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________________ ३०८ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ( अथवा ) गयं = हाथी हो (तथा) संडिब्भं = जहां बच्चे खेल रहे हो कलहं - परस्पर बायुद्ध गाली-गलोच होरहा हो जुद्ध-शस्त्र आदिसे युद्ध होता हो (ऐसे स्थानको साधु) दुरओ-दूर से ही परिवज्जए - वर्जे, अर्थात् ऐसी जगह साधु कदापि गोचरी नहीं जावे । भावार्थ - ऐसे स्थान में गोचरी जाने से कुत्ते आदिके कारखाने आदिकेकारण तथा पात्रे फूटजाने आहार गिरजाने आदि अनेक प्रकारसे संयम और आत्मा दोनोंकी विराधना होती है ॥ १२॥ " टीका -- श्वानं कुक्कुरं 'दृप्त' - मितीहाऽपकृष्य सम्बध्यते, तथाच दृप्तम् = उद्धतं दंशनस्वभावम् उन्मादिनं वेत्यर्थः, नवप्रसूतशून्या अप्युपलक्षणमेतत् । स्वतां = नवप्रसूतां गां = सौरभेयीं, नवप्रसूतमहिष्या अप्युपलक्षणाद् ग्रहणम्, दृप्तं = चण्डस्वभावं गोण= घृषभं, हयं = घोटकं, गजं = हस्तिनं च, संडिन्भं = शिशुक्रीडनस्थानं, कलहं = वाग्युद्धं, युद्धम् = दण्डादण्डि-शस्त्राशस्त्रि-प्रभृतिकम् दूरतः परिवर्जयेत्, आत्मसंयमोभयविराधनाहेतुत्वात् ॥ १२ ॥ गमनप्रकारमाह- 'अणुन्नए' इत्यादि । २ 3 १ मूलम् - अणुन्नए नावणए अपट्टे अणाउले । ६ ७ ५ इंदियाइ जहाभागं दमइत्ता मुणी चरे ॥१३॥ छाया --अनुन्नतो नावनतोऽप्रहृष्टोऽनाकुलः । इन्द्रियाणि यथाभागं, दमयित्वा मुनिश्चरेत् ॥ १३॥ गोचरी में घूमते हुए साधु को किस प्रकार की चेष्टा रखनी चाहिये सो बताते मार्ग की यतना को विशेषरूप से बताते हैं - ' साणं' इत्यादि । जहाँ उन्मत्त (पागल - हड़ क्या) या काटनेवाला कुत्ता, नयी बियाई हुई (प्रसूता ) कुतिया, नवप्रसुता गाय या नव प्रसूता भैंस आदि, मदोन्मत्त बैल, घोड़ा हाथी हों उस स्थानको, तथा बच्चों खेलने, कलह (मुँहकी लडाई) के और युद्ध (शस्त्रकी लड़ाई) के स्थान को साधु दूरसे त्यागे । अर्थात् जहाँ ये सब हों वहाँ न जावे-दूर ही रहे, क्योंकि इससे आत्मविराधना होती है ।॥ १२ ॥ માગ ની યતનાને વિશેષરૂપે બતાવે છે. સાળં॰ ઇત્યાદિ. उन्मत्त ( गांड-उडायो ) अथवा उरडना। इतरे, नवी वीयायसी ( प्रसूता ) કૂતરી, નવપ્રસૂતા ગોય યા નવપ્રસુતાં ભેંશ આદિ, મદોન્મત્ત મળદ ઘેાડા હાથી ઇત્યાદિ હોય તે સ્થાનને, તથા ખળકાએ રમવાના, કલહ ( મ્હાંની લડાઈ) ના અને યુદ્ધ (શસ્ત્રની લડાઈ) ના સ્થાનને સાધુ દૂરથી જ ત્યાગે; અર્થાત્ જ્યાં એ બધાં હોય ત્યાં ન જાય-દૂર જ રહે, કારણ કે તેથી આવિરાધના, સયવિરાધના અને ઉભયવિરાધના થાય છે (૧૨) શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્ર ઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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