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________________ अध्ययन १ गा. ३ गोचरीविधौ भ्रमरद्रष्टान्तः ७१ जीवन्तीति वा समणाः । मुक्ताः परिग्रहबन्धनरहिताः धर्मोंपकरणं विहाय सूचीकुशाग्रमाप्रेणापि परिग्रहेण रिक्ता इति यावत् , तत्र परिग्रहो बाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्विविधः, तयोराधो धनधान्यादिरूपो नवविधः। द्वितीयस्तु "मिच्छत्तं वेयतिगं, हासाइयछक्कगं च नायव्वं । कोहाईण चउक्कं, चउदस अभितरा गंठी ॥" इत्युक्तरूपः। साधवः साध्नुवन्ति-निष्पादयन्ति स्वपरशिवसुखं ये ते, पुष्पेषु व्याख्यातपूर्वेषु विहगमा इव, विहायसा-गगनेन गच्छन्तीति तथोक्ताः, प्रकरणादत्र भ्रमरा इत्यर्थः त इय, भ्रमरतुल्या इति यावत् । विशाल भवाटवीमें पयटन करते हुए भोगरूपी अग्निको धधकती हुई ज्वालाओं से उत्पन्न हुए संताप के समूहको शुद्ध भावनासे शान्त करदेते हैं । 'समनस् शब्द का यह अर्थ है कि जिनका मन स्व और पर में समान है, अथवा जिनके मनोयोग सदा शुद्ध रहते हैं । 'समण' शब्दका अर्थ यह है कि-जो सम्यक् प्रकारसे प्रवचनका प्रतिपादन करते हैं अथवा चारों कषायों को जोत लेते हैं। परिग्रहके बन्धनसे रहित अर्थात् धर्मके उपकरणों के सिवाय सुई या कुशकी नोकके बराबर भी परिग्रह न रखनेवालों को मुक्त कहते है । परिग्रहके दो भेद हैं-(१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । पहला बाह्य परिग्रह धन धान्य द्विपद चौपद आदि नौ प्रकारका है । दूसरा आभ्यन्तर परिग्रह- (१) मिथ्यात्व, (२) स्त्रीवेद, (३) पुरुषवेद, (४) नपुंसकवेद, (५) हास्य, (६) रति, (७) अरति, (८) शोक, (९) भय, (१०) जुगुप्सा, (११) क्रोध, (१२) मान, (१३) माया और (१४) लोभके भेदसे चौदह प्रकारका है। स्व और परके मोक्ष सम्बन्धी सुखको साधनेवाले साधु कहलाते हैं । ऐसे साधु, दि जानेवाले अशन आदिकी एषणामें प्रवृत्त होवें-आहार-पानी की विशुद्धिमें लीन रहे। વેદ રૂપી અગ્નિને શાન્ત કરી નાખે છે. ભયંકર વિશાળ ભવાટવીમાં પર્યટન કરતાં ભેગરૂપી અગ્નિની ભભકતી જ્વાલાઓમાંથી ઉત્પન્ન થતાં સંતાપના સમૂહને શુદ્ધ ભાવનાથી શાન્ત કરી નાંખે છે. “સમનસૂ શબ્દને અર્થ એ છે કે-જેનું મન સ્વ અને પરમાં સમાન હોય, અથવા જેનાં મને હમેશ શુદ્ધ રહે. “સમણુ” શબ્દનો અર્થ એ થાય છે કે-જે સમ્યક પ્રકારે પ્રવચનનું પ્રતિપાદન કરે છે અથવા ચારે કષાયોને જીતી લે છે. પરિગ્રહના બંધનથી રહિત અર્થાત્ ધર્મનાં ઉપકરણે શિવાય એક સોય કે તણખલા જેટલો પણ પરિગ્રહ ન રાચનારાઓને મુક્ત કહે છે. पश्यिना मे लेह छ. (१) मा भने (२) मान्यत२. ५ मा परि धनपान्या न4 प्रारना छे. मात्र यत२ ५२५3-(१) मिथ्यात्व, (२)ीव, (3) ४३५वह. (४) नपुंसवे, (५) २५, (६) २ति, (७) अति, (८) ४ (6) भय, (१०) शुसा (११)ोध, (१२) भान, (13) माया, अने (१४) न, ये नाहीये ४श १४ रन छे. શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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