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श्रीदशयकालिकतने ॥ द्वितीयाध्ययनम् ॥ गतं प्रथममध्ययनमथ द्वितीयमारभ्यते, तत्रायमभिसम्बन्धः-पूर्वाध्ययने 'धम्मो मंगलं' इत्यादिना धर्मः प्रशंसितो यः केवलं जिनशासन एवोपलभ्यते, ततश्चोक्तरूपधर्मपरिपालनार्थस्वीकृतजिनशासनो नवदीक्षितः कदाचिद्धैर्याभावाच्चारित्रच्युतो न भवेदिन्याशयेनास्मिन्नध्ययने 'साधुना धैर्य धार्य' मिति वक्तव्यं, धैर्यधारणं च कामनिवारणमन्तरेण न संभवतीति प्रथमं तदेवाह-'कहं नु' इत्यादि ।
११ ९ १२ १० मूलम्-कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए ।
पए पए विसीअंतो, संकप्पस्स वसंगओ ॥ १ ॥ छाया-कथं नु कुर्याच्छ्रामण्यं, यः कामान निवारयेत् ।
पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः ॥१॥ सान्वयार्थः-जो-जो कामे विषयोंको न निवारए-नहीं छोडता है, वह संकप्पस्स-इच्छाओंके वसंगओवशमें होकर पए पए-पद-पद पर विसीअंतो-खेदित होता हुआ नु-आश्चर्य है कि वह सामण्णं श्रमणधर्म को कहं कैसे कुज्जा-कर-पाल सकता है अर्थात्-जो इन्द्रियोंके विषयोंका परित्यागनहीं करता उसकी इच्छाएँ सदैव बढ़ती रहती हैं, उसे कभी सन्तोष नहीं होता, सन्तोष न होनेसे निरन्तर मानसिक कष्ट होता है, विषयोंकी इच्छासे उत्पन्न हुआ मानसिक कष्ट होते रहनेसे चारित्रधर्मकी आराधना नहीं हो सकती, अत: सवे-प्रथम इन्द्रियोंको वशमें करना चाहिये ॥१॥
दूसरा अध्ययन । पहले अध्ययनमें धर्मका स्वरूप और माहात्म्य कहा है वह केवल जैनशासनमें ही पाया जाता है । इसलिए पहले कहे हुए धर्मका पालन करनेके लिए जिसने जैनशासन अर्थात् चारित्रधर्म स्वीकार कर लिया हो परन्तु नवीन दीक्षित होनेसे कभी धैर्य छूट जानेके कारण वह कदाचित् चारित्रसे स्खलित न हो जाय, इस अभिप्रायसे इस अध्ययनमें 'साधुको धैर्य धारण करना चाहिए' यह कहा जायगा । लेकिन धैर्य तब ही रह सकता है जब कि कामके विकार को जीत लिया जाय । अतएव शास्त्रकार सबसे पहले इसी विषयका प्रतिपादन करते हैं-'कहं नु-' इत्यादि ।
અધ્યયન બીજું પહેલા અધ્યયનમાં ધર્મનું સ્વરૂપ અને મહાભ્ય કહ્યું છે. તે કેવળ જૈન શાસનમાં મળી આવે છે. તેથી, પહેલાં કહેલા ધર્મનું પાલન કરવાને માટે જેણે જૈન શાસન અર્થાત ચારિત્ર ધર્મ સ્વીકાર્યો હોય પરંતુ નવદીક્ષિત હેવાથી કેવાર ધૈર્ય છૂટી જવાથી એ કદાચ ચારિત્રથી સ્મલિત ન થઈ જાય, તેટલા માટે આ અધ્યયનમાં “સાધુએ હૈયે ધારણ કરવું જોઇએ.” એ કહેવામાં આવશે. પરંતુ ધર્યું ત્યારે જ રહી શકે છે કે જ્યારે કામવિકારને જીતી सेवामा सावे. या शा२ सौधा ५७ विषय प्रति पान ४२ छ-'कहं नु०॥ त्याहि.
શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