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________________ ११ १२ १० अध्ययन ५ उ० १ गा० ८९ ९० गोचरोगतातिचारालोचनाविधिः .. ३८५ योगं विचिन्त्य ऋजुप्रज्ञः सरलबुद्धिः अनुद्विग्निः-प्रशान्तः, अव्याक्षिप्तेन=अव्याकुलेन चेतसा-मनसा गुरुसकाशे-शुद्धं प्रमादादिवशेनाऽशुद्धं वा यद् यस्माद् यत्र वा यथा गृहीतं भवेत् तदपि गुरु समीपे कथयेदित्यर्थः ।। ___ 'उज्जुप्पन्नो' इत्यनेनाऽकुटिलमतिरेव सम्यगालोचयतीति सूचितम् । अणुन्विग्गो अनेन क्षुधादिपरिषहजेतृत्वमावेदितम् । 'अव्वक्खित्तेण चेयसा' इत्यनेन 'एकाग्रचित्तेनैवाऽतिचारस्य सम्यक् स्मरणं भवती'-ति स्पष्टीकृतम् ॥८९॥९०॥ मूलम्-न सम्ममालोइयं हुज्जा, पुब्बि पच्छा व जे कडं । पुणो पडिकमे तम्स वोसट्ठो चिंतए इमं ॥११॥ छाया-न सम्यगालोचितं भवेत् , पूर्वं पश्चाद्वा यत्कृतम् । पुनः प्रतिक्रामेत्तस्य, व्यत्सृष्टश्चिन्तयेदिदम् ॥९१॥ सान्वयार्थ:-जंजो अतिचार पुचि-पहले व-तथा पच्छा-पीछे कडं-किया है वह सम्म सम्यक प्रकार से-अच्छी तरह याने पहले लगे हुए पापको पहले आलोवे और पीछे लगे हुए पापको पीछे आलोवे' इस प्रकार आलोइयं आलोचित न कुज्जा नहीं किया हो तो तस्स-उस अतिचारको पुणो=फिरसे पडिक्कमे-आलोवे, (और) वोसट्ठो-कायोत्सर्गमें रहा हुआ साधु इमं इस 'यागे कहा जानेवाला' प्रकार चिंतए-चिन्तन करे ॥९१ टीका 'न सम्म.' इत्यादि । यत-यस्माद्धेतोः पूर्व पश्चाद्वा कृतमतिचारं सम्यक प्राकृतं प्रागालोचितव्यं पश्चात्कृतं च पश्चादालोचितव्यमिति क्रमेण आलोचितं =प्रकागुरुके समीप आलोचना करे । प्रमाद आदिके वशसे जहां जैसा शुद्ध या अशुद्ध आहार आदि लिया गया हो वह भी गुरुसे निवेदन करे। 'उज्जुप्पन्नो' पदसे यह सूचित किया है कि कुटिलतारहित बुद्धिवाला ही यथार्थ आलोचना कर सकता है । 'अणुव्विग्गो' पदसे क्षुबा आदि परीषहोंका जीतना प्रगट किया है । 'अव्वविस्वत्तेण चेयसा' पदसे जह सूचित किया है कि एकाग्र-चित्तसे ही अतिचारोंका अच्छी तरह स्मरण हो सकता है ।। ८ ९।।९।। _ 'न सम्म०' इत्यादि । आगे-पछे किये हुए अतिचारोंकी सम्यक् प्रकार अर्थात् पहले किये हुएकी पश्चात्-आलोचना न की गई हो तो अतिचारोंका पुनः प्रतिक्रमण करना चाहिए ળતા-રહિત ચિત્તથા ગુરૂની સમીપે આલોચના કરે. પ્રમાદ આદિને વશ થઈને જ્યા જે શુદ્ધ કે અશુદ્ધ આહાર આદિ લેવામાં આવેલ હોય તે પણ ગુરૂને નિવેદન કરે. - उज्जप्पन्नो श»था सेभ सूयित ४२पामा मायुछे है दुरिताडित भुद्धिया यथार्थ म सायना ४री श: छे, अणुव्विग्गो शहथी क्षुधा आदि परीपाने तानु ४८ ४२वामा माव्यु छ. अक्खित्तेण चेयसा शपथा सेभ सूचित्त ४यु छ है -चित्तथा જ અતિચારેનું સારી રીતે મરણ થઈ શકે છે. (૮૯-૯૦) न सम्म० ४त्यादि. 241.५७१ ४२वा मतियानी सभ्य५ प्रहारे अर्थात् पडला શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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