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________________ __२९९ ८ ९ १० अध्ययन ५ उ. १ गा० ३ गोचर्या गमनविधिः को पेहमाणो देखता हुआ बीयहरियाई-बीज. हरी, पाणे = द्वीन्द्रियादिक प्राणी य = और दगमट्टियं – सचित्त जल तथा सचित्त मिट्टीको वजंतो = वर्जता हुआ चरे = चले ॥३॥ टीका-युगमात्रया-जसरप्रमाणया तत्प्रमाणप्रसृतयेत्यर्थः 'दृष्टये ति शेषः। वस्तुतस्तु 'क्वचिद्वितीयादेः' इति नियमादत्र द्वितोयार्थे पष्ठी, तेन 'जुगमायाए' इत्यस्य 'युगमात्रा' मितिच्छाया, तथाच-युगमात्रां= प्रोक्तार्था स्वशरीरप्रमितामिति भावः, महीं= भूमि मार्गभूमि मिति भावः, पुरतः-स्वाग्रतः प्रेक्षमाणः सम्यगवलोकयन् बीजहरितानि= प्रसिद्धानि, प्राणान् द्वीन्द्रियादिपाणिनः, दकमृत्तिकां-सचित्तं जलं मृत्तिकां च वर्जयन् = परिहरन् चरेत् गच्छेत् ॥३॥ मूलम्-ओवायं विसमं खाणु, विजलं परिवज्जए । संकमेण न गच्छिज्जा विज्जमाणे परक्कमे ॥४॥ छाया-अवपातं विषमं स्थाणु, विजलं परिवर्जयेत् । संक्रमेण न गच्छेत् , विद्यमाने पराक्रमे ॥४॥ सान्वयार्थ:--परकमे-दूसरे मार्गके बिज्जमाणे होनेपर (साधु) ओवायं जिस मार्गमें गिर पड़नेकी शंका हो विसमं खड्डे आदिके कारण विकट हो खाणु-काटे हुए धान्यके डंठलोंसे युक्त (और) विजलं कीचड़वाला हो उस मार्गको परिवज्जए छोड़े, तथा संकमेण कीचड आदिके कारण जिस मार्गमें ईट काठ आदि लांघनेके लिए रखे हों उससे भी न गच्छेज्जा नहीं जावे ॥४॥ टीका -- 'ओवायं.' इत्यादि । 'परक्कमे' इति आक्रमणमाक्रमः अवलम्बनं परश्वासावाक्रमश्च पराक्रमः परस्याऽऽक्रमो वा पराक्रमस्तस्मिन् , यद्वा 'पराक्रमे' इतिच्छाया, ततश्च परश्चासौ क्रमश्च परक्रमस्तस्मिन् 'सर्वथा गत्यन्तरे' इत्यर्थस्तथा च-पराक्रमे अथवा गोचरीके लिए गमनविधि बताते हैं-'पुरेओ' इत्यादि । अपने शरीर प्रमाण रास्ता सामने भली भाँति अवलोकन करता हुआ, बीज, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय आदि प्राणी सचित्त नल और सचित्त मृत्तिका को बचाता हुआ गमन करे ॥३॥ 'ओवायं० इत्यादि । पर अवलम्बको यहाँ पर परक्रम अथवा पराक्रमसे कहा गया है अत एव अर्थ यह है कि दूसरे मार्गके रहते हुए, जिसमें चलने से गिर पड़नेकी संभावना हो, दुर्गम गायश भाटे मनविवि मताव छ-पुरओ त्याही પિતાના શરીર પ્રમાણે રસ્તા સામે સારી રીતે અવલોકન કરતાં, બીજ, વનસ્પતિકાય, કીન્દ્રિયાદિ પ્રાણી, સચિત્ત જળ ચને સચિત્ત માટીને બચાવી લેતાં ગમન કરે. (૩) ओवायं० ७त्यादि. ५२ स मन मडी ५२।म अथवा ५॥मयी उपामा मावस છે, એથી એવો અર્થ થાય છે કે બીજો માર્ગ હોવા છતાં, જેમાં ચાલવાથી પડી જવાની શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર: ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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