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________________ ३९४ श्रीदशवकालिकसत्रे नोपादेयमिति प्रकटितम् । 'दोषवज्जियं' इतिपदेन निर्दोषभिक्षाप्राप्तावपि मण्डलदोषवत्त्वेन सदोषत्वं दुर्निवारमिति मण्डलदोषरहितं भोक्तव्यमिति प्रादुष्कृतम् ॥९८॥१९॥ मूलम्-दुल्लहाओ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छंति सुग्गई ॥१०॥ ॥तिबेमि ॥ छाया--दुर्लभा मुधादातारः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः ।। मुधादातारः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ॥१००॥ इति ब्रबीमि ॥ सान्वयार्थः-मुहादाई = निष्काम-प्रत्युपकारी आशा न रखकर-देनेवाले दुल्ल. हाओ दुर्लभ हैं और मुहाजीवीवि-निष्काम-दाताके कार्यकी अपेक्षा न रखकर-निरपेक्षलेनेवाले भी दुल्लहा-दुर्लभ हैं, क्योंकि मुहादाई-निष्काम देनेवाले और मुहाजीवी= निष्काम निरपेक्ष लेनेवाले दोवि-ये पूर्वोक्त दोनों ही सुग्गइं-मोक्षगतिको गच्छंति= प्राप्त होते हैं। श्री सुधर्मास्वामो जम्बूस्वामीसे कहते हैं कि हे जम्बू ! ति = भगवान् श्रीमहाबीर स्वामीने जैसा फरमाया है वैसा ही तुझे बेमि = मैं कहता हूं ॥१०॥ ॥इति श्रीदशवैकालिक सूत्रके पांचवें अध्ययनके पहले उद्देश्यका सान्वयार्थ संपूर्ण ॥ टीका--'दुल्लहाओ इत्यादि । मुधादातारः = प्रत्युपकारानभिलाषिणो दायकाः दुर्लभाः= दुष्प्रापास्तादृशानां विरलत्वात् , मुधाजीवीनोऽपि = दातृकार्यानपेक्ष 'उप्पन्न' पदसे यह सूचित किया है कि गीतार्थ साधुको शास्त्रकी मर्यादा के अनुसार ही आहार ग्रहण करना चाहिए । 'फासुयं' पदसे सचित्त अचित्त की परीक्षा करके ग्रहण करना योतित किया है। 'मुहालद्वं' पदसे यह दर्शाया है को दाता का उपकार करके भिक्षा ग्रहण करने से आधाकर्म आदि बहुत से दोष आते हैं, अतः ऐसी भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । 'दोसवज्जियं' पदसे यह प्रगट किया है कि निर्दोष भिक्षा उपलब्ध हो जाने पर भी मण्डल दोष लगनेसे वह भिक्षा अवश्य दूषित हो जाती है। इसलिए उनका परिहार करके हो आहार करना चाहिए ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ 'दुल्लहाओ' इत्यादि । प्रत्युपकार ( बदला ) की आशा न रखनेवाले दाता दुर्लभ हैं, और दाताका कार्य न करके भिक्षा ग्रहण करनेवाले साधु भी विरले होते हैं । प्रत्युपकारकी चाह ४शन डाय ४२वानुमा भव्यु छे. महालद्धं शपथी से विवामा मान्यछ કે દાતાને ઉપકાર કરીને ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાથી આધાકમ આદિ ઘણું દોષ લાગે છે, तथा वा निक्षा नसेवी . दोसज्जियं श७४थी म भनाभा माव्यु । નિર્દોષ મિક્ષ ઉપલબ્ધ થતાં પણ મંડલ દોષ લાગવાથી એ ભિક્ષા અવશ્ય દૂષિત થઈ જાય છે, તેથી એને પરિહાર કરીને જ આહાર કરવો જોઈએ. (૯૮-૯૯) दुल्लहाओ० त्याहि निम-प्रत्यु५४१२ (481) नी साशन मनाहात gee છે અને નિષ્કામ--દાતાનું કાર્ય કર્યા વિના ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર-સાધુ ષણ વિરલ જ હોય TI શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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