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________________ अध्ययन ५ उ० १ गा० ५९-६४ तेजोविरोधनायामाहारनिषेधः क प्रदीप्त कर निव्याविया = एग्निको पानी आदिसे बुझाजर उस्सिचिया = अग्नि पर पकते हुए अन्नादिको कुछ बाहर निकाल कर निस्सिंचिया = उभरते हुए दुग्धादिमें जल छिड़ककर ओवत्तिया = अग्निर रहे हुए अन्नादिको दूसरे बरतनमें निकालकर ओयारिया = अग्निपर रहे हुए अन्नादिके बरतनको नीचे उतारकर अर्थात् अग्निकायका परम्परासे संपट्टा करके दए = अशनादि देवे तो तं = वह भत्तपाणे तु अशनादि संजयाणं = साधुओं के लिए अकप्पियं = अकल्पनीय भवे = है, (अतः) दितियं = देती हुई से साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं= इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पइ = नहीं कल्पता है॥६॥६४॥ टीका--'एवं०' इत्यादि तं भवे.' इत्यादि च । एवम्-उक्तप्रकारेण तेजस्कायविषय इवेति भावः, उत्क्षिप्य यावत्कालं साधवेऽन्नादिकं ददामि तावत्कालमग्निर्मा प्रशाम्यतु' इति वुद्धया चुल्लयादाविन्धनमुत्सार्य अवक्षिप्य-दाहभयादिन्धनं निःसार्य उज्ज्वाल्य अनुज्ज्वलितं फूत्कारादिनोद्दीप्य-प्रज्वाल्य-उद्दीप्तं प्रकर्षण संवध्ये निर्वाप्य-उत्सिच्य =अग्न्युपरिस्थितमन्नादिकं किञ्चिबहिष्कृत्य, निषिच्य-उद्वलद्दुग्धादिकं जलेन प्रशाम्य अपवर्त्य भाजनान्तरे निधाय, अवताये-अन्नादिसहितं भाजनमेवोत्ताय वा दद्यात, तद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिक (त) भवेदतस्तद्ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पते' इति ॥६३॥६४॥ 'एवं उस्सिक्किया०' इत्यादि, तथा 'तं भवे' इत्यादि । 'जब तक आहार देती हूं तब तक, अग्नि न बुझ जाय' ऐसा विचार कर चूल्हे में इंधन सुलगाकर, अन्न आदि जलनेके भयसे इंधन बाहर निकाल कर फेंक आदिसे चूल्हा जला कर, जलती अग्निको तेज कर या बुझा कर, अग्नि पर पकते हुए आहार को कुछ एक ओर कर, तथा पानी डाल कर उबाल (उफान) को शान्त कर, अथवा अन्न आदि सहित बर्तन को नीचे उतार कर यदि आहार देवे तो वह आहार अनगारके लिये ग्रहण योग्य नहीं है । अतः देनेवालीसे कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है' ॥६३ ॥ ६४॥ एवं उस्सिक्किया. त्याहि, तथा तं भवेत्याहि. જ્યાં સુધી આહાર આપતી હોઉં, ત્યાં સુધી અગ્નિ હોલવાઇ ન જાય, એવો વિચાર કરીને ચૂલામાં ઈધણું સળગાવીને, અનાદિ બળી જવાના ભયથી ઈધણુ બહાર કાઢીને કુંક આદિથી ચૂલે સળગાવીને, બળતા અગ્નિને તેજ કરીને યા બુઝાવીને, અગ્નિ પર પાકતા આહારને કેઈ એક બાજુએ કરીને તથા પાણી નાંખીને ઊભરાને શાંત કરીને, અથવા અનાદિ સહિત વાસણને નીચે ઉતારીને જે આહાર આપે છે તે આહાર અનગાર ને માટે ગ્રહણ કરવા એગ્ય નથી એટલે તે આપનારીને સાધુ કહે કે “એ આહાર મને ક૫તે नथी. (63-६४) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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