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________________ श्रीदशवैकालिकसूने छाया-एवमेते श्रमणा मुक्ता, ये लोके सन्ति साधवः । विहङ्गमा इव पुष्पेषु, दानभक्तैषणे रताः ॥३॥ सान्वयार्थ–एमेए-इसीप्रकार ये लोए-लोकमें 'जे' जो मुत्ता-द्रव्यभावपरिग्रहरहित समणा-तपस्वी साहुणो साधु संति है, (वे) पुप्फेसु-फूलोमें विहंगमा व-पक्षियों-भमरोंकी तरह दाणभत्तेसणे-दाता द्वारा दियेजाने वाले आहारकी गवेषणामें रया लीन रहते हैं। अर्थात-जेसे पूर्वोक्त प्रकारसे भौरा पुष्परसका पान करता है उसी प्रकार साधु गृहस्थियों को असुविधा न पहुंचाते हुए अनेक घरों से थोडा-थोड़ा आहार ग्रहण करते हैं ॥३॥ टीका-एवम्-उक्तप्रकारेण ये लोके समयक्षेत्रे सन्ति-वर्तन्ते एते ते सर्वे श्रमणाः श्रमणाः, शमनाः समनसः, समणाः इत्येतेषाां प्राकृते 'समणा' इति रूपं भवति,तत्र श्राम्यन्ति-तपस्यन्त्याहारादिनिरासेन शरीरं क्लेशयन्तीति, भवभ्रमणहेतुभूतविषयेषु खिद्यन्तीति, यद्वा अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् श्राम्यन्ति-दमनेन श्रमयन्तीन्द्रियनोइन्द्रियाणीति श्रमणाः, शमयन्ति-शान्ति नयन्ति कषायनोकपायरूपाऽनलमिति, शाम्यन्ति-विशङ्कटभवाटवीपर्यटद्भोगानलोज्ज्वलज्वालामालाजनितसन्तापकलापतो निवृत्ता भवन्तीति वा शमनाः। समानानि-स्वपरेषु तुल्यानि मनांसि येषामिति, कुशलमयैर्मनोभिः सह वर्तन्त इति वा समनसः, सम्-सम्यक् अणन्ति-प्रवचनं ब्रुवत इति, सम्यक अण्यन्ते कषायचतुष्टयं जित्वा अब विशेष खुलासा करनेके लिए दार्टान्तिक कहते हैं इस प्रकार अढ़ाई द्वीपमें जितने श्रमण, मुक्त, साधु हैं वे सब दाता द्वारा दिये जाते हुए आहारकी एषणामें इस प्रकार प्रयत्न करें जैसे भ्रमर पुष्पोंके रसके अन्वेषणमें लीन होता है। श्रमण, शमन, समनस्, समण, इन सब शब्दोंका प्राकृत भाषामें 'समण' रूप होता है । इनमें 'श्रमण' का अर्थ यह है कि जो अनशन आदि तप करते हैं-परीषह सहते है, संसारमें परिभ्रमण करानेवाले इन्द्रियोंके विषयोंसे उदास रहते हैं, अथवा जो पाँच इन्द्रियों का तथा मनका दमन करते हैं। 'समन' का अर्थ यह होता है कि कषाय क्रोध मान माया और लोभ तथा नोकपाय--हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद-रूपो अग्निको शान्त करदेते हैं હવે વિશેષ ખુલાસે કરવાને કાષ્ઠતિક કહે છે – આ પ્રમાણે અઢી દ્વીપમાં જેટલા શ્રમણ મુક્ત, સાધુઓ છે તેઓ બધા દાતા દ્વારા આપવામાં આવતા આહારની એષણામાં એવા પ્રયતન કરે કે જેમ ભ્રમર પુના રસના શોધનમાં લીન થાય છે. શ્રમણ, શમન, સમનસુ, સમણ, એ બધા શબ્દોને પ્રાકૃત ભાષામાં સમણું રૂપ અર્થ થાય छ. 'श्रम' नाम मेवा छे ३-२ मनशन माहित५ ४२ छ.-परीष सह छ, संसाરમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા ઈન્દ્રિયેના વિષયેથી ઉદાસ રહે છે, અથવા જે પાંચ ઈન્દ્રને તથા મનનું દમન કરે છે, “શમન'ને અર્થ એ થાય છે, કે–કષાય-કોધ માન માયા અને લેભ, તથા નેકષાય-હાસ્ય રતિ અરતિ શેક ભય જુગુપ્સા સીવેદ પુરૂષદ અને નપુંસ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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