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________________ अध्ययन ५ उ. २ गा ३४-३५ भिक्षापहारे दोषाः विधान्नादिषु प्रशस्तं प्रशस्तमेव घृतपूराऽपूपादिकं भुक्त्वा विवर्ण-विकृतवर्ण वल्लचणकादिनिष्पन्नं तुषादिबहुलं विरसं-लवणादिरसवर्जितमन्नादिकम् आहरेत् आनयेत् वसताविति शेषः ॥३३॥ एवं करणे किं प्रयोजनम् ? इत्याह-'जाणतु' इत्यादि । मूलम्-जाणंतु ता इमे समणा आययट्ठी अयं मुणी ७ ११ १० संतुट्ठो सेवइ पंतं लूहवित्ती सुतोसओ ॥३४॥ छाया--जानन्तु तावत् इमे श्रमणाः आत्मार्थी अयं मुनिः । सन्तुष्टः सेवते प्रान्तं, रूक्षवृत्तिः सुतोषकः ॥३४॥ वह ऐसा क्यों करता है इसमें कारण कहते हैं-- सान्बयार्थः - ता-प्रथम इमे-ये-उपाश्रयमें रहे हुए दूसरे समणा साधु (मुझे इस प्रकार) जाणंतु-जाने कि अयं यह मुणी साधु आययट्टी-मोक्षार्थी-आत्मार्थी है, संतलो जैसा मिला उसीमें संतोष करनेवाला लूहवित्ती-सरस स्निग्धादि आहारकी अभिलाषारहित सुतोसओ-थोड़े आहारसे भो संतोषी है और पंतं-वासी कुसी तथा निस्सार अन्नादिका सेवई-सेवन करता है ॥ ३४॥ टीका-तावत्-निश्चयेन इमे-मानसप्रत्यक्षविषया; उपाश्रयस्थाः श्रमणाः साधवः अयं मुनिः आत्मार्थी आत्महितार्थी सन्तुष्टः यथालब्धसन्तोषी रूक्षवृत्तिः सरसाऽनभिकाङ्क्षी मुतोषक: अल्पेनापि परितोषशीलः प्रान्तं पर्युषितं निस्सारं वाऽनादिकं सेवते इति मां जानन्तु।।३४॥ कदाचित् कोई रसलोलुपी साधु विविध प्रकारका पान-भोजन पाकर अच्छा भोजन भिक्षाचरीमें ही किसी एकान्त स्थानमें खावे, और बाल चणक आदि अन्त-प्रान्त तथा विनानमक मसालेका ठंडा आहार उपाश्रयमें ले आवे ॥३३॥ ऐसा करने का प्रयोजन कहते हैं-'जाणंतु' इत्यादि । ये उपाश्रयमें स्थित साधु मुझे ऐसा समझें कि-'यह साधु आत्मार्थी है, जैसा मिला उसी सन्तोषी है, सरस आहारकी आकांक्षा नहीं करता, थोड़े ही आहारसे सन्तुष्ट हो जाता है और साररहित ठंढा अन्त-प्रान्त आहारका सेवन करता है' ॥३४॥ કદાચિત કોઈ રસલુપી સાધુ વિવિધ પ્રકારનાં પાન-ભેજન મેળવીને સારું સારૂ ભેજન ભિક્ષાચરીમાં જ કેઈ એકાંત સ્થાનમાં ખાઈ લે અને વાલ ચણા આદિ અંત-પ્રાંત તથા મીઠા મરચા વિનાને નીરસ ઠંડો આહીર ઉપાશ્રયમાં લઈ આવે (૩૩) मेम ४२वानु प्रयास ४ छे.-जाणंतु० ७त्यादि આ ઉપાશ્રયમાં રહેલા સાધુ મને એવો માને કે-“આ સાધુ આત્માથી છે, જે આહાર મળે તમાં સતેષ માનનારે છે, સરસ આહારની આકાંક્ષા કરતા નથી થોડા જ આહારથી શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર : ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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