેથી જેવું મેં સાંભળ્યું છે તેવું જ તને કહ્યું છે ઇત્યાદિ પહેલાંની પેઠે સમજી લેવું. (૨૯) ઇતિ “ શજીવનિકાયા” નામક ચેથા અધ્યયનને ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સમાસ (૪) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ श्रीदशवकालिकसूत्रे अथ पञ्चमाध्ययनम् । गतं चतुर्थाध्ययनम्, तत्र च षड्जीवनिकायरक्षणलक्षणो भिक्षोराचारः प्रतिपादितः, स हि शरीरस्थित्यधीनपालनकः, शरीरं चाक्षम्रक्षोणमन्तरेण शकटमिव इङ्गालं विना बाष्पयन्त्रमिव जठरानलतापव्याधिबधोपशमनौषधीभूतमाहारमन्तरेण वर्तितुमक्षममतोऽस्मिन् पश्चमाध्ययने 'संयमिना कदा, कस्मात्, केन विधिना, कीदृगाहारो ग्रहीतव्यः' इति सविस्तरं प्रतिपादयितुमुपक्रमते____ यद्वा--चतुर्थाध्ययने मूलगुणाः सन्दर्शिताः, इह तु मूलगुणपोषकोत्तरगुणान्तर्गता पिण्डैषणाऽभिधीयते । पिण्डैषणा च पिण्डस्य-समयभाषया प्रसिद्धस्यान्नपानस्यैषणारूपा, तत्र पिण्डनं पिण्ड:-एकत्र स मुदितबहुपदार्थसमुदायः, स द्विविधः-द्रव्यपिण्डो भावपिण्ड __पांचवां अध्ययन । चौथे अध्ययनमें षडूजीवनिकायकी रक्षा-रूप भिक्षुका आचार प्रतिपादित किया गया है । इस आचारका पालन शरीरकी स्थिति पर निर्भर है । जैसे विना औंगन (वांगण) के गाडी नहीं चल सकती, विना कोयलेके रेलगाड़ी नहीं चल सकतो, उसी प्रकार जठराग्निके संताप रूप व्याधिकी बाधाको शान्त करनेके लिए औषधिके समान आहारको ग्रहण किये विना शरीरको स्थिति नहीं रह सकती। इसलिए पांचवें अध्ययनमें विस्तारसे यह प्रतिपादन करते हैं कि 'संयमीको कब, किससे किस विधिसे, और किस प्रकारका आहार ग्रहण करना चाहिये ?'। अथवा-चौथे अध्ययनमें मूल गुणोंका वर्णन किया गया हैं, इस अध्ययनमें मूलगुणोंको पुष्ट करनेवाले उत्तर गुणोंमेंसे पिण्डैषणाका कथन करते हैं । 'पिण्ड' शास्त्रीय भाषामें अन्न-पान नामसे प्रसिद्ध है, उसकी एषणा करना 'पिण्डषणा' है । एक स्थानपर बहुत पदार्थोंका समुदाय होना पिण्ड कहलाता है । पिण्ड दो प्रकारका है-(१) द्रव्यपिण्ड और (२) भावपिण्ड अशन પાંચમું અધ્યન. ચેથા અધ્યયનમાં પહૂછવનિકાયની રક્ષા૫ ભિક્ષુને આચાર પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યો છે. આ આચારનું પાલન શરીરની સ્થિતિ પર નિર્ભર છે. જેમ ઉંજણ વિના ગાડું ચાલી શકતું નથી અને કેયેલા વિના રેલગાડી ચાલી શકતી નથી. તેમ જઠરાગ્નિના સંતાપ રૂપ વ્યાધીની બાધાને શાન્ત કર્યા વિના શરીરની સ્થિતિ રહી શકતી નથી, તે માટે પાંચમા અધ્યયનમાં વિસ્તારથી એ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે “સંયમીએ કયારે, કેની પાસેથી, કેવી વિધિથી અને કેવા પ્રકારને આહાર ગ્રહણ કરે જોઈએ ? અથવા ચેથા અધ્યયનમાં મૂળ ગુણનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, આ અધ્યયનમાં મૂળ ગુણને પુષ્ટ કરનારા ઉત્તર ગુણેમાંથી પિડૅષણનું કથન કરવામાં આવે છે. “પિંડ' શબ્દ શાસ્ત્રીય-ભાષામાં અન્નપાનના નામે ઓળખાય છે, તેની એષણા કરવી એ પિડેષણ કહે. વાય છે. એક સ્થાન પર ઘણું પદાર્થોને સમુદાય હવે એ “પિડ' કહેવાય છે, પિંડ બે ४॥२॥ जय छे, (१) द्र०य-पिंड अने (२) भावपि. सशन माहिन द्र०यपि ४ छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा० १ भक्तपानगवेषणाविधिः २९५ थ, तत्र क्षुधाविघातकत्वेनाशनादिरूपो द्रव्यपिण्डः, कर्मविघातकत्वेन ज्ञानादिलक्षणः प्र. शस्तभावपिण्डः, अप्रशस्तभावपिण्डस्त्वसंयमादिरूपः प्रकृतानुपयोगित्वादुपेक्षितः । द्रव्यपिण्डो हि प्रशस्तभावपिण्डपरिषोषकस्तं विना तस्यासम्पाद्यत्वात्, तथाहि-ज्ञानाद्यात्मकप्रशस्तभावपिण्डस्याराधना शरीरस्थित्यधीना, शरीरपरिस्थितिश्चाहारं विना न यथावत्साधनायालम्, आहारादिकश्च द्रव्यपिण्ड एवेति सिद्धं द्रव्यपिण्डस्य प्रशस्तभावपिण्डपरिपोषकत्वम् तस्य च सावधनिरवद्यभेदाभ्यां द्वैविध्येऽपि संयमिभिर्निरवद्यपिण्ड एव ग्राह्य इति तदेषणाधिकारः-'संपत्ते' इत्यादि । मूलम्-संपत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंता अमुच्छिओ । इमेग कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ॥१॥ छाया-सम्प्राप्ते भिक्षाकालेऽसम्भ्रान्तोऽमूच्छितः । अनेन क्रमयोगेन, भक्तपानं गवेषयेत् ॥१॥ ॥अथ पञ्चमाध्ययनम् ॥ सान्वयार्थः-मुनिको आहारपानी लेनेकी विधि कहते है--भिक्खकालम्मि गोचरीका समय संपत्ते होनेपर असंभंतो-उद्वेगरहित (और) अमुच्छिओ आसक्तिरहित होआदिको द्रव्यपिण्ड कहते हैं, क्योंकि उससे क्षुधाका नाश होता है । ज्ञानादि प्रशस्त-भावपिण्ड है, क्योंकि वह कर्मोंका नाश करनेवाला है, अप्रशस्त-भावपिण्ड असंयमादिरूप है, उसका यहाँ अधिकार नहीं है। द्रव्यपिण्ड, प्रशस्त-भावपिण्डका पोषक है, क्योंकि उसके विना प्रशस्त-भावपिण्डकी प्राप्ति नहीं होसकती, अर्थात् ज्ञानादिरूप प्रशस्त-भावपिण्डकी आराधना शरीरको स्थितिके अधीन है, और शरीरकी स्थिति आहारके विना नहीं हो सकती । आहार आदि द्रव्यपिण्ड ही है । इससे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यपिण्ड प्रशस्त भावपिण्डका पोषक है । द्रव्यपिण्ड, सावध भी होता है और निरवद्य भी होता है । संयमीको निरवद्य पिण्ड ही ग्रहण करना चाहिए; इसलिए द्रव्यपिण्डकी एषणाका अधिकार आरम्भ किया जाता है 'संपत्ते' इत्यादि । કારણ કે તેથી સુધાનો નાશ થાય છે. જ્ઞાનાદિ એ પ્રશસ્ત–ભાવપિંડ છે, કારણ કે તે કર્મોને નાશ કરવાવાળું છે, અપ્રશસ્ત-ભાવપિંડ અસંયમાદિરૂપ છે, એનો અહીં અધિકાર નથી. દ્રવ્યપિંડ એ પ્રશસ્ત–ભાવપિંડને પિષક છે. કારણ કે તેના વિના પ્રશસ્ત-ભાવપિંડની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. અર્થાત જ્ઞાનાદિ-રૂપ પ્રશસ્ત-ભાવપિંડની આરાધના શરીરની સ્થિતિને અધીન છે, અને શરીરની સ્થિતિ આહાર વિના હોઈ શક્તી નથી. આહારાદિ દ્રવ્યપિં. ડજ છે તેથી એ સિદ્ધ થયું કે દ્રવ્યપિંડ પ્રશસ્ત ભાવલિંડને પિષક છે. દ્રવ્યપિંડ સાવદ્ય પણ હોય છે અને નિરવા પણ હોય છે. સંયમીએ તે નિરવદ્યપિંડ જ ગ્રહણ કર જોઈએ मेरा भाटे द्रव्यपि उनी अषयानो म४ि२ प्रारवामां आवे छे-संपत्ते भिक्खकालम्मित्याle. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे कर इमेण कमजोगेण इस आगे बताई जानेवाली विधिसे भत्तपाण-भात-पानीकी गवेसएगवेषणा करे॥ टीका--भिक्षाकाले गोचरीसमये, सम्प्राप्ते स्वाध्यायाधनन्तरं द्रव्यक्षेत्रकालमावानुकूलतया समायाते. मुनि'-रिति शेषः, असम्भ्रान्तः यत्किश्चिन्निमित्तजनितचित्तव्याक्षेपजन्यत्वरारहितः-अनाक्षिप्तचित्त इत्यर्थः, इर्योपयोगवानिति भावः, 'कदा कुत्र वाऽशनादिप्राप्तिर्भविष्यती' त्यादिचिन्ताऽऽहितचाश्चल्यरहित इति यावत् , अमूच्छितः आहारादौ मनोरमशब्दादिविषयेषु वा नासक्तः सन् अनेन वक्ष्यमाणेनैतदध्ययनव्यावर्णितस्वरूपेण क्रमयोगेन प्रकारेण भक्तपानं भक्तं च पानं चेत्यनयोः समाहारे भक्तपानम् , भक्तम् = ओदनादिकम् , पानं द्राक्षादिजलं मुनियोग्यं गवेषयेत् अन्वेषयेत् (अन्विच्छेत्) । संपत्ते इत्यनेन मुनिना यथासमयं कार्य सम्पादनीय' मित्याविष्कृतम् । 'असंभंतो' इत्यतो मनः स्थैर्य विधेयमित्युपदिष्टम् । 'अमुच्छिओ' इत्यनेन विषयगृध्नुत्वमपाकृतम् ॥१॥ गवेषणाविधिमाह-'से गामे वा' इत्यादि। मूलम्-से गामे वा नयरे वा, गोयरग्गगओ मुणी । चरे मंदमणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेयसा ॥२॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावके अनुसार स्वाध्याय आदि क्रियाओंके पश्चात् जब गोचरीका समय हो तब मुनि किसी कारणवश उत्पन्न हुए चित्तविक्षेपजन्य भ्रान्तिरहित होकर, अर्थात् ईर्या (गमन में उपयोग रखकर, मथवा 'कब और कहाँ अशन आदिकी प्राप्ति होगी?' इस प्रकारकी चिन्ताजन्य चंचलतासे रहित होकर आहार तथा मनोज्ञ शब्दादि विषयोंमें आसक्त न होता हुआ, जैसा इस अध्ययनमें वर्णन किया गया है उस विधिसे, मुनिके योग्य ओदन आदि भक्त तथा दाख आदिका धोवनरूप पानकी गवेषणा करे। __ गाथामें 'संपत्ते' पदसे यह सूचित किया है कि मुनिको समय पर ही कार्य करना चाहिए। असंभंतो' पदसे यह प्रगट किया है कि साधुको मनकी स्थिरता रखनी चाहिए । 'अमुच्छि દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવને અનુસાર સ્વાધ્યાયાદિ ક્રિયાઓની પછી જ્યારે ગોચરીને સમય થાય ત્યારે મુનિ કેઈ કારણવશ ઉત્પન્ન થએલા ચિત્તવિક્ષેપથી જન્મેલી ભ્રાન્તિથી રહિત થઈને અર્થાત્ ઈર્યા (ગમન) માં ઉપયોગ રાખીને, અથવા કયારે અને કયાં અશન આદિની પ્રાપ્તિ થશે ? એ પ્રકારની ચિંતાજન્ય ચંચલતાથી રહિત થઈને આહાર તથા મનોજ્ઞ-શબ્દાદિ વિષયમાં આસક્ત ન થતાં. આ અધ્યયનમાં વર્ણવ્યા પ્રમાણેની વિધિથી, મુનિને ગ્ય એદન આદિ ભકત તથા દ્રાક્ષ આદિના ધાવણરૂપ. પાનની ગવેષણ કરે. ગાથામાં સંપૂરે શબ્દથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે મુનિએ સમય પર જ કાર્ય કરવું જોઈએ અમિત શબ્દથી એમ પ્રકટ કર્યું છે કે સાધુએ મનની સ્થિરતા રાખવી नये अमुच्छिओ श६था विषयमा मासातनु नि२१४२५४ ४२११मा मा०यु छे. (१) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन • ५ उ. १ गा० २ गोचर्या चित्तस्थैर्योपदेशः २९७ छाया-स ग्रामे वा नगरे वा, गोचराग्रगतो मुनिः । चरेन्मन्दमनुद्विग्नोऽव्याक्षिप्तेन चेतसा ॥२॥ सान्वयार्थ:--से-वह मुणी साधु गामे-गाँव वा अथवा नगरे=नगरम वा=निश्च यसे गोयरग्गगो निर्दोष भिक्षाके लिए गया हुआ अणुव्विग्गो-उद्वेगरहित होता हुआ अवक्खित्तेण शान्त-स्थिर चेयसा=चित्तसे मंद=इर्यासमिति सोधता हुआ चरे= जावे ॥२॥ टीका--से-अथ = पिण्डगवेषणासमये, यद्वा 'से' इति तच्छब्दस्य प्रथमैकवचनरूपं तेन सा=प्रक्रान्तः मुनिः = मुणति-अतिजानीते सर्वसावधव्यापारोपरतिमिति, मन्यते-जानाति जिनाज्ञयाऽनेकान्तात्मकजीवाऽजीवादिपदार्थसार्थमिति वा 'मुनिः अनगारः, स च द्विविधः-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः-मुनिकर्त्तव्यक्रियाकलापविकलो लिङ्गमात्रोपजीवी, भावतस्तु मोहनीयकर्मक्षय-क्षयोपशमसमुद्भूतज्ञानादिरत्नत्रयप्रकटीभूतात्मस्वरूपः, प्रकृते च भावमुनिः प्रसङ्गगम्यः । १ आये मुण प्रतिज्ञाने' अस्मादौणादिक इन् , पृषोरदादित्वाण्णस्य नः । द्वितीये'मन ज्ञाने' इति धातोः 'मनेरुच्चे'-स्यौणादिकसूत्रेण इन्प्रत्ययः स च कित् अकारस्योकारादेशश्च । यद्वा 'मुणी' इति प्राकृतसमः संस्कृत एव, शब्दसिद्धिरप्युक्तैव, तदा छायायां मुणिः', इत्यपि समावेशम हेति ।। ओ' पदसे विषयोंमें आसक्तिका निराकरण किया गया है ॥१॥ अब गवेषणाकी विधि बताते हैं-'से गामे वा' इत्यादि । 'मुनि' शब्दके अनेक अर्थ हैं-(१) जो समस्त सावध व्यापारके त्यागकी प्रतिज्ञा करते हैं उन्हे मुनि कहते हैं । (२) जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञाके अनुसार जीव अजीव आदि पदार्थों को अनेकान्तस्वरूप जानने वाले मुनि कहलाते हैं । मुनि दो प्रकारके होते हैं-(१) द्रव्यमुनि और (२) भावमुनि । मुनियोंके आचार का पालन न करनेवाला मुनिवेषधारी द्रव्यमुनि कहलाता है। मोहनीय कर्मके क्षय और क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयके द्वारा जिनकी आत्माका स्वरूप प्रकट हो गया है उन्हें भावमुनि कहते हैं । यहां भावमुनिका अधिकार समझना चाहिए । वेगवषयानी विवि मतावे छे-से गामे वा० छत्याल, | મુનિ શબ્દના અનેક અર્થો છે. (૧) જે સર્વ સાવદ્ય વ્યાપારના ત્યાગની પ્રતિજ્ઞા કરે છે–તેને મુનિ કહે છે. (૨( જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞા અનુસાર જીવ અજીવ આદિ પદાર્થો ને અનેકાન્તસ્વરૂપ જાણવાવાળા મુનિ કહેવાય છે. મુનિ બે પ્રકારના હોય છે. (૧) દ્રવ્યમુનિ અને (૨) ભાવમુનિ મુનિઓના આચારનું પાલન ન કરનારા મુનિવેષધારી દ્રવ્ય મુનિ કહેવાય છે, મેહનીય કર્મના ક્ષય અને ક્ષે પશમથી ઉત્પન્ન થએલા સમ્યગજ્ઞાન સમ્યગદર્શન અને સમ્યકૂચારિત્રરૂપ રત્નત્રયના દ્વારા જેના આત્માનું સ્વરૂપ પ્રકટ થઈ ગયું છે. તેને ભાવમુનિ કહે છે. અહીં ભાવમુનિને અધિકાર સમજ જોઈએ, ३८ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ग्रामे वा = अथवा नगरे, द्वितीय 'वा' शब्दात् खेटकर्वटादौ, गोचराग्रगतः गोवि चरणं = यथायोग्यं स्वल्पस्वल्पग्रहणं गोचरः, अग्रः = आधाकर्मादिदोषरहिततया श्रेष्ठः, स चासौ गोचरश्चेति गोचराग्रः, आर्षत्वाद्विशेषण पूर्वनिपाताभावः, अग्रगोचर इत्यर्थः, तत्र गतः = वर्त्तमानः गोचराग्रगतः अव्याक्षिप्तेन = स्थिरेण भिक्षागतसकलदोषोपयोगवतेत्यथः, चेतसा = चित्तेन अनुद्विन:- अलाभादिपरीषहजनितक्षोभरहितः, मन्दं = शनैर्यथास्यात्तथा ईर्यापथं शोधयन्नित्यर्थः, चरेत् - गच्छेत् । 'गोयरग्गगओ' इत्यनेन नवकोटिविशुद्धाहारो ग्रहीतव्य इति सूचितम् । 'अव्वक्खित्तण चेयसा' इत्यनेन चित्तस्थेयणैव भिक्षादिशुद्धिर्भवतीति ध्वनितम्। 'अणुब्बिग्गो' इत्यतः परीषहसहनसामर्थ्यं बोधितम् ॥२ गोचरीगमनप्रकारानाह - 'पुरओ' इत्यादि । २९८ ४ २ १० मूलम् - पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महि चरे । ८ ८ वज्र्ज्जतो बीहरियाई, पाणे यदगमटियं ॥ ३ ॥ छाया - पुरतो युगमात्रया, प्रेक्षमाणो महीं चरेत् । वर्जयन् बीजहरितानि, प्राणांश्च दकमृत्तिकाम् ||३|| गोचरी में चलने की विधि कहते हैं सान्वयार्थ:- पुरओ = = सामने जुगमायाए = धूसर प्रमाण दृष्टिसे महि = पृथिवी वह भावमुनि पिण्ड - गवेषणका समय होने पर ग्राम, नगर खेडा, कर्वट आदि में यथायोग्य थोड़ा-थोड़ा निर्दोष आहार ग्रहण करता हुआ भिक्षा के समस्त दोषोंका उपयोग रखनेवाले अर्थात् अव्याक्षिप्त चित्तसे अलाभ आदि परीषह जनित क्षोभसे रहित होकर ईर्यापथ शोधते हुए मन्दगति से चले । गोयरग्गगओ' पदसे यह सूचित हुआ है कि साधुको नवकोटिविशुद्ध आहार लेना चाहिए । 'अव्वक्खित्ते यसा' इससे यह द्योतित होता है कि चित्तको स्थिरता से ही भिक्षाकी शुद्धि निभ सकती है । 'अणुव्विग्गो' पदसे परीषह सहनेका सामर्थ्य प्रगट किया है || २ || એ ભાવ મુનિ પિ’ડગવેષણાના સમય થતાં ગ્રામ, નગર, ગામડું, કમટ આદિમાં યથાચેાગ્ય થોડા થાડા નિર્દોષ આહાર ગ્રહણ કરતાં કરતાં, ભિક્ષાના બધા દોષાના ઉપયેગ રાખવા વાળા અર્થાત્ અવ્યાક્ષિપ્ત-ચિત્તથી અલાભ આદિ પરીષહથી ઉત્પન્ન થતા ક્ષેાભથી રહિત થઇને ઇર્ષ્યાપથ શેાધતા મંદ ગતિએ ચાલે, જોયો શબ્દથી એમ સૂચિત થયુ' છે કે સાઘુએ નવકેટિએ વિશુદ્ધ આહાર લેવા જોઇએ. અપિત્તળ ચેયના એથી એમ પ્રકટ થાય છે કે ચિત્તની સ્થિરતાથી જ लिक्षानी शुद्धि नली शडे छे, अणुव्विग्गो शब्दथी परीषडु सहवानु सामर्थ्य प्रउट यु छे. (२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __२९९ ८ ९ १० अध्ययन ५ उ. १ गा० ३ गोचर्या गमनविधिः को पेहमाणो देखता हुआ बीयहरियाई-बीज. हरी, पाणे = द्वीन्द्रियादिक प्राणी य = और दगमट्टियं – सचित्त जल तथा सचित्त मिट्टीको वजंतो = वर्जता हुआ चरे = चले ॥३॥ टीका-युगमात्रया-जसरप्रमाणया तत्प्रमाणप्रसृतयेत्यर्थः 'दृष्टये ति शेषः। वस्तुतस्तु 'क्वचिद्वितीयादेः' इति नियमादत्र द्वितोयार्थे पष्ठी, तेन 'जुगमायाए' इत्यस्य 'युगमात्रा' मितिच्छाया, तथाच-युगमात्रां= प्रोक्तार्था स्वशरीरप्रमितामिति भावः, महीं= भूमि मार्गभूमि मिति भावः, पुरतः-स्वाग्रतः प्रेक्षमाणः सम्यगवलोकयन् बीजहरितानि= प्रसिद्धानि, प्राणान् द्वीन्द्रियादिपाणिनः, दकमृत्तिकां-सचित्तं जलं मृत्तिकां च वर्जयन् = परिहरन् चरेत् गच्छेत् ॥३॥ मूलम्-ओवायं विसमं खाणु, विजलं परिवज्जए । संकमेण न गच्छिज्जा विज्जमाणे परक्कमे ॥४॥ छाया-अवपातं विषमं स्थाणु, विजलं परिवर्जयेत् । संक्रमेण न गच्छेत् , विद्यमाने पराक्रमे ॥४॥ सान्वयार्थ:--परकमे-दूसरे मार्गके बिज्जमाणे होनेपर (साधु) ओवायं जिस मार्गमें गिर पड़नेकी शंका हो विसमं खड्डे आदिके कारण विकट हो खाणु-काटे हुए धान्यके डंठलोंसे युक्त (और) विजलं कीचड़वाला हो उस मार्गको परिवज्जए छोड़े, तथा संकमेण कीचड आदिके कारण जिस मार्गमें ईट काठ आदि लांघनेके लिए रखे हों उससे भी न गच्छेज्जा नहीं जावे ॥४॥ टीका -- 'ओवायं.' इत्यादि । 'परक्कमे' इति आक्रमणमाक्रमः अवलम्बनं परश्वासावाक्रमश्च पराक्रमः परस्याऽऽक्रमो वा पराक्रमस्तस्मिन् , यद्वा 'पराक्रमे' इतिच्छाया, ततश्च परश्चासौ क्रमश्च परक्रमस्तस्मिन् 'सर्वथा गत्यन्तरे' इत्यर्थस्तथा च-पराक्रमे अथवा गोचरीके लिए गमनविधि बताते हैं-'पुरेओ' इत्यादि । अपने शरीर प्रमाण रास्ता सामने भली भाँति अवलोकन करता हुआ, बीज, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय आदि प्राणी सचित्त नल और सचित्त मृत्तिका को बचाता हुआ गमन करे ॥३॥ 'ओवायं० इत्यादि । पर अवलम्बको यहाँ पर परक्रम अथवा पराक्रमसे कहा गया है अत एव अर्थ यह है कि दूसरे मार्गके रहते हुए, जिसमें चलने से गिर पड़नेकी संभावना हो, दुर्गम गायश भाटे मनविवि मताव छ-पुरओ त्याही પિતાના શરીર પ્રમાણે રસ્તા સામે સારી રીતે અવલોકન કરતાં, બીજ, વનસ્પતિકાય, કીન્દ્રિયાદિ પ્રાણી, સચિત્ત જળ ચને સચિત્ત માટીને બચાવી લેતાં ગમન કરે. (૩) ओवायं० ७त्यादि. ५२ स मन मडी ५२।म अथवा ५॥मयी उपामा मावस છે, એથી એવો અર્થ થાય છે કે બીજો માર્ગ હોવા છતાં, જેમાં ચાલવાથી પડી જવાની શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० श्रोदशवैकालिकसूने परक्रमे उपाये विद्यमाने वर्तमाने सति अवपातः स्खलनस्थानं सत्यप्यालोके येन सञ्चरणे स्खलनमवश्यसम्भाव्यं तम् , विषम =दुर्गमत्वाद्विकटं मार्ग स्थाणु=लूनसस्यादिस्थुडं तद्भहुलं क्षेत्रादिमार्गमित्यर्थः, विजलं-विगतं जलं यस्मात्तत् तथोक्तं पङ्किलस्थलं परिवर्जयेत् परित्यजेत् , संक्रमेण-संक्रम्यते-समुल्लड्ध्यते जलकर्दमादिबहुलविषमस्थानं येन स संक्रमः इष्टका-काष्ठ-पाषाणादिनिर्मितमार्गविशेषस्तेन न गच्छेत्=न सञ्चरेत् । 'विज्जमाणे परक्कमे' इत्यनेनोपायान्तराभावे नायं प्रतिषेध इत्यपवादः सूचितः॥४॥ तत्र गच्छतो हानिमाह- पवडते' इत्यादि । मूलम्-पवडते व से तत्थ पक्खलंते व संजए । ११८ हिंसेज्ज पाणभूयाई तसे अदुव थावरे ॥५॥ छाया–प्रपतंश्च स तत्र प्रस्खलँश्च संयतः । हिंस्यात्प्राणभूतानि, सान् अथवा स्थावरान् ॥५॥ होनेके कारण विकट हो, जिसमें काटे हुए ज्वार आदिके डंठल हों, और जो कोचड़वाला हो, जल-कीचड आदिकी अधिकता होनेसे लांघनेके रिए ईट, काष्ठ, पत्थर आदि रखे हुए हों, उस विषम मार्गसे गमन न करे ।। 'विज्जमाणे परक्कमे' इस पद से यह सूचित किया है कि दूसरा मार्ग न हो तो यह निषेध नहीं है-अर्थात् अन्य मार्गके अभावमें ऐसे मार्गसे भी जा सकते हैं ॥४॥ ऐसे मार्गमें चलनेसे होनेवाली हानी बताते हैं-'पवडते.' इत्यादि । यदि अवपात आदि पूर्वोक्त मार्गोंमें गमन करनेसे गिर पड़े या रपट जावे तो द्वीन्द्रिय आदि स या पृथिवीकायिक आदि स्थावर जीवोंकी अथवा दोनों प्रकारके जीवोंकी हिंसा होती है तथा गिरने आदिसे आत्मविराधना भी अवश्य होती है ॥५॥ - સંભાવના હોય, દુર્ગમ હોવાને લીધે વિકટ હોય, જેમાં કાપેલી જુવાર આદિનાં ઠુંઠા હાય, અને જે કીચડવાળે હોય, પાણ-કીચડ વગેરે વધુ હોવાના કારણે ઓળંગવા માટે ઈટ, લાકડું કે પત્થર આદિ રાખેલાં હોય. એવા વિષમ માર્ગથી ગમન ન કરે. __विज्जमाणे परकमे से शहाथी म सूय युछे। भान भाग नडाय तामना નિષેધ નથી–અર્થાત્ અન્ય માગને અભાવે એવા માર્ગથી પણ જઈ શકાય છે. (૪) सेवा भाभा यासाथी थनारी मोति मताव छ पवडते. त्या. જે અવપતિ આદિ પૂર્વોકત માર્ગોમાં ગમન કરવાથી પડી જાય યા લપસી જાય તે શ્રીન્દ્રિયાદિ ત્રસ યા પૃથ્વીકાચૂિક આદિ સ્થાવર જીની અથવા બેઉ પ્રકારના જીવોની હિંસા થાય છે, તથા પડવાથી આત્મવિરાધના પણ અવશ્ય થાય છે. (૫) १ गतमयतया संभावितस्खलनकम् । २ उन्नताऽवनतत्वादुर्गमम् । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ अययन ५ उ. १ गा० ५ विषममार्गगमने विराधना पूर्वोक्त मार्गसे जाने में दोष बताते हैं-- सान्वयार्थः-से-उस मार्गसे जानेवाला वह संजए साधु व-यदि तत्थ-वहां पवडंते-गिर जाय व अथवा पक्खलंते रपट पड़े तो तसे त्रस-द्वीन्द्रियादि अदुव=अथवा थावरे-स्थावर-पृथिव्यादि पाणभूयाई-प्राणी भूतोंकी हिंसेज्जा=हिंसा करे । अर्थात ऐसे मार्गमें जानेसे साधुको आत्म और संयम दोनोंको विराधनाका संभव है ॥५॥ टीका-तत्र-तस्मिन् अवपातादौ प्रपतन् प्रस्खलँश्च स संयतः साधुः सान द्वीन्द्रियादिलक्षणान्, स्थावरान्-पृथिव्यायेकेन्द्रियान् , अथवा प्राणभूतानि-सस्थावरोभयविधान् प्राणिनो हिंस्यात्-मर्दयेत् पीडयेदिति यावत् । पतनादिना चाऽऽत्मविराधनाद्यपि नियतं भवतीति भावः ॥५॥ मूलम्-तम्हा तेण न गच्छिज्जा, संजए सुसमाहिए । सइ अन्नेण भग्गेण, जयमेव परक्कमे ॥६॥ छाया-तस्मात् तेन न गच्छेत् , संयतः सुसमाहितः । सत्यन्यस्मिन् मार्गे, यतमेव पराक्रामेत् ॥६॥ सान्वयार्थः-तम्हा=इसलिए सड़ अन्नेण मग्गेण दुसरे मार्गके होते हुए सुसमाहिए भगवान्की आज्ञाका आराधक संजए-साधु तेण-उस मार्गसे न गच्छिज्जा नहीं जाये, (अगर दूसरा मार्ग न हो तो साधु उसी मार्गसे) जयमेव= जीवोंकी यतना करता हुआ परकमे-गमन करे ॥६॥ टीका--'तम्हा, इत्यादि । तस्मात् त्रसस्थावरादिहिंसाभयाद्धेतोः सुसमाहितःसकलपाणिगणसंरक्षणप्रवणान्तःकरणः संयतः अन्यस्मिन् मार्गे सति विद्यमाने तेन गादिमार्गेण न गच्छेत् । अन्यमागोंभावे तु तेनापि गादिमार्गेणापि यतमेव-सयत्नमेव यतनयैवे त्यर्थः, पराक्रामेत् गच्छेत् । 'संजए' इत्यनेनाऽनगारस्य यत्नवत्त्वम्, 'सुसमाहिए' इत्यनेन चोपयोगवत्वं प्रतिपादितम् । अत्रेदमवधेयम्-चतुर्थगाथया प्रतिज्ञातेऽर्थे 'तम्हा' इत्यादि । त्रस स्थावरको विराधनाके भय से समस्त प्राणियोंकी रक्षा करनेको इच्छापाले मुनि अन्य मार्ग होनेपर उस खड्डे आदिवाले मार्गसे गमन न करे । दूसरा मार्ग न हो तो उसी मार्गसे यतनापूर्वक गमन करे । 'संजए' पदसे साधुकी यतनापरायणता और 'सुसमाहिए' पदसे उपयोगवत्ता प्रगट की है। તન્ના ઇત્યાદિ. ત્રસ સ્થાવરની વિરાધનાના ભયથી બધાં પ્રાણીઓની રક્ષા કરવાની ઇચ્છાવાળા મુનિ બીજે માગ હોવા છતાં એ ખાડા આદિવાળા માર્ગથી ગમન કરે નહિ. जान्न भागन डाय तो ये भाणे यतनापू गमन ४२. संजए शपथी साधुनी यतना. પરાયણતા અને ગુણમાદા શબ્દથી ઉપાગવત્તા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. અહીં એ વાત સમજવાની છે કે, જેથી પાંચમી અને છઠ્ઠી એ ત્રણ ગાથાઓથી પ્રકાર દર્શાવવામાં આ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्रीदशयैकालिकसूत्रे पञ्चमगाथया हेतुमुपन्यस्यानया षष्ठगाथयोपसंहारः कृत इति परार्थानुमानप्रकारो दर्शितो गाथाभिराभिस्तिसृभिरिति ६ । पृथिवी काययतनामाह - 'इंग लं' इत्यादि । ५ ६ ८ १० मूलम् इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं । २ ४ ११ सरक्खेहिं पाएहि, संजओ तं नइक्कमे ||७|| छाया - आङ्गारं क्षारिकं राशि, तुषराशिं च गोमयम् । सरजस्काभ्यां पादाभ्यां, संयतस्तं नातिक्रामेत् ॥७॥ पृथिवीकाय की यतना कहते हैं सान्वयाथः - संजओ = साधु ससरक्खेर्हि सचित्त रजसे भरे हुए पाएहिं पैरोंसे तं= उस इंगालं - कोयले के तथा छारियं = राखके रासि = पुञ्ज - ढेर को तुसरासिं= भूसेके पुंजको च = और गोमयं - गोवर के पुञ्जको नइक्कमे = - आक्रमण न करे अर्थात् इन पर पैर रखकर न जावे ॥७॥ टीका- संयतः सरजस्काभ्यां = सचित्तधूलिधूसरिताभ्यां पादाभ्याम् = चरणाभ्याम् तं =परिहार्यतया प्रसिद्धम् अङ्गारम् = अङ्गारसम्बन्धिनम्, क्षारिकं = भस्मसम्बन्धिनम् गोमयं = गोमय (गोपुरीष)- सम्बन्धिनम् राशि-पुञ्जम् तुपराशि= धान्यत्वक्पु च नातिक्रामेत् = तदुपरि सचित्तरजोऽवगुण्ठितचरणावारोप्य न चरेदित्यर्थः पृथिवीकायविराधनासंभवात् । उपलक्षणतश्च यत्र पृथिवीकायोपमर्दनं संभवति तत्सर्वमतिक्रम्य न क्रामेदिति ॥७॥ यहाँ पर यह बात समझने की है कि चौथी, पाँचवीं और छठो, इन तीनों गाथाओं से परमार्थानुमानका प्रकार दर्शाया गया है, अर्थात् चौथी गाथासे प्रतिज्ञा पाँचवीं गाथा से हेतु और छठी गाथासे उपसंहार किया गया है || ६ || अब पृथिवी कायकी यतना कहते हैं- 'इंगाल' इत्यादि । साधु सचित्तधूलियुक्त पैरोंसे अंगार, भस्म (राख) और गोबर आदि की राशिको न लाँघे तथा तु राशिका भी उल्लंघन करके न जावे । क्योंकि इससे पृथ्वोकायको हिंसा होती है । उपलक्षणसे यहभी समझना चाहिए कि जिससे पृथ्वीकायकीविराधना हो उसको लांघकर गमन न करे | છે અર્થાત્ ચે થી ગાથાથી પ્રતિજ્ઞા, પાંચમી ગાથાથી હેતુ અને છઠ્ઠી ગાથાથી ઉપસંહાર કરવામાં આવ્યે છે. (૬) हवे पृथिवीभयनी यतना उडे छे-इंगालं इत्यादि. સાધુ સચિત્ત-ળયુક્ત પગે 'ગાર ભસ્મ (રાખ) અને છાણુ આદિના ઢગલાને ન એળંગે તથા તુષ (ભૂસ) ના ઢગલાનું પણ ઉલ્લંધન કરીને ન જાય; કારણ કે એથી પૃથ્વીકાયની હિં...સા થાય છે. ઉપલક્ષણે કરીને એમ પણુ સમજવુ કે જેથી પૃથિવીકાયની વિરાધના થાય એને ઉલ્લધીને ગમન ન કરે. (૭) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० ७-८ गमने पृथिवीकायादि यतना ३०३ अपकायादियतनामाह-'न चरेज्ज' इत्यादि । १. १ मूलम्-न चरेज्ज वासे वासते , मिहियाए पडतिए । ___ महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥८॥ छाया—न चरेद् वर्षे वर्षति, मिहिकायां पतन्त्याम् । महावाते वा वाति, तिर्यक्संपातेषु वा ॥८॥ अप्काय आदिकी यतना कहते हैं सान्वयार्थः-वासे वासंते वर्षा वरसते हुवे मिहियाए पडंतिए-धूअर-कुहरागिरते हुए व-तथा महावाए वायंते महावायु-आँधी-के चलते हुए वा और तिरिच्छसंपाइमेमु-तीड-पतंगादिकोके उडते हुए (साधु) न चरेज्ज-गोचरी न जावे ॥८॥ टीका--वर्षे वर्षति-वृष्टौ सत्याम् , मिहिकायां धूमिकायां पतन्त्यां सत्यां महावाते प्रचण्डपवने वाति-वहति सति, तिर्यसम्पाते तिर्यपतनशीलेषु शलभादिषु सत्सु न चरेत् । 'वासे वासंते' इत्यनेन शीकरपातसमयेऽपि गमननिषेधः तस्यापि दृष्टावन्तर्भावात् अपकायविराधनासाधनत्वाच्च ॥८॥ उक्ता प्रथममहाव्रतविराधनाऽधुना चतुर्थमहाव्रतविराधनाया इतरमहाव्रतविराधना हेतुभूततया तामाह-'न चरेज्ज वेस०' इत्यादि । मूलम्-न चरज्ज वेससामंते, बंभचेरखसाणुए । ___ बंभयारिस्स दंतस्स, हुज्जा तत्थ विसुत्तिया ॥९॥ छाया-न चरेद वेशसामन्ते, ब्रह्मचर्यवशानुगः ।। ब्रह्मचारिणो दान्तस्य, भवेत्तत्र विस्रोतसिका ॥९॥ अपकायादिकी यतना कहते हैं-'न चरेज्ज वासे.' इत्यादि । जब वर्षा बरस रही हो, कुहरा (धूअर) पड़ रहाहो, आंधी चल रही हो, टिसी आदि उड़ रहे हों, तब साघु गमन न करे । वासे वासंते' इस पद से यह भी ग्रहण कर लेना चाहिए कि जब फुहारे पड़ रहे हो तब भी गमन न करे. क्योकि वह भी वर्षाहीमें अन्तर्गत है और उस समय जाने से अप्काय की विराधना होती है ॥ ८॥ प्रथम महाव्रतकी विराधना बतानेके बाद अब अन्य महाव्रतोंकी विराधना के कारण होने अ५४ायाहिनी यतना ४ छ-न चरेज्ज वासे० छत्यान्यारे १२साह १२सा २हो, હાય, ધુમસ (ઝાકળ પડી રહ્યો હોય આંધી ચાલી રહી હોય, ટીડ ઉડી રહ્યાં હોય, ત્યારે साधुगमन न रे. वासे वास्ते से शपथी म पण अहए श यारे વરસાદની ફરફર પડી રહી હોય ત્યારે પણ ગમન ન કરે; કારણ કે તે પણ વરસાદમાં જ આવી જાય છે, અને તે સમયે જવાથી અપકાયની વિરાધના થાય છે. (૮) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्रीदशकालिकसूत्रे ब्रह्मचर्य ही सब व्रतों का कारण है, अतः चतुर्थव्रत की यतना कहते हैं सान्वयार्थः-बंभचेरवसाणुए ब्रह्मचर्य की रक्षा चाहनेवाला साधु वेससामंते वेश्या पाकेड़े -मुहल्ले में न चरेज्ज-गोचरी नहीं जावे, (क्योंकि) तत्थ वहां (गोचरी जानेसे) दंतस्स इन्द्रिय और मनको काबूमें रखनेवाले बंभयारिस्स-ब्रह्मचारी साधुके भी विसुत्तिया मानसिक विकार हुज्जा पैदा हो जाता है, साधारण मनुष्यकी तो बात हो क्या ? उसके मानसिक विकार जरूर उत्पन्न हो जाता है ॥९॥ टीका-ब्रह्मचर्यवशानुगः ब्रह्मचर्य कामवासनापरित्यागलक्षणव्रतं, वशं स्वायत्तताम् अनुगमयति प्रापयतीति स तथोक्तः ब्रह्मचारीत्यर्थः । यद्वा 'ब्रह्मचर्यावसानके' इति 'ब्रह्मचर्यवशाऽऽनये' इति वा संस्कृतं, तस्य 'वेशसमन्ते' इत्यनेन विशेषणतया सम्बन्धस्तथा च-ब्रह्मचर्यस्यावसानम् अन्तो यस्मात्स तस्मिन्-ब्रह्मचर्यविनाशके इति प्रथमस्यार्थः । ब्रह्मचर्य वशमानयति = दर्शनादिना स्वाधीनं करोतीति ब्रह्मचर्यवशानयस्तस्मिन् ब्रह्मचर्यभ्रंशके इति द्वितीयस्यार्थः । वेशसामन्ते = वेशः= वेश्यागृहम् 'वेशो वेश्यागृहे गृहे' इति कोशात् , तस्य सामन्ते = समीपे वेश्यापाटके वा न चरेत् = न गच्छेत् । का हानि ? रित्याह-'ब्रह्म'-ति, तत्र = वेशसामन्ते गमनेनेति प्रसङ्गलभ्यम् , दान्तस्य = जितेन्द्रियस्यापि ब्रह्मचारिणः = साधोविस्रोतसिकार तद्रपलावण्यावलोकनचिन्तनादि'कचवरेण चेतो नलिकासमागच्छद्भावनासलिलप्रवाहनिरोधे श्रद्धाभूमिसमुत्पन्नब्रह्मचर्यमूलकाऽसे चतुर्थ महाव्रत की विराधनाका कथन करते हैं-'न चरेज्ज वेस०' इत्यादि । ब्रह्मचारी साघु गोचरी के लिए ब्रह्मचर्यका नाश करने वाला बेश्याघरके समीप में या बेश्याके पाड़े (मुहल्ले) में न जावे । वहाँ जाने से क्या हानि है ? सो बताते हैं-बेश्याके पाडे में गमन करने से जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी साधुके भो मनमें विकार उत्पन्न हो सकता है । अर्थात् बेश्या के रूप लावण्य का अवलोकन करने और विचार करनेरूप कचरे से चित्तरूपी नलद्वारा आत्मामें आता हुआ विशुद्ध भावनारूप जलका प्रवाह रुक जाता है। भावना जलका प्रवाह रूक जानेसे वह संयमी रूपी तरु सुख जाता है , जो तरु श्रद्धारूपी भूमी में उत्पन्न होता है , ब्रह्म પ્રથમ મહાવ્રતની વિરાધના બતાવ્યા પછી હવે બીજા મહાવ્રતની વિરાધનાના કારણ डापान सीधे यतुथ महानतना विराधनानु थन रे छ : न चरेज्ज वेस. त्याह. બ્રહ્મચારી સાધુ ગોચરીને માટે, બ્રહાચર્યનો નાશ કરવાવાળા વેશ્યા ગૃહની સમીપે યા વેશ્યાઓના મહોલ્લામાં ન જાય, ત્યાં જવામાં શી હાની છે તે શંકાનું નિવારણ કરતાં કહે છે કે વેશ્યાના મહોલ્લામાં ગમન કરવાથી જિતેન્દ્રિય બ્રહ્મચારી સાધુના મનમાં પણ વિકાર ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અર્થાત વેશ્યાના રૂપ-લાવણ્યનું અવલોકન, વિચાર, ઈત્યાદિપ કચરાથી ચિત્તારૂપી નળદ્વારા આમામાં આવતા વિશુદ્ધ ભાવના જળને પ્રવાહ રોકાઈ જવાથી એ સંયમ રૂપી તરૂ સુકાઈ જાય છે, છે જે તરૂ શ્રદ્ધારૂપી ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થાય છે, બ્રહ્મચર્ય શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ अध्ययन ५ उ १ गा० १०-११ ब्रह्मचर्यवतयतना हिंसासत्याऽस्तेयाऽपरिग्रहरूपाऽऽलवालसंवर्द्धित--ज्ञान-क्रियास्कन्धसुदृढ़-समितिगुप्त्यादिशारवप्रशाखावितता-ऽष्टदशसहस्रशीलाङ्गपत्र-ध्यान-कुसुमाऽपवर्ग-फलसम्पत्समृद्धसंयमद्रुमशोषिणी चित्तविकृतिर्भवेदिति सूत्रार्थः ॥९॥ सकृद्मनदोषं प्रतिपाद्येदानीमसकृद्गमनदोषान् प्रदर्शयति-'अणाययणे' इत्यादि । मूलम्-अणाययणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । हज्ज वयाणं पीला सामन्नम्मि य संसओ ॥१०॥ छाया-अनायतने चरतः संसर्गेणाऽभीक्ष्णम् । भवेद्वतानां पीडा, श्रामण्ये च संशयः ॥१०॥ वेश्या के पाड़े में एकबार जाने का दोष कह कर अब अनेक बार जानेका दोष कहते हैं सान्वयार्थः-अणाययणे = वेश्याके पाडेमें अथवा इस प्रकारके दूसरे अयोग्य स्थानोंमें चरंतस्स = गोचरी जानेवाले साधु-अभिक्खणं = वारंवार संसग्गीए = संसर्ग होने के कारण वयाणं = महावतोंको पीला= पीडा हुज्ज = होती है अर्थात् वे दूषित हो जाते हैं । (इतना ही नहीं किन्तु उस साधुके) सामन्नम्मि य = चारित्रसाधुपने में भी संसओ= सन्देह हो जाता है ॥१०॥ ____टीका-अनायतने = अयोग्यस्थाने वेश्यागृहसमीपादौ अभीक्ष्णं = वारंवारम् चरतः = पर्यटतः साधोः संसर्गेण-प्रेक्षणादिसंपर्केण (मूले प्राकृतत्वात्स्त्रीत्वम्) व्रतानां चर्य जिसकी जड़े हैं, अहिंसा-सत्य-अस्तेय-अपरिग्रह-रूपी क्यारी है, जो ज्ञान और क्रिया रूपी स्कन्धसे दृढ़ है, समिति गुप्ति आदि शाखा प्रशाखाएँ जिसकी फैली हुई हैं। अठारह हजार शीलाङ्ग जिसके पत्तेहै, ध्यान ही जिसके पुष्प हैं, और मुक्ति-सम्पत्तिही जिस वृक्ष के फल हैं ॥९॥ ___ एकबार गमन करनेके दोष बताकर बारंबार गमन करनेके दोष कहते हैं - 'अणाययणे० इत्यादि । बेश्या-घरके समीप या ऐसेही अन्य अयोग्य स्थानोंमें बार बार गमन करनेवाले साधुके वेश्याको देखने आदि संसर्गसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंमें पीड़ा हो जाती है, अर्थात् व्रत दूषित हो જેનાં મૂળ છે, અહિંસા સત્યઅસ્તેય -અપરિગ્રહરૂપી ક્યારી છે, જે જ્ઞાન અને ક્રિયારૂપી થઇ વડે દૃઢ છે, સમિતિ-ગુપ્તિ આદિ શાખા-પ્રશાખા જેની ફેલાઈ રહી છે, અઢાર હજાર શીલાંગ જેનાં પાંદડાં છે, ધ્યાન જ જેનાં પુષ્પ છે અને મુક્તિસંપત્તિજ તે તરૂનાં ફળ છે. (૯) ४१।२ गमन ४२वाना होष सतावान वारपार गमन ४२वाना होषो मताव छे-अणाययणे त्यादि. વેશ્યાગૃહની સમીપે યા એવાજ અન્ય અગ્ય સ્થાનેમાં વારંવાર જવાવડે વેશ્યાને १ कूड़ा-करकट' 'कचरा' इति भाषा । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ १० श्रीदशथैकालिकसूत्रे ब्रह्मचर्यादीनां पीटा= विराधना, चकारोऽप्यर्थे, नैतावत्येव हानिः किन्त्वन्याऽपोत्याहश्रामण्ये = चारित्रेऽपि संशयः = पालनीयतासन्देहो भवेत् तथाहि "दुश्चरब्रह्मचर्यादेर्भविष्यति फलं न वा ? । चेन्न जाने कियत् कीदृक् , कदा वा तद्भविष्यति ॥१॥ तथाऽप्राप्तसुखप्राप्ति,-मुद्दिश्य विहितो मया ।। उपस्थितसुखत्याग उचितः किं न वोचितः ॥२॥" इत्यादि । यद्वा-'चकारादत्र' काङ्क्षा-विचिकित्सा-भेदो-न्माद-दीर्घकालिकरोग-केवलि-प्रज्ञप्तधर्मभ्रशादयो दोषाः संगृह्यन्ते ॥१०॥ उपसंहरति—'तम्हा एयं' इत्यादि । मूलम् तम्हा एवं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्डणं । वज्जए वेससामंत मुणी एगंतमस्सिए ॥११॥ छाया-तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गतिवर्द्धनम् ।। वर्जयेद्वेशसामन्तं, मुनिरकान्तमाश्रितः ॥११॥ सान्वयार्थः–तम्हा-इसलिए दुग्गइवड्ढणं = दुर्गतिको बढानेवाले एयं = इस दोसं = दोषको वियाणित्ता-जानकर एगंतमस्सिए = मोक्षाभिलाषी मुणी-मुनि वेससाजाते हैं । यही एक हानी नहीं है किन्तु उसके श्रामण्य (चारित्र) में भी संदेह हो जाता है कि "इस दुश्चरब्रह्मचर्य का फल मिलेगा या नहीं? यदि मिलेगा भी तो न जाने कितना मिलेगा, कैसा मिलेगा, और कब मिलेगा ? ॥ १॥ मैंने अप्राप्त सुखकी प्राप्तिके लिए प्राप्त सुखका त्याग कर दिया है सो यह-उचित किया है या अनुचित ? ॥२॥” इत्यादि । अथवा गाथामें आये हुए 'च' शब्दसे विषयसेवनकी आकांक्षा; संयमसे घृणा, भेद उन्माद दीर्घकालिक रोग और केवलीप्ररूपित धर्मसे भ्रष्टता आदि अनेक दोष समझ लेना चाहिये अर्थात् ऐसे अयोग्य स्थानोंमें गमन करने से पूर्वोक्त दोष होते हैं ॥ १० ॥ જેવા આદિ સંસર્ગથી સાધુના બ્રહ્મચર્ય આદિ તેમાં પીડા થઈ જાય છે, અર્થાત્ વ્રત દષિત થઈ જાય છેઆ એક જ હાનિ નથી પરંતુ એનાથી શ્રામશ્ય (ચારિત્ર) માં પણ સંદ ઉત્પન્ન થાય છે કે- “ આ દુશ્ચર બ્રહ્મચર્યનું ફળ મળશે કે નહિ ?, જે મળશે તો પણ શી ખબર કેટલુ મળશે, કેમ મળશે અને કયારે મળશે ? (૧). મેં અપ્રાપ્ત સુખની પ્રાપ્તિને માટે પ્રાપ્ત સુખને ત્યાગ કરી નાંખ્યો છે તે એ ઉચિત કર્યું છે કે અનુચિત ? (२)" त्याह અથવા ગાથામાં આવેલા જ શબ્દથી વિષય–સેવનની આકાંક્ષા, સંયમથી ધૃણા, ભેદ, ઉન્માદ, દીર્ઘકાલિક રોગ અને કેવલી-પ્રરૂપિત ધર્મમાંથી ભ્રષ્ટતા આદિ અનેક દેશે સમજી લેવા. અર્થાત્ એવા અગ્ય સ્થાનમાં ગમન કરવાથી એ પ્રકારના દેષ થાય છે. (૧૦) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० १२ मार्गगमनयतना मंते = वेश्याके पा.-मोहल्ले-को वज्जए = वर्जे अर्थात् भिक्षाके लिए वहां नहीं जाये । भावार्थ-इस प्रकारके संसर्गसे साधुका मन उद्विग्न हो जानेसे मनमें अनेक कुतर्कणाएं होने लग जाती हैं, तब उसका मन ज्ञान-ध्यान-आदि शुभ कार्यों में नहीं लगकर आर्त-रौद्र-ध्यान करने लगता है। इसलिए साधु ऐसे संसर्गको ही टाले ॥ टीका-तस्माद्धेतोः एतं = पूर्वोक्त दुर्गतिवर्द्धनं = दुर्गतिप्रापकं दोष व्रतविराधनादि लक्षणं विज्ञाय = अवबुध्य एकान्तम् = एकः = अद्वितीयः अन्तो-निश्चयो व्रतरक्षणविषयको मोक्षप्राप्तिविषयको वा एकान्तस्तम् आश्रितः = आस्थितो मुनिः वेशसामन्त = वेश्यापाटकगमनं वर्जयेत् = परित्यजेत् । 'वियाणित्ता' इत्यनेन सम्यगवबोधमन्तरेण दोषपरित्यागो याथातथ्येन न संभवतीति, 'एगंतमस्सिए' इत्यनेन च मुनिना सततं मोक्षकलक्ष्येण भवितव्यमिति सचितम् । मायतनामेव विशिष्याऽऽह-'साणं' इत्यादि। मूलम्-साणं सूइयं गावि दित्तं गोणं हयं गयं । ९ १० ११ १२ संडिब्भं कलहं जुद्धं दूरओ परिवज्जए ॥१२॥ छाया- श्वानं सूतां गां दृप्तं गोणं हयं गजम् । संडिब्भं कलहं युद्ध, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१२॥ साधु जहाँ भिक्षा के लिये न जावे उन स्थानों को विशेष रूपसे कहते हैं सान्वयार्थः-साणं = जहां काटनेवाला कुत्ता ही सूइयं-थोडे कालकी व्याई हुई गावि = गाय हो दित्तं = मदमस्त गोणं = गोधा साण्ड अथवा बैल (और) हयं = घोड़ा उपसंहार करते हैं 'तम्हा एयं' इत्यादि । इसलिए इस-दुर्गतिको बढानेवाले व्रतोंकी विराधनारूप-दोषको जानकर व्रतोंकी रक्षा और मोक्ष की प्राप्ति के निश्चयमें स्थित मुनि वेश्या के पाड़े (चकले) में भिक्षा आदिके लिए न जावे । 'वियाणित्ता' पदसे यह सूचित किया है कि भली भाँति जाने विना दोषका अच्छी तरह परित्याग नहीं हो सकता । 'एगंतमस्सिए' पद से यह प्रगट किया है । कि मुनि को सदा मोक्ष प्राप्तिका लक्ष्य रखना चाहिये ॥ ११ ॥ सहा२ ४२ छ-तम्हा एयं त्याहि. એટલા માટે, એ દુર્ગતિને વધારવાવાળા, વ્રતની વિરાધનારૂપ દેષને જાણીને ત્રતાની રહ્યું અને મોક્ષની પ્રાપ્તિના નિશ્ચયમાં સ્થિત મુનિએ, વેશ્યાના મહેલ્લામાં ભિક્ષા આદિને . वियाणित्ता शपथी सभ सूथित युछे-सारी रात एया विना होषानी सारी पेठे पात्यास शतनथी. पंगतमस्सिए शपथी मेम ५४८ ४यु छ , भुनिये સદા મેક્ષપ્રાપ્તિનું લક્ષ્ય રાખવું જોઈએ. (૧૧) - માટે જવું નહિ, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ( अथवा ) गयं = हाथी हो (तथा) संडिब्भं = जहां बच्चे खेल रहे हो कलहं - परस्पर बायुद्ध गाली-गलोच होरहा हो जुद्ध-शस्त्र आदिसे युद्ध होता हो (ऐसे स्थानको साधु) दुरओ-दूर से ही परिवज्जए - वर्जे, अर्थात् ऐसी जगह साधु कदापि गोचरी नहीं जावे । भावार्थ - ऐसे स्थान में गोचरी जाने से कुत्ते आदिके कारखाने आदिकेकारण तथा पात्रे फूटजाने आहार गिरजाने आदि अनेक प्रकारसे संयम और आत्मा दोनोंकी विराधना होती है ॥ १२॥ " टीका -- श्वानं कुक्कुरं 'दृप्त' - मितीहाऽपकृष्य सम्बध्यते, तथाच दृप्तम् = उद्धतं दंशनस्वभावम् उन्मादिनं वेत्यर्थः, नवप्रसूतशून्या अप्युपलक्षणमेतत् । स्वतां = नवप्रसूतां गां = सौरभेयीं, नवप्रसूतमहिष्या अप्युपलक्षणाद् ग्रहणम्, दृप्तं = चण्डस्वभावं गोण= घृषभं, हयं = घोटकं, गजं = हस्तिनं च, संडिन्भं = शिशुक्रीडनस्थानं, कलहं = वाग्युद्धं, युद्धम् = दण्डादण्डि-शस्त्राशस्त्रि-प्रभृतिकम् दूरतः परिवर्जयेत्, आत्मसंयमोभयविराधनाहेतुत्वात् ॥ १२ ॥ गमनप्रकारमाह- 'अणुन्नए' इत्यादि । २ 3 १ मूलम् - अणुन्नए नावणए अपट्टे अणाउले । ६ ७ ५ इंदियाइ जहाभागं दमइत्ता मुणी चरे ॥१३॥ छाया --अनुन्नतो नावनतोऽप्रहृष्टोऽनाकुलः । इन्द्रियाणि यथाभागं, दमयित्वा मुनिश्चरेत् ॥ १३॥ गोचरी में घूमते हुए साधु को किस प्रकार की चेष्टा रखनी चाहिये सो बताते मार्ग की यतना को विशेषरूप से बताते हैं - ' साणं' इत्यादि । जहाँ उन्मत्त (पागल - हड़ क्या) या काटनेवाला कुत्ता, नयी बियाई हुई (प्रसूता ) कुतिया, नवप्रसुता गाय या नव प्रसूता भैंस आदि, मदोन्मत्त बैल, घोड़ा हाथी हों उस स्थानको, तथा बच्चों खेलने, कलह (मुँहकी लडाई) के और युद्ध (शस्त्रकी लड़ाई) के स्थान को साधु दूरसे त्यागे । अर्थात् जहाँ ये सब हों वहाँ न जावे-दूर ही रहे, क्योंकि इससे आत्मविराधना होती है ।॥ १२ ॥ માગ ની યતનાને વિશેષરૂપે બતાવે છે. સાળં॰ ઇત્યાદિ. उन्मत्त ( गांड-उडायो ) अथवा उरडना। इतरे, नवी वीयायसी ( प्रसूता ) કૂતરી, નવપ્રસૂતા ગોય યા નવપ્રસુતાં ભેંશ આદિ, મદોન્મત્ત મળદ ઘેાડા હાથી ઇત્યાદિ હોય તે સ્થાનને, તથા ખળકાએ રમવાના, કલહ ( મ્હાંની લડાઈ) ના અને યુદ્ધ (શસ્ત્રની લડાઈ) ના સ્થાનને સાધુ દૂરથી જ ત્યાગે; અર્થાત્ જ્યાં એ બધાં હોય ત્યાં ન જાય-દૂર જ રહે, કારણ કે તેથી આવિરાધના, સયવિરાધના અને ઉભયવિરાધના થાય છે (૧૨) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० १३ गोचर्या कायचेष्टाप्रकार: सान्वयार्थः–मुणी-गोचरीमें घूमता हुआ साधु अणुन्नए-द्रव्यसे ऊंचा नहीं देखनेवाला, भावसे जात्यादिगवरहित नावणए-द्रव्यसे शरीरको अत्यन्त नहीं नमानेवा. ला, भावसे दीनतारहित अप्पहिवे मिलनेवाले आहार आदिके विचारसे रहित अणाउलेइष्ट अनिष्ट आहार आदिकी प्राप्ति होना न होना आदि व्याकुलतासे रहित (साधु, इंदियाई-श्रोत्र आदि इन्द्रियोका जहाभागं यथाक्रम अर्थात् जिस समय जिस इन्द्रियका वि. षय उपस्थित हो उस समय उस इन्द्रियका दमइत्ता दमन-निग्रह करके-चरे-विचरे ॥१३॥ टीका-अनुन्नत:-अनुच्छितः, स च द्रव्यत ऊर्ध्वानवलोकयिता, भावतो जात्यादिगवरहितः, नावनतः नातिप्रहः, स द्रव्यतो नातीवनताङ्गः भावतो दैन्यरहितः । अप्रहृष्टः अप्रमुदितः उपलप्स्यमानाहारवस्त्रपात्रादिभावनाजन्यप्रमोदरहित इत्यर्थः, अनाकुला अक्षुब्धः इष्टऽलाभाऽनभीष्टलाभभाबनाजनित मनःक्षोभवर्जित इत्यर्थः, मुनिः इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनी यथाभाग-भज्यते-सेव्यते इति भागो विषयः, भागमनतिक्रम्य यथाभाग-यथाविषयं यस्येन्द्रियस्य यो विषयः सम्प्राप्तस्तमनुसृत्येत्यर्थः, दमयित्वा निगृह्य मनोज्ञा-ऽमनोज्ञशब्दादिविषयेषु रागापरागपरित्याग कृत्वेत्यर्थः, चरेत् । _ 'अणुन्नए' 'नावणए' इत्येताभ्यामीर्यायतनाऽहङ्कारवर्जनदैन्यराहित्यानि सुचितानि । 'अप्पहिडे' इत्यनेन माध्यस्थ्यं वोधितम । 'अणाउले' इतिपदेन साधो रसलोलुप चलनेका प्रकार कहते हैं-'अणुन्नए.' इत्यादि। मार्ग में चलते समय साधु अनुन्नत अर्थात् द्रव्य से ऊपरकी ओर न देखता हुआ, और भाव से जाति कुल आदिके अभिमान से रहित नावनत अर्थात् द्रव्य से अत्यन्त न झुका हुआ तथा भाव से दोनतारहित अपहृष्ट अर्थत् मिलनेवाले आहार आदिके विचार से प्रमोद रहित अनाकुल अर्थात् इष्टकी अप्राप्ति तथा अनिष्ट को प्राप्ति के विचारसे उत्पन्न होनेवाली व्याकुलता से रहित मुनि जहाँ जिस इन्द्रिय का विषय उपस्थित हो वहाँ उस इन्द्रिय का दमन करके अर्थात् मनोविषयमें राग और अमनोज्ञ विषयमें द्वेषका परित्याग करता हुआ भिक्षा आदिके लिए विचरे । 'अणु-नए' और 'नावणए' इन दो पदोंसे ईर्याकी यतना, अहङ्कारका परिहार और दोनता का त्याग सूचित किया है । 'अप्पहिडे' पद से मध्यस्थता प्रगट की है । 'अणाउले' पद से यासवान। २ छ-अणुन्नए० त्याहि. માર્ગમાં ચાલતી વખતે સાધુ અનુન્નત અર્થાત દ્રવ્યથી ઉપરની બાજુએ ન જતાં અને ભાવથી જાતિકુળના અભિમાનથી રહિત, નાવનત અર્થાત્ દ્રવ્યથી અત્યન્ત ન નમ્યા વિના તથા ભાવથી દીનતા–રહિત, અપ્રહણ અર્થાત મળવાવાળા આહારાદિના વિચારથી પ્રમોદરહિત, અનાકુલ અર્થાત્ ઈષ્ટનિ અપ્રાપ્તિ તૈથા અનિષ્ટની પ્રાપ્તિના વિચારથી ઉત્પન્ન થનારી વ્યાકુળ તાથી રહિત જ્યાં જે ઇંદ્રિય વિષય ઉપસ્થિત હોય ત્યાં તે ઇંદ્રિયનું દમન કરીને અર્થાત મનેણ-વિષયમાં રાગ અને અમને જ્ઞ-વિષયમાં શ્રેષને પરિત્યાગ કરતાં, ભિક્ષા આદિને માટે वियरे. अणुन्नए भने नावणए ये मे शोथी ध्यानी यतन मरना पडा अन हीन શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ३१० श्रीदशवैकालिकसूत्रे त्वं निराकृतम् । 'जहाभाग' इत्यनेन च यत्र यस्येन्द्रियस्य विषयप्राप्तिस्तत्र तस्यैव दमनं वास्तविकमिन्द्रियदमनं, न तु दर्शनविषये कर्णपिधानमित्यादि बोध्यम् ॥१३॥ मूलम्-दवदवस्स न गच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे। ९ ११ हसंता नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया ॥१४॥ छाया-द्रुतद्रुतम्य न गच्छेत् , भाषमाणश्च गोचरे । हसन् नाभिगच्छेत् , कुलमुच्चावचं सदा ॥१४॥ सान्वयार्थ:--गोयरे-भिक्षाचरीमें (साधु) दवदवस्स-अति शीघ्रतासे दड़बड़२ दौड़ता हुआ य=तथा भासमाणो बोलता हुआ न गच्छेज्जा नहीं जावे, (तथा) उच्चावयं-उच्च-द्रव्यसे सप्तभूमिक महलोंवाले, भाबसे-धन-धान्यादिरहित समृद्ध, नोचद्रव्य से घास फूसकी झोपडी वाले, भावसे धन-धान्यादिरहित कुलं-कुलमें सया हमेशा जावे । (२ श्रु.१अ.२उ.) आचारागसूत्रमें बताये हुए सब कुलोंमें भिक्षाके लिए जावे अर्थात् जिस समय जिस देश में जो कुल दुगुंछित न हों उन सब कुलोंमें गोचरी जावे, साधुको चाहिए कि इयांसमिति शोधता हुआ रागद्वेषरहित होकर भिक्षाके लिए विचरे ॥ टीका-गोचरे=भिक्षायां भिक्षार्थमित्यर्थः, द्रुत द्रुतस्य-शीघ्र शीघ्रम् ‘दवदवे' त्यस्याव्ययत्वेऽप्यार्षत्वात्सविभक्तिकत्वम् , यद्वा क्रियाविशेषणत्वेन द्वितीयान्तत्वौचित्येऽप्यापत्वात्पष्ठयन्तत्वम् , न गच्छेतून यायात् । भाषमाणः संलपन च-तथा हसन्= हास्यं कुर्वन् नाभिगच्छेत् । उच्चावचम्-उदक् च अवाक् च इत्युच्चावचम्- ( 'मयूरव्यंसाधु की रसलोलुपताका निराकरण किया है । 'जहाभागं' पदसे यह प्रदर्शित किया है कि जहाँ जिस इन्द्रियका विषय उपस्थित हो वहाँ उसका दमन करना ही वास्तवमें इन्द्रियदमन कहलाता है, किन्तु चक्षुइन्द्रियका विषय उपस्थित होनेपर यदि कान मूंद लिए जायें तो इन्द्रिय दमन नहीं कहला सकता, इत्यादि ।॥ १३॥ 'दवदवस्स० ' इत्यादि । साधु गोचरीके लिए जल्दी २(दड़बड़२) न चले । बातचीत करता हुआ, तथा हंसता हुआ भो गमन न करे । उच्चनीच अर्थात् धनवान् और निर्धन आदि ताना त्या सूयित ये छ. अप्पहिढे शपथी मध्यस्थता घट री छ अणाउले यी साधुनी २ सातानु नि२।४२५ यु छ. जहाभाग श४थी मेम प्रोशित यु छ । જ્યાં જે ઇન્દ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત હોય ત્યાં તેનું દમન કરવું એજ વસ્તુતઃ ઇંદ્રિયદમન કહેવાય છે, કિંતુ ચક્ષુ ઇન્દ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત થતાં જે કાન સંકેચવામાં આવે તે તે छद्रियहमन वातुनथी. त्याह. (१३) खरवस त्याहि साधु गोयशन माटेतावणे Sणे न यावे. वात-यात કરતા કે હસતા-હસતે પણ ન ચાલે. ઉચ્ચ-નીચ અર્થાત્ ધનવાન-નિર્ધન આદિના કુળમાં १ धातूपात्तभावनां प्रति फलांशस्य कर्मीभूततया फलसामानाधिकरण्ये द्वितीया । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० १४ गोचर्या कायचेष्टाप्रकारः ..३१ सकादयश्च' (२।१।७२) इति निपातनात्समासः सिद्धिश्च) उच्चनीचात्मकमने करिधमित्यर्थः । 'उच्चावचं नैकभेद'-मित्यमरः । कुलं-गृहम्' । तत्र द्रव्यत उच्चगृहं-सप्तभूमिकमासादादिकम् , शारदशशाङ्क-घनसार-हार-नीहार-कुन्दा-वदातसुधोज्ज्वलहादिकं प्रोत्तुङ्गतोरणादिकं च । भावत उच्चगृहं-धनधान्यादि सम्पदा समृद्धम् । द्रव्यतो नीचगृहं-धनधान्यादिरहितं दरिद्रगृहम् , सदा-सर्वदा अभिगच्छेत्-चरेत् । अथवा उच्चावचशब्देन उग्रकुलादीनि गृह्यन्ते, तथाहि--- 'उग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइन्नकुलाणि वा खत्तियकुलाणि का इक्खागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणिवा वेसिद्य कुलाणिकावा कोट्ठागकुलाणि वा गामरक्खकुवाणि वा बुक्कासकुलाणि वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेसु अदुगुछिएमु अगरहिएमु असणं वा४ फासुयं जाव पडिगाहिज्जा (सू.११आचाराङ्ग. २ ० १ अ. २ उ.)। के कुलों में सदा भिक्षा के लिए जावे । उच्च कुल दो प्रकार का है-(१) द्रव्य से उच्च और (२) भाव से उच्च । सतमंजिला आदि, शरद ऋतु के चन्द्रमा, कपूर, हार, वर्फ, या कुन्द पुष्प के समान स्वच्छ, कलई (चूना ) पोतने से जगमगाता हुआ और जिसका फाटक खूब ऊँचा हो ऐसे महल आदि द्रव्य-उच्च कहलाते हैं। (२)धन-धान्यरूपी सम्पत्ति से समृद्ध कुल भाव से उच्च कहलाता है। नीचा कुल भी दो प्रकारका है-- (१)द्रव्य से नीचा और (२) भाव से नीवा । १.वांस, लकडी, घास फूस से बने हुए झोपड़े को द्रव्यसे नीचा कहते हैं। (२) धन-धान्य आदि संपत्ति से रहित निर्धन के कुल को भावसे नीचा कहते हैं। इन सब प्रकारके घरोंमें साधु भिक्षा के लिए जावे । अथवा 'उच्चावच' शब्द से उग्रकुलादि समझ लेना चाहिए । वे बारह प्रकारके कुल आ સદા ભિક્ષાને માટે જાય. स्य न छे : (१) द्र०यथी २य भने (२) माथी च्य. (१) सात મજલા હોય, શરદુઋતુને ચંદ્રમા કપૂર, (મોતીને) હાર, બરફ યા કુંદપુષ્પની પેઠે સ્વચ્છ (ત) હોય, ચૂને ધોળવાથી ઝગમગતો હોય અને જેનું ફાટક ખૂબ ઉંચું હોય એ મહેલ આદિ દ્રવ્ય-ઉચ્ચ કહેવાય છે. (૨) ધન-ધાન્યરૂપી સંપત્તિથી સમૃદ્ધ કુળ ભાવથી ઉચ્ચ કહેવાય છે. નીચકુળ પણ બે પ્રકાનાં હોય છે : (१) द्रव्यथी नीयुमने (२) माथी नीयु. (१) वांस, Assi, घास-पांथी मनi ઝપડાને દ્રવ્યથી નીચું કહે છે. (૨) ધન-ધાન્યાદિ સંપત્તિથી રહિત નિર્ધનના કુળને ભાવથી નીચું કહે છે. એ પ્રકારનાં બધાજ ઘરોમાં સાધુ ભિક્ષા માટે જાય. १ 'कुलं जनपदे गोत्रे, सजातीयगणेऽपि च भवने च तनौ क्लीध-मिति मेदिनी ॥ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिक सूत्रे अत्र 'अदुगुछिएस' 'अगरहिए' इति पदाभ्यां यस्मिन् समये यत्कुलमजुगुप्सि - तमगर्हितं भवेत्तदा तस्मिन्नेव कुले गन्तव्यमिति बोध्यते । ३१२ अत्र ' दवदवस्से' - त्यादिना षट्कायरक्षणविचक्षणता समाख्याता । ' भासमाणो' पदेनैकस्मिन् समये कार्यद्धयं सोपयोगं निष्पत्तुं न संभवतीति, 'हसतो' इत्यनेन गाम्भी - र्यम्, 'उच्चावचं ० इत्यादिना प्रतिबन्धराहित्यं च द्योतितम् ||१४|| २ ३ ४ ५ ६ ७ मूलम् - आलोअ थिग्गलं दारं, संधि दगभवणाणि य । १ १० ૧૧ चरंतो न विणिज्झाए, संकट्ठाणं विवज्जए ॥१५॥ छाया - आलोकं थिग्गलं द्वारं, सन्धि दकभवनानि च । चरन् न विनिर्ध्यायेत्, शङ्कास्थानं विवर्जयेत् ॥ १५॥ सान्वयार्थः- चरंतो- भिक्षाके लिए घूमता हुआ साधु आलोयं - जाली - झरोखेकी तरफ थिग्गलं - ईंट आदि से भरे हुए भींतके छिद्रकी तरफ दारं- दरवाजेकी तरफ संधि= भींतकी सांधकी तरफ अथवा चोरोंद्वारा किये हुए भींतके छेदकी तरफ य-तथा दगभवणाणि - पण्डा आदिकी तरफ न विणिज्झाए - टक-टकी लगाकर नहीं देखे, (क्योंकि ये सब ) संकट्ठाणं शङ्काके स्थान हैं, (इसलिए इन्हें) विवज्जए - विशेषरूपसे त्यागे । भावार्थ - ऐसे स्थानोंको देखनेसे गृहस्थको साधुके प्रति चोर लम्पट आदिका संन्देह उत्पन्न हो जाता है, तथा एषणाकी यथोचित शुद्धि भी नहीं होती || १५॥ चरांग सूत्रमें (२श्रु० १अ० २३० सु. ११ में) भगवानने कहा हैं । आचारांग सूत्रमें आये हुए 'अदुगुछिए' ओर 'अगरहिए' पदसे यह सूचित किया है कि जिस देश और जिस समयमें नो कुल अनन्दित और अगर्हित हो उसमें मुनि, भिक्षाके लिए जावे । यहाँ 'दवदवस' इत्यादि पद से घटकायकी रक्षा में सावधानी प्रगट की है 'भासमाणो' पदसे यह प्रगट किया है कि एक ही साथ दो कार्य उपयोगपूर्वक नहीं हो सकते । हसंतो पदसे गंभीरता द्योतित की है और उच्चावयं ० इत्यादि पदसे प्रतिबन्ध ( सराय) रहितता और समतासे सहितता प्रगट की है ॥ १४॥ અથવા પુષ્પાવષ શબ્દથી ઉગ્રકુળાદિ સમજી લેવાં જોઇએ એ ખાર પ્રકારનાં કુળા આચારાંગ સૂત્રમાં ( રહ્યુ૦ ૧ ૨૦સૂ॰ ૧૧ માં ) ભગવાને કહ્યા છે. આચારાંગ સૂત્રમાં આવેલા અતુનુંત્તિ અને અતિષ શબ્દોથી એમ સૂચિત કર્યું છે કે જે દેશ અને જે સમયમાં જે કુળ અનિતિ અને અગહિત હાય તેમાં સુનિ ભિક્ષાને માટે જાય. नहीं यद्वस्स छत्याहि होथी षट्ायनी रक्षाभां सावधानी अट उरी छे, भासમાળો શબ્દથી એમ પ્રકટ કર્યુ છે કે એકીસાથે એ કાર્યાં ઉપયેાગપૂવ ક થઈ શકતાં નથી. हसंतो शब्दथी गंभीरता अडेंट री छे भने उच्चावयं धत्याहि शम्होथी प्रतिबंध (नेसરાય) રહિતતા અને સમતા સહિતતા પ્રકટ કરી છે. (૧૪) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा० १५ गोचर्या कायचेष्टाप्रकारः ३१३ टीका--'आलोअं०' इत्यादि । चरन-भिक्षितुं गच्छन् मुनिः आलोकं वातायनजालिकाप्रभृति, थिग्गलं=देशीयभाषया प्रसिद्ध भित्त्यामिष्टकादिरचितम्, द्वारं-विवरम्, सन्धि तस्करादिखातभित्तिभागं दकभवनानि जलस्थानानि, 'चेति समुच्चये न नैव विनिायेत्-सविशेषं विलोकयेत् । यत एतानि (आलोकादीनि) शङ्कास्थानानिसाधोराचारविषयकसन्देहोत्पादकस्थानानि, सूत्रे जातावेकवचनम्, अतस्तानि विवर्जयेत्-विशेषेण परित्यजेत् ॥१५॥ मूलम्-रन्नो गिहवईणं च, रहस्सारक्खियाण य । संकिलेसकरं ठाणं, दृरओ परिवज्जए ॥१६॥ छाया-राज्ञो गृहपतीनां च, रहस्यमारक्षकाणां च । संक्लेशकरं स्थानं, दूरतः चरिवर्जयेत् ॥१६॥ सान्वयार्थः-रन्नो चक्रवर्ती आदि राजा महाराजाओंके च-तथा गिहवईणं सेठ आदि सगृहस्थोंके च और आरक्खियाण-नगरके रक्षक-कोतवाल आदिके रहस्सं सलाह करनेके एकान्त स्थानको (साधु) दूरओ-दरहीसे परिवज्जए-त्यागे; (क्योंकि ऐसे) ठाणं स्थान संकिलेसकरं असमाधिको पैदा करनेवाले होते हैं। भावार्थ राजा आदिकोंके एकान्त स्थानकी तर्फ देखनेसे अथवा वहां जानेसे उनको साधुके प्रति क्रोध अश्रद्धा होना आदि अनेक दोषोंकी संभावना है ॥१६॥ टीका:--'रन्नो०' इत्यादि । राज्ञः चक्रयर्द्धचक्रिप्रभृतेः, गृहीपतीनां गृहस्वामिनां श्रेष्ठयादीनाम् आरक्षकाा =नगररक्षिणां च रहस्य-रहसि एकान्ते भवं रहस्य मन्त्र 'आलोयं०' ईत्यादि । भिक्षा लेनेके निमित्त गमन करता हुआ मुनो झरोंखा, जाली, भीत, दरवाजा, सेंध, (चोरों द्वारा दीवार में किया हुआ छेद-सन्धि) और उदक भवन अर्थात परेंडा आदि की तरफ दृष्टि न डाले, क्योंकि ये शंकास्थान हैं, इनकी ओर देखने से लोगों को साधुके चारित्रमें संदेह उत्पन्न होता है, अतएव इन शंकास्थानों का विशेष रूपसे परित्याग करना चाहिए ॥ १५॥ 'रनो.' इत्यादि । जिस एकान्त भवनमें चक्रवर्ती, अर्द्धचक्री, माण्डलिक आदि राजा,श्रेष्ठी (सेठ) आदि गृहस्थ और नगरकी रक्षा करनेवाले (कोटवाल) आदि सलाह करते हों उस भवन आलोय त्याहि. मिक्षाने भाट गमन ४२ते। मुनि ३, जी, मीत, वान, રે પડેલું બાંકુ (ખાતરીયાથી પાડેલું બાંકે રૂ) અને ઉદકભવન અર્થાત પાણીઆરાની તરફ દૃષ્ટિ ન નોખે, કારણ કે એ બધાં શંકાસ્થાને છે. તેની તરફ જેવાથી લોકોને સાધુના ચારિત્રમાં સંદેહ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી એ શંકાસ્થાને વિશેષરૂપે પરિત્યાગ કર. (૧૫) _ रन्नो० ४त्यहि त सपनमा यवती, मयी , भांडसि मा २01, श्रेष्ठी (28) मा भने नारनी २६॥ ४२ना। (2वाण) मेरे सदाह (भा ) ४२ता શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श्रीदशवेकालिकसूत्रे गृहम्, संक्लेशकरम्-असमाधिजनकं स्थानं हेतुगर्भमिदं विशेषणं तथा च संक्लेशकरत्वादित्यर्थः, दूरतः परिवर्जयेत् - सर्वथा संत्यजेत् ॥ १६ ॥ १ २ ३ ४ ५ मूलम् - पडिकुट्टं कुलं न पविसे, मामगं परिवज्जए । ७ ८. ९ १० ૧૧ १३ १२ अचियत्तं कुलं न पविसे, चित्तं पविसे कुलं ||१७|| छाया -- प्रतिक्रुष्टं कुलं न प्रविशेत्, मामकं परिवर्जयेत् । अचित्तं कुलं न प्रविशेत्, चियत्तं प्रविशेत्कुलम् ॥१७॥ सान्वयार्थः- पडिकुटुं- शास्त्रनिषिद्ध कुलं = कुल घर में न पविसे=प्रवेश नहीं करे मामगं= कृपणके घरको परिवज्जए = वरजे- नहीं जावे, अचियत्तं प्रतीतिरहित अथवा प्रीतिरहित कुल = कुल घरमें न पविसे = प्रवेश न करे, (किन्तु) चियत्तं = प्रतीति और प्रीतिवाले कुलं = घरमें पविसे = प्रवेश करे ॥ १७॥ टीका - - 'पडिकुटुं०' इत्यादि । प्रतिकुष्टं = निषिद्ध, कुलं = गृहं न प्रविशेत्, मामकं = ' मा मदीयं गृहं श्रमणाः प्रविशन्तु' इति प्रतिषेधकारिणो गृहं तथा सामयिकव्याख्यादर्शनात्, परिवर्जयेत् । अचियतं - देशीयशब्दोऽयम् - अपीतिमत्, यत्र साधुप्रवेशेन गृहिणामप्रीतिर्भवेत् तत् अप्रतीतिमद्वा अविश्वस्तमित्यर्थः यत्र गमनेन परेषां साधुविषयेऽप्यविश्वासो भवेत्, तादृशं कुलं न प्रविशेत्, गृहस्थानां संक्लेशसंभवात् । नन्वेवं तर्हि कुत्र प्रविशेत्तदाह - चियतं = प्रीतिमत् प्रतीतिमद्वा कुलं प्रविशेत् ||१७|| " ww को दूरहीसे त्यागे, क्योंकि ऐसे स्थान असमाधि को उत्पन्न करने वाले होते हैं ॥ १६ ॥ 'पडिकुटुं' इत्यादि । शास्त्रोंमें निषेध किये हुए घर में साधु प्रवेश न करे । जिसने अपने घर में आने का निषेध कर दिया हो कि 'श्रमण निर्ग्रन्थ हमारे घर पर न आवे' उन घरोंकाभी साधु त्याग करे । साधु के प्रवेश करने से जिस घरवालों को अप्रीति उत्पन्न हो, या जिस कुलमें विश्वास न हो ऐसे कुलमें भी प्रवेश न करे, क्योंकि इससे दूसरोंका साधुपरसे भी विश्वास हट जाता है । साधु उस घर में प्रवेश करे जिसमें प्रवेश करने से गृहस्थको प्रीति और विश्वास हो ॥ १७ ॥ હાય, એ ભવનને મુનિ દૂરથી જ ત્યાગે, કારણ કે એવાં સ્થાને અસાધિને ઉત્પન્ન કરેवावाजा होय छे. (१६) પત્તિä ઇત્યાદિ. શાસ્રોમાં નિષેધ કરેલા ગૃહમાં સાધુ પ્રવેશ ન કરે. જેણે પેાતાના ઘરમાં આવવાને નિષેધ કર્યાં હાય કે શ્રમણ નિગ્રન્થે અમારા ઘરમાં આવવુ નહિ' એવા ઘરાના પણ સાધુ ત્યાગ કરે . સાધુને પ્રવેશ કરવાથી જે ઘરવાળાને અપ્રીતિ ઉત્પન્ન થાય, યા જે કુળમાં વિશ્વાસ ન હોય એવા કુળમાં પણ સાધુ પ્રવેશ ન કરે, કારણ કે એથી સાધુ પરથી ખીજાઓને પણ વિશ્વાસ હઠી જાય છે સાધુ એ ઘરમાં પ્રવેશ કરે કે જેમાં પ્રવેશ ફરવાથી ગૃહસ્થને પ્રીતિ અને વિશ્વાસ ઉપજે. (૧૭) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा० १६-१८-गोचर्या कुल (गृह ) प्रवेशविधिः vvvvvvvvv मूलम्-साणीपावारपिहियं, अप्पणा नवपंगुरे । __ कवाडं नोपणुल्लिज्जा, उग्गहं सिं अजाइया ॥१८॥ छाया-शाणी-प्रावारपिहितम् आत्मना नाऽपवृणुयात् ।। कपाट नो प्रणुदेव, अवग्रहं तस्याऽयाचित्वा ॥१८॥ सान्वयार्थः-सि (से) = उस गृहस्वामी को उग्गरं = आज्ञा अजाइया = लिये विना साणीपावारपिहियं = सन आदिके बने हुए पादेसे ढके हुए घरको अप्पणा = साधु खुद नावपंगुरे= नहीं खोले, (तथा) कवाडं =किवाडको भी नोपणुल्लिज्ज- नहीं उघाड़े, तात्पर्य यह है कि गृहस्वामीको पूछ कर ही उघाड़ना चाहिए ॥१८॥ टीका-'साणीपावार०' इत्यादि । तस्य = गृहस्वामिनः अवग्रहं = निदेशम्, अयाचित्वा = अगृहीत्वा आज्ञामन्तरेणेत्यर्थः, शाणीप्रावामपिहितं = शाणी शणवल्कलनिर्मितजवनिका, पावार: = ऊर्णादिरचितकम्बलादिस्ताभ्यां पिहितम् = आवृतम्, यद्वा शाणीप्रावारेण = शणरचितपदया' स्थगितं 'द्वार'-मितिशेषः, आत्मना = स्वयम् न अपवृणुयात् = नापसारयेत् । तथा कपाटम् = अररम् 'किवाडे'-ति भाषाप्रसिद्ध नो प्रणुदेद् = न प्रेरयेतू नोद्धाटयेदित्यर्थः, तदुद्धाटनस्य स्नानभोजनादिसमासक्तानां स्त्र्यादीनामप्रतीतिकारण त्वात, तादृशव्यवहारानौचित्याच्च, तस्मादावश्यकतायां तत्स्वामिनं पृष्ट्वोवोद्धाटयेदिति भावः ॥१८॥ मूलम्-गोयरग्गपविट्ठो य, वच्च-मुत्तं न धारए । ओगासं फासु नच्चा, अणुन्नविअ वोसिरे ॥१९॥ छाया--गोचराग्रप्रवष्टिश्च, वर्नो-मूत्रं न धारयेत् । . अवकाश प्रासुकं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य व्यत्सृजेत् ॥१९॥ सात्वयार्थ:--गोयरग्गपविट्ठो-गोचरीमें गया हुआ मुनि वच-मुत्तमल और मूत्रको न धारए-नहीं रोके अर्थात् मल-मूत्र-को बाधा उपस्थित होनेपर उनके वेगका अवरोध न ___ 'साणीपावार' इत्यादि । गृहस्वामीकी आज्ञा लिये विना टट्टर या कम्बल आदि किसी वस्तुसे ढंके हुए या सनके परदासे बंद द्वारको तथा किवाडको स्वयं न खोले, क्योंकि ऐसा करना स्नानादि करती हुई स्त्री आदिको अप्रतीति का कारण है, तथा लोकव्यवहारसे भी अनुचित है, अतः आवश्यकता होने पर उसके स्वामीको पूछ करके ही किवाड़ परदा आदि खोलना चाहिए ।। १८ ॥ साणीपावार छत्याहि स्वामीनी आज्ञा दीधा विना टट या Binी माहि વસ્તુથી ઢાંકેલું યા સણના પડદાથી બંધ કરેલું એવું દ્વાર તથા કમાડ સાધુ પોતે ન ખેલે કારણ કે એમ કરવું એ સ્નાનાદિ કરતી સ્ત્રી આદુિને અપ્રતીતિનું કારણ બને છે, તથા લેકવ્યવહારથી પણ અનુચિત છે. તેથી જરૂર પડતાં તેના સ્વામીને પૂછી લઈને જ કમાડ પડદે આદિ ખેલવાં જોઈએ. (૧૮) १ परदा-परान् परपुरुषान् दर्शनादानेन द्यति-खण्डयतीति परदा । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे करे, (किन्तु) फासूयं प्राशुक-जीवरहित ओगासं-स्थण्डिलभूमिको नच्चा - जानकर अणुनविय - गृहस्थकी आज्ञा लेकर वोसिरे = मल-मूत्रका त्याग करे ||१९|| टीका - 'गोयरग्ग०' इत्यादि । पूर्वं निवृत्तबाधोऽपि गोचराग्रप्रविष्टो मुनिः पुनस्तद्वाधायामुपस्थितायां वर्चों-मूत्रं-मलं प्रस्रवं च न धारयेत् = नावरुन्ध्यात् । यत उक्तम्'जओ मुत्तनिरोहे चक्खूवधाओं भवति वच्चनिरोहे जीविओवघाओ असोहण य आयविराहणा, इत्यादि । नन्वेवं तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह- मासुकं = निर्जन्तुकं निरवद्यमित्यर्थः, अवकाशं= स्थण्डिलं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य - गृहस्थं संसूच्य तदाज्ञान्मादायेत्यर्थः, व्युत्सृजेत् = परित्यजेत् । १ २ ३ ४ मूलम् - णीयढवारं तमसं कुट्ठगं परिवज्जए । ६ ५ ८ अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ||२०|| छाया - नीचद्वारं तामसं, कोष्ठकं परिवर्जयेत् । अचक्षुर्विषयो यत्र, प्राणाः दुष्प्रतिलेखकाः ||२०|| सान्वयार्थः -- णीयदुवारं = नीचे द्वाखाले तमसं - प्रकाशरहित कुर्ग-कोठेको परिवज्जए -वरजे अर्थात् वहां आहार पानी नहीं लेवे, क्योंकि जत्थ-जहां अचक्खुविसओ= आँखका प्रसार नहीं होता ( वहां) पाणा - द्वीन्द्रिय आदि प्राणियोंका दुप्पडिलेहगा = प्रतिलेखन नहीं हो सकता ||२०|| टीका- 'णीयदुवारं०' ०' इत्यादि । नीचद्वारं-नीचं = निम्नं द्वारं प्रवेश - निर्गममार्गों 'गोयरग्ग ० ' इत्यादि । गोचरी जाने के पहले लघुनीत और बडीनीतकी शंकाको निवृत्त कर लेने पर भी यदि गोचरी के लिए चले जाने पर पुनः लघुशंका हो जाय तो मल-मूत्र को रोके नहीं, क्योंकि कहा है "मूत्र के निरोध करने से नेत्रों को हानि होती है और मलका निरोध करने से जीवन को हानि पहुंचती है, तथा बुरी तरह आत्मविराधना होती है ।" तो क्या करे सो बताते हैं - जीवरहित (निरवद्य) स्थान देखकर गृहस्थ की आज्ञा लेकर उस स्थान में मल-मूत्र का त्याग करे ।। १९ ॥ નોયન ઈત્યાદિ. ગેાચરીએ જતાં પહેલાં લઘુનીતિ અને ખડીનીતની શંકાને નિવ્રુત કરવા છતાં પણ જો ગેાચરી માટે નીકળી ગયા પછી ફરી લઘુશંકા આદિની શકા થઈ જાય તેા મળ-મૂત્રને રાકવાં નહિ, કારણ કે કહ્યું છે કે મૂત્રના નિરાધ કરવાથી નેત્રાને હાની થાય છે અને મળનેા નિરોધ કરવાથી જીવનને હાનિ પહોંચે છે, અને ખરાબ રીતે આત્મ-વિરાધના થાય છે,’ તા શું કરવું, તે હવે બતાવે છે-જીવરહિત (નિરવદ્ય) સ્થાન જોઈને ગૃહસ્થની આજ્ઞા લઈને એ સ્થાનમાં મળમૂન્નના ત્યાગ કરે. (૧૯) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० २०-२२ भिक्षार्थ गृह प्रवेशविधिः • यस्य स तं तथोक्तम्, तादृशप्रदेशे प्रवेश - निर्गमाभ्यामात्मसंयमविराधनायाः संभवात् तामसम् = तमोयुक्तमप्रकाश मित्यर्थः, कोष्ठकं = गृहाभ्यन्तरमपवरकादिकं परिवर्जयेत् न तत्राssहारादिकं गृह्णीयादित्यर्थः । किं सामान्येनायं निषेधः ? नेत्याह-यत्र = यस्मिन् कोष्ठकाद, अचक्षुर्विषय: = पः अत्र 'अ' 'चक्षुर्विषयः' इति पृथक् पदद्वयं तत्र 'अ' इति निपातो नञर्थकः 'अभावे न - s-नो-नाऽपि त्यमरात् तथाच चक्षुर्विषय: = चक्षुरिन्द्रियजन्यव्यारप्रसरः अ= न भवेदिति शेषः, ततः किमित्याह = प्राणा: - द्वीन्द्रियादयः दुष्प्रतिलेखकाः = दुर्निरीक्ष्या 'भवन्ती' ति शेषः, तत्र भिक्षां गृहतः साधोरी-षणयोः शुद्धिर्न जायते ॥ २० ॥ " १ ३ २ मूलम् - जत्थ पुप्फाई बीजाई, विप्पाईन्नाई कुट्ठए । ७ ९ १० अहुणोवलित्तं उल्लं, दवणं परिवज्जए ||२१|| - यत्र पुष्पाणि बीजानि विप्रकीर्णानि कोष्ठके । अधुनोपलिप्तमा, दृष्ट्वा परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥ छाया ३१७ सान्वयार्थः--जत्थ=जिस कुट्ठए = कोठे में पुप्फाई = फूल (और) बीयाई - बीज विप्पइना = बिखरे हुए हों उस कोठेको, तथा अहुणोवलितं = तुरन्त के लिपे हुए उल्लं - गीले कोठेको दण= देखकर परिवज्जए - वरजे ॥ २१ ॥ टीका- ' जत्थ' इत्यादि । यत्र कोष्ठके गृहे वा सचित्तानि पुष्पाणि बीजानि वा विप्रकीर्णानि इतस्ततः प्रसृतानि भवेयुः यद्वा तत्काललिप्तमत एवाई कोष्ठकादि तत् साधुः परिवर्जयेत् = [ तत्र न गच्छेदित्यर्थः ॥ २१ ॥ 'णीयदुवारं ० ' इत्यादि । नीचे द्वारवाले कोठेमें भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिये, क्योंकि उसमें जाने आने से आत्मा और संयम की विराधनाका संभव है । तथा अन्धकारयुक्त कोठेमें भी आहार आदि ग्रहण न करे । तात्पर्य यह है कि जिस कोठे में अन्धकार के कारण नेत्र की प्रवृत्ति न होती हो, और इसीलिए द्वीन्द्रिय प्राणी सरलता से दिखाई न देते हों उसमें भिक्षा लेने से ईर्ष्या और एषणा की शुद्धि नहीं होती है ॥ २० ॥ ' जत्थ पुप्फाई ० ' इत्यादि । जिस कोठे आदि में सचित्त पुष्प सचित्त बीज बिखरे हुए हों, तथा तत्काल लिपने से जो गीला हो उस कोठे या अन्य गृह आदि में प्रवेश न करे ॥ २१ ॥ નોયતુવાર ઇત્યાદિ. નીચા દ્વારવાળા એરડામાં ભિક્ષાને માટે ન જવુ, કારણ કે તેમાં જવા આવવાથી આત્મા અને સયમની વિરાધનાને સભવ છે. તથા અધકારયુક્ત ઓરડામાં પણ આહાર આદિ ગ્રહણ ન કરવા; તાત્પય એ છે કે જે એરડામાં અંધકારને કારણે નેત્ર કામ ન કરી શકતાં હોય અને તેથી કરીને દ્વીન્દ્રિયાદિ પ્રાણી સહેલાઈથી ન જોઇ શકાતાં હાય તેમાં ભિક્ષા લેવાથી સાધુની ઇર્ષા તથા એષણાની શુદ્ધિ જળવાતી નથી. (૨૦) जत्थ पुप्फाई० धत्याहि ने मेरा महिमां सति पुष्प सति वेरायां હાય તથા તત્કાળલીપવામાં આવ્યા હૈાવાથી લીલે હાય તે એરડામાં અથવા ગૃડાદમાં प्रवेश न १२वे. (२१) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ २ ३ ४ ५ ६ १० मूलम् - एलगं दारंगं साणं, वच्छगं वावि कोट्ठए । ११ १२ ९ १ उल्लंघिया न पविसे, विउहित्ताण व संजए ||२२|| छाया - एडकं दारकं श्वानं, वत्सकं वाऽपि कोष्ठके । श्रीदशवेकालिकसूत्रे उल्लङ्घय न प्रविशेत्, व्यूह्य वा संयतः ||२२|| सान्वयार्थः - एलगं = भेड दारकं = बालक साणं- कुत्ते वच्छगे = बछड़े अपिवा = इस प्रकार दूसरे अर्थात् बकरा-बकरी पाडापाडी आदिको उल्लंघिया लांघ करके, वा = अथवा विहिताण - हाथ आदि से हटाकर संजए - साधु कोइए = कोठ- घर में न पविसे = प्रवेश नहीं कर ॥ २२ ॥ टीका - - 'एलगं' इत्यादि । संयतः - भिक्षुः, एडकं = गड्डकं, दारकम् = अर्भकम् = श्वानं = कुक्कुरं वत्सकं = गोशिशुं वा, अपिशब्दादजामहिष्यादिशिशुग्रहणन्, उल्लङ्घ्य=अतिक्रम्य व्यूह्य = अपोह्य हस्तादिनाऽपसार्येत्यर्थः, कोष्ठके न प्रविशेत् ॥ २२ ॥ ५ १ २ ३ मूलम् - असंसंत्तं पलोइज्जा, नाइदूरावलोयए । ४ ७ १० उम्फुल्लं न विणिज्झाए नियद्विज्ज अपि ॥ २३ ॥ छाया - असंसक्तं प्रलोकेत, नातिदूरमवलोकेत । उत्फुल्लं न विनिर्ध्यायेत् निवर्त्तताऽजल्पन् ॥ २३॥ S सान्वयार्थः--असंसत्तं-आसक्तिरहित होकर पलोइज्जा = देखे अर्थात् रागादिपूर्वक किसीको न देखे, नाइदूरावलोयए - अत्यन्त दूर दृष्टि डालकर-लम्बी दृष्टिसे न देखे तथा उप्फुल्लं=आँखें फाड़-फाड़कर अथवा मुसकराता हुआ टकटकी लगाकर न विणिज्झाए-न 'एलगं०' इत्यादि । भेड़ तथा बकरा, बालक, कुत्ता, बछड़ा, तथा पडा-पाडी आदिका उल्लंघन करके, अथवा उनको हाथ आदि से हटाकर साधु कोठे आदि में प्रवेश न करे || २२ | 'असंसत्तं ०' इत्यादि । आसक्त होंकर रागादिपूर्वक किसीका अवलोकन न करे । दाता जिस स्थान से आता हो उस स्थान से ज्यादा दूर न देखे, क्योंकि दूर तक देखने से किसीको ऐसी शंका हो जाय कि 'यह चोर है' इत्यादि । किसी पदार्थ की ओर आंखें फाड़ २ कर न देखे । यदि भिक्षा की प्राप्ति न हो तो दीन वचन न बोले न बडबडावे, किन्तु मौन सहित पीछा फिर जावे । पलंगं० इत्याहि घेटु तथा ३, माज, इत३, बाछडे। तथा पाडापाडी माहिने આળગીને અથવા તેને હાથ આદિથી હટાવીને સાધુ એરડામાં પ્રવેશ ન કરે. (૨૨) સંવત્ત॰ ઇત્યાદિ. આસક્ત થઈને રાગાદ્ધિપૂર્વક કાઇનુ અવલાકન ન સ્થાનમાંથી આવતા હેાય એ સ્થાનથી વધારે દૂર ન જોવું, કારણ કે દૂર કાઇને એવી શ ંકા આવી જાય કે ‘આ ચાર છે” ઈત્યાદિ. જો ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ દીન વચન ન ખેલવાં, ન ખડખડવું, પરન્તુ મૌનસહિત પાછાં ફરવું શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ કરવુ દાતા જે સુધી જોવાથી ન થાય તા Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० २३ भिक्षार्थ स्थितस्य कायचेष्टाप्रकारः ही देखे. (भिक्षाकी प्राप्ति न हो तो) अयंपिरो=कुछ भी नहीं बोलता हुआ अर्थात् बड़बड़ाहट नहीं करता हुआ वहां से नियट्टिज्ज वापस लौट जावे ॥२३॥ टीका-'असंसत्तं०' इत्यादि । असंसक्तम् आसक्तिरहितं यथास्यात्तथा प्रलोकेतपश्येत् , अन्यथा रागादिसम्भवात् । अतिदूरं दातुरागमनप्रदेशात्परं नावलोकेत, साधौ तस्करतादिशङ्कासंभवात् । उत्फुल्लं-स्मेरं यथा स्यात्तथा नेत्रे विस्फार्येत्यर्थः ने विनि ायेत् न पश्येत् । कदाचिद्भिक्षाया अलाभे अजल्पन्=दैन्योपालम्भवचनानि अब्रुवन् निबत प्रत्यावर्त्तत। 'असंसत्तं' इति पदेन दृष्टयनुरागोऽपाकृतः। 'नाइदूरा०' इत्यादिना साधौ चौरत्वाद्याशङ्का निराकृता । 'उप्फुल्लं०' इत्यादिना, वराकेणानेन साधुना नावलोकितो नाप्यनुभूत एतादृशो विभवोऽतोऽयं दीन' इत्याद्याशङ्का व्युदस्ता ॥२३॥ मूलम्-अइभूमि न गच्छिज्जा गोयरग्गगओ मुणी । ___ कुलस्स भूमि जाणित्ता मियं भूमि परक्कमे ॥२४॥ छाया-अतिभूमिं न गच्छेत् , गोचराग्रगतो मुनिः । ___ कुलस्य भूमि ज्ञात्वा, मितां भूमि पराक्रमेत् ॥२४॥ सान्वयार्थः--गोयरग्गगओ = गोचरीमें गया हुआ मुणी-साधु अइभूमि-गृहस्थकी मर्यादित भूमिसे अगाड़ी उसकी आज्ञाके विना न गच्छिज्जा = नहीं जावे, (किन्तु) कुलस्स गृहस्थ के घरकी भूमि = मर्यादित भूमिको जाणित्ता जानकर मियं भूमि जिस घर में जहांतक जानेकी मर्यादा हो वहांतक ही परकमे = जावे ॥२४॥ टीका-'अइभूमि' इत्यादि । गोचराग्रगतो मुनिः अतिभूमि परप्रवेशाय गृह 'असंमत्त' पद से नेत्रविषयक अनुराग का त्याग प्रगट किया है । 'नाइदूरा०' इत्यादि पद से यह सूचित किया है कि साधुको ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे किसी को चोर आदि होने का संदेह न हो । 'उप्फुल्लं०' इत्यादि पद से इस संदेह को दूर किया है कि कोई यह न समझे कि-'अरे ! इस बेचारे साधुने ऐसी विभूतो न कभी देखी है और न कभी भोगी है इसलिए यह बड़ा दीन है ॥ २३॥ 'अइभूमिः' इत्यादि । जिस घर में भूमि की जितनी मर्यादा हो उसे उल्लंघन करके असंसतं० श-४थी नेत्रविषय४ मनुरागनी त्यास घट ४ छ. नाइदूरा० त्याहथी એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુએ એવું આચરણ કરવું જોઈએ કે જેથી કોઈને यार माडिवाना सहन ५3. उप्फुल्लं. त्याहिश थी से सड६२ ये छ। કઈ એમ ન સમજે કે “અરે ! આ બિચારા સાધુએ એવી વિભૂતિ નથી કેઈવાર જોઈ અને નથી કોઈવાર ભેગવી તેથી એ બહુ જ દીન છે. (૨૩) अइभूमिः त्याह.२ घरमा भूमिनी रखी माहडाय मेन धान अनि શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३२० श्रीदशवैकालिकसूत्रे स्थाननुमतां भूमिमतिक्रम्य = उल्लङ्गध्य न गच्छेत् । तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह-कुलम्य भूमि = मर्यादां स्थित्यवधि ज्ञात्वा मितां= परिच्छिन्नां स्वावस्थानयोग्यां भूमि = स्थानं पराक्रामेत् = गत्वा तिष्ठेत् , विपरीताचरणे हि गृहस्थरोषादिसम्भवः ॥२४॥ मूलम्-तत्थेव पडिले हिज्जा भूमिभाग वियक्खणो सिणाणस्स य वच्चस्स संलोगं पविज्जए ॥२५॥ छाया-तत्रैव प्रतिलिखेत् , भूमिभाग विचक्षणः । __स्नानम्य च वचसः संलोकं परिवर्जयेत् ॥२५॥ सान्वयार्थः--तत्थेव = जिस मर्यादित भूमि पर खड़ा है उसी भूमिभागे = भूमिभागको वियक्खणो = विचक्षण साधु पडिले हिज्जा = प्रतिलेखन करे, अर्थात् वहांकी भूमि को पूंजकर खड़ा रहे और सिणाणस्स = स्नानघरकी तर्फ य-तथा वच्चस्स = टट्टो-पेशाब घरकी तर्फ संलोग = दृष्टि परिवज्जए = न डाले ॥२५॥ टीका-'तत्थेव ०' इत्यादि । विचक्षणः निपुणः तत्रैव-स्वाधिष्ठातस्थान एव भूमिभाग प्रतिलिखेत्-संपश्येत्, स्नानस्य स्नानगृहस्य वर्चसः चर्चीगृहस्य च मलपरित्यागगृहस्येत्यर्थः, संलोकंप्रेक्षणं परिवर्जयेत् । 'विअक्कणो' इत्यनेनाऽगीतार्थस्य स्वतन्त्रतया गोचरीगमनं निषिद्धम् । 'सिणाणस्स' इत्यादिना च नग्नस्च्यादिदर्शनाद्रागादिसंभव इति सूचितम् ॥२५॥ मुनि गृहस्थकी आज्ञा विना आगे नहीं जावे, किन्तु उस कुलकी मर्यादा को जानकर गमन करने योग्य परिमित स्थान तक ही जाकर खड़ा हो जाय-अर्थात् किसीकी मर्यादा का उल्लंघन न करे । इसके विपरीत आचरण करने से गृहस्थ को क्रोध आने आदि की संभावना रहती है । 'तत्थेव०' इत्यादि । विचक्षण भिक्षु जिस मर्यादित भूमि पर खड़ा है वहींके भूमिभागका प्रतिलेखन करे, स्नान घर तथा उच्चार आदिके स्थान की ओर दृष्टि न डाले । 'वियक्खणो' पद से अगीतार्थ साधु को स्वतन्त्र गोचरी करने का निषेध किया गया है । 'सिणाणस्स' इत्यादि पदों से नग्नस्त्री आदि दिख जाने के कारण रागादि भाव उत्पन्न होना संभव है यह सूचित किया गया है ॥२५॥ ગૃહસ્થની આજ્ઞા વિના આગળ ન જાય, પરંતુ એ કુળની મર્યાદાને જાણીને ગમન કરવા ગ્ય પરિમિત સ્થાન સુધી જ જઈને ઊભો રહે, અર્થાતુ-કેઇની મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન ન કરે, એથી વિપરીત આચરણ કરવાથી ગૃહસ્થને ક્રોધ આદિ ઉત્પન્ન થવાની સંભાવના રહે છે. (૨૪) तत्थेव० एत्याहि. पियक्ष भिक्षु रे भहित सूभि ५२ अमे। डाय त्यांना भूमिमा ગનું પ્રતિલેખન કરે, સ્નાન-ઘર તથા ઉચ્ચાર આદિના સ્થાન (જાજરૂ) ની તરફ દૃષ્ટિ ન ३७ वियक्खणो शपथी सगातार्थ साधुने स्वतत्र गोयरी वान निषेध ४२पामां मा०ये। छे. सिणाणस्स (याहि पोथी 'न खी मा हेमा वान रणे २ लाप ઉત્પન્ન થવાનો સંભવ છે?—એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે. (૨૫). શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा० २४-२६गृहस्थगृहे स्थितिविधिः ३२१ मूलम्-दगमट्टियआयाणे, बीयाणि हरियाणि य । पखिज्जतो चिट्ठिज्जा, सबिदियसमाहिए ॥२६॥ छाया--दकमृत्तिकाऽऽदानं, बीजानि हरितानि च ॥२६॥ परिवर्जयंस्तिष्ठेत, सर्वेन्द्रियसमाहितः॥२६॥ सान्वयार्थः-(और वहांभी) दगमट्टियआयाणे = सचित्त जल और मिट्टीयुक्त मार्गको बोयाणि=शाली आदि बोजोंको य =और हरियाणि हरित कायको परिवज्जतो = वरजता हुआ अर्थात् उससे हटकर सविदियसमाहिए-सब इन्द्रियोंको गोपता हुआ चिद्विज्जा= खड़ा रहे ॥२६॥ टीका 'दगमट्टिय०' इत्यादि । 'दकमृत्तिकाऽऽदानंदकं च मृत्तिका चेति दकमृत्तिके, आदीयते आनीयतेऽनेनेत्यादानं-मार्गः, दकमृत्तिकयोरादानं दकमृत्तिकाऽऽदानं=जलमृत्तिकाऽऽनयनमार्गस्तत् । बीजानि = सचित्तानि शाल्यादीनि, हरितानि वनस्पतिमात्राणि, चकारादन्यान्यप्यकल्प्यवस्तुजातानि परिवर्जयन् = परित्यजन् सर्वेन्द्रियसमाहितः = तत्तदिन्द्रियविषयव्यासगरहितस्तिष्ठेत् अवस्थिति कुर्यात् ॥२६॥ मूलम्-तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहारे पाणभोयणं । अकप्पियं न गेण्हिज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥२७॥ छाया-तत्र तस्मै तिष्ठते, आहरेत्यान-भोजनम् । अकल्पिकं न गृह्णीयात्, प्रतिगृण्हीयात्कल्पिकम् ॥२७॥ सान्वयार्थः-तत्थ = वहां चिट्ठमाणस्स खड़े हुए तस्स = उस साधुके लिए (गृहस्थ) पाणभोयणं = आहार-पानी आहारे = लाकर देवे तो (साधु उसमें) अकप्पियं = अकल्पनीय आहार आदि न गेण्हिज्जा = नहीं लेवे, (किन्तु) कप्पियं = कल्पनीय होवे तो पडिगाहिज्ज = लेवे ॥२७॥ टीका-'तत्थ से०' इत्यादि । तत्र = गृहस्थगृहे तिष्ठते तस्मै भिक्षवे गृहि 'दगमट्टिय०' इत्यादि । सचित जल और मृतिका लाने का मार्गका, और शालि आदि सचित्त बोज, वनस्पतिकाय तथा अन्य अकल्प्य पदार्थों का वर्जन करता हुआ-उनसे दूर हट कर सब इन्द्रियोंका संयम करता हुआ खड़ा होवे ॥ २६ ॥ दगमट्टिय. त्याह. सस्थित्त अन भारी अनशति (ग) माहसचित्त બીજ, વનસ્પતિકાય તથા અન્ય અકથ્ય પદાર્થોનું વજન કરતાં-તેનાથી દૂર હઠીને સર્વ छद्रियाना सय ४२di 23 SL २७. (२६) १ दकशब्दो जलपर्यायवचनः-'प्रोक्तं प्राज्ञे वनमतं जीवनीयं दकं च । इति हालायुधकोशात् ।२ सूत्रे प्राकृतत्वाच्चतुर्थ्याः षष्ठी । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्रोदशवैकालिकास्त्रे ण्यादिः पानभोजनं = पानं-पेयं तिलतण्डुलादिधावनजलम् भोजनं = भोज्यमन्नादिकम् आहरेत् = उपनयेत्-दद्यादित्यर्थः । तत्रायं विशेषः = उपनतेषु पानभोजनादिषु अकल्पिकं = कल्पितुमयोग्यमनेषणीयमित्यर्थः, न गृह्णीयात् == नाददीत, कल्पिकं = कल्प्यं निरवयं प्रतिगृहीयात् ॥२७॥ मूलम्-आहरंती सिया तत्थ, परिसाडिज्ज भोयणं । ८ ११ १० १२ ९ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥२८॥ छाया--आहरन्ती स्यात्तत्र, भोजनं परिशाटयेत् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२८॥ सान्वयार्थः-और-आहरंती = आहार-पानी देती हुई वह-दात्री सिया = कदाचित् अगर तत्थ = वहां भोयणं = भोजन-पान परिसाडिज्ज = नीचे गिरावे तो दितियं = देती-हुई उस बाईसे (साधु) पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहार-पानी मे = मुझे न कप्पइ = नहीं कल्पता है ॥२८॥ टीका-'आहरंती०' इत्यादि । आहरन्ती = भिक्षामानीय ददती गृहिणी स्यात् = कदाचित् तत्र स्थाने भोजनम् = आहारं परिशाटयेत् = इतस्तो विकिरेत् जानुप्रमाणोच्चप्रदेशात् कणादिमात्रमपि, तदधःप्रदेशाच्च निरन्तरं पातयेदिति वृद्धः, तदा ददतीं पति भिक्षुः आचक्षीत-ब्रुवीत, तादृशम् = उक्तप्रकारकमन्नादिकं मे = मम न-कल्पते = नयुज्यते न ग्राह्यमिति भावः । पाकादिगृहकार्याणां प्रायः स्त्र्यधीनत्वेन तत्रोपस्थितिप्राधान्यात्तद्ग्रहणम् ।२८। 'तत्थ से' इत्यादि । गृहस्थके घरमें खड़े हुए साधु को गृहिणो (स्त्री) आदि तिल तण्डुल आदिका धोवन तथा अन्नादिक देवे तो उनमें से अकल्पनीय (अनेषणीय) पदार्थों का ग्रहण न करे, कल्पनीयका ग्रहण करे ।। २७ ।। 'आहरंती' इत्यादि । अशनादि देते समय दाता के हाथसे घुटनेसे ऊपरके प्रदेशसे यदि एक भी कण गिर जाय, अथवा घुटने से नोचेके प्रदेश से निरन्तर गिर रहा हो तो भिक्षु दाता से कहे कि ऐसा अन्नादिक मेरे लिए ग्राह्य नहीं है । तत्थ से प्रत्याहि. गृहस्थना घरमा मेरा साधुने गडि (सी) मह त तदुस (ચોખા) આદિનું ધાવણ તથા અનાદિક આપે તો એમાંથી એક૯૫નીય (અષણીય) પદાचीन अहए न ४२, ४८५नीयने अड रे. (२७) आहरंतो० त्याहि. अशनाहिती मते हाताना डायमाथी धुनी ५२ना प्रह શથી જે એક પણ કણ પડી જાય, અથવા ઘુંટણથી નીચેના પ્રદેશથી નિરંતર પડી રહ્યું હોય તે ભિક્ષુ દાતાને કહે કે એવાં અશનાદિ મારે ગ્રાહ્ય નથી. રસોઈનું કામ પ્રાય સ્ત્રીઓને અધીન રહે છે અને રસોઈમાં મુખ્યત્વે સ્ત્રી હાજર શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा० २९ पाकादिकायें स्त्र्योपस्थितिः ३२३ मूलम् संमद्दमाणो पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य । असंजमकरि नच्चा, तारिसं परिवज्जए ॥२९॥ छाया-संमर्दयन्ती प्राणान्, बीजानि हरितानि च । ___ असंयमकरों ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत् ॥२९॥ सान्वयार्थः-तथा-पाणाणि-बेइन्द्रियादिक प्राणियोंको बीयाणि शालि आदि बीजोंको य=और हरियाणि हरि वनस्पतिकायको संमदमाणो-पैरोंसे कुचलती हुई (आहार पानी देवे तो) उसे असंजमकर-साधुके लिये अयतना करनेवाली नच्चा=जानकर (साधु) तारिसं-सदोष आहार देने वाली उसे परिवज्जए-वरजे अर्थात् उसके हाथसे आहार-पानी नहीं लेवे ॥२९॥ टोका-'संमद्दमाणी.' इत्यादि । प्राणान् बोजानी हरितानि च संमर्दयन्ती पाइसंघट्टनादिना पीडयन्ती अशनादिकं दद्यादिति शेषः, तदा असंयमकरी-साधुनिमित्तमयतनाकारिणीम् ज्ञात्वा तदृशीम्-उक्तस्वरूपां सदोषमाहारादिकं ददतीं तां परिवर्जयेत् प्रत्यादिशेत् ,तद्वस्ततो नान्नादिकं गृण्होयादित्यर्थः । इयं भिक्षादानार्थमागच्छन्ती प्राणादोनि मर्दयतीति तद्विराधना मय्यप्यापद्यतेति भावयन् भिक्षां न गृह्णीयादिति भावः ॥ मूलम्-साहटु निक्खवित्ताणं, सचित्तं घट्टियाणि य । तहेव समणट्ठाए. उदगं संपणुल्लिया ॥३०॥ रसोई का काम प्रायः स्त्रीयों के अधीन रहता है और रसोईमें मुख्यतया स्त्री मौजूद रहती है, अत एव गाथा में स्त्रीका ग्रहण किया है ॥ २८ ॥ 'संमद्दमाणी०' इत्यादि । प्राण बीज वनस्पति आदि सचित्त को कुचलती-रौंदती हुई अन्नादि देवे तो साधु के लिए अयतना करनेवालो समझकर उसे त्याग देवे, अर्थात् उसके हाथसे अन्नादि ग्रहण न करे । तात्पर्य यह है कि-'यह भिक्षा देनेके लिए जो अयतना कर रही है ऐसी अवस्थामें आहार लेने से मुझे भी इस हिंसाका भागी बनना पडेगा' ऐमा विचार करके मुनि उससे आहार न ले ॥२९॥ રહે છે, તેથી ગાથામાં સ્ત્રીને ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. (૨૮), संमहमाणो. त्यात पाय on वनस्पति या सायत्तने ध्यती-ढोणती (सी) અનાદિ આપે તો સાધુને માટે અયતના કરનારી સમજીને તેને ત્યજી દે. અર્થાત્ એના હાથથી અનાદિ ગ્રહણ ન કરે તાત્પર્ય એ છે કે-બે ભિક્ષા આપવાને જે અયતના કરી રહી છે, એવી અવસ્થામાં આહાર લેવાથી મારે પણ બે હિંસાના ભાગી બનવું પડશે” એવો વિચાર કરીને મુનિ તેના હાથથી આહાર લે નહિ. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ રૂર श्रीदशवैकालिकसूत्रे ९ १० १२ ११ . ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहर पाणभोयणं । १४ १० १५ १८ १६ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिस ॥३१॥ छाया-संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा । तथैव श्रमणार्थम्, उदकं संप्रणुध ॥३०॥ अवगाह्य चालयित्वाऽऽहरेत्पानभोजनम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३१॥ सान्वयार्थः-समणहाए-साधुके लिए साहटु-संहरण करके अर्थात् एक वरतनसे दसरे वरतनमें डालकरके, निक्खवित्ताणं-सचित्त वस्तु पर आहारादिको रखकर अथवा आहारादिके ऊपर सचित्त वस्तुको रखकर, सचित्त सचित्त वस्तुका घट्टियाणिय-संघट्टास्पर्श-करके, तहेव-उसीप्रकार उदगं-सचित्त अप्कायको संपणुल्लिया इधर-उधर रखकर, ओगाहइत्तावर्षासे आँगनमें भरे हुए पानीमें अवगाहन-प्रवेश-करके, चलइत्तारुके हुए जलको नालीद्वारा या हाथ से बाहर निकालकर यदि पाणभोयणं आहार-पानी आहरे देवे तो दितियं देती हुई उस बाईसे (साधु) पडियाइक्खे-कहे कि तारिस इस प्रकारका आहारपानी मे= मुझे न कप्पइ नहीं कल्पता है ॥३०-३१॥ टीका-'साहटु०' इत्यादि, 'ओगाहइत्ता' इत्यादि च । यदि श्रमणार्थ भिक्षुनिमित्तं संहृत्य-भाजनाद्भाजनान्तरे संहरणं कृत्वा, संहरणस्य चतुभेङ्गो यथा(१) सचित्ते सचित्तस्य, (२) सचित्तेऽचित्तस्य, (३) अचित्ते सचित्तस्य, (४) 'साहटु०' इत्यादि, और 'ओगाहइत्ता.' इत्यादि । यदि श्रमणके लिए एक बर्तन से दूसरे वर्तनमें संहरण करके (निकालकर), निक्षेपण करके (एक के ऊपर दूसरेको रखकर), सचित्तके साथ संघटा करके (जलको हिलाकर), तथा अवगाहन करके-वर्षा ऋतु घरके आंगनमें रुके (भरे) हुए वारिसके जलमें प्रवेश करके या उसे नालीद्वारा निकालकर पान-भोजन देवे तो देनेवालीसे श्रमणकहे कि 'ऐसा अन्न-पान आदि मुझे ग्राह्य नहीं है । पहले संहरणका वर्णन करते हैं-संहरणकी चौभंगो इस प्रकार होती है-- साहटु० ४त्यादि भने ओगाहइत्ता० इत्यादि. श्रभने माटे ४ वासरमाथा બીજા વાસણમાં સંહરણ કરીને (કાઢીને), નિક્ષેપણ કરીને (એકની ઉપર બીજાને રાખીને). સચિત્તની સાથે સંઘટે કરીને, જળનું ઉપમર્દન કરીને (જળને હલાવીને) તથા અવગાહને કરીને, વર્ષા ઋતુમાં ઘરના આંગણામાં ભરેલા વરસાદના પાણીમાં પ્રવેશ કરીને યા એને નાળી (ખાળ) વડે કાઢી નાંખીને ભેજન-પાન આપે તો એ આપનારીને શ્રમણ કહે કે "मेव अन्न-पान मारे ा नथी." પહેલાં સંહરણનું વર્ણન કરે છે. સંહણની ચૌભંગી આ પ્રકારે થાય છે – શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन. ५ उ. १ गा० ३०-३१ संहरणस्य चतुर्भङ्गयः ३२५ अचित्तेऽचित्तस्य संहरणम् । एषु चतुर्थो भङ्गो ग्राह्यः । अस्यापि चत्वारा भङ्गा भवन्ति, तद्यथा (१) शुष्के शुष्कस्य, (२) शुष्के आर्द्रस्य, (३) आर्द्रे शुष्कस्य, (४) आ आर्द्रस्य संहरणम् । एतेऽपि पुनः प्रत्येकं स्वगताल्पत्वबहुत्वाभ्यां भिन्नाञ्चतुर्भङ्गान् भजन्ते । तत्र [१] 'शुष्के शुष्कस्ये' -त्येतदाख्यप्रथमभङ्गस्य चतुर्भङ्गी यथा (१) अल्पशुष्के अल्पशुष्कस्य, (२) अल्पशुष्के बहुशुष्कस्य, (३) बहुशुप्केऽल्पशुकस्य, (४) बहुशुष्के बहुशुष्कस्य संहरणम् । [२] 'शुष्के आर्द्रस्ये' - स्येतद्द्वीतीयभङ्गस्य चतुर्भङ्गी यथा (१) अल्पशुपास्य, (२) अल्पशुष्के महार्द्रस्य, (३) बहुशुष्केऽल्पास्य, (४) (१) सचित्त में सचित्तका, (२) सचित्तमें अचित्तका (३) अचित्त में सचितका, (४) अचि - तमें अचित्तका । इन चार भंगोंमेंसे चौथा भंग साधुको कल्पनीय है । इसके भी चार भंग होते हैं - (१) सूखे में सूखेका (२) सूखेमें गीलेका । (३) गीलेमें सूखेका, (४) गीले में गीलेका । ये चारों भंग भी अल्पता और बहुलताके भेदसे चार चार प्रकारके होते हैं- [१] 'सूखेमें सूखेका' इस प्रथम भंगकी चौभंगी इस तरह है- (१) थोड़े सूखेमें थोड़े सूखेका, (२) थोड़े सूखेमें बहुत सूखेका । ( ३ ) बहुत सूखे में थोड़े सूखेका, (४) बहुत सुखेमें बहुत सूखेका । [२] 'सुखेमें गीलेका' इस दूसरे भंगकी चौभंगी (१) थोड़े सुखेमें थोड़े गोलेका, (२) थोड़े सूखेमें बहुत गीलेका, (३) बहुत सूखेमें (१) सचित्तमां सत्तिनु, (२) सत्तिमां अत्तिनुं (3) अभित्तमां सत्तिनु, (४) અચિત્તમાં અચિત્તનુ', એ ચાર ભાંગામાંથી ચેાથેા ભાંગે સાધુને માટે કલ્પનીય છે. એના પણ ચાર ભાંગા थाय छे. [१] सूमाभां सूठानु, (२) सूप्रभां बीबानु, (3) सीसामां सूअनु अने (४) सीसामां —— सीसांनु. એ ચાર ભાંગે પણ અપતા અને બહુલતાના ભેદ કરીને ચાર ચાર પ્રકારના થાય છેઃ— [૧] ‘સૂકામાં સૂકાનુ' એ પ્રથમની ચૌભ’ગી આ પ્રમાણે છેઃ (१) थोडा सूाभां थोडा सुमनुं, (२) थोडा सूझमां जहु सूभानु, (3) बहु सूडामां થેાડા સૂકાતુ, (૪) બહુ સૂકામાં ખડ઼ે સૂકાતું, [२] 'सुप्रभां सीसानु मे मील लांगानी योलगी શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ श्रोदशवैकालिकसूत्रे बहुशु के बह्वार्द्रस्य संहरणम् । [३] 'आर्दै शुष्कस्ये'-ति तृतीयभङ्गस्य चतुर्भङ्गी यथा - (१) अल्पाइँऽल्पशुष्कस्य (२) अल्पार्टेबहुशुष्कस्य, (३) बह्वाऽल्पशुष्कस्य, (४) बहार्दै बहुशुष्कस्य संहरणम् । [४] 'आर्दै आर्द्रस्ये'-ति चतुर्थभङ्गस्य चतुर्भङ्गो यथा -- (१) अल्पार्टेड पार्द्रस्य, (२ अल्पा-बहादस्य, (३) वहाऽल्पास्य, (४) बहा बहाद्देस्य संहरणम् । आमु पूर्वोक्तभङ्गीषु प्रत्येकचतुर्भङ्गयाः 'अल्पशुष्केऽल्पशुष्कस्य' बहुशुष्केऽल्पशुष्कस्ये-त्यादिरूपौ प्रथम-तृतीयभङ्गौ कल्प्यों शेषावकल्प्यौ, तथाग्रहणे पात्रोत्थापनादिना दातुः कष्ट पात्रस्फुटन-तद्तवस्तुविकरणाप्रीत्यादिसम्भवात् थोड़े गोलेका, (४) बहुत सूखेमें बहुन गीलेका । [३] 'गीलेमें सूखेका' इस तीसरे भंग ही चौभंगी (१) थोड़े गीलेमें थोड़े सूखेका, (२) थोड़े गीलेमें बहुत सुखेका, (३) बहुत गीलेमें थोड़े सूखेका (४) बहुत गाले में बहुत सूखेका । [४] 'गीलेमें गीलेका' इस चौथे भंगकी चौभंगी-- (१) थोड़े गोलेमें थोड़े गीलका (२) थोड़े गीलेमें बहुत गीलेका । (३) बहुत गोलेमें थोड़े गीले का, (४) बहुत गीलेमें बहुत गीलेका । इन चारों चौमंगियों में से 'थोड़ा सूखेमें थोड़ा सूखा मिलाना' और बहुत सूखेमें थोड़ा सूखा मिलाना' ये पहले और तीसरे भंग ग्राह्य हैं । दूसरे और चौथे भंग ग्राह्य नहीं हैं। इस प्रकारके ग्रहण करने से वर्तन उठानेके कारण दाता को कष्ट, बर्तनका फूटजाना, और वस्तुका (१) था। सूमा था सीमानु, (२) था। सूमा मसालानु (3) मई सूमा છેડા લલાનું, (૪) બહુ સૂકામાં બહુ લીલાનું. [3] alani सूानु' से श्री मनी योनी (१) थे। बीमा थे। सूनु, (२) थे। clari महु सूडानु, (3) म सीमामा था। सूत्रानु, (४) मई सीमामा म सूत्रानु [४] सीतामi alalनु' से याथी यौम (१) यौ31 alawi थे।31 सीसानु, (२) 231 alawi म वासानु. (3) मर ale मा योt alalनु, (४) u alenwi मई तासान'. આ ચાર ચૌભંગીઓમાંથી થોડા સૂકામાં થોડું સૂકું મેળવવું” અને “બહુ સૂકામાં થે ડું સૂકું મેળવવું” એ પહેલે અને ત્રીજો એ બે ભાંગા ગ્રાહ્યા છે. બીજા અને ચોથા ભાંગ ગ્રાહ્યા નથી. એ પ્રમાણે ગ્રહણ કરવાથી વાસણ ઉપાડવાને કારણે દાતાને કષ્ટ, વાસણ ફૂટી જવું અને વસ્તુ વેરાઈ–ઢોળાઈ જવી, અને અપ્રીતિ થવી આદિ દૂષણ થાય છે, જેમકે કઈ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० उ. १ गा ३०-३१ संहरणस्य चतुर्भङ्गयः निक्षिप्य एकस्योपर्यन्यस्य निक्षेपणं कृत्वा । निक्षेपणं च त्रिधा-सचित्तमचित्तंमिश्रं चेति, एतानाश्रित्य तिस्रश्चतुर्भङ्गयो भवन्ति । तत्र [१] सचित्ता-ऽचित्तयोश्चतुर्भङ्गी यथा (१) सचित्ते सचित्तस्य, (२) सचित्तेऽचित्तस्य, (३) अचित्ते सचित्तस्य, (४) भचित्तेऽचित्तस्य निक्षेपणम् ॥१॥ [२] सचित्तमिश्रयोश्चतुर्भङ्गी यथा-- (१) सचित्त सचित्तस्य, (२) सचित्ते मिश्रस्य, (३) मिश्रे सचित्तस्य, (४) मिश्रे मिश्रस्य निक्षेपणम् ।। [३] अचित्त-मिश्रयश्चोतुर्भङ्गी यथा (१) अचित्तेऽचित्तस्य, (२) अचित्ते मिश्रस्य, (३) मिश्रेऽचित्तस्य, (४) मिश्रे मिश्रस्य निक्षेपणमिति ॥३॥ विखरजाना और अप्रीति होना आदि दूषण होते हैं । जैसे किसी दाताने बहुत गीलेका या बहुत सूखेका संहरण करनेके लिए बड़ा भारी वर्त्तन उठाया तो उसे कष्ट होगा । निक्षेपण दोष तीन प्रकारका है-(१) सचित्त, (२) अचित्त, (३) मिश्र । इन तीनोंको आश्रित करके तीन चौभंगियाँ होती हैं। [१] सचित्त-अचित्तको चौभंगी (१) सचित्तपर सचित्तका, (२) सचित्त पर अचित्तका, (३) अचित्त पर सचित्तका, (४) अचित्त पर अचित्तका ॥१॥ [२] सचित्त-मिश्रकी चौभंगी (१) सचित्त पर सचित्तका, (२) सचित पर मिश्रका, (३) मिश्रपर सचित्तका, (४) मिश्र पर मिश्रका निक्षेप करना ॥२॥ [३] अचित्त-मिश्रको चौभंगी દાતાએ બહુ લીલાનું યા બહુ સૂકાનું સહરણ કરવાને માટે બહુ ભારે વાસણ ઉપાડયું હોય તેને કષ્ટ થાય. निA५ ५ ५ ५४२ने छ. (१) सायत, (२) अथित्त, (3) मिश्र. मे ने આશ્રિત કરવાથી ત્રણ ચૌભંગીઓ થાય છે. [१] सायत्त.भयित्तनी थीमा (१) सयित्त ५२ सायत्तनु, (२) सायत्त५२ मयित्तनु', (3) भयित्त ५२ सथित्तनु. (४) सचित्त ५२ अथित्तनु १८ (२) सायत्त भिटनी यौली (१) सयित्त५२ सयित्तनु (२) सथित्त५२ मिश्रनु (3) भिश्र५२ सथित्तनु ४)) મિશ્ર પર મિશ્રનું, નિક્ષેપણ કરવું. રા [3] भयित्त- भिनी यौम શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोदशवैकालिकसूत्रे ___ पुनरपि पृथिव्यादिकायषट्कोपरि पृथिव्यादीनां निक्षेपणेन प्रथमचतुर्भङ्गीस्थितप्रथमभङ्गस्य सचित्ते सचित्तस्ये'-त्येवंरूपस्य षट्त्रिंशद्धेदा भवन्ति, तद्यथा -- (१) पृथिव्यां पृथिव्याः, (२) अपाम् , (३) तेजसः (४) बायोः, (२) वनस्पतेः, (६) त्रसस्य निक्षेपणमिति षट् (६)। एवमकायादावपि प्रत्येककायस्य निक्षेपणेन षट्त्रिंशद् भेदा जायन्ते । एवं शेषभङ्गत्रयस्यापि प्रत्येकं षट्त्रिंशद् भेदा भवन्ति । संकलनया प्रथमचतुर्भङ्गयाश्चतुश्चत्वारिंशदुत्तरमेकशतं भङ्गा भवन्ति । उक्तप्रकारेण शेषचतुर्भङ्गीद्विकस्यापि भङ्गसम्पादने संकलनया सर्वे भेदा द्वात्रिंशदधिकानि चतुः शतानि (४३२)सम्पद्यन्ते । (१) अचित्त पर अचित्तका, (२) अचित्त पर मिश्रणका । (३) मिश्रपर अचित्तका, (४) मिश्रपर मिश्रका नक्षेप करना ॥३॥ फिर भी पृथिवी आदि षट्काय पर पृथिवीकायका निक्षेपण करनेसे प्रथम चतुर्भगीके 'सचित्त पर सचित्तका' इस प्रथम भंगके छत्तीस भंग होते हैं । वे इस प्रकार हैं-- (१) पृथिवी पर पृथिवीका, (२) अप्का, (३) तेजका, (४) वायुका, (५) वनस्पतिका और (६) त्रसका निक्षेपण करना । इसी प्रकार अप्काय आदि पर पृथिवीकाय आदि छह कायोंका निक्षेपण करनेसे छत्तीस भंग होते है, अर्थात् छह काय पर छह कायका निक्षेपण होता है अतः छहसे छह का गुणन करने से प्रथम भंगके छत्तीस भेदोंकी संख्या निकलती है । ऐसे 'सचित्त पर सचित्तका' 'सचित्त पर मिश्रका' मिश्र पर सचित्तका, और मिश्र पर मिश्रका' इन सब (४) भंगोंको छत्तीस छत्तीस संख्या जोड़ देनेसे (३६+३६+३+३६)-एकसो चवालीस (१४४) भंग हो जाते हैं। दूसरी दो चौभंगियोंके भी इतने ही भंग होते हैं, उनको जोड़नेसे चार सौ बत्तीस (४३२) भंग होते हैं। (१) मयित ५२ मथित्तनु, (२) मथित्त ५२ मिश्रनु (3) मिश्र ५२ मयित्तनु, (૪) મિશ્ર પર મિશ્રનું નિક્ષેપણ કરવું. ૩ વળી પણ પૃથિવી આદિ શકાય પર પૃથિવીકાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી પ્રથમ ચઉભંગીના સચિત્ત પર સચિત્તનું એ પ્રથમ ભાંગાના છત્રીસ ભાંગા થાય છે. તે આ પ્રમાણે છે – (१) पृथिवी ५२ पृथिवीनु, (२) अ५ (१) नु (3) तेनु (४) वायुनु, (५) 41पतिनु, (6) उसनु निक्षेप ४२. . એ રીતે અપકાય આદિ પર પૃથિવીકાય આદિ છ કાર્યોનું નિક્ષેપણ કરવાથી છત્રીસ ભાંગા થાય છે, અર્થાત છ કાય પર છકાયનું નિક્ષેપણ થાય છે. એટલે છને છએ ગુણવાથી પ્રથમ ભંગના છત્રીસ ભેદેની સંખ્યા નીકળે છે. એમ ‘સચિત્ત પર સચિત્તનું 'सथित्त ५२ मिश्रनु' भित्र ५२ सथित्तनु' भने 'मिश्र ५२ मिश्रनु' से मया (४) Hinी छत्रीस-छत्रीस सेयी वांथी (38+38+3+36) से। युवाणीस (१४४) ભાંગાં થાય છે. બીજી બે ચૈભંગીઓના પણ એટલાજ ભેટ થાય છે, એને જોડવાથી ચાર શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३२९ अध्ययन ५ उ.१ गा० ३०-३१ सहरण निक्षेपणयोः चतुभयः इमे एककायस्योपर्येकस्यैव कायस्य निक्षेपणभेदाः प्रदर्शिताः, किन्तु 'एककाये कायद्वयस्य चैकस्ये' -त्यादिनिक्षेपणेन चाऽन्येषामपि संभवः, यथा-- ___ 'पृथिव्यां पृथिव्यपूकाययोरित्यादिपृथिव्यप्काययोर्वनस्पते'-रित्यादि च स्वयमवसेयमिति विस्तरभयाद्विरम्यते । पूर्वोक्तेषु भङ्गसमुदयेषु 'अचित्तेऽचित्तनिक्षेपण' -लक्षणभङ्गस्य कल्प्यत्वम्, शेषा आनन्तर्यस्वरूपाः पारम्पर्यस्वरूपा वा निखिला अकल्प्या एवेति वोद्धव्यम् । सचित्त सचित्तपृथिव्यादिकं घट्टयित्वा-संस्पृश्य संचाल्य वा, संस्पर्शनं सचित्ताऽचित्त-मिश्रभेदात्त्रिविधं, तदपि पृथिव्यादिकायषट्केन भिद्यमानमष्टादशविधं, पुनर्दातदेय-भेदाभ्यां द्विविधतया संकलनया षट्त्रिंशद् भेदा जायन्ते, एतेषामपि पुनः-आनन्तर्यपारम्पर्यभेदाद् द्वासप्ततिर्भदा भवन्ति । एवं कायद्वयकायत्रिकादिसंस्पर्शनेनोत्तरोत्तरभूरिभे ये चारसौ बत्तीस (४३२) भंग एक काय पर एक कायका निक्षेपण करनेसे होते हैं, किन्तु एक काय पर दो कायका, जैसे पृथिवीकाय पर पृथिवीकायका और अप्कायका निक्षेपण करनेसे, तथा दो कायों पर एक काय का, जैसे पूर्वोक्त दो कायों पर वनस्पति आदि किसी एक कायका निक्षेपण करनेसे और भी बहुतेरे भंग होते हैं । संयोगसे बननेवाले इन उत्तर भंगोंको स्वयं समझ लेना चाहिए, विस्तार भयसे यहाँ नहीं बताते । पूर्वोक्त भंगोंमेंसे अचित्त पर अचित्तका निपेक्षण करनेरूप एक भंग कल्पनीय है, अवशेष साक्षात् या पारम्परिक निक्षेपणरूप सब भंग अकल्प्य हैं। संस्पर्शन तीन प्रकारका है- (१) सचित्त संस्पर्शन, (२) अचित्त संस्पर्शन, और (३) मिश्र संस्पर्शन । इन तीनोंके पृथिवी आदि षट्कायके भेदसे अठारह भेद होते हैं। और अनन्तर सान मत्रीस (४३२) in थाय छे. એ ૪૩૨ ભાંગા એક કાર્યો પર એક કાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી થાય છે. પરંતુ એક કાય પર બે કાયનું, જેમકે – પૃથિવી કાય પર પૃથિવી કાયનું અને અપૂકાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી, તથા બે કા પર એક કાયનું જેમ પૂર્વોક્ત બે કાર્યો પર વનસ્પતિ આદિ કોઈ એક કાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી બીજા પણ ઘણા ભાંગા થાય છે. એ સાગથી થતા ઉત્તર ભાંગા પોતાની મેળે સમજી सेवा, महुँ विस्तार पाने ४२ मी माया नथी. પૂર્વોક્ત ભાગમાંથી અચિત્ત પર અચિત્તનું નિક્ષેપણ કરવારૂપ એક ભાંગે કહ૫નીય છે, બાકીના સાક્ષાત્ અયવા પારંપરિક નિક્ષેપણરૂપ બધા ભાંગા અકલ્પનીય છે. संपशन ४२i 2:-(१) सचित्त सं२५शन, (२) मयित्त सपशन, भने (૩) મિશ્ર સંસ્પર્શન. એ ત્રણેના પૃથિવી આદિ ષકાયના ભેદે કરીને અઢાર ભેદ થાય છે. દાતા અને દેય (વરતુ) ના ભેદે કરીને છત્રીસ ભેદ થાય છે. અને પછી તેવી જ પરંપરાના શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ___ श्रीदशवकालिकसूत्रे दाः स्वयमूहनीयाः प्रेक्षावद्भिरिति । ननु पारम्परिकसंघटनेन दीयमानाऽऽहारादिवर्जने पृथ्वीसंघटनमनिवार्यमितितत्सघट्टनेऽपि वर्जनप्रसक्तौ भिक्षणां सर्वदाऽऽहारप्रतिषेधप्रसङ्ग इति चेन्न, पृथिव्या अचलतया तत्सञ्चलनाधभावेन तत्संघटने जीवबाधाया असम्भवात, तत्संघट्टिताऽऽहाराऽऽदानं भिक्षणामप्रतिषेध्यमिति भावः उक्तपरम्परिकसंहिताऽऽहाराऽऽदानविषये प्रतिषेधश्चलाऽऽधारविषयः, तत्र प्राणिपीडासंभवात् व्यवहारदोषाच्चेति भावः । एतेषु मध्ये गाथोक्तं सचित्तम, अन्तर्गभितत्वान्मिश्रं च संस्पृश्य सञ्चाल्य वा त थैव= पुनरपि उदकम् = अष्कायं 'सचित्तं' - मित्यनुवर्तते सम्प्रणुद्य-संप्रेर्य इतस्ततः कृ स्वेत्यर्थः॥३०॥ तथा--अवगाह्य वर्षाकाणे गृहाङ्गणप्रतिरुद्धजलान्तः प्रविश्य,चालयित्वाप्रणालिकादिना निस्सार्य च पानभोजनमाहरेत् तदा ददतीमित्यादि पूर्ववत् ॥ ३१॥ तथा परम्पराके भेदसे बहत्तर (७२) भेद होजाते हैं। इनके सिवाय दो कायका या तीन कायका स्पर्श करनेसे और भी भेद होजाते हैं, वे भेदबुद्धिमानोंको स्वयं विचार लेने चाहिए । प्रश्न- हे गुरुमहाराज ! यदि पारम्परिक संघटनसे दिये हुए आहार आदिका भी त्याग किया जायगा तो साधु कभी आहार नहीं ले सकेंगे क्योंकि पृथ्वीका संघट्टन अनिवार्य है -आ हार आदि पृथिवीपर रहते हैं और सचित्त जल भी पृथ्वी पर रहता है, अतः सचित्त जलका पृथिवीका संघटा है और पृथिवीका आहारादिके साथ संघटा हैं, इसलिए आहारादि तथा सचित्त जलका पारम्परिक संघटा होता ही है। उत्तर-हे शिष्य ! पृथिवी अचल है, उसका संचलन नहीं होता; अत एव ऐसे संघटेसे जीवोंको बाधा नहीं होती, इसलिए पृथिवीसे संघट्टित आहारका ग्रहण करना साधुओंके लिए निषिद्ध नहीं है। पहले पारम्परिक संघटित आहारका जो त्याग बताया गया है उसे चल-आधार विषयक ही समझना चाहिये, क्योंकि उस संघट्ट नसे प्राणियोंको पीडा होती है तथा व्यवहारदोष ભેદે કરીને બોંતેર (૭૨) ભેદ થાય છે. તે ઉપરાંત બે કાયને યા ત્રણ કાયને સ્પર્શ કરવાથી બીજા પણ ભેદ થાય છે. તે ભેદે બુદ્ધિમાનેએ સ્વયં વિચારી લેવા. પ્રશ્ન--ગુરૂ મહારાજ ? જો પારસ્પરિક સંઘનથી આપેલા આહારદિને પણ ત્યાગ કરવામાં આવશે તે સાધુ કદાપિ આહાર લઈ શકશે નહિ, કારણ કે પૃથિવીનું સંઘાટન અનિવાર્ય છે-આહારાદિ પૃથિવી પર રહે છે અને સચિત્ત જળ પણ પૃથિવી પર જ રહે છે. એટલે સચિત્ત જળનું પૃથિવી સાથે સંઘટન છે. અને પૃથિવીનું આહારાદિ સાથે સંઘટન છે, તેથી કરીને આહારાદિનું તથા સચિત્ત જળનું પારસ્પરિક સંઘટન થતું જ હોય છે. ઉત્તર–હે શિષ્ય ? પૃથિવી અચલ છે, તેનું સંચલન થતું નથી, તેથી એવા સંઘટનથી ઇને બાધા થતી નથી એથી કરીને પૃથિવીથી સંઘટિત આહારનું ગ્રહણ કરવું એ સાધુએને માટે નિષિદ્ધ નથી. પૂર્વે પારસ્પરિક સંઘટિત આહારને જે ત્યાગ બતાવવામાં આવ્યો છે, તેને ચલ-આધાર વિષયક જ સમજવો જોઈએ, કારણ કે એ સંઘટનથી પ્રાણીઓને ,गृहाङ्गने ति तु सम्यक् तवर्गपञ्चमान्तरस्याङ्गनस्यैवाकारग्रन्थेषु निर्णितत्वादिति श्रीरुचिपत्युपाध्यायाः । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ अध्ययन ५ उ. १ गा०३२ पुरः कर्मस्वरूपम् पुरःकर्मदोषमाह-'पुरेकम्मेण' इत्यादि । मूलम् पुरेकम्मेण हत्थेण, दब्बीए भायणेण वा । दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥३२॥ छाया---पुरःकर्मणा हस्तेन, दा भाजनेन वा । . ददती प्रत्याचक्षीत, तादृशं मे न कल्पते ॥ ३२ ॥ पुरःकर्म दोष कहते हैं-- सान्वयार्थः-पुरेकम्मेण साधु के आनेके पहले या सामने साधुके लिए सचित जलसे किया हुआ हस्तादिधावन पुरःकर्म कहलाता है, उस पुरःकर्मवाले हत्थेण-हाथसे दव्वीए-उस प्रकारकी कडछी अथवा चमचासे वा=अथवा भायणेण-दूसरे बरतनसे (आहारादि) दितियं-देती हुईको पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहार मे-मुझे न कप्पइ = नहीं कल्पता है ॥३२॥ _____टीका-पुरःकर्मणा = पुरः = पूर्वम् अग्रतो वा कर्म = क्रिया पुरःकर्म, तेन पुरः कर्मणा, लक्षणया पुरःकर्मयुक्तेनेत्यर्थः अस्य च हस्तादिभिस्त्रिभिः सम्बन्धः हस्तेन = करेण, दा = खजाकया भाजनेन = अमत्रेण वा ददती प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् । नन्वेवं गृहस्थानां पचन पाचनादिक्रियामन्तरेणाऽऽहाराघसंभव इति साध्वागमनात्याक् पचनादिक्रियाऽवश्यं कर्तव्या, तथा सति पुरकर्मदोपदूषितत्वेन साधनामाहारग्रहभी लगता है ॥३०॥३१॥ अब पुरःकर्मदोष कहते हैं-'पुरेकम्मेण .' इत्यादि ___ साधुके आनेसे पहले या सामने की जानेवाली क्रिया को पुरः कर्म कहते हैं । पुरःयुक्त हाथसे, कुडछी (चमचा) से, अथवा वर्तनसे देनेवालीके प्रति साधु कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है । प्रश्न- हे गुरुमहाराज ! गृहस्थ जबतक पचन पाचन आदि क्रिया न करे तब तक आ हार बन नहीं सकता है' अत एव मुनिके आगमनके पहले पचन पाचन आदि सावध क्रिया अवश्य करनी पडती है । ऐसा करनेसे वह आहार पुरः कर्म से दूषित होगा तो भिक्षु कभी भिक्षा ग्रहण चा. थाय छ तथा व्यवहारहीष ५ मा छे. (३०-३१) वे ५२:४भाष ४ छ-पुरेकम्मेण त्याह. સાધુ આવતાની પહેલાં યા સાધુની સામે કરવામાં આવતી ક્રિયાને પુરષ્કર્મ કહે છે, પુરઃકર્મયુક્ત કડછીથી કે વાસણથી દેનારીની પ્રત્યે સાધુ કહે કે એ આહાર મને ક૫તે નથી પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારજ ! ગૃહરથ જ્યાં સુધી પચન-પાચન આદિ ક્રિયા કરતું નથી, ત્યાંસુધી આહાર બની શકર્તા નથી એટલે મુનિના આગમન પહેલાં પચન-પાચનાદિ ક્રિયા જરૂર કરવી પડે છે. એમ કરવાથી એ આહાર પુરકમથી દૂષિત થાય તે ભિક્ષુ કદાપિ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ श्रीदशवैकालिकसत्रे णाप्रसक्तिः साधुसमक्षं क्रियमाणानां क्रियाणां पुरःकर्मत्वे गृहस्थकृताऽभ्युत्थानाक्रियाणामपि पुरःकर्मत्वापत्तौ तद्गृहस्थप्रदत्तभिक्षाया अपि पुरःकर्मदोषयुक्तत्वेन ग्रहणाभावप्रसङ्गः ? इति चेत्, अत्रोच्यते व्युत्पत्त्याऽभ्युत्थानगमनपचनपाचनादीनामपि पुरस्कर्मत्वसंभवेऽपि समयपरिभाषाबलात् केवलं भिक्षादानतः प्राक् साधुमुद्दिश्य सचित्तोदकेन हस्तभाजनादिप्रक्षालनस्यव पुरकर्मत्वेन सिद्धान्तितत्वम्, न तु पचन-पाचनाभ्युत्थानादेरपीति । अत्र दातृ-द्रव्य-गृहाण्याश्रित्याष्टौ भङ्गा भवन्ति यथा(१) स दाता (पुर कर्मकर्ता), अन्यद, द्रव्यम्, अन्यद्गृहम् । (२) स दाता, अन्यद्रव्यम् तद्गृहम् (यत्र पुरःकर्म कृतम्) । (३) स दाता, तद्रव्यम् (यद्रव्यमुद्दिश्य पुरस्कः कृतम्), अन्यद्गृहम् । नहीं कर सकते, साधुके सामने की जानेवाली क्रियाको भी पुरः कर्म माना जाय तो गृहस्थकी अभ्युत्थान - वन्दन आदि क्रियाएँ भी पुरः कर्म कहलायेंगी, इसलिए उसके द्वारा दिया हुआ पुरः कर्मसे दूषित आहार साधु कैसे ग्रहण करेंगे ? उत्तर- हे शिष्य ! व्युत्पत्तिसे पचन पाचन आदि क्रियाएँ भले ही पुरःकर्म कहलावें, किन्तु समय- (शास्र)- की परिभाषासे भिक्षादान से पहले साधुके उद्देश्य करके सचित्त जलसे हाथ या वर्तन आदिका प्रक्षालन करना ही पुरःकर्म कहलाता है, पचन पाचन आदि क्रियाओं को अथवा खड़े होने आदिको पुरः कर्म नहीं कहते । इस पुरःकर्मके, दाता, द्रव्य और गृहकी विवक्षासे आठ भंग होते हैं, वे यहाँ बताते हैं.... १- वही (पुरः कर्म करनेवाला ) दाता, अन्य द्रव्य, अन्य गृह । २-- वही दाता, अन्य द्रव्य, वही गृह । ३-- वही दाता, वही द्रव्य, अन्य गृह । ભિક્ષા ગ્રહણ કરી શકે નહિ, સાધુની સામે કરવામાં આવનારી ક્રિયાને પણ જે પરકમ માનવામાં આવે તે ગૃહસ્થની અદ્ભુત્થાનવંદન-આદિ ક્રિયાઓ પણ પુરકર્મ કહેવાશે, તે પછી તેને હાથે આપવામાં આવેલ પુરા કર્મોથી દૂષિત આહાર સાધુ કેવી રીતે ગ્રેહણ કરશે. ? ઉત્તર-હે શિષ્ય વ્યુત્પત્તિથી પચન-પાચન-આદિ ક્રિયાઓ ભલે પુરકમ કહેવાય, પરન્ત સમય (શાસ્ત્ર).નિ પરિભાષા પ્રમાણે ભિક્ષાદાનની પહેલાં સાધુને ઉદેશ્ય કરીને સચિત્ત જાહથી હાથ ચા વાસણ આદધેવા એ જ પુરાકમ કહેવાય છે. પચન-પાચન-આદિ યિા. એ અથવા ઊભા થવા આદિની ક્રિયા એ પુરકમ કહેવાતાં નથી, આ પુરાકર્મના, દાતા દ્રવ્ય અને ગૃહની વિવક્ષાએ કરીને આઠ ભાંગા થાય છે. તે અહીં બતાવે છે– ૧ એજ (પુરાકર્મ કરનાર) દાતા, અન્ય દ્રવ્ય, અન્ય ગૃહ એજ દાતા, અન્ય દ્રવ્ય એજ દાતા, मा ६०य, એજ ગૃહ અન્ય ગૃહ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा• ३२ पूरः कर्मस्वरूपम् .. _३३३ (४) स दाता, तद्र्व्यं, तद्गृहम् । (५) अन्यो दाता, तद्र्व्यम्, तद्गृहम् । (६) अन्यो दाता, तद्र्व्य म्, अन्यद्गृहम् । (७) अन्यो दाता, अन्यद्रव्यं, तद्गृहम् । (८) अन्यो दाता, अन्यद्रव्यम्, अन्यद्गृहम् । एष्वष्टसु भङ्गेषु प्रथमाऽष्टमौ भङ्गौ साधूनां कल्प्या, तदितरे भगा अकल्प्याः । साधूनुद्दिश्य करदादिप्रक्षालने पुरःकर्मनिमित्तको दोषो भवन्येवेति न तद्दिने तत्राशनादिकं ग्राह्यम् । ननु कस्मिंश्चिद्भवने येन पुरःकर्माचरितं तदितरस्य करतो भिक्षोपादाने कथं दोषः ? इति चेदुच्यते ४-- वही दाता, वही द्रल्य, वही गृह । ५-- अन्य दाता, वही द्रव्य' वही गृह । ६-- अन्य दाता, वही द्रव्य, अन्य गृह । ७-- अन्य दाता, अन्य द्रव्य, वही गृह । ८-- अन्य दाता, अन्य द्रव्य, अन्य गृह । इन आठ भंगोमेंसे पहला मंग और आठवाँ भंग साधुके लिये कल्प्य हैं और अन्य सब अ कलल्प्य हैं। यह सदा स्मरण रखना चाहिये कि यदि साधुके निमित्त हाथ या कुड़छी आदिको धोया हो तो पुरःकर्म दोष लगता ही है, इसलिये उस घरमें साधु, भिक्षा नहीं लेवे । प्रश्न- हे गुरुमहाराज ! किसी मकानमें एकने पुरःकर्म किया तो उससे आहार आदि न लेकर, दूसरे वर्तन या दूसरे व्यक्तिके हाथसे लिया जाय तो क्यों दोष लगता है ? એજ દાતા, मेश द्रव्य, રાન્ય દાતા, मेस द्रव्य, એજ ગૃહ અન્ય દાતા, से द्रव्य, અન્ય ગૃહ ७ मन्य होता, भन्य द्रव्य, એજ ગૃહ ८ मन्य होता, अन्य द्रव्य, અન્ય ગ્રહ આ આઠ ભાંગામાંથી પહેલો ભાગ અને આઠમો ભાંગે સાધુને માટે કલ્પનીય છે અને બીજા બધા અક૯૫નીય છે. એ વાત સદા યાદ રાખવી કે જે સાધુને નિમિત્તે હાથ યા કડછી આદિને દેવાં હોય તે પુરકમ દેષ લાગે છે જ, તેથી એ દિવસે એ ઘરમાં સાધુ ભિક્ષા લે નહીં. પ્રશ્ન-હે ગુરૂ મહારાજ ! કોઈ મકાનમાં એકે પુરષ્કર્મ કર્યું હોય તે ત્યાં તેનાથી આહારાદિ ન લેતાં, બીજા વાસણથી યા બીજી વ્યક્તિના હાથથી લેવામાં આવે તે કેમ દેષ એજ ગૃહ 79 दोगे? શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे __ यथा येन विषाक्तमन्नं सम्पाद्यते तदितरस्य हस्तादप्युपादीयमानं तदेवान्नं महतेऽनय कल्पते, तथा पुरःकर्मदूषितमपि । अत्रायं विशेषः-यत्र गृहे पुरःकर्म समाचरितं तत्र तस्मिन् दिवसे सर्व द्रव्यमकल्प्यमेव ॥३२॥ मूलम्-एवं उदउल्ले ससिणिद्धे ससक्खे मट्टिया ऊसे । हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३३॥ १८ १३ गेरुयावन्निय-सेडिय,-सोरहिज-पिट्ठ-कुक्कुसकए य । उक्किट्ठ-मसंसट्टे, संसद्धेचेव बोद्धव्वे ॥३४॥ छाया---एवम् उदका: सस्निग्धः, सरजस्को मृत्तिका ऊषः। हरितालं हिगुलकं, मनःशिलाऽञ्जनं लवणम् ॥३३॥ गैरिक-णिक-सेटिका,-सौराष्ट्रिका-पिष्ट-कुक्कुसाः कृतश्च । उत्कृष्टमसंसृष्टः, संमृष्ट एव बोद्धव्यः ॥३४॥ सान्वयार्थ:--एवं-इसी प्रकार उदउल्ले = टपकते हुए जलसहित ससिणिद्धे-गीले रेखाओंसे सहित या ससरक्खे = सचित्त रजसे गुण्ठित सहित हाथ आदि हो, (तथा) मट्टिया-सचित्त मिट्टी उसे = साजीखार हरियाले = हरताल हिंगुलए-हिंगलू मणोसिला= मैनसिल अंजणे = सौवीराजन लोणे-सचित्त नमक | गेरुय = गेरु वन्नि = पीली मिट्टी सेडिय = श्वेत मिट्टी-खड़ी सोरटिज = सोरठी मिट्टी-गोपीचन्दन पिट्ठ = तत्कालका पीसा हुआ आटा (तथा) कुक्कुस = तत्कालके खांडेहुए धान्यके तुष-भूसे-से भरे हुए य = और उकिट्ठ = चाकूसे बनाये हुए कोले, तू बे, ककडी आदिके कोमल कोमल टुकडे, इन पूर्वोक्त किसी वस्तुसे भी असंसटे = खरडे-लिपे-हुए हाथ आदिको साधुके लिए किसी प्रकारसे अलिप्त बनाया हो, धोकर या पूछकर साफ किया हो, उत्तर-हे शिष्य ! जैसे-किसीने विष-मिश्रित आहार बनाया हो तो बनाने वालेसे न लेकर दूसरेके हाथसे लिया जाय तो भी वह आहार महान् अनर्थकारी होता है, उसी प्रकार, पुरःकर्मदूषित आहार आदि भी अनर्थकारक होता है। * इतनी फिर विशेषता समझनी चाहिये कि, जिस घरमें पुरःकर्म किया गया हो उस घरमें उस दिन सब द्रव्य अकल्प्य होते हैं ॥३२॥ ઉત્તર–હે શિષ્ય ? જેવી રીતે કેઈએ વિષમિશ્રિત આહાર બનાવ્યો હોય તો બનાવનારના હાથથી ન લેતાં બીજાના હાથથી લેવામાં આવે તો પણ એ આહાર મહાન અનર્થકારી થાય છે, તેમ પુર કમંદૂષિત આહાશદિ પણ અનર્થકારક થાય છે. એટલી વિશેષતા સમજવી જોઈએ કે જે ઘરમાં પુરા કર્મ કરવામાં આવ્યું હોય તે ઘરમાં એ દિવસે બધાં દ્રવ્ય અકલ્પનીય બને છે. (૩૨) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० ३३-३५ पश्चात्कर्मस्वरूपम् ऐसे हाथको संसढे = चेव कए लिप्तही बोद्धव्वे = जान लेवे, अर्थात् इस प्रकारके असंसृष्ट हाथ आदिसे अथवा इनसे संसृष्ट हाथ आदि से साधु आहार-पानी नहीं लेवे, यह प्रकरणगत सम्बन्ध है ॥३३-३४॥ टीका-'एवम् उदउल्ले०' इत्यादि । एवम् = इत्थमेव पुरःकर्मवदित्यर्थः । उदकार्द्रः = गलत्सचित्तजलबिन्दुकः, सस्निग्धः = ईषदाईः = आर्टीभूतहस्तरेखादिकः-बिन्दु निपातरहित इति यावत् , सरजस्कः = सचित्तरजोऽवगुण्ठितः, हस्तादिऊद्धव्यः, तथा मृत्तिका = साधारणसचित्तमृत्तिका, ऊषः = क्षारमृत्तिका, हरितालं = स्वनामप्रसिद्धपीतवर्णधातुविशेषः, हिगुलकं = स्वनामख्यातपार्थिवरागद्रव्यविशेषः, मनःशिला = स्वनामख्यातरक्तवर्णधातुविशेषः 'मेनसील' इतिप्रसिद्धः अञ्जनं = सौवीराञ्जनम् , लवणं = सचित्तसामुद्रिकलवणम् , गैरिक-वर्णिक-सेटिका-सौराष्ट्रिका-पिष्ट कुक्कुसा इति, मूले आर्षत्वाल्लुपविभक्तिकं पदम् , तत्र गैरिकः = स्वनामप्रसिद्धो धातुः, वर्णिका = पीतवर्णमृत्तिका सेटिका= श्वेतमृत्तिका 'खडी' इतिभाषाप्रसिद्धा, सौराष्टिक = गोपीचन्दनं पिष्टं = गोधूमादिचूर्णम् , कुक्कुसः = तत्कालकण्डितधान्यतुषः, च = पुनः उत्कष्टं = कूष्माण्डा-लाबूत्रपुष-तरम्बुजादीनां शस्त्रकृतं श्लक्ष्ण खण्डम् , एतैमृत्तिकादिभिरसंसृष्टः = साधवे भिक्षां ददामीति कृत्वा संसर्गसम्मार्जनेन तदलिप्तः, संसृष्टः = तत्संसर्गसम्मार्जनेनापि तल्लिप्त एव कृतः = विहिती हम्तादिौंध्यः । पुरःकर्मयुक्तेन हस्तादिनेव उदकादिहस्तादिना, तथा मृत्तिकादिसंसृष्टहस्तादिकं केनापि विधिना साधुनिमित्तमसंसृष्टीकृत्य सम्माये, एवं मृत्तिकादिसंसृष्टहस्तादिना च ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति ॥३३॥३४॥ एवं उदउल्ले' इत्यादि, 'गेरुय' इत्यादि । इसी प्रकार, गिरते हुए सचित्त जलकी बूंदोंसे युक्त, थोडा, गीला (हाथकी रेखा गीली हो), सचित्त रजसे सहित तथा साधारण सचित्त मिट्टी, खारी मिट्टो, हरताल, हिंगुल मैनसील, अंजन, सचित्त नमक, गेरू, पीलो मिट्टी, खडिया मिट्टी, गोपीचन्दन, ताजा पीसा हुआ गेहूं आदिका आटा, तत्काल खांडा हुआ धान्यका तुष (बुस्सा), कुम्भड़ा (कदु), तुम्बा (ककड़ो), तथा तरबूजके छोटे२ खंड, इन सबसे हाथ लिप्त हो अथवा किसी प्रकारसे साधुके लिये उसे (सचित्तसे लिप्त हाथको) अलिप्त किया हो और उस हाथसे भिक्षा देवे तो साधु कहें कि ऐसा पवं उदउल्ले त्या गेरुय त्याह. એ પ્રમાણે, પડતાં સચિત્ત જળનાં બિંદુએથી યુક્ત, થોડા લીલા (હાથની રેખાઓ લીલી હાય, ) સચિત્ત રજથી સહિત, તથા સાધારણ સચિત્ત માટી, ખારી માટી, હરતાલ, હિંગળે મણસીલ, સુરમ, સચિત્ત મીઠું, ગેરૂ, પીળી માટી, ખડીની માટી, ગોપીચંદન, તાજા गेहा माहिती माटी, din Hist धान्यना तुप (थू), 'धी तथा तभू. ચના કકડા, એ બધાથી હાથ લિપ્ત હોય અથવા કોઈ પ્રકારે સાધુને માટે તેને (સચિત્તથી બ૨ડાયેલા, હાથને) અલિપ્ત કર્યા હોય અને એ હાથથી ભિક્ષા આપે તે સાધુ કહે કે એ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ vianew vvvvvvvvvvvvvvvvvvvwww श्रीदशवकालिकसने मूलम्-असंसद्वेण हत्थेण, दब्बीए भायणेण वा । , ११ २ दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे ॥३५॥ छाया--असंसृष्टेन हस्तेन, दा भाजनेन वा । दीयमानं नेच्छेत् , पश्चात्कर्म यत्र भवेत् ॥३५॥ सान्वयार्थ:-जहि = जहां पच्छाकम्मं = पश्चात्कर्म-साधुको आहार आदि देनेके बाद सचित्त जलसे हाथ आदिका धोना भवे = होनेवाला हो उस प्रकारके असंसद्रेण 3 व्यजन शाक कड़ी आदि-से अलिप्त याने साफ ऐसे' हत्थेण = हाथ दबीए = कडछी वा = अथवा भायणेण = बरतनसे दिज्जमाणं = दिये जानेवाले आहार आदिकी साध न इच्छिज्जा= इच्छा न करे, अर्थात उस आहारादिको साधु न लेवे ॥३५॥ टीका-पश्चात्कर्म-दोषमाह -'असंसटेण' इत्यादि । एत्र = हस्तादौ पश्चात् = दानानन्तरं कर्म भवेत् = सम्भवेत् तादृशेन असंसृष्टेन = व्यजनादिनाऽलिप्तेन हस्तेन दा भाजनेन वा 'असंमृष्टेने'-त्येतत्प्रत्येकं सम्बध्यते, दीयमानमाहारादिकं नेच्छेत = नाभिलषेत मनसाऽषीत्यर्थात । यत्र स्वार्थ व्यञ्जनादिना हस्तादिकं नोपलिप्तं किन्तु भिक्षुमुद्दिश्य भक्तादिदानाथे हस्तायुपलेपो जायते, तत्र दानानन्तरं सचित्तजलेन तत्करादिक्षालनसम्भवः, तच्च प्रक्षालनादिकं भिक्षुनिमित्तकमिति पश्चात्कर्मदोषो विज्ञेयः, यधेआहार हमें नही कल्पता है' ॥३३॥३४॥ __अब पश्चात्कर्मदोष बताते हैं-'असंसद्वेण' इत्यादि । भिक्षा देनेके अनन्तर गृहस्थको साधुके निमित्तसे सचित्त जल आदिके द्वारा हाथ आदि प्रक्षालन करनेकी संभावना हो तो साधु ऐसे ब्यञ्जन आदिसे अलिस हाथ, कुडछो अथवा वर्तनसे दिये जानेवाले आहारकी अभिलाषा न करे। गृहस्थके हाथ अपनेलिये व्यञ्जन आदिसे लिप्त न हों तो उन हाथोंसे साधुको भिक्षा देवे, तदनन्तर सचित्त जलसे हाथका धोना सम्भव है और वह प्रक्षालन साधुके निमित्तसे होगा, इसलिये वहाँ पश्चात्कर्म दोष लगता है। यदि ऐसे (लिप्त किये हुए) ही हाथसे स्वयं भोजन करे माहार भने ४८पता नथी. (33-३४) हवे ५श्वाभाष यताव छे-असंसद्वेण छत्याल, ભિક્ષા આપ્યા પછી સાધુને નિમિત્ત સચિત્ત જળ આદિ દ્વારા હાથ આદિ ધઈનાંખવાની ગૃહસ્થને માટે સંભાવના હોય, તે સાધુ એવા વ્યંજન આદિથી અલિપ્ત હાથ, કડછી અથવા વાસણથી આપવામાં આવનારા આહારની અભિલાષા ન કરે. ગૃહસ્થના હાથ પિતાને માટે વ્યંજનાદિથી લિસ ન હોય તે એ હાથથી સાધુને શિક્ષા આપે, પછી સચિત્ત જળથી હાથ ધોવાનો સંભવ છે અને એ પ્રક્ષાલન સાધુના નિમિત્ત થાય aછી તેમાં પશ્ચાત્કર્મદેષ લાગે છે. જે એવા (લિસ કરેલા–ખરડાયલા) જ હાથથી તે - શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा० ३७-४१ आहारगृहणविवेका विधेनापि हस्तादिना स्वयं भुजीतान्यस्मै वा परिवेषयेत्तदा न पश्चात्कर्मदोषः, तत्र पश्चाद्भाविनः प्रक्षालनादेभिक्षुनिमित्तत्वाभावात्, यत्र दादौ पश्चात्कर्मदोषसम्भावनाया अभावस्तत्र नायं प्रतिषेध इत्याशयः ॥३५॥ मूलम् संसटेण य हत्थण दव्वीए भायणेण वा । १० ११ १२ दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा जं तत्थसणियं भवे ॥३६॥ छाया-संसृष्टेन च हस्तेन, दया भाजनेन वा । दीयमानं प्रतीच्छेत् , यत्तषणीयं भवेत् ॥३६।। सान्वयार्थः-संसट्टेण = व्यजनादिसे लिप्त हत्थेण हाथ य-या दवीए कडछी वा अथवा = भायणेण = बरतनसे दिज्जमाणं = दियाजानेवाला आहारादि हो तत्थ= वहां-उस आहारादिमें जंजो एसणियं = उद्गम-उत्पादना-आदि-दोषरहित भवे = हो, उसे पडिच्छिज्जा = लेवे ॥३६॥ टीका-'संसटेण' इत्यादि । टीका स्पष्टा ॥३६॥ मूलम्-दुण्हं तु मुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए । दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, छंदं से पडिलेहए ॥३७॥ छाया-द्वयोस्तु भुञ्जानयोः, एकस्तत्र निमन्त्रयेत् ।। दीयमानं नेच्छेत्, छन्दं तस्य प्रतिलेखयेत् ॥७॥ सान्वयार्थः-तत्थ-वहां भुंजमाणाणं = भोजन करते हुए दुण्डं = दोनों में से तु = यदि एगो एक आदमी निमंतए-निमन्त्रित करे-आहारादि देना चाहे तो दिज्जमाणं वह दियाजानेवाला आहारादि (साधु) न इच्छिज्जा = न चाहे-न लेवे; (किन्तु) से = उस नहीं निमन्त्रण करनेवालेके छंद = अभिप्रायको पडिलेहए देखे ॥३७ या दूसरेको परोसे तो पश्चात्कर्मदोष नहीं लगता, क्योंकि बादमें होनेवाले उस प्रक्षालन आदि कर्मका निमित्त, साघु नहीं रहता है- अर्थात् जिस कुडछी आदिमें पश्चात्कर्म होनेकी सम्भावना न हो वहाँ यह निषेध नहीं है- यानी वह लेना कल्पता हैं ॥ ३५ ॥ संसद्वेण' इत्यादि । संसृष्ट हाथ, कुडछी और वर्तनसे दिये जाने- वाले आहारमेंसे जो एषणीय अर्थात् उद्गम- उत्पादना- आदिदोषरहित हो वह साधु ग्रहणकरें ॥ ३६ ॥ ભાજન કરે યા બીજાને પીરસે તે પશ્ચાત્કર્મદેષ લાગતું નથી, કારણ કે ત્યારબાદ થનારૂં પ્રક્ષાલન-આદિ કર્મનું નિમિત્ત સાધુ રહેતું નથી. અર્થાત્ જે કડછી આર્દિમાં પશ્ચાત્કર્મ થવાની સંભાવના નહિ હોય. ત્યાં એ નિષેધ નથી. એટલે કે એ આહાર લે સાધુને કપે છે. (૩૫). संस?ण त्याहि. सष्ट हाथ, ४७छी भने वासथी मामा भावता माहारमाथा જે એષણીય અર્થાત ઉદ્ગમ-ઉત્પાદન-આદિ દેષથી રહિંત હોય તે સાધુ ગ્રહણ કરે. (૩૬) ९ ११ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ .www श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका-'दुण्हं तु' इत्यादि । तत्र तयोः = एकवस्तु स्वामित्वेन प्रसिद्धयोः, द्वयोः भुजानयोः = (अत्र सप्तम्यर्थे षष्ठी भुजधातुश्च पालनाभ्यवहारोभयार्थकस्ततश्च) पालयतोः, भोक्तुमुद्यतयोश्च मध्ये (पालनार्थकत्वे तु परस्मैपदं स्वयमूहनीयम्) (यदि) एकः =अन्यतरः निमन्त्रयेत् = दातुमुद्यतेत, तदा दीयमानम् (आहारादि) भिक्षुः नेच्छेत्, किन्तु तस्य = दानोद्यतेतरस्य छन्दं अभिप्रायं भू-नेत्रविकारादिरूपचिन्हैः प्रतिलेख येत प्रेक्षेत-दानमस्येष्टं न वे'-ति निश्चिनुयादित्यर्थः ॥३७॥ ततः किं कुर्यादित्याह-'दुण्हं तु' इत्यादि। मूलम्-दुण्हं तु मुंजमाणाणं, दोवि तत्थ निमंतए । ११ १२८ ९ १० दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ॥३८॥ छाया-द्वयोस्तु भुजानयो,-द्वावपि तत्र निमन्त्रयेताम् । दीयमानं प्रतीच्छे,-द्यत्तत्रैषणीयं भवेत् ॥३८॥ सान्वयार्थः-अगर-भुंजमाणाणं = भोजन या खाद्य पदार्थों के रक्षण करते हुए दुण्हं = दोमेंसे तु = यदि तत्थ-वहां दोवी = दोनों ही निमंतए = निमन्त्रण करे-आहारादि धामे तो तत्थ = उस आहारादिमेंसे जं = जो एसणियं = एषणीय-निर्दोष हो वह दिज्जमाणे-दिया जानेवाला आहारादि पडि च्छिज्जा = लेवे ॥३८॥ टीका-यधुभावपि निमन्त्रयेतां तदा तत्र यदेषणीयं तद् गृह्णीयादित्यर्थः ॥३८॥ मूलम्-गुब्विणीए उवण्णत्थं, विविहं पाणभोयणं । भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए ॥३९॥ ' दुहं तु०' इत्यादि । यदि एक वस्तुके दो स्वामी हों तथा दो गृहस्थ भोजन करनेके लिये उद्यत हुए हों, और उन दोनों मेंसे एक व्यक्ति आहार देनेके लिये उद्यत हो तो ऐसे आहारको इच्छा भिक्षु न करें, किन्तु दूसरेके भोह नेत्र आदि विकारसे अभिप्रायका अनुभव करे कि वहराने (देने)में इसकी सम्मति है या नहीं ? ॥३७॥ इसके पश्चात् क्या करे ? सो कहते हैं-' दुण्हं तु.' इत्यादि । यदि वे दोनों आहार देनेको उद्यत हों और वह आहार एषणीय हो तो ग्रहण कर लेवे ॥३८ ॥ दुण्हं तु त्याहि. ४ १२तुना ये स्वाभी डाय तथा ये स्। सन ४२त। હોય અને એ બેમાંથી એક આહાર આપવા માટે ઉધત હેય તે એવા આહારની ઈચ્છા ભિક્ષ ન કરે. પરંતુ બીજાન “બ્રમરો”, નેત્ર, આદિના વિકારથી અભિપ્રાયને અનુભવ કરે કે વહોરાવવામાં એની સંમતિ છે કે નહિ ? (૩૭). से ५छी शुं ४२ ? ४ छ-दुण्हं तु० छत्यादि. જે હાર આપવામાં એ બેઉ ઉઘત હોય અને એ આહાર એષણીય હોય તે સાધુ ते . (३८) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा ३९-४१ आहारगृहणविवेकः छया-गुविण्यै उपन्यस्तं, विविधं पान-भोजनम् । भुज्यमानं विवजयेद, भुक्तशेषं प्रतीच्छेत् ॥३९॥ सान्वयार्थः-गुव्विणीए = गर्भवती के लिए उपण्णत्थं = बनाकर रखा हुआ विविहं = नाना प्रकारका पाणभोयणं = खान-पान (यदि वह) मुंजमाणं = खा रही हो तो (उस आहारादिको साधु) विवज्जिज्जा = वरजे-न लेवे, (किन्तु) भुत्तसेसं = गर्भवतीके भोजन करलेने के बाद जो शेष रहा हो तो उसे पडिच्छए = लेवे ॥३९॥ टीका-'गुम्विणीए' इत्यादि । गुर्विण्य = गर्भवत्यै, उपन्यस्तं = गर्भपोषणार्थ = तदीयरुच्यनुकूलतया सम्पादितं स्थापितं वा विविधं नैकप्रकारकं पानभोजनं = पानं = पेयं-प्रपाणकादिकं, भोजनं भोज्यं मोदकादिकं (तया) भुज्यमानम् उपभुज्यमानं च विषर्जयेतू-न गृह्णीयात् यस्तदर्थोपकल्पिताऽऽहारादिग्रहणे यथारुच्याहाराधभावात्तदिच्छाभगस्ततश्च गर्भपीडा-तत्पातादिसम्भवः । ननु तर्हि किं सर्वथा विवर्जयेदित्याह-'भुक्ततिभुक्तशेष=भुक्तादवशिष्टं प्रतीच्छेत् = उपाददीत ॥३९॥ मूलम्-सिया य समणद्वाए, गुठ्विणी कालमासिणी । ९ १२ १० ११ उट्ठिया वा निसीएज्जा, निसन्ना वा पुणुट्ठए ॥४०॥ १३ १८ १४१५ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । * २३ २२ २४ २१ दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४१॥ 'गुम्विणीए०' इत्यादि । गर्भवती स्त्रीको इच्छा के अनुसार अर्थात् उसके लिये बनाये हुए तथा गर्भको पुष्ट करनेवाले अनेक प्रकारके पान और भोजन (मोदक आदि ) का और वह जिसका उपभोग कर रही हो उस आहारका (साधु) त्याग करे-ग्रहण न करे । क्योंकि उसके लिये बनाये हुए भोजनको ग्रहण करनेसे उसको इच्छाका भंग होकर गर्भको पीडा पहुँचेगी, कौर गर्भपात तक होनेका सम्भव होजायगा । तो क्या वैसा आहार लेवे ही नहीं ? सो कहते हैंगर्भवती के भोजन कर लेने बाद जो आहार अवशेष रहे उसे ग्रहण करनेमें दोष नहीं है ॥३९॥ 'गुग्विणीए०' छत्या. ती सानी ४२छान मनुसशन अर्थात सन माटे मना વેલાં તથા ગર્ભને પુષ્ટ કરનારાં અનેક પ્રકારનાં પાન અને ભજન (દક આદિ) ને અને તે જેને ઉપભેગ કરી રહી હોય તે આહારને સાધુ ત્યાગ કરે–ગ્રહણ ન કરે, કારણ કે એને માટે બનાવવામાં આવેલા ભોજનને ગ્રહણ કરવાથી તેને રૂચિને અનુસાર ભજન નહિ મળે, તેથી એની ઈચ્છાને ભંગ થશે અને ગર્ભને પીડા પહોંચશે, અને ગર્ભપાત પણ થઈ જવાને સંભવ રહેશે તે શું એ આહાર લેવે જ નહિ? તે માટે કહે છે કે-ગર્ભવતી ભજન કરી રહે ત્યારપછી જે આહાર અવશેષ રહે તેને ગ્રહણ કરવામાં દેષ નથી. (૩૯) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w wwww~~~ श्रीदशचैकालिकसने छाया--स्याच्च श्रमणार्थ, गुर्विणी कालमासिनी । उत्थिता वा निपीदेत, निषण्णा वा पुनरुत्तिष्ठेत् ॥४०॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४१॥ सान्वयार्थः-य = और कालमासिणी-नजदीक प्रसवकालवाली गुग्विणी = गर्भवती स्त्री सिया = यदि-कदाचित् उठ्ठिया व= पहले से खड़ी हो (किन्तु) समणट्टाए = साधुके लिए अर्थात् साधुको आहारादि देने के लिए निसीएज्जा = बैठे वा = अथवा निसन्ना पहलेसे बैठी हुई (साधुके लिए) पुण = फिर उठ्ठिए = ऊठे, तं तु-तो वह भत्तपाणं = आहार-पानी संजयाणं = साधुओंके लिए अकप्पियं = अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं देनेवाली से (साधु) पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहारादि मे-मुझे न कप्पइनहीं कल्पता है ॥४०॥४१॥ ___टीका-'सिया य०' 'तं भवे' इत्यादि । च = पुनः उत्थिता = दण्डवत्समवस्थिता, कालमासिनी = कालमासशब्देनात्र प्रसवकालमासो गृह्यते, स च सप्तमासादारभ्य सा सप्तरात्राधिकं नवमासं यावत्, तद्वती-प्राप्तप्रसवयोग्यसमयेत्यर्थः, गुर्विणी-गर्भवती, स्यात् = कदाचित्, श्रमणार्थ = साधुनिमित्त-साधवे दातुमित्यर्थः- निषीदेत् = उपविशेत, वा = अथवा, निषण्णा = उपविष्टा पुनरुत्तिष्ठेत, तदा तत् = तया दीयमानं भक्तपानं तु संयतानां संयमवताम् अकल्पिक(त)म् = अग्राह्यम्, अतो ददतीं प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् । 'सर्व वाक्यं सावधारणं भवती'-तिन्यायेन उत्थिता यदि दातुमुपविशेदेव, उपविष्टा वोत्तिष्ठेदेव तदादीयमानमाहारादिकमकल्पिकं(तं) स्यादिति । तत्तात्पर्याऽवधारणेनेदमा 'सिया य.' इत्यादि 'तं भवे.' इत्यादि च । प्रसव-काल- मासवाली अर्थात् सातवें महीनेसे आरम्भ करके साढे सात रात सहित नववें महीने तक, अर्थात् सात वें महीनेके बाद प्रसव होनेत कके समय वाली स्त्री, यदि खडी हुई हो और साधुको भिक्षा देनेके लिए बेठे, अथवा बैठी हुई हो किन्तु भिक्षा देनेके लिये उठे तो उसके द्वारा दिया जानेवाला आहार, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं है, ॥ अतः देनेवाली (स्त्री) से कहे कि ऐसा आहार हमें कल्पता नहीं है ।।। सब वाक्य, 'सावधारण अर्थात् निश्चय करानेवाले होते हैं' इस न्यायके बल से यहाँ पर सिया य. त्याहि तं भवे० ४त्यादि प्रसव-भासपाणी अर्थात सातमा महानाथा આરંભીને સાડા સાત રાત સહિત નવમાં મહીના સુધી, એટલે કે સાતમા મહિના પછી પ્રસવ થાય ત્યાંસુધીના સમયવાળી સ્ત્રી જે ઊભી હોય અને સાધુને ભિક્ષા આપવાને માટે બેસે, અથવા બેઠી હોય પરન્તુ ભિક્ષા આપવાને માટે ઉઠે તે તેણે આપેલા આહાર સંયમીઓને માટે કલ્પનીય નથી, દેનારી સ્ત્રીને કહેવું કે “એ આહાર મને કલ્પના નથી.' બધાં–વાક “સાધારણ અર્થાત્ નિશ્ચય કરાવવાવાળાં હોય છે એ ન્યાયાનુસાર અહીં શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन. ५ उ. १ गा० ४२-४३ आहारगृहणविवेकः याति-उत्थिता तादृशी गर्भवती यधुत्थितैव, उपविष्टा वोपविष्टैव दद्यात्तदा साधनां नाऽकल्पिकं(त) किन्तु ग्राह्यमेवेति स्थविरकल्पिकापेक्षमिदम् । जिनकल्पिभिस्तु प्रथमदिवसादेव तया दोयमानं न गृह्यते इति वृद्धाः ।। 'कालमासिनो' पदेन, पष्ठमासानन्तरं गर्भस्य गुरुत्वेनोत्थानादिक्रियायां तत्सञ्चलनादिना तस्या गर्भस्य च पीडाऽवश्यंभाविनीति संसूचितम् ।।४०॥४१॥ मूलम्-थणगं पिज्जमाणी (य), दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवित्त रोयतं, आहरे पाण-भोयणं ॥४२॥ ११ १६ १२ १३ १४ १५ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । १७ १८ . २१ २० २२ १९ दितियं पडियोइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४३॥ छया-स्तन्यं पाययन्तो (च), दारकं वा कुमारिकाम् । तं निक्षिप्य रुदन्त, माहरेत्पान-भोजनम् ॥४२॥ यह तात्पर्य निकलता है कि यदि देनेवाली बैठी हो और खड़ी होकरके ही आहार देवे , या खडी हो किन्तु बैठ करके ही आहार देवे तो उससे दिया जानेवाला आहार अकल्प्य होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ऐसी गर्भवती स्त्री यदि बेठी हो और बेठी बेठी ही आहार देवे या खडी हो और खड़ी-खड़ी ही आहार देवे तो साधुओंके लिये अकल्प्य नहीं है, किन्तु कल्प नीय ही है । यह बात, स्थविर-कल्पको अपेक्षासे समझनी चाहिए । वृद्धोंका मत है कि जिन कल्पी महाराज, गर्भके प्रथम दिनसे ही गर्भवती स्त्रीके हाथसे दिया जानेवाला आहार सर्वथा न ही लेते हैं। 'कालमासिनी' पदसे यह सूचित किया है कि -छठे महीनेके बाद गर्भ भारीहो जाता है, इस कारण हिलने डोलनेसे गर्भवती को तथा उसके गर्भको पीडा अवश्यहोती है ॥ ४० ॥ ११॥ એ તાત્પર્ય નીકળે છે કે જે આપનારી બેઠી હોય અને ઊભી થઈને જ આહાર આપે યા ઊભી હોય પરંતુ બેસીને જ આહાર આપે તે એ રીતે આપવામાં આવતો આહાર અકલ્પ્ય બને છે એનું તાત્પર્ય એ થયું કે એવી ગર્ભવતી સ્ત્રી જે બેઠી-બેઠી જ આહાર આપે યા ઊભી હોય તે ઊભી ઊભી આહાર આપે તે સાધુને માટે તે અક૯પ નથી, પરંત કલ્પનીય છે. આ વાત સ્થવિર-કપની અપેક્ષાએ સમજવી જોઈએ. વૃદ્ધોને મત એ છે કે જિનકલ્પી મહારાજ ગર્ભના પ્રથમ દિવસથી જ ગર્ભવતી સ્ત્રીના હાથથી આપવામાં આવતો આહાર સર્વથા લેતા નથી. कालमासिनी से श४था सूथित ४२११मा माव्यु छ । छ महिना पछी सारे થઈ જાય છે તેથી હીલચાલ કરવાથી ગર્ભવતી તથા એના ગર્ભને અવશ્ય પીડા થાય છે. (४०-४१) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीदशवकालिको तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४३॥ सान्वयार्थ:- दारगं = लड़के कुमारियं = लडकी वा = अथवा नपुंसक किसीभी बच्चेको थणगं = स्तन्य-दूध पिज्जमाणी = पिलाती हुई तं = उस बच्चेको रोयंत = रोते हुएको निक्खिवित्तु = भूमि आदि पर रखकर (यदि) पाण-भोयणं = आहार-पानी आहरे = देवे, तं तु तो वह भत्तपाणं = आहार-पानी संजयाणं = साधुओंके लिए अकल्पनीय भवे = होता है, (अतः) दितियं = देनेवाली से पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे न कप्पइ = नहीं कल्पता है ॥४२-४३॥ ___टीकी--'थणगं' इत्यादि । दारकं = शिशुम्, कुमारिका = बालिकाम्, 'वा' शब्दात्संगृहीतं नपुंसकञ्च, स्तन्यं = दुग्धं पाययन्ती, तं = पिबन्तं शिशुप्रभृतिक रुदन्तं = क्रन्दन्तं निक्षिप्य = भूम्यादौ निधाय पान भोजनमाहरेत् तदा तद्भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिकं(त) भवेत्, अतो 'ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति । __अत्रायमभिसन्धिः-यदि दारकादिः केवलं स्तन्यपानोपजीवी स्तन्यपानान्नभोजनोभयोपजीवी वा भवेत् तं पाययन्ती स्तन्यपानं सन्त्यज्य पानभोजनं दद्यात्, अथवा यः शिशुः स्तन्यमपिबन्नके समीपे वा तिष्ठेत्तं परित्यज्य दातुं पृथग्भूतायां तस्यां यदि स रुद्यात् तदापि तया दीयमानमाहारादिकं संयतानामकल्पिक(त)म्, शिश्वाधाहारान्तरायकर्कशहस्त-भूमि-मञ्चकादिस्पर्शजनितपीड़ा-मांसाशि-मार्जार-कुक्कुरादिजन्तुकृतोपघातादि 'थणगं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । स्त्री यदि, लड़के. लड़की या नपुंसकको दूध पिलाती हो और उस पीनेवाले रोते हुए बालक आदिको, जमीन पर रख कर, पान भोजन देवे तो साधु कहे कि 'ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्प्ता है, 'यहाँ तात्पर्य यह है कि, यदि बालक दूधमुहाँ हो अथवा दूध भी पीता हो और अन्न भी खाता हो, उस बालकको स्तनपान छुड़ा कर आहार पानी देवे, या कोई वालक, स्तन पान न करता हुआ भी गोदमें या समीपमें बैठा हो, उसे छोड़कर स्त्री आहार देने के लिये जावे ओर बालक रोने लगे तो भी उसके द्वारा दिया जानेवाला आहार, संयमियोंको ग्राह्य थणगं० त्याल, तं भवे० ४त्याह. જે સ્ત્રી પુત્ર પુત્રી કે નપુંસકને દૂધ પાતી હોય અને એ પીનારા રોતા બાળક આદિને જમીન પર મૂકીને ભેજનપાન આપે તે સાધુ કહે કે “એવો આહાર મને ક૫તે નથી.” અહી તાત્પર્ય એ છે કે જે બાળક દૂધમુખ (દૂધ પર જ) હોય અથવા દૂધ પીતું હોય તથા અન્ન પણ ખાતું હોય, તે એવા બાળકને સ્તનપાન છોડાવીને આહાર પાણી આપે; અથવા કેઈ બાળક સ્તનપાન ન કરતું હોય પણ ખેળામાં યા સમીપમાં બેઠું હોય, તેને છોડીને સ્ત્રી આહાર આપવાને માટે જાય અને બાળક જેવા લાગે તો પણ તેણે આપેલે આહાર સંયમી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा० ४४-४६ शङ्कित-मुद्रिताहारनिषेधः __ ३४३ सम्भवात्, दृश्यते हि कचन निर्जनादौ स्थाने शृगालादयो बालानपहृत्य पलायन्त इति ॥४२॥४३॥ मूलम्-जं भवे भत्तपाणं त, कप्पाकप्पंमि संकियं । ११ १० १२ ९ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४४॥ छाया-यद्भवेद्भक्त-षानन्तु, कल्प्याकल्प्ये शङ्कितम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तदृशम् ॥४४॥ सान्वयार्थ:-जं = जो भत्तपाणं तु = अशनादि कप्पाकप्पम्मि = कल्प्य अकल्प्यके विषयमें संकियं = शङ्कित-शङ्कास्पद भवे = हो तो दितियं = देनेवालीसे पडियाइक्खेकहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे न कप्पइ = नहीं कल्पता है ॥४४॥ टीका-'जं भवे.' इत्यादि । यद्भक्तपानं तु कल्प्याकल्प्ये कल्प्यं च अकल्प्यग्चेति समाहारद्वन्द्वे कल्प्याकल्प्यं तस्मिन, भावप्रधानश्चायं निर्देशस्ततश्च कल्प्यत्वेऽकल्यत्वे चेत्यर्थः, कल्प्यत्वमुद्रमादिदोषरहितत्वमकल्प्यत्वं च तत्सहितत्वम्, तत्र शङ्कितं शङ्का(संशय)युक्तत्वम् इदं भक्तपानं कल्प्यमकल्प्यं वे' -त्येवंविधसंशयविषयीभूतमित्यर्थः, भवेत् तत् ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति ॥४४॥ नहीं है, क्योंकि इससे उसके बालकके आहार में अन्तराय पड़ती है, मातृ-विरहजन्य दुःख होता है, कठोरहाथ, भूमि, खाट आदिके स्पर्शसे पीड़ा होती है और मांसभोजी बिलाव कुत्ते आदि जानवरोंके द्वारा उपघात होनेका सम्भव रहता है । कहीं२ (पहाडो प्रदेशोंमें ) शृगार (गीदड़), बालकोंको उठा कर ले भागते हैं ऐसा देखा जाता है ॥४२ ॥४३॥ ___जं भवे' इत्यादि । 'यह भक्त-पान कल्य है या अकल्प्य' इस प्रकार जिसमें सन्देह हो वह भक्त-पान देनेवाली से साधु कहे कि ऐसा आहार मुझे ग्राह्य नहीं है। ४४ એને માટે ગ્રાહ્યા નથી, કારણ કે તેથી તેના બાળકનાં આહારમાં અંતરાય પડે છે, માતૃવિરહજન્ય દુઃખ થાય છે, કઠોર હાથ, ભૂમિ, ખાટલા આદિના સ્પર્શથી પીડા થાય છે અને માંસભેજી બીલાડાં કૂતરાં આદિ જાનવરો દ્વારા ઉપઘાત થવાને પણ સંભવ રહે છે. કયાંક ક્યાંક (પહાડી પ્રદેશમાં) શિયાળ બાળકને ઉઠાવી જાય છે, એવું પણ જોવામાં આવે છે. (४२-४३) जै भवे. त्यात. 'मान-पान प्य छ १४६८य से प्रारनामा सहेड ઉત્પન્ન થાય તે ભેજ-પાન આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર મને ગ્રાહ્ય નથી. (૪૪) 'दकवारेण' छत्याहि, तं च त्याह.. જળથી ભરેલા વાસણથી. ઘંટીના પડથી, મસાલે વાટવાના પત્થર-શિલાથી બાજોઠથી, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ www.maa 8 श्रीदशबैकालिकसूत्रे मूलम्-दगवारेण पिहियं, नीसाए पीढएण वा । लोढेण वा विलेवेण ‘सिलेसेण वि केणइ ॥४५॥ तं च उभिदिआ दिज्जा, समणट्ठाए व दावए । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४६॥ १५ १६ १४ १८ १७ २० . २३ २२ २४ २१ छाया--दकवारेण पिहितं, निश्रया पीठकेन वा।। लोष्टेन वाविलेपेन, *लेषेण वा केनापि ॥४५॥ तच्चोद्भिद्य दद्यात्, श्रमणार्थ वा दापयेत् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।।४६॥ सान्वयार्थः-दगवारेण जलके भरे हुए घडे से नीसाए घंटोके पुडियेसे या पीसनेको शिलासे वा=अथवा पीढएण-पीढेसे लोढेण-लोडेसे वा अथवा विलेवेण-मिट्टी आदिके लेपसे वि-अथवा केणइ दसरे किसी प्रकारके सिलेसेण-मोम लाख आदि चिकने पदार्थसे पहियं आच्छादित या मुद्रित कियाहुआ अशनादिका बरतन हो, तं च-उसे यदि समणटाए साधुके लिए उभिदिआउघाड़ (खोल) कर दिज्जा खुद देवे वा अथवा दावए -दूसरेसे दिलाबे तो दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-ऐसा आहारादि मे=मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥४५-४६॥ टीका-'दगवारेण .' 'तं च' इत्यादि । दकेति दकंजलं (प्रोक्तं प्राज्ञैर्भुवनममृतं जीवनीयं दकं च' इति हलायुधः,) वारयतिबहिनिःसरणतो निरुणद्धीति दकवार:= जलसंभृत-कलशादिभाजनं तेन, निश्रया घरटेन-पेषणचक्रेण शिलापटेन (पेषणार्थपाषाणेन) वा, पीठकेन काष्ठनिर्मिताऽसनेन, लोष्टेन-शिलादिखण्डेन, विलेपेन-मृतिकादिलेपेन, केनापि श्लेषेण-सिक्थ-लाक्षादिना वा पिहितम्-आच्छादित मुद्रितं वा यदन्नादिभाजनमिति प्रसङ्गलभ्यं भवेत्, तच्च श्रमणार्थमुद्भिद्य-उद्घाटय (स्वयं) दद्यादापयेद्वा तदा गुरुतरवस्तूत्थापनक्लेशहिसादिसम्भावनया ददती प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् ॥४५ ॥४६॥ 'दकवारेण० ' इत्यादि, 'तं च' इत्यादि । जलसे भरेहुए बर्तनसे, चक्की के पुडसे, (मलासा आदि पीसनेके वजनदार पत्थर) से ढके हुए, तथा मिट्टी आदिके लेपसे, अथवा अन्य किसीसे छांदे या लाखआदिसे मुद्रित किया हुवा अन्न-पान, साधु केलिये उघाड़कर स्वयं देवे या दूसरे से दिलावे तो क्लेश और हिंसाकी स મસાલે વાટવાના વજનદાર પથરથી, ઢાંકેલું તથા માટી આદિના લેપથી અથવા અન્ય કોઈ પદાર્થથા છાઘેલું કે લાખ આદિથી બંધ કરેલું વાસણ સાધુને માટે ઉઘાડીને અન્ન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा० ४७-४८-दानार्थोपकल्पिताहारनिषेधः मूलम्-असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा । १ १२ १३ १४ ९ ११ १० जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, दाणट्ठा पगडं इमं ॥४७॥ १५ २० १६ १७ १८ १९ तं भवे-भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । २१ २२ २५ २४ २६ २३ दितियं पडियाइक्खे, न में कप्पइ तोरिसं ॥४८॥ छाया—अशनं पानकं वापि खाद्य स्वाधं तथा । यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, दानार्थ प्रकृतमिदम् ॥४७॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४८॥ सान्वयार्थ:-जं-जो असणं ओदन आदि अशन पाणगं-दाख आदिका धोवन वावि-अथवा खाइमं केला आदि खाध तहा और साइमं-एलची लूग आदि स्वाध इमं= यह 'दाणहा' पथिकोंको देनेके लिए पगडं=उपकल्पितनिकाला हुआ है जो अपने या अपने कुटुम्बके लिए काममें नहीं लाया जावे ऐसा जाणेज्ज-जान लेवे वा अथवा मुणिज्जा=किसीसे सुन लेवे तो तं-वह भत्तपाणं तु-आहार-पानी संजयाणं साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे=मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥४७-४८॥ टीका-'असणं.' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यत् अशनं भोज्यमोदन-पूरिकादिकं, पानकं द्राक्षादिजलम्, अपि वा अथवा खाद्य कदलीफलादिकं, स्वाधम् एलाम्भावनाके कारण देनेवालीको कहे कि ऐसाआहार हमें ग्राह्य नहीं है । तात्पर्य यह है कि, भारी वस्तुके उठानेमें स्व-पर-विराधना आदि दोषोंकी सम्भावना होनेसे यह निषेध किया गया है ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ 'असणं. 'इत्यादि, तथा 'तं भवे . ' इत्यादि । ओदन-आदि अशन, दाखका जल आदि पान, केला आदि खाद्य, लोंग, कपूर, इलायची, પાન પિતે આપે યા બીજા પાસે અપાવે તે કલેશ અને હિંસાની સંભાવનાથી આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર અને ગ્રાહ્ય નથી. તાત્પર્ય એ છે કે ભારે વસ્તુ ઉપાડવામાં સ્વપર-વિરાધના આદિ અનેક દેશેની સંભાવના હોવાથી એ નિધિ કરવામાં આવ્યો છે. (४५-४६) असण त्याह, तथा तं भवे. त्या. એદન આદિ અશન, દ્રાક્ષના ધાવણનું જળ આદિ પાન, કેળાં આદિ ખાદ્ય, લવીંગ, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ . श्रीदशवकालिकसूत्रे लवङ्ग-कर्पूर-पूगीफलादिकम्, 'दानार्थ देशान्तरादागतेन वणिगादिना साधुवादार्थ स्वकीयप्रशंसानिमित्त दातुम्, इद प्रकृतं-नियतरूपेणोपकल्पितम्' इति जानीयात् आमन्त्रणादिना अवगच्छेतू, शृणुयाद्वा-कुतश्चिदाकर्णयेद्वा तद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं भवेत्, अतस्तद्ददतों प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति ॥४७॥४८॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । १ १२ १३ १४ १ ११ १० जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, पुण्णट्ठा पगडं इमं ॥४९॥ १५ २० १६ . १७ . १८ १९ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥५०॥ छाया---अशनं पानकं वापि, खाध स्वाद्य तथा । यज्जानीयच्छणुयाद्वा, पुण्यार्थ प्रकृतमिदम् ॥४९॥ तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५०॥ सान्वयार्थ:-जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं पुण्णट्ठा पगडं='यह करुणाबुद्धिसे दीन-हीन-जनोंके लिए पुण्यार्थ निकाल रखा हैं' इस प्रकार जाणेज्ज-जान लेवे वा अथवा सुणिज्जा=किसी दूसरेसे सुन लेवे तो तंवह भत्तपाणं तु = आहार-पानी संजयाणं = साधुओंके लिए अकप्पियं = अकल्पनीय भवे = होता है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पइ = नहीं कल्पता है ॥४९॥ -५०॥ सुपारी आदि स्वाद्य, 'यह देशान्तरसे आये हुए वणिक् आदिने अपनी प्रशंसाके निमित्त देनेके लिये रक्खा है ।' ऐसा जो समझे या किसीसे सुने तो वह अशनादि, संयमियोंको कल्प नीय नहीं है, इसलिये ऐसा भक्त-पान आदि देने वाली से कहे कि यह मुझे नहीं कल्पता है ॥४७॥ ४८ ॥ _ 'असणं.' इत्यादि, तथा 'तं भवे० ' इत्यादि । जो 'अशन,पान, खाद्य, स्वाद्य दया-बुद्धिसे दीन हीन जनों को देनेके लियेहै-अर्थात् पुण्याકપૂર, ઈલાયચી , સોપારી આદિ સ્વાદ્ય “આ દેશાન્તરથી આવેલા વણિક આદિએ પિતાની પ્રશંસાને લીધે આપવાને માટે રાખેલ છે.” એવું જે સૂમજવામાં કે કાઈ પાસેથી સાંભળવામાં આવે તે એ અશનાદિ સંયમીઓને માટે ક૯પનીય નથી. તેથી એવાં ભેજના પાન माहिमापनाशन साधु ४३ मे भने ४८५ता नथी. (४७-४८) असणं० ४त्या, तथा तं भवे. त्याहि. "A AAन, पान, माध, या-मुद्धिथी ीन-हीन मनाने माने माटे छे, मात શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० ४९-५० पुण्यार्थोपकल्पिताहारनिषेधः टीका- 'असणं ०' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि च । यदशनादिकं 'पुण्यार्थ पुण्याय-सुकृतायेदं दयाधिया, वनीय (प)क-श्रमणार्थोंपकल्पितस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वादत्र दीनेभ्यो वितरणार्थमिदं प्रकृतम् उपकल्पितम्-स्व-स्वपोष्यवर्गोभयोपभोग्यभिन्नतया स्थापितमिति यावत् ' इति जानीयात् शृणुयाद्वा तद्भक्तपानमित्यादि पूर्ववत् । पूर्वगाथायां 'दाणट्ठा' इत्यत्र दान-शब्देन स्वप्रशंसाथ दानं गृह्यते, प्रकृते 'पुण्णहा' इत्यत्र पुण्य-शब्देन स्वप्रशंसाव्यतिरिक्तफलाभिसन्धानेन दानं गृह्यते, इति दानपुण्ययोर्भेदः। 'महाव्रतधारिभ्य एव यद्दीयते तत्रैव पुण्यं न तु तदितरेभ्यः प्रदाने, तथा सति ही प्रत्युत पापकलापः समुत्पद्यते' इति केचिदाहुः, ('तेरहपंथी' शब्देन प्रसिद्धाः साधव आहुः,) तद भ्रान्तिविलसितम् , भगवता हि 'पुण्णट्ठा पगडं' इत्यनेन 'पुण्यार्थमुपकल्पितं द्रव्यं साधनामकल्प्य '-मिति बोधितं, तत्र महाव्रतधारकेतरेभ्यः प्रदातुमुपकल्पितस्य द्रव्यस्य तन्मते पुण्यार्थत्वाभावेन 'पुण्णट्ठा पगडं' इति वाक्यं निर्विषयतामापयेत । र्थ बनाया गया है। ऐसा जाने या सुने तो वह संयमोके लिये प्राधनहीं है, अत एव ऐसा आ हार देनेवालीसे कहे कि-' यह भक्त-पान लेना मुझे नहींकल्पता है'। पहलो गाथामें आये हुए'दा णटा' पदके 'दान' शब्दसे 'अपनी प्रशंसाके लिये दिया जाने वाला दान अर्थ' ग्रहण किया है कि न्तु इस गाथामें 'पुण्णदा' के 'पुण्य' शब्दसे अपनी प्रशंसाके सिवाय अन्य किसी प्रयोजनसे दिया जानेवाला 'दान' अर्थ होता है- दान और पुण्यमें यही अन्तर है । 'कोई-कोई कहते हैं कि-"महाव्रतधारी मुनियोंको जो दान दिया जाता है उसीमें पुण्य है - दूसरोंको देनेमें नहीं, दूसरों को देनेसे उलटा पाप लगता है" । उनका यह कहना भ्रान्ति-मूलक हैं, क्योंकि, भगवान्ने 'पुण्णट्ठा पगडं' इस कथनसे पुण्यके लिये निकाले हुए द्रव्यको साधुओंके પુણ્યાર્થી બનાવવામાં આવ્યાં છે.” એવું જાણવામાં યા સાંભળવામાં આવે તો એ સંયમીને માટે ગ્રાહી નથી. તેથી કરીને એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે-એ ભોજન-પાન લેવાં મને કલ્પતાં નથી. પહેલી ગાથામાં આવેલા રાજદૂત પદના સાત શબ્દથી પ તાની પ્રશંસાને માટે આપવામાં આવતું દાન ” એ અર્થ ગ્રહણ કર્યો છે, પણ આ ગાથામાં gurદા માના પુત્ર શબ્દથી પોતાની પ્રશંસા સિવાયના અન્ય કોઈ પ્રયોજનથી આપવામાં આવતું દાન” એવો અર્થ થાય છે. દાન અને પુણ્યમાં એ અંતર છે. . કોઈ-કોઈ કહે છે કે “મહાવ્રતધારી મુનિઓને જે દાન આપવા માં આવે છે તેમાં પુણ્ય છે. બીજાઓને દેવામાં પુણ્ય નથી, બીજાઓને દેવામાં ઉલટું પાપ લાગે છે. એમનું એવું કહેવુ બ્રાનિતમ્ લક છે, કારણ કે ભગવાને પુvટ્ટા જવું એ કથન વડે પુણ્યને માટે કાઢેલા દ્રવ્યને સાધુઓને માટે અકલ્પનીય બતાવ્યું છે. જો મહાવ્રતીએ સિવાયના બીજાઓને આપવામાં પુણ્ય ન હોય તે ભગવાને કરેલે એ નિષેધ કેને લાગુ પડશે ?, તાત્પર્ય १ तेरह संप्रदाय के साधु ૨ તેરહપંથી સંપ્રદાયના સાધુઓ ! શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे " न पुण्यार्थीपकल्पितद्रव्यस्याकल्प्यत्वस्वीकारे साधोः शिष्टकुले भिक्षाग्रहणमेवाकल्प्यं स्यात् पुण्यार्थमेव तेषां पाकप्रवृत्तेन तु क्षुद्रजन्तुवत्स्वोदरपूर्त्तिमात्रार्थमिति चेन्न तथाहि - यद्यपि शिष्टकुले सम्पादितमन्नं पुण्यार्थप्रकृतं तथापि यदन्येभ्यो दातुमेव निष्पादितं न तु स्वोपभोगार्थं तदेवान्नं 'पुण्यार्थ प्रकृत' - शब्देनात्र गृह्यते, एतदेव देयमित्युच्यते । ईदृशस्यैव ग्रहणे प्रतिषेधः, आरम्भान्तरायादिदोषप्रसङ्गात् । यत्तु स्वस्य स्वपोष्यवर्गस्य चोपभोगार्थमुदारबुद्धया सम्पादितं तच्चानियतदानार्थत्वाददेयमित्युच्यते । अस्य ३४८ 9 वास्ते अकल्पनीय बताया है । यदि महाव्रतियोंको छोड़कर अन्य किसीको देनेमें पुण्य न हो तो भगवान्का किया हुआ यह निषेध किस पर लागू पड़ेगा है तात्पर्य यह है कि पुण्यके लिये निकाले हुए द्रव्य को मुनियोंके लिये अकल्प्य बतानेसे यह सिद्ध होता है कि दूसरों को दान देने से भी पुण्यकी प्राप्ति होती है । शंका- यदि पुण्यार्थ निकाला हुआ द्रव्य, साधुओंको ग्राह्य नहीं है तो शिष्टकुलमें साधु, कभी भिक्षा ग्रहण कर ही नहीं सकते, क्योंकि शिष्ट जन, पुण्यके लिये ही रसोईका आरम्भ करते हैं, साधारण (क्षुद्र) प्राणियों की तरह अपने ही उदरको पूर्त्तिके लिये नहीं । समाधान- यद्यपि शिष्टकुलमें तैयार किया हुआ आहार पुण्यके लिये ही संपादित होता है तथापि जो आहार दूसरोंको ही देनेके लिये बनाया जाता है अपने उपभोग के लिये नही 'पुण्ण ट्ठा पगडं ' (पुण्यार्थ निष्पादित) और वही 'देय' कहलाता है । इस प्रकार के आहारको ही ग्रहण करनेका निषेध किया गया है। क्योंकि, उसे लेलेनेसे आरंभ और अन्तराय आदि दोषोंका प्रसंग संभव होता है जो आहार, अपने और अपने आश्रित जनोंके उपभोगके लिये उदार बुद्धिसे निष्पन्न किया जाता है, वह अनियत दानके लिये होनेसे 'अदेय' कहलाता है । इस अदेय आहारको ग्रहण એ છે કે પુણ્યને માટે કાઢેલા દ્રવ્યને મુનિએને માટે અકલ્પ્ય બતાવ્યુ હાવાથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે ખીજાઓને દાન આપવાથી પણુ પુણ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે. શંકા-જો પુછ્યા કાઢેલું દ્રવ્ય સાધુએને માટે ગ્રાહ્ય ન હોય તા શિષ્ટ કુળમાં સાધુ કદાપિ ભિક્ષા ગ્રહણ કરી શકશે જ નહિં, કારણ કે શિષ્ટજન પુણ્યને માટે જ રસેાઇના આરંભ કરે છે. સાધારણ (ક્ષુદ્ર) પ્રાણીઓની પેઠે માત્ર પેાતાનુ જ ઉદર ભરવાને માટે નહિ. સમાધાન-જો કે શિષ્ટ કુળમાં તૈયાર કરવામાં આવતા આહાર પુણ્યને માટેજ સ`પાદિત હાય છે, તાપણુ જે આહાર ખીજાઓને માટે બનાવવામાં આવે છે,-પેાતાના ઉપલેાभाटे नहि, ते पुणडा पगडं ( पुण्यार्थ निष्पादित) भने ४ 'हेय' उडेवाय छे. मे પ્રકારના આહારને પણ ગ્રહણ કરવાનો નિષેધ કરવામાં આવ્યે છે; કારણ કે.