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________________ १७२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे मुख गमन होता है, पडिक्कंतं-अतिकूल गमन होता है, 'संकुचियं – शरीरमें संकोचसिकुडन होता है पसारियं=शरीरमें फैलाव होता है, रुय-शब्द का प्रयोग होता है, भंतं =इधर-उधर भ्रमण होता है, तसियं-उद्योग होता है, पलाइयं-डरसे भागना देखा जाता है, ( वे त्रस )आगइगइविन्नाया-आगमन और गमन को जाननेवाले, य-और जे-जो कीडपयंगा-कीड-कोडे और पयंगा-पतंगिये हैं, य और जा-जो कुंथुपिवीलिया कुंथवा और चींटियाँ हैं, वे सव्वे बेइंदिया= सब द्वोन्द्रिय सव्वे तेइंदिया सब त्रीन्द्रिय सव्वे च. उरिदिया= सब चार इन्द्रियवाले सव्वे पंचिंदिया सब पञ्चेन्द्रिय सव्वे तिरक्खजोणिया सब तिर्यश्चगतिवाले सव्वे नेरइया सब नारकी सव्वे मणुया सब मनुष्य सुव्वे देवा-सब देव सव्वे-पूर्वोक्त सब पाणा-प्राणीमात्र परमाहम्मिया सुखके अभिलाषी हैं । एसो-यह खलु= निश्चय करके छट्ठो-छठा जीवनिकाओ-जीवनिकाय तसकाउत्ति-"त्रसकाय" ऐसा पउच्चइ कहा जाता ह ॥६॥ टीका-'से' स्थावरपञ्चकनिरूपणान्तरं पुनः इमे वक्ष्यमाणभेदाः अनेके द्वीन्द्रियादिभेदेनाऽनेकप्रकाराः बहवः-एककस्था जातो प्रचुरा भिन्नयोनयो वा त्रसाःसनामकर्मोंदयात् , त्रस्पन्ति आतपाद्यभिपीडिता उद्विजन्ते प्रच्छायशीतलं स्थलं प्रयान्ति वेति तथोक्ताः'प्राणन्ति-जोवन्त्येभिरिति, प्राण्यन्ते जीव्यन्ते प्राणिन एभिरिति वा (प्रोपसृष्टादनितेः, अण्यतेर्वा करणे घञ् ) प्राणा: उच्छ्वासादयस्ते सन्त्येषामिति प्राणः प्राणिन इत्यर्थः, तद्यथा अण्डे = पक्ष्यादिप्रादुर्भावककोषे जायन्ते-उत्पद्यन्ते इत्यण्डजाः = पक्षि-सदः । पोता एव जाता पोतनाः न जरायबादिना वेष्टिताः पूर्णावयवयोनिनिर्गतमात्रा अब क्रमप्राप्त त्रसकायका स्वरूप कहते हैं-'से जे' इत्यादि । जो ये आबालप्रसिद्ध द्वीन्द्रिय आदिभेद से अनेक, एक एक जाति में बहुत से अथवा भिन्न-भिन्न योनि वाले आतप(गर्मी) आदि से पोडित होने पर त्रास (उद्वेग) पाने वाले, अथवा छायादार शीतल और निर्भय स्थल में चले जाने वाले, व्यक चेतनावान्, उच्छ्वास आदि प्राणवाले त्रास कहलाते हैं, उनके भेद इस प्रकार है पक्षो सर्प आदि अण्डज हैं (') जरायु से वेष्टित न होना योनि से निकलते ही गमन-आग मन आदि क्रियाएँ करनेकी सामर्थ्य से युक्त पूर्ण अवयववाले, या वस्त्रसे पोंछे हुएके समान साफ व उभप्रात सायनु स्१३५ ४ छे. 'से जे छत्याह. જે એ અબાલ-પ્રસિદ્ધ કન્દ્રિયાદિના ભેદે કરીને અનેક, એક એક જાતિમાં ઘણા અથવા ભિન્ન-ભિ નિવાળા, ગરમી આદિથી પીડિત થતાં ત્રાસ (ઉદ્વેગ) પામનારા, અથવા છાયાવાળા શીતળ અને નિર્ભય સ્થળમાં ચાલ્યા જનારા, વ્યક્ત ચેતનાવાન્ ઉચ્છવાસ આદિ પ્રાણવાળા ત્રસ કહેવાય છે, તેના ભેદ આ પ્રકારે છે પક્ષી સર્ષ આદિ અંડજ છે (૧). જરાયુથી વેષ્ટિત ન હઈને નિમાંથી નીકળતાં જ ગમનાગમન આદિ ક્રિયા કરવાના સામર્થ્યથી યુક્ત પૂર્ણ અવયવવાળા. યા વસ્ત્ર દ્વારા १. प्रसेः पचाद्यच' २ 'अर्शआदित्वादच्' શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૧
SR No.006367
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages480
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size27 MB
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