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________________ १४२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे च-तथा, रुमालवणः-रुमा विशिष्टलवणाकरभूता काचिन्नदी तस्या लवणः आमकः =सचित्तः, अस्य पूर्वार्दै सर्वत्र सम्बन्धः (४१), सामुद्रः समुद्रोत्थलवणः (४२), पांशुक्षार-ऊपरलवणः (४३), च-तथा काललवणः कृष्णलवणः विड्लवण, इतिप्रसिद्धः (४४), आमकः-सचित्तः, 'आमक' इत्यस्योत्तरार्द्ध सर्वत्र सम्बन्धः । अत्र पृथ्वीकाविराधनादयो दोषा भवन्ति ॥८॥ मूलम्-धुवणत्ति वमणे, य वत्थीकम्म-विरेयणे । ५१ ५२ अजणे दंतवण्णे य, गायब्भंगविभूसणे ॥९॥ छायाः-धूपनमिति वूमनं च, बस्तिकर्म विरेचनम् । अञ्जनं दन्तवर्णश्च, गात्राभ्यङ्ग-विभूषणे ॥९॥ सान्वयार्थ:-(४५) धुवणेत्ति-रोग मिटाने आदिके लिए किसी स्थानमें धूप देना, (४६) वमणे प्रयत्नपूर्वक वमन करना, (४७) वत्थीकम्म बस्तीकर्म करना, य=और (४८) विरेयणे-विरेचन-जुलाब लेना, (४९) अंजणे अजन-सुरमा आदि आंजना, (५०) दंतवण्णे =दातून मसी आदिसे दाँत साफ करना, (५१-५२) गायब्भंगविभूसणे-शरीरको तैल आदिसे मालिश करना (५१) तथा वस्त्र आदिसे भूषित करना (५२)॥९॥ टीका-धूपनं-शेगाद्युपशान्तिनिमित्तं स्थान कादिषु धूपदानम्, सौगन्धयोत्पत्तिनिमित्तमंशुकादीनां धृपादिना वासनश्च (४५), वमनंबमिजनकभेषजादिप्रयोगेण वान्तिकरणम् (४६), (४१) सचित्त रुमा (नदीविशेषके) नमकका सेवन करना । (४२) सचित्त समुद्री नमकका सेवन करना । (४३) सचित्त ऊपर नमकका सेवन करना । (४४) सचित्त काले नमकका सेवन करना ॥८॥ (४५) रोग आदिकी शान्ति अथवा सुगंधिके लिए स्थानक या वस्त्र आदिमें धूप देना । (४६) दवाई लेकर वमन करना । (૪૧) સચિત્ત રૂમ (નદીવિશેષમાંથી નીકળેલા) મીઠાનું સેવન કરવું. (४२) सथित्त समुद्रना सून सेवन ४२ (४३) सथित अपर सुप (भा) सेवन २ (८) (४४) सायत्त । भीडनु सेवन २७, (૪૫) રાગાદિની શાન્તિ અથવા સુગંધિને માટે સ્થાનક યા વસ્ત્રાદિને ધૂપ કરે. (४६) 8. सन १भन ४२. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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