એ લેવાથી આરલ અને અંતરાય આદિ દોષાના પ્રસંગ ઉત્પન્ન થાય છે. જે આહાર પેાતાને માટે અને પેાતાનાં આશ્રિત જનેાના ઉપભેગને માટે ઉદાર-બુદ્ધિ થી નિષ્પન્ન કરવામાં આવે છે તે અનિયત દાનને માટે હાવાથી અદેય' કહેવાય છે. એ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० ५१-५२ वनोपकार्थीपकल्पिताहारनिषेधः ३४९ 9 ग्रहणे साधोर्नारम्भ, दिदोषप्रसङ्गः साध्वर्थपाकप्रवृत्तेरभावात् । किश्व-शास्त्रे, शिष्टकुले क्षिक्षाग्रहणस्य विधानान्न तथाविधाऽऽहारग्रहणे दोष इत्यलं पल्लवितेन || ४९ ॥५०॥ ५ ४ ६ २ ३ ८ ७ मूलम् - असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । १ १२ १३ १४ ९ १० जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं ॥ ५१ ॥ १५ २० १६ १७ १८ १९ मूलम् - तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । २१ २२ २५ २४ २६ २३ दितियं पडियाइक्खे न मे कप्पड़ तारि ॥ ५२ ॥ छाया -- अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, वनीय- ( प ) - कार्य प्रकृतमिदम् ॥ ५१ ॥ तद्भवेद्भक्त पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ||५२॥ सान्वयार्थ :- जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिमं इमं वणिमट्ठा पगडं - यह भिखारी और दरिद्रोंके लिए उपकल्पित है ऐसा जाणेज्ज - जान लेवे वा= अथवा सुणिज्जा = किसी दूसरे से सुन लेवे तो तं - वह भत्तपाणं तु - आहार- पानी संजयाणं - साधुओंके लिए अकप्पियं = अकल्पनीय भवे = होता है, (अतः) दितियं देती हुई साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं= इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पइ = नहीं कल्पता है || ५१|| ५२ ॥ टीका - - ' असणं ०' इत्यादि 'तं भवे० ' इत्यादि च । यद् अशनादिकं बनीप- (प) कार्थम् =वनीय(प)कः=याचकमात्रं, यद्वा सिद्धान्नमात्रोपजीवी, अथवा वनी - स्वकीयदुरकरनेसे साधुको आरम्भ - आदि दोष नहीं लगते हैं, क्योंकि वह साधुके निमित्त नहीं बनाया जाता है, तथा शास्त्र में, शिष्टकुलमें भिक्षा ग्रहण करने का विधान है, इसलिये भी शिष्टकुलमें आहार ग्रहण करने में दोष नहीं आसकता, इतना ही समाधान काफी है || ४९|| ५० ॥ 'असणं' इत्यादि, तथा 'तं भवे० ' इत्यादि । याचकमात्रको अथवा सिद्ध ( तैयार ) भिक्षा लेकर जीवन निर्वाह करनेवालेको वनीपक कहते हैं, 'वनीपक पाठ पक्षमें - दाता के माननीय गुरु आदिमें भक्ति प्रकट करके लोजानेवाली भिक्षाकी અદેય આહાર ગ્રહણ કરવાથી સાધુને આર ભાદિ દોષ લાગત નથી, કારણ કે એ સાધુને માટે બનાવવામાં આવેલે, હાતા નથી. તથા શાસ્ત્રમાં શિકુળમાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાનું વિધાન છે, તેથી પણ શિષ્ટકુળમાં આહાર ગ્રહણુ કરવામાં દોષ લાગી શકતા નથી. એક્સ ● समाधान परतुं छे. (४८-५० ) असणं० इत्यादि तथा तं भवे० इत्यादि. યાચક-માત્રને અથવા સિદ્ધ (તૈયાર) ભિક્ષા લઈને જીવન નિર્વાહકરનારાને ‘વનીપક' કહે છે. વનીપજ પાઠથી પક્ષમાં-દાતાના માનનીય ગુરૂદિમાં ભક્તિ પ્રકટ કરીને લેવામા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोदशवैकालिकसूत्रे वस्थाप्रदर्शनपुरःसरं प्रियाऽऽलापादिना लभ्यद्रव्यं, तां याति-प्रामोतीति वनीयः, स एव यनीयकः, 'वनीपके'तिपाठपक्षे तु तां पूर्वोक्तां वनीं पिबति आस्वादयतीति, पाति-रक्षति वा वनीपः, स एव वनीपकः, अथवा वनुते-प्रायो दातुः सम्माननीयेष्वात्मनो भक्तिं प्रकटयन् याचत् इति वा, ('वनु याचने' अस्माद्धातोरौणादिक ईषकप्रत्ययः । यदिवा वं-सान्त्वनं-बुभुक्षाजनिततापोपशमनलक्षणं नयति-प्रापयतीति बनीः, यद्वा वन्यते-याच्यतसिक्ष्यते इतिवनी भिक्षणीयद्रव्यम् , ('वनु याचने' अस्मादौणादिक इन् कृदिकारादिति डोष) तां पाति-उपकल्प्य रक्षतीति वनीप:-गृहस्थस्तं कायति-प्रार्थयते ग्रियोक्त्यादिनेति वनीपकस्तदर्थमिदं प्रकृतमित्यादि पूर्ववत् ॥५१॥५२॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइभं तहा । १२ १३ १४ ९ ११ १० जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं ॥५३॥ १५ २० १ ६ १७ १८ १९ तं भव भत्त-पाणं त संजयाण अकप्पियं । २२ २५ २४ २६ २३ दितियं पडियाइक्खे न म कप्पइ तारिसं ॥५४॥ छाया-अशनं पानकं वापि, खाद्य स्वाध तथा । यज्जानीयाच्छणुयाद्वा, श्रमणार्थ प्रकृतमिदम् ॥५३॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५४॥ सान्वयाथ:--जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं समणटा पगडं यह निर्ग्रन्थ शाक्य तापस गैरिक और आजीवक, इन पांच प्रकारके श्रमणोंके लिए उपकल्पित है, ऐसा जाणेज्ज-जान लेवे वा अथवा सुणिज्जा किसी दूसरेसे सुन लेवे तो तंबह भत्तपाणं तु-आहार-पानी संजयाण साधुओं के लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = वनी कहते है, और ऐसी भिक्षा लेनेवाला 'वनीपक' कहलाता है, अथवा जो, भूखका तापमिटाकर सान्त्वना प्रदान करे उसे वनी (भिक्षा देनेके लिये रखा हुआ अन्नादि) कहते हैं, उसको सुरक्षित रखनेवाला (गृहस्थ) से प्रार्थना करके भिक्षा प्राप्त करने वालेको 'वनोपक' कहते हैं । उस वनीपकके लिये बनाया हुआ देवे तो देनेवालीसे कहे कि ऐसा आहार मुझे कल्पता नहीं है ।। ५१॥५२॥ આવતી ભિક્ષાને વન કહે છે, અને એવી ભિક્ષા લેનાર વન કહેવાય છે, અથવા જે लम त५ भिटावी. सावन मातन वनी (भिक्षा पासवान राम सन्ना) છે એને સુરક્ષિત રાખનાર ને પ્રાર્થના કરીને ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરનારને વાઘ કહે છે. એ વનીપકને માટે બનાવેલો આહાર આપે તો આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર મને पता नथी (५१-५२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा०५३-५४ श्रमणार्थोपकल्पिताहारनिषेधः ३५१ कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पइ = नहीं कल्पता हैं ॥५३॥५४॥ टीका-'असणं.' इत्यादि, तथा 'तं' भवे' इत्यादि । श्रमणाय श्रमणाः लोकप्रसिद्धधनुरोधतो निर्ग्रन्थ-शाक्य-गैरिका-ऽऽजीवकभेदेन पञ्चधा, तत्र निर्ग्रन्थाः = पश्चमहाव्रतधारिणः, शाक्याः = सौगताः, तापसाः = जटाधारिणः, गैरिकाः रक्तवर्णधातुविशेषरजितवस्त्रधारिणः, परिव्राजका इत्यर्थः, आजीवकाः = गोशालकमतानुयायिनस्तदर्थमिदं प्रकृतमित्यादि प्राग्वत् ॥५३॥५४॥ मूलम्-उदेसियं कीयगडं, पूइकम्मं च आहडं । अझोयरय पामिच्चं, मीसजाय विवज्जए ॥५५॥ छाया-औदेशिकं क्रीतकृतं, पूतिकर्म चाभ्याहृतम् । अध्यवपूरकं प्रामित्यं, मिश्रजातं विवर्जयेत् ॥५५॥ सान्वयार्थ :-उद्देसियं = औंदेशिक-किसी एकको उद्देश करके बनाये हुए अरानादिको कीयगडं = खरीदे हुएको पूइकम्म = आधाकर्मादिदोषसे दुषित ऐसे आहारसे मिले हुए को आहडं-सामने लाये हुए को पामिच्चं-उधार लाये हुए को और मीसजाए-अपने तथा साधुओंके लिए मिश्रित (भेला) करके बनाये हुए अशनादिको(साधु) विवज्जए-वरजे, अर्थात ऐसा आहार हो तो नहीं लेवे ॥ ५५॥ टीका-'उद्देसियं०' इत्यादि । १-औदेशिकम् उहेशनमुद्देशस्तेन कृत-मौदेशिकम् 'असण.' इत्यादि तथा 'तं भवे.' इत्यादि। लोकमें पाँच प्रकारके श्रमण होते हैं-(१) निर्ग्रन्थ (पंच-महाव्रतधारी), (२) सौगत (बुद्धके अनुयायी), (३) तापस (जटाधारो गैरिक (गेरुआ वस्त्र पहिननेवाले), (५) आजीवक (गोशालके मतानुयायी) । इनके लिये जो आहार बनाया गया हो वह, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं है, अत एव ऐसा आहार देनेवालीसे साधु कहे कि मुझे नहीं कल्पता है ॥५३॥५४॥ 'उद्देसिय०' इत्यादि । [१]-किसी को उद्देश करके बनाया हुआ आहार, औदेशिक कह. असण. त्या तथा तं भवे० छत्याहि. भi viय प्रा२न। श्रभो। डाय छे. (१) नि २ (५ यमहामारी), (२) सोजत (अद्धना मनुयायी), (3) ता५स (धारी), (४) गै२ि४ (३मा पसी परना२), (५) આજીવક (ગશાળના મતાનુયાયી). એમને માટે જે આહાર બનાવવામાં આવ્યું હોય તે સંયમીઓને માટે કપ્ય નથી, તેથી એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે તે મને ४५५ता नथी. (43-५४) उद्देसियं० ४त्या (१) ४२ उद्देने मनावे आ६२ भौशि: पाय त શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिकसत्रे ततिनिधं-सामान्यौदेशिकं विशेषौदेशिकं च, तत्राध-प्रतिदिनं स्वार्थ सम्पाद्यते तावत्सम्पादानप्रवृत्तौ सत्यां 'भिक्षादानं गृहस्थाऽऽचारः' इति बुद्धया 'यः कश्चित्साधुरागच्छेतस्मै देय' मिती सामान्यत उद्दिश्य समधिकं निष्पादिनम् । द्वितीयं-कमप्येकं साधु व्यक्ति विशेषरूपेणोद्दिश्य सम्पादितम् । २-क्रीतकृतं-क्रयणं गृहस्थकर्त्तकं, तेन सम्पा. दितं क्रीतकृतं क्रीतमित्यर्थः तत्रिविधं-द्रव्यक्रीतं भावक्रीतं, मिश्रक्रीतश्च, तत्र द्रव्य-क्रीत =स्यपरतदुभयभेदेन त्रिधा-स्वद्रव्यक्रीतं परद्रव्यक्रीतम् , उभयद्रव्यक्रीतञ्च । तदपि सचित्ताऽ चित्त-मिश्रभेदात्प्रत्येकं त्रिविधं सचित्तस्वद्रव्यक्रीतम् , अचित्तस्वद्रव्यक्रीत, मिश्रस्वद्रव्यकोतं, सचित्तपरद्रव्यक्रीतम् , अचित्तपरद्रव्यक्रीतं, मिश्रपरद्रव्यक्रीतं, सचित्तोभयद्रव्यक्रीतम् , अचित्तोभयद्रव्यक्रीतं, मिश्रोभयद्रव्यक्रीतञ्चेति । इत्थं द्रव्यकीतं नवधा भवति । भाव-क्रीतं द्विविधं-स्वभावक्रीत परभावक्रोतञ्च तत्र स्वभावक्रीतं-साधौ समुपागते तदर्थ गृहस्थेन स्वविद्या' मन्त्रादि दत्त्वा क्रीतम् । परभावक्रीतं-विद्यामन्त्रादि दत्त्वा लाता है । वह दो प्रकारका है-१-साम न्य-औदेशिक और २ -विशेष-औदेशिक । जितना अहार, प्रतिदिन गृहस्थ बनाता है उतना आहार बनाते समय ऐसा विचार करना कि 'भिक्षा देना गृहस्थका कर्त्तव्य है, इसलिये जो कोई साधु आवेगा उसे दे देंगे ऐसा विचार कर बनाया हुता आहार 'समान्य-ओदेशिक' ओर किसी एक साधुके निमित्त बनाया हुआ आहार, 'विशेष-औदेशिक' कहलाता है। [२] खरीद किया हुआ आहार कोतकृत कहलाता है । वह तीन प्रकारका है (१)-द्रव्य क्रीत (२)-भावक्रीत (३)-मिश्रक्रीत द्रव्यक्रीत तीन प्रकारका है-(१)-अपने द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२)-पराये द्रव्यसे खरोदा हुआ, (३)-दोनों द्रव्योंसे खरीदा हुआ,। ये तीनों भेद तीन २ प्रकारके हैं। स्वद्रव्य क्रीतके भेद-(१) अपने सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२)-अपने अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३)-अपने सचित्त और अचित्त, दोनों प्रकारके द्रव्यसे खरीदा हुआ। परदन्यक्रीतके भेद-(१)-दूसरेके अचित्त द्रव्यसे खरीदो हुआ, (३) दूसरेके दोनों प्रकाबहाना हाय छे. (१) सामान्य मीदेशिमन (२) विशेष-मोशि४. २८समाहार બનાવ છે એટલા આહાર બનાવતી વખતે એવા વિચાર કરો કે ‘ભિયા આપવી એ ગૃહસ્થનું કર્તવ્ય છે, તેથી જે કઈ સાધુ આવશે તે તેને આપીશ.” એ વિચાર કરીને બનાવેલે આહાર સામાન્ય શિક, અને કેઈ એક સાધુને નિમિત્તે બનાવેલ આહાર વિશેષ ઔદેશિક કહેવાય છે. (२)-५२६ रे। 8२ जीतकृत ४३वाय छे. ते १२ने। छ-(१) द्रव्यात, (२)लात, (3) भिलीत, द्र०यही प्रारनेछ-(१) पोताना द्रव्यथा भरीती, () પરાયા દ્રવ્યથી ખરીદેલે, (૩) બેઉ દ્રવ્યથી ખરીદેલે. એ ત્રણે ભેદ ત્રણ-ત્રણ પ્રકાર ૨ના છે. સ્વદ્રવ્યક્રતના ભેદ-(૧) પિતાના સચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલ, (૨) પોતાના અચિત્ત દ્વવથી ખરીદેલો, (૩) પિતાને સચિત્ત અને અચિત્ત એક પ્રકારના દ્રવ્યથી ખરીદેલ १ विधा-ससाधना रोहिणी प्रज्ञप्त्यादिरूपा, मन्त्रः-असाधनो वशीकरणादिः । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० ५५ औद्देशिककीताकृताहारस्वरूपम् साधुकृते परेण क्रीतमुपलभ्यान्येन गृहस्थेन दीयमानं तदनेकविधं स्वयमूह्यम् । मिश्र - ( द्रव्य भावरूप) - क्रीतस्य च नव भङ्गाः, यथा - १ स्वकीयेन द्रव्येण स्वकीयेन भावेन । २ - स्वकीयेन द्रव्येण परकीयेण भावेन । ३ - परकीयेण द्रव्येण स्वकीयेन भावेन । ४ - परकीयेण द्रव्येण परकीयेण भावेन । के द्रव्यसे खरीदा हुआ । उभयत्रीतके भेद - (१) - दोनों के सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ (२) दोनोंके अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ (३) दोनोंके सचित्त और अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ । ये सब द्रव्यक्रीत हैं । भाव-कीत, दो प्रकारका है - ( १ ) - स्व-भावक्रीत, ( २ ) - पर - भावकीत । साधुके आने पर, साधुके लिये, अपनी विद्या या अपना मन्त्र दे कर, गृहस्थद्वारा खरीदा हुआ आहार स्व-भावक्रीत है, दूसरेने विद्या- मंत्र देकर, साधुके लिये आहार आदि खरीदा हो और साधुके आने पर उस आहारको दूसरा लेलेवे तो उसे परभाव- क्रीत कहते हैं, वह अनेक प्रकारका है सो स्वयं समझ लेना चाहिये । ३५३ मिश्र - (द्रव्य भावरूप) - क्रीतके नौ भंग होते हैं १ - अपने द्रव्यसे अपने भावसे । २- अपने द्रव्यसे परके भावसे । ३ - परके द्रव्यसे अपने भावसे । ४ - परके द्रव्य से परके भावसे । પરદ્રચક્રીતના ભેદ–(૧( ખીજાના સચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૨) બીજાના અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) ખીજાના એ પ્રકારના દ્રવ્યથી ખરીદેલા. ઉભયક્રીતના ભેદ–(૧) બેઉના સચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૨) બેઉના અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) એઉના સચિત્ત અને અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલેા. એ બધા દ્રવ્યકીત છે. लावडीत मे प्रहारनो छे. (१) स्व-लावडीत, (२) पर-लावडीत, साधु यावे त्यारे સાધુને માટે પેાતાની વિદ્યા યા પેતાના મંત્ર આપીને ગૃહસ્થદ્વારા ખરીદેલા આહાર એ સ્વભાવક્રીત છે. બીજાએ વિદ્યા-મંત્ર આપીને સાધુને માટે આહારાદિ ખરીદેલાં હાય અને સાધુ આવે ત્યારે એ આહારને ખીજે લઇ લે તે તે પરભાવક્રીત કહેવાય છે. તે અનેક પ્રકારના હાય છે તે પેાતાની મેળે સમજી લેવું. मिश्र (द्रव्य-लाव३५) ङीतना नव लांगा थाय छे. ૧ પેાતાનાવદ્રવ્યથી પેાતાના ભાવથી. ૨ પેાતાનાદ્રષ્યથી પરના ભાવથી. ૩ પરના દ્રવ્યથી પેાતાના ભાવથી. ४५ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोदशवकालिकसूत्रे ५-स्वकीय-द्रव्य-भावाभ्यां परकीयेण द्रव्येण । ६-स्वकीय-गव्य भावाभ्यां परकीयेण भावेन । ७-परकीय-द्रव्य भावाभ्यां स्वकीयेन द्रव्येण । ८-परकीय-द्रव्य भावाभ्यां स्वकीयेन भावेन । ९- स्वकीय-द्रव्य-भावाभ्यां परकीय-द्रव्यभावाभ्याश्च क्रीतम् , इति । एष च दोष उद्गमदोषान्तर्गतत्वेन गृहस्थोत्थितः, उक्तञ्च-- "सोलस उग्गम-दोसे, गिहिणो उ समुट्ठिए वियाणाहि । ऊप्पायणा य दोसे, साहूओ समुट्ठिए जाण ॥ १ ॥ इति' ३-पूतिकर्म-पूते: अपवित्रस्य कर्म-मिलनरूपं पूतिकर्म लक्षणया तेन युक्तं पूतिकर्म । पूतिकरणं द्रव्यभावभेदावीप्रकारकम् तत्र द्रव्यतो यथा-शुचिद्रव्येऽपवित्र-सम्मेलनं, यथा पेय-पयःपरिपूरितपात्रेऽल्पीयानपि सुरासंसर्गः, यद्वा पायसादिपवित्रभोक्तव्यपदार्थे क्षतादिक्षरद्रक्त-प्यादिविन्दुमात्रस्यापि मिश्रणम् । ५-अपने द्रव्य-भावसे परके द्रव्यसे । ६-अपने द्रव्य-भावसे परके भावसे । ७-परके द्रव्य-भावसे अपने द्रव्यसे । ८-परके द्रव्य-भावसे अपने भावसे । ९- अपने द्रव्य-भावसे और परके द्रव्य-भावसे खरीदा हुआ । यह क्रोतकृत दोष, उद्गमदोषोंके अन्तर्गत है, इसलिये गृहस्थके द्वारा लगता है। कहा भी है "सोलह उद्गम दोष, गृहस्थके द्वारा लगते हैं और उत्पादना दोष, साधु द्वारा लगते हैं । [३] पूतिकर्म--पवित्र वस्तुके मिल जानेको पूतिकर्म कहते हैं, यह दो प्रकारका है-(१)છ પરના દ્રવ્યથી પરના ભાવથી. ૫ પિતાના દ્રવ્ય-ભાવથી પરના દ્રવ્યથી. દ પોતાના દ્રવ્ય-ભાવથી પરના ભાવથી. ૭ પરના દ્રવ્ય-ભાવથી પિતાના દ્રવ્યથી. ૮ પરના દ્રવ્ય-ભાવથી પોતાના ભાવથી. ૯ પિતાના દ્રવ્ય-ભાવથી અને પરના દ્રવ્ય ભાવથી ખરીદેલો. એ કીતકત દોષની અંદર રહેલું છે, તેથી કરીને ગૃહસ્થની દ્વારા લાગે છે. કહ્યું છે કે-“સોળ ઉદ્ગમદેષ ગૃહસ્થદ્વારા લાગે છે અને ઉત્પાદનાદેષ સાધુદ્વારા લાગે છે.” | (૩) પૂતિકર્મ-પવિત્ર વસ્તુમાં અપવિત્ર વસ્તુ મળી જાય તેને પ્રતિકમ કહે છે. એ मारनु छे. (१) द्र०य-पूति भने (२) माप-पूतिभ. (१) ५५ द्रव्यमा पवित्र શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा० ५५ आहृताधाहारस्वरूपम् ३५५ भावतः -- विशुद्ध आहारादावाधा कर्मादिदोषदूषितान्नादेः सिक्थमात्रेणापि मेलनम् तदशनेन च साधूनां चारित्रमालिन्यं भवतीति भावपूतिरभिधीयते । दोषोऽयमाधाकर्मादिदोषदूषितान्नादिसंसृष्टहस्तभाजनादिनिमित्तेनापि सम्भवति । ४ - आहतं - साधुनिमित्तं गृहादितोऽभिमुखमानीतम् । ५ - 'अज्झोयरय' इति लुप्तवि - भक्तिकं पदम् 'अध्यवपूरक' मिति तच्छाया, स्वार्थ पाकक्रियायां समारब्धायां ग्रामे साधुसमागमनं निशम्य तदर्थमधिकनिक्षेपणेन सम्पादितमिति तदर्थः । इदमत्र हृदयम् - यद्येद्रव्य - पूतिकर्म और (२) भाव - पूतिकर्म । ( १ ) - पवित्र द्रव्यमें अपवित्र द्रव्य मिलाना द्रव्य - पूर्ति-कर्म हैं, जैसे पीने योग्य दूधसे भरे हुए वर्त्तनमें थोडीसी भी मदिराका मिलजाना, अथवा खाने योग्य स्वीर आदिमें रक्त पीप आदि अपवित्र पदार्थका मिल जाना । विशुद्ध आहार आदि में आधाकर्मी आदि दोषोंसे दूषित अन्नका एक भी सीथ (कण ) मिल जाना, भाव - पूतिकर्म है । ऐसा आहार लेनेसे मुनियोंके चारित्र में मलिनता आजाती है, इस कारण इसे भावपूर्ति कहते हैं । आधाकर्मी दोष से दूषित अन्न आदि से भरे हुए हाँथ या बर्त्तन के निमित्त से भी यह दोष लग जाता है । (४) - आहत - साधु के लिये साधुके सामने लाया हुआ आहार आदि अभ्याहृत कहलाता है, ऐसा आहार लेना अभ्याहृत - दोष- दूषित आहार है । [५] अध्यवपूरक - अपने लिए भोजन बनाना प्रारम्भ किया हो उस समय, 'गाँवमें साधु पधारे हैं" यह सुनकर और अधिक मिला कर बनाया हुआ आहार अध्यवपूरक कहलाता है, तात्पर्य यह कि यदि अन्यलिङ्गियोंके निमित्त अधिक आहार मिला कर बनाया हो तो उन्हें दे દ્રવ્ય મેળવવુ એ દ્રવ્ય-પૂતિકમ છે, જેમકે પીવા ચેાગ્ય દૂધથી ભરેલા વાસણમાં ઘેાડીક મદિરાનુ મળી જવું, અથવા પીવા ચેાગ્ય ખીર આદિમાં લોહી પરૂ આદિ અપવિત્ર પદાતુ પડી જવુ' (ર) વિશુદ્ધ આહારાદિ આધાકર્મી આદિ દોષાથી દૂષિત અન્નના એક પણ કણુ મળી જવે એ ભાવપૂર્તિ કર્યું છે. એવા આહાર લેવાથી મુનિએના ચારિત્રમાં મલિનતા આવી જાય છે. તેથી તેને ભાવપૂતિ કહે છે. આધાકમી દોષથી દુષિત અનાદિથી ભરેલા હાથ યા વાસણના નિમિત્તથી પણ એ દાષ લાગી જાય છે. (૪) આહત-સાધુને માટે સાધુની સામે લાવેલે આહાર આદિ અભ્યાહત કહેવાય છે. એવા આહાર અભ્યાહત-દોષ દૂષિત આહાર છે, (૫) અધ્યવપૂરક-પેાતાને માટે ભાજન અનાવવાના પ્રારંભ કર્યાં હાય, તે સમયે ગામમાં સાધુ પધાર્યાં છે' એમ સાંભળીને ખીજું વધારે મેળવીને બનાવેલા આહાર અધ્યવપૂરક કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જો અન્યલિંગીએ (અન્યધમીઆ) ને નિમિત્તે વધારે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे वमन्यलिङ्गनिमित्तमधिकं पूरितं, तत्र तदानानन्तरमवशिष्टमन्नादिकं साधुभियं, तत्रान्तरायदोषानवतारादिति । ६-प्रामित्य-साधुनिमित्तमुद्धाररूपेण कुतश्चिदानीय दीयमानम् । ७-मिश्रजातं मिश्रेण मिश्राभावेन 'पूर्वत एव दातृ-भिक्षा-चरोभयानुसन्धानेनेत्यर्थः जातं =निष्पन्नम् तद्विविधं सामान्यमिश्रजातं विशेषमिश्रजातं चेति, तत्र-सामान्यमिश्रजातं= सामान्यरूपेण स्वपोष्यवर्गार्थ गृहस्थागृहस्थसाधु-पाखण्डिप्रभृतिभिक्षाचरार्थव्चैकत्र रन्धितम् , विशेषमिश्रजातं यदानिमित्तं केवलं साधुनिमित्तञ्च सहैव निष्पन्नमन्नादिकम् , तद् विवर्जयेत् परित्यजेत् न गृह्णीयादित्यर्थः, साधुरिति शेषः। औदेशिका-ध्यवपूरकमिश्राजातेषु परस्परमेष विशेष:-औदेशिकं-पाकप्रवृत्त्यनन्तरं साध्वागमनात्प्रागेकमेव साधु देनेके बाद बचा हुआ आहार साधुओंको ग्राह्य है, क्योंकि वहाँ अन्तराय-दोष नहीं लगता । (६) प्रामित्य-साधुके निमित्त कहींसे उधार लेकर दिया जानेवाला आहार, प्रामिल्य कहलाता है। . [७] मिश्रजात-पहलेसे ही दाता और भिक्षु दोनों के लिये बनाया हुआ आहार मिश्रजात है। मिश्रजातके दो भेद हैं-(१)-सामान्य मिश्रजात और (२)-विशेष मिश्रजात । (१)-साधारण तौर पर अपने पोष्यवर्गके लिये तथा गृहस्थ, अगृहस्थ, साधु, पाखण्डी आदिके लिये मिलाकर रांधा हुआ आहार 'सामान्य मिश्रजात' कहलाता हैं । (२)-जो आहार आदि अपने लिये और साधुके लिये भिलाकर बनाया जाय उसे 'विशेषमिश्रजात' कहते हैं । ऊपर कहे हुए सब प्रका रके आहारका अनगार को परिहार करना चाहिये। औदेशिक, अध्यवपूरक और मिश्रजात दोषोंमें यह भेद है-भोजन बनानेमें प्रवृत्त होनेके पश्चात् और साधुके आनेसे पहले, किसी भी एक साधुके लिये अथवा अमुक एक साधुके लिये આહાર મેળવીને બનાવ્યું હોય તે તેને આપી દીધા પછી વધેલા આહાર સાધુઓને માટે ગ્રાહા બને છે, કારણ કે તેમાં અંતરાય દોષ લાગતું નથી. (૬) પ્રામિય-સાધુને નિમિત્ત કહીંથી ઉધાર લાવીને આપવામાં આવેલ આહાર પ્રામિત્ય કહેવાય છે. જે (૭) મિશ્રજાત-પહેલાં જ દાતા અને ભિક્ષુ બેઉને માટે બનાવેલ આહીર મિશ્રજાત छ. मिश्रकात मे लेह छ. (१) सामान्य- भिनत (२) विशेष-भिलात. (१) साधार રીતે પિતાના પિષ્યવર્ગને માટે તથા ગૃહસ્થ, અગૃહસ્થ, સાધુ પાખંડી આદિને માટે એકઠો કરીને રાંધેલે આહાર “સામાન્ય-મિશ્રાત” કહેવાય છે. (૨) જે આહાર આદિ પિતાને માટે અને સાધુને માટે એકઠા કરીને બનાવવામાં આવે તેને વિશેષ મિશ્રજાત કહે છે. ઉપર કહેલા બધા પ્રકારના આહારને અણગારે પરિહાર કરવો જોઈએ. દેશિક, અધ્યવપૂરક અને મિશ્રજાત દેશમાં આ ભેદ છે-ભોજન બનાવવામાં પ્રવૃત્ત થયા પછી અને સાધુ આવ્યા પહેલાં, કેઈ પણ એક સાધુને માટે અથવા અમુક એક १ पूर्वत-पाकाथ प्रवृत्तेः प्रागेव २ इतर भिक्षाचरव्यतिरेकेण શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन. ५ उ. १ गा० ५६ निःशङ्किताहारग्रहणाशा m ३५७ सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वोद्दिश्य सम्पादिते सम्भवति । अध्यवपूरकं साधुसमागमश्रवणसमनन्तरमधिकनिक्षेपेण जायते । मिश्रजात-पाकप्रवृत्तिसमय एव गृहस्थ-भिक्षाचरयोः कृते संमिश्रितेऽन्नादौ समुत्पद्यते ॥ ५५ ॥ मूलम्-उग्गमं से अ पुच्छिज्जा, कस्सट्ठा केण वा कडं ?। ९ ११ १२ १३ १० सुच्चा निस्संकियं सुद्धं पडिगाहिज्ज संजओ ॥५६॥ छाया उद्गमं तस्य च पृच्छेत्कस्यार्थ केन वा कृतम् ।। श्रुत्वा निःशङ्कितं शुद्धं, प्रतिगृहोयात्संयतः॥५६॥ सान्वयार्थः-से-उस आहारादिकी उग्गम-उत्पत्ति पुच्छिज्जा=पूछे कि-(यह अशनादि) कस्सट्टा किसके लिए वा और केण-किसने कडंबनाया है । फिर सुच्चा गृहस्थ के मुख से अशनादिकी उत्पत्ति सुनकर (यदि वह) निस्संकियं औदेशिक आदि शङ्कारहित य और सुद्धं निर्दोष हो तो संजए साधु पडिगाहिज्ज-ग्रहण कर लेवे ॥५६॥ टीका--'उग्गमं' इत्यादि । कस्यार्थ-किन्निमितम् , केन वा का कृतं-निष्पादितम् , अन्नादौ 'विशुद्धमविशुद्ध वे' ति संशये तन्निराकरणाय तस्य संशयितस्यान्नादेः उद्गमम् उद्गमनमुग्दमस्तम् उत्पत्तिमित्यर्थः, पृच्छेत् प्रतिवचनेन ज्ञातुमिच्छेत् , श्रुत्वा 'प्रतिवचन' मितिशेषः संयतः शकिताऽऽहारग्रहणभीरुः साधुः निःङ्कितं-दोपशङ्कावर्जितम् अत एव शुद्धं निरवयं प्रतिगृह्णीयात्-निरवद्यत्वेन निश्चये सतीति भावः ॥ ५६ ॥ बनाये हुए आहारमें औद्दे शिक दोष होता है। आहार बनाते समय, साधुका आगमन सुन कर अधनमें अधिक ऊर (डाल) कर बनानेसे अध्यवपूरक दोष होता है भोजन बनाते समय, गृहस्थ और भिक्षु दोनों के लिये भोजन बनानेसे मिश्रजात दोष लगता हैं ॥५५।। 'उग्गमं०' इत्यादि । 'आहार अशुद्ध है' इस प्रकारका सन्देह होने पर साधु, ऐसा पूछ लेवें कि यह आहार, किसके लिये बनाया गया है और किसने बनाया है ?, इसका उत्तर सुनकर निरवद्यताका निश्चय करके निः शंकित अत एव निरवद्य आहार हो तो साधु, ग्रहण करें ॥५६॥ સાધુને માટે બનાવેલા આહારમાં ઓશિક દોષ લાગે છે. બહાર બનાવતી વખતે સાધુનું આગમન સાંભળીને આંધણમાં વધારે ઓરી દેવાથી અધ્યવપૂરક દેષ લાગે છે. ભેજન બનાવતી વખતે ગૃહસ્થ અને ભિક્ષુ બેઉને માટે ભોજન બનાવવાથી મિશ્રજાત દોષ લાગે छ. (५५) उग्गम०७त्याहि. 'महा२ अशुद्ध छ । विशुद्ध छे' से प्रारनी सहेड ५i साधु એવું પૂછી લે કે આહાર કોને માટે બનાવેલ છે અને કોણે બનાવ્યો છે, એનો ઉત્તર સાંભળીને નિરવઘતાનો નિશ્ચય કરીને નિઃશંકિત, એટલે નિરવઘ આહાર હોય તે સાધુ अहए ४२. (५६) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ___ श्रोदशबैकालिकसूत्रे १३ १० ११ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । पुप्फसु होज्ज उम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा ॥५७॥ १४ १९ १५ १६ १७ तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । २१ . २४ २३ २५ २२. दितियं पडियाइक्खे, न में कप्पइ तारिस ॥५८|| छाया-- अशनं पानकं वाऽपि, खाद्यं स्वाद्यं तथा पुष्पैर्भवेदुन्मिश्रं, वीजहरितैर्वा ॥५७॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक (त) म् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५८॥ सान्वयार्थ:-असणं पाणगं वांवि खाइमं तहा साइमं अशन पान खादिम तथा स्वादिम (यदि) पुप्फेसु-सचित्त फूलों से बीएसु-शालि आदि वीजोंसे वा अथवा हरिएसुहरित कायसे उम्मीसं-मिश्रित होज्ज-हो तो तं-वह भत्तपाणं तु=अशनादि संजयाणं =साधुओं के लिए अकप्पियं =अकल्पनीय भवे-है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पइ = नहीं कल्पता है ॥५७॥-५८॥ टीका - 'असणं.' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यदशनादिकं सचित्त-पुष्पबीज-हरितकायैरुन्मिश्रं = संयुक्तं भवेत्तदकल्प्यमिति वाक्यार्थः । सूत्रे 'षुप्फेसु' इत्यादौ तृतीयार्थे सप्तमी ॥५७।५८॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । उदगम्मि होज्ज निक्खित्तं उत्तिंगपणगेसु वा ॥५९॥ १३ १८ १४ १५ १६ १७ तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । १९ २० २३ २२ २४ दितियं पडियाइक्ख, न मे कप्पइ तारिसं ॥६०॥ 'असणं ० ' इत्यादि, तथा 'तं भवे' इत्यादि । जो अशन पान आदि, सचित्त पुष्प, सचि त बीज और हरितकायसे युक्त हो वह, संयमीके लिये कल्पनीय नहीं है, अतः ऐसा आहार देनेवाली से साधु कहे कि-ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है ।।५७||५८॥ असणं० छत्यात, तथा तं भवे. त्यादि. २ मशन पान माdि, सायत्त पु०५. सथित्त બીજ અને હરિતકાય (વનસ્પતિ) થી યુક્ત હોય તે સંયમીને માટે ક૯પનીય નથી, એટલે એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે-એ આહાર મને કલ્પત નથી. (૫૭-૫૮). १२ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ मा ५९-६४ तेजोविराधनायामाहारनिषेधः छाया -- अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । उदके भवेन्निक्षिप्तमुत्तिङ्गपनकेषु चा ॥५९॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक (त) म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ ६०॥ सान्वयार्थ :- असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं = जो अशनादि चार प्रकाका आहार (यदि) उदगम्मि = सचित्त जलके ऊपर वा = अथवा उत्तिंगपणगेसु = कीड़ियोंके दरके ऊपर या लीलन- फूलन पर निक्खित्तं = रखा हुआ होज्ज होतं = वह भत्तपाणं तु = अशनादि संजयाण = साधुओं के लिए अकप्पियं = अकल्पनीय भवे - हैं ( अतः ) दितियं देती हुई से साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पड़ = नहीं कल्पता है ॥ ५९ ॥ ६० ॥ टीका- 'असणं' इत्यादि, तं भवे० ' इत्यादि च । यदशनादिकमुदके = सचित्तजलोपरि, उत्तिङ्गपनकादिषु = उत्तिङ्गाः = भूमौ वर्त्तुलविवरविधायिनो गर्दभमुखाऽऽकृतयः क्षुद्रकीटविशेषाः, कीटिका नगरादयो वा, पनकः = = अङ्कुरितोऽनङ्कुरितो वा पञ्चवर्णानन्त कायवनस्पतिविशेषः, तत्र निक्षिप्तं = स्थापितं भवेत् तद्भक्त- पानं संयतानामकल्पिक (त) - मित्यादि पूर्ववत् ॥५९॥६०॥ " ४ ३ १ २ ५ ७ ६ मूलम् - असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । १० ११ १३ १२ तेउम्मि हुज्ज निक्खित्तं तं च संघट्टा १५ २० १६ १७ १८ १९ तं भवे भक्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । २१ २२ २५ २४ २६ २३ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिस ॥६२॥ छाया - अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । तेजसि भवेन्निक्षिप्तं तच्च संघट्टय दद्यात् ॥ ६१॥ तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिक (त) म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् || ६२॥ ३५९ १४ ||६|| दए ६१ / 'असणं ० ' इत्यादि, तथा 'तं भवे० ' इत्यादि । जो अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य सचित्त जल पर रखा हुआ हो तथा किडीनगर ( चिऊँ-टियों के समूह ) या लीलन- फूलन पर रखा हो वह, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं हैं, अतः ऐसा आहार देनेवाली से कहे कि 'ऐसा आहार मुझे कल्पता नहीं है' ॥ ५९ ॥ ६० ॥ असणं छत्याहि, तथा तं भवे० इत्यादि के अशन, पान, मद्य स्वाद्य सवित्त પર રાખેલા હાય, તથા કીડીનગર (કીડીયારા ) યા લીલન-ફૂલન પર રાખેલા હાય તે સંયમીએને માટે કલ્પનીય નથી. એટલે એવા આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે એવા भाडार भने उदयता; नथी.' (५८-६०) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे सान्वयार्थः – असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं = जो अशन पान खादिम स्वादिमतेउम्मि = तेजस्काय पर निक्खित्तं = रखा हुआ हुज्ज = हो च = अथवा तं = उस तेजस्कायको संघट्टिया = संघट्टा (छू) करके दिए = देवे तो तं = वह भत्तपाणं तु = अशनादि संजयाणं = साधुओंके लिए अकप्पियं = अकल्पनीय भवे = है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं= इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे न कप्पड़ = नहीं कल्पता है || ६१ ॥ ६२ ॥ ३६० ' टीठा--' असणं ०' इत्यादि, तं भवे० ' इत्यादि च । यदशनादिकं तेजसि = तेजस्कायोपरिनिक्षिप्तं = निहितं भवेत् यच्च तत् = तेज:- अग्निकायमित्यर्थः, संघट्टय = संस्पृश्य दद्यात्, तत् = उभयविधं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं (तं) भवेत्, अतस्तददतीं प्रत्याचक्षीत - तादृशं मे न कल्पत इति ॥६९॥६२॥ ४ १ ર मूलम् एवं उस्तिक्कया ओसिक्किया, उज्जालिया पज्जोलिया । ८ ६ ७ १० ११ निव्वाविया उस्सि चिया, निस्सिचिया ओवत्तिया ओयारिया दए ॥ ६३ ॥ १२ १७ १३ १४ १५ १६ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । १९ १८ २२ २१ २३ २० दितियं पडियाइक्खे. न में कप्पइ तारिस || ६४ ॥ छाया -- एवम् उत्क्षिप्य अवक्षिप्य उज्ज्वाल्य प्रज्वाल्य | निर्वाप्य उत्सिच्य, निषिच्य अपवर्त्य अवतार्य दद्यात् ॥ ६३ ॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतामनामकल्पिक (त) म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् । अग्निकाय के साक्षात् संघट्टेका निषेध करके अब परम्परा-संघट्टेका निषेध करते हैसान्वयार्थः = एवं - जिस प्रकार अनिकायको स्पर्श करके दिया जानेवाला अशना दि नहीं लेते, उसी प्रकार उस्सिक्किया = चूल्हे आदिमें इन्धनको अन्दर सरका कर ओसिक्किया = अधिक इन्धनको चूल्हे के अन्दर से बाहर निकालकर उज्जालिया = बुझी हुई afest फूंक आदि से उद्दीपित - सलगा - कर पज्जालिया = जलती हुई अग्निको अधि 'असणं' इत्यादि, तथा 'तं भवे० ' इत्यादि । जो अशन पान आदि, तेजस्काय पर रक्खा हो अथवा अग्निकायका संघट्टा करके देवे तो वह, साधुके लिये ग्राह्य नहीं है । अतः देनेवालीसे कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है ।। ६१ ।। ६२ ॥ असणं० इत्यादि, तथा तं भवे० धत्याहि ने सुशन पान यहि तेरा पर राजे હાય અથવા અગ્નિકાયનું સંઘટન કરીને આપે તે તે સાધુને માટે ગ્રાહ્ય નથી. એટલે તે આપનારીને સાધુ કહે કે એવા આહાર મને કલ્પતા નથી.' (૬૧-૬૨) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० ५९-६४ तेजोविरोधनायामाहारनिषेधः क प्रदीप्त कर निव्याविया = एग्निको पानी आदिसे बुझाजर उस्सिचिया = अग्नि पर पकते हुए अन्नादिको कुछ बाहर निकाल कर निस्सिंचिया = उभरते हुए दुग्धादिमें जल छिड़ककर ओवत्तिया = अग्निर रहे हुए अन्नादिको दूसरे बरतनमें निकालकर ओयारिया = अग्निपर रहे हुए अन्नादिके बरतनको नीचे उतारकर अर्थात् अग्निकायका परम्परासे संपट्टा करके दए = अशनादि देवे तो तं = वह भत्तपाणे तु अशनादि संजयाणं = साधुओं के लिए अकप्पियं = अकल्पनीय भवे = है, (अतः) दितियं = देती हुई से साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं= इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पइ = नहीं कल्पता है॥६॥६४॥ टीका--'एवं०' इत्यादि तं भवे.' इत्यादि च । एवम्-उक्तप्रकारेण तेजस्कायविषय इवेति भावः, उत्क्षिप्य यावत्कालं साधवेऽन्नादिकं ददामि तावत्कालमग्निर्मा प्रशाम्यतु' इति वुद्धया चुल्लयादाविन्धनमुत्सार्य अवक्षिप्य-दाहभयादिन्धनं निःसार्य उज्ज्वाल्य अनुज्ज्वलितं फूत्कारादिनोद्दीप्य-प्रज्वाल्य-उद्दीप्तं प्रकर्षण संवध्ये निर्वाप्य-उत्सिच्य =अग्न्युपरिस्थितमन्नादिकं किञ्चिबहिष्कृत्य, निषिच्य-उद्वलद्दुग्धादिकं जलेन प्रशाम्य अपवर्त्य भाजनान्तरे निधाय, अवताये-अन्नादिसहितं भाजनमेवोत्ताय वा दद्यात, तद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिक (त) भवेदतस्तद्ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पते' इति ॥६३॥६४॥ 'एवं उस्सिक्किया०' इत्यादि, तथा 'तं भवे' इत्यादि । 'जब तक आहार देती हूं तब तक, अग्नि न बुझ जाय' ऐसा विचार कर चूल्हे में इंधन सुलगाकर, अन्न आदि जलनेके भयसे इंधन बाहर निकाल कर फेंक आदिसे चूल्हा जला कर, जलती अग्निको तेज कर या बुझा कर, अग्नि पर पकते हुए आहार को कुछ एक ओर कर, तथा पानी डाल कर उबाल (उफान) को शान्त कर, अथवा अन्न आदि सहित बर्तन को नीचे उतार कर यदि आहार देवे तो वह आहार अनगारके लिये ग्रहण योग्य नहीं है । अतः देनेवालीसे कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है' ॥६३ ॥ ६४॥ एवं उस्सिक्किया. त्याहि, तथा तं भवेत्याहि. જ્યાં સુધી આહાર આપતી હોઉં, ત્યાં સુધી અગ્નિ હોલવાઇ ન જાય, એવો વિચાર કરીને ચૂલામાં ઈધણું સળગાવીને, અનાદિ બળી જવાના ભયથી ઈધણુ બહાર કાઢીને કુંક આદિથી ચૂલે સળગાવીને, બળતા અગ્નિને તેજ કરીને યા બુઝાવીને, અગ્નિ પર પાકતા આહારને કેઈ એક બાજુએ કરીને તથા પાણી નાંખીને ઊભરાને શાંત કરીને, અથવા અનાદિ સહિત વાસણને નીચે ઉતારીને જે આહાર આપે છે તે આહાર અનગાર ને માટે ગ્રહણ કરવા એગ્ય નથી એટલે તે આપનારીને સાધુ કહે કે “એ આહાર મને ક૫તે नथी. (63-६४) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ श्रीदशवकालिकसूत्रे मूलम्-हुज्ज कटुं सिलं वावि इटालं वावि एगया । १० ८ १२ १३ १५ १४ । उपियं सकमट्ठाए, तं च होज्ज चलाचलं ॥६५॥ १९ १६ १८ २० २ ६ २७ २५ न तेण भिक्खू गच्छेज्जा दिट्ठो तत्थ असंजमो। गंभीरं झुसिरं चेव सविदिय समाहिए ॥६६॥ छाया--भवेत्काष्ठं शिला वाऽपि, इट्टालं वाऽप्येकदा । __ स्थापितं संक्रमार्थ तच्च भवेच्चलाचलम् ॥६५॥ न तेन भिक्षुर्गच्छेदृष्टस्तत्रासंयमः॥ गम्भीरं शुषिरं चैव, सर्वेन्द्रिय-समाहितः॥६६॥ सान्वयार्थः-एगया किसी समय अर्थात् वर्षा आदिके समय संकमट्ठाए जाने आने के लिए कटुं-काठ वाबि-या सिलं-शिला वावि = अथवा इट्टालं = ईटका टुकड़ा ठवियं रखा हुआ हुज्ज = हो च = और तं = वह (यदि) चलाचलं = अस्थिर-डगमगाता हुज हो तो तेण = उस मार्गसे तथा जो गंभोरं = ऊंडा गहरा और झुसिरं = पोला स्थान हो उससे सबिदियसमाहिए = समस्त इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला भिक्खू = साधु न गच्छे ज्जा = नहीं जावे (क्योंकि) तत्थ = वहां पर केवली भगवान ने असंजमो = असंयम दिट्टो = देखा है ॥६५॥६६॥ टीका--'हुज्ज कटुं०' इत्यादि, 'न तेण.' इत्यादि च । एकदा = एकस्मिन् काले वर्षादौ यत् काष्ठं = सञ्चरणोपयोगि दारू, अपिवा शिला - प्रस्तरखण्डम् अपिवा इट्टालम् = इष्टकाशकलं, संक्रमार्थ गमनागमनर्थ स्थापितम् = आरोपितम् भवेत् , तच्च काष्ठादिकं यदि चलाचलम् = अस्थिरं कम्पमानं भवेत् तदा तेन काष्ठादिना सर्वेन्द्रियसमा 'हुज्ज कटुं' इत्यादि, तथा 'न तेण' इत्यादि । नदी आदिमें बरसात आदिके समय, जाने-आनेके लिये जो काठ, पत्थर या ईट आदि रोप दिया हो और यदि वह हिलता हो तो समाधिमान् संयमी, उस मार्गसे गमन न करे ।और जो प्रदेश, नीचा होनेसे अन्धकारमय हो या खड्ढेवाला हो उससे भी साधुको गमन नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसे मार्गमें गमन करनेसे स्व-पर-विराधना-रूप असंयम केवलो भगवान् ने देखा है। हुज्ज कटुं०४त्याह तथा न तेण त्याहि. નદી આદિમાં વરસાદને વખતે આવવા-જવા માટે જે લાકડાં, પથર, ઈટ વગેરે પેલા હોય અને જે તે હલતાં હોય તે સમાધિવાન સયમી એ માગે ગમન ન કરે અને જે પ્રદેશ નીચે હોવાથી અંધકારમય હાય યા ખાડાવાળે હોય તે માગે પણ સાધુએ ગમન કરવું ન જોઈએ, કારણ કે એવા માગે* ગમન કરવાથી સ્વ-પર-વિરાધનારૂપ અસં. યમ કેવલી ભગવાને જે છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० ६५-६६ - दुर्गममार्गगमननिषेधः ३६३ हितः = वशीकृतसकलेन्द्रियो भिक्षुः = साधुः न गच्छेत् । 'चेव' शब्दः समुच्चये अपिचेत्यर्थः गम्भीरं निम्नत्वेन प्रकाशशून्यं, शुषिरं = गहरवत्सावकाशं 'प्रदेश' मिति शेषः, न गच्छेदिति पूर्वेण सम्बन्धः । अगमने हेतुमाह - तत्रेति, तत्र = तस्मिन् असंयमः = स्वपरविराधनादिरूपो दृष्टः = अवलोकितः केवलिभिरिति शेषः । चलाचल विशेषणककाष्ठादिपदेन प्रस्खलन पतनादिनाऽऽत्मविराधना, एकेन्द्रियद्वो न्द्रियादिप्राणिगणोपमर्दनेन परविराधना सम्भावना च सूचिता । गम्भीरादिप्रदेशगमनेनापि प्रोक्तदोषसमधिकहिंस्रादिजन्तुजनितोपघातादिप्रचुरदोषसम्भवः सूचितः । 'सव्विदियस माहिए' इतिपदेन साधोरिन्द्रियविषयाऽऽसक्तिनिराकरण परायणता प्रतिपादिता । 'भिक्खु' पदेन च यमनियमपूर्वकमेवभिक्षाग्राहित्वमिति बोधितम् ॥ ६५ ॥ ॥ ६६॥ १० ६ मूलम् - निस्सेणि फलग पीढं उस्तवित्ताणमारुहे । ७ ८ ९ ११ २ ३ १ मंच कीलं च पासायं समणट्ठाए व दावए ||६७|| १३ १४ १५ १६ १७ १८ दुरूहमाणी पवडेज्जा हत्थं पायं च लूसए । १९ २० २१ २२ २३ २४ पुढवीजीवेवि हिंसेज्जा जे य तन्निसिया जगे ॥ ६८॥ २६ २७ २८ ३० यारिसे महादो से जाणिऊण महेसिणो । २५ ३९ ३२ ३३ ३४ २९ तम्हा मोलोहडं भिक्खं न पडिगिण्हंति संजया ॥ ६९ ॥ हिलते हुए काठ आदि पर चलने से रपटने या गिर पड़नेसे आत्मविराधनाकी और एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि प्राणियोंके उपमर्दन से पर- विराधना की सम्भावना सूचित की है। गहरे (नीचे) प्रदेशमें गमन करनेसे उक्त दोषों के सिवाय हिंसक जन्तुओंसे उत्पन्न होने वाला उपघात आदि बहुत से दोषों का होना सूचित किया है । 'सव्विंदियसमा हिए' पदसे यह प्रगट किया गया है कि साधुओं को इन्द्रिय-चपलता का त्याग करना चाहिये । 'भिक्खु' पदसे द्योतित किया गया है कि साधुओं को यमनियमों का पालन करते हुए ही भिक्षा ग्रहण करना चाहिये ।। ६५ ।। ६६ ।। હલતાં લાકડાં આદિ પર ચાલવાથી લપસી જવાથી ચા પડી જવાથી આત્મવિરા ધનાની અને એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય પ્રાણીઓના ઉપમ નથી પર-વિરાધનાની સંભાવના સૂચિત્ત કરી છે. નીચાણવાળા પ્રદેશમાં ગમન કરવાથી ઉક્તદોષ ઉપરાંત હિંસક જતુએથી ઉત્પન્ન थनारे। उपधात यादि धणा दोषी हवा सूचित उयु छे. सव्विदियसमाहिप पढथी એમ કહેવામાં અવ્યુ છે કે ” સાધુએએ ઇન્દ્રિય ચપલતાના ત્યાગ કરવા જોઇએ મિતુ શબ્દથી એમ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુઓએ યમ-નિયમાનુ પાલન કરતારહીને જ भिक्षा ग्रह रवी लेहये (६४-६६) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे छाया-निश्रेणि फलकपीठम् , उत्सृज्य आरोहे । मचं कीलञ्च प्रासाद, श्रमणार्थमेव दायिका ॥६७॥ दुरा (द) रोहन्ति प्रपतेत् , हस्तौ पादौ च लूपयेत् । पृथ्वीजीवानपि हिंस्या, यानि च तन्निःश्रितानि जगन्ति ॥६८॥ एतादृशान्महादोषान् , ज्ञात्वा महर्षयः । तस्मान्मालापहृतां भिक्षां, न गृह्णन्ति संयताः ॥६९॥ सान्वयार्थः-दावर = दान देने वाली स्त्री यदि समणट्ठा एव = साधुके लिएही निस्सेणि = नसैनी-निसरणी-सीढी फलग = पाटे पीढं = पीढे मंच = खाट व = और कीलं = कीलेको उस्सवित्ताणं = ऊंचा-खड़ा करके पासायं = प्रासाद-मंजिल पर आरुहे = चढे तो दुरूहमाणी = इस प्रकार कष्टसे चढती हुई वह पवडेजा = शायद गिर जायगी व= और अपना हत्थ = हाथ पायं = पैर लूसए = तोड़ बैठेगी तथा पुढवीजीवे अवि = पृथ्वीकायके जीवोंको भी च= और जे= जो तन्निस्सिया = उस पृथ्वी की नेसरायमें रहे हुए जगे = द्वीन्द्रियादि जीव हैं उन्हें भी हिंसेज्जा = मारेगी ॥ ६७ ॥ ॥६८॥ तम्हा = इसोलिए एयारिसे = ऐसे पूर्वोक्त प्रकारके महादोसे = दाताकी मृत्यु तक होने की संभावनाके कारण महादोषोंको जाणिऊण = जानकर संजया = सकल सावध व्यापार से विरत हुए महेसिणो = महर्षि लोग मालोहडं = मालापहृत (मालसे लाई हुई) भिक्ख = भिक्षाको न पडिगिण्हंति = नहीं लेते हैं ॥६९॥ टीका--मालापहृतभिक्षादोषमाह 'निस्सेणि' इत्यादि । 'दावए' इत्यत्र प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययस्तथा च दायिका = दात्री श्रमणार्थमेव = साधुनिमित्तमेव साधवे भिक्षादानार्थमेवेत्यर्थः, निश्रेणिं = वंशादिनिर्मितं सोपानं फलकं = शयनोपयोगी दारुमयाऽsमनं. पीठं = काष्ठनिर्मितोपवेशनोपयोगि लघ्वासनं 'पीढ़ा' इति प्रसिद्ध, मचं = खट्वां वंशदलादिरचितोच्चासनं वा कीलं = शकुं चकारान्मुसलादिकम् उत्सृज्य = ऊवीकृत्य, मालापहृत भिक्षा के दोष बताते हैं-'निस्सेणिं' इत्यादि, 'दुरूहमाणी' इत्यादि, तथा एयारिसे' इत्यादि। दाता, यदि साधुके लिये नसैनी, सीढी (निसरणी), पाटा, पोढा (बाजोट), मांचा, खूटी अथवा मुसल आदिको ऊँचा करके ऊँचे मकान की दूसरी मंजिल पर चढ़ कर, आहार लावे तो वह आहार आदि, मालापहृत कहलाता है । नसैनी (सीढी) आदि पर चढनेसे यदि गिर पड़े तो व भासाहत मिक्षाना होषो मताव छ-निस्सेणि त्याहि. दुरूहमाणी. याह. तथा पयारिसे ईत्याहि. हात साधुन मोट साटा (नीस२९), पाट, माठ, भांया, भूरी मथवा भूशण સાંબેલ) આદિને ઉંચા કરીને ઉંચા મકાનના બીજા મજલા પર ચઢીને આહાર લાવે તે તે આહાર માલાપહત કહેવાય છે. સીઢી આદિ પર ચડવાથી જે પડી જાય તો હાથ-પગ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा० ६७-६९ मालाहृत भिक्षानिषेधः , प्रासादम् = उच्चगृहं तत्रानेक भूमिकासम्भवेनाऽऽरोहणादिकं युज्यत इति तद्भूमिकायां लक्षणा तथा च- उच्चगृहभूमिका मित्यर्थः, आरोहेत् = उपलक्षणया गच्छेदित्यर्थः । तेन तिसृषु वक्ष्यमाणासु मालापहृतासु भिक्षासु समन्वयः । निश्रेण्यादिना सदुःखमारोहणं भवतीत्यत आह- दुरा (दू) रोहन्ती = सदुःखमूर्ध्वप्रदेशमासादयन्ती सती प्रपतेत् हस्तौ पादौ च लूषयेत् = त्रोटयेत् पृथ्वीजीवानपि हिंस्यात् = पीडयेत् यानि च तन्निः श्रितानि पृथिव्याश्रितानि जगन्ति = प्राणिनस्तानि हिंस्यादिति पूर्वेण सम्बन्धः तस्मात् = यतो निश्रेण्यादिना समारोहणे पतनादिद्वारा दातुः स्व- परोभयविराधना सम्भवति अतः कारणात् एतादृशान् महादोषान् = दातृपभृतीनां मृत्योरपि सम्भवेन दारुणकर्मविपाकहेतुत्वात्प्रकृष्टदूषणानि ज्ञात्वा संयताः सकलसावद्ययोगसमुपरताः महर्षयः = घोरपरीषहोपससहिष्णुत्वान्महामुनयः मालापहृतां = मालो भूमिकावाची देशीयशब्दः, ततः अपहृताम् = आनीतां भिक्षां न प्रतिगृह्णन्ति = न स्वीकुर्वन्ति । मालापहृता भिक्षा भूमिकाया ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्भेदेन त्रिविधा ऊर्ध्वमालापहृता, अधोमालापहता, तिर्यङ्मालाऽपहृता चेति । तत्रोर्ध्वमालापहृता पूर्वं व्याख्याता । अधोमालाऽपहृता = यस्या भूमिकाया निश्रेण्यादिनाऽवरुह्य आनीता । तिर्यङ्मालापहृता तु यस्यां भूमिकायां दायिका तिष्ठेत्तस्यामेव नद्यादौ जलप्रवाहावरोधि सेतुवन्निश्रेण्यादिकं तिर्यक् हाथ पैर टूट जायँ पृथ्वी काय आदि जीवों की विराधना हो जाय तथा जो प्राणी, पृथ्वीपर सञ्चार कर रहे हों उनकी भी हिंसा हो जाय इसलिए ऐसी अवस्था में स्व, पर और उभयकी विराधना का होना संभव है, यहाँ तक कि दाताकी मृत्यु भी हो जा सकती है, अतः इन महादोषों को अत्यन्त दुःखदायी जानकर, संयमी महामुनी नसैनो ( सीढ़ी) आदि द्वारा माला ( मंजिल) से उतारा हुआ आहार आदि स्वीकार नहीं करते | माला के भेदसे मालापहृत भिक्षा, तीन प्रकार की है - ( १ ) ऊर्ध्व - मालापहृत ( २ ) अधो- माला पहृत और ( ३ ) - तिर्यग्मालापहृत । इनमें ऊर्ध्वमालापहृत भिक्षाका विवेचन पहले कह आये हैं । ऊपरके मंजिलसे नीचे की ओर नसैनी (निसरणी) लगाकर, लाई हुई भिक्षा, अघोमालापहृत कहलाती તૂટી જાય, પૃથ્વીકાય આદિ જીવાની વિરાધના થાય, તથા જે પ્રાણી પૃથ્વી પર સંચાર કરી રહ્યા હાય તેમની પણ હિંસા થઇ જાય; તેથી એવી અવસ્થામાં સ્ત્ર, પર અને ઉભયની વિરાધના થવી સંભવિત છે, એટલે સુધી કે દાતાનું મૃત્યુ પણ થઇ જઇ શકે છે; તેથી કરીને એ મહાણેને અત્યંત દુઃખાદાયી જાણીને સંયમી મહામુનિ નીકરણી આદિ દ્વારા માળથી ઉતારેલા આહાર આદિ ને સ્વીકારે નહિ. માળ-મજલાના ભેદે કરીને માલાપહત ભિક્ષા ત્રણ પ્રકાની છે. (૧) ઉધ્વમાલાપહત, (૧) અધેામાલાપહત અને (૩) તિર્યંચ્-માલાપહૃત એમાં ઉવ માલાપહત ભિક્ષાનું વિવેચન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. ઉપરના મજલાથી નીચેની બાજુએ નીસસ્ત્રી લગાવીને લાવેલી १ मालः 'मंजिल' इति भाषा प्रसिद्धः શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ ३६५ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे संस्थाप्य तद्वारा असंश्लिष्टापरभागे गमनागमनेनाऽऽनीता । दुष्प्रापशिक्यादिस्थस्यातिगम्भीरकुमुलादिस्थस्य चान्नादेहणे चरणोन्नमनादिनाऽनेकविधकष्टसम्भवादेवंविधापि भिक्षा तदन्त येति ॥६७॥६८॥६९॥ मूलम्-कंदं मूलं पलंब वा, आमं छिन्नं च सन्निरं । तुंबागं सिंगवेरं च, आमगं परिवज्जए ॥७॥ छाया---कन्दं मूलं प्रलम्ब वा आमं छिन्नं च सन्निरम । तुम्बकं शृङ्गवेरञ्च, आमकं परिवर्जयेत् ।।७०॥ सान्वयार्थः-आम-सचित्त कंद-सूरण आदि कन्द मूलं विदारिकादि मूलं पलंबताल आदिके फल चा= तथा छिन्नं च %काटो हुई भी सन्निरं - बथुए आदिकी भाजीको (तथा) आमगं - सचित्त तुंचागं - तूंबे च = और सिंगबेरं = अदरख-आदे-को साघु परिवज्जए = वरजे ॥७॥ ___टीका- 'कंद' इत्यादि । कन्दं, मूलम्, इमे प्राग्व्याख्याते, वा = अथवा प्रलम्ब -तालादिफलम् आमम् = अपक्वं-सचित्तमित्यर्थः । च=पुनः छिन्नं = कर्तितमपि सन्निरं = पत्रशाकं-वास्तूकादिकं, तुम्बकम् = अलाबूविशेष, शृङ्गबेरम् = आद्रकं चकारादन्यदपि प्रत्येकसाधारणवनस्पतिमात्रम् आमकम् = अपक्वं सचित्त परिवर्जयेत् = त्यजेत्-न गृह्णीयादित्यर्थः ॥७०॥ है। जिस मंजिलमें देनेवाली मौजुद हो उसी को बराबरी पर दूसरी ओर जाने के लिये पुल की तरह नसैनी (निसरणो) या लकड़ी आदिको तिरछा रख कर चढे तो वहाँसे लाई हुई भिक्षा, तिर्यग्मालापहृत कहलाती है । बड़ी कठिनाईसे पहुंचने योग्य छींके या आलेमें तथा गहरी कोठरी में रक्खी हुई भिक्षा ग्रहण करनेसे पैर उठाने आदि अनेक कष्ट होते हैं । इसलिये ऐसी भिक्षा भो इसी मलापहृत भिक्षा में अन्तर्गत समझनी चाहिये यह सब प्रकार को भिक्षा साधु को अकल्प्य है॥॥६७।६८।६९ ॥ _ 'कंद इत्यादि । सचित्त कन्द, मूल, ताड-फल आदि तथा कटा हुआ भी सचित्त पत्तोंका शाक-बथुआ आदि, और सचित्त तुम्बा तथा अदरख भी साधु ग्रहण न करे । 'च' शब्दसे यह ભિક્ષા અધેમાલાપહત કહેવાય છે. જે મજલામાં ભિક્ષા આપનારી હાજર હોય, તેની બરાબર, બીજી બાજુ એ જવાને માટે પૂલની પેઠે નીસરણી યા લાકડું પાટિયું તીર્ણ રાખીને ચડે તે ત્યાંથી લાવેલી ભિક્ષા તિર્યમાલાપહત કહેવાય છે. બહુ મુશ્કેલીથી પહોંચી શકાય એવાં સીકા, યા છાજલીમાં તથા ઉંડી કોટડીમાં રાખેલા અશનાદિ ગ્રહણ કરવાથી પગ ઉપાડવા આદિનાં અનેક કછો પડે છે, તેથી એવી ભિક્ષાપણ આ (માલાપહતો ભિક્ષા भायता समसवी. से सर्व प्रश्नी सिक्षा साधुन मोट २५४५य छे. (६७-६८ कंद० छत्या. सथित्त ४६, भूस, ५ माह तथा पेसा ॥ छत सथित्त શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा०७०-७२ आहार ग्रहणविवेकः १ २ ३ ११ मूलम् - तव सत्तचुन्नाई कोल-चुन्नाई आवणे । ४ ५ ८ १० ९ ७ ६ सक्कुर्लि फाणियं पूअं अन्नं वावि तहाविहं ॥७९॥ १२ १४ ૧૩ १५ विक्कायमाणं पसढं, रएणं परिफासियं । १६ १७ २० १९ २१ १८ दितियं पडियाइक्खे, न म कप्पइ तारिस || ७२ || छाया -- तथैव सक्तु-चूर्णानि, कोल - चूर्णानि आपणे । ३६७ शष्कुली फाणितं, पूपमन्यद्वापि तथाविधम् ॥ ७१ ॥ विक्रयमाणं प्रसा, रजसा परिस्पृष्टम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ ७२ ॥ = सान्वयार्थः तदेव = जिस प्रकार सचित्त कन्दादि अग्राह्य हैं उसीप्रकार सत्तचुन्नाई = भुने हुए जौ या चनेका आटा - सत्तू कोलचुम्नाई = बेरोंका चूरा सक्कुलिं = तिलपापड़ी फाणियं = गीला गुड़ पूयं = मालपूवा (तथा) तहाविहं उसीप्रकार के अन्नं वावि = औरभी पदार्थ जो आवणे = दुकानपर विक्कायमाणं = बेचने के लिए रखे हुए हैं वे (यदि) पसदं = वस्त्रसे आच्छादित होनेपर भी रएणं = सचित्त सूक्ष्म रजसे परिफासिय = व्याप्त हों तो दितियं = देनेवाली से पडियाइक्खे = कहे कि तारिस = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पड़ नहीं कल्पता हैं ॥७२॥ टीका- 'ata' इत्यादि, 'विक्कायमाणं' इत्यादि च । तथैव = यथा पूर्वोक्तं सचितकन्दादिकमग्राह्यं तेनैव प्रकारेण सत्तु-चूर्णानि = सक्तव एव चूर्णानि तानि सक्तूनित्यर्थः, भृष्टयवादिचूर्णान्येव सक्तव उच्यन्ते, कोल-चूर्णानि = बदरीफलचूर्णानि, शष्कुलीं = तिलपर्पडिकां, फाणितं द्रुतगुडं, पूपम् = अपूपम्, तथाविधं = तादृशम् अन्यदपिवा भी समझना चाहिये कि इनके सिवाय कोई भी सचित्त - प्रत्येक या साधारण वनस्पति, साधुको नहीं कल्पत है ॥ ७० ॥ 'तहेव' इत्यादि, तथा 'विक्कायमाणं' इत्यादि । जैसे, सचित्त कन्द, मूल आदि त्याज्य हैं वैसेही सत्तू ; बेरोंका चूर्ण, तिलपापडी, पिघला हुआ गुड, पूआ तथा ऐसी दही आदि अन्यान्य वस्तुएँ, बेचनेके लिये दूकानमें रक्खी हों, और પાંદડાંનું શાક-પ્રથુઆની ભાજી આદિ અને સચિત્ત દૂધી આદું તથા આદું પણુ સાધુ ગ્રહણ ન કરે. જૂ શબ્દથી એમ પણ સમજવુ` કે તે ઉપરાંત કેાઈ પણ સચિત્ત-પ્રત્યેક યા સાધારણ વનસ્પતિ સાધુને કલ્પતી નથી. (૭૦) तहेब त्याहि तथा विक्कायमाणं इत्यादि. - જેમ સચિત્ત કદ-મૂળ આદિ ત્યાજ્ય છે, તેમજ સત્ત, ખેરતુ ચણુ તલપાપડી, નરમ ગેળ, તથા એવા પ્રકારની ખીજી દહી' માદિ નરમ વસ્તુએ વેચવાને માટે દુકાનમાં રાખી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ श्रीदशवेकालिकसूत्रे दध्यादिकम्, आपणे = क्रय-विक्रयस्थाने, विक्रीयमाणं = विक्रयार्थ स्थाप्यमानं, रजसा = सचितरेणुना, प्रसह्य- हठात् वस्त्रादिनाऽऽच्छादनेऽपि यथाकथञ्चित्प्रकारेणेति भावः, परिस्पृष्टं व्याप्तं वायुसमुत्थितरजः संस्पृष्टम् ददतीं प्रत्याचक्षीत - ' तादृशं मे न कल्पत' इति ॥७१॥७२॥ १ २ ४ मूलम् - बहुअट्ठियं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं । । ६ ७ ९ १० ११ अच्छियं मिंदुयं बिल्ले, अच्छुखंड व सिंबलिं ॥ ७३ ॥ १३ १६ ११ १५ १४ अप्पे सिया भोयणजाए, बहु उज्झणधम्मिए । १७ १८ २१ २० २२ १९ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७४॥ छाया -- वह्नष्ठिकं पुद्गलम्, अनिमिषं वा बहुकण्टकम् | rari तिन्दुकं बिल्वम्, इक्षुखण्डं वा शाल्मलिम् ॥७३॥ अल्पं स्याद्भोजनजातं, बहूज्झनधर्मिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ||७४ || सान्वयार्थः-बहुअट्ठियं = बहुबीजा अर्थात् सीताफल अणिमिसं = अनन्नास बहुकंटयं = पनस - कटहल अच्छियं = शोभाञ्जनकी फली, जो 'मुनगा' नाम से प्रसिद्ध है; बिंदुयं = तेन्दु बिंल्लं = बेल सिंबलि-सेमल इन नामके पुग्गलं = फलोंको व= और उच्छुखंड = गन्ने - शेरडी के टुकड़ोको, तथा जिस पदार्थमें भोयणजाए = खानेयोग्य अंश अप्पे सिया = थोड़ा हो और उज्झणधम्मि= डालदेनेयोग्य अंश बहु = बहुत हो ऐसे फल आदि दितियं - देनेवाली से साधु पडियाइक्खे - कहे कि तारिस - इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पइ = नहीं कल्पता है || ७३||७४ || टीका- 'बहुट्टियं ० ' इत्यादि, 'अप्पे सिया' इत्यादि च । बह्वस्थिकम् - बहुनि, अस्थीनि = बीजानी -अस्थि - बीजमिति रायमुकुटः, वैद्यकश्चेति शब्दकल्पद्रुमः, यस्मिन यद्वा सचित्त रजसे व्याप्त हों, अर्थात् वस्त्रसे ढँक रखने पर भी पवनके द्वारा पहुँची हुई सूक्ष्म सचित्त रजसे युक्त हों तो वह आहार कल्पनीय नहीं है । इसलिये साधु, देनेवालीसे कहे कि 'ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है ॥ ७९ ॥ ७२ ॥ 'हुअ' इत्यादि तथा 'अप्पे सिया' इत्यादि । ' अस्थि' शब्दका अर्थ बीज होता है, रायमुकुट तथा वैद्यकोषोंमें 'अस्थि, शब्दका बीज ही अर्थ है, ऐसा ' शब्दकल्पद्रुम' अभिधानमें હાય અને સચિત્ત રજથી વ્યાસ હાય અર્થાત્ વજ્રથી ઢાંકી રાખ્યા છતાં પવનદ્વારા પહાંચેલી સુક્ષ્મ ચિત્ત રજથી યુક્ત હોય તે તે આહાર કલ્પનીય નથી. તેથી સાધુ તે આપનારીને કહે કે એવા આહાર અને કલ્પતા નથી. (૭૧ ૭ર) बहुमयिं धत्याहि, तथा अपे सिया धेत्याहि 'अस्थि' राहून अर्थ मन (ઠળીયા) થાય છે. રાયમુકુટ તથા વૈદ્યકાષામાં અસ્થિ શબ્દના ખીજ એવા જ ગ્રંથ છે, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० ७३-७४ फलप्रकरणेत्याज्य फलनामानि _ ३६९ बनि अस्थिकानि 'अस्थिकं = बीजे मेदोजघातौ चेति राजनिघण्टु : ' इति वैद्यकशब्दसिन्धुः । यस्मिंस्तत् , बहुबीजकं-योगरूढमेतत् , सीताफलादिकमित्यर्थः " सीताफलं गण्डमात्रं, वैदेहीवल्लभ तथा । कृष्णबीजं चाग्रिमाख्यमातृप्यं बहुबीजकम् ॥१॥" इति निघण्टुकोषः । यहा बहुअट्ठियं इत्यस्य 'बहष्ठिक' मितिच्छाया, 'फलबीजे पुमानष्ठिः' इति कोषात् , अर्थस्तूत एव । पुग्दलम् रसदृदयात्मकपूरण परिपाकानन्तराधःपतनात्मकगलनधर्मकत्वात्पुग्दलः फलसामान्यं तम् , अग्रेऽप्यस्य सम्बन्धः, सीताफलादिनामकं फलमिति भावः अनिमिषम् अनन्नासम् अन्तर्बहिः सकण्टकं बङ्गादिदेशप्रसिद्धम् । बहुकण्टकं-कण्ट किफलं-पनसं 'कटहर' इत्यनेन प्रसिद्धम् , अस्य त्वग्भावे, सर्वावयवावच्छेदेन कण्टकव्याभी लिखा है । अत एव बह्वस्थिक शब्दका अर्थ है-बहुत बीजोंवाला । यह शब्द योगरूढ है, अत एव सीताफल अर्थ होता है । निघण्टुमें भी सीताफल (सरीफा) के इतने नाम गिनाये हैं "सीताफल, गण्डमात्र, वैदेहीवल्लभ, कृष्णबीज,अग्रिम, आतृप्य और बहुबीजक ॥१॥" इनमें 'बहुबीजक' शब्द भी सीताफलके लिये आया है, और यह ऊपर बताया ही जा चुका है कि 'अस्थि शब्दका अर्थ बीज होता है । इसलिये बहुबीजक और बह्वस्थिक एक ही है, अतः बह्वस्थिकका अर्थ सीताफल ही है । अथवा 'अट्ठिय 'की छाया, 'अष्ठिक होती है, कोषमें लिखा है कि फलके बीजको 'अष्ठि' कहते हैं । इससे भी पूर्वोक्त अर्थ ही सिद्ध होता है, इसलिये, सीताफलको तथा बंग आदि अन्य अन्य देशोंमें प्रसिद्ध अनन्नाश (अनास) फल विशेष, कटहर, मुनिगा (सोहिंजन) की फली, तेन्दू, बेल, गन्नेका खण्ड एवं सेमल आदि फल, जिनमें खाद्य अंश कम हो तथा त्याज्य अंश अधिक हो उन सब फल आदिको देनेवालीसे कहे कि ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है। એમ “શબ્દક૯૫દ્રમ” માં પણ લખ્યું છે. એટલે વરિશ શબ્દને અર્થ થાય છે બહ બીજે વાળ. એ શબ્દ ગરૂઢ છે, એટલે સીતાફળ અર્થ થાય છે. નિઘંટુમાં પણ સીતાફળનાં આટલાં નામ ગણાવ્યાં છે "सीता, मात्र, वैटेडीAM, Yogelar अश्रिम, मातृय भने ममी." એમાં બહુબીજક શબ્દ પણ સીતાફળને માટે આવ્યા છે, અને ઉપર બતાવવામાં આવ્યું જ છે કે “અસ્થિ” શબ્દનો અર્થ બીજ' થાય છે એટલે બહુબીજક અને બહસ્થિક એક જ છે, અર્થાત્ બહુસ્થિકનો અર્થ સીતાફળ જ છે. અથવા દિલ ની છાયા દિન થાય છે, કેષમાં લખ્યું છે કે ફળના બીજને “ષ્ટિ' કહે છે. તેથી પણ પૂવક્ત અર્થ જ સિદ્ધ થાય છે. એ રીતે સીતાફળ, તથા બંગ આદિ અન્ય-અન્ય દેશોમાં પ્રસિદ્ધ અનनास, ४२७२, मुनिमानी (मे४ ४२नी) जी, तन्ड, Reqण, (मीरा) २२डीनी अतणी, સેમલ આદિ ફળ, જેમાં ખાધ અંશ ઓછો હોય તથા ત્યાજ્ય અંશ વધારે હોય એ બધાં ફળ આદિ આપનારીને સાધુ કહે કે-એ આહાર મને કહપતે નથી. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० श्रीदशवैकालिकसूत्रे प्त्या बहुकण्टकत्वं सिध्यति, अनिमिषपदार्थस्य त्वन्तर्बहिः सकण्टकत्वेऽपि विरलकत्वादस्मादभेदः । अक्षीवं-शोभाञ्जनम् फलप्रकरणात्तत्फलिकाम् , त्वचः स्थौल्य-कार्कश्याधिक्यदोषेभ्यो बोजानां बाहुल्याच्चात्यधिकत्याज्यभागां 'मुनिगा' इति देशविशेषप्रसिद्धाम तिन्दुकम् अण्डाकृतिकं फलविशेषम् अल्पाकारस्याप्यस्य फलस्य बीजानां स्थौल्यवाहुल्यादिदं त्याज्यांशबहुलं 'तेंदु' इति प्रसिद्धम् , इक्षुखण्ड, शाल्मलिं च, एतानि प्रसिद्धार्थकानि । तथा यत्र भोजनजातं-भोज्यांशः अल्पं स्वल्पम् , उज्झनधर्मिकं त्याज्यांशः बहु= अधिकं स्यात् = भवेत् तत्फलादिकमन्यदपि ददतो प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पते इति। कतिचित्फलानि प्रदर्श्य त्याज्यसामान्यलक्षणं निरूपितं तेन न पुर्वगाथायास्तात्पर्यानुपपत्तिरिति दिक् ॥७३॥७४ मूलम्- तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वार-धोयणं ।। संसेइमं चाउलोदगं, अहुणाधोयं विवज्जए ॥७५॥ छाया-तथैवोच्चावचं पान,-मथवा वारकधावनम् । संस्वेदिमं तण्डुलोदकम्, अधुनाधौतं विवर्जयेत् ॥७५॥ अब पान ग्रहण करनेकी विधि बताते हैं सान्वयार्थ:-तहेव = जैसे अशन उसीप्रकार पाणं = पान उच्चावयं = उच्चा-सुन्दर वर्णादिसे युक्त, जसे दाख आदिका धोवन, अथवा-सुन्दर वर्णादिसे रहित जैसे मेथी केर आदिका धोवन वारधोयणं = गुड़के घड़ेका धोवन संसेइमं = भाजीका अथा आटेकी अनन्नासमें भीतर भी काटे होते हैं और बाहर भी, और कटहरके छिलकेमें सर्वत्र काँटे ही काटे होते हैं । दोनों बहुकण्टक हैं, किन्तु अनन्नासमें काँटे कम और तीखे होते हैं, अतः वह कटहरसे भिन्न है । अन्य भेद लोक-प्रसिद्ध ही हैं । सामान्य लक्षण करनेसे त्यागने योग्य फलोंका ज्ञान शिष्योंको कठिनतासे होता है, अतः पहले कुछ विशेष फलोंके नाम गिना कर, उस प्रकारके सभी-फलोंका त्याग बताया है । इसलिये, पहली गाथासे इसका सम्बन्ध ठीक बैठता है ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ અનનાસમાં અંદર કાંટા હોય છે અને બહાર પણ હોય છે, અને કટહરને છેતરામાં સર્વત્ર કાંટા જ હોય છે. બેઉ બહુકંટક છે, પરંતુ અનનાસમાં કાંટા ઓછા અને તીખાં હોય છે, તેથી તે કટરથી જુદું ફળ છે. અન્ય ભેદ લેક-પ્રસિદ્ધ છે. - સામાન્ય લક્ષણ બતાવવાથી ત્યાગવા ગ્ય ફળોનું જ્ઞાન શિને મુશ્કેલીથી થાય છે, એટલે પહેલાં કેટલાંક વિશેષ ફળોનાં નામ ગણવીને એ પ્રકારનાં બધાં કળાને ત્યાગ બતાવ્યું છે. તેથી પહેલી ગાથાથી અને સંબંધ ઠીક બંધ બેસે છે. (૭૩-૭૪) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० ७५ पानग्रहणविधिः ३७१ थालीका धोवन अदुवा = अथवा चाउलोदगं = चाँवलोंका धोवन (ये सब यदि) अहुणाधोयं = तुरन्त का धोया हुआ हो तो उसे (साधु) विवज्जए = वर्जे - न लेवे ॥७५॥ टोका-अशनग्रहणविधेरनन्तरं पानग्रहणविधिमाह' 'तहेवुच्चावयं' इत्यादि । तथैव यथाऽशनं तेनैव प्रकारेण, पानं = पेयं, कर्मणि ल्युट्, उच्चावचमिति-उदक् च अवाक च उच्चावचम् अनेकप्रकारम् , उत्कृष्टानुत्कृष्टमित्यर्थः' तत्र उत्कृष्टं = रुचिरवणेगन्धरसस्पर्शयुक्तं द्राक्षादिधावनजलं प्रपाणकादिकच, अनुत्कृष्ठं = रुचिर-वर्णादिहोनं मेथिकाकरीर-शमीफलिका-तिलादिधावनजलम् । वारकधावनं = गुड-घट-घृतघटादि धावनजलं, संस्वेदिम = क्वथितशाकादिजलं पिष्टस्थालीप्रक्षालनजलश्च, तण्डुलोदक = तण्डुलधावनजलम् । एतत्सर्वम् अधुनाधौतम् = तत्काल-धौतम्-अन्तमूहूर्तान्तोतं चेदित्यर्थस्तदा विवर्जयेत् = न गृण्हीयात् । उपलक्षणमेतत् , उक्तश्चाऽऽचाराङ्गे श्रीभगवता "से भिक्खू वार जाव अणुपविढे समाणे से जं पुण पाणगजाय जाणेज्जा, तं जहाउस्सेइमं वा ससेइमं वा चाउलोदगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजातं अहुणाधोयं अगंबिल अवोक्कंत अपरिणतं अविद्धत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा । अह पुण एवं जाणज्जा चिराधोयं अंबिलं वोक्कंतं परिणतं विद्धत्थं फासुयं जाव पडिगाहज्जा । से भिक्खू चार जाव अणुप्पवितु समाणे से जं पुण पाणगजातं जाणेज्जा त जहा-तिलोदगं वा तुसोदग वा जवोदग वा आयामं बा सोवीरं वा सुद्धवियर्ड वा अण्णयरं वा तहप्पगारं ___ अशन ग्रहण करने की विधी बताकर अब पान ग्रहण करनेको विधी दिखाते हैं-'तहेवुच्चावयं' इत्यादि । उच्च (उत्कृष्ट ) मनोज्ञ वर्ण गन्ध रस स्पर्शवाला दाख आदिका धोवन तथा शर्बत आदि पान, अथवा (अनुत्कृष्ट अमनोज्ञ वर्ण गन्ध रस स्पर्शवाला मेथी केर साँगरी तथा तिब छाछ आदिका धोवन आदि पान, गुड़ या घोके घड़ेका धोवन, औटाये ( उबाले ) हुए हरा शाक आदिका पानी, आटेकी थाली आदिका धोवन, चावलका धोवन । ये सब यदि तत्कालके धोये हुए हों अर्थात् अन्तर्मुहूर्त्तके अभ्यन्तरके धोये हों तो इनको ग्रहण न करे । ये ती उपलक्षण मात्र है, आचारांग सूत्रमें भगवानने कहा है --- અશન ગ્રહણ કરવાની વિધિ બતાવીને હવે પાન ગ્રહણ કરવાની વિધિ બતાવે છે – तहेवुच्चावयं इत्यादि. ઉચ્ચ (ઉત્કૃષ્ટ) મનહર વણે ગંધ રસ સ્પર્શવાળું દ્રાક્ષ આદિનું વણ તથા શરબત આદિ પાન, અથવા (અનુષ્કૃષ્ટ) અમનેઝ વણે ગંધ રસ વાળું મેથી, કેરાં, ખીજડાની ફળી (સાગરિઓ) તથા તલ છાશ આદિનું ધાવણ આદિ પાન, ગેળ યા ઘીના ઘડાનું ધાવણ, ઉકાળેલા લીલા શાક આદિનું પાણી, આટાની થાળી આદિનું દેવણ, ચેખોનું ધાવણ એ બધાં જે તાજાં એલાં હોય અર્થાત્ અંતર્મુહૂતની અંદર અંદર એલાં હેય તે તેને ગ્રહણ કરવાં નહિ. એ તે ઉપલક્ષમાત્ર છે. આચારાંગસૂત્રમાં ભગવાને કહ્યું છે કે- સાધુ અથવા સાધ્વી પાણીને માટે ગૃહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ કરીને, લેટના વાસણનું ધાવણું, શાક આદિ જેમાં બાફેલાં હોય તે પાણી, ચેખાનું ધાવણ, તથા એ પ્રકારનું શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे पाणगजायं पुवामेव आलोएज्जा-आलोएज्जा-आउसोत्ति वा० ७। से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणज्जा तं जहा-अंबपाणगं वा अंबाडगपाणगं वा कविठ्ठपाणगं वा मातुलिंगपाणगं वा मुद्दियापाणगं वा दीलिमपाणगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं " इत्यादि । छाया--"अथ भिक्षुर्वा भिक्षुकी पा यावत् अनुप्रविष्टः सन् स यत्पुनः पानक जातं जानीयात्, तद्यथा-उत्स्वेदिमं वा संस्वेदिम वा तण्डुलोदकं वा अन्यतरद् वा तथाप्रकार पानकजातम् अधुनाधौतम् अनम्लम् अव्युत्क्रान्तम् अपरिणतम् अविध्वस्तम् अप्रासुकं यावत् नो प्रतिगृलोयात् । अथ पुनरेवं जानीयात्-चिरौतम् अम्लं व्युत्क्रान्तं परिणतं विध्वस्तं प्रासुकं यावत् प्रतिगृलीयात् । अथ भिक्षुर्वा २ यावत् अनुप्रविष्टः सन् स यत्पुनः पानकजातं जानीयात्, तद्यथा-तिलोदक वा तुषोदकं वा यवोदकं वा आयाम वा सौवीरं वा शुद्धविकृते वा अन्यतरतू वा तथा प्रकारं पानकजातं पूर्वमेव आलोचयेत्-आयुष्मन् ! इति व ७३॥ अथ भिक्षुर्वा२ यावत् अनुप्रविष्टः सन् स यत्पुनर्जानीयात् , तद्यथा-आम्रपानकं वा आम्रातकपानकं वा कपित्थपानकं वा मातुलुङ्गपानकं वा मृद्वीकापानकं वा दाडिमपानकं वा खजूरपानकं वा नालिकेरपानक वा करीरपानकं वा कोलपानकं वा आमलपानकं वा चिञ्चापानकं बा, अन्यतरद्वा तथाप्रकारं पानकजातम्" इत्यादि। “साधु अथवा साध्वी पानीके लिए गृहस्थके घरमें प्रवेश करके-आटेके बरतनका धोवन, शाक आदि का बाफा हुमा पानी, चावलोंका धोवन तथा इस प्रकारका और भी कोई पानी तुरतका धोया हुआ हो, स्वादसे चलित न हुआ हो अर्थात् जिसका धोवनहो उस वस्तुका स्वाद न आता हो, जिसका वर्ण रस गन्ध स्पर्श-न बदला हो-सर्वथा अचित न हुआ हो शस्त्र-परिणत न हो तो ग्रहण न करे । यदि तुरतका धोया हुआ न हो-बहुत देरका धोया हुआ हो, स्वादसे चलित हो गया हो और शस्त्रपरिणत हो तो ग्रहण करे । तिलोदक, तुषोदक, यवोदक, ओसामण, सोवीर (अगछण),उष्णोदक तथा इस प्रकारका और भी अंबाडगका धोवन, कविठ ( कैथ) का धोवन, बिजौरेका धोवन, द्राक्षका धोवन, अनारका धोवन, खजूर का धौवन, नारियलका पानी (धोवन), केरका धोवन, वेरका धोवन, आँवलेका धोवन, इमलीका धोवन, अथवा इस प्रकारका और भी બીજું પણ કઈ પણ તુરતનું એલું હોય, સ્વાદથી ચલિત થયું ન હય, અર્થાત જેનું ધાવણ હોય તે વસ્તુને સ્વાદ ન આવતું હોય, જેનાં વર્ણ રસ ગંધ સ્પર્શ ન બદલાયાં હોય-સર્વથા અચિત્ત ન થયું હોય, શસ્ત્રપરિણત ન હોય, તે તે ગ્રહણ ન કરે છે તુરતનું ધાએલું ન હોય બહુ વખતનું ધાએલું હોય, સ્વાદથી ચલિત થયું હોય, અને શસ્ત્ર પરિણત હોય તે ગ્રહણ કરે. તિલેદક, તુષાદક, યવેદક, ઓસામણ, સૌવીર, ઉદક તથા એ પ્રકારનું બીજું પણ પાણી ગૃહસ્થ આપેલું હોય તે કલ્પ છે. જે સાધુકેરીનું ધોવણ. मा (मजियांनु) धाप, नु घाव, भानु घोपा, द्राक्षनु घावण, मना२ पापy, मरनु घाण, नाश्येनु पाली (धार), २iनु पाप, मारनु घोषण, આંબળાંનું ધાવણ, આંબલીનું જોવણ, અથવા એ પ્રકારનું બીજું પણ ધાવણ જાણે અને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा० ७६-७७ पानप्रहणविधिः ३७३ उक्तं दिगम्बराचार्येण वहकेर स्वामिनाऽपि मूलाचारे-- "तिलतंडुल-उसणोदय, चणोदय-तुसोदय अविद्धत्थं । अण्णं तहाविहं वा, क्षपरिणतं णेव गेण्हिज्जा ॥४७३॥” इति छाया-तिलतण्डुलोष्णोदकं चणकोदकं तुषोदकम् अविध्वस्तम् । अन्यत्तथाविधं या अपरिणतं नैव गृह्णीयात् ॥४७३॥ इति गाथार्थः ॥७॥ तहिं कीदृशं पानं गृहीयात् ? इत्यत आह—'जं जाणेज्ज' इत्यादि, 'अजीवं' इत्यादि च । मूलम्-जं जाणेज चिराधोयं, मईए दंसणेण वा । ४ ५ ६ १० ११ पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जं च निस्संकियं भवे ॥७६॥ १६ १८ अजीरं परिणयं नच्चा, पडिगाहिज्ज संजए । अह संकियं भविज्जा, आसाइत्ताण रोयए ॥७७॥ छाया--यज्जानीयाच्चिराद्धोतं, मत्या दर्शनेन वा । प्रतिपृच्छत्य श्रुत्वा वा, यच्च निश्शङ्कितं भवेत् ॥७६॥ अजीवं परिणतं ज्ञात्वा, प्रतिगृडीयात्संयतः। अथ शङ्कितं भवेत् , आस्वाध रोचयेत् ॥७७॥ धोवन जाने और यदि वह अत्यम्ल न हो, तुरतकाधोया हुआ न हो, स्वादचलित हो और शस्त्रपरिणत हो तो कल्पता है।" दिगम्बराचार्य वट्टकेर-स्वामीने भी मूलाचारमें कहा है--- "तिलोदक, तन्दुलोदक, उष्णोदक, चनेका पानी तुषका पानी, तथा इस प्रकारका और भी जल यदि अविध्वस्त (सचित्त हो और शस्त्रपरिणत न हो तो ग्रहण नहीं करना चाहिए अर्थात् शस्त्रपरिणत हो तो लेना कल्पता है ॥१॥' (मूलाचार गा. (४७३) ॥७५॥ જે તે બહુ અશ્લ (ખાટું) ન હોય. તુરતનું એવું ન હોય, સ્વાદચલિત હોય અને શસ્ત્રપરિણત હોય તે કલ્પે છે.” દિગંબરાઆર્ય વટ્ટકેર-સ્વામીએ પણ મૂલાચારમાં કહ્યું છે “તિલેદક, તદ્દ ક, ઉચ્છેદક, ચણાનું પાણી તુષનું પાણી, તથા એ પ્રકારનું બીજું પણ જળ જે અવિધ્વસ્ત (સચિત્ત) હેય અને શસ્ત્રપરિણત નું હોય તે ગ્રહણ કરવું ન જોઈએ અર્થાત્ શસ્ત્રપરિણત હોય તે લેવું કપે છે (મૂલાચાર ગા. ૪૭૩) (૭૫). શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ श्रीदशवकालिकसूत्रे सान्वयार्थः-मईए-बुद्धिसे वा=अथवा दंसणेण-देखनेसे पडिपुच्छिऊण-पूछकर वा= अथवा सुच्चा= बात करते हुए सुनकर ज-जिस धोवनको चिराधोयं= चिराधौत-बहुत देरका धोया हुआ जाणेज्ज-जाने, च=तथा ज-जो निस्संकिय= 'इससे तृषा शान्त होगी या नहीं ?' इस प्रकारको शङ्कारहित भवे-हो तो उसे अजीवं जीवरहित-अचित्त और परिणयं-शस्त्रपरिणत नच्चा-जानकर संजए साधु पंडिग्गाहिज्ज-लेवे; अह-अथ -अगर वह संकिय='इससे तृषाबूझेगी या नहीं ?' इस प्रकारकी शङ्कासे युक्त भविज्जा हो तो उसे आसाइत्ताणचखकरके रोयए निर्णय करे ॥७६॥७७॥ टीका—मत्या बुद्धया दर्शनेन दृष्टया वा धौतजले तदीयवर्णादिपरिज्ञानाय तत्राऽऽगमानुगामिन्या मनीषया दृष्टिनिपातेन वेति भावः, प्रतिपृच्छच सम्यक पृष्ट्वा श्रुत्वा वा तत्प्रतिवचनं प्रश्नमन्तरेणाऽपि कस्यचिन्मुखाद्वा निशम्य यत् चिराद्धोतं जानीयात्,यच्च निश्शङ्कितम् = अनुपयोगित्वशङ्कारहितं भवेत् तद् अजीवंप्रासुकं परिणतं-स्वपरशस्त्रादिनाऽवस्थान्तरं प्राप्त ज्ञात्वा संयत: साधुः प्रतिगृह्णीयात् । ये तु 'घटिकाद्वयानन्तरं धावनजलं सचित्तं भवतीति मुहूर्तात्परं तत्तोयमनुपादेय मित्याहुः, तन्न समीचीनम् , व्यठजनाधुपलिप्तकरदर्वीधावनार्थ पाकप्रदेशे पूर्वस्थापितजलस्य मुहूर्तानन्तरं तन्मते सचित्ततायां तदानीं तदुदकक्षालितकरदादिना निरवद्या कैसा धोवन ग्रहण करना चाहिए ? सो बताते हैं - 'जं जाणेज्ज' इत्यादि, 'अजीव' इत्यादि । आगमानुसार बुद्धि अथवा दृष्टिसे धोवनका वर्ण आदि जान कर पूछ कर अथवा किसीसे सुन कर धोवन बहुत देरका धोया हुआ हो तो ग्रहण करे । तथा उपयोगी है या अनुपयोगी ? इस प्रकारकी शंकाका निर्णय करके प्रासुक तथा अवस्था न्तरको प्राप्त होगया जानकर साधु ग्रहण करे । __ जो लोग यह कहते हैं कि-'धोवन जल दो घड़ोके बाद सचित्त होनेसे अग्राह्य है' यह उनका कहना ठीक नहीं, क्योंकि, यदि दो धड़ीके बाद धोवन जल सचित्त हो जाय तो शाक आदिसे लिप्त हाथ या कुडछी आदि धोनेके लिये गृहस्थ (रसोया) रसोईके समय अपने पास उघावा अहए ४२ मे १ ते मतावे छ:-जं जाणेज्ज० ४त्या, तथा अजीवं ઈત્યા? ધોવણ ગ્રહ આગમાનુસારબુદ્ધિ અથવા દૃષ્ટિથી ઘેવણને વર્ણાદિ જાણી-પૂછીને અથવા કઈ પાસેથી સાંભળીને ધાવણ બહુ વખતથી એવું હોય તે તે ગ્રહણ કરે તેમજ ઉપયોગી છે કે અનુપયેગી ?” એ પ્રકારની શાંકાને નિર્ણય કરીને પ્રાસુક તથા અવસ્થાંતરને પ્રાપ્ત થએલું જાણુને સાધુ તે ગ્રહણ કરે. જે લોકો કહે છે કેવણનું પાણું બે ઘડી પછી સચિત્ત હોવાથી અગ્રાહ્ય છે તે તેમનું કહેવાનું બરાબર નથી. કારણ કે જે બે ઘડી પછી ધોવણનું જળ સચિત્ત થઈ જાય તે શાક આદિથી ખરડાયેલા હાથ યા કડછી-આદિ દેવાને માટે ગૃહસ્થ (રસોઈ) રઈને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा ७६-७७ पानग्रहणविधिः शनग्रहणमपि तेषां दोषावहं भवेत् , तत्संमतसचित्तजलसंसृष्टकरदींसंसर्गवत्यात् । मुहूर्तात्परमेव धावनजलस्य सचित्तत्वाङ्गीकारे 'अहुणाधोयं विवज्जए' इति प्रकृतसूत्रस्य च विरोधापत्तिः, तथाहि-अधुनाधौतस्य मुहूर्तान्तर्गततया तत्र तन्मते सचित्तताया अभावे तद्वर्जनोपदेशाऽसङ्गतिः चिराद्धौतस्य च मुहूर्त्तानन्तरं तन्मते सचित्तत्ताया अभावे तर्जनोपदेशासङ्गतिः स्यात् , तस्मात् पिपासापनोदनशक्तिशालिनश्चिराद्धौतस्य ग्रहणं शास्त्रसंमतमित्यवधेयम् । अथ शङ्कितं 'पिपासाऽपनोदकं न वा ?' इति संशयविषयो भवेत्तदा आस्वाद्यउक्तसंशयापनोदनाथ किश्चित्पीत्वा रोचयेत् निर्णयेत् ।। ___ "अजीव"-मित्यनेन जीवराहित्यं परिणत - मित्यनेन च सर्वथाऽचित्तत्वं मूचित्तम ॥७६॥७७॥ एक पानीका बरतन रखता है, उस जलसे हाथ और कुडछी धो धो कर दाल आदि परोसता है, ऐसी दशामें उक्त मतसे देर तक रक्खे रहनेके कारण यदि वह हाथ या कुडली आदिका धोवन सचित्त हो जाता है तो उस धोवनमें धोयी हुई कुडली या हाथसे दिया जानेवाला निरवद्य अन्नादि भी उनको अग्राह्य हो जायगा । 'तहेवुचावयं' इस गाथा के अन्तिम चरणमें 'अहणाधोय विवज्जए' यह कह कर भगवानने यह स्पष्ट कर दिया है कि तुरतका धोया हुआ जल अग्राह्य है, और इसीको 'द्विद्ध सुबद्धं भवति' इस न्यायसे 'जं जाणेज्ज चिराधोयं' इस गाथासे सुस्पष्ट कर दिया है कि देरका धोया हुआ धोवन ग्रहण करना चाहिए । अतः दो घड़ीके बाद धोवन में जीवोंकी उत्पत्ति मानना जैनागमसे विरुद्ध है और उत्सूत्र-प्ररूपणका भागी बनना है। तथा 'इससे प्यास मिट जायगी या नहीं ? ऐसा सन्देह उत्पन्न हो जाय तो उस सन्देह को दूर करनेके लिए थोड़ासा पानी चख कर निर्णय करे । _ 'अजीवं' पदसे जीवराहित्य और 'परिणयं' पदसे मिश्रकी शंकाका अभाव सूचित किया है॥७ ॥७ ॥ સમયે પોતાની પાસે પાણીનું એક વાસણ રાખે છે, એ જળથી હાથ અને કડછી ધોઈધાઈને દાળ આદિ પીરસે છે, એવી દશામાં ઉક્ત મત પ્રમાણે કેટલાક સમય સુધી રહેલું હોવાને કારણે જે એ હાથ યા કડછી આદિનું ધાવણ સચિત્ત થઈ જાય તે એ ધાવણમાં ધાએલી કડછી યા હાથથી આપવામાં આવતું નિરવ અનાદિ પણ એમને અગ્રાહા બની जय. तहेवुच्चावयं को थाना मतिम य२मा अहुणाधोयं विवज्जए मेम हीन भावाने એ સ્પષ્ટ કરી આપ્યું છે કે તુરતનું ધાએલું જળ અગ્રાહ્યા છે, અને એને ઉર્વ સુકાતું भवति से न्याय ४ जं जाणेज्ज चिराधोयं मे गायाथी सुस्पष्ट १२ माप्युटલાક સમય પહેલાંનું ધાએલું ધાવણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ એટલે બે ઘડી પછી ધાવણમાં છની ઉત્પત્તિ માનવી એ જૈનાગમથી વિરૂદ્ધ છે અને ઉત્સુત્રપ્રરૂપણના ભાગી બનવું તેમજ “એવી તરસ મટશે કે નહિ ?' એ સંદેહ ઉત્પન્ન થાય તે એ સંદેહ દુર શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ___श्रीदशकालिकाले आस्वादनविधि प्रदर्शयन् निर्णयप्रकारमाह-'थोय.'इत्यादि । मूलम्-थोषमासायणट्ठाए, हत्थगम्मि दलाहि मे । १२ १ ६ . १० ८ ९ मा मे अच्चंबिलं पूयं, नालं तिहं विणित्तए ॥७८॥ छाया- स्तोकमास्वादनार्थ, हस्तके देहि मे। मा मे अत्यम्ल पूति, नालं तृष्णां विनेतुम् ॥७८॥ सान्वयार्थ:-(निर्णय करने के लिए साधु दातासे कहे कि-हे आयुष्मन् ! ) आसायणहाए-चखनेके लिए थोवं-थोड़ासा धोवन मे मेरे हत्थगम्मि हाथमें दलाहिदो, (हाथमें लेकर चखने पर यदि निश्चय हो जाय कि वह धोवन) अचंबिलं अत्यन्त खट्टा पूर्य-दुर्गन्धित और तिहं =प्यास विणित्तए-बुझानेके लिए नालं =समर्थ नहीं है इसलिए यह मे मेरे लिए उपयोगी मा=नहीं है।।७८॥ टीका-आस्वादनार्थम् = उपयोगित्वाऽनुपयोगित्वज्ञानार्थ स्तोकं स्वल्पं तिलतण्डुलादिजलं मे = मम हस्ते 'देहि' इति दात्रीमुद्दिश्य वदेदिति भावः । तदत्तं धौतजलमास्वाध निश्चिनुयात्-इदम् अत्यम्लं पूति = अनिष्टगन्धयुक्तं तृष्णां=पिपासां विनेतुम् = अपाकर्तुं नालं = न समर्थम्, इति मे = मम मा = नहि उपयोगीति शेषः॥७८ ॥ आस्वादन (चखने) को विधि बताते हुए निर्णय करनेका प्रकार बताते हैं - थोव० । इत्यादि । 'धोवन उपयोगी है या नहीं ?' इस शंकाका निवारण करनेके लिए देनेवालो बाईसे साधु कहे कि-'मेरे हाथमें थोड़ासा पानी दो।' उस दिये हुए धोबनका आस्वादन करके निश्चय करे कि-'यह बहुत खट्टा है, दुर्गन्धवाला है प्यास शान्त करनेके लिए समर्थ नहीं है अत: मेरे लिए उपयोगी नहीं है ॥७॥ ऐसा निश्चय करके क्या करना चाहिए ! सो कहते हैं-तं च' इत्यादि । કરવાને માટે થોડું પાણી ચાખીને નિર્ણય કરવું અની શબ્દથી જીવરાહિત્ય અને ળિ शपथी भित्रनी शान। अमाप सूरित ४थे। छ. (७६-७७) मारवाहन (या41) नी विधि बतातानिय ४२वान। ४२ मतावे छे-थोव० त्यादि. ધાવણ ઉપયોગી છે કે નહિ ?' એ શંકાનું નિવારણુ કરવાને માટે ધાવણ આપનારી બાઈને સાધુ કહે કે “મારા હાથમાં થોડું પાણી આપે. એ આપેલા છેવણનું અસ્વાદન કરીને નિશ્ચય કરે કે “આ બહુ ખાટું છે, દુગધ વાળું છે, તરસ શાંત કરવા માટે समय नथी, तथी मारे भाट उपयोगी नथी.' (७८) એ નિશ્ચય કરીને શું કરવું જોઈએ ? તે હવે કહે છે- ર૦ ઈત્યાદિ. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन. ५ उ. १ गा० ७८-८१ पानग्रहणविधिः निश्चयानन्तरं कर्त्तव्यमाह - ' तं च' इत्यादि । १ २ 3 ४ ७ ५ ६ मूलम् - तं च अच्चंबिलं पूयं, नालं तिन्हं वित्तिए । ८ ૧૧ १२ १३ १४ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७९ ॥ छाया - तच्चाऽत्यम्लं पूति, नालं तृष्णां बिनेतुम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ ७९ ॥ तव वह साधु क्या करे ?, सो बताते हैं सान्वयार्थ :- अच्चविलं : = अत्यन्त खट्टे पूयं = दुर्गन्धियुक्त और तिन्हं वित्तिए नालं - प्यास मिटाने के लिए असमर्थ तं स धोवनको दितियं देनेवाली से साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं - इस प्रकारका धोवन मे मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ॥ ७९ ॥ टीका - तच्च धौतजलमत्यम्लं पूति तृष्णां विनेतुं नालमिति ददतीं प्रत्याचक्षीततादृशं मे न कल्पते इति ॥ ७९ ॥ १ २ ६ ३ मूलम् - तं च होज्ज अकामेणं, विमणेण पडिच्छयं । 2 ८ ९ १० ११ १३ १२ १४ तं अपणा न पिबे, नो वि अन्नस्स दावए ||८०|| छाया- - तच्च भवेद् अकामेन, विमनसा प्रतिगृहीतम् । ३७७ तद् आत्मना न पिबेत्, नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ||८०|| सान्वयार्थः -- तं - वह उस प्रकारका धोवन यदि अकामेण विना इच्छा से दाताके अनुरोध से च तथा विमणेणं मनके दूसरी तरफ होने के कारण पडिच्छियं = लेलिया गया हो तो तं = उस धोवनको न = न तो अपणा = अपने खुद पिबे = पिवे और नो = न अन्नस्स अवि = दूसरोंकोभी दावए = देवे ॥८०॥ टीका -- तं च' इत्यादि । तच्च धौतजलं यदि अकामेन = स्वानिच्छया, दात्र्यनुरोधेनेति भावः विमनसा = अन्यमनस्कतया, 'हेतौ तृतीया प्रतिगृहीतं तद् आत्मना स्वयं न पिबेत् नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ||८०|| उस बहुत खट्टे, दुर्गन्धित और प्यास बुझानेमें असमर्थ घोवनको देनेवाली बाईसे कहे कि ऐसा धोवन मुझे नहीं कल्पता है ॥ ७९ ॥ 'तं च' इत्यादि । यदि ऐसा पानी अनिच्छापूर्वक दाताके अनुरोधसे अथवा विना ध्यान से ग्रहण कर लिया हो तो स्वयं उसे न पिये और न दूसरे को पिलावे ॥ ८० ॥ એવા બહુ ખાટા, દુર્ગંધિત અને તરસ છીપાવવામાં ખાઈને સાધુ કહે કે એવુ ધાવણુ મને પતુ નથી. (૭૯) અસમર્થ ધાવણને આપનારી તેં ચ ઈત્યાદિ. જો એવુ' પાણી અનિચ્છાપૂર્વક દાતાના અનુરાધથી અથવા એ-ધ્યાનથી ગ્રહણ કરી લીધુ* હાય તા પાતે ન પીએ અને ન ખીજાને પીવડાવે (૮૦) ४८ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ૮ श्रोदशबैकालिकसूत्रे तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह-'एगंत०'इत्यादि । मूलम्-एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया । जयं परिहविज्जा, परिट्ठप्प पडिकमे ॥ ८१ ॥ छाया--एकान्तमवक्रम्याऽचित्तं प्रत्युपेक्ष्य । यतं परिष्ठापयेत्, परिष्ठाप्य प्रतिक्रामेत् ॥८१॥ उसका धोवन का क्या करे ? सो बताते हैं-- सान्वयार्थ:-एगंत = एकान्त स्थानम् अवक्कमित्ता= जाकरके अचित्तं = एकेन्द्रियादिप्राणीरहित अचित्त स्थानको पडिलेहिया = पूंजकर उस धोवनको जयं = यतनासे परिविज्जा - परिठवे-डाले, परिदृप्प = परिठवके आकर पडिक्कमे = इरियावहिया पडिकमे प्रतिक्रमण करे ॥८१॥ टीका--एकान्तं विविक्तप्रदेशम् , अवक्रम्य = गत्वा तत्र अचित्तम् = एकेन्द्रियादि प्राणिवर्जितं प्रत्युपेक्ष्य = निरीक्ष्य यतं =सयत्नं यथास्यात्तथा परिष्ठापयेत् , सविधि"वोसिरे” इति त्रिरुच्चार्य व्युत्सृजेत् । परिष्ठाप्य = परिष्ठापनानन्तरं ग्रामावहिरबहिर्वाss सन्नभूमिमागत्य प्रतिक्रामेत् = ऐपिथिकी कुर्यात् ॥८१॥ अशनपानग्रहणविधेरनन्तरं भोजनविधिमाह-'सिया' इत्यादि, 'अणुन्नवित्तु' इत्यादि च । मूलम्-सिया य गोयग्गगओ, इच्छिज्जा परिभुत्तुउं । कुट्ठगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुयं ॥२॥ अणुनवित्त मेहावी, पडिच्छन्नम्मि संवुडे । हत्थग संपमज्जित्ता, तत्थ भुजिज्ज संजए ॥८३॥ छाया-स्याच्च गोचराग्रगतः इच्छेत् परिभोक्तुम् कोष्ठकं भित्तिमूलं वा, प्रत्युपेक्ष्य प्रामुकम् ॥८२॥ फिर क्या करे सो कहते हैं-'एगंत०' इत्यादि । एकान्त स्थानमें जाकर एकेन्द्रिय आदि प्राणियोंसे रहित स्थान देखकर यतनापूर्वक "वोसिरे" ऐसा तीन बार उच्चारण करके परिठवे परिठवनेके पश्चात् गाँवमें या गाँवके बाहर ठहरने के स्थान पर आकर इरियावहियाका प्रतिक्रमण करे ॥८१॥ पछी शुरे -पगंत. त्याह. એકાંત સ્થાનમાં જઈને એકેન્દ્રિય આદિ પ્રાણીઓથી રહિત સ્થાન જોઇને યતનાપૂર્વક घोसिरे से शा२ रया२६ श. ५२४३. ५२व्या ५७ी गाममा या मनी બહાર રહેવાના સ્થાન પર આવીને ઇરિયાવહિયાનું પ્રતિક્રમણ કરે. (૮૧) , અશન-પાન ગ્રહણ કરવાની વિધિ બતાવ્યા બાદ આહાર કરવાની વિધિ બતાવે છે १५ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० ८२-८३ कारणे गोचर्यां भोजनविधिः अनुज्ञाप्य मेधावी, प्रतिच्छन्ने संवृते । हस्तकं संप्रमृज्य तत्र भुञ्जीत संयतः ॥८३॥ सान्वयार्थः - गोयरग्गगओ = गोचरीमें गया हुआ मेहावी = सामाचारीका जानकार संजए = साधु सियाय = कदाचित् अगर बाल्यावस्थाके अथवा ग्लानपनेके कारण वहीं परिभूत्त: = आहार करना इच्छिज्जा = चाहें तो वहां फासूयं = प्रासुक - एकेन्द्रियादिप्राणी रहित कुट्टगं = कोठेको वा = अथवा भित्तिमूलं = भींत के समीपके स्थानको पडिलेहिताण - पूंजकर तथा दृष्टिसे देखकर अणुन्नवित्त = गृहस्थकी आज्ञा मांगकर तत्थ = वहां षडिच्छन्नम्मि= ऊपरसे छाये हुए और संबुडे = चारों तर्फसे घिरे हुए स्थानमें हत्थगं = हाथोंको अथवा अपने शरीरको संपमज्जित्ता = पूंजकरके (साधु) भुंजिज्ज = आहार करे || ८२|| ८३ ॥ = टीका - स्याच्च = कदाचित् गोचराग्रगतः = भिक्षामनुप्रविष्टो मुनिः, बाल्य-ग्लानत्व-पिपासादिकारणवशात्परिभोक्तुमिच्छेत् तदा प्राकम् = एकेन्द्रियादिप्राणिविवर्जितं कोष्ठकम् = अन्तर्मुहूर्त्तादिकं वा = अथवा भित्तिमूलं = कृडयसमीपवर्तिप्रदेशं प्रत्युपेक्ष्य = दृष्ट्या विलोक्य अनुज्ञाप्य = तत्स्वामिनोऽनुज्ञामादाय तत्र प्रतिच्छन्ने ऊर्ध्वतस्तृणादिभिराच्छादिते, सवृते किन्तु प्रकाशयुक्ते प्रदेशे, यद्वा 'संवृतः' इति प्रथमान्तं संयतस्य विशेषणं तेन, मेधावी = साधुसामाचारीकुशलः संयतः = साधुः संवृतः = मनोवाक्कायगुप्तः सत् हस्तकं = हस्तौ संप्रमृज्य = संशोध्य, अथवा 'हस्तकम्' इति तृतीयार्थे प्रथमा, तथा = ३७९ अशन-पान ग्रहण करनेको विधि बतानेके बाद आहार करनेकी विधि बताते हैं - ' सिया य' इत्यादि, 'अणुन्नवित्तु' इत्यादि । यदि भिक्षा लिए गये हुए भिक्षु बालकपन, ग्लानता अथवा प्यास आदि किसी कारण से आहार करने की इच्छा हो जाय तो वहाँ प्रासुक कोठा अथवा भींतके पास कोने आदिकी प्रतिलेखना करके मकानके स्वामीकी आज्ञा लेकर ऊपरको तृण आदिसे छाये हुए चारों ओरसे बन्द किन्तु प्रकाशयुक्त स्थानमें स्थित होकर मन वचन कायकी सम्यक् : प्रकार प्रवृत्ति करता हुआ साधुसामाचारीका ज्ञाता मुनि हाथोंको प्रमार्जित (साफ) करके या हस्तक अर्थात् हस्तगत रजोहरणसे काय और स्थानकी प्रमार्जना करके आहार करे । सिया य इत्यादि तथा अणुवित्त त्यहि જો ભિક્ષાને માટે ગએલા ભિક્ષુને ખાળકપણા, ગ્લાનતા અથવા તરસ આદિ કાઇ કારણે આહાર કરવાની ઈચ્છા થઇ જાય તા ત્યાં પ્રાસુક કાઠી અથવા ભીતની પાસે ખૂણા આદિની પ્રતિલેખના કરીને મકાનના સ્વામીની આજ્ઞા લઈને ઉપર ઘાસ આદિથી છાએલા ચારે ખાજીથી ખંધ પરન્તુ પ્રકાશયુક્ત સ્થાનમાં રહીને મન વચન કાયાની સમ્યક્ પ્રકારે પ્રવૃત્તિ કરતાં સાધુ સામાચારીનેા જ્ઞાતા મુનિ હાથને પ્રમાર્જિત કરીને(સાફ કરીને) યા હસ્તક (હસ્તગત રજોહરણુ) થી કાય અને સ્થાનની પ્રમાના કરીને આહાર કરે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० श्रोदशचकालिकसूत्रे च-हस्तकेन = हस्तं कायति - धातूनामनेकार्थत्वात्प्राप्नोतीति हस्तकम् , ('आतोऽनुपसर्गे कः' इति कप्रत्ययः,) रजोहरणं तेन, तस्य धारणे हस्तस्य सर्वथा निमित्तत्वात् , प्रायः कक्षप्रदेशे धारणेऽपि हस्ताश्रयं विना तदीयधारणासम्भवाच्च ।संप्रमृज्य = तत्थानं कायं च संशोध्य भुजीत = अभ्यवहरेत् । यत्तु “हस्तकं मुखवस्त्रिकारूपमादाय तेन कार्य संममृज्य" इति व्याख्यातं तदयुक्तं 'हस्तक' पदार्थस्य 'संप्रमृज्य पदार्थेऽन्वयसम्भवे 'आदाये-ति पदान्तराक्षेपपूर्वकमन्यपदा र्थेऽन्वयकल्पनाया अनौचित्यात् । किञ्च कोष व्याकरणादिषु हि हस्तकशब्दो मुखपस्त्रिकारूपेऽर्थे न दृश्यते । शास्त्रेऽपि-"मुहपत्तिं पडिलेहित्ता" इत्यादि दृश्यते न तु 'हत्यगे पडिलेहित्ता' इत्यादि । यच्च “विधिना तेन मुखवस्त्रिकारूपेण हस्तकेन कायं प्रमृज्य तत्र भुजीत" इति व्याख्यातं तदप्ययुक्ततरम् । हस्ते मुखवस्त्रिकाधारणे मुखबस्त्रिकाधारणोद्देश्यभूतायाः सूक्ष्म किसी-किसीने 'हस्तकं संप्रमृज्य' का ऐसा अर्थ किया है कि 'मुखवत्रिका लेकर उससे शरीर-प्रमार्जना करे' ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं है, क्योंकि मुखवत्रिकाके साथ प्रमार्जन करनेका सम्बन्ध मिलते न देख उन्हें एक ' आदाय' शब्द (लेकर ) अपनी ओरसे मिला दिया है । इस प्रकार सम्बन्ध मिलाना उचित नहीं है । इसके सिवाय कोषोंमें कहीं 'हस्तक' शब्द का अर्थ मुखवस्त्रिका नहीं किया है और न व्याकरणमें ही ऐसा देखाजाता है । आगमोंमें 'मुहपत्ति पडिलेहित्ता' इत्यादि पद देखे जाते हैं, किन्तु 'हत्थगं पडिलेहित्ता' कहीं नहीं देखा जाता । तथा "मुखवन्त्रिकारूप हस्तकसे कायकी प्रमार्जना करके आहार करे" ऐसा व्याख्या करना भी अत्यन्त अयुक्त है, क्योंकि मुखवस्त्रिका धारण करने का प्रयोजन सूक्ष्म, व्यापी, सम्पातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी हिंसाका परिहार करना है । मुखव स्त्रिकाको हाथमें रखनेसे उक्त प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । इससे यह सिद्ध होता है कि मुखवस्त्रिका | કઈ-કોઈએ દૂત ને એ અર્થ કર્યો છે કે “મુખસિકા લઈને તેથી શરીરની પ્રાર્થના કરે,” પણ એ અર્થ કરો એ બરાબર નથી, કારણ કે સુખવૃશ્ચિકાની સાથે પ્રમાર્જન કરવા સંબંધ મળતું નહિ જોવાથી તેમણે એક એવા શબ્દ લઈને પોતાની તરફથી મેળવી દીઘે છે. આ પ્રમાણે સંબંધ મેળવી દેવો એ ઉચિત નથી. વળી કેષમાં કયાંય હસ્તકશબ્દને અર્થે મુખવઝિકા કર્યો નથી અને વ્યાકરણમાં ५ वा मथ लेवामा आवत नथी, मागमामा मुहपत्ति पडिलेहित्ता इत्यादि पह नामा माव छ, 8न्तु हत्थग पडिलेहित्ता यांय नेपामा मातु: नथी. તથા “મુખવસ્ત્રિકારૂપ હસ્તકથી કાયની પ્રમાજના કરીને આહાર કરે” એવી વ્યાખ્યા કરવી એ પણ અત્યંત અયુક્ત છે, કારણ કે મુખવાચિકા ધારણ કરવાનું પ્રયોજન સૂફમ. વ્યાપી, સમ્પતિમ તથા વાયુકાય આદિ જીવોની હિંસાને પરિહાર કર એ છે. મુખવસ્ત્રિકાને હાથમાં રાખવા ઉક્ત પ્રયજન સિદ્ધ થતું નથી. એથી એમ સિદ્ધ થાય છે શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० ८४-८६ आहागतबीजादिपरिष्ठापन विधिः ३८९ व्यापिसम्यातिमवायुकायादिजीवहिंसानिवृत्तेरसिद्धया मुखवस्त्रिका मुख एव धारणी येत्याशयस्य जागरुकत्वात्, अत एव भगवताऽपि सूक्ष्मव्यपिसम्पातिमवायुकायादिजीवाऽयतनानिवृत्तये मुखोपरि धारणीयसदोरकाष्ठपुटमुखप्रमाणवस्त्रखण्ड रूपेऽर्थे मुखवस्त्रिकाशब्दः प्रयुक्तो, न तु हस्तवस्त्रिकाशब्द इति कथमपि हस्तकशब्देन मुखवस्त्रिकारूपोऽर्थो न लभ्यते एवं च तेन कायप्रमार्जनकथनं सर्वथाऽऽगमविरुद्धमेवेति बोध्यम् ||८२||८२॥ १ 3 २ ४ ५ १२ मूलम् - तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्ठियं कंटओ सिया । ८ ७ ६ ९ १० ११ तण-कट्ट सक्करं वावि, अन्नं वावि तहा विहं ॥ ८४|| १७ १३ १५ १६ १८ १९ १४ तं क्खिवित न निक्खिवे, आसएण न छड्डए । २४ २.१ २० २२ २३ हत्थेण तं गऊण, एगंतमवकमे ||२५|| छाया - तत्र तस्य भुञ्जानस्य, अष्ठिकं कण्टकः स्यात् । तृणकाष्ठ-शर्कर वाऽपि, अन्यद्वापि तथाविधम् ॥ ८४ तद् उत्क्षिप्य न निक्षिपेत्, आस्येन होज्झेत् । हस्तेन तद् गृहीत्वा, एकान्तम पक्रामेत् ॥ ८५ ॥ सान्वयार्थः- तत्थ - वहां कोठे आदि में भुंजमाणस्स = आहार करते हुए से उस साधु के (आहार) अट्ठियं बीज कंटओ-कांटा तण तिनका कट्ट- काठ वावि = और सक्करं = छोटा कंकर वा तथा अन्नं वावि = और भी तहाविह उस प्रकार का पदार्थ सिया = आगया हो तो तं= उसे उक्खिवित्त = निकालकर न निक्खिवे = इधर उधर नहीं डाले तथा आसरणं - मुख से भी न छड्डए=न फेंके न थँके (किन्तु तं = उसे हत्थे - हाय से गऊण = लेकर एगतं एकान्त स्थानमें अवक्कमे - जावे || ८४|| ८५ ॥ मुखपर ही धारण करनी चाहिए । इसलिए मुखके निमित्तसे होनेवाली, सूक्ष्म, व्यापी, सम्पात्तिन और वायुकाय आदि जीवोंकी विराधनाकी निवृत्तिके लिए मुख पर धारण करने योग्य उस मुख परिमाण सदोरक और आठ पुड़वाले वस्त्रखण्डको भगवानने 'मुखवस्त्रिका ' शब्द से कहा है, 'हस्तaftaar ' शब्दका प्रयोग कहीं नहीं कियाँ, अत एव 'हस्तक' शब्द से मुखर्वत्रिकाका अर्थ किसी भी प्रकार नहीं नीकल सकता । इस प्रकार 'उससे कायकी प्रमार्जना करना ' यह अर्थ आगसे सर्वथा विरुद्ध है ॥ ८२ ॥ ८३ ॥ કે સુખકા મુખ પર જ ધારણ કરવી જોઇએ. તેથી મુખના નિમિત્તે થનારી સૂક્ષ્મ, વ્યાપી, સ’પાતિમ અને વાયુકાય આદિ જીવાની વિરાધનાની નિવૃતિને માટે મુખ પર ધારણ કરવા ચેાગ્ય એ મુખપરિમાણુ દારા સાથેના અને આઠ પડવાળા વસ્ત્રખ ડને ભગવાને ‘મુખવષિકા' કહી છે, ‘હસ્તવસ્તિકા’ શબ્દના પ્રયાગૂ કર્યાં નથી. એટ્લે ‘હસ્તક' શબ્દથી મુખ્વિસ્રકાના અથ કોઇ પણ પ્રકાર નીકળી શકતા નથી. એ રીતે મુખવશ્રિકાથી કાયાની પ્રમાના કરવી' એ અર્થે માગમથી સર્વથા વિરૂદ્ધ છે. )૮૩-૮૩) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकलने टीका-'तत्थ से' इत्यादि, 'तउक्खिवित्तु' इत्यादि च। तत्र कोष्ठकादिस्थाने भुञ्जानस्य तस्य भिक्षोभॊजने अष्ठिकं-बीजं, कण्टका तीक्ष्णाग्रो द्रुम-गुल्म-लता-घगविशेषः, अपिवा तृण-काष्ठ शर्कर-तृणं च काष्टं च शर्करा चैतेषां समाहारः । तत्र तृणं-कुशा. दिकं काष्टं खदिरादिसमुद्भवं दारु शर्करा क्षुद्रपाषाणखण्डम् । अन्यदपि वा तथाविध= तज्जातीयं स्यात् भवेत् तद अष्ठिकादिकम् उत्क्षिप्थ न निक्षिपेत्-उत्क्षेपणं कृत्वा यत्र तत्र न क्षिपेत् , आस्येन-मुखेनापि नोज्झेत थूत्कृत्य न क्षिपेत् । तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह-तद् हस्तेन गृहीत्वा एकान्तमपक्रामेत् गच्छेत् ।।८४॥८५॥ मूलम्-एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलहिया । जयं परिवविज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ॥८॥ छाया--एकान्तमपक्रम्याऽचित्तां प्रत्युपेक्ष्य । यतं परिष्ठापयेत् , परिष्ठाप्य प्रतिक्रामेत् ॥८६॥ एकान्त में जाकर क्या करे ? सो बताते हैं-- सान्वयार्थः-एगंत-एकान्त स्थान में अवक्कमित्ता-जाकरके अचित्त-एकेन्द्रियादिप्राणीरहित अचित्त स्थान को पडिलेहिय =पूजकर उस धोवन को जयं-यतनासे परिहविज्जापरिठवे डाले, परिठ्ठप्प-परिठवके आकर पडिक्कमे=इरियावहिया पडिकमे कर ॥८६॥ ___टीका--'एगंत०' इत्यादि । घिजनप्रदेशं गत्वा अचित्तां भूमिं चक्षुषा निरीक्ष्य बीजादिकं सयत्नं व्युत्सनेत् , तदनु स्थानमागत्य प्रतिक्रामेत् ऐर्यापथिकी कुर्यादिति भावः॥८६॥ 'तत्थ से ' इत्यादि, 'तं उक्खिवित्तु' इत्यादि । उस कोठे आदिमें आहार करनेवाले भिक्षुके भोजनमें बीज, काँटा, तिनका, लकडी, किरकिरी-कंकर या और कोई उस प्रकारको वस्तु हो तो उसे निकाल कर जहाँ-तहाँ न डाले तथा मुखसे भी न थ्के किन्तु उसको हाथमें लेकर एकान्त स्थानमें जावे ॥ ८४ ॥ ८५॥ 'एगंत०' इत्यादि । एकान्तमें जाकर अचित्त भूमि देख कर वहाँ यतनाके साथ उस बोज काँटे आदिको डाले । फिर अपने स्थान पर आकर ईरियावहियाका प्रतिक्रमण करे ॥ ८६ ॥ तत्थ से. त्याहि, तथा तं उक्विवित्तु०७त्यादि सभी मा२ ४२ना। भिक्षुना ભેજનમાં બીજ, કાંટા, તણખલાં લાકડું, કકરી-કાંકરા યા એવા પ્રકારની બીજી કોઈ વસ્તુ હોય તે તે કાઢી નાંખી જ્યાં-ત્યાં નાંખે નહિ, તથા મુખથી પણ ધૂકે નહિ, પરંતુ તેને હાથમાં લઈને એકાન્ત સ્થાનમાં જાય. (૮૪-૮૫) __ एगंत०त्याह. मे-तमा मयित्त भूमि नन त्यां यतनापूq४ ये भीar sil આદિને નાંખે. પછી પિતાના સ્થાન પર આવીને ઈરિયાવહિયાનું પ્રતિક્રમણ કરે. (૮૬) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा० ८७-८८ उपाथाश्रयोगतस्य भोजनविधिः ३८३ मूलम्-सिया य भिक्खू इच्छिज्जा, सिज्जमागम्म भुत्त । सपिंडपायमागम्म उंडअं से पडिलेहिया ॥८७॥ विणएणं पविसित्ता सगासे गुरुणो मुणी। इरियावहियमायाय आगओ य पडिक्कमे ॥८॥ १६ .. १५ १९ छाया--स्याच्च भिक्षुरिच्छेत् , शय्यामागम्य भोक्तम् । सपिण्डपातमागम्य, उन्दुकं से (तत्र) प्रत्युपेक्ष्य ॥८७।। विनयेन प्रविश्य, सकाशे गुरोमुनिः। ऐयापथिकीमादाय, आगतश्च प्रतिक्रामेत् ॥८॥ सान्वयार्थ:--सिया य=अगर भिक्खू-साधु सिज्ज वसति उपाश्रयमें ही आगम्म आकर भुत्तुउ-आहार करना इच्छिज्जा-चाहे तो सपिंडवाय-भिक्षाके सहित आगम्भआकर विणएणं = मत्थरण वंदामि निस्सीहि' इस प्रकार बोलनेरूप विनय से पविसित्ता उपाश्रयमें प्रवेश करके से वहां उंडुयं = भोजनके स्थानको पडिले हिया = अच्छी तरह देखकर गुरुणो रत्नाधिक के सगासे = समीप आगओ य = आया हुआ मुणी = मुनि इरियावहियं-इरियावहियाका पाठ आयाय 3 लेकर पढकर पडिक्कमे = कायोत्सर्ग करे तात्पर्य यह है कि प्रबल पिपासा आदि खास कारण के विना तो उपाश्रमें आकर ही साधुको आहार करना चाहिये किन्तु गृहस्थके घर में नहीं करे ॥८७॥८८॥ टोका-सिया य' इत्यादि, 'विणएणं' इत्यादि च । भिक्षुः = वाधुः शय्यां वसति स्यात् = एव आगम्य भोक्तुमिच्छेत् । अत्र स्यादित्यव्ययमवधारणार्थ तेन प्रबलपिपासादिकारणाभावे वसतिं विहायाऽन्यत्र न भोक्तव्य' मिति तात्पर्य गम्यते । तदा सपिण्डपातं =पिण्डपातो-भिक्षालाभस्तेन सहाऽऽगम्य विनयेन = "मत्थएण वंदामि निस्सीहि" इतिपठनलक्षणेन प्रविश्य उपाश्रयमिति शेषः, से = यद्वा से शब्दो मगधदेशप्रसिद्धः 'तत्र' 'सिया य इत्यादि, 'विणएणं' इत्यादि । साधु उपाश्रयमें आकर ही आहार करनेकी इच्छा करे । यहाँ 'स्यात् अव्यय निश्चय बोधक है इससे यह तात्पर्य प्रगट होता है कि पिपासा आदि किसी प्रबल कारणके विना उपाश्रयके सिवाय अन्यत्र आहार नहीं करना चाहिए । अत एव भिक्षा लाकर "मत्थएण वंदामि निस्सीहि ?' यह पाठ उच्चारण करके उपाश्रयमें प्रवेश करे फिर सिया य० त्याल, तथा विणपणं इत्याहि. साधु उपाश्रयमा भावान माहार १२. पानी छ। रे, सही स्यात् भव्यय निश्चयमा५४ छ, तथा से तात्पर्य याय छ । તરસ આદિ કઈ પ્રબળ કારણ વિના ઉપાશ્રય સિવાય અન્યત્ર આહાર ન કરવું જોઈએ. थेट भिक्षा सावीन मत्थएण वदामि निस्सीहि मे 48 स्यारी२ उपाश्रयमा प्रवेश रे. પછી ભોજન કરવાના સ્થાનની સમ્યક્ પ્રકારે પ્રતિલેખના કરીને દીક્ષામાં મોટા મુનિની શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ श्रीदशकालिकसूत्रे शब्दार्थ वर्चते तेन से = तत्र उन्दुकं = स्थानं प्रत्युपेक्ष्य = सम्यङ् निरीक्ष्य गुरोः = रत्नाधिकस्य सकाशे आगतश्च मुनिः ऐपिथिकीम् इच्छामि पडिक्कमि" इत्यादिलक्षणाम् आदाय = पठित्वा प्रतिक्रामेत् = कायोत्सर्ग कुर्यात् ॥८७॥८८॥ तत्र (कायोत्सर्गे) किं कुर्यात् ? इत्याह-आभोइत्ताण इत्यादि 'उज्जुप्पन्नो' इत्यादि च । मूलम्-आभोइत्ताणे नीसेसं अइयारं जहकमं । गमणागमणे चेय, भत्ते पाणे य संजए ॥९॥ उज्जुप्पन्नो अणुब्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेयसा । १९ आलोए गुरुसगासे, जं जहा-गहियं भव ॥९॥ छाया-आभोग्य निश्शेषम् , अतिचारं यथाक्रमम् । गमनागमने चैव, भक्ते पाने च संयतः ॥८९॥ ऋजुप्रज्ञः अनुद्विग्नः, अव्याक्षिप्तेन चेतसा । आलोचयेद् गुरुसकाशे, यद थथा गृहीतं भवेत् ॥९०॥ सान्बयार्थ:--संजए-कायोत्सर्गमे रहा हुआ मुनि गमणागमणे-जानेआनेमें चैव =और भत्ते आहार य-तथा पाणे पानी के ग्रहण करने में लगे हुए) नीसेसं-सब प्रकार के अइयारं अतिचारोंको तथा ज-जो अशनादि जहा=जिस प्रकार गहियं भवे ग्रहण किया हुआ हो उसे भी जहक्कम यथाक्रम अनुक्रमसे आभोइत्ताण-उपयोगसहित चिन्तन करके, उज्जुप्पन्नो सरल बुद्धिवाला अणुव्विग्गो-उद्वेगरहित वह मुनि अव्यक्खितेण = विक्षेपरहित-एकाग्र चेयसा-चित्तसे गुरुके समीप आलोवे ॥८९॥९॥ टीका–संयतन्कायोत्सर्गस्थो मुनिः, गमनागमने गतागतें चैव भक्ते पाने च संचासं निम्बोष-समग्रम् अतिचारं-मुनिमर्यादालवानलक्षणम् यथाक्रमम् आभोग्य-सोपमोजन करनेके स्थानकी सम्यक् प्रकार प्रतिलेखना करके दीक्षामें बड़े मुनिके समीप आकर "इच्छामि पडिक्कमिउं “इत्यादि ईरियावहिया का पाठ बोल करके कायोत्सर्ग करे ।।८७॥८९ ॥ कायोत्सर्गमें क्या करना चाहिए सो कहते हैं-' आभोइत्ताण — इत्यादि, 'उज्जुप्पन्नो' इत्यादि । कायोत्सर्ग में स्थित होकर गमनाऽऽगमनमें, तथा-आहार पानोके लेनेमें जो अतिचार लो हों उन सबका क्रमशः चिन्तन करके सरल बुद्धि-शान्तचित्तवाला संयमीव्याकुलतारहित चित्तसे सभीय भाषीने इच्छामि पडिक्कमिडे त्याहि धरियावडियाना या मातीन योत्सा रे (८७-८८) यसभा शु४२ ते ४ छ-आमोइत्ताण. त्याहि तथा उज्जुप्पन्नो इत्यादि કાયોત્સર્ગમાં સ્થિર થઈને ગમનાગમનમાં, તથા આહાર પાણી લેવામાં જે અતિચાર લાગ્યા હોય તે સર્વનું કમશ: ચિંતન કરીને સરલબુદ્ધિ શાન્ત-ચિત્તવાળા સંચમી વ્યાક શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १२ १० अध्ययन ५ उ० १ गा० ८९ ९० गोचरोगतातिचारालोचनाविधिः .. ३८५ योगं विचिन्त्य ऋजुप्रज्ञः सरलबुद्धिः अनुद्विग्निः-प्रशान्तः, अव्याक्षिप्तेन=अव्याकुलेन चेतसा-मनसा गुरुसकाशे-शुद्धं प्रमादादिवशेनाऽशुद्धं वा यद् यस्माद् यत्र वा यथा गृहीतं भवेत् तदपि गुरु समीपे कथयेदित्यर्थः ।। ___ 'उज्जुप्पन्नो' इत्यनेनाऽकुटिलमतिरेव सम्यगालोचयतीति सूचितम् । अणुन्विग्गो अनेन क्षुधादिपरिषहजेतृत्वमावेदितम् । 