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________________ २१८ श्रीदशवैकालिकसूत्रे न समणुजाणामि ! तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥३॥१७॥ __ छाया—स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा, सः अग्नि वा अङ्गारं वा मुर्मुरं वा अचिर्वा ज्वालां वा अलात वा शुद्धाग्निं वा उल्का वा नोसिञ्चेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यान्नोज्जालयेन्न प्रज्यालयेन्न निर्वापयेद्, अन्येन नीत्सेचयेन्न घट्टयेन्न भेदयेन्नोज्ज्वालयेन्न प्रज्वालयेन्न निर्वापयेद् अन्यमुत्सिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा उज्ज्वालयन्तं वा प्रज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जोवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥३॥१७॥ (३) तेजस्काययतना. सान्वयार्थः-संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारों से रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी, सेवह पूर्वोक्त भिक्खू वासाधु भिक्खुणी वा-अथवा साध्वी; दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें; एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित, सुत्ते वा सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से वह अगणि वा-अग्निको इंगालं वा-अंगारेको मुम्मुरं वा-मुमर-भू भूदर-(तुषाग्नि) को अच्चि वा-ज्योति-मूलाग्निसे विच्छिन्न ज्वालाको, जालं वा-मूलाग्निसे अविच्छिन्न जलती हुई ज्वालाको, अलायं वा जिसका अग्रभाग जल रहा हो ऐसे काठको, सुद्धागणिं वा-शुद्ध अग्नि-लोहा पिण्ड में संबद्ध अग्नि अथवा बिजलीरूप अग्निको, उक्कं वा-चिनगारियोको न उंजेज्जा-इंधन डाल कर अग्निको बढावे नहीं, न घटेज्जा-चलावे नहीं, न भिंदेजाभेदे नहीं, न उज्जालेज्जा-थोडाभी जलावे नहीं, न पज्जालेज्जा-प्रज्वलित करे नहीं, न निव्यावेज्जा-बुझावे नहीं, अन्नं दुसरेसे न उंजावेज्जा बढवावे नहीं, न घडावेज्जा-चलवावे नहीं, न भिंदावेज्जा-भिदावे नहीं न उज्जालावेज्जान जलवावे, न पज्जालावेज्जा-न प्रज्वलित करावे, न निव्या वेज्जान बुझावावे, उंजंतं वा-बढानेवाले घट्टतं वा-चलानेवाले भिदंतं वा भेदनेवाले उज्जालंत वा जलानेवाले पज्जालंत वा-प्रज्वलित करनेवाले निव्वावंतं वा-बुझानेवाले अन्नं= दूसरेको न समणुजाणिज्जा-भला न समझे । जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त ( इसको) तिविहं-कृत-कारित-अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं= मनसे वायाए-वचनसे कारणं = कायसे न करेमि = न करूँगा, न कारवेमि = न कराऊँगा, करंतंपि-करते हुएको भी अन्न-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझुगा। भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिक्कमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि = आत्म શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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