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________________ ३०५ अध्ययन ५ उ १ गा० १०-११ ब्रह्मचर्यवतयतना हिंसासत्याऽस्तेयाऽपरिग्रहरूपाऽऽलवालसंवर्द्धित--ज्ञान-क्रियास्कन्धसुदृढ़-समितिगुप्त्यादिशारवप्रशाखावितता-ऽष्टदशसहस्रशीलाङ्गपत्र-ध्यान-कुसुमाऽपवर्ग-फलसम्पत्समृद्धसंयमद्रुमशोषिणी चित्तविकृतिर्भवेदिति सूत्रार्थः ॥९॥ सकृद्मनदोषं प्रतिपाद्येदानीमसकृद्गमनदोषान् प्रदर्शयति-'अणाययणे' इत्यादि । मूलम्-अणाययणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । हज्ज वयाणं पीला सामन्नम्मि य संसओ ॥१०॥ छाया-अनायतने चरतः संसर्गेणाऽभीक्ष्णम् । भवेद्वतानां पीडा, श्रामण्ये च संशयः ॥१०॥ वेश्या के पाड़े में एकबार जाने का दोष कह कर अब अनेक बार जानेका दोष कहते हैं सान्वयार्थः-अणाययणे = वेश्याके पाडेमें अथवा इस प्रकारके दूसरे अयोग्य स्थानोंमें चरंतस्स = गोचरी जानेवाले साधु-अभिक्खणं = वारंवार संसग्गीए = संसर्ग होने के कारण वयाणं = महावतोंको पीला= पीडा हुज्ज = होती है अर्थात् वे दूषित हो जाते हैं । (इतना ही नहीं किन्तु उस साधुके) सामन्नम्मि य = चारित्रसाधुपने में भी संसओ= सन्देह हो जाता है ॥१०॥ ____टीका-अनायतने = अयोग्यस्थाने वेश्यागृहसमीपादौ अभीक्ष्णं = वारंवारम् चरतः = पर्यटतः साधोः संसर्गेण-प्रेक्षणादिसंपर्केण (मूले प्राकृतत्वात्स्त्रीत्वम्) व्रतानां चर्य जिसकी जड़े हैं, अहिंसा-सत्य-अस्तेय-अपरिग्रह-रूपी क्यारी है, जो ज्ञान और क्रिया रूपी स्कन्धसे दृढ़ है, समिति गुप्ति आदि शाखा प्रशाखाएँ जिसकी फैली हुई हैं। अठारह हजार शीलाङ्ग जिसके पत्तेहै, ध्यान ही जिसके पुष्प हैं, और मुक्ति-सम्पत्तिही जिस वृक्ष के फल हैं ॥९॥ ___ एकबार गमन करनेके दोष बताकर बारंबार गमन करनेके दोष कहते हैं - 'अणाययणे० इत्यादि । बेश्या-घरके समीप या ऐसेही अन्य अयोग्य स्थानोंमें बार बार गमन करनेवाले साधुके वेश्याको देखने आदि संसर्गसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंमें पीड़ा हो जाती है, अर्थात् व्रत दूषित हो જેનાં મૂળ છે, અહિંસા સત્યઅસ્તેય -અપરિગ્રહરૂપી ક્યારી છે, જે જ્ઞાન અને ક્રિયારૂપી થઇ વડે દૃઢ છે, સમિતિ-ગુપ્તિ આદિ શાખા-પ્રશાખા જેની ફેલાઈ રહી છે, અઢાર હજાર શીલાંગ જેનાં પાંદડાં છે, ધ્યાન જ જેનાં પુષ્પ છે અને મુક્તિસંપત્તિજ તે તરૂનાં ફળ છે. (૯) ४१।२ गमन ४२वाना होष सतावान वारपार गमन ४२वाना होषो मताव छे-अणाययणे त्यादि. વેશ્યાગૃહની સમીપે યા એવાજ અન્ય અગ્ય સ્થાનેમાં વારંવાર જવાવડે વેશ્યાને १ कूड़ा-करकट' 'कचरा' इति भाषा । શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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