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श्रीदशवैकालिकस्त्रे (१) पृथ्वीकाय. सान्वयार्थः-(भगवानने) पुढवी-पृथ्वीको चित्तमंतं सचित्त अक्खाया-कही है, वह अणेगजीवा-अनेकजीववाली है-अनेकजीवोंका पिण्डभूत है, पुढोसत्ता-उसमें अनेकजीव भिन्न-भिन्न रहे हुए है, अन्नत्थ-सिवाय सत्थपरिणएणं-शस्त्रपरिणतके, अर्थात् जहां शस्त्र नहीं लगा है वहांका पृथ्वीकाय सब सचित्त है । इसी प्रकार छहों कायो में समझ लेना चाहिये
(२) अपकाय. सान्वयार्थः-आऊ = जल चित्तमंतं = सचित्त अक्खाया = कहा है, वह अणेगजीवा = अनेक जीवोंका आश्रयभूत है, पुढोसत्ता = वे अनेक जीव भिन्न२ रहे हुए हैं, अन्नत्थ = सिवाय सत्थपरिणएणं = शस्त्रपरिणतके ॥२॥
(३) तेजस्काय. तेऊ = तेजस्काय चित्तमंतं = सचित्त अक्खाया = कहा गया है, वह अणेगजीवा = अनेक जीवोंका आश्रयभूत है, पुढोसत्ता= वे अनेक जीव भिन्न-भिन्न रहे हुए हैं, अन्नत्थ = सिवाय सत्थपरिणएणं = शस्त्रपरिणतके ॥३॥
(४) वायुकाय. वाऊ = वायु चित्तमंतं = सचित्त अक्खाया = कहा गया है, वह अणेगजीवा = अनेक जीवोंका आश्रय है, पुढोसत्ता = भिन्न-भिन्न जीवोंवाला है, अन्नत्थ = सिवाय सत्थपरिणएणं = शस्त्रपरिणतके ॥४॥
(५) वनस्पतिकाय. वणस्सई = वनस्पति चित्तमंतं = सचित्त अक्खाया = कही गई है, वह अणेगजीवा = अनेक जीवोंका आधार है, पुढोसत्ता = भिन्न-भिन्न जीववाली है, अन्नत्थ = सिवाय सत्थपरिणएणं = शस्त्रपरिणतके ।।
भावार्थ-पांचों स्थावरकाय सचित्त है, वे अनेक जीवरूप हैं, उन जीवोंका अस्तित्व पृथक्-पृथक है, । इन कायोंके जो जो शस्त्र हैं उनसे यदि ये परिणत हो जायँ तो अचित्त हो जाते हैं ॥५॥
टीका-तद्यथा = तदेव प्रदीते-पृथवी = कठिनस्वभावा सैव कायः = शरीरं येषां ते पृथिवोकायास्त एव पृथिवीकायिकाः ('विनयादित्वात्स्वार्थे ठक्, तस्येकादेशः' एवमग्रेऽपीयं प्रक्रिया ज्ञेया)। आपः= द्रवलक्षणास्ता एव कायो येषां तेऽपकायास्त एवाएकायिकाः। तेजः = उष्णलक्षणं तदेव कायो येषां ते तेजस्कायिकाः। वायुः = चलनस्वभावः स एव कायो येषांते वायुकायिकाः । वनस्पतिकायिकाः - वनस्पतिः = लतातरुगुल्मादिलक्षणः कायो येषां ते तथोक्ताः । त्रस्यति शोतातपादिजनितपोडया उद्भिजते इति सः, सनस्वभावः कायो येषां तथोक्ताः।
अथ प्रत्येकं सचित्ततां दर्शयन्नाह- --
શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