'अव्वक्खित्तेण चेयसा' इत्यनेन 'एकाग्रचित्तेनैवाऽतिचारस्य सम्यक् स्मरणं भवती'-ति स्पष्टीकृतम् ॥८९॥९०॥ मूलम्-न सम्ममालोइयं हुज्जा, पुब्बि पच्छा व जे कडं । पुणो पडिकमे तम्स वोसट्ठो चिंतए इमं ॥११॥ छाया-न सम्यगालोचितं भवेत् , पूर्वं पश्चाद्वा यत्कृतम् । पुनः प्रतिक्रामेत्तस्य, व्यत्सृष्टश्चिन्तयेदिदम् ॥९१॥ सान्वयार्थ:-जंजो अतिचार पुचि-पहले व-तथा पच्छा-पीछे कडं-किया है वह सम्म सम्यक प्रकार से-अच्छी तरह याने पहले लगे हुए पापको पहले आलोवे और पीछे लगे हुए पापको पीछे आलोवे' इस प्रकार आलोइयं आलोचित न कुज्जा नहीं किया हो तो तस्स-उस अतिचारको पुणो=फिरसे पडिक्कमे-आलोवे, (और) वोसट्ठो-कायोत्सर्गमें रहा हुआ साधु इमं इस 'यागे कहा जानेवाला' प्रकार चिंतए-चिन्तन करे ॥९१ टीका 'न सम्म.' इत्यादि । यत-यस्माद्धेतोः पूर्व पश्चाद्वा कृतमतिचारं सम्यक प्राकृतं प्रागालोचितव्यं पश्चात्कृतं च पश्चादालोचितव्यमिति क्रमेण आलोचितं =प्रकागुरुके समीप आलोचना करे । प्रमाद आदिके वशसे जहां जैसा शुद्ध या अशुद्ध आहार आदि लिया गया हो वह भी गुरुसे निवेदन करे। 'उज्जुप्पन्नो' पदसे यह सूचित किया है कि कुटिलतारहित बुद्धिवाला ही यथार्थ आलोचना कर सकता है । 'अणुव्विग्गो' पदसे क्षुबा आदि परीषहोंका जीतना प्रगट किया है । 'अव्वविस्वत्तेण चेयसा' पदसे जह सूचित किया है कि एकाग्र-चित्तसे ही अतिचारोंका अच्छी तरह स्मरण हो सकता है ।। ८ ९।।९।। _ 'न सम्म०' इत्यादि । आगे-पछे किये हुए अतिचारोंकी सम्यक् प्रकार अर्थात् पहले किये हुएकी पश्चात्-आलोचना न की गई हो तो अतिचारोंका पुनः प्रतिक्रमण करना चाहिए ળતા-રહિત ચિત્તથા ગુરૂની સમીપે આલોચના કરે. પ્રમાદ આદિને વશ થઈને જ્યા જે શુદ્ધ કે અશુદ્ધ આહાર આદિ લેવામાં આવેલ હોય તે પણ ગુરૂને નિવેદન કરે. - उज्जप्पन्नो श»था सेभ सूयित ४२पामा मायुछे है दुरिताडित भुद्धिया यथार्थ म सायना ४री श: छे, अणुव्विग्गो शहथी क्षुधा आदि परीपाने तानु ४८ ४२वामा माव्यु छ. अक्खित्तेण चेयसा शपथा सेभ सूचित्त ४यु छ है -चित्तथा જ અતિચારેનું સારી રીતે મરણ થઈ શકે છે. (૮૯-૯૦) न सम्म० ४त्यादि. 241.५७१ ४२वा मतियानी सभ्य५ प्रहारे अर्थात् पडला શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे शितं न भवेच्चेदतः तस्य = अतिचारस्य (सम्बन्धसामान्ये षष्ठी) पुनः प्रतिक्रामेत् । व्युल्सष्टः = कायोत्सर्गस्थः इदं = वक्ष्यमाणं चिन्तयेत् ॥९१॥ तदेवाऽऽह-'अहो' इत्यादि । मूलम्-अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया । ___ मोक्खसाहणेहेउस्स साहदेहस्स धारणा ॥९२॥ छाया- - अहो ! जिनैः असावद्या, वृत्तिः साधुभ्यो देशिता । मोक्षसाधनहेतोः, साधुदेहस्य धारणाय ॥९२॥ सान्वयार्थ:-अहो = आश्चर्य है कि-मोक्खसाहणहेउस्स = मोक्ष प्राप्तिके निमित्तभूत साहुदेहस्स = साधुशरीरके धारणा = निर्वाह-स्थितिमात्र के लिए साहूण = मुनियोंको जिणेहि-तीर्थङ्कर भगवानने असावज्जा = निर्दोष वित्ती= भिक्षावृत्ति- (आचार)देसिया = बताई है ॥९२॥ टीका--अहो = आश्चर्य मोक्षसाधनहेतोः = अपवर्गसिद्धनिमित्तभूतस्य साधुशरीस्य धारणाय = स्थितिमात्रार्थ साधुभ्यः = मुनीनुद्दिश्य जिनैः = तीर्थकरैः, असावधा =दोषरहिता वृत्तिः = भिक्षालक्षणा देशिता = उपदिष्टा ॥१२॥ मूलम्-णमुक्कारेण पारिता करिता जिणसंथवं । सज्झायं पट्ठवित्ताणं वीसमेज्ज खणं मुणी ॥९३॥ छाया-नमस्कारेण पारयित्वा, कृत्वा जिनसंस्तवम् । __ स्वाध्याय पठित्वा विश्राम्येत् क्षणं मुनिः ॥९॥ सान्वयार्थ -कायोत्सर्ग में पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करने के बाद मुणी = साधु नमुक्कारेण = नमस्कार मन्त्रसे पारित्ता = कायोत्सर्गको पार-समाप्त करके जिणसंथबं और कायोत्सर्गमें स्थित होकर ऐसा (अगली गाथामें कहे जानेवाला विचार करे ॥९१॥ उसी विचार को कहते हैं-'अहो' इत्यादि । अहो ! यह शरीर मोक्षकी सिद्धिका कारण है अतः इसकी स्थितिके लिए तीर्थङ्कर भगवानने साधुओंको निर्दोष भिशा लेने का उपदेश दिया है ।।९२॥ કરેલા અતિચારોને પહેલાં અને પાછળ કરેલા અતિચારોની પાછળ આલેચના ન કરવામાં આવી હોય તે અતિચારોનું પુન:પ્રતિક પણ કરવું જોઈએ, અને કાર્યોત્સર્ગમાં સ્થિત થઈને मेरा (भाली थामा वामां आवनारे।) विया२ ४२, (६१) थे विया२ वे ४३ छ-अहो० त्या અહો ! આ શરીર મેક્ષની સિદ્ધિનું કારણ છે, એટલે એની સ્થિતિને માટે તીર્થકર ભગવાને સાધુઓને નિર્દોષ ભિક્ષા લેવાનો જ ઉપદેશ આપે છે. (૨) Reace શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा ९२-९४ कायोत्सर्गादौ चिन्तनप्रकारः ____३८७ लोगस्य उज्जोयगरे" इत्यादि संपूर्ण जिणसंथव-(जिन भगवान् की स्तुती) करित्ता = करके तथा सज्झायं = सज्झाय-कमसे कम मूलशास्त्रकी पांच गाथाओंका स्वाध्याय पहवित्ता = पढकर खणं = क्षणभर जितने में दूसरे मुनिराज भी शामिल हो जाते हैं। इस अभिप्राय से कुछ देर वीसमेज्ज = विश्राम करे ॥१३॥ टीका-'णमुक्कारेण' इत्यादि । मुनिः संयतः नमस्कारेण = णमो अरिहंताणं' इत्युच्चारणलक्षणेन कायोत्सर्गमिति शेषः, पारयित्वा = समाप्य जिनसंस्तवं "लोगस्स उज्जोयगरे" इत्यादिलक्षणं सम्पूर्णं कृत्वा = विधाय स्वाध्यायं = धम्मो मंगलमुक्किट" इत्यादिगाथापञ्चकादन्यून मूलशास्त्रं पठित्वा क्षणं = क्षणमात्रं 'मण्डलेऽन्यमुनयोऽपि समा गत्य संमिलिता भवन्तु' इत्याशयेन विश्रम्येत् विश्रान्ति कुर्यात् ॥९३॥ मूलम्-वीसमंतो इमं चिंते हियमढे लाभमडिओ । १० ११ १२ १३ जइ मे अणुग्गहं कुज्जा साहु हुज्जा तारिओ ॥९॥ विश्राम्यन् मुनिः किं कुर्यात् ? इत्याह-- छाया-विश्राम्यन (मुनिः) इदं चिन्तयेत् हितमर्थ लाभार्थिकः । यदि मम अनुग्रहं कुर्यात साधुर्भवामि तारितः ॥१४॥ विश्राम के समय मुनि क्या करे सो बताते हैं सान्वयार्थः-वीसमंतो = विश्राम करता हुआ लाभमट्ठिओ = कर्मनिर्जराका अभिलाषी साधु इमं = इस इसी गाथा के उत्तरार्द्ध में कहे जानेवाले-प्रकार हियं = मोक्षप्राप्ति रूप हितके करनेवाले अटुं = भावी प्रयोजनको चिते = चिन्तन करे, जैसे जइ = यदिअगर साह = कोई भी मुनिराज मे = मेरे ऊपर अणुग्गहं कुज्जा = अनुग्रह करें अर्थात मेरे भागके आहारमें से कुछ आहार ले ले तो में तारिओ हुज्जा = इस संसार समुद्रको तैर जाऊं पार कर जाऊं ॥९४॥ 'णमुक्कारेण' इत्यादि । मुनि ‘णमो अरिहंताणं' पदका उच्चारण करके कायोत्सर्ग को समाप्त करे । फिर 'लोगस्स उज्जोयगरे' इत्यादि जिन संस्तव पूर्ण करके 'धम्मो मंगलमुक्किट। इत्यादि कमसे कम पांच गाथाओंकी मूल शास्त्रको सज्झाय करके थोड़ी देर विश्राम करे कि जिससे अन्य मुनि भी आकर शामिल हो जावें ॥९३॥ विश्राम करता हुआ मुनि क्या करे सो कहते हैं-'वीसमंतो' इत्यादि । मक्कारेण त्या मुनि णमो अरिहंताणं पहनु यार ४शन जयसमन समास २, ५छी लोगस्स उज्जोयगरे त्यादि लिनसंत पूर्ण प्रशन धम्मो मंगलमुस्किई ઈયરિ ઓછામાં ઓછી પાંચ ગાથાઓની મૂળશાસ્ત્રની સજઝાય કરો થોડીવાર વિશ્રામ કરે જેથી અન્ય મુનિ પણ આવીને શામિલ થઈ જાય (૯૩) विश्राम ४२तां भुनि शु. ३ ते ४ छे-चीसमतो. त्यादि. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशयैकालिकसूत्रे टीका विश्राम्यन् = विश्रान्ति कुर्वाणो लाभार्थिकः = कर्मनिर्जराभिलाषी इदं गाथोत्तरार्द्धे वक्ष्यमाणं हितं = मुक्त्यवाप्तिरूपम् अर्थ = भाविप्रयोजनं चिन्तयेत् = विचार येत् यदि कोऽपि साधु = मुनिः मम = मदुपरि अनुग्रहं = मया मदर्थं वोपनीतस्यान्नादेर्यहणलक्षणं कुर्यात् तर्हि अहं तारितः = दुस्तर गवसागरतः समुत्तारितो भवामीत्यर्थः ॥ ९४ ॥ एवं विचिन्त्य स पूर्वं स्वभागमन्नादिकं ग्राहयितुं सर्वेषु मुनिषु रत्नाधिकं प्रार्थयेत् । यदि गृह्णीयात्तर्हि सम्यक् नाङ्गीकुर्याच्चेदेवं निवेदयेत्- 'आर्यपादाः ! कस्मैचिमुनये भवद्भिः स्वयमेव वितीर्यत । "-मिति । अथ रत्नाधिको यथेच्छं दद्यात् । यदि चादत्वा रत्नाधिकः 'त्वमेव यथेच्छं प्रयच्छे' ति ब्रूयात् तदा तेन शिष्येण कि कर्त्तव्यम् ? इत्याह- 'साहो' इत्यादि । 9 ૨૮ ર १ ३ ४ मूलम् - साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिज्ज जहक्कमं । ६ ७ ८ ܶ ११ १२ १३ जह तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहि सद्धिं तु भुंजए ||१५|| छाया - साधून ततः चियत्तणं, निमन्त्रयेद् यथाक्रमम् । यदि तत्र केsपि इच्छेयुः तैः सार्द्ध भुञ्जीत ॥ ९५ ॥ पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करके अपने हिस्से का अशनादिको लेनेके लिये सब मुनियों में से रत्नाविक-दीक्षा में बडे - मुनिसे पहले प्रार्थना करे, यदि वे लें तो अच्छा कर्मोंकी निर्जरा का अभिलागी साधु विश्राम करते समय इस मुक्ति रूप इितके करनेवाले अर्थका चिन्तन करे - यदि कोई मुनिराज मुझ पर अनुग्रह करके मेरे भागके अन्न आदिको ग्रहण करें तो मैं इस दुस्तर भवसागर से तिर जाऊँ । ९४॥ ऐसा विचार करके प्रथम सब मुनियोंमें जो रत्नाधिक (दीक्षा में बड़े) हों उनसे अपना भाग ग्रहण करनेकी प्रार्थना करे । यदि ग्रहण करें तो अच्छा ही है । न ग्रहण करें तो ऐसा निवेदन करे- 'हे भदन्त ! आप हो किसी मुनिको यह आहार वितोर्ण कीजिए' फिर रत्नाधिक इच्छानुसार देदेवें । यदि वे न देकर यह आज्ञा देवें कि – 'तुम्ही इच्छानुसार देदो' तो शिष्यको क्या करना चाहिए ? सो बताते हैं - 'साहवो' इत्यादि । કર્મની નિર્જરાના અભિલાષી સાધુ વિશ્રામ કરતી વખતે અવમુક્તિરૂપ હિતના કરવાવાળા અર્થ તું ચિંતન કરે-જો કેઈ મુનિરાજ મારા પર અનુગ્રહ કરીને મારા ભાગના અન્ન આદિને ગ્રહણુ કરે તે હુંઆ દુસ્તર ભવસાગરથી તરી જઉં. (૯૪) એવા વિચાર કરીને પહેલાં બધા મુનિએમાં જે રતાધિક (દીક્ષામાં વડા) હાય તેમને પેાતાના લાગ ગ્રહણ કરવાની પ્રાથના કરે. જો તે ગ્રહુણ કરે તે સારૂં, ન ગ્રહણ કરે તે એવું નિવેદન કરે-હે ભદત ! આપ જ કાઈ મુનિને આહાર વહેંચી આપે।' પછી રત્ના ધિક ઇચ્છાનુસાર આપે. જો તે ન આપતાં એવી આજ્ઞા કરે કે તમે ઈચ્છાનુસાર આપી દે’ तो शिष्ये शुं खुले मे ? ते तावे छे- साहवो० त्याहि. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा० ९४-९५ अन्यमुनिभ्य आहारग्रहणप्रार्थना ३८९ ही है, अगर वे न लें तो उनसे कहे-'हे भगवान् ! आपही अपने हाथ से किसी दूसरे सन्त को दीजिये। ऐसा कहने पर यदि वे अपने हाथ से किसी को दें तो ठीक ही है, यदि खुद न देकर उसीसे कह देवें कि 'तुमही तुम्हारी इच्छा के अनुसार जो लेवे उसको दे दो' तब उसे क्या करना चाहिये, सो बताते है सान्वयार्थः-तो इस प्रकार गुरु महाराजकी आज्ञा प्राप्त होने पर वह साधु साहवो सब सन्तोंको चियत्तेणं-त्याग-बुद्धिसे अर्थात् उदार चित्तसे जहक्कम-रत्नाधिकके क्रमानुसार निमंतिज्ज=निमन्त्रण करे-आहार धामे, जइ-यदि-अगर तत्थ=उनमें से केइ= कोई साधु इच्छिज्जा आहार लेना चाहे तो (उन्हें देवर) तेहिं सद्धिं तु उनके साथ बैठकर भुंजए-खुद भी आहार करे ॥९५॥ टीका-तो-ततः गुरोरादेशाऽनन्तरम् असौ साधून चियत्तेणं = देशोयशब्दोऽयम्' परमप्रीत्या उदारचेतसेत्यर्थः, यथाक्रम-रत्नाधिप क्रममनुसृत्य निमन्त्रयेत् = स्वभागग्रहणाय प्रार्थयेत्-'इदं गृहीत्वाऽनुगृह्यता'-मिति वदेदित्यर्थः । यदि तत्र = मुनीनां मध्ये केऽपि मुनय इच्छेयुः = ग्रहीतुमभिलषेयुस्तदा तेभ्योऽपि वितीर्य तेःसाई स्वयमपि भुजीत = 'चपड़-चपडे' ति शब्दमकुर्वन्नभ्यवहरेत् ॥९॥ मूलम्-अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ अँजिज्ज एगओ । आलोए भायणे साहू, जयं अपरिस्माडियं ॥९६॥ छाया-अथ कोऽपि न इच्छेत्, ततो भुजीत एककः ।। आलोके भाजने साधुः, यतम् अपरिशातयन् ॥१६॥ ___ सान्वयार्थः-अह अथ-यदि कोइ-कोई न इच्छिज्जा = आहार लेना नहीं चाहे तो तओ= फिर साहू = वह साधु एगओ= अकेला-द्रव्यसे स्वयं एक ही, भावसे राग-द्वेषसंग-रहित आलोए प्रकाशयुक्त-चौडे मुंहवाले भायणे = पात्रमें जयं = यतनापूर्वक अर्थात् मांडलेके दोषोंको टालकर अपरिसाडियं = सीथ-कणका बिन्दु-मात्र भी आहार नहीं गिराता हुआ भुजिज्ज आहार करे ॥९६॥ ___ गुरुकी आज्ञा मिलनेके अनन्तर प्रसन्न चित्तसे उदारताके साथ दीक्षा में बड़े-छोटेके क्रमसे साधुओंको अपना भाग ग्रहण करने की प्रार्थना करे, अर्थात् 'यह आहार ग्रहण करने का अनुग्रह कीजिए' ऐसा कहे । उन मुनियोंमेंसे कोई प्रहण करने की इच्छा करे तो उन्हें वितीर्ण करके उनके साथ आप भी चपड़-चपड़ शब्द न करता हुआ आहार करे ।। ९५ ।। ગુરૂની આજ્ઞા મળ્યા પછી પ્રસન્ન ચિત્તથી ઉદારતાની સાથે દીક્ષામાં મોટાનાનાના ક્રમે કરીને સાધુઓને પિતાને ભાગ ગ્રહણ કરવાની પ્રાર્થના કરે અર્થાત્ આ આહાર 9 ણ કરવાને અનુગ્રહ કરે' એમ કહે. એ મુનિઓમાંથી કઈ ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા કરે તે તેમને વહેચી આપીને તેમની સાથે પોતે પણ ચડ-ચપડ અવાજ કયો વિના આહાર ४२. (८५) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशबैकालिकस्त्रे टीका--'अह' इत्यादि । यदि कोऽपि ग्रहीतुं नेच्छेत् तदनन्तरं साधु एककः = द्रव्येण स्वयमेव, भावेन रागद्वेषरहितः आलोके प्रकाशमाने भाजने मशकादिक्षुद्रजन्तवो यथा दृष्टिपथमागच्छेयुस्तदर्थमिति भावः । यतं=सयतनं मण्डलदोषभावानुसन्धानपूर्वकम् अपरिशातयन् सिक्थादिकमविकिरन् भुजीत ॥९६॥ मूलम-तित्तगं च कडुयं च कसायं. अविलं च महरं लवणं वा । १२ १४ १३. १५ १६ १७ १ एय लद्धमन्नट्ठपउत्तं, महुघयं व अँजिज्ज संजए ॥९६॥ छाया-तिक्तकं च कटुकं च कषायम्, अम्लं च मधुरं लवणं वा।। एतल्लब्धमन्यार्थप्रयुक्तं, मधु-घृतमिव भुजीत संयतः ॥९७॥ सान्वयार्थः-वह आहार यदि-तित्तगं-तीखा कडुयं कड़वा च और कसायं कषायला च और अंबिलं-खट्टा च और महरं मीठा वा अथवा लवणं लवणरसयुक्त, इत्यादि प्रकारका कैसा भी हो; किन्तु-अन्नपउत्तं = साधुको न उद्देश करके गृहस्थने अपने लिये बनाये हुए, अथवा-स्वादसुखके सिवाय सिर्फ शरीर-निर्वाहके लिए विधान किये हुए और लद्धं = आगमोक्त विधिसे मिले हुए एयं = इस पूर्वोक्त प्रकारके तीखे आदि अशनादिको संजए = रागद्वेषरहित साधु महु-घयं व = मीठे घी शक्करकी तरह अर्थात् जिस प्रकार घो-शक्कर युक भोजनको रुचिपूर्वक भोगते हैं उसी प्रकार अँजिज्ज = भोगवे ॥९७॥ टीका-'तित्तगं' इत्यादि । संयतः तिक्तक, कटुकं, कषायम्, अम्लं, मधुरं, वा= अथवा लवणं = क्षारम्, तत्तद्रसयुक्तमित्यर्थः। एतत्सर्वमन्नादिकम् अन्यार्थप्रयुक्तं = गृह 'अह' इत्यादि । यदि कोई भी मुनि आहार ग्रहण करने की इच्छा प्रकाशित न करें अर्थात् न लें तो अकेला-रागद्वेषरहित वह साधु ऐसे पात्र में भोजन करे जिसमें प्रकाश पड़ रहा हो । प्रकाश-युक्त पात्रमें अ हार करने का विधान इसलिए किया है कि मच्छर आदि सूक्ष्म जन्तु दीख सके । मण्डल दोषोंका विचार करता हुआ सीथ-मात्र भी अन्नादि न बिखेरता हुआ आहार करे ॥ ९६ ॥ 'तित्तगं' इत्यादि । तीखे, कडवे, कसायले, खट्टे मीठे अथवा क्षाररसवाले पदार्थ जो गृहस्थने अपने लिए बनाये हैं अर्थात् साधुके लिए न बनाये हों, अथवा स्वाद-सुखके सिवाय સદ ઈત્યાદિ. જે કોઈ પણ મુનિ આહાર ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા પ્રકાશિત ન કરે અર્થાત્ ન લે તો એકલા-રાગદ્વેષરહિત તે એવા પાત્રમાં ભોજન કરે કે જેમાં પ્રકાશ પડત • પ્રકાશયુક્ત પાત્રમાં આહાર કરવાનું વિધાન એટલા માટે કર્યું છે કે મછર આદિ સૂક્ષ્મ જંતુ દેખી શકાય. મંડલ દોષોને વિચાર કરતાં એક કણ જેટલું પણ અન્ન ન वरावा हेता माहार रे. (६) तित्तगं छत्या. तीमा, 341, सायदा, पाटी, भी, मथवा क्षा२२सामा यही શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० ९६-९७ आहारपरिभोगविधिः स्थैः स्वनिमितं सम्पादितं न तु साध्वर्थ शुद्धमित्यर्थः, यद्वा अन्याथ = स्वादसुखादन्यत्रै प्रयो ननाय शरीरमात्रनिर्वाहार्थमिति यावत्, प्रयुक्तम् = आगमेन विहितं लब्धं = प्राप्तं सत् मधु = शर्करादिमधुरद्रव्यं घृतं = प्रतीतं तद्वत्, यथा मधुघृतभोजने प्रवृत्तिर्जायते तथाऽन्यान्यपि तिक्तकादीनि तत्तुल्यभावेन भुजीत । उक्तञ्च सङ्ग्रहगाथयोः-- " वल्लचणगाइउसियं, अन्नं तह तक्कमीसियं जाण । घयपूराइमणुन्न, सम्म उभयपि भुजई समणो ॥१॥ उण्हं अन्नमणुण्हं, उपहाऽणुण्हं करंव-दहिमाई । संजमजत्तनिमित्त, समभावं मुंजई समणो ॥२॥” इति । इति गाथार्थः ॥९॥ छाया--"वल्लचणकादि उषितं (पर्युषितं), अन्नं तथा तक्रमिश्रितं जानीहि । घृतपूरादि मनोज्ञ, सम्यक् उभयमपि भुङ्क्ते श्रमणः ॥१॥ उष्णमन्नमनुष्णम् , उष्णानुष्णं करम्बदध्यादि । संयमयात्रानिमित्तं समभावं भुन्ते श्रमणः ॥२॥ 'सीयं पिडं पुराणकुम्मासं' इत्याधुत्तराध्ययनसूत्रे । आचारागसूत्रेऽप्ययमोंsभिहितः। "अरसाहारे घिरसाहारे अंताहारे पंताहारे लूहाहारे" इत्यौपपातिकसूत्रेऽभयदेवसरिङ्गवं व्याख्यातम्-'अंताहारे' त्ति अन्ते भवमन्त्यं जघन्यधान्यं बल्लादि । 'पंताहारे ति प्रकर्षणाऽन्त्य वल्लाद्येव भुक्तावशेषं पर्युषितं वा” इत्यादि । ज्ञातासूत्रेऽप्येवमेव व्याख्यातम् ॥ अन्य प्रयोजनके लिए अर्थात् शरीरके निर्वाह के लिए यदिआगमानुसार विधिसे प्राप्त हुए हों तो उन्हें ऐसे भोगे जैसे घो-शक्करका आहार किया जाता है । तात्पर्य यह है कि-साधुको निरवद्य अन्त-प्रान्त आदि जैसा आहार मिले उस सबको समभावसे भोगना चाहिए। जैसे संग्रह गाथाओंने कहा है- 'एक तरफ छाछमें चूरी हुई बाल चने आदिको ठंडं रोटी और एक तरफ જે ગૃહસ્થ પિતાને માટે બતાવ્યા હોય અથર્ સાધુને માટે ન બનાવ્યા હોય અથવા સ્વાદસુખ સિવાય અન્ય પ્રત્યે નને માટે અર્થાત શરીરના નિર્વાહ માટે જે આગમાનુસાર વિધિથી પ્રાપ્ત થાયા હોય તો તેમને એવી રીતે ભેગવે કે જેમ ઘી-સાકરનો આહાર કરવામાં આવતું હોય. તાત્પર્ય એ છે કે સાધુને નિરવધ અંત-પ્રાંત આદિ જેવો આહાર મળે એ બધાને સમભાવથી ભેગવા જોઈએ. સંગ્રહ ગાથામાં કહ્યું છે કે એક તરફ છાશમાં ભીંજવેલી વાલ ચણું આદિની ઠંડી રોટલી અને એક તરફ મનોજ્ઞ ઘેવર આદિ હોય, એ બેઉને જે સમભાવે ભગવે છે તે શ્રમણ કહેવાય છે. (૧) ગરમ યા ઠંડુ અનાદિક અને એ જ પ્રકારે ગરમ યા ઠડે દહીંનો કરબો ઈત્યાદિને જે સંયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે સમભાવે ભગવે છે તે શ્રમણ કહેવાય છે.” (૨) ઇતિ (૯૭) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ श्रीदशवकालिकसूत्रे मूलम्-अरसं विरसं वावि, सूइयं वा असूइयं । ८ ९ ११ १२ १० उल्लं वा जइ वा सुक्कं, मंथु-कुम्मास-भोयणं ॥९८॥ १७ १८ १९ १५ उप्पण्णं नाइहीलिज्जा, अप्पं वा बहु फासुयं । मुहालद्धं मुहाजीवी भुजिज्जा दोसवञ्जियं ॥९९।। छाया-अरसं विरसं वाऽपि, सूचितं वा असूचितम् ।। आद्रं वा यदि वा शुष्कं, मन्थु-कुल्माष-भोजनम् ॥९८॥ उत्पन्नं नातिहीलयेत् , अल्पं वा बहु प्रासुकम् । मुधालब्धं मुधाजीवी' भुञ्जीत दोषवर्जितम् ।।९९॥ सान्वयार्थः- अरसं-नमक आदि रसरहित वावि-तथा विरसं-अधिक दिनोंकी बनी हुई विरस-बासी सूखी रोटी आदि या पुराने चाँवल आदिका भोजन सूइयं हींग आदिका बघार (छोक) दिया हुआ वा-अथवा असइयं नहीं बघार दिया हुआ शाक उल्लंगीला-करंबा, राइता आदि वा तथा सुक्कं-सूखा-भुने हुए चने भूगडे-आदि जइवा अथवा मंथुकुम्मासभोगणं-बेरके चूरेका भोजन या कुलथीका भोजन अथवा उड़दका बाकुला (यह पूर्वोक्त सब प्रकारका अशादि) उप्पण्णं-जो गोचरी के समय शास्त्रमर्यादा से मिल गया वह अप्पं थोड़ा हो वा-या बहुबहुत हो उसकी नाइहीलिज्जा अवहेलना न करे, किन्तु फासुयं प्रासुक-अचित्त और मुहालद्धं निष्काम-विना किसी प्रत्युपकारके प्राप्त हुए उस अशनादिको मुहाजोवी-निष्काम-सिर्फ संयम-यात्राका निर्वाह से जीनेवाला अर्थात् निरपेक्ष भिक्षा लेनेवाला साधु दोसवज्जियं = भोजनके संयोजनादि दोषोंको टाल कर भुजिज्जा = भोगवे ॥९८॥९९॥ ___टीका 'अरसं' इत्यादि, 'उप्पण्णं' इत्यादि च । अरसं = लवणादिरसरहितम् अप्राप्तरसं बालचणकादिनिष्पादितं वा, अपिवा विरसं चिरकालनिष्पादितत्वेन विगतरसं पूराणौदनादिकं वा, सूचितं = हिङ्ग्वादिसंस्कृतं वा = अथवा असूचितं = तद्वर्जितम् मनोज्ञ घेवर आदि हों, उन दोनोंको समभावसे भोगता है वह श्रमण कहलाता हैं ॥१॥ गर्म या ठंडा अन्नादिक और उसी प्रकारका-गर्म या ठंडा दहो करंबाआदिकों जो संयमयात्राका निर्वाह के लिए समभ व से भोगता है । वह श्रमण कहलाता है ।२।।" इति ॥९७॥ 'अरस' इत्यादि, 'उप्पण्णं' इत्यादि च । नमकरहित तथा बाल चणक आदि अरस या बहुत पुराना ओदन आदि विरस, हींग आदि द्वारा छोका हुआ, गीला-करंबा आदि, सूखे भुने हुए चने आदि, बेरका र्ण आदि, अथवा कुलथी या उड़दके बाकला का भोजन । ये सब अरस त्याह, तथा उप्पण्ण० इत्याहि. भीडाथी हित तथा वा-या आई सरस યા બહુ જૂનો છેદન-આદિ વિરસ, હીંગ આદિથી વઘારેલું યા ન વઘારેલું લીલે કરબે આદિ, સૂકા-ભૂજેલા ચણું આદિ, બોરનું ચૂર્ણ આદિ અથવા કળથી યા અડદના બાકળાનું શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा० ८९-९९ आहारपरिभोगविधिः अद्र = करम्भादिकं शुष्कं = भर्जितचणकादिकम् । मन्थुकुल्माषभोजनं = मन्थुश्च कुल्माषश्राऽनयोः समाहारे मन्थु कुल्माषं तद् , भुज्यते यत्तद्भोजनं, मन्थुकुल्माषं च तद्भोजनं चेति विग्रहः, तत्र मन्थुः = बदरचूर्णादिकम् , कुल्मापः = कुलत्थः,यद्वा अर्द्ध स्विन्नमाषः 'उडदबाकुला' इति भाषा प्रसिद्धः। एतत् पूर्वोक्तं सर्वम् उत्पन्नं = शास्त्रमर्यादयोपलब्धं, प्रामुकं = निर्जीवं, मुधालब्धं = मन्त्रतन्त्रादिप्रकारमन्तरेण प्राप्तं, तद् यदि अल्पं = स्वल्पं सरसमन्नादिकं, वा = अथवा बहु प्रचुरम् अरसमशनादिकम् उपलक्ष्येति शेषः, नातिहीलयेत् = न निन्देत् । अल्पीयसि सरसवस्तुनि लब्धे-“कथमेतावतैवोदरपूर्तिभवेत्” इति, एवमसारवस्तुनि प्रचुरतरे लब्बे सति “किमनेन प्रचुरतरेणापि निष्प्रयोजनेन" -त्येवंरूपां निन्दा न कुर्यादिति हृदयम् । किन्तु मुधाजीवी = मुधा-व्यथै निष्प्रयोजनं शरोरेन्द्रियपुष्टिप्रयोजनविकलं जीवितुं शीलमस्येति सः, संयमयात्रानिर्वाहार्थमेव भिक्षाग्रहणशील इति भावः । यद्वा मुधाजीवी = निर्दोषभिक्षाजीवी-जात्याद्यनाविष्करणपूर्वकभिक्षाग्राहक इत्यर्थः, दोषवर्जितं = संयोजनादिमण्डलदोषा यथा न भवेयुस्तथा भुजीत । 'उत्पन्नं' इत्यनेन शास्त्रमर्यादयैव गीतार्थेनान्नादिकं ग्राह्यमिति सूचितम् । 'फासुर्य' अनेन सचित्तमचित्तं वेति परीक्ष्य ग्रहीतव्यमिति दर्शितम् । 'मुहालद्ध' इतिपदेन दातुरुपकारं विधाय भिक्षाग्रहणे आधाकर्मादयो बहवो दोषाः समापतन्तीति तथा यदि शास्त्रोक्त विधिसे प्राप्त हुए हों, प्रामुक हों, मंत्र-तंत्र आदिका प्रयोग किया विना मिले हों, थोड़े हों या बहुत हों अर्थात् सरस अन्नादि थोड़ा हो और नीरस आहार बहुत हो तो मुधाजोवी अर्थात् संयमत्राके निर्वाह के लिए जीवन धारण करनेवाला, अथबा निर्दोष अर्थात् जाति आदिको न प्रगट करके भिक्षा लेनेवाला साधु उस आहार की अवहेलना न करे । तात्पर्य यह है कि-सरस आहार कम मिले तो ऐसा न कहे कि-'इतने थोडे आहारसे उदरपूर्ति कैसे होगो ? नीरस आहार अधिक मिले तो ऐमा न कहे कि-'इस बहुतेरे व्यर्थ आहारसे क्या लाभ ? ।' इस प्रकार आहारकी निन्दा न करे, किन्तु आहारके संयोजना आदि मण्डल दोषों को टाल कर भोगे । ભજન, એ સર્વ જે શાક્ત વિધિથી પ્રાપ્ત થયાં હોય, પ્રાસુક હોય, મંત્ર-તંત્ર આદિને પ્રયોગ કર્યા વિના મળ્યા હોય, થોડા હોય યા વધારે હોય, અર્થાત્ સરસે અન્નાદિ થોડું હોય અને નીરસ આહાર વધારે હોય, તે મુધાજવી–અર્થાત્ સંયમયાત્રાના નિર્વાહને માટે જીવન ધારણ કરનાર અથવા નિર્દોષ અર્થાત જાતિ આદિને પ્રકટ કર્યા વિના ભિક્ષા લેનારો સાધુ એ આહારની અવહેલના કરે નહિ, તાત્પર્ય એ છે કે-સરસ આહાર ઓછો મળે તો એમ ન કહે કે “આટલા થોડા આહારથી ઉદરપૂતિ કેવી રીતે થશે? નીરસ આહાર વધારે મળે તે એમ ન કહે કે “આ ઘણુ બઘા વ્યર્થ આહારથી શું લાભ ?' એ પ્રમાણે આહારની નિન્દા ન કરે, પરન્ત આહારના સંયેજના આદિ મંડલ દેશોને ટાળીને ભગવે. उत्पन्न श५४थी मेम सूयित ४२वाभा माव्यु छ , ता साधुणे शाखनी भर्या।। अनुसार १ माडा२ अड ४२ नये. फासुयं ७४थी सथित्त अयित्तनी परीक्षा શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ श्रीदशवकालिकसत्रे नोपादेयमिति प्रकटितम् । 'दोषवज्जियं' इतिपदेन निर्दोषभिक्षाप्राप्तावपि मण्डलदोषवत्त्वेन सदोषत्वं दुर्निवारमिति मण्डलदोषरहितं भोक्तव्यमिति प्रादुष्कृतम् ॥९८॥१९॥ मूलम्-दुल्लहाओ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छंति सुग्गई ॥१०॥ ॥तिबेमि ॥ छाया--दुर्लभा मुधादातारः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः ।। मुधादातारः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ॥१००॥ इति ब्रबीमि ॥ सान्वयार्थः-मुहादाई = निष्काम-प्रत्युपकारी आशा न रखकर-देनेवाले दुल्ल. हाओ दुर्लभ हैं और मुहाजीवीवि-निष्काम-दाताके कार्यकी अपेक्षा न रखकर-निरपेक्षलेनेवाले भी दुल्लहा-दुर्लभ हैं, क्योंकि मुहादाई-निष्काम देनेवाले और मुहाजीवी= निष्काम निरपेक्ष लेनेवाले दोवि-ये पूर्वोक्त दोनों ही सुग्गइं-मोक्षगतिको गच्छंति= प्राप्त होते हैं। श्री सुधर्मास्वामो जम्बूस्वामीसे कहते हैं कि हे जम्बू ! ति = भगवान् श्रीमहाबीर स्वामीने जैसा फरमाया है वैसा ही तुझे बेमि = मैं कहता हूं ॥१०॥ ॥इति श्रीदशवैकालिक सूत्रके पांचवें अध्ययनके पहले उद्देश्यका सान्वयार्थ संपूर्ण ॥ टीका--'दुल्लहाओ इत्यादि । मुधादातारः = प्रत्युपकारानभिलाषिणो दायकाः दुर्लभाः= दुष्प्रापास्तादृशानां विरलत्वात् , मुधाजीवीनोऽपि = दातृकार्यानपेक्ष 'उप्पन्न' पदसे यह सूचित किया है कि गीतार्थ साधुको शास्त्रकी मर्यादा के अनुसार ही आहार ग्रहण करना चाहिए । 'फासुयं' पदसे सचित्त अचित्त की परीक्षा करके ग्रहण करना योतित किया है। 'मुहालद्वं' पदसे यह दर्शाया है को दाता का उपकार करके भिक्षा ग्रहण करने से आधाकर्म आदि बहुत से दोष आते हैं, अतः ऐसी भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । 'दोसवज्जियं' पदसे यह प्रगट किया है कि निर्दोष भिक्षा उपलब्ध हो जाने पर भी मण्डल दोष लगनेसे वह भिक्षा अवश्य दूषित हो जाती है। इसलिए उनका परिहार करके हो आहार करना चाहिए ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ 'दुल्लहाओ' इत्यादि । प्रत्युपकार ( बदला ) की आशा न रखनेवाले दाता दुर्लभ हैं, और दाताका कार्य न करके भिक्षा ग्रहण करनेवाले साधु भी विरले होते हैं । प्रत्युपकारकी चाह ४शन डाय ४२वानुमा भव्यु छे. महालद्धं शपथी से विवामा मान्यछ કે દાતાને ઉપકાર કરીને ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાથી આધાકમ આદિ ઘણું દોષ લાગે છે, तथा वा निक्षा नसेवी . दोसज्जियं श७४थी म भनाभा माव्यु । નિર્દોષ મિક્ષ ઉપલબ્ધ થતાં પણ મંડલ દોષ લાગવાથી એ ભિક્ષા અવશ્ય દૂષિત થઈ જાય છે, તેથી એને પરિહાર કરીને જ આહાર કરવો જોઈએ. (૯૮-૯૯) दुल्लहाओ० त्याहि निम-प्रत्यु५४१२ (481) नी साशन मनाहात gee છે અને નિષ્કામ--દાતાનું કાર્ય કર્યા વિના ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર-સાધુ ષણ વિરલ જ હોય TI શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ उ. १ गा० १०० मुधादायिनो मुधाजीबिनोर्मोक्षावाप्तिः = निरपेक्षभिक्षाग्राहिणोपिऽपि दुर्लभाः, मुधादातारः मुधाजीविनश्च द्वावपि दाता भिक्षु उभावप्युक्तविौ सुगति = सिद्धगतिं गच्छतः = प्राप्नुतः । ' मुधादातारः ' मुधाजीविनः' इत्यत्र बहुवचनं व्यक्तिविविक्षया । 'द्वावपि' इत्यत्र द्विवचनं तु सुधादातृत्व-मुधाजीवित्वोभयधर्मगत द्वित्वसंख्याविवक्षयेति बोध्यम् ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥१००॥ । इति श्री - दशवैकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूषाख्यायां व्याख्यायां पञ्चमाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ।। ५-१ । न रखनेवाले दाता और किसीका कार्य विना किये भिक्षा ग्रहण करनेवाला आत्मार्थी साधु, इन दोनों को मोक्षगतिकी प्राप्ति होती है । ३९५ श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं - हे जम्बू ! चरम जिनेश्वर भगवान् महावीर स्वा मीने जैसा उपदेश दिया है वैसा मैंने कहा है ॥१००॥ इति दशकालिक सूत्रके पाँचवें अध्ययनके पहले उद्देशेका हिन्दी-भाषानुवाद समाप्त ॥५- १॥ છે. પ્રત્યુપકારની ઈચ્છા ન રાખનાર દાતા અને કોઇનુ કર્યાં કર્યા વિના ભિક્ષા ગ્રળુ કરનાર આત્માથી સાધુ, એ બેઉને મેક્ષ ગતિની પ્રાતિ થાય છે. શ્રી સુધર્માં સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે-ડૅ જંબૂ ! ચરમ જિનેશ્વર ભગવાન્ મહુાવીર સ્વામીએ જેવે ઉપદેશ આપ્યા છે તેવા જ મે' કહ્યો છે (૧૦૦) ઇતિ દશવૈકાલિકસૂત્રના પાંચમાં અધ્યયનતા પહેલા ઉદ્દેશાના ગુજરાતીભાષાનુવાદ સમાપ્ત. (૫૧) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ श्रीदशर्वकालिफसूत्रे ॥ अथ पञ्चमाध्ययनस्य द्वितीय उद्देशः ॥ प्रथमोद्देशकथितपिण्डैषणाया अवशिष्टविधिमाह-'पडिग्गह' इत्यादि। मूलम्-पडिग्गहं संलिहिताणं, लेवमायाइ संजए । ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ दुगंधं वा, सुगंध वा सव्वं भुंजे न छड्डए ॥ १ ॥ छाया - प्रतिग्रहं संलिह्य, लेपमर्यादया संयतः।। दुर्गन्धं वा सुगन्धं बा, सर्व भुञ्जीत न मुञ्चेत् ॥ १ ॥ सान्वयार्थः-पडिग्ग = पात्रेको लेवमायाए = लेपकी मर्यादासे अर्थात् जब तक छांछ आदिका लेप लगा रहे तब तक संलिहिताणं = अंगुलीसे पोछकर संजए साधु दुगंध वा = अनिष्ट गन्धवाला हो चाहे सुगंध वा = सुरभिगन्धवाला पदार्थ हो उस सव्वं = सबको भुजे-भोगवे; किन्तु न छड्डए = कुछ भी न छोडे जूठन न डाले ॥१॥ ___टीका-प्रतिग्रहं = पात्र लेपमर्यादा = ले मर्यादीकृत्य यथा लेपसम्बन्धः पात्रे नावतिष्ठेत तथा संलिश पात्रस्थं तक्रादिलेपमाल्यादिना नश्शेष प्रोग्छय संयतः= मुनिः दुर्गन्धम् = अनिष्टगन्धयुक्त-पुरातनगोधूमबर्जरिकावल्लचणकादिनिष्पादितं शीतमुष्णं वाऽनम् , अम्लतक्रपाचितकल्लचणकचूर्णनिष्पादितं शीतमुष्णं वा शाकविशेषदिकं, पर्युषिततक्रादिरूपं पानं च, तेषाममनोज्ञगन्धवत्त्वादिति भावः । सुगन्धं । सुरभिगन्धयुक्तं वाः । ।पांचवाँ अध्यनका दूसरा उद्देश । प्रथम उद्देशमें कही हुई विधिके अतिरिक्त-अवशिष्ट पिण्डैषणाकी विधि इस दूसरे उद्देशमें कहते हैं-'पडिग्गह' इत्यादि । आहार करनेके पात्रमें जो लेप लगा रह जाय उसे अंगुली -आदि द्वारा पोंछकर मुनि अमनोज्ञ गन्ध या मनोज्ञ गन्धवाले समस्त अन्न पानको भोगे, उसे छोड़े नहीं अर्थात सीथ मात्र भी जूठा न डाले । पुराने गेहूँ, बाजरे, बाल, चने आदिकी बनी हुई ठंडा या गर्म रोटी आदि अन्न, खट्टी छाछकी बनी ठंडी या गर्म कढी आदि शाक, पर्युषित ( वासो ) खट्टी छाछ आदि पान, ये अमनोज्ञ गन्धवाले होते हैं। और घेवर पायस आदि, एलची लवंग केसर आदिके मिश्रित मध्ययन पांयमु- देश माने. પ્રથમ ઉદ્દેશમાં કહેલી વિધિ ઉપરાંત અવશિષ્ટ પિઢિષણની વિધિ આ બીજા ઉદ્દેશમાં ४ छ-पडिग्गहं छत्याहि. આહાર કરવામાં પાત્રમાં જે લેપ લાગેલે રહી જાય, તેને આંગળી આદિ વડે લુછીને મુનિ અમનેઝ ગંધ યા મનેઝ ગંધવાળા બધા અનન પાનને ભેગવે, તેને છોડે નહિ, અર્થાત્ જરા પણ બાકી ન રાખે. જૂના ઘઉં, બાજરી, વાલ, ચણા આદિની બનાવેલી ઠંડી યા ગરમ રોટલી આદિ અન્ન, ખોટી છાશની બનેલી ઠંડી યા ગરમ કઢી આદિ શાક, પયુષિત ખાટી છાશ આદિ પાન, એ બધા અમનેzગંધવાળાં હોય છે. અને ઘેબર, પાયસ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० २-४ आहारापर्याप्तौपुनर्गोचरीगमनविधिः ३९७ घृतपूरापायसादि तस्यैलालक्ङ्ग केसरकर्पूरादिमनोज्ञगन्धवत्त्वादिति भावः । सर्वं मनोज्ञामनोज्ञरूपं सकलं भुञ्जीत=न तु मुञ्चेत् परित्यजेत् नावशेषयेदिति भावः || १ || ४ मूलम् - सेज्जा निसीहियाए, समावन्नो य गोयरे । ८ ९ १० ११ अयावयट्ठा भुच्चाणं जइ तेणं न सथरे || २ || २० २१ १२ ૧૩ १४ तओ कारणमुप्पण्ण, भत्तपाणं गवेसए । १९ १५ १६ १७ १८ विहिणा पुव्वउत्तेण इमेणं उत्तरेण य || ३ || छाया - शय्यायां नैषेधिक्या, समापन्नश्च गोचरे । यावदर्थं भुक्त्वा, यदि तेन न संस्तरेत् ॥ २ ॥ ततः कारणे उत्पन्ने, भक्तपानं गवेषयेत् । विधिना पूर्वोक्तेन, अनेन उत्तरेण च ।। ३ ।। - सान्वयार्थ :- सेज्जा = वसति उपाश्रय में नीसीहियाए = आहार करनेके स्थान पर य = अथवा गोयरे = भिक्षाचरी में समावन्नो = प्राप्त हुआ मुनि अयावयट्ठा = जरूरी से कम अर्थात् थोड़ा भुच्चाणं = खाकर खालेके पर जइ = यदि अगर तेणं = उस अशनादिसे न संथरे = न संस्तरेत् अर्थात् संयमयात्राका निर्वाह के लिए पर्याप्त पूरा न हो तओ = तो कारणं = क्षुधा वेदनीय की शांति न होने रूप कारण के उप्पन्ने उत्पन्न होने पर साधु पुव्वउत्तेण = पूर्वोक्त "संपत्ते भिक्खकालम्मि" इत्यादिरूप विधी से य = तथा इमेणं = इस उत्तरेणं = आगे कहे जानेवाली "कालेण णिक्खमे भिक्खू" इत्यादि रूप विधिसे भत्तपाणं = आहार पानी गवेसए = गवेषे अर्थात् भिक्षा लेने के लिए जावे |२| ३ टीका- 'सेज्जा' इत्यादि, 'तओ' इत्यादि च । शय्यायां वसतौ, नैषेधिक्यां= निषदनस्थाने स्वाध्याय भूमिकायामित्यर्थः, गोचरे भिक्षाचर्यायां च वा समापन्नः सम्प्रातो मुनिः उपलब्धमन्नादिकम् अयावदर्थम् अपरिसमाप्तम् अल्पं क्षुधोपशमनानर्हमिहोनेसे मनोज्ञ गन्धवाले होते हैं, उन सबको समभाव से भोगवे || १|| 'सेज्जा' इत्यादि, 'तओ' इत्यादि । उपाश्रयमें बैठनेके स्थान अर्थात् स्वाध्याय भूमिमें तथा गोचरीमें गए हुए मुनिको अल्प, अर्थात् क्षुधाकी शान्ति न होसकने योग्य अन्न आदि मिला हो और उससे संयमयात्राका निर्वाह न होसके, अर्थात् लाया हुआ आहार पर्याप्त न हो तो (દૂધપાક) આદિ, એલચી, લવીંગ, કેસર આદિથી મિશ્રિત હાવાથી મનેજ્ઞ ગંધવાળાં હાય छे, मे मधांने सभलावे लागवे. (१) सेज्जा० छत्याहि, तथा तओ० इत्यादि उपाश्रयमां मेसवाना स्थानमा अर्थात् स्वाध्याયભૂમિમાં તથા ગાગ્રીમાં ગએલા મનને અલ્પ અર્થાત્ ક્ષુષાની શાન્તિ ન થઇ શકે અર્થાત્ લાવેલા આહાર પૂરતા ન હોય, તે એવુ કારણુ ઉત્પન્ન થતાં અર્થાત્ ક્ષુધાવેદનીય શાન્ત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ श्रोदशवेकालिकसूत्रे त्यर्थः संयमनिर्वाहार्थ यावताऽन्नादिकेन भाव्यं तावन्नेति यावत् भुक्त्वा यदि तेन भोजनेन न संस्तरेत् = संयमयात्रां निर्वोढुं न शक्नुयात् ॥२॥ ततः तदनन्तरं कारणे =प्रयोजने आर्षत्वात्सप्तम्यर्थे प्रथमा, उत्पन्ने सति = क्षुधावेदनोपशमनाभावे पूर्वोक्तेन " संपत्ते भिक्खकालम्मि" इत्यादिरूपेण अनेन उत्तरेण = " काले क्खिमे भिक्खू०" इत्यादिवक्ष्यमाणलक्षणेन विधिना = प्रकारेण भक्तपानं गवेषयेत् पुनर्भिक्षार्थ गच्छेदिति सूत्रार्थः | ३ | तमेव विधिमुपदर्शयन् कालयतनामाह - 'काळेण' इत्यादि । २ ३ १ ४ ५ मूलम् - काले क्खिमे भिक्खू, कालेण य पक्किमे । ७ ८ १० ११ १२ अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे ॥ ४ ॥ छाया - कालेन निष्क्रामेद् भिक्षुः कालेन च प्रतिक्रामेत् । अकालं च विवर्ज्य, काले कालं समाचरेत् ॥ ४ ॥ अब भिक्षा लेने की विधी बताते हैं सान्वयार्थ :- भिक्खू - मुधाजीवी मुनि कालेण - गोचरीके समय से - जिस देशमें जो समय भोजनका हो उस समय के होनेसे णिक्खमे = भिक्षा के लिये जावे, य और कालेण = समय से ही वापस आनेका उचित समय हो जाने से पडिक्कमे वापस लौट आवे, च = और अकाल - भिक्षा अनुचित समयको विवज्जित्ता = छोड़कर काले = उचित समयमें कालं = भिक्षादिक समायरे = आचरे-गोचरीके लिए घूमे ॥ ४ ॥ टीका- भिक्षुः = मुधाजीवी मुनिः कालेन = भिक्षोचितसमयेन यस्मिन् देशे यो गृहस्थानां भोजनसमयः स एव भिक्षुणां भिक्षाकालस्तेनेत्यर्थः निष्क्रामेत् = निर्गच्छेत्, ऐसा कारण उत्पन्न होने पर, अर्थात् क्षुधावेदनीयके शान्त न होने पर " संपत्ते भिक्वकालम्भि " इत्यादि पूर्वोक्त विधिसे तथा "कालेण णिक्खमे भिक्खू" इस गाथासे प्रारम्भ करके आगे बताई जानेवाली विधिसे भक्त-पानकी गवेषणा करे, अर्थात् भिक्षा के लिए फिर गमन करे || २ || ३ || उसी बिधिको दिखाते हुए कालकी यतना कहते हैं - ' काले' इत्यादि । जिस देशमें गृहस्थोंके भोजनका जो समय हो वही समय भिक्षुको भिक्षाके लिये जाना उचित है, अत एव भिक्षा के लिए उसी समय जाना चाहिए और गोचरीके लिए गए हुवे साधुको ऐसे न यवाने सीधे संपत्त भिक्खकालम्मि धत्याहि पूर्वोत विधिथी, तथा कालेन क्खिमे મિવું એ ગાથાથી પ્રારંભ કરીને આગળ બતાવમાં આવનારી વિધથી ભક્ત-પાનની ગવેષણા કરે અર્થાત્ ભિક્ષાને માટે ફરીથી ગમન કરે. (૨-૩) विधिने तावतां अजनी यतना उडे छे:- कालेण० छत्याहि. જે દેશમાં ગુસ્થાના ભેજનનાં જે સમય હાય તે સમય ભિક્ષાને માટે ઉચિત છે. તેથી ભિક્ષાને માટે તે સમયે જવુ જોઈએ. અને ગેાચરીને માટે ગએલા સાધુએ એવા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ अध्ययन ५ उ० २ गा० ५-६ समयमर्यादया गोचरी गमनोपदेशः भिक्षायै इति शेषः; कालेनैव = प्रत्यागमनोचितसमयेनैव, यथा स्वाध्यायप्रतिवन्धो न भवेत् तथा भिक्षां गतस्य साधोः परावर्तनसमयो निर्दिष्टस्तेनैवेति भावः। ( करणे सहार्थे वा तृतीया)। चकारोऽत्र 'एव'-कारार्थकः' प्रतिक्रामेत् = प्रत्यागच्छेत् । अकाल = भिक्षानुचितसमयं विवर्ण्य = परित्यज्य काले = भिक्षोचितवेलायां कालं = लक्षणया तत्फालोचिनकृत्यं भिक्षादिकं समाचरेत् =मिक्षाथे क्रामेदित्यर्थः । बहुशः कालशब्दोपादानं 'मुनीनां यथाकालमेव सकलं कृत्यं विधेय'-मिति ध्वनयति ॥४॥ अकालचारित्वेनाऽलब्धभिक्षो भिक्षुः केनचित्साधुना "भोः ! भिक्षा त्वया लब्धा न वा" इतिपृष्टो वदति-"कुतोऽत्र मितम्पचानां हीनदीनानां ग्रामे भिक्षालाभः ?" तदाऽसौ अकालचारिणं कथयति-'अकाले' इत्यादि। मूलम्-अकाले चरिसी भिक्खू , कालं न पडिलेहिसि । ..१० ११ १२ अप्पाणं च किलामेसि, संनिवसं च गरिहसि ॥ ५॥ छाया--अकाले चरसि भिक्षो ?, कालं न प्रत्युपेक्षसे । आत्मानं च क्लमयसि, संनिवेशं च गर्हसे ॥५॥ अकालचारी होने के कारण भिक्षा नहीं मिलने पर असन्तुष्ट हुए साधुको कालचारी साधु पूछता है-हे साधु ! आपको भिक्षा मिली कि नहीं ?, तब वह कहता है-इस कंजूसों के गाम में भिक्षा कहाँ पड़ी है। इस पर वह कालचारी साधु उससे कहता है सान्वयार्थ:-भिक्खू = हे भिक्षु ! आप अकाले असमयमें भिक्षाका समय न होनेपर ही चरिसो-गोचरी फिरते हो, च और कालंगोचरीका समय न पडिले हिसो नहीं देखते, अतः अप्पाणं = आत्माको किलामेसि-किलामना-खेद-पहुंचाते हो च और संनिवेसंगामकी गरिहसि=निन्दा करते हो। तात्पर्य यह हुआ कि गोचरीका समय हुए विना घूमनेसे साधु भगवानकी आज्ञाका विराधक होता है, और दीनता प्रगट करने के कारण उसके चारित्रमें मलिनता होती है। अतः जिस देशमें जो भिक्षाका समय हो उसी समयमें साधुको भिक्षाके लिए जाना चाहिये ॥५॥ उचित समय पर लौट आना चाहिए, जिससे स्वाध्याय आदि क्रियाओंमें अन्तराय न पड़े । तथा जो समय भिक्षाके लिए उचित न हो उसका परिहार करके द्रव्य क्षेत्र काल भावसे उचित समय पर ही भिक्षाके लिए जाना चाहिए । गाथामें बहुत वार काल शब्दका प्रयोग करनेसे यह आशन प्रगट होता है कि- साधुओं को प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करनी चाहिए ॥ ४ ॥ ઉચિત સમયે પાછા ફરવું જોઈએ કે જેથી સ્વાધ્યાય આદિ ક્રિયાઓમાં અંતરાય ન પડે. તથા જે સમય ભિક્ષા માટે ઉચિત ન હોય તેને પરિહાર કરીને દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ ભાવથી ઉચિત સમયે જ ભિક્ષાને માટે જવું જોઈએ ગાથા માં ઘણીવાર કાલ શબ્દને પ્રગ કરવાથી એ આશય પ્રકટ થાય છે કે-સાધુઓએ પ્રત્યેક ક્રિયા ઉચિત સમયે જ કરવી म. (४) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्रीदशवकालिकसूत्रे टोका-हे भिक्षो ! त्वम् अकाले = असमये चरसि-भिक्षार्थ गच्छसि किन्तु कालं = भिक्षोचितसमयं न प्रत्युपेक्षसे नाद्रियसे, तेन च हेतुनाऽऽत्मानं क्लमयसिम्पीडयसि भिक्षालाभाभावेन भ्रमणाधिक्येन चेति भावः । संनिवेशं-ग्रामं च पुनः गर्हसे = निन्दसि । भगवदाज्ञाविराधकत्वेन दैन्यप्रकाशनेन च चारित्रमालिन्यं जायते, ततोऽनुचितकाले भिक्षाथै न गन्तव्यमिति । ५॥ मूलम् -सइ काल चरे भिक्खू, कुज्जा पुरिसकारियं । अलाभु-त्ति न सोइज्जा, तवु-त्ति अहियासए ॥६॥ छाया-सति काले चरेद भिक्षुः, कुर्यात्पुरुषकारम् ।। अलाभ इति न शोचेत्, तप इति अधिषहेत ॥६॥ सान्वयार्थ:-भिक्खू = साधुको काले-भिक्षाका समय सइ-होनेपर चरे-गोचरीके लिए घूमना चाहिए और पुरिसकारियं उत्साह पूर्वक घूमनेरूप पुरुषार्थ भी कुज्जा = करना चाहिये, और भिक्षा न मिलनेपर वह अलाभु आज मुझे भिक्षा नहीं मिली ति= इस प्रकार न सोइज्जा = सोच न करे, किन्तु तवु = आज मेरे अनशन ऊनोदरी आदि तप हुआ है त्ति = इस प्रकार सोचकर अहियासए = क्षुधा-परीषहको सहन करे-सन्तुष्ट रहे । तात्पर्य यह है कि-साधुओंको सिर्फ भिक्षाके ही लिए गोचरीमें घुमना नहीं हैं किन्तु वीर्याचारके लिए भी भगवान्ने गोचरीमें घुमना कहा है ॥६॥ कोई साधु द्वार। असमयमें भिक्षाके लिए जानेवाले दूसरे साधुसे पूछा गया कि-'हे भिक्षु ! तुम्हें भिक्षाका लाभ हुआ या नहीं ?' तब उसने कहा -'इन कंगाल कंजूसोंके गाँवमें भिक्षा कहाँ प्राप्त होसकती है?' तब वह अकालमें गोचरी करनेवालेके प्रति कहता है-'अकाले ०' इत्यादि । हे भिक्षु ! आप असमयमें भिक्षाके लिए जाते हैं, समयका खयाल नहीं रखते । इसो कारण अधिक भ्रमण करने से या मिक्षाके न मिलनेसे तुम अपनी आत्मा को पीडित करते हो, और नाम नगर की निन्दा करते हो। अकलमें भिक्षाके लिये गमनरूप भगवान की आज्ञाकी विराधना करने से तथा दीनता प्रगट करनेसे चारित्रमें मलिनता आती है इसलिए अनुचित समय में भिक्षाके लिए नहीं जाना चाहिए ॥२॥ કેઈ સાધુ અસમય માં ભિક્ષાને માટે જનારા બીજા સાધુને પૂછ્યું કે-“હે ભિક્ષુ ! તમને ભિક્ષાનો લાભ થયો કે નહી” ત્યારે તેણે કહ્યું “આ કંગાલ કંજૂસેના ગામમાં ભિક્ષા यांची प्रात यश ?' त्यारे थे भाले गोयरी ४२ना२। साधु प्रत्ये ४९ छे-अकाले० इत्यादि હે ભિક્ષુ ! આપ અસમયમાં ભિક્ષા માટે જાઓ છે, સમયને ખ્યાલ રાખતા નથી. એ કારણે વધારે ફરવાથી યા ભિક્ષા ન મળવાથી તમે તમારા આત્માને પીડિત કરો છો અને ગ્રામ-નગરની નિંદા કરે છે. અકાળે ભિક્ષાને માટે જવારૂપી ભગવાનની આજ્ઞાની શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा ७-८ गोचर्या क्षेत्रयतना ४०१ टीका- 'स' इत्यादि । भिक्षुः काले = भिक्षोचितसमये प्राप्ते सति यद्वा 'सइकाले' इत्यस्य 'स्मृतिकाले' इतिच्छाया तत्र स्मर्यन्ते साधवो दातृभिर्दानार्थं यस्मिन् समये तस्मिन्नित्यर्थः, चरेत् = भिक्षार्थं गच्छेत् । पुरुषकारं = पराक्रमम् उत्साहपूर्व कभिक्षार्थभ्रमणलक्षणं कुर्यात् = विदध्यात् । कदाचिदलाभे सति अलाभः = अद्य भिक्षालाभो न संजात इति न शोचेत् = न परितपेत्, किन्तु तपः अद्य मेऽनशनावमौदरिकादिरूपं तपः सम्पन्नमिति कृत्वा अधिषहेत = सन्तुष्येत् । भिक्षाया अलाभेsपि वीर्यचारो मया सम्यगाराधितः, यतो न केवलमन्नाद्यर्थमेव भिक्षाचरणं भिक्षुणां, किन्तु वीर्याचारार्थमपि भगवता समादिष्टमिति भावार्थः ॥ ६ ॥ क्षेत्रयतनामाह - 'तहेवु ० ' इत्यादि । २ ३ ४ ५ मूलम् - तहेवुच्चावया पाणा, भत्ता समागया । ६ ७ ८ ९ १० ११ तं उज्जयं न गच्छिज्जा, जयमेव परक्कमे ॥७॥ छाया - तथैवोच्चावचाः प्राणाः, भक्तार्थं समागताः । तेषाम्ऋजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ॥७॥ सान्वयार्थ :- तदेव = उसीप्रकार उच्चावया = उच्च जातिके हंसादिक अवच-नीच जातिके कौए आदि पाणा = प्राणी (यदि ) भत्तट्ठाए = चुगा-पानीके लिए समागया = आये हों - इकट्ठे हुए हों तो तं उज्जयं-उन प्राणियों के सामने न गच्छिज्जा - नहीं जावे, ' सइकाले ' इत्यादि । भिक्षु उचित समय प्राप्त होनेपर ही भिक्षाके लिए जावें । उत्साहपूर्वक भिक्षार्थ भ्रमणरूप पुरुषार्थ करें । कभी भिक्षाका लाभ न हो तो ऐसा सोच न करें कि -आज आज मुझे भिक्षा नहीं मिली, किन्तु ऐसा विचार करके सन्तुष्ट रहें कि आज भिक्षा न मिली तो सहज ही मेरे अनशन आदि तप होगया, अर्थात् भिक्षाका लाभ न होनेपर भी मैंने भली भाँति वीर्याचारका आराधन किया है साधु केवल अन्नादिककी प्राप्तिके लिए भिक्षाचारी नहीं करते किन्तु वीर्याचार की आराधना के लिए भी भिक्षाचरी में जाना भगवानने बताया है ॥६॥ વિરાધના કરવાથી તથા દીનતા પ્રકટ કરવાથી ચારિત્રમાં મલિનતા આવે છે, તેથી અનુચિત સમયે ભિક્ષાને માટે જવુ ન જોઈએ. (૫) આજ ભિક્ષા ન स काले० त्याहि भिक्षु उचित समय थतां न लिक्षाने भाटे लय उत्साहपूर्व ભિક્ષા ભ્રમણુરૂપ પુરૂષાથ કરે. કોઇવાર ભિક્ષાના લાભ ન થાય તા એવા વિચાર ન કરે આજ મને ભિક્ષા ન મળી.’ પરંતુ એવા વિચાર કરીને સ ંતુષ્ટ રહે કે મળી તેા સહેજે મારાથી અનશન આફ્રિ તપ થઇ ગયુ. અર્થાત્ ભિક્ષાને લાભ ન થવાથી પણ મેં ભલીપેઠે વીર્યંચારનું આરાધન કર્યું છે.' સાધુ કેવળ અન્નાદિની પ્રાપ્તિને માટે જ ભિક્ષાચરી કરતા નથી, કિન્તુ વીર્યાચારની આરાધનાને માટે પણ ભિક્ષાચરીમાં જવુ ભગવાને ताव्यु छे. (६) ५१ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦૨ श्रीदशवैकालिकसूत्रे (किन्तु) जयमेव-यतनापूर्वक ही-आसपाससे अथवा अन्य मार्गसे अर्थात् जिस तरह उन प्राणियोंको किसी प्रकारका त्रास न पहुंचे उसीतरह परक्कमे जावे ॥७॥ टोका--तथैव = तद्वत् उच्चावचाः = तत्र उदश्व: उच्चजातीया हंसादयः, अवाश्चः = नीचजातीयाः काकप्रभृतयः, यद्वा उच्चावचाः = अनेकविधाः "उच्चावचं नैकभेद"मित्यमरात्, प्राणाः = प्राणिनः भक्तार्थम् अन्न-पानार्थ मार्गादौ समागताः समायाता भवन्ति चेत् 'त'-तेषाम्, आर्षत्वात् षष्ठीबहुत्वे प्रथमैकवचनम्, ऋजुकं-संमुख न गच्छेत्, तेषामन्नपानान्तरायादिप्रचुरदोषापातात् । तर्हि किं कुर्यात् ? यतमेव=सयतनमेव = यथा तेषां संत्रासो न भवेत्तथा पराक्रामेत् = चरेत् अन्यमार्गेण तत्पावतो वा गन्तुं यतेतेत्यर्थः, हंसादिभिः प्राणिभिः सर्वतः समाक्रान्ते पथि अन्यमार्गेण, एकदेशाबच्छेदेन समाक्रान्ते च पावतोऽन्यभागेनेति विवेकः ॥७॥ मूलम्-गोयरग्गपविट्ठो य, न निसीइज्ज कत्थइ । कहं च न पबंधिज्जा, चिठित्ताण व संजए ॥८॥ छाया--गोचराग्रप्रविष्टश्च, न निषीदेत् कुत्रापि । कथां च न प्रबध्नीयात्, स्थित्वा च संयतः ॥८॥ सान्वयार्थः-संजए = साधु गोयरग्गपविट्ठो य = गोचरीके लिए गया हुआ कत्थइ= कहीं भी न निसीइज्ज = नहीं बैठे, च = और चिद्वित्ताण व-खड़ा रहकरभी कह-धर्मकथा न पबंधिज्जा-न कहे ॥८॥ अब क्षेत्रको यतना कहते हैं-तहेवु० इत्यादि । हंस-आदि उच्च-जातीय और काक आदि नीच-जातोय प्राणी यदि भोजन पानके लिए रास्ते में आये हों तो उनके सामने न जावें । सामने जानेसे उनके चुगे पानीमें विघ्न पड़ जाने के कारण भक्त-पानकी अन्तराय आदि अनेक दोष लगते हैं अतः यतना पूर्वक, अर्थात जिससे वे भयभीत न हों उस प्रकार दूसरे मार्गसे या एक किनारेसे गमन करें। ____ तात्पर्य यह है कि-अगर समस्त मार्ग हंस कबूतर कौए आदि प्राणियोंसे व्याप्त हो तो दूसरे मार्गसे, और एक तरफ चुगा पानी करते हों तो एक किनारे होकर गमन करना चाहिए ॥७॥ वे क्षेत्रनी यतना छे:-तहेवु० छत्यादि હંસ– આદિ ઉચ્ચ-જાતીય અને કાગડો-આદિ નીચ જાતીય પ્રાણી જે ભેજન પાન ને માટે રસ્તામાં આવેલા હોય તો તેની સામે ન જવું સામે જવાથી તેમને પાણી પીવા ચણવા વગેરેમાં વિન પડવાથી ભક્ત-પાનમાં અંતરાય આદિ અનેક દેશો લાગે છે એટલે યતનાપૂર્વક અર્થાત જે રીતે તેઓ ભયભીત ન થાય એ રીતે બીજે મ ગે યા એક બાજુએથી ગમન કરવું. તાતપર્ય એ છે કે જે આખો માર્ગ હંસ કબૂતર યા કાગડા વગેરે પ્રાણીઓથી ભરેલ હોય તો બીજે માગેથી અને એક તરફ તેઓ ચણતાં કે પાણી પીતા હોય તે તેની બાજુએ થઈને ગમન કરવું જોઈએ. (૭) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ ८ अध्ययन ५ उ० २ गा० ९-११ भिक्षार्थ गृहप्रवेशविधिः टीका–'गोयरग्ग०' इत्यादि । संयतः-मुनिः गोचराग्रप्रविष्टः सन् कुत्रापि गृहादौ न निषोदेत् नोपविशेत्, च=अथच स्थित्वा तिष्ठन् उपविश्य वा कथा-धर्मकथां न प्रबध्नीयात् ससन्दर्भ व नारभेत, किन्त्वेकस्यैव प्रश्नस्य संक्षेपत एकमेव समाधान कर्तुमर्हति अन्यथा दायकाऽरुचिप्रभृतिविविधदोषप्रसङ्गः ॥८॥ द्रव्ययतनामाह-'अग्गलं' इत्यादि । मूलम्-अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वावि संजए । अवलंबिया न चिट्ठिज्जा, गोयरग्गगओ मुणी ॥९॥ छाया-अर्गल फलकं द्वारं, कपाटं वाऽपि संयतः । अवलम्ब्य न तिष्ठेत , गोचराग्रगतो मुनिः ॥९॥ सान्चयार्थ:--गोयरग्गगओ-गोचरीके लिए गया हुआ संजए-इन्द्रियों का संयम रखनेवाला मुणी-साधु अग्गलं = आगल-भोगल अथवा सकली फलिहं = दोनों किवाडों को रोक रखनेवाला काष्ठ (हुड़ा) को दारं-दरवाजा वावि = अथवा कवाडं = किवाडको अवलंबिया पकड़कर या इनका सहारा लेकर न चिट्ठिज्जाखड़ा न होवे ॥९॥ टीका-गोचराग्रगतः भिक्षाचरीनिर्गतः, संयतः संयमी मुनिः, अर्गलं = कपाटपट्टद्वयदृढसंयोजकाष्ठादिनिर्मितकीलविशेष शृङ्खलादि च फलकम् = अवष्टम्भककाष्ठविशेष, द्वारं = गृहादेनिर्गमप्रवेशमार्गम् , अपिया कपाटं = स्वनामप्रसिद्धद्वाराच्छादकदारुफलकविशेषम् अवलम्ब्य = आश्रित्य न निष्ठेत् ॥९॥ गोयरग्गः' इत्यादि । गोचरीके लिए गये हुए मुनि किसी के घरमें न बैठे, न खड़े खड़े संदर्भ के साथ धर्मकथा कहना अरम्भ करें, । अवसर हो तो एक प्रश्नका एक ही समाधान खडे २ संक्षेपसे कर देवें । बैठनेसे या लम्बी धर्मकथा करनेसे दाताकी अरुचि आदि अनेक दोष होते हैं ॥८॥ अब द्रव्ययतना कहते हैं-अग्गलं, इत्यादि । ___ गोचरोके लिए गये हुए मुनिको आगल, सांकल, फलक (खूटी आदि)' दरवाजा या किवाडजा सहारा लेकर खङा नहीं रहना चाहिए ॥९॥ गोयग त्या जायरीने मारी गयो मुनि ना ५२मा न मेसे, RI-TAL સંદર્ભ સહિત ધર્મ કથા કહેવાને આરંભ ન કરે અવસર હોય તે એક પ્રશ્નનું એકજ સમાધાન ઊભાં ઊભાં સંક્ષેપમાં કરી દે. બેસવાથી યા લાંબી ધર્મકથા કરવાથી દાતાની અરૂચિ આદિ અનેક દોષે થાય છે (૮) हेवेद्रव्य-यतन। ४ छ-अग्गलं त्याहि. ગોચરી માટે ગએલા મુનિએ આગળ, સાંકળ, ફલક (ખૂટી આદિ) દરવાજે યા કમાઅને આધાર લઈને ઊભા રહેવું ન જોઈએ (૯) समण त्याह. तथा तमइ० ५त्याहि श्रम, प्रा, ५५ अने पनीने गृह શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकस्ने मूलम् समणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं । उवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणट्ठा एव संजए ॥१०॥ तमइक्कमित्तु न पविसे, नवि चिढे चक्खुगोयरे । एगंतमवकमित्ता, तत्थ चिट्ठिज्ज संजए ॥११॥ छाया--श्रमणं ब्राह्मणं वाऽपि, कृपणं वा वनीपकम् । उपसंक्रामन्तं भिक्षार्थ, पानार्थमेव संयतः ॥१०॥ तम् अतिक्रम्य न प्रविशेत् , नापि तिष्ठेत् चक्षुर्गोचरे । एकान्तवमक्रम्य तत्र तिष्ठेत् संयतः ॥११॥ सान्वयार्थः-संजए = साधु भत्तट्ठा-अन्नके लिए और पाणट्ठा एव-पानीके लिए ही उवसंकमंतं = गृहस्थके घर पर आते हुए समणं-निर्ग्रन्थ मुनिको बावि = अथवा माहणं = ब्राह्मणको किविणं = कृपण वा अथवा वणीमगं = दरिद्रीभिखारीको (देखकर)तं= उन श्रमणादिको अइक्कमित्तु = लांघकर न पविसे = गृहस्थके घरमें व जावे, नवि = और न चक्खुगोयरे = उनके दृष्टिगोचर-दृष्टिमार्गमें चिढे = ठहरे, (किन्तु) एगंतं = एकान्त स्थानमें-जहां उनकी दृष्टि न पडती हो ऐसी जगह अवकमित्ता= जाकर संजए = इन्द्रियों का संयम करता हुआ-चुप-चाप तत्थ = वहां चिट्टे = खड़ा रहे ॥१०॥११॥ __टीका--'समण' इत्यादि, 'तमइ.' इत्यादि च । संयतः, गृहस्थद्वारे भक्तार्थमेव पानार्थमेव, एवशब्दस्योभयत्र सम्बन्धः = उपसंक्रामन्तं = समीपमायान्तं यान्तं वा श्रमणादिबकं दृष्ट्रेति शेषः । तत्र वनीपकः = याचकविशेषः, अन्यत् सुगमम् । तं = श्रमणादिकम् अतिक्रम्ये = उल्लङ्घय तस्याग्रतो भूत्वेत्यर्थः गृहस्थगृहं न प्रविशेत् एतावदपि न तेषां चक्षुगोचरेऽपि = दृष्टिपथेऽपि न तिष्ठेत् किन्तु स संयत एकान्तं = यत्र तेषां दृष्टिन पतेत तं प्रदेशम् अवक्रम्य = गत्वा तत्र तिष्ठेत् ॥१०॥११॥ पूर्वोक्तविधेरपालने दोषमाह-'वणीमगस्स' इत्यादि । 'समणं 'इत्यादि, 'तमइ.' श्रमण, ब्राह्मण, कृपण और वनीपकको गृहस्थ के दर्बाजे पर भोजन या पानी के लिए आया देखकर साधु उसे उल्लङ्घन करके गृहस्थके घरमें प्रवेश न करें इतना ही नहीं, जहाँ उनकी दृष्टि पडती हो ऐसे स्थान पर भी खडे न हो किन्तु एकान्त प्रदेश में जाकर स्थित होवे, जहां उनकी दृष्टि न पहुँचे ॥११॥ __ ऐसा न करने में दोष कहते हैं-,वणीमनस्स इत्यादि સ્થના દરવાજા પર ભેજન યા પાણી ને માટે આવેલા જેમને સાધુ એમને ઓળંગીને ગ્રહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ ન કરે, એટલું જ નહિ જ્યાં એમની દૃષ્ટિ પડતી હોય એવા સ્થાન પર પણ ઊભું ન રહે, કિંતુ એકાંત પ્રદેશમાં જઈને ઊભું રહે કે જ્યાં એમની દષ્ટિ પહોંચે नलि. (१०-११) .. 'म न पाम होष ४ छ–'वणीमगस्स.' त्याहि. - - - શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० १२-१३ भिक्षार्थ ग्रहणप्रवेशविधिः २ ३ ४ ε ७ मूलम् - वणीमगस्स वो तस्स, दायगस्सुभयस्स वा । ८ १२ १० ५ १ ११ ९ अप्पत्तियं सिया हुज्जा, वहुत्तं पवयणस्स वा ||१२|| छाया - वनीपकस्य वा तस्य दायकस्योभयोर्वा । अप्रीतिकं स्याद्भवेत्, लघुत्वं प्रवचनस्य वा ॥१२॥ ४०५ पूर्वोक्त विधि अपालन में दोष बताते हैं सान्वयार्थ : - - ( ऐसा न करने से ) सिया= कदाचित् शायद तस्स = उस वणीमगस्स = श्रमणादि वनीपक पर्यन्तको वा अथवा दायगस्स = दाताको वा = या उभयस्स = दोनों-दाता और याचक को अप्पत्तियं = अप्रीति-द्वेष या मनमें खेद हो जाता है, वा = और पवयणस्स = जिनशासनकी लहुत्तं = लघुता हुज्ज = होती है ॥ १२ ॥ टीका -- स्यात् कदाचित् वनोपकस्य = याचक विशेषस्य वा = अथवा तस्य = श्रमणादेः, दायकस्य = दातुर्वा, उभयोः दातृ- याचकयोर्वा अप्रीतिकं = द्वेषः, मनः - खेदो वा भवेत्, प्रवचनस्य = जिनशासनस्य लघुत्वं == लघुता वा भवेदिति सम्बन्धः ॥ १२॥ कदा गन्तव्य ? - मित्याह - 'पडिसेहिए' इत्यादि । १ २ ३ ४ ५ ६ मूलम् - डिसेहिए व दिन्ने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । १२ ९ १० ११ ८ ॥१३॥ उवसंकमिज्ज भत्तट्ठा पाणट्ठाए व संजए छाया-प्रतिषेधिते वा दत्ते वा ततस्तस्मिन् निवृत्त । उपसंक्रामेत् भक्तार्थ, पानार्थ वा संयतः || १३ ॥ कब जाना चाहिये, सो बताते हैं सान्वयार्थः - पडिसेहिए - दाताके निषेध कर देने पर वा = अथवा दिन्ने = अन्नादिके दिये जाने पर वा= या दाता के मौन साधने पर तथो = उस स्थान से तमि = उन श्रमणादिकोंके नियत्तिए चले जाने पर संजय = साधु भत्तट्ठा = आहार व = अथवा पाणट्ठाए = पानीके लिए उनसंकमिज्ज जावे ॥ १३ ॥ = = संभव है, उन्हें उल्लङ्घन करके जनेसे या उनके सामने खड़े रहने से उस वनोपक या दाताको अथवा दोनोंको द्वेष तथा खेद उत्न होजाय । तथा प्रवचनकी लघुता होती है । अतः उन्हें उल्लङ्घन करके जाना साधु कल्प नहीं है ॥ १२॥ कब जाना चाहिए ? सो कहते हैं - 'पडिसेहिए' इत्यादि । સભવિત છે તેમને આળ’ગીને જવાથી યા યા દાતાને અથવા મેઉને દ્વેષ તથા ખેઢ ઉત્પન્ન છે, એટલે એમને એળગીને જવુ' એ સાધુના કલ્પ उयारे भवु लेहरिये ! ते उ छे - पडिसेहिए० શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ એમની સામે ઊભા રહેવાથી એ વનીપક થઈ જાય. તથા પ્રવચનની લઘુતા થાય નથી. (૧૨) ४त्याहि. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे टीका--प्रतिषेधिते = दात्रा प्रतिषेधं प्राप्ते वा = अथवा दत्ते अन्नादिके, वाशब्दादातुस्तूष्णीभावावलम्बनाद् विलम्बादिनिमित्तवशाद्वा ततः= तत्स्थानात् तस्मिन् - वनीपकादौ निवृत्ते प्रतिनिवृत्ते सति संयतः भकाथै पानार्थ वा उपसंक्रामेत् = भिक्षां ग्रहीतुं गच्छेत् ॥ १३ ॥ मूलम्-उप्पलं पउमं वावि, कुमुयं वा मगदंतियं । ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ २३ अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलुंचिया दए ॥ १४॥ १५ २० १६ १७ १८ १९ । तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । २१ २२ २५ २४ २६ २३ दितियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ १५ ॥ छाया--उत्पलं पद्म वाऽपि, कुमुदं वा मगदन्तिकाम् । अन्यद्वा पुष्पसचित्त, तच्च संलुच्य दद्यात् ।। १४ ॥ तद् भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ १५ ॥ सान्वयार्थः-उप्पलं = नील कमल पउमं = रक्त कमल वावि = अथवा कुमुयं = चन्द्रविकासी कमल वा = या मगदंतियं - मालती-मोगरेके फुलको वा = अथवा अन्नं = दूसरे भी इसी प्रकारके जो पुप्फसचित्तं = सचित्त पुष्प हों तंच = उनको भी (अगर) संलुचिया = लोंच करके दए = देवे तो = तं = वह भत्तपानं तु = आहारपानी संजयाण संयमियोंको अकप्पियं = अकल्पनीय भवे = होता है, अतः दितियं = देनेवाली से पडियाइक्खे = कहे कि तारिस = इस प्रकारका आहार मे = मुझे न कप्पइ = नहों कल्पता है ॥१४॥१५॥ टीका- 'उप्पलं' इत्यादि 'तं भवे' इत्यादि च । उत्पलं = श्यामल-धवल-लोहितभेदेन त्रिविधं कमलम , अपिवा पदम = सूर्यविकासि कमलं कुमुदं = चन्द्रविकासि कमलं दाताके वनोपक आदिको दान देनेकी मनाकर देने पर, अथवा अन्न आदिके दे देने पर या मौन साध लेने पर, अथवा विलम्ब होने आदिके कारणसे जब वह वनीपक आदि उस घरसे लौट जाय तब संयमीको भक्त-पानके लिए उस घर में जाना चाहिए ॥१३॥ 'उप्पलं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । दाता नीला सफेद और लाल कमल, सूर्यविकासो कमल દાતાએ વનપક આદિને દાન દેવાની મનાઈ ર્યા પછી અથવા અન આદિ આપી ચૂકયા પછી યા મૌન સાધી લીધા પછી, અથવા વિલંબ થવો ઈત્યાદિને કારણે જ્યારે એ વનીપક આદિ એ ઘેરથી પાછા ફરે ત્યારે સંયમીએ ભક્ત-પાનને માટે એ ઘરમાં જવું नये (१३) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० २ गा० १४-१७ पुष्पसंस्पर्शकहस्ताद्भिक्षानिषेधः ४०७ वा=अथवा मगदन्तिकां = मालतीपुष्पम्, अन्यद्वा पुष्पसचित्तं = पुष्पेषु सचित्तं पुष्पसचित्तं सचित्तपुष्पमात्रमित्यर्थः, तच्च संलुच्य = संछिद्य यदि दात्री भक्त पानं दद्यात् , तर्हि तद् भक्तपानं तु संयतानामग्राह्यं भवेदिति ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादृशं = दोषयुक्तं मे = मम न कल्पत इति ॥१४॥ १५॥ मूलम्-उप्पलं पउमं वावि कुमुयं वा मंगदंतियं । अन्नं वा पुप्फसचित्तं तं च संमदिया दए ॥ १६ ॥ १५ २० १ ६ १७ १८ तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । २२ २५ २५ २६ २३ दितियं पडियाइक्खे न म कप्पइ तारिसं ॥ १७ ॥ छाया-उत्पलं पद्म वाऽपि कुमुदं वा मगदन्तिकाम् । अन्यद्वा पुष्षसचित्तं तच्च समर्थ दद्यात् ॥१६॥ तद् भवेद भक्तपानं, तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥ १७ ॥ सान्वयार्थ:-उप्पलं नील कमल पउर्म-रक्त कमल बावि अथवा कुमुयं-चन्द्रविकासी कमल वा-या मगदंतियं-मालती-मोगरेके फूलको वा अथवा अन्न-दूसरे भी इसी प्रकारके जो पुप्फसचित्त-सचित्त पुष्प हैं तंच-उनको भी (अगर) संमदिया पैरों आदिसे कुचलकर दए-देवे तो तं-वह भत्तपाणं तु आहार-पानी संजयाणं-संयमियों को अकप्पियं अकल्प्य भवे होता है, (अतः) दितियं देनेवालोसे पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं इस प्रकारका आहार मे= मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥१६॥ १७ ॥ टीका-'उप्पलं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि च । उत्पलादिकं संमर्य-करचरणादिना तत्संमर्दनं कृत्वा, अशनादि दद्यात् तद् भक्त-पानं तु संयतानामग्राह्यमित्यादि पूर्ववद् मालतीका फुल तथा अन्य सचित्त पुष्प तोङ कर आहारपानी देवे तो वह संयमियोंके लिए ग्राह्य नही है इसलिए देनेबालीसे कहे कि ऐसा दोषयुक्त आहार मुझे नहीं कल्पता है ॥१४॥१५॥ ___'उप्पलं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । पूर्वोक्त उत्पलादिकोंमेंसे किसी सचिन फूलको मर्दन करके अथवा संघटा मात्र भी उप्पलं त्याहि. तथा तं भवेत्याहिने हाता, नी या दास भण, सूर्यવિકસી કમળ, ચંદ્રવિકાસી કમળ, માલતીનું પુષ્પ તથા અન્ય સચિત્ત પુષ્પ તેડીને પછી આહાર પાણી આપે તો તે સયમીઓને માટે ગ્રાહ્ય નથી. તેથી તે આપનારીને સાધુ કહે वाहोपयुक्त माहार भने ६५ते। नथी (१४-१५) उप्पलं त्या, तथा तं भवे. त्या પુક્તિ કમળ આદિમાંથી કઈ સચિત્ત ફૂલનું મર્દન કરીને અથવા માત્ર સંઘટન પણ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे व्याख्येयम् । अत्र 'समर्थ' शब्देन संमर्दनं यथा कथश्चित्स्पर्शमात्रमपि गृह्यते, उत्पलादिगतसूक्ष्मजीवानां तावताऽपि पीडोत्पत्तेरवश्यम्भावात् । 'संमद्दमाणी पाणाणि बीयाणी हरियाणी य' इत्यस्यैव प्रथमोद्देशके समस्तवनस्पतीनां ग्रहणेऽपि पुनरत्रोत्पलादीनां ग्रहणं न पुनरुक्तिदोषजनकं, पूर्वत्र सामान्यरूपेणाऽत्र च विशेषरूपेणोपादानादिति बोध्यम् १६ १७ ॥ मूलम्-सालुयं वा विरालियं, कुमुयं उप्पलनालियं । मुणालियं सासवनालियं, उच्छखंड अनिव्वुडं ॥ १८ ॥ १७ १९ १० १० १२ ११ तरुणगं वा पवालं. रुक्खस्स तणगस्स वा । १३ १६ १५ १४ २० २१ अन्नस्स वावि हरियस्स. आमगं परिवज्जए ॥ १९॥ छाया-शालूकं वा विरालिका, कुमुदम् उत्पलनालिकाम् । मृणालिकां सर्षपनालिकाम् , इक्षुखण्डम् अनिर्वृतम् ॥ १८ ॥ तरुणकं वा प्रवालं, वृक्षस्य तृणकस्य वा। अन्यस्य वाऽपि हरितस्य, आमकं परिवर्जयेत् ॥ १९ ॥ सान्वयार्थ:- सालुयं कुमुदादिका मूल विरालियं-पलासका कन्द साधारण वनस्पतिविशेष कुमुयं चन्द्रविकासी श्वेत कमल उप्पलनालियं-कमलनाल मुणालियं-कमलतन्तु सासवनालियंसरसोंकी भाजी कान्दव वा अथवा उच्छुखंड-गन्ने के टुकडे, (ये सब यदि) अनिव्वुडं-शस्त्रपरिणत-अचित्त न हों तो, (तथा) रुक्खस्स-इमली आदि वृक्षके वा अथवा तरुणगस्स-मधुर तृणादिकोंके वा और अन्नस्सविसरे प्रकारके भी हरिकरके आहार देवे तों तो देनेवालीसे साधु कहे कि ऐसा आहार लेना मुझे नहीं कल्पता है । यहां' मर्दन' शब्द से स्पर्शमात्रका भी ग्रहण होता है, क्योंकि कमल आदिके जीवोंको स्पर्श करनेसे भी अवश्य पोडाहोती है । प्रथम उद्देश में "संसदमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणिय' इस पदसे ही सब वनस्पतिकायका ग्रहण कर लिया था, यहाँ फिर उत्पल आदिका ग्रहण किया है यह पुनरुक्ति दोष नहीं समझना चाहिए, यहां विशेष रूपसे निषेध किया है ॥१६॥१७॥ કરીને આહાર આપે તે આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર લેવે મને કહેતા નથી. અહીં “મન શબ્દથી સ્પશમાત્રનું પણ ગ્રહણ થાય છે, કારણ કે કમળ આદિના लवाने २५0 ४२वाथी ५ म१श्य पीडा थाय छे. प्रथम उद्देशमा संमद्दमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणि यी ५४थी मधी वनस्पतिशायनु हY ४२वामा मयुडतु, અહીં ફરીથી કમળ આદિનું ગ્રહણ કર્યું છે, એ પુનરૂક્તિ દોષ સમજ નહિ , કારણ કે પહેલાં સામાન્યરૂપે નિષેધ કર્યો હતો, અને અહીં વિશેષરૂપે નિષેધ કર્યો છે, (૧૬-૧૭) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० १९-२० सचित्तहरितकायनिषेधः यस्स = हरित कायके तरुणगं = कोंपल पत्ते आदि वा = अथवा पवालं = कच्ची कोंपलनहीं खिले हुए पत्ते आदि आमग= सचित्त हों तो उन्हें परिवज्जए = वरजे नहीं लेवे।। १८॥ १९॥ टीका—'सालुयं' इत्यादि 'तरुणगं इत्यादि च । शालुकं = कुमुदादिमूलं, विरालिकां = पलाशकन्दं साधारणवनस्पतिविशेषं, कुमुदं-चन्द्रविकासिश्वेतकमलम् , उत्पलनालिकां = कमलनालं मृणालिका = बिसं भे इति भाषाप्रसिद्धा सर्षपनिकां= सर्पपपत्र शाकं सर्वपकन्दली वा, एत सर्वम् अनितम् = शस्त्राऽपरिणतम् । तथा वृक्षस्य = अम्लिकादेः बा अथवा तृणकस्य = मधुरतृणादेः, अन्यस्य हरितस्यापि वा हरितकायमात्रस्य तरुणकं =तरुणदशाऽऽपन्नं पत्रादिकं, प्रवालं = मुकुमारं पत्रादिकं वा, आमकं = सचित्तं परिवर्जयेत् ॥१८॥१९॥ मूलम्-तरुणियं वा छिवाडिं, आमियं भज्जियं सई । ११ १० १२ ९ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ २० ॥ छाया--तरुणिकां वा छिवाडीम् आमिकां भर्जितां सकृत । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२०॥ सान्वयार्थ:-तरुणियं = कच्ची-जिसके बीज पके नहीं हो ऐसी वा= अथवा सई = एक बार भज्जियं = भुनी हुई आमियं = सचित्तछिबाडि = फलीकोदितियं = देनेवालीसे (साधु) पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं = इस प्रकारका आहार मे= मुझे न कप्पइ = नहीं कल्पता हैं ॥२०॥ टीका--'तरुणियं' इत्यादि । तरुणिकाम् = अपरिपक्वबीजाम् अवरित्यक्तत्वकसंश्लेषावस्थापन्नामित्यर्थः, छिवाडी ='देशीयोऽयं शब्दः मुद्ग चवल तुबरिकादिफलिकां 'सालय' इत्यादि, 'तरुणगं' । कमलका मूल, पलाश (ढाक) का मूल अर्थात् साधारण वनस्पतिकी जातिविशेष, तथा सफेद कमल, कमल 'नाल' सरसोंके पत्तेकीशाक, गन्नोका खण्ड, ये सब यदि शस्त्रसे परिणत न हों तो इनका, तथा-ईमली आदि वृक्षके, मधुर तृण आदिके तथा अन्य हरेक वनस्पतिके पत्ते कोंपल आदि जो सचित्त हों तो उनका त्याग करना चाहिए ॥१८॥ १९॥ 'तरुणियं' इत्यादि । जिसके बीज न पके हों ऐसी मुँग, चबला तुअर, (अरहर) आदि की फली एक वारमूजी हुई हो तथा सचित हो तो देनेवाली बाईसे साधु कहे कि यह लेना मुझे नहीं कल्पता है ॥२०॥ सालयं० इत्यादि, तरुणगंo छत्या. मगर्नु भूग, ५साशनु भूख, पर्थात् साधारण વનસ્પતિની જાતિ વિશેષ, તથા સફેદ કમળ, કમળની નાળ, સરસવનાં પાંદડાંનું શાક, શેરડીની કાતળી, એ બધાં જે શસ્ત્રથી પરિણત ન હોય તે એને તથા આંબલી આદિનાં વૃક્ષનાં, મધુર તૃણ આદિ જો સચિત્ત હોય તે એને ત્યાગ કરે જોઈએ. (૧૮) (૧) तरुणियं त्याहि.नां भी पायानडाय वा भस, या, तुवर माहिनी सी એકવાર ભૂજેલી હોય તથા સચિત્ત હોય તો તે આપનારી બાઈને સાધુ કહે કે એ લેવી ५२ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० श्रीदशवैकालिकसूत्रे सकभर्जिताम् = एकवारं भृष्टां वा = अथवा आमिकां = सचित्तां ददतीं प्रत्याचक्षीत तादृशं मे न कल्पत इति । ॥२०॥ मूलम्-तहा कोलमणुस्सिन्न, वेलुयं कासवनालियं । तिलपप्पडगं नीम, आमगं परिवज्जए ॥ २१ ॥ छाया-तथा कोलमनुत्स्विन्नं, वेणुकं काश्यपनालिकाम् । तिलपटकं नीपम्, आमकं परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥ सान्वयार्थः-तहा=उसी प्रकार अणुस्सिन्न-विना उबाले हए कोलंबेर तथा वेलुयंकेर या बांसकी कोंपल कासवनालियं-श्रीपीका फल तिलपप्पडगं-तिलपापड़ो नीम-कदम्बका फल ( ये सब यदि ) आमगं-सचित्त हों तो उन्हे परिवज्जए वर्जे ॥ २१॥ ___टीका-'तहा' इत्यादि । तथा तद्वत् अनुत्स्विन्न सलिलानलसंयोगेनाऽनुत्कालितम् - अक्वथितमित्यर्थः, कोलं-बदरीफलम् , आमकम् अशस्त्रोपहतम् , अस्य वेणुकादौ सर्वत्र सम्बन्धः, वेणुकं-वंशकरीरं वंशाङ्कुरमित्यर्थः, काश्यपनालिकां-श्रीपर्णीफलम् , अन 'आमग'-मित्यस्य लिङ्गविपरिणामेनान्वयः । तिलपर्पटकं प्रसिद्धमेव, नीपं-कदम्बफलम् परिवर्जयेत् ॥२१॥ मूलम् तहेव चाउलं पिटुं, वियडं वा तत्तनिव्वुडं । तिल पिढें पइ-पिन्नागं. आमगं परिवज्जए ॥ २२॥ छाया-तथैव ताण्डुलं पिष्टं, विकटं वा तप्तनिर्वृतम् । तिलपिष्टं पूतिपिण्याकम् , आमकं परिवर्जयेत् ॥ २२ ॥ सान्वयार्थः-तहेव-उसी प्रकार चाउलं पिटुं-चाँवलोंका आटा तथाऔर भी किसी तरहका आटा वा अथवा तत्तनिव्वुडं-पहले गर्म किया हुआ किन्तु फिर ठंडा होया हुआ वियर्ड-पानी तिलपिढे-तिलकुट्टा पूइपिन्नागं = सरसोंकी खल (ये) आमगं = सचित्त हों तो परिवज्जए = वरजे ॥२२॥ 'तहा कोल.' इत्यादि । इसी प्रकार जल और अग्निमें नहीं उबाले हुए बेर सचित्त वासके अंकुर तथा काश्यपनालिका (गंभारीफल) तिलपापडी और कदम्बके फल ये सब यदि सचित्त हो तो इनका त्याग करे-ग्रहण न करे ॥२१॥ મને ક૯૫તી નથી . 'तहा कोल' त्यादि. थे, प्रमाणे मने मसिमा न&ि mai मार, सत्ति વાંસના અંકુર તથા કાશ્યપનાલિકા (ગેવાર ફળી), તલપાપડી અને કદમ્બનાં ફળ જે સચિત્ત હોય તે એને ત્યાગ કરવ-ગ્રહણ કરવાં નહિ, (૨૧) १ 'नीम' इत्यत्र 'नीपाऽऽपीडेमोवा' (प्र०८।१।२३४) इति प्राकृतसूत्रेण पस्य मः॥ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० २१-२२ सचित्ताहार पाननिषेधः ४११ तण्डुलसम्बन्धि पिष्टं , टीका - - ' aa' इत्यादि । तथैव = तेनैव प्रकारेण ताण्डुलं = चूर्णम् उपलक्षणमेतद्गोधूमादेरपि वा = अथवा तप्तनिर्वृतं = पूर्वं तप्तं पश्चान्निरृतं = शीतलं यत्तत्तथोक्तम्, उष्णोदकं यदा शैत्यापन्नं ततः कालादारभ्य ग्रीष्मे यामपश्चकादूर्ध्व शीतकाले यामचतुष्टयात्परं, वर्षाकाले च प्रहरत्रयानन्तरं सचित्तं जायते । अत्रेयं सहगाथा - " जम्मि समयम्मि उहो, दगं च सीयं भवे तओ पच्छा । पंच-च-तिय- जामा, गिम्हे हेमंत पाऊसे ॥ १ ॥ " इति ॥ छाया - " यस्मिन् समये उष्णोदकं च शीतं भवेत्ततः पश्चात् । पञ्चचतुस्त्रिकयामाः, ग्रीष्मे हेमन्त - प्रावृषोः ॥ १ ॥ विकटं = समयपरिभाषया सलिलं, तिलपिष्टं = तिलकुट्ट प्रसिद्धं, पूतिपिण्याकं = सर्षपकल्कम् आमकं = सचित्तं परिवर्जयेत् ॥ २२ ॥ : २ ५ ३ 8 मूलम् - कविट्ट माउलिंगं च मूलगं मूलगत्तियं । ८ ६ ७ ९ १० आमं असत्थपरिणयं, मणसावि न पत्थए || २३ ॥ छाया - कपित्थं मातुलिङ्गं च, मूलकं मूलकर्तिकाम् । आमम् अशस्त्रपरिणतं, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ॥ २३ ॥ सान्वयार्थ :- कविहं = कैथ- कविठ माउलिंगं = बिजौरा मूलगं = मूला च = और मूलगत्तियं = मूलेके कन्दका टुकड़ा आमं= कच्चा असत्यपरिणयं = स्वकाय परकाय आदि शस्त्रसे परिणत न हुआ हो तो उसे मणसावि = मनसे भी न पत्थर = न चाहे ॥ २३ ॥ 'तहेव' इत्यादि । इसी प्रकार तत्कालका पीसा हुआ चाँवल गेहुँ आदिका आटा तथा पहले अचित्त होने पर भी कालकी मर्यादा व्यतीत होने पर पुनः सचित्त हुआ जल, तुरतका बना हुआ तिलकुट, तत्काल की सरसों आदिकी खली इन मचित्त वस्तुओंको ग्रहण न करे । गर्म पानीके अचित्त रहनेकी मर्यादा - ठंडा होजाने पर ग्रीष्म ऋतुमें पांच पहर, शीतकालमें चार पहर और वर्षाकालमें तिन पहरकी होती है उसके बाद वह (जल) सचित्त होजाता है । इस विषय में एक संग्रह गाथा है जो संस्कृत टीका में लिखी गई है || २२|| 'कविट्ठे' इत्नादि । कैथ (कविठ) बिजौरा नीबू मूला और मूलेके खण्ड यदि अचित्त-शस्त्र - तहेव० छत्याहि मे प्रमाणे ताणन हमे थोमा घर माहिनो आटो तथा પહેલાં અચિત્ત હાવા છતાં પણ કાળની મર્યાદા વ્યતીત થતાં પુનઃ સચિત્ત થએલું જળ, તુરતના બનાવેલા તલકુટ, તૂરતની સરસવ આદિના ખાળ એ સચિત્ત વસ્તુને પણ ગ્રહણ ન કરે. ગરમ પાણી અચિત્ત રહેવાની મર્યાદા ઠંડુ થઈ ગયા પછી ગ્રીષ્મ ઋતુમાં પાંચ પહાર, શીયાળામાં ચાર પહેાર અને વર્ષાઋતુમાં ત્રણ પહારની હેાય છે, ત્યારબાદ એ જળ સચિત્ત બની જાય છે. એ વિષયમાં એક સંગ્રહગાથા છે તે સ'સ્કૃત ટીકામાં લખી છે. (૨૨) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणिय । ६. ५ ___ श्रीदशवकालिकसूत्रे टीका--'कविटं' इत्यादि । कपित्थं 'कैथ कविठ' इति भाषायां, मातुलिङ्ग = बीजपूरकं 'बिजौरा नींबू' इति भाषायां, मूलकं = सपत्रं, मूलकर्तिकां = मूलककन्दखण्डु, आमम् = अपकम् , अशस्त्रपरिणतम् = अलब्धस्वपरकायादिशस्त्रयोगं मनसाऽपि न प्रार्थयेत- एतद्विषयिणीमिच्छामपि न कुर्यादित्यर्थः । 'आमम्' इत्यस्य 'अशस्त्रपरिणतम्' इत्यस्य च लिङ्गविपरिणामेन 'मूलकर्तिका'-मित्यत्र सम्बन्धः । मूलकस्याऽनन्तकायत्वात् शस्त्रपरिणतिर्दुष्करेति बोधयितुमेकार्थकस्याऽऽमादिशब्दद्वयस्योपादानम् ॥ २३॥ मूलम्-तहव फलमंथूणि, बोयमंथूणि जाणिय । विहेलगं पियालं च, आमगं पविज्जए ॥२४॥ छाया--तथैव फलमन्थून बीजमन्थन् ज्ञात्वा । बिभीतकं प्रियालं च, आमकं परिवर्जयेत् ॥ २५ ॥ सान्वयार्थ:-तहेव-इसी प्रकार फलमंथूणि बेर आदि फलोंका चूर्ण-चूरा बीयमथूणि = शालि आदि बीजोंका चूर्ण-चूरा विहेलगं=बहेडा च और पियालं-रायण अथवा दाख (इन्हें) आमगं-सचित्त जाणिय-जानकर-जाने तो परिवज्जए वरजे-न ले ॥२४॥ टीका-'तहेव फल.' इत्यादि । तथैव-तद्वत् फलमन्थन् बदरादिचूर्णान् , बीजमन्थन् फलबीजचूर्णान , विभीतकं 'बहेडा' इति प्रसिद्धं, च= पुनः पियालं-राजादनफलं 'रायण' इति भाषाप्रसिद्धम् । यद्वा 'प्रियाला'–मिति च्छाया, प्रियालां-द्राक्षाम् , आमकं सचित्तं ज्ञात्वा परिवर्जयेत, सचित्तं चेन्न गृह्णीयादित्यर्थः । यद्वा 'जाणिय' इत्यस्य 'याँश्च'-ति च्छाया; याँश्च बीजमन्थूनित्यन्वयः ॥ २४ ॥ मूलम्-समुयाणं च रे भिक्खू , कुलं उच्चावय सया । नोयं कुलमइकम्म. ऊसदं नाभिधारए ॥ २५॥ परिणत न हों तो इन्हें ग्रहण करने की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। मला अनन्तकाय है, अतः उसका शस्त्रपरिणत होना कठिन है इसीसे यहां एक अर्थवाले आमक, और अशस्त्रपरिणत ये दो शब्द दिये है ॥२३॥ ___ 'तहेव फल.' इत्यादि । इसीप्रकार कच्चे बेर आदिका चरा तथा कच्चे फलके बीजोंका चुरा तथा रायण अथवा दाख ये सचित्त हों तो ग्रहण न करे ॥२४॥ 'कविह्र'-इत्यादि. ,भीन।-बी, भूणा भने भूणाना ४४ अथित्त-शख. પરિણુત ન હોય તે તે ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા પણ ન કરવી જોઈએ. મૂળે અનંતકાય છે એટલેં એ શસ્ત્રપરિણુત થવો કઠિન છે, તેથી અહી એક અર્થવાળા “આમેક” અને “અશસपरिणत' सेवा से शह। मापे छ. (२३) तहेव फल.' त्यहि. मे ४ारे मार माहि यूशु, ३i मालतुं यूण, तथा બહેડાં, રાયણ અથવા દ્રાક્ષ એ સચિત્ત હોય તે ગ્રહણ કરવાં નહિં. (૨૪) ११ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० २ गा० २५-२६ मिक्षाचरणे विवेकोपदेशः ४१३ छाया—समुदानं चरेद् भिक्षुः, कुलमुच्चावचं सदा । नीचं कुलमतिक्रम्य, उच्छिंत नाभिधारयेत् ॥२५॥ ___ सान्वयार्थः-भिक्खू साधुको सया-हमेशा उच्चावयं-ऊंच नीच अर्थात् धनवान् और गरीब कुलं-कृल-घर में समुयाणं-शुद्ध भिक्षाका अनुसन्धान-पूर्वक चरे = घूमना चाहिए, (किन्तु) नीयं-गरीब कुलं = कुल-घर को अइकम्म = छोड़कर ऊसढं = धनवान्के घरपर नाभिधारए = नहीं जाना चाहिए ॥२५॥ टीका-'समुयाणं' इत्यादि । भिक्षुः सदा% नित्यम् उच्चावयम् = उदक् = उच्चं धनधान्यादिसमृद्धम् ,अवाक = अवचं = तद्विकलं कुलं प्रति समुदानं गृहस्थसमुदायसम्बन्धि भैक्ष्य, न त्वेकस्मिन्नेव गृहे तत्राऽऽधाकर्मादिदोषसम्भवादिति भावः, चरेत् गच्छेत् । नीच = विभवविधुरं कुलम् अतिक्रम्य = उल्लङ्घय परित्यज्येति यावत् , उच्छ्रितं = समृद्धं कुलं नाभिधारयेत् = त गच्छेत् प्रचुरसरसभक्तपानादिलिप्सया निर्धनं विहाय विभवसंपन्नं सदनं नाभिगच्छेत् , किन्तु उभयत्रापि यायादिति भावः । 'समुयाणं' इति-पदेनाऽनेकगृहतः स्वल्प-ग्रहणाद् भिक्षाया निर्दोषता सचिता । 'उच्चावयं' इति-पदेन समभावो व्यक्तीकृतः। 'नीयं कुलं' इत्युत्तरार्दैन रसलोलुपतापरित्याग आविष्कृत इति ॥ २५ ॥ मूलम्-अदीणो वित्तिमेसिज्जा, न विसीएज्ज पंडिए । अमुच्छिआ भोयणम्मि, मायन्ने एसणारए ॥२६॥ समुयाणं' इत्यादि । भिक्षु सदा धन-धान्य आदिसे समृद्ध कुलोंमें तथा धन-धान्यहीन कुलोंमें समुदानी भिक्षाके लिए गमन करें । एकही धर से भिक्षा न लें क्योंकि आधाकर्म आदि दोष लगनेकी संभावना हैं । निर्धन कुलको छोड़कर सरस भक्त-पानकी लालसासे सम्पत्तिशाली कुलमें भिक्षाके लिए नहीं जाना चाहिए। _ 'समुयाणं' पदसे यह सूचित किया है कि भनेक कुलोंसे थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेनेसेही भिक्षाकी निर्दोषता होती है । उच्चावयं, पदसे समभाव सूचित किया है। 'नीयं कुलं इत्यादि उत्तरार्द्धसे रसलोलुपताका त्याग व्यक्त किया है ॥२५॥ 'समयाणं' त्याह. लि सहा धन-धान्य हिया समृद्ध पुजामा तथा धन-धान्यथा હીન કુળમાં સમુદાની ભિક્ષા માટે ગમન કરે. એક જ ઘેરથી ભિક્ષા ન લે. કારણ કે આધાકર્મ આદિ દોષ લાગવાને સંભવ છે. નિર્ધન કુળને છોડીને સરસ ભક્ત-પાનની લાલસાથી સંપત્તિશાળી કુળમાં ભિક્ષાને માટે જવું ન જોઈએ. _ 'समुयाणे' ५४थी मेम सूचित ४२वामा साथ्यु छ भने हुनाभाया थाथी-थोड़ी लक्ष देवाय न मिक्षानी निषित पाय छे. उच्चावयं यथा समना सथित र्या छ. 'नीयं कुलं' त्या त्त थी २स-दादुपताना त्या व्यस्त छ. (२५) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ओदशवैकालिकसूत्रे छाया-अदीनः वृत्तिमेषयेत् , न विषीदेत् पण्डितः। ___अमूच्छितो भोजने, मात्राज्ञ एषणारतः ॥ २६॥ सान्वयार्थः- पंडिए = बुद्धिमान् साधु भोयणम्मिमोजनमें अमुच्छिओ= गृद्धिलोलुपता-रहित मायन्ने = आहार-पानीको मात्राको जाननेयाला एसणारए = आहारको शुद्धिमें तत्पर अदीणो-दीनता नहीं दिखलाता हुआ वित्ति=मिक्षागोचरी-की एसिज्जा = गवेषणा करे, ( किन्तु भिक्षा न मिलने पर) न विसीएज्ज = खेद न करे ॥ २६ ॥ ___टीका-'अदीणो' इत्यादि । पण्डितः सकलभिक्षादोषज्ञः साधुः भोजने आहारे अमूछितः अगृध्नुः मात्राज्ञः मात्रां-भक्तपानेन स्वकीयोदरपूर्तिप्रमाणं सुनिमित्तकवैकल्यप्रशमनैकसाधनप्रमाणं वा जानातीति मात्राज्ञः, प्रमाणाधिकभोजनेन प्रमादादिदोषोनवस्य संभवेन साधूनामाहारप्रमाणमवश्यं विधेयमिति । एषणारत: उद्गमादिदूषणव्यतिरिच्यमानगवेषणपरायणः, अदीन: दैन्यरहितः सन् वृत्ति-भिक्षालक्षणामू एषयेत् अन्वेषयेत्, अलाभे सति न विषीदेत् = न खिद्येत् । 'प्रदीणो' इति-पदेन स्वदैन्याऽऽविष्करणेनाऽऽत्मनोऽध:पतनं शासनलघुता च प्रसज्यते, इति व्यज्यते । 'न बिसीएज्ज' अनेन भिक्षाया अलाभेऽपि स्वात्मप्रसन्नतां न परित्यजेदिति घोतितम् । 'पंडिए' इत्यनेन सर्वथापरिशुद्ध भिक्षाग्रहणयोग्यताऽऽबेदिता । 'अमुच्छिओ' इतिपदेनाऽऽहारादिलोलुपता ___ 'अदीणो' इत्यादि । भिक्षाके समस्त दोषोंका ज्ञाता मुनि आहार में मूर्छा न रखें और आहार के परिमाणका ख्याल रखें जितने आहारसे क्षुधावेदनोय उपशान्त होजाय वही आहारक परिमाण है उससे अधिक आहार करनेसे प्रमाद आदि दोष उत्पन्न होते हैं इसलिए साधुओं को आहारका परिमाण अवश्य करना चहिए । साधु उद्गम आदि दोषों को न लगाते हुए दीनताका त्याग करके भिक्षाकी गवेषगा करें और भिक्षाका लाभ न हो तो खेद न करे 'अदीणो' पदसे यह प्रगट होता है कि दोनता दिखानेसे आत्माका अधःपतन और जिनशासनकी लधुता होतो है ।'न विसीएज्ज, पदसे यह सूचित किया है कि आहार-लाभ न हो तो भी आत्मिक प्रसन्नताका परित्याग न करना चाहिए । 'पंडिए' पदसे सर्वथाशुद्ध भिक्षा ग्रहण अदीणो० त्या६. लिक्षाना मधा होषानो ज्ञाता मुनि साहारमा भू न रामे मन આહારના પરિમાણને ખ્યાલ રાખે જેટલા આહારથી ક્ષુધા વેદનીય ઉપશાન્ત થઈ જાય તે જ આહારનું પરિમાણ છે એથી વધારે આહાર કરવાથી પ્રમાદ આદિ દેષ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી સાધુઓએ આહારનું પરિમાણ અવશ્ય કરવું જોઈએ. સાધુ ઉદ્ગમ આદિ દોષે ન લાગવા દેતાં દીનતાને ત્યાગ કરીને ભિક્ષાની ગવેષણ કરે, અને ભિક્ષાને લાભ ન થાય તે तथी मेन ४२. 'अदीणो' २०४थी मेम प्र४८ थाय छ हीनता माथी मात्मानु अध:पतन भने Forशासननी सधुतथाय छे. न विसीएज्ज २४थी मेम सूयित युछे भाडासा 1 थाय तो ५ भाभि प्रसन्नताना परित्या न ४२वे नये. पंडिए थी सया શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० २७-२८ भिक्षावरणे विवेकोपदेशः निराकृता । 'मायन्ने' इत्यनेन निर्दोषसरसभक्तपानादौ प्राचुर्येण दीयमानेऽषि प्रमाणा धिकं न ग्राह्यमिति स्पष्टीकृतम् । 'एसणारए' इति पदेनाऽऽधाकर्मादिसकलभिक्षादोषानुसन्धानेनैव विशुद्धभिक्षाग्रहणं भवितुमर्हतीत्याविष्कृतम् ॥२६॥ मूलम् बहुं परघरे अस्थि विविहं खाइमसाइमं । १४ १२ १३ १५ १०११ न तत्थ पंडिओ कुप्प, इच्छा देज्ज परो न वा ॥२७॥ छाया-बहु परगृहे अस्ति विविधं खाचं स्वायम् । न तत्र पण्डित: कुप्येत, इच्छा दद्यात् परो न वा ॥२७॥ सान्वयार्थः-परघरे-गृहस्थके घस्में पिविहं = नाना प्रकारका खाइमं = दाख पिस्ता बादाम आदि खाद्य साइम-एलची लूंग आदि स्वाध बहु-बहुत अस्थि % हैं, (किन्तु) इच्छा इच्छा-मरजी-है कि परो- गृहस्य देज-देचे वा =अथवा = न = न देवे । नहीं देने पर तत्थ %= उस गृहस्थ पर पंडिओ-बुद्धिमान् साधु न कुप्पे-कुपित न होवे ॥२७॥ टीका-'बहु' इत्यादि । परगृहे-गृहस्थभवने विविधं = नैकप्रकारं खाद्यं द्राक्षापिस्ताबादामादिकं, स्वाधम् = एलालवङ्गादिकम् बहु = प्रभूतमस्ति, किन्तु इच्छा चेत् पर:- गृहस्थः दद्यात न वा दद्यात्, तत्रदातरि, यद्वा तत्र-खाद्ये स्वाद्ये तु अदीयमाने सति न कुप्येन्-न क्रुध्येत्-'कीदृशोऽयमविवेकी ? प्रचुरेऽपि बहुविधखाद्यादिके विद्यकरनेकी योग्यता व्यक्त होती है । अमुच्छिओ पदसे आहार आदिकी लोलुपताका त्याग ध्वनित होता है मायन्ने पदसे यह सूचित किया है कि निर्दोष और सरस आहार अधिक प्राप्त हो रहा हो तो भी प्रमाणसे अधिक नहीं ग्रहण करना चहिए । एसणारए पदसे यह ध्वनित किया है कि आधार्म आदि भिक्षाके समस्त दोषों का अनुसन्धान करने से ही विशुद्ध भिक्षाका ग्रहण होना संभव है ॥२६॥ ___ 'बहु' इत्यादि । गृहस्थके घरमे भाँति-भांतिके खाद्य और भाँति-भाँतिके स्वाद्य विद्यमान रहते हैं, उसकि इच्छा हो तो देवे न हो तो न देवे । यदि न दे तो साधुको ऐसा क्रोध न करना चाहिए कि,-यह कैसा अविवेकी है कि इतना बहुत खाद्य स्वाद्य मौजूद होनेपर भी साधुको नहीं વાવ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાની ચોગ્યતા વ્યક્ત થાય છે અ ને શબ્દથી આહાર આદિની बापताना त्याग पनित याय छे. मायन्ने शपथी र सूथित ४२वामा माथ्यु छ । નિર્દોષ અને સરસ આહાર વધારે પ્રાપ્ત થઈ રહ્યો હોય તે પણ પ્રમાણુથી વધારે ગ્રહણ ન श्वान थे. एसणारए शपथी म सुस्थित ४२वामा माव्युछे आधाभ माहि ભિક્ષાના બધા દોષોનું અનુસંધાન કરવાથી જ વિશુદ્ધ ભિક્ષાનું ગ્રહણ સંભવિત છે (૨૬) 'बहु'त्याहि स्थना घरमा तरेतरेहना मा भने भात मातना स्वाय विधमान હોય છે, તે તેની ઈચ્છા હોય તે આપે અને ન હોય તે ન આપે.જે ન આપે તે સાધુએ ન કરવું જોઈએ કે, “આ કે અવિવેકી છે કે “આટલાં બધાં ખાદ્ય-સ્વાદ્ય HC એવા કાય શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोदशवकालिकसूत्रे माने साधवे न ददातीति क्रोधावेशदक्षितान्तःकरणो न भवेत् । अत्र 'पंडिए' इति-पदेन सदसद्विवेकशालित्वं, तेन च मनोविजयित्वमावेतिम् ॥२७॥ एतदेव प्रपञ्च्य ते-'सयणा०' इत्यादि । मूलम्-सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए । अदितस्स न कुप्पेज्जा, पच्चक्खेवि य दीसउ ॥२८॥ छाया- शयनासनवस्त्रं वा, भक्तं पानं वा संयतः । अददतों न कुप्येत, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने ॥२८॥ पूर्वोक्त विषय को ही विशद करते हुए कहते हैं सान्वयार्थः-सयणासणवत्थं-शयन-वसति, आसन-पाटलादिक, वस्त्र-चादर आदि वा अथवा भत्त-आहार व-तथा पाणं-पानी आदि किसी भी वस्तुके पच्चक्खेवि य= प्रत्यक्ष-सामने पड़ी दीसउदीखने पर भी अदितस्स-नहीं देते हुए गृहस्थ पर संजए साधु न कुप्पेज्जा-कोप न करे, (क्योंकि)-"इच्छा देज्ज परो न वा" देवेन देवे गृहस्थकी मरजी है, ऐसा गाथासे संबंध है ॥२८॥ टीका-संयतः शयनासनवस्त्र-शयनं च आसनं च वस्त्रं चेत्येषां समाहारः, तत्र शय्यतेस्मिन्निति शयनं वसतिः, आस्यते उपविश्यतेऽस्मिन्निति-आसनं = पीठफलकादिकं, वस्यते आच्छाधते शरीरमनेनेति वस्त्र = शाटकादिकं, भक्त-भोज्यं, पानं=पेयम् अददतः अप्रयच्छतः, (अत्र सम्बन्धसामान्ये षष्ठी,) प्रत्यक्षेऽपि दृश्यमाने शयनादौ न कुप्येत्=कोपावेशेन चित्तविकृतिं न कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥२८॥ मूलम्-इत्थियं पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं । वंदमाणं न जाएज्जा, नो अ णं फरुसं वए ॥२९॥ देता यहाँ 'पंडिए' पदसे सत् और असत्का विवेक प्रगट किया है और उससे मनको जितना सूचित किया है ॥२७॥ इसीका विस्तार पूर्वक कथन करते हैं 'सयणा.' इत्यादि ___ यदि कोई गृहस्थ शय्या, आसन, वस्त्र, भक्त या पान सामने दिखाई देनेपर भी साधुको न दे तो भी साधु क्रोध न करें ॥२८॥ હાજર હેવા છતાં પણ સાધુને આપતા નથી. અહીં વિજ શબ્દથી સત્ અને અસતને વિવેક કર્યો છે, અને તેથી મનને જીતવાનું સૂચિત કર્યું છે. (૨૭). मेनु विस्तार५ ४थन रे छ-सयणा० ऽत्या. જે કાઈ ગૃહસ્થ શય્યા, આસન, વસ્ત્ર, ભક્ત યા પાન સામે દેખાતાં હોવા છતાં પણ સાધુને ન આપે તે પણ સાધુ કોધ ન કરે. (૨૮) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन. ५ उ. २ गा० २९-३० भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः छाया - स्त्रियं पुरुषं वाऽपि, डहरं वा महान्तम् । वन्दमानं न याचेत, नो च तं परुषं वदेत् ॥२९॥ = सान्वयार्थः - इथियं - स्त्री बावि = अथवा पुरिसं = पुरुष डहरं = छोटा बालक वा = या सहलगं= बड़ा - जुवान या बुड्ढा हो वंमाणं वन्दना करते हुएको न जाएज्जा = न जाँचे-उससे भिक्षा के लिए याचना न करे, ( और दूसरे समय याचना करने पर र्याद किसी कारण वश वह भिक्षा न दे तो ) णं = उस गृहस्थ के प्रति साधु फरुसं = कठोर वचन नो य = नहीं वए = बोले ॥२९॥ टीका- 'इथियं' इत्यादि । स्त्रियम् अपिवा पुरुषं डहरं = बालकं, 'देशीयोऽयं शब्दः' जन्मतः पञ्चदशवर्षे यावत्, वा = अथवा महान्तं तरुणं स्थविरं वा वन्दमानं वन्दनां कुर्वन्तं न याचेत-न- भिक्षेत | वन्दनप्रवृत्तस्य गृहस्थस्य याचनायां चित्तविक्षेपादिना वन्दनान्तरायः, चित्तवैरस्य प्रसङ्गश्च - ' कीदृशोऽयं कुक्षिम्भरिः साधुर्यद्वन्दनसमयेऽपि न धैर्य दधाति, भिक्षायामेव दत्तचित्तो रङ्कब' - दित्यादि । अन्यदा याचितेऽपि भक्तपानाद्यभावादददाने तं च गृहस्थं परुषं निष्ठुरवाक्यं न वदेत् मुनिरिति शेषः । यथा व्यर्थैव त्वद्वन्दनचेष्टा, नालं साधुतोषाय, केवलं किंशुककुसुमवद्धाहारमणीयतामात्रमाकलयसी' -त्यादि ॥ २९ ॥ २ ३ ५ ४ ८ मूलम् - जे न वंदे न स कुप्पे, वंदिओ न समुकसे । १० ४१७ ૧૧ एवमन्नेसमाणस्स, सामन्नमणुचिई ॥३०॥ 'इथियं' इत्यादि । स्त्री, बालक, युबक ( जुवान ) या वृद्ध, वन्दना कर रहा हो तो उस समय भिक्षाकी याचना नहीं करनी चाहिए । कोई वन्दना कर रहा हो और उससे याचना करे तो वन्दनामें अन्तराय पड़ती है, और गृहस्थके मनमें ऐसा विचार आता है कि देखो यह साधु कैसा पेटु (पेट भर ) है कि वन्दना करते समय भी धीरज नहीं धरता, रंकको तरह केवल भिक्षाकी चिन्ता कर रहा है अन्य समय याचना करने पर भी यदि गृहस्थ भिक्षा न दे तो कठोर वचन न बोले कि बस रहने दे, तेरी वन्दना वृथा है इससे साधुओंको सन्तोष नहीं हो सकता, तू टेसू ( पलाश के सूडा) के फूलकी नाई दिखावटी रमणीयता हैं (नम्रता ) धारण करता है इत्यादि ॥ २९ ॥ इत्थियं ० छत्याहि स्त्री, जाजड, लुवान या वृद्ध वना उरी रह्यां होय तो ते वयते તેમની પાસે ભિક્ષાની યાચના કરવી ન જોઇએ. કેઈ વંદના કરી રહ્યાં હોય અને તેમની પાસે યાચના કરવામાં આવે તે વંદનામાં અંતરાય પડે છે, અને ગૃહસ્થના મનમાં એવા વિચાર આવે છે કે જુએ, આ સાધુ કેવા પેટ ભરી છે કે વંદના કરતી વખતે પશુ ધીરજ ધરતા નથી, રકની પેઠે કેવળ ભિક્ષાની ચિંતા કરી રહ્યો છે.’ખીજા સમયે યાચના કશ્માં પણ જો ગૃહસ્થ ભિક્ષા ન આપે તે સાધુ કઠાર વચન ન ખાલે કે ખસ, રહેવા દે, તારી વંદના વૃથા છે, તેથી સાધુએને સતા નથી થઈ શકતા, તુ... કેસૂડાંના ફૂલની પેઠે દેખાડवानी रमाशीयता (नम्रता) धारण ४२नारे। छे,' इत्याहि. (२८) ५३ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिकसूत्रे छाया-यो न वन्दते न तस्य कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्ष येत् । एवमन्वेषमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥३०॥ सान्वयार्थः-जे-जो गृहस्थ न बंदे साधुको वन्दना न करे तो से उस पर न कुप्पे-क्रोध न करे (और) वंदिओ वन्दना किया हुआ न समुक्कसे गर्वित न होवे-धमंड न करे । एवं इस प्रकार अन्नेसमाणस्स-जिनशासनकी आराधना करनेवालेके सामन्नं= साधुपना-चारित्र अणुचिट्ठइ-आराधित स्थिर--होता है, अर्थात् मान अपमानमें समान रहनेवाले मुनिको ही सम्यक् प्रकारसे चारित्रकी आराधना होती है ॥३०॥ ____टीका-'जे' इत्यादि । यो गृहस्थः साधुं न वन्दते से = तस्य अवन्दमानस्य न कुप्येत = कीदृगयं बिवेकविकलः, यन्मामुपस्थितं साधुमवमन्यते' इति कृत्वा कोपावेशेन मनो विकृतं न विदध्यात् । वन्दितः= सार्वभौमादिनाऽपि नमस्कृतश्च न समुत्कर्ष येत आत्मनामिति शेषः, 'अहमेतादृशो माननीयो जगति, यदेवंविधा नरेन्द्रादयोऽपि मम चरणौ प्रणमन्ती'-त्याधभिमानं न कुर्यादित्यर्थः । एवम् = उक्तप्रकारेण अन्वेषमाणस्य जिनशासनमनुतिष्ठतः साधोः श्रामण्यं = साधुत्वं चारित्रमिति यावत् अनुतिष्ठति = स्थिरीभवति, मानापमानसमानमानसस्यैव साधोनिरतिचारचारित्रं सम्पद्यत इति भावः॥३०॥ स्वपक्षे चौर्य निषेधयति-'सिया' इत्यादि । मूलम्-सिया एगइओ लडुं विणिग्रहई । ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ । मामयं थाइयं संतं, दट्टणं सयमायए ॥३१॥ छाया- स्यात् एककः लब्ध्वा, लोभेन विनिगूहते । भमेदं दर्शितं सद् , दृष्ट्वा स्वयमाददीत ॥३१॥ 'जे' इत्यादि कोई वन्दना न करे तो उसे उसपर कुपित न होना चाहिए कि-यह कैसा अविवेकी है कि सामने उपस्थित साधुका अनादर करता है ?, तथा चक्रवर्ती आदि राजामहाराजा भी वन्दना करें तो आत्मप्रशंसा (घमंड) न करे की-मैं संसारमें ऐसा माननीय हूं कि ऐसे राजा महाराजा भी मेरे चरणों में गिरते हैं इस प्रकार जिन-शासनमें स्थित साधुका चारित्र स्थिर (दृढ़) रहता हैं, अर्थात् सत्कार और तिरस्कार होने पर अन्तःकरणमें विकार न करनेवाले अनगारका आचार निरतिचार पलता है ॥३०॥ जे. त्याहि. साधुने पहना न ४२ तो साधुसे तना ५२ कुपित नयध्ये કે “આ કે અવિવેકી છે કે સામે ઊભેલા સાધનો અનાદર કરે છે ? તથા ચક્રવતી આ દિ જા પણ વંદના કરે તે આત્મપ્રશંસા (ઘમંડ) ન કરે કે હું જગતમાં એવા માનનીય છું કે એવા રાજા મહારાજા પણ મારા ચરણમાં પડે છે. એ રીતે જિનશાસનમાં સ્થિત એવા સાધુનું ચારિત્ર સ્થિર (દઢ) રહે છે, અર્થાત્ સત્કાર અને તિરસ્કાર થતા પણ અંતઃકરણમાં વિકાર ન કરનારા અનગારને આચાર નિરતિચાર પણે પલે છે. (૩૦) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० ३१-३२ भिक्षाऽपह्नवनिषेधः तद्दोषाश्च अब स्वपक्ष-साधुपक्ष में चोरी का निषेध बताते है सान्वयार्थ:-सिया-कदाचित्-अगर एगइओ-जघन्यप्रकृतिवाला अकेला गोचरी गया हुआ साधु लद्धं-सरस अशनादि पाकर लोभेण खानेके लोभसे (उसे) विणिगूहइ-छिपा लेवे-नीरस वस्तुको ऊपर रखकर सरस वस्तुको उसके नीचे दवा रखे, क्योंकि मम-मेरी दाइयं संत-दिखलाई हुई एय-इस वस्तुको दणं सरस देखकर सयं-स्वयंआचार्य आदि खुद आयएलेले गे अर्थात् मुझे नहीं देंगे या थोड़ी देंगे ॥३१॥ टीका-स्यात् = कदाचित् एककः = कश्चिज्जघन्यप्रकृतिः साधुः लब्ध्वा = प्राप्य आहारादिकमिति शेषः लोभेन = उत्कृष्टसरसवस्तुलिप्सया विनिगूहते-संवृणुते-नीरसवस्तुजातमुपरि कृत्वोत्कृष्टरसवद्वस्तु समषहूनुते । अपह्नवे हेतुमाह-ममेदमुत्कृष्टं वस्तु 'दाइयं' = दर्शितं सत् दृष्ट्वा आचार्यादिः स्वयमेवाऽऽददीत - गृह्णीयात् , न मह्यं दास्यति अल्पं वा दास्यतीति भावः ॥३१॥ अपह्नवकरणस्य दोषमाह-'अत्तट्टा' इत्यादि। मूलम्-अत्तहागुरुओ लुद्धो, बहु पावं पकुव्वइ । १० ११ १२ १३ दुत्तोसओ य से होइ, निब्वाणं च न गच्छइ ॥३२॥ छाया--आत्मार्थगुरुको लुब्धः, बहुपापं प्रकुरुते । दुस्तोषकश्च स भवति, निर्वाणं च न गच्छति ॥३२॥ पूर्वोक्त आचरण करनेवाले साधु की क्या दशा होती है ? सो बताते हैं सान्वयार्थः-अत्तट्ठागुरुओ = अपने स्वार्थ साधनमें लगा हुआ लुद्धो = जिह्वाका लोलुपी से= वह साधु बहु = बहुत पावं = पाप पकुव्वई = करता है, य = और (इस भवमें) दुत्तोसओ = असन्तोषी होइ = बना रहता है, च = तथा निव्वाणं = मोक्षको न गच्छइ = नहीं पाता है, अर्थात् अनन्तसंसारी होकर चतुर्गतिमें भटकता है ॥३२॥ टीका-आत्मार्थगुरुकः = आत्मनः अर्थ = प्रयोजनमित्यात्मार्थः स एव गुरुः = स्वपक्षमें चौर्यका निषेध करते हैं 'सिया' इत्यादि । जो क्षुद्रप्रकृतिवाला साधु उत्कृष्ट सरस आहार प्राप्त करके इस विचार से उसे छिपा लेता है कि-मैं इसे दिखा दूंगा तो आचार्य आदि इसे ले लेगे-मुझे न देंगे अथवा थोडासा देंगे॥३१॥ अत्त द्वा, इत्यादि वह दूसरोंसे छिपाकर सरस आहार करनेवाला स्वार्थ साधनमें समर्थ साधु स्वपक्षमा योयना निषेध ४३ छ-सिया त्या જે ક્ષુદ્ર પ્રકૃતિવાળા સાધુ ઉત્કૃષ્ટ સરસ આહાર પ્રાપ્ત કરીને એવા વિચારથી એને છુપાવે ક-હું એને બતાવીશ તો આચાર્ય આદિ એ લઈ લેશે, મને નહીં આપે અથવા થડો જ साप' (१) સરદાર ઈયાદિ એ બીજાથી છુપાવીને સરસ આહાર કરનારે સ્વાર્થ સાધનમાં સમર્થ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोदशवकालिकसूत्रे प्रधानं यस्य स तथोक्तः स्वार्थसाधनसमर्थ इत्यर्थः, यद्वा आत्मार्थमेव गुरुः प्रधानं वस्तु यस्य च तथोक्तः अन्याऽलक्षितोत्कृष्टसरसवस्तुजाताऽऽस्वादकः अत एव लुब्धः = मनो. रमरसाभिलाषी सन् बहु-प्रचुरं पापम् = आत्ममालिन्यजनकं दुष्कर्म करोति = विधत्ते, स चाऽस्मिन् जन्मनि दुस्तोषकः = अन्तप्रान्ताद्याहारेण दुःसम्पादनीयतोष:-असन्तोषी भवति, निर्वाणं = मोक्षं च न गच्छति = नो पैति । 'अत्तहागुरुओ' इत्यनेन पुद्गलानन्दित्वं, 'लुद्धो' अनेन मायापरत्वं तस्करवृत्तित्वं, च प्रकटितम् , दुत्तोसओ' इत्यनेन चेप्सितवस्त्वप्राप्तौ सन्तोषाभावः सूचितः ॥३२॥ गुरुसमक्षापहारमुक्त्वा गुरुपरोक्षतोऽपहारकमाह-'सिया' इत्यादि । मूलम्-सिया एगइओ लेवु विवाहं पाण-भोयणं । ८ भदगं भदगं भोच्चा विविन्नं विरसमाहरे ॥३३॥ छाया- स्यात् एककः लब्ध्वा, विविधं पान-भोजनम् ।। भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा , विवणे विरसमाहरेत् ॥३३॥ सान्वयार्थः--एगइओ= अकेला पूर्वोक्त स्वभाववाला रसलोलुपी साधु गोचरी गया हुआ सिया = कदाचित्-कोई वख्त ऐसा भी करे कि विविहं = नाना प्रकारके पाणभोयणं = आहार-पानीको लधु = पाकर (उसमेंसे) भद्दगं-मदगं- अच्छे-अच्छे सरस आहारको भोच्चा = वहीं कहीं एकान्तमें खाकर विविन्नं = विकृत वर्णवाले बाल चने आदिका बना हुआ तुष आदि जिसमें बहुत हों ऐसे (तथा) विरसं = लवणादि रस सहित अशनादिको आहरे 3 उपाश्रयमें लावे ॥३३॥ टीका--स्यात् = कदाचित् एककः = कश्चित् रसलोलुपी विविधं पान-भोजनं लब्ध्वा भिक्षाचर्यायामेव यत्र-कुत्रचिदलक्षितप्रदेशे भद्रकं भद्रकम् = उत्कृष्टमुत्कृष्ट बहु मनोज्ञ रसका अभिलाषी होकर अत्यन्तपापकर्मका उपार्जन करता है । वह इस जन्ममें साधारण नीरस आहारसे कभी सन्तुष्ट नहीं होता न मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ___ 'अत्तद्वगुरुओ' इस पदसे पुद्गलानन्दीपन लुद्धो, पदसे मायाचारमें परायणता तथा तस्करवृत्ति (चोरी) और दुत्तोसओं, पदसे अभीष्ट वस्तु न मिलनेपर असन्तोष सूचित किया हैं ॥३२॥ गुरुसमक्षका अपहार कहकर अब गुरुके परोक्षका अपहार कहते हैं 'सिया' इत्यादि । સાધુ મનેઝ રસને અભિલાષી થઈને અત્યંત પાપકર્મનું ઉપાર્જન કરે છે. તે આ જન્મમાં સાધારણ નીરસ આહારથી કદાપિ સંતુષ્ટ ન થતાં મોક્ષને પ્રાપ્ત કરી શક્તો નથી, अत्तहागुरुओ मे ५४थी पुगताना , लुद्धो ५४थी मायायारमा ५२।यता तथा કરવૃત્તિ (ચૌર્યવૃત્તિ અને કુત્તોનો પદથી અભીષ્ટ વસ્તુ ન મળવાથી ઉપજતો અસંતોષ सूथित यो छ. (३२) २३ समक्षनी अ५७२ ४डीने वे शु३नी परीक्षने। अ५२ ४९ छ-सिया० ult. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा ३४-३५ भिक्षापहारे दोषाः विधान्नादिषु प्रशस्तं प्रशस्तमेव घृतपूराऽपूपादिकं भुक्त्वा विवर्ण-विकृतवर्ण वल्लचणकादिनिष्पन्नं तुषादिबहुलं विरसं-लवणादिरसवर्जितमन्नादिकम् आहरेत् आनयेत् वसताविति शेषः ॥३३॥ एवं करणे किं प्रयोजनम् ? इत्याह-'जाणतु' इत्यादि । मूलम्-जाणंतु ता इमे समणा आययट्ठी अयं मुणी ७ ११ १० संतुट्ठो सेवइ पंतं लूहवित्ती सुतोसओ ॥३४॥ छाया--जानन्तु तावत् इमे श्रमणाः आत्मार्थी अयं मुनिः । सन्तुष्टः सेवते प्रान्तं, रूक्षवृत्तिः सुतोषकः ॥३४॥ वह ऐसा क्यों करता है इसमें कारण कहते हैं-- सान्बयार्थः - ता-प्रथम इमे-ये-उपाश्रयमें रहे हुए दूसरे समणा साधु (मुझे इस प्रकार) जाणंतु-जाने कि अयं यह मुणी साधु आययट्टी-मोक्षार्थी-आत्मार्थी है, संतलो जैसा मिला उसीमें संतोष करनेवाला लूहवित्ती-सरस स्निग्धादि आहारकी अभिलाषारहित सुतोसओ-थोड़े आहारसे भो संतोषी है और पंतं-वासी कुसी तथा निस्सार अन्नादिका सेवई-सेवन करता है ॥ ३४॥ टीका-तावत्-निश्चयेन इमे-मानसप्रत्यक्षविषया; उपाश्रयस्थाः श्रमणाः साधवः अयं मुनिः आत्मार्थी आत्महितार्थी सन्तुष्टः यथालब्धसन्तोषी रूक्षवृत्तिः सरसाऽनभिकाङ्क्षी मुतोषक: अल्पेनापि परितोषशीलः प्रान्तं पर्युषितं निस्सारं वाऽनादिकं सेवते इति मां जानन्तु।।३४॥ कदाचित् कोई रसलोलुपी साधु विविध प्रकारका पान-भोजन पाकर अच्छा भोजन भिक्षाचरीमें ही किसी एकान्त स्थानमें खावे, और बाल चणक आदि अन्त-प्रान्त तथा विनानमक मसालेका ठंडा आहार उपाश्रयमें ले आवे ॥३३॥ ऐसा करने का प्रयोजन कहते हैं-'जाणंतु' इत्यादि । ये उपाश्रयमें स्थित साधु मुझे ऐसा समझें कि-'यह साधु आत्मार्थी है, जैसा मिला उसी सन्तोषी है, सरस आहारकी आकांक्षा नहीं करता, थोड़े ही आहारसे सन्तुष्ट हो जाता है और साररहित ठंढा अन्त-प्रान्त आहारका सेवन करता है' ॥३४॥ કદાચિત કોઈ રસલુપી સાધુ વિવિધ પ્રકારનાં પાન-ભેજન મેળવીને સારું સારૂ ભેજન ભિક્ષાચરીમાં જ કેઈ એકાંત સ્થાનમાં ખાઈ લે અને વાલ ચણા આદિ અંત-પ્રાંત તથા મીઠા મરચા વિનાને નીરસ ઠંડો આહીર ઉપાશ્રયમાં લઈ આવે (૩૩) मेम ४२वानु प्रयास ४ छे.-जाणंतु० ७त्यादि આ ઉપાશ્રયમાં રહેલા સાધુ મને એવો માને કે-“આ સાધુ આત્માથી છે, જે આહાર મળે તમાં સતેષ માનનારે છે, સરસ આહારની આકાંક્ષા કરતા નથી થોડા જ આહારથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिकस्त्रे किमर्थ स्वदोषगोपनमाचरती ? त्याह-'पूयणट्ठा' इत्यादि । मूलम्-पूयणट्ठा जसोकामी, माणसम्माणकामए । बहुं पसवई पावं, मायासल्लं च कुव्वइ ॥ ३५॥ छाया--पूजनार्थः यशःकामी, मानसम्मानकामुकः। बहु प्रसते पापं, मायाशल्यं च कुरुते ॥३५॥ उपर्युक्त साधु के दोष बताते हैं-- सान्लयार्थ:--पूयणट्ठा-वस्त्र-पात्रादिसे सत्कार चाहनेवाला जसोकामी अपने महत्व और प्रसिद्धिका इच्छुक माणसम्माणकामए-मान-सम्मानका अभिलाषी साधु बहुं= बहुत पावं-पाप मोहनीयादि-को पसबई-पैदा करता है, च=और मायासल्लं-कपटरूप भावशल्यको कुबइ-उत्पन्न करता है । तात्पर्य यह है कि-हृदयमें खुचे हुए बाणके अग्रभागरूप द्रव्य-शल्यकी तरह हृदयमें रहा हुआ यह मायारूप भाव-शल्य मनुष्यको,अनन्त दुस्सह दुःखोका कारणभूत चतुगेतिक संसारमें घूमाता हुआ अविचलशान्तिमय सुखसे वञ्चित कर देता है ॥ ३५॥ टीका--पूजनार्थः पूजनं वस्त्र पात्रा ऽन्न पानादिना सत्कारः स एवार्थः प्रयोजन यस्य स तथोक्तः प्रशस्तवस्तूपभोगार्थीत्यर्थः, अत एव यशःकामी-यश:-स्वमहत्त्वप्रसिद्धिस्तत्कामयते इच्छतोति 'अहो ! अयमेव सः' इत्येवं प्रशंसाबचनाभिलाषीत्यर्थः, मानसम्मानकामुकः-मानश्च सम्मानश्चेति मानसम्मानौ तयोः कामुक इति विग्रहः, तत्र मानः अभ्युत्थानादिलक्षण आदरः, सम्मानः = गुणोत्कीतनेन गौरवप्रकटनम् आदरगौरवाभिलाषुक इत्यर्थः । एवं कुर्वन् साधुः किं सम्पादयती? त्याह बहु-प्रभूतं पापं = दुष्कृत प्रसते = जनयति च = पुनः माया शल्यं = माया = शाठयेन मनोवाकायप्रवृत्तिः, सैव अपना दोष छिपाता क्यों है ? सो कहते हैं-'पूयणदा' इत्यादि ।। __ अच्छे-अच्छे वस्त्र पात्र अन्न पान आदिसे अपना सत्कार चाहनेवाला, प्रशस्त वस्तुओंके भोगका लोलुपी, 'अहो ! यह वहीं है। ऐसे यशका अभीलाषी मान (आनेपर खड़ा होजाना) तथा सम्मान (गुणगान द्वारा गौरव प्रकट करना) की इच्छावाला साधु बहुत पापोंको तथा कपटरूप मायाशल्यको उत्पन्न करता है । छातीमें चुभकर वहीं टूट जानेवाले द्रव्य-शल्य (तोरकी સંતુષ્ટ થઈ જાય છે, અને સારરહિત ઠંડા અંત-પ્રાંત આહારનું સેવન કરે છે, (૩) पोताना होष म छुपाव छ ? ते छ-पूयणट्टा त्याह સારાં-સારાં વસ્ત્ર પાત્ર અન્ન-પાન આદિથી પિતાને સત્કાર ચાહનાર, પ્રશસ્ત વસ્તુઓનાંભાગ લેલપી–અહો ! એ આ જ છે' એવા યશને અભિલાષી, માન (આવતાં જ ઉભા થઈ જવું)તથા સમ્માન (ગુણગાન દ્વારા ગૌરવ પ્રકટ કરવું) ની ઈચ્છાવાળો સાધુ ઘણાં પાપને તથા કપટરૂપ માયાશલ્યને ઉત્પન્ન કરે છે. છાતીમાં પેસીને ત્યાં જ તૂટી જનારા શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ०२ गा० ३६ मद्यपाननिषेधः शल्यं = शल्यते = वाध्यते पीडयते आत्माऽनेनेति विग्रहः, मायालक्षणं भावशस्यं कुरुते = उत्पादयति, हृदयनिखातत्रुटितबाणाग्ररूपद्रव्यशल्यवदिदं मायारूपं भावशल्य हृदयस्थितं सत् निरन्तराऽनन्त दुस्सहदुःखकारणीभवतू चतुगेतिकसंसारे भ्रामयत् अविचलशान्तिसुखाद दूरतरीकरोति तादृशं साधुमिति भावः ।। ३५ ।। मद्यपानप्रतिषेधमाह-'सुरं वा' इत्यादि। ५ ६ ७ ९ ८ १० ११ १२ मूलम्-सुरं वा, मेरगं वावि, अन्नं वा मज्जगं रसं । १३ १४ १५ १ ३ . ४ ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो ॥ ३६ ॥ छाया--मुरां वा मेरकं वाऽपि, अन्यद वा माधकं रसम् । ससाक्षि न पिबेद् भिक्षुः, यशः संरक्षन आत्मनः ॥ ३६ ॥ अब मधपान का दोष बताते हैं-- सान्वयार्थः - भिक्खू = साधु अप्पणो = अपने जसं = संयमको सारखं - बचाता हुआ सुरंगौड़ी माध्वी और पैष्टी, इन तीनों प्रकार की मदीराको या = 'या' शब्दसे अथवा बारहों प्रकार की मदिरा को वावि = तथा मेरगं = सरकेको अन्न वा और भी दूसरे प्रकारके मज्जग = मदजनक भंग गांजा अफीम चरस आदि मादक रसं = रस-द्रव्य को ससक्ख = केवली भगवानकी साक्षीसे अर्थात् उनका ज्ञान सर्वव्यापक होमेसे पकान्त में भी न पिबे= नहीं पिये ।। मदिराके बारह भेद इस प्रकार हैं-(१) महुआ (२) फणस (३) दाख, (४) खजूर, (५) ताड (ताडी), (६) गन्ना 3 सेरडी, (७) धावड़ीके फूल, (८) मक्खियोकी शहद (९) कैठ (कठोतो), (१०) मधु (अन्य प्रकारकी शहद), (११) नारियल, ओर (१२) पिष्ट (आटा), मदिरा इन बारह वस्तुओंसे बनती है ।। ३६॥ टीका--भिक्षुः आत्मन:- स्वस्य यशः-संयम संरक्षन् सुरां-मदिरा, सा च त्रिविधा-गोंडी, माध्वी, पैष्टी चे' ति । तत्र गोंडी = गुडनिष्पादिता, माध्यी-मधु(महुडा नोंक) की तरह हृदयमें स्थित मायारूप भावशल्य निरन्तर असीम व्यथाका कारण होता है, तथा चतुर्गति संसारमें इधर-उधर भटकता हुआ अविचल शान्तिमय सुखसे उस साधुको वञ्छित (अलग) कर देता है ॥३५॥ मद्य-पानक निषेध कहते हैं-'सुरं वा' इत्यादि । जो साधु अपने संयमकी रक्षा करना चाहते हैं उन्हें मदिरा या सिरका एकान्तमें भी દ્રવ્ય-શલ્ય (તારની અણ) ની પેઠે હૃદયમાં રહેલું માયારૂપ ભાવ-શલ્ય નિરંતર અસીમ વ્યથાનું કારણ બને છે, તથા ચતુગતિ સંસારમાં અહીં-તહીં ભટકતાં અવિચલ શાન્તિમય सुभथी से सांधुन यत (२त) ४३१ नाणे छे. (३५) भयपान निषेध -सुर वाया જે સાધુ પિતાના સંયમની રક્ષા કરવા ઈચ્છે છે, તેણે મદિરા યા સરકે એકાતમાં પણ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરદ श्रीदशवैकालिकसूत्रे संपादिता, पैष्टी ब्रीद्यादिपिष्टनिवृत्तेति । यद्वा 'पिटेण सुरा होइ' इति वचनाद् बीयादिपिष्टनिवृत्तैब मुरेत्युच्यते । चन्द्रहासाभिधं मद्यमिति वा । मेरकं = सरकानामधेयं मघम् । अन्यद्वा माधकं = मदजनकं रसम् । मादकत्वेन द्वादशविधमद्यस्य तदितरस्य विजयादेश्च सर्वस्य संग्रहः, तदुक्तमितरत्र मदहेतुद्रवद्र्व्यं मद्यमित्यभिधीयते' इति द्वादशविधमधानि यथा-- "माध्वीकं पानसं द्राक्षे, खारं तालमैक्षवम् । मैरेयं माक्षिकं टाडू, माधुकं नारिकेलजम् ॥१॥ मुख्यमन्नविकारोत्थं, मद्यानि द्वादशैव च ।" इति । एतत्सर्वं मुरादिकं ससाक्षि न पिबेत् , सा भिः केवल्यादिभिः सहेति ससाक्षि कदापि न पीना चाहिए । मदिरा तीन प्रकारको है (१) गौड़ी (२) माध्वी और (३) पैष्टी । गुड़से बनाई हुई गौडी, महुआसे बनाई हुई माध्वी तथा धान्य आदिके पिष्ट (आटे) से बनाई पैष्टी कहलाती है । 'पिटेण सुरा होइ' इस वचनसे यहि जान पडता है कि-धान्य आदिके आटेसे मदिरा बनती है । अथवा पैष्टी मदिरा' चन्द्रहास' नामकी मदिरा समझनी चाहिए । इनके सिवाय भंग गाँजे आदि और कोई भी नशैली वस्तुका साधुको सेवन नहीं करना चाहिए जैसा कि कहा है-'मदके कारण-स्वरूप पिघले हुए पदार्थको मद्य कहते हैं ।' मद्य बारह प्रकारके समझने चाहिएँ वे ये हैं-- "(१) महुआका, (२) पनस IT, )३) दाखका, (४) खजूरका, (५) ताड़का (ताड़ी), (६) सठिका, (७) मैरेय-धौ-धावड़ीके फूलका, (८) (माक्षिक मक्खियों की शहद) का, (९) टंक (कवीठ-कैथ) का, (१०) मधुका, (११) नारियलका और (१२) पिष्ट (आटे) का बना हुआ मद्य । ये मद्यके मुख्य मेद बारह हैं।" हाल पावन नय. महिश व प्रा२नी छ, (१) जोडी, (२) भावी, () पेष्टी. गाण. માંથી બનાવેલી ગૌડી, મડડાંમાંથી બનાવેલી માધ્વી, તથા ધાન્ય આદિના પિષ્ટ (આટા) માંથી मनावती पैटी उपाय छे. पिटेण सुरा होइ मे क्यनथी म मासुम ५ छ ?-धान्य આદિના આટાથી મદિરા બને છે. અથવા પૈછી મદિરા “ચંદ્રહાસ” નામની મદિરા સમજવી જોઈએ. તે ઉપરાંત ભાંગ, ગાજે, બીજી–બીજી કોઈ પણ કેફી વસ્તુનું સેવન સાધુ ન કર भो छ “મદના કારણું સ્વરૂપ પીગળેલા પદાર્થને મદ્ય કહે છે મઘ બાર પ્રકારના સમજવા, તે नाथ भुस "(१) माना, (२) सना, (3) द्राक्षने। (४) मरना (५) तान (asa), (6) २२ीना, (७) भरेय-थापडीनiसनी, ८) मा .मधनी, (6) ८४ (81) ना; (१०) मधुनी, (११) नारियोजना, मने (१२) पिट (421) नो मने भव. सेम भयना अभ्य लार छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० ३७-३८ मद्यपायिनो दोषप्रकटनम् heerदीनां साक्षित्वं कदापि क्वचिदपि प्रतिरोद्धमशक्यं तेषां सर्वज्ञत्वात्सर्वदर्शित्वाच्च, de एकान्तेऽपि न पिबेदित्यर्थः ॥ ३६ ॥ २ १ ३ ४ ५ ६ - पियए एगओ तेणो न मे कोई वियाणड़ | मूलम् - ८ १० ९ १२ ११ १४ १३ तस्स परसह दोसाई नियडिं च सुणह मे ॥ ३७॥ ४२५ छाया -- पिवती एककः स्तेनः, न मे कोऽपि विजानाति । तस्य पश्यत दोषान् निकृतिं च श्रृणुत मे ॥ ३७ ॥ " सान्वयार्थ :- तेणो- जो भगवानकी आज्ञाके विना ग्रहण करनेवाला होनेके कारण चोर साधु एगओ = अकेला, एकान्तमें रहा हुआ अर्थात् अपने सहचर धर्मको भी छोड़ा हुआ 'मे= मेरे इस मदिरापान - को या मुझे कोई-कोईभी न वियाणइ नहीं जानता है' (ऐसा समझ कर ) पियए = मदिरा पीता है, तस्स उस साधुके दोसाई -संयममें मलिनता पैदा करनेवाले दोषोंको परसह = देखो, च = और नियडिं - एक कपटको छिपाने के लिए किये जानेवाले दूसरे कपटको मे मेरे से सुनेह= सुनो ॥ ३७॥ टीका- 'पिय' इत्यादि । यः स्तेनः तीर्थङ्करानादिष्टत्वेनाऽदत्ताऽऽदायित्वाच्चौरः एककः=एकान्तस्थितः आत्मसहचरं धर्ममपि विहाय वत्तमानः सन् 'न मे न मां, न मम सुरादिपानं वा कोsपि विजानाति' इति मत्वा पिबति - गल-बिलाघः संयोगानुकूलव्यापारविषयं करोति सुरादिकमिति शेषः, तस्य द्रव्यलिङ्गिनः साधोः दोषान् संयममालिन्यकारिचेष्टाविशेषान् पश्यत - ज्ञानविषयीकुरुत, च = पुनः निकृतिं = पूर्वकृतकपटावरणाय कपटान्त इन सबको केवली भगवानकी साक्षीसे न पिये । केबली भगवानकी साक्षी कभी कहीं नहीं रुक सकती, क्योंकि वे सर्वदर्शी हैं, अतः तात्पर्य यह हुआ कि ऐकान्तमें भी मद्य न पिये ॥ ३६ ॥ ‘पियए' इत्यादि । हे शिष्य ! भगवान् तीर्थङ्करकी आज्ञाके विना ग्रहण कहनेवाला, अत एव चोर, आत्मा के सहचर धर्मको भी त्याग कर एकान्तमें स्थित होकर ऐसा समझता है कि'मुझे या मेरे मदिरा-पानको कोई नहीं जानता' ऐसा जानकर मदिरा पान करता है, उस द्रव्यलिंगी साधुके संयमको दूषित करनेवाली चेष्टा कों (दोषों) को तो देखो ! एक तो मदिरापानका એ બધાને કેવળી ભગવાનની સાક્ષીએ પીએ નિહ. કેવલી ભગવાનની સાક્ષી કદાપિ ક્યાંય શાકાતી નથી, કારણ કે તે સદંશી છે, એટલે તાપય એ છે કે એકાંતમાં પણ મદ્ય पीपा नहि. (३६) વિપ॰ ઈત્યાદિ. હે શિષ્ય ! ભગવાન્ તીથંકરની આજ્ઞા વિના ગ્રતુણુ કરનાર એટલે ચાર, આત્માના સહુચર ધમ ને પણ ત્યાગીને એકાંતમાં સ્થિત વઈ ને એમ સમજે છે કે મારા આ મદિરાપાનને કાઇ જાણતુ નથી એમ સમજીને જે મદિરાપાન્ કરે છે તે દ્રશ્યલિંગી સાધુના સંયમને દૂષિત કરનારી ચેષ્ટાઓ (ટોષો) ને તે જુએ ! એક તા મદિરાપાનને માયાચાર, વળી તેને છુપાવવા માટે પીજા અનેક માયાચાર અને મૃષાવાદ આદિનું ५४ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ श्रीदशवैकालिकसूत्रे रकरणलक्षणां मायां, प्रथमकपटं सुरापानं, द्वितीयमनृतभाषणेन तत्संगोपनमिति भावः मे -मम निरूपयतः सकशात् शृणुत-श्रवणगोचरीकुरुत । गुरुः शिष्यानामन्त्र्य कथयतीति भावः ॥३७॥ पूर्वप्रतिज्ञातदोषानुपदर्शयति-'वढई' इत्यादि। मूलम् चड्डई सुंडिया तस्स माया मोसं च भिक्खुणो । ८ १० . ३. ११ १२ अयसो य अनिव्वाणं सययं च असाहुया ।३८ । छाया- वर्द्धते शौण्डिका तस्य, माया मृषा च भिक्षोः । ___ अयशश्च अनिर्वाणं, सततं च असाधुता ॥३८॥ सान्वयाथैः-तस्स-उस मदिरा पीनेवाले भिक्खुणो साधुकी सुंडिया = मद्यपान संबन्धी आसक्ति माया = कपट च = और मोसं झूठ अयसो अपकीर्ति य = तथा अनिध्वाणं - अतृप्ति, ये सब दोष सययं = निरन्तरवड्ढइ = वढते रहते हैं च और (आखिर उसके) असाहया-असाधुता हो जाती हैं, अर्थात वह असाधुपनको प्राप्त हो जाता है, यानी चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है ॥३८॥ टीका-तस्य सुरापायिनः भिक्षोः साधोः सततं-निरन्तरं शौण्डिका-मद्यपानविषयासक्तिः, च= पुनः, माया-निकृतिः, मृषा - असत्यभाषणम्, यद्वा 'माया मोसं, इत्येकं पदं तेन मायया सह मृषा मायामृषा-परप्रतारणपूर्वकमसत्यभाषणमित्यर्थः, च = पुनः अयशः = असवृत्तत्वेनाऽपकीर्तिः, अनिर्वाणम् = अनुपशान्तिरतृप्तिः उत्तरोत्तरस्पृहावर्द्धनात् च = तथा असाधुता = असंयतत्वं साधूचिताचारराहित्येन साधुपदाऽनहत्वमित्यर्थः, मायाचार, फिर उसे छुपानेके लिए दूसरे अनेक माया चार और मृषावाद आदिका सेवन किया जाता है सो मुझसे सुनो, अर्थात् गुरुमहाराज शिष्यको आमन्त्रित करके कथन करते हैं ॥३७॥ पूर्वप्रतिज्ञात दोष कहते हैं-'वड्ढई' इत्यादि । मदिरापान करनेवाला साधु सदा मदिरा पीनेमें ही मग्न रहता है । वह मायाचार करता है, मृषा बोलता है, अथवा कपट-सहित झूठ बोलता है । दुराचारी होनेके कारण उसकी अपकीर्ति फैल जाती है । उसको लोलुपता अधिकाधिक बढती चली जाती है-उसे कभी तृप्ति नहीं होती। तथा मुनिके योग्य आचरणसे होन होनेके कारक वह साधु कहलाने योग्य नहीं रहता, સેવન કરવામાં આવે છે તે મારી પાસેથી સાંભળી–અર્થાત્ ગુરૂ મહારાજ શિષ્યને આમંત્રિત प्रशने थन ४रे छे. (३७) । ५ प्रतिज्ञात होप) ४ छ-वडढइ पत्या. મદિરાપાન કરનાર સાધુ સદા મદિરા પીવામાં જ મગ્ન રહે છે તે માયાચાર કરે છે મૃષા બે અથવા ૫ટસહિત જૂઠું બેલે છે. દુરાચારી હોવાને કારણે તેની અપકીર્તિ ફેલાઈ જાય છે, એની લેલુપતા અધિકાધિક વધતી જાય છે, તેથી કદાપિ તૃપ્તિ થતી. નથી-મુનીને શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० ३९-मद्यपायिनोदोषप्रकटनम् वर्द्ध ते = वृद्धिं गच्छति । - 'मुंडिया' इत्यनेन मधपायिनो मद्यासक्तिरपरिहार्या भवतीति सूचितम् । मद्यासक्ती सत्यां माया मृषा च कदापि तं न विजहाति मायामृषावृद्धौ स्वपरपक्षे निन्दाऽवश्यम्भाविनी निन्दायामपि सत्या मद्यपानासक्तस्याऽनिर्वृतिः साहचर्य न मुञ्चति, तथा सति सर्वथा साधुपदानधिकारित्वमुपजायतेऽतः सर्वानर्थमूलं मद्यपानमिति बोध्यम् ॥ ३८ ॥ उक्तमेवार्थ प्रकारान्तरेण द्रढयति-'निच्चुम्विग्गो' इत्यादि । मूलम्-निचुब्बिग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। तारिसो मरणंतेऽपि, नाराहेइ संवरी॥३९॥ छाया--नित्योद्विग्नः यथा स्तेनः, आत्मकर्मभिर्दुर्मतिः। तादृशः मरणान्तेऽपि, न आराधयति संवरम् ॥ ३९ ॥ सान्वयार्थ-जहा = जिस प्रकार तेणो = चोर अत्तकम्मेहिं = अपने किये हुए दुश्चरित्रोंसे निच्चुग्विग्गो= हमेशा व्याकुल बना रहता है, उसी तरह तारिसो= मदिरा पीनेवाला वह दुम्मई = दुर्बुद्धि साधु भी नित्य उद्विग्न बना रहता है, फिर वह मरणंतेवि = मरण समय तक भी संवरं-संवरधर्म चारित्रको नाराहेइ = नहीं आराध सकता है, अर्थात् वह साधु जिन्दगीभर चारित्रसे वञ्चित रहता है ॥ ३९ ॥ __टीका-यथा स्तेनः = तस्करः आत्मकर्मभिः = स्वकीयदुश्चरितः नित्योद्विग्नः = अतः उसकी असाधुता बढ़ती है । 'सुंडिया' पदसे यह सूचित किया है कि शराबीको शराब पीनेकी आदत छुटनी कठिन होती है । मदिरामें आसक्ति होने पर माया-मृषा मदिरापायोका काना-पीछा नहीं छोड़ती, अर्थात् वह माया-मृषा दोषोंमें तत्पर रहता है। माया और मृषाकी वृद्धि होनेपर स्वपक्ष परपक्षमें निश्चय हो निन्दा होती है और निन्दा होनेपर भी मदिरा पानमें मस्त होकर मदिरा-पान नहीं त्यागता । ऐसी अवस्थामें वह साधु कहलाने योग्य बिलकुल ही नहीं रहता ॥३८॥ इसी विषयको दूसरी तरहसे कहते हैं-'निच्चुम्बिग्गो' इत्यादि । ચિગ્ય આચરણથી હીન હોવાને કારણે એ સાધુ કહેવાવાને યોગ્ય નથી રહેતું, એટલે એનિ અસાધુતા વધે છે. 'सुडिया' शम्४थी मेम सूयित युछ शराभीनी शराम पापानी माहत यूवी કઠિન હોય છે. મદિરામાં આસક્તિ થતાં માયામૃષા મદિરાપાન કરનારનો પીછો છોડતી નથી, અર્થાત્ એ માયા-મૃષા દોષોમાં તત્પર રહે છે. માયા અને મૃષાની વૃદ્ધિ થતાં સ્વ-પક્ષ પર પક્ષમાં જરૂર નિંદા થાય છે, અને નિંદા થવા છતાં પણ મંદિરો૫ નમાં મસ્ત થઈ મદિરાપાન ત્યાગતો નથી, એવી અવસ્થામાં તે જરાએ સાધુ કહેવાવાને ગ્ય રહેતું નથી. से विषयने भी शते ४ छ-निच्चुब्बिग्गो० प्रत्याहि. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ___ श्रीदशकालिकसूत्रे सदा व्याकुल: चित्तोपशान्तिरहितो भवति, तादृशः - स्तेनसदृशः, यथा चौरः-'मदीयमिदं दुश्चरितं कोऽपि मा विद्यात् , अन्यथा राजगृहीतस्य मम प्राणाद्यपहारो भवे' दिति चिन्तया कदाचिदपि चेतसि नोपशान्ति गच्छति, तथा मद्यसेवी साधुरपि स्वकीये दुश्चरिते प्रकटिते सति पूजाप्रतिष्ठादिप्रतिघातशङ्कया स्वकृत दुष्कृतसंगोपनाय नवनवमायामपाकल्पितवचनरचनादिनानाप्रकारकोपायमनुसंदधानो न जातु संयमसमाधिमधिगच्छतीति भावः । दुर्मतिः विपर्यस्तबुद्धिः साधुः, मरणान्तेऽपि मरणावधिसमयेऽपि संवरं सर्वसावद्यविरतिलक्षणं चारित्रं कदापि नाराधयति-न निप्पादयति, चरित्रसाधकशुद्धपरिणामाभावात् । 'निच्चुम्विग्गो' इत्यनेन पापात्मनां नित्यशङ्कितत्वं सूचितम् । 'दुम्मई' पदेन व्यसनिनां मतिमालिन्यमवश्यम्भावीत्याविष्कृतम् ॥ ३९ ॥ जैसे चोर अपने कुकर्मो के कारण सदा व्याकुल बना रहता है अर्थात् उसे सदा यही भय बना रहता है कि मेरे कुकर्मको कोई जान न ले, नहीं तो राजा मुझे पकड़ लेगा और प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा । इस प्रकारको चिन्तासे चोरके चित्तमें सदा धुक-धुकी (स्वव-बली) मची रहती है । उसी प्रकार मदिरा-पान करनेवाले मुनिके मनमें हमेशा असमाधिरहती है कि कहीं मेरा मदिरा पानका दुराचार प्रगट न हो जाय, नहीं तो मान सम्मान सब मिट जायगा । इस प्रकारकी आशंकासे वह अपने किये हुए दुराचारको छिपानेके लिए मायाचार और असत्य आदि के नये-नये उपाय सोचा करता है। उसकी संयम सम्बन्धी समाधि किसी प्रकार भी नहीं रहती। ऐसा दुर्बुद्धि साधु मृत्युकी अवधिके समय भी सर्वसावद्ययोगके त्यागरूप संवर की आराधना नहीं करता, क्योंकि उसके वैसे विशुद्ध भाव नहीं होते। ‘णिच्चुम्विग्गो' इससे ऐसा सूचित किया है कि पापी सदा सशंक रहता है । 'दुम्मई' पद से यह प्रगट किया है कि कुव्यसनोकी मतिमें मलिनता अवश्य आजाती है ॥ ३९॥ જેમાર પિતાના કુકમને કારણે સદા વ્યાકુળ રહ્યા કરે છે, અર્થાત તેને સદા એવો ભય રહે છે કે મારાં કુકર્મને કોઈ જાણ ન લે, નહિ તે રાજા મને પકડી લેશે અને પ્રાણ ગુમાવવા પડશે એ પ્રકારની ચિંતાથી ચેરના ચિત્તમાં સદા ખળભળાટ મચ્યા કરે છે એજ રીતે મદિરાપાન કરનાર મુનિના મનમાં હમેશાં અસમાધિ રહે છે કે--કયાંક મારો મદિરાપનને દુરાચાર પ્રકટ ન થઈ જાય, નહિ તે સન્માન બધું નાશ પામશે. એ પ્રકારની આશંકાથી તે પિતાના દુરાચારને છુપાવવાને માયાચાર અને અસત્ય આદિના નવા નવા ઉપાયે વિચાર્યા કરે છે. એની સંયમ સંબંધી સમાધિ કઈ પ્રકારે રહેતી નથી. એ બુદ્ધિ સાધુ મૃત્યુની અવધિના સમયે પણ સર્વસાવદ્યોગના ત્યાગરૂપ સંવરની આરાધના કરતો નથી, કારણ કે તેના એવા વિશુદ્ધ ભાવ થતા નથી. निच्चुधिग्गो श५४थी मेम सूथित ४२वामा मा०यु छ ? पापा सह। सश'४ २९ छे. કુમકું શબ્દથી એમ પ્રકટ કર્યું છે કે દુર્વ્યસનીની મતિમાં મલિનતા અવશ્ય આવે છે (૩૯) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० ४०-४१ मद्यपायिनोषप्रकटनम् १२९ मूलम्-आयरिए नारा हेइ समणे आवि तारिसो । गिहत्था विणं गरिहंति, जेण जाणंति तारिस ॥४०|| छाया-आचार्यान् नाराधर्यात, श्रमणाश्चापि तादृशः। गृहस्था अपि तं गर्हन्ते, येन जानन्ति तादृशम् ॥ ४० ॥ सान्वयार्थ:--तारितो-ऊस पूर्वोक्त प्रकारका दुराचारि साधु आयरिए रत्नाधिकों को अवि य=तथा समणे-साधुओंको भी नाराहेइ-विनय वैगावच्च आदि से नहीं आराध सकता है, जेण-जिस कारणसे गिहत्था वि-गृहस्थ भी णं-उसे तारिसं उस प्रकार का अर्थात् मध पीनेवाला जाणति-जानलेते हैं अतः वे उसकी) गरिहंति-निन्दा करते है॥४०॥ टीका--'आयरिए' इत्यादि । तादृशः पुरोदीरितदुराचारशीलः साधुः आचार्यान् अपिच श्रमणान्नत्नाधिकान् साधून ना राधयति कलुषितान्तः करणत्वादिति भावः येन हेतुनागृहस्था अपि तादृशं तथाविधं दुराचारिणं जानन्ति तेन हेतुना णं तं साधु गर्हन्ते निन्दन्ति, स सकलजननिन्दनीयो भवतीति सूत्रार्थः॥ ४० ॥ अकृत्यसेविदोषानुपसंहरनाह-एवं तु' इत्यादि। मूलम्-एवं तु अगुणप्पेही गुणाणं च विवज्जए । तारिसो मरणंतेवि, नाराहेइ संवरं ॥४१॥ छाया- एवं तु अगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्जकः। तादृशः मरणान्तेऽपि, नाराधयति सवरम् ॥४१॥ सान्ययार्थ:-- एवं तु इस प्रकार अगुणप्पेही-प्रमादादि दोषोंको ग्रहण करनेवाला च-और गुणाणं-ज्ञानादि गुणोंका विवज्जए त्यागी तारिसो-उस प्रकारका साधु मरणंतेवि-मरणकालमें भी संवरं-संवर चारित्र की नाराहेइ = आराधना नहीं कर सकता।४१ टीका-एवम् = उक्तरीत्या तु अगुण प्रेक्षी = दोषदर्शी प्रमादादिदोषनिरत इत्यर्थः 'पायरिए' इत्पादि । ऐसा दुराचारी साधु आचार्य तथा रत्नाधिक श्रमणकी भी आराधना नहीं करता, क्योंकि उसका अन्तःकरण कलुषित हो जाता है, जिससे कि गृहस्थ भी उस साधुको पहचान लेते हैं और उसकी निन्दा करते हैं । तात्पर्य यह है कि ऐसा साधु सक्का निन्दनीय बन जाता है ॥ ४० ॥ ‘एवं तु' इत्यादि । प्रमाद आदि दोषोंमें लीन, सम्यग्ज्ञान-दर्शनचारित्र तथा क्षान्ति gfcs ઈત્યાદિ. એ દુરાચારી સાધુ આચાર્ય તથા રતનાધિક શ્રમણની પણ આરાધના કરતું નથી, કારણ કે એનું અંતઃકરણ કલુષિત થઈ જાય છે, જેથી ગૃહસ્થ પણ આ સાધુને પિછાણી લે છે અને એની નિંદા કરે છે તાત્પર્ય એ છે કે એ સાધુ સૌને નિંદनीय नी गाय छे. (४०) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० श्रीदशवेकालिकसूत्रे गुणानां च = ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां क्षान्त्यादीनां वा विवर्जकः = परित्याजकः गुणाSorrधक इत्यर्थः तादृशो मरणान्तेऽपि संवरं नाराधयतीति व्याख्यातपूर्व सुगमं चेति ४१ पूर्वोक्तदोषपरित्यागिनो गुणानाह 'तवं' इत्यादि । ५ ६ ३ ७ ९ मूलम् - तवं कुव्वइ मेहावी, पणीयं वज्जए रसं । २ १ ४ मज्जपमायविरओ तपस्सी अइउकसो || ४२ ॥ छाया - तपः कुरुते मेधावी, प्रणीतं वर्जयति रसम् । मद्यप्रमादविरतः, तपस्वी अत्युत्कर्षः || ४२ ॥ " सान्वयार्थः - मज्जप्पमायविरओ जो मद्य और प्रमादसे रहित तवस्सी - तपस्वी साधु मेहावी = आगमोक्त मर्यादामें चलनेवाला अइउक्कसो= घमंड नहीं करता हुआ तवं = तपस्या कुम्बइ = करता है, (और) पणीयं = स्निग्ध रसं = रसवाले पदार्थ घी दूध घेवर आदिको वज्जए = त्यागता है ॥ ४२ ॥ टीका - यः तपस्वी = साधुः मद्यप्रमादविरतः = मादयती = विवेकविकलीकरोत्यात्मानमिति मद्यं = मादक द्रव्यं तदेव प्रमादजनकत्वात्प्रमाद इति मद्यप्रमादस्तस्माद्विरतस्तस्माद्विरतस्तद्वर्जक इत्यर्थः, मेधावी = आगमोक्त विध्यनुस्मरणशीलः संयममर्यादाऽवस्थित इत्यर्थः, अत्युत्कर्षः = उत्कर्षः = अहं तपस्वी' त्याद्यभिमानस्तमतिक्रम्य = उल्लवय = परित्यज्य वर्त्तते इति अत्युत्कर्षः तपःप्रधानगुणाभिमानशून्यः सन् तपः = = चतुर्थभक्तादिकं करोति पुनरपि प्रणीतं = गलत्स्नेहबिन्दुकं गूढस्नेहं वा भोज्यं, स्नेहावगाढं कृशरादि, गूढस्नेहं घृतपूरादिकं रसं = घृतदुग्धादिकं वर्जयति = परित्यजति ॥४२॥ आदि गुणोंका त्याग करनेवाला ऐसा साधु मृत्यु समय भी संवरकी आराधना नहीं करता ॥४१ पूर्वोक्त दोषोंके त्यागीके गुण कहते हैं - 'तवं' इत्यादि । जो तपस्वी साधु आत्माको विवेक-बिकल बनानेवाले शराब से विरत रहते हैं, प्रवचन प्रतिपादित संयम-मर्यादामें स्थित हैं, 'संबसे बड़ा तपस्वी मैं हो हूँ ऐसा तपका दर्प (अभिमान) नहीं करते हुए चतुर्थ भक्त आदि तप करते हैं, तथा घेवर आदि प्रणोत भोजनको और घो- दूध आदि पुष्टिकर रसों को त्याग देते हैं ॥ ४२ ॥ एवं तु इत्यादि प्रभाह याहि होषोभां झीन, सम्यग् दर्शन-यास्त्रि तथा क्षान्ति याहि ગુણાને ત્યાગ કરનાર એવે સાધુ મૃત્યુ સમયે પણ સવરની આરાધના કરતા નથી. (૪૧) પૂર્વક્તિ દાષોના ત્યાગીના ગુણ કહૈં છે સż૦ ઇત્યાદિ. જે તપસ્વી સાધુ આત્માને વિવેકવિકળ બનાવનાર શરામથી વિરત રહે છે, તે પ્રવચન પ્રતિપાદિત સયમમર્યાદામાં સ્થિત રહે છે, સૌથી મેટ। તપસ્વી હું છું' એવા તપના દ (અભિમાન) ન કરતાં ચતુભક્ત આદિ તપ કરે છે, તથા ઘેવર આદિ પ્રણીત લેાજનને અને घी-दूध याहि पुष्टिभर रसाने त्यागे थे. (४२) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० २ गा० मधादिविरतस्य गुणप्रकटनम् ४३१ मूलम्-तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइयं । विउलं अस्थसंजुत्तं कित्तइस्स. सुणेह मे ॥४३।। छाया-तस्य पश्यत कल्याणम् , अनेकसाधुपूजितम् । विपुलार्थसंयुक्तं, कीर्तयिष्यामि शृणुत मे ॥४३॥ ___ सान्वयार्थः-तस्स-उस साधुके अणेगसाहुपूइयं अनेक मुनियों के वन्दनीय विउलं मुक्ति पदका साधक होनेसे महान् अत्थसंजुत्त = मोक्षरूप अर्थ-प्रयोजनसे युक्त ऐसे कल्लाणं = कल्याण-संयम को पस्सह = देखो, (और मैं उसके गुणोंका) कित्तइस्सं = वर्णन करूंगा, (तुम) मे = मुझसे सुणेह = सुनो ॥४३॥ टीका - 'तस्स इत्यादि । तस्य = उक्त गुणवतः साधोः अनेकसाधुपूजितं = मुनि वृन्दचन्दितं विपुलं = महत मुक्तिपदसाधकत्वात् , अर्थसंयुक्तम् = अर्थः = मुमुक्षणां प्रयोजनं मोक्षलक्षणं तेन संयुक्तं-संवलितं तत्फलदातृत्वात् , कल्याणं = नितान्तसुखावहत्वासंयमं पश्यत अवलोकयत भो शिष्याः ! इति शेषः । कीर्तयिष्यामि = तद्गुणान् वर्णयिष्यामि मे = मम सकाशात् शृणुत = आकणेयत ॥४३॥ मूलम्-एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्जए । तारिसा मरणतेवि, आराहेइ संवरं ॥४४॥ छाया-एवं तु गुणप्रेक्षी, अगुणानां च विवर्जकः । __ तादृशः मरणान्तेऽपि आराधयति संवरम् ॥४४॥ सान्वयार्थ:-एवं तु इस प्रकार गुणप्पेही = ज्ञानादि गुणोंके ग्रहण करने में तत्पर च-और अगुणाणं % प्रमादादि दोषों का विवज्जय = त्यागी तारिसो= इस प्रकारका साधु मरणंतेषि = मरणान्त समयमें अवश्य, अथवा मरणान्त कष्ट पड़नेपर भी संवरं = चारित्रको आराहेइ = आराधता है-नहीं छोड़ता है ॥४४॥ टीका--'एवं तु' इत्यादि । एवं तु गुणप्रेक्षी=गुणदर्शी ज्ञानादिगुणोपार्जदत्तचित्त 'तस्म' इत्यादि । हे शिष्य ! उस उक्तगुणविशिष्ट साधुके अनेक-मुनि-समूहसे प्रशंसित, मुक्ति पद का साधक होनेसे महान् मोक्षरूपी अर्थसे युक्त अनन्त सुखदाता कल्याण अर्थात् संयमको देखो । मैं उसके गुणों का वर्णन करूंगा, तुम मुझसे सुनो । ४३ ॥ ‘एवं तु' इत्यादि । इस प्रकार ज्ञानादि-गुणोंके उपार्जनमें लीन, प्रमाद आदि अवगुणोंके तस्स. त्या शिष्य ! 6तगुण विशिष्ट येषा साधुना १२४-मुनि-सभूडया प्रयः સિત, મુક્તિપદને સાધક થવાથી મહાન , મોક્ષરૂપી અર્થ થી યુક્ત, અનંતસુખદાતા કલ્યાણ मर्थात् सयभने gi. ई सेना गुणेन पणन शश, ते तमे सामी. (४३). एवं तु. छत्या. ते ज्ञानादि-गुना पानमा बीन, अमाह माह RAY શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ श्रीदरावैकालिकसूत्रे इत्यर्थः अगुणानां च = प्रमादादिदोषानां विवर्जकः = परित्यजनशीलः तादृशः तथाविधःसाधुर्मरणान्ते मरणसमये अपि = निश्चयेन संवरं = चारित्रम् आराधयति सेवते । यद्वा-मरणा न्तेऽपि मरणसमक्लेशोपस्थितावपि संवरमाराधयति न परित्यजतीत्यर्थः ॥ ४४ ॥ ४ २ ५ ३ १ मूलम् - आयरिए आराहेइ, समणे यावितारिता । ७ ९ १२ ६ ११ गिहत्था वि णं प्रयंति, जेण जाणंति तारिस ||४५|| छाया - आचार्यान् आराधयति, श्रमणान् अपि च तादृशः । गृहस्था अपि तं पूजयन्ति येन जानन्ति तादृशम् ॥४५॥ सान्वयार्थ :- तारिसो= पूर्वोक्त गुणवाला साधु आयरिए - आचार्यादिकों की अवि य = ओर समणे = साधुओं को भी आराहेइ = आराधना करता है, जेण = जिस कारण से गिहत्थावि - गृहस्थ भी णं- उसे तारिस- उस प्रकारका जाणंति जानते हैं, (अतः उसका पूयंति = तवस्त्र पात्रादि से सम्मान करते हैं, तथा साधु भी उसकी प्रशंसा करते हैं ॥४५॥ टीका- 'आयरिए' इत्यादि । तादृशः = उक्तगुणविशिष्टः साधुः आचार्यान् अजश्वाप्याराधयति = स्वकीय संयमोत्कर्षेणाऽऽचार्यादीन् प्रसादयतीत्यर्थः, येन हेतुना गृहस्थाः तं = साधुं तादृशं = तथाविधं जानन्ति तेन कारणेन पूजयन्ति = वस्त्रपात्रादिपुरस्कारेण मानयन्ति । 'अपि शब्देन न केवलं गृहस्थाः किन्तु साधवोऽपि पूजयन्ति = प्रशं सन्तीति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ त्यागो ऐसे साधु मृत्यु समय में अबश्य संवर = चारित्र - धर्मकी आराधना करते हैं । अथवा मृत्युके समान कष्ट उपस्थित होनेपर भी वे संवर की आराधना करते हैं, अर्थात् उस समय भी वे संवरका त्याग नहीं करते ॥ ४४ ॥ 'आयरिए' इत्यादि । ऐसे साधु आचार्योकी तथा श्रमणोंकी आराधना करते हैं, अर्थात् वार्यादिकों को अपने संयमकी उत्कृष्टता से प्रसन्न करते हैं, जिससे गृहस्थ भी उन्हें वैमाही उत्कृष्ट समझते और सन्मान करते हैं। केवल गृहस्थ हो उनका सन्मान नहीं करते किन्तु साधु भी उनकी प्रशंसा करता हैं ॥ ४५ ॥ ણાના ત્યાગી એવા સાધુએ મૃત્યુ સમયે અવશ્ય સંવર=ચારિત્રધમની આરાધના કરે છે, અથવા મૃત્યુસમાન કષ્ટ ઉપસ્થિત થતાં પણ તેએ સવરની આરાધના કરે છે, અર્થાત્ એ સમયે પણ તે સંવરના ત્યાગ કરતા નથી. (૪૪) आवरिए धत्याहि सेवा साधु, मायार्यानी तथा श्रमोनी माराधना १रे छे. અર્થાત્ આચાર્યાદિકને પેાતાના સાંચમની ઉત્કૃષ્ટતાથી પ્રસન્ન કરે છે, જેથી ગૃહસ્થા પણ તેમને બે !! જ ઉત્કૃષ્ટ સમજે છે અને તેમનું સન્માન કરે છે. કેવળ ગૃહસ્થા જ એમનું સન્માન નથી કરત, પરન્તુ સાધુએ પણ એમની પ્રશંસા કરે છે. (૪૫) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ० २ गा० ४६ तपआदिचोरस्य दोषप्रकटनम् mmm १ ૨ मूलम् - तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । ७ १० आया भावणे य, कुव्वई देवव्वि ॥ ४६ ॥ ४३३ छाया -- तपः स्तेनो वचस्तेनो, रूपस्तेनश्च यो नरः । आचार भावस्तेनश्च कुरुते देवकिल्विषम् ||४६ || = सान्वयार्थ : -- जे = जो नरे साधु तवतेणे = तपस्याका चोर - दूसरेकी तपस्याका अपने में आरोप करनेवाला. वयतेणे = वचनका चोर-दूसरेके व्याख्यानका अपनेमें आरोप करनेवाला, य-तथा रूवतेणे = रूपका चोर-दूसरे के रूपका अपनेमें आरोप करनेवाला, य = और आयारभाव तेणे = आचारका चोर-दुसरेके ज्ञानादि आचारोंका अपनेमें आरोप करनेवाला, भावका चोर = जीवादि पदार्थों का जानकार नहीं होने पर भी अपनेको जानकार बतानेवाला होता है, वह देवकिव्विस = किल्विन नाम के देवभवको कुम्बई = करता है, अर्थात् देवलोकमें किल्विधिक देवपने उत्पन्न होता है ||४६ || टीका – 'तवतेणे' इत्यादि । [१] यो नरः = यः साधुः तपः स्तेनः - तपश्चौरः, अत्र चौर्य परकीयतमोऽपहरणं स्वपूजाद्यर्थं स्वस्मिन्नारोपणम् । स च तपः स्तेनस्त्रिविधो यथास्वयमतपस्वी कथित्साधुः केनचित् 'तपस्वी भवान् ?' इति पृष्टः सन् 'अहमस्मि तपस्वी त्यर्थसूचकः प्रथमः (१) । द्वितीयो विनैव तपसा स्वभावाद् रोगादिकारणान्तरवशाद्वा 'तवतेणे' इत्यादि । जो साघु तपके चोर, वचनके चोर, रूपके चोर अथवा आचार के चोर और भावके चोर होते हैं वे देवोंमें उत्पन्न होकर के भी किल्विष ही होते हैं ॥ यह है कि परकी तपस्याको अपनी प्रतिष्ठाके लिए अपनी बताना तपकी चोरी है। [१] तपके चोर तीन प्रकारके हैं (१) किसी अतपस्वी साधुसे किसीने पूछा- 'क्या आप तपस्वी हैं ?' इसके उत्तर में 'हाँ मैं तपस्वी हूँ' ऐसा कहनेवाला तपचोर है । (२) विना तपस्या किये रोग आदि किसी कारणसे या स्वभावसे क्षीण शरीरवाले साधुसे तवतेणे० इत्याहि. ने साधुओ तपना थोर, वयनना थोर, ३पना और अथवा आयाરના ચાર તથા ભાવના ચાર હાય છે, તેઓ દેવામાં ઉત્પન્ન થઈને પણ કલ્મિષી જ मने छे. તાત્પય એ છે કે-પરની તપસ્યાને પેાતાની પ્રતિષ્ઠાને માટે પેાતાની મતાવવી એ તપની ચારી છે. (૧) તપના ચાર ત્રણ પ્રકારના છે. (૧) કેાઈ અતપસ્વી સાધુને કોઈ પૂછે કે આપ તપસ્વી છે ?” તેના ઉત્તરમાં ‘હા, હું તપસ્વી છું' એમ કહેનાર તપચાર છે. (૨) તપસ્યા કર્યા વિના રાગાદિ જેવા કાઇ કારણે યા સ્વભાવથી જ ક્ષીણુ શરીરવાળા સાધુને કોઈ પૂછે ‘શું આપ એજ તપસ્વી છે કે જેમની કીર્તિ અમે પહેલાં સાંભળી છે?” ५५ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कृशशरीरः साधुः केनचित् किं भवानेव श्रुतपूर्वस्तपस्यो ?' इति पृष्टः सन् ‘साधवस्तपस्विन एव भवन्ति किमनेन प्रश्नेन ?' इत्युत्तरप्रदः (२)। तृतीयस्तु- 'उग्रतपस्वी भवानेव किम् !' इति केनचित्पृष्टः सन् स्वख्यातिकामनया केवलं मौनमालम्बते न तु किश्चित्प्रतिभाषते तेन प्रच्छकोऽधिगच्छति अयं महातपस्वी यतः स्वगुणाख्यानं कत्तु मनागपि नोत्सहते, पृष्टोऽपि च प्रतिवचनं न प्रयच्छतीति (३) । [२] वचःस्तेनः वचः वाक्यं तस्य स्तेनः यथा-'धर्मदेशनानिपुणतया श्रूयमाणो मुनिर्भवानेव किम् ?' इति केनचित्पृष्टः 'साधवो धर्मदेशनानिपुण एव भवन्ती'-त्यादिवक्ता तूष्णीभूतश्च । अथवा स्वस्य शास्त्रानभिज्ञत्वेऽपि वागाडम्बरमात्रेण परिषदि प्रसादितायां सत्यां केनचित्-'आचाराद्यङ्गोपाङ्गविज्ञो भवान् ' इति पृष्टः 'साधवस्तज्ज्ञा भवन्त्येवे' तिप्रत्यायकः। किसीने पूछा- क्या आप ही वह तपस्वी हैं, जिनकी कीर्ति पहले हमने सुनी है ? ऐसा पूछने पर 'साधु तो तपस्वी होते ही हैं, यह प्रश्न करना वृथा है' इस प्रकारका उत्तर देनेवाला तपचोर है। (३) क्या आपही उग्र तपस्वी हैं ?' ऐसा प्रश्न करनेपर स्वकीय कीर्तिकी कामना करके केवल मौन साध लेनेवाला -कुछ न बोलनेवाला तपचोर है, क्योंकि मौन साधनेसे प्रश्न कर्ता यह समझ लेता है कि ये बड़े भारी तपस्वी हैं कि अपने गुण वर्णन करनेमें तनिक भी प्रवृत्त नहीं होते, यहां तक कि पूछने पर भी उत्तर नहीं देते।' [२] वाक्यके चोर को वचनचोर कहते हैं। जैसे किसी ने पूछा-जो धर्मदेशना देने में अत्यन्त निपुण सुने जाते हैं वे आप ही हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में ऐसा कहना कि-'साधु धर्म देशना देनेमें निपुण होते ही हैं,' अथवा चुप्पी साध लेना, अथवा हो तो शास्त्रोसे अनभिज्ञ; किन्तु वागाडम्बरसे परिषद्को प्रसन्न करने पर कोई पूछे कि-आप अंग उपांगोंको जानते हैं क्या ऐसा प्रश्न करने पर 'साधु, अंग उपांगोंके ज्ञाता होते ही हैं। ऐसा कथन करने वाला वचनचोर है। એમ પૂછતાં “સાધુ તે તપસ્વી જ હોય છે, આ પ્રશ્ન કરે જ વૃથા છે, એવા પ્રકારને ઉત્તર આપનાર તે તપ ચાર છે. (૩) “શું આપ જ ઉગ્ર તપસ્વી છે ?' એ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવતાં પોતાની કીર્તિની કામના કરીને કેવળ મૌન સાધનાર-કાંઈ ન બેલનાર પણ તપોર છે, કારણ કે મૌન સાધવાથી પ્રશ્નાર્તા એમ સમજી લે છે -“એ બહુ મોટા તપસ્વી છે. તેથી પોતાના ગુણ વર્ણન કરવામાં જરા પણ પ્રવૃત્ત થતા નથી, એટલે સુધી કે પૂછતાં છતાં ઉત્તર પણ નથી આપતા.” [૨] વાકયના ચેરને વચનોર કહે છે. જેમ કે, કોઈ પૂછે “જે ધર્મદેશના આપવામાં અત્યંત નિપુણ સંભળાય છે તે શું આપ જ છો ?' એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં એમ કહેવું કે “સાધુ ધર્મ દેશના આપવામાં નિપુણ જ હોય છે. અથવા ચુપકી પકડવી અથવા શાસ્ત્રાથી અનભિન્ન હોવા છતાં વાગાડમ્બરથી પરિષદને પ્રસન્ન કરતાં કઈ પૂછે કે “આપ અંગ-ઉપાંગોને જાણે છે કે ? એવા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં “સાધુ અંગ ઉપાંગના જ્ઞાતા જ હોય છે એમ કહેનાર વચનાર છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा० ४६ तपआदिचोरस्य दोषप्रकटनम् [३] रूपस्तेनः स्वात्मनि परकीयरूपारोपणकारकः, यथा प्रकृष्टरूपवन्तं साधु समा लोक्य 'किमसौ ज्ञातपूर्वरूपवान् भवानेव ?' इतिपृष्टो वागादिना तदङ्गीकुर्वाणो मौनावलम्बी वा। __ आचारभावस्तेनः-आचारश्च भावश्चेति द्वन्द्वे आचारभावौ, तयोः स्तेनः, तेनआचारस्तेनः भावस्तेनश्चेति फलितम् . 'द्वान्द्वादौ द्वद्वान्ते वा श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इति न्यायेन द्वन्द्वोत्तरस्थस्य स्तेनपदस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् । तत्र--- [४] आचारस्तेनः- परकीयज्ञानाद्याचारपश्चकस्य स्वस्मिन्नारोपयिता, यथा-'श्रूयमाणः क्रियापात्रं भवानेव किम् ?' इति केनाप्यनुयुक्तः सन् पूर्ववत्समाधायकः । [५] भावस्तेनश्च-भावो जीवादिपदार्थस्तस्य स्तेनः, सूत्रार्थसन्देहं गीतार्थात् प्रश्नपूर्वकमवबुध्यानन्तरं 'प्रागेवेदं विज्ञातमस्ति न तु किश्चिदपूर्वमिदानीं भवन्मुखादाकर्ण्यते' इति प्रतिपादकः । तपःस्तेनादिः देवकिल्विषं देवानां मध्ये किल्विषः=पापः, अतएवा [३] पर के रूपका अपने में आरोपण करनेवाला रूपचोर कहलाता है । जैसे किसीने पूछा पूर्वज्ञात रूपवान् आपही हैं । इसके उत्तरमें वचनसे स्वीकार करनेवाले अथवा चुप रह जानेवाला रूपचोर है। [४] परके ज्ञानादि पाँच आचारोंको अपनेमें आरोपित करनेवाला आचारचोर कहलाता है। जैसे किसी ने पूछा-'क्या सुने जानेवाले उत्कृष्ट क्रियापात्र आपही हैं ? ऐसा पूछने पर पूर्व की भाँति समाधान करनेवाला अर्थात् 'साधु तो क्रियापात्र होते ही हैं' ऐसा कहनेवाले आचार चोर है। [५] किन्हीं गीतार्थ मुनिसे सूत्रार्थका सन्देह निवारण करके ऐसा कहे कि यह तो मुझे पहले ही मालूम था, आपके मुखसे कुछभी नवीनता नहीं सुनी जाती' उसे-(जीवादी-पदार्थ) का चोर कहते हैं। ऐसे तप आदि के चोर साधु देवताओंमें अस्पृश्य किल्विष देवके कर्मको उपार्जन करते हैं [૩] પરના રૂપનું પિતામાં આપણું કરનાર રૂપચાર કહેવાય છે. જેમકે કઈ પૂછે કે પૂર્વજ્ઞાત રૂપવાન “શું આપ જ છે ?” તેના ઉત્તરમાં વચનથી સ્વીકાર કરનાર અથવા ચૂપ રહેનાર રૂપચાર છે. [૪] પરના જ્ઞાનાદિ પાંચ આચારને પિતામાં આરેપિત કરનાર આચારચાર કહેવાય છે. જેમ કે કોઈ પૂછે “શું સાંભળવામાં આવતા ઉત્કૃષ્ટ ક્રિયાપાત્ર આપ જ છે ?’ એમ પૂછવામાં આવતાં પહેલાંની પેઠે સમાધાન કરનાર અર્થાત “સાધુ તો ક્રિયાપાત્ર જ હોય છે એમ કહેનાર આચારચાર છે. [૫] કોઈ ગીતાર્થ મુનિ પાસેથી સૂત્રાર્થના સંદેહનું નિવારણ કરીને એમ કહે કેએ તે હું પહેલેથી જાણતા જ હતા, આપના મુખેથી કાંઈ નવીનતા સાંભળવામાં આવતી નથી તે તે ભાવ (જીવાદિ પદાર્થ) ને ચોર કહેવાય છે. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसुत्रे ऽस्पृश्यत्वादिधर्मा, तं कुरुते भावयति-तपःस्तेयादिकर्मणि देवकिल्विषनामकं भवमुत्पादयतीत्यर्थः॥४६॥ मूलम् लघृणवि देवत्तं, उववन्नो देवकिब्बिसे । ५६ १२ १३ ७ ९८ १० ११ तत्थावि से न याणाइ, किं मे किच्चा इमं फलं ॥४७|| छाया-लब्ध्वाऽपि देवत्वम् , उपपन्नो देवकिल्विषे ।। तत्रापि स न जानाति, किं में कृत्वा इदं फलम् ॥४७॥ सान्ववयार्थः देवत्त-कुछ क्रियाकलाप करनेसे देवपनेको लदधृणवि-पाकर भी वह देवकिब्धिसे-किल्विष-अस्पृश्य जातिके देवोंमें उवचन्नोउत्त्पन्न होता है, तत्थावि वहां पर भी से = वह 'किं = क्या कर्म किच्चा = करनेसे मे = मेरे इमं = यह फलं = फल प्राप्त हुआ है' ऐसा न याणाइ = नहीं जानता है, क्योंकि देवलोकमें तीन ज्ञान अवश्य होनेवाले होनेपर भी चोरी आदि प्रबल पापकर्मके प्रभावसे उसके तीव्र ज्ञानावरण का उदय होता है। टीका--'लद्धणवि' इत्यादि । देवत्वं = देबजाति लब्ध्वा-प्राध्यापि देव किल्वि= किल्विष देवमध्ये उपपन्नः = संप्राप्तः, तत्रापि सः, 'कि कर्म कृत्वा मे = मम इदं फलं संजात'-मिति न जानाति । किश्चिक्रियाकरणक्लेशेनाऽवश्यम्भाविज्ञानत्रयकदेवत्वजातिलाभेऽपि स्ते यादिपापकर्मप्रभावेण ज्ञानावरणस्य प्रबलोदयेनाऽविशुद्धावधिसद्भावादिति भावः ॥४७॥ एतावदेव तस्य फलं न, किन्तु ततोऽन्यदपीति तदर्शयति-'तत्तोवि' इत्यादि । मूलम्-तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूयगं । नरगं तिरिक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥४८॥ अर्थात् वह साधु देवभव पा करके भी किल्विष देव होता है ॥ ४६॥ 'लगणबि' इत्यादि । देवगति प्राप्त करके भी किल्विष देवोंमें उत्पन्न होकर यह नहीं जानता कि-'मुझे कौन कर्म करनेसे यह फल मिला है ? तात्पर्य यह है कि कुछ कायक्रेश करने से वहाँ भवप्रत्ययक अवधि-ज्ञानतक तीन ज्ञान हो जाते हैं, फिर भी चोरो आदि पाप कर्मों के प्रभाव से ज्ञानावरणका प्रबल उदय होनेके कारण अविशुद्ध अवधि रहता है । ४७॥ - એવા તપ આદિને ચોર સાધુ દેવતાઓનાં અસ્પૃશ્ય કિલિવષી દેવનાં કમને ઉ તાજે છે, અર્થાત એ સાધુ દેવભવ પામીને પણ કિલ્વિષી દેવ થાય છે. (૪૬) लधूणवि० छत्यादि देवशति प्रास रीने ५ मिषी वोमा अत्पन्न ने ये नया જાણો કે- મને ક્યા કર્મો કરવાથી આ ફળ મળ્યું છે ?” તાત્પર્ય એ છે કે કાંઈક કાયકલેશ કરવાથી ભવપ્રત્યયિક અવધિ-જ્ઞાન સુધી ત્રણ જ્ઞાન થઈ જાય છે, તે પણ ચેરી આદિ પાપ કર્મોના પ્રભાવથી જ્ઞાનાવરણને પ્રબળ ઉદય થવાને કારણે અવિશુદ્ધ અવધિ રહે છે. (૪૭) ११ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ - ~ ~ - -~ ~~ - ~~ ~ अध्ययन ५ उ. २ गा ४७-४८ तपआदिचोरस्य दुष्कलप्राप्तिः ४३७ छाया-ततोऽपि स च्युत्वा,लप्स्यते एलमूकत्वम् । नरकं तिर्यग्योनि वा, बोधिर्यत्र सुदुर्लभा ॥४८॥ सान्ययार्थः--से = वह किल्विषी देव तत्तोवि = उस-किल्विष देवभवसे भी चइताणं = चक्कर मनुष्य भवमें एलमूयगं = बकरेकी तरह अस्पष्ट बोलनेरूप गूगेपनको लम्भिही = प्राप्त होगा, (और वहाँ मरकर फिर) नरगं = नरक गतिको वा = अथवा तिरिक्खजोणि = तिर्यश्च योनिक्रो लब्भिही प्राप्त होगा कि जत्थ = जहां फिर बोही= बोधि जिनधर्म की प्राप्ति होना सुदुल्लहा-महा-मुश्किल है ॥४८॥ टीका---सः = किल्विषदेवः ततोऽपि = किल्विषदेवभवादपि च्युत्वा = प्रच्युत्य मनुष्यभवेऽपि एलमूकत्वम् = भाषणेश्रवणोभयशक्तिशुन्यत्वं, लप्स्यते =प्राप्स्यति. ततोऽपि मृत्वा नरकं तिर्यग्योनि वा लप्स्यते, यत्र = मनुष्यादिभवे बोधिः = सम्यक्त्वं सुदलभा = अतिशयेन दुब्यापा भविष्यतीति भावः ॥४८॥ उपसंहरम्नाह-'एयं च' इत्यादि । मूलम्-एयं च दोसं दवणं, नायपुत्तेण भासियं । अणुमायपि मेधावी, मायामोस विवज्जए ॥४९॥ छाया- एतं च दोषं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । अणुमात्रमपि मेधावी, माया-मृषा विवर्जयेत् ॥४९॥ सान्वयार्थ:--एयं च = पूर्वोक्त प्रकारके दोसं = दोष पापको नायपुत्तेण = महावीर भगवानने दणं = केवल ज्ञानसे देखकर भासियं = फरमाया है, (अतः) मेहावी = कृत्याकृत्यमें कुशल साधु अणुमायवि = अणुमात्र-थोडे-भी माया मोसं-कपट और झूठको विवज्जए = वरजे-न आचरे ॥४९॥ उक्त चोरीका इतना ही फल नहीं है, किन्तु और भी होता है सो दिखाते हैं - 'तत्तोवि' इत्यादि। __ वह किल्विप देव देव-भवसे चवकर मनुष्य भवमें अज (बकरे) की तरह बोलनेवाला-गूंगा होगा, और फिर नरकति या तिर्यञ्च गति को प्राप्त होगा, जहाँ पर बोधि (सम्यक्त्वको प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ४८ ॥ ઉક્ત ચારાનું એટલું જ ફળ નથી, પર તું બીજું પણ ફળ મળે છે તે દર્શાવે છે– तत्तोवि एत्य . એ કિષિી દેવ દેવભવથી આવીને મનુષ્ય ભવમાં અજ (બકરા),ની પેઠે બોલનાર-બેબડે થશે, અને પછી નરકગતિ યા તિય ગતિને પ્રાપ્ત થશે કે જ્યાં બોધિ (સમ્યક્ત્વની પ્રાપ્તિ) सत्यत हुन छे. (४८) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवैकालिकस्ने टीका--एतं च पूर्वप्रतिपादितं दोष = पापं गृहीतेऽपि चारित्रे किल्विषिकदेवत्वाद्यापादकलक्षणं ज्ञातपुत्रेण = ज्ञातः = सिद्धार्थभूपस्तस्य पुत्रो ज्ञातपुत्रः = महावीरस्तेन दृष्ट्वा = केवलालोकेनाऽऽलोक्य भाषितं = कथितम्-अर्थत उपदिष्टमित्यर्थः, अतः मेधावी कृत्याकृत्यविवेककुशलः, अणुमात्रमपि = स्वल्पमपि मायामृषा = मायामृषावादं विवर्जयेत्= संत्यजेत्-नाऽऽचरेदिति भावः ॥४९॥ मूलम्-सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहि संजयाण बुद्धाण सगासे। तत्थ भिक्खु सुप्पणिहि-इंदिए तिव्वलज्जगुणवं विहरिज्जासि-त्तिबेमि ॥५०॥ छाया--शिक्षित्वा भिक्षेषणशोधि, संयतानां बुद्धानां सकाशे । तत्र भिक्षुः सुप्रणिहितेन्द्रियः, तीव्रलज्जागुणवान् विहरेत् इति ब्रवीमि ॥५०॥ सान्वयार्थः--बुद्धाण = सकल तत्त्वोंके जाननेवाले संजयाण = मुनियोंके सगासे= समीप भिक्खेसणसोहि = भिक्षाके आधाकर्मादि दोषोंकी शुद्धिको सिक्खिऊण = सीखकर तिव्वलज्जगुणवं = अकृत्याचरणमें अत्यन्त लज्जावान् सुप्पणिहिइंदिए = जितेन्द्रियएकाग्रचित्तवाला भिक्खु = साधु तत्थ %D वहां भिक्षाकी एषणामें विहरिज्जासि = विचरेत्तिबेमि = श्रीसुधर्मास्वामी जंबूस्वामीसे कहते हैं कि जैसा भगवान् महावीर स्वामीने फरमाया है वैसाही मैं तेरेसे कहता हूँ ॥५०॥ । इति पांचवे अध्ययनके दूसरे उद्देशका सान्वयाथे समाप्त ॥५-२॥ ॥ इति श्रीदशकालिकसूत्र के पांचवें अध्ययनका सान्वयार्थ समाप्त ॥६॥ टीका--'सिक्खिऊण' इत्यादि । भिक्षुः बुद्धानाम् = अवगतसकलतत्त्वानां, संयउपसंहार करते हुए कहते हैं-'एयच' इत्यादि । चारित्रको अंगीकार करनेके पश्चात् भी किल्बिष-देवत्वकी प्राप्ति आदि दोष ज्ञातपुत्र (सिद्धार्थनन्दन) भगवान वर्द्धमान स्वामीने केवल ज्ञानसे जानकर प्रतिपादन किये हैं, इसलिए कार्य अकार्यके विवेकी श्रमणोंको अणुमात्र भी माया-मृषाबादका आचरण नहीं करना चाहिए, अर्थात् मुनि माया-मृषावादका थोड़ा भी सेवन नहीं करें ॥ ४९॥ 'सिक्खिऊण' इत्यादि । भिक्षु तत्त्वके ज्ञानी संयमियोंके समीप आधाकर्म आदि दोषोंके उपस २ ४२ ४३ छ-एयं च. त्याहि. ચારિત્રને અંગીકાર્યા પછી પણ કિબિષ-દેવત્વની પ્રાપ્તિ આદિ દેષ જ્ઞાતપુત્ર (સિદ્ધાથનંદન ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીએ કેવળજ્ઞાનથી જાણીને પ્રતિપાદન કર્યા છે. તેથી કરીને કાર્ય–અંકાયના વિવેકી શ્રમણએ અણુમાત્ર પણ માયા મૃષાવાદનું આચરણ ન કરવું જોઈએ, मर्थात मुनि माया मृषावान था पर सेवन न ४२. (४८) વિશ્વઝા ઈત્યાદિ. તત્વના જ્ઞાની સંયમીઓની સમીપે આધાકર્મ આદિ દોષનું શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन. ५ उ. २ गा० ४९-५० उपसंहारः तानां = संयमवतां सकाशे = समीपे भिक्षेषणशोधि = भिक्षागताऽऽधाकर्मादिदोषसंशुद्धि दोषज्ञानपूर्वकतत्परिहारविधिमित्यर्थः, शिक्षित्वा सम्यगभ्यस्य सुप्रणिहितेन्द्रियः सुवशीकृतेन्द्रियः-एकाग्रता इत्यर्थः । तोवल नागुणवान् अकृत्याऽऽचरणेऽतीवलज्जाधारका, तत्र-भिक्षैषणविषये विहरेत्-विचरेत् । 'संजयाण बुद्धाण' इतिपदाभ्यां ज्ञानक्रियोभयवद्भय एव भिक्षाशुद्धिर्जायत इति, 'मुप्पणिहिइंदिए' इत्यनेन शिष्येण एकाग्रचेतसा भाव्यमिति, तिव्वलब्जगुणवं' इति पदेन लज्जावानेव प्रवचनमर्यादां पालयतीति च प्रकटीतम् । इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥५०॥ । इति पञ्चमाध्ययनस्य द्वितीयोदेशः समाप्तः ।। इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलित-ललित कवापाऽऽलापक-प्रविशुद्ध-गद्य-पद्य नैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दकशाहूछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त-जैनाशास्त्राचार्य-पद-भूषितकोल्हापुराराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य-श्रीघासीलालबतिविरचितायां श्रीदशवैकालिकसूत्रस्थाऽऽचारमणिमञ्जूषा रव्यायां व्यव्यायां पञ्चम 'पिण्डैषणा'ऽऽ-ख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥५॥ ज्ञानपूर्वक आहारकी विधीको सम्यक् प्रकार जान करके जितेन्द्रिय होकर तथा अकार्य करनेसे तीन लज्जा पाते हुए विचरें ॥ 'संजयाण बुद्धाण' इन दोनों पदोंसे यह ध्वनित किया है कि ज्ञान और क्रिया दोनोंसे ही भिक्षाशुद्धि होती है । 'सुप्पणिहिइंदिए' पदसे यह सूचित किया है कि शिष्यको एकाग्रचित्त होना चाहिए । 'तिव्वलज्जगुणावं से यह प्रदर्शित किया है कि लज्जावान हो प्रवचन प्रतिपादित જ્ઞાન મેળવીને, આહારની વિધિને સમ્યફ પ્રકારે જાણીને, જિતેન્દ્રિય થઈને તથા અકાય કરવાથી તીવ્ર લજજા પામતાં ભિક્ષુ વિચરે. संजयाण बुद्धाण ये 2 शोथी म पनित युछ ज्ञान सन या RGथी १ लाख थाय छे सुप्पणिहिदिए थे ५४थी मेम सूषित युछे है शिष्ये । प्रथितय . तिव्वलज्जगुणवं थी ओम प्रदर्शित यु छermal 01 प्रपयन પ્રતિપાદિત મર્યાદા (આચાર)નું પરિપાલન કરે છે, શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 ___ श्रीदशकालिकलने मर्यादा (आचार) का परिपालन करता है / श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं कि हे जम्बू ! मैंने भगवान श्रीमहावीर स्वामीप्ते जैसा सुना वैसा ही तुमसे कहा है // 50 // इति पांचवे अध्ययनका दूसरा उद्देश समाप्त / इति श्रीदशवैकालिकसूत्रके "पिण्डैषणा" नामक पांचवें अध्ययनकी 'आचारमणिमञ्जूषा' टीकाका हिन्दीभाषानुवाद समाप्त // 5 // - શ્રી સુધમાં સ્વામી જખ્ખ સ્વામીને કહે છે કે હે જમ્મુ ! મેં ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી પાસેથી જેવું સાંભળ્યું તેવું જ તમને કહ્યું છે (50) ઈતિ પાંચમા અધ્યયનને બીજો ઉદેશે સમાપ્ત. ઈતિ શ્રીદશવૈકાલિકસૂત્રના “પિષણ” નામક પાંચમા અધ્યયનની “આચારમણિમજૂષા' ટીકાને જગુરાતીભાષાનુવાદ સમાસ (5) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ 1