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________________ श्रीदशवैकालिकसूत्रे छाया-निश्रेणि फलकपीठम् , उत्सृज्य आरोहे । मचं कीलञ्च प्रासाद, श्रमणार्थमेव दायिका ॥६७॥ दुरा (द) रोहन्ति प्रपतेत् , हस्तौ पादौ च लूपयेत् । पृथ्वीजीवानपि हिंस्या, यानि च तन्निःश्रितानि जगन्ति ॥६८॥ एतादृशान्महादोषान् , ज्ञात्वा महर्षयः । तस्मान्मालापहृतां भिक्षां, न गृह्णन्ति संयताः ॥६९॥ सान्वयार्थः-दावर = दान देने वाली स्त्री यदि समणट्ठा एव = साधुके लिएही निस्सेणि = नसैनी-निसरणी-सीढी फलग = पाटे पीढं = पीढे मंच = खाट व = और कीलं = कीलेको उस्सवित्ताणं = ऊंचा-खड़ा करके पासायं = प्रासाद-मंजिल पर आरुहे = चढे तो दुरूहमाणी = इस प्रकार कष्टसे चढती हुई वह पवडेजा = शायद गिर जायगी व= और अपना हत्थ = हाथ पायं = पैर लूसए = तोड़ बैठेगी तथा पुढवीजीवे अवि = पृथ्वीकायके जीवोंको भी च= और जे= जो तन्निस्सिया = उस पृथ्वी की नेसरायमें रहे हुए जगे = द्वीन्द्रियादि जीव हैं उन्हें भी हिंसेज्जा = मारेगी ॥ ६७ ॥ ॥६८॥ तम्हा = इसोलिए एयारिसे = ऐसे पूर्वोक्त प्रकारके महादोसे = दाताकी मृत्यु तक होने की संभावनाके कारण महादोषोंको जाणिऊण = जानकर संजया = सकल सावध व्यापार से विरत हुए महेसिणो = महर्षि लोग मालोहडं = मालापहृत (मालसे लाई हुई) भिक्ख = भिक्षाको न पडिगिण्हंति = नहीं लेते हैं ॥६९॥ टीका--मालापहृतभिक्षादोषमाह 'निस्सेणि' इत्यादि । 'दावए' इत्यत्र प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययस्तथा च दायिका = दात्री श्रमणार्थमेव = साधुनिमित्तमेव साधवे भिक्षादानार्थमेवेत्यर्थः, निश्रेणिं = वंशादिनिर्मितं सोपानं फलकं = शयनोपयोगी दारुमयाऽsमनं. पीठं = काष्ठनिर्मितोपवेशनोपयोगि लघ्वासनं 'पीढ़ा' इति प्रसिद्ध, मचं = खट्वां वंशदलादिरचितोच्चासनं वा कीलं = शकुं चकारान्मुसलादिकम् उत्सृज्य = ऊवीकृत्य, मालापहृत भिक्षा के दोष बताते हैं-'निस्सेणिं' इत्यादि, 'दुरूहमाणी' इत्यादि, तथा एयारिसे' इत्यादि। दाता, यदि साधुके लिये नसैनी, सीढी (निसरणी), पाटा, पोढा (बाजोट), मांचा, खूटी अथवा मुसल आदिको ऊँचा करके ऊँचे मकान की दूसरी मंजिल पर चढ़ कर, आहार लावे तो वह आहार आदि, मालापहृत कहलाता है । नसैनी (सीढी) आदि पर चढनेसे यदि गिर पड़े तो व भासाहत मिक्षाना होषो मताव छ-निस्सेणि त्याहि. दुरूहमाणी. याह. तथा पयारिसे ईत्याहि. हात साधुन मोट साटा (नीस२९), पाट, माठ, भांया, भूरी मथवा भूशण સાંબેલ) આદિને ઉંચા કરીને ઉંચા મકાનના બીજા મજલા પર ચઢીને આહાર લાવે તે તે આહાર માલાપહત કહેવાય છે. સીઢી આદિ પર ચડવાથી જે પડી જાય તો હાથ-પગ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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