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________________ अध्ययन ५ उ.१ गा० ८७-८८ उपाथाश्रयोगतस्य भोजनविधिः ३८३ मूलम्-सिया य भिक्खू इच्छिज्जा, सिज्जमागम्म भुत्त । सपिंडपायमागम्म उंडअं से पडिलेहिया ॥८७॥ विणएणं पविसित्ता सगासे गुरुणो मुणी। इरियावहियमायाय आगओ य पडिक्कमे ॥८॥ १६ .. १५ १९ छाया--स्याच्च भिक्षुरिच्छेत् , शय्यामागम्य भोक्तम् । सपिण्डपातमागम्य, उन्दुकं से (तत्र) प्रत्युपेक्ष्य ॥८७।। विनयेन प्रविश्य, सकाशे गुरोमुनिः। ऐयापथिकीमादाय, आगतश्च प्रतिक्रामेत् ॥८॥ सान्वयार्थ:--सिया य=अगर भिक्खू-साधु सिज्ज वसति उपाश्रयमें ही आगम्म आकर भुत्तुउ-आहार करना इच्छिज्जा-चाहे तो सपिंडवाय-भिक्षाके सहित आगम्भआकर विणएणं = मत्थरण वंदामि निस्सीहि' इस प्रकार बोलनेरूप विनय से पविसित्ता उपाश्रयमें प्रवेश करके से वहां उंडुयं = भोजनके स्थानको पडिले हिया = अच्छी तरह देखकर गुरुणो रत्नाधिक के सगासे = समीप आगओ य = आया हुआ मुणी = मुनि इरियावहियं-इरियावहियाका पाठ आयाय 3 लेकर पढकर पडिक्कमे = कायोत्सर्ग करे तात्पर्य यह है कि प्रबल पिपासा आदि खास कारण के विना तो उपाश्रमें आकर ही साधुको आहार करना चाहिये किन्तु गृहस्थके घर में नहीं करे ॥८७॥८८॥ टोका-सिया य' इत्यादि, 'विणएणं' इत्यादि च । भिक्षुः = वाधुः शय्यां वसति स्यात् = एव आगम्य भोक्तुमिच्छेत् । अत्र स्यादित्यव्ययमवधारणार्थ तेन प्रबलपिपासादिकारणाभावे वसतिं विहायाऽन्यत्र न भोक्तव्य' मिति तात्पर्य गम्यते । तदा सपिण्डपातं =पिण्डपातो-भिक्षालाभस्तेन सहाऽऽगम्य विनयेन = "मत्थएण वंदामि निस्सीहि" इतिपठनलक्षणेन प्रविश्य उपाश्रयमिति शेषः, से = यद्वा से शब्दो मगधदेशप्रसिद्धः 'तत्र' 'सिया य इत्यादि, 'विणएणं' इत्यादि । साधु उपाश्रयमें आकर ही आहार करनेकी इच्छा करे । यहाँ 'स्यात् अव्यय निश्चय बोधक है इससे यह तात्पर्य प्रगट होता है कि पिपासा आदि किसी प्रबल कारणके विना उपाश्रयके सिवाय अन्यत्र आहार नहीं करना चाहिए । अत एव भिक्षा लाकर "मत्थएण वंदामि निस्सीहि ?' यह पाठ उच्चारण करके उपाश्रयमें प्रवेश करे फिर सिया य० त्याल, तथा विणपणं इत्याहि. साधु उपाश्रयमा भावान माहार १२. पानी छ। रे, सही स्यात् भव्यय निश्चयमा५४ छ, तथा से तात्पर्य याय छ । તરસ આદિ કઈ પ્રબળ કારણ વિના ઉપાશ્રય સિવાય અન્યત્ર આહાર ન કરવું જોઈએ. थेट भिक्षा सावीन मत्थएण वदामि निस्सीहि मे 48 स्यारी२ उपाश्रयमा प्रवेश रे. પછી ભોજન કરવાના સ્થાનની સમ્યક્ પ્રકારે પ્રતિલેખના કરીને દીક્ષામાં મોટા મુનિની શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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