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________________ २१६ श्रीदशवैकालिफसूत्रे अधिक स्पर्श न करे, न आवीलिज्जा पीडित न करे, न पवीलिज्जा-अधिक पीडित न करे, न अक्खोडिज्जा-स्फोटन न करे, न पक्खोडिज्जा-प्रस्फोटन न करे, न आयाविज्जा-तपावे नहीं, न पयाविज्जा-अधिक तपावे नहीं, अन्नं-दूसरेसे न आमुसाविज्जा-जराभी स्पर्श न करावे, न संफुसाविज्जा=अधिक स्पर्श न करावे, न आवीलाविज्जा-पीडित न करावे, न पवीलाविज्जा-अधिक पीडित न करावे, न अक्खोडाविज्जा-स्फोटन न करावे, न पक्खोडाविज्जा प्रस्फोटन न करावे, न आयाविज्ना= तपवावे नहीं, न पयाविज्जा=अधिक तपवावे नहीं, आमुसंत वा-जराभी म्पर्श करनेवाले संफुसंत वा अधिक स्पर्श करनेवाले आवीलंत वा=पीडित करनेवाले पवीलंतं वा अधिक पीडित करनेवाले अक्खोडंत वा-स्फोटन करनेवाले पक्खोडंतं वा अस्फोटन करनेवाले आयावंतं वा तपानेबाले पयावंतं वा=अधिक तपानेवाले अन्नं-दूसरेको न समणुजाणिज्जा भला न समझे । जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए-वचनसे कारणं कायसे न करेमि-न करूँगा, न कारवे मिन कराऊँगा, करंतंपि = करते हएभी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा। मंते ! हे भगवन् ! तस्सउस दण्डसे पडिक्कमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि= गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको बोसिरामि = त्यागता हूँ ॥२॥१६॥ (२) अप्काययतरा । टोका–स भिक्षुर्वेत्यादि पूर्ववत् । उदकं = प्रसङ्गात्कूपादिजलम् भूगर्भोद्गतस्रोतोजलमित्यर्थः, अवश्यायं = मेघमन्तरेण रात्रौ पतितं सूक्ष्मतुषाररूपमप्कायम् । हिम = शीतत्तौं शीताधिक्येन घनीभूतमपूकायम् -'बर्फ' इति लोके प्रसिद्धम् । मिहिका हेमन्तशिशिरयोः कदाचित्र सान्द्रतया धूमवत्प्रतिभासमानस्वरूपां कुज्झटिकाम् ' अर' इति अब अप्कायको यतनाका प्रतिपादन करते हैं-'से भिक्खू.' इत्यादि । (२) अप्काययतना । भिक्षु और भिक्षुकी आदि पदोंका अर्थ पहले की भाँति समझना चाहिए। कुएका पानी अर्थात भूमिमें सोता (झरना)से निकलनेवाला जल, ओस,पाला, कुहरा (धू अर), क्षाला (गड़ा), हरतनु (भूमिको भेद कर गेहूँ आदिके अंकुरोंपर जमनेवाले जलबिन्दु), वर्षाका निर्मल जल, इन हमायनी यतनानु प्रतिपाइन रे छ से भिक्खू' त्यहि (२) म ययतना. ભિક્ષ અને ભિક્ષુકી ખાદિ શબ્દનો અર્થ પહેલાંની પેઠે સમજવો. કુવાનું પાણી અર્થાત ભૂમિમાં ત (ઝરણુ) થી નીકળતું જળ, એસ, ઠાર, ઝાકળ, કરા, હરતનું (મિને ભેદીને ઘઉં આદિના અંકુરો ઉપર જામનારા જલબિન્દુબે) વરસાદનું નિર્મળ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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